Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jose स्व०पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकट मुनि अनुयोगदारसूत्र मूल अलवा विचका द्विप्राण-पशिष्ट व्यक्त wwwaraty og Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत उपप्रवर्तक तपोधन श्री सुदर्शन मुनि जैन आगम धर्म, दर्शन एवं आध्यात्मिक उच्चबोध के अपूर्व स्रोत तो हैं ही साथ ही भूगोल, खगोल, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास प्रादि नाना ज्ञान विज्ञान के अनुपम भण्डार हैं। वर्तमान परिस्थिति में बदलते परिवेशानुसार आगमों पर प्रामाणिक, सारगर्भित, समालोचनात्मक एवं तुलनात्मक विवेचन की महती आवश्यकता थी। इस महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति की है-भागमविद्या के पारंगत मनीषी जैन तत्त्व के परम निष्णात् विद्वान् महान् साधक स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज ने। उनकी इस महान देन के लिए समाज सदा उनका ऋणी रहेगा। यह कार्य उनके कीर्ति स्तम्भ के रूप में उनकी स्मति को सदैव स्थायी बनाये रखेगा / उनके इस महान् उपकार के लिए उनका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए अतीव हर्षानुभूति हो रही है / इस पवित्र कार्य में तन, मन, धन से सहयोग देने वाले महानुभावों का सहयोग भी प्रशंसनीय है। श्री आगम प्रकाशन समिति द्वारा अल्प समय में प्रकाशित सुन्दर स्पष्ट एवं टिकाऊ बागम ग्रन्थों को देखकर मन बहुत प्रसन्न है / समिति के बहुतबहुत साधुवाद के साथ प्राशा है कि शेष मागम शीघ्र ही पढ़ने को मिलेंगे। परम पूजनीय, उपप्रवत्तंक, तपोधन सम्राट् श्री सुदर्शन मुनिजी महाराज श्री महावीर जैन भवन अम्बाला शहर Jain Edralinis Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LALIT C. SHAH ॐ अहं जिनामम-प्रत्यमाला : ग्रन्थाङ्क 28 [ परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में प्रायोजित ] श्री आर्यरक्षितस्यविरविरचित अनुयोगद्वारसूत्र [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त] प्रेरणा [ उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्रीब्रजलालजी महाराज श्राद्यसंयोजक-प्रधानसम्पादक - (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचक " उपाध्याय श्री केवलमुनिजी सम्पादक / देवकुमार जैन मुख्यसम्पादक 0 पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक 3 श्री आगमप्रकाशन-समिति, व्यावर (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Fourth Upanga ANUYOGADVARASUTRA [Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi (Late) Swami Sri Brijlalji Mabaraj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Translator & Annotator Upadhyaya Sri Kewal Muniji Sub Editor Dev Kumar Jain Cbief Editor Pt. Shobhachandra Bharill Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्पमाला : पन्थाङ्क: 28 निर्देशन साध्वी श्री उमराबकुवर 'अर्चना' D सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमान शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्स 0 प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' 10 सम्प्रेरक मुनिश्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' 0 प्रकाशन तिथि वीरनिर्वाण संवत् 2513 वि. सं. 2044 ई. सन् 1987 0 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन-समिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, च्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ मूल्यको रुपये 62) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 28 Direction Sadhwi Umravkunwar Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharili Managing Editor Srichand Surana 'Saras' ( Promotor Munisri Vinayakumar Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar ? Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2513 Vikram Samvat 2044; July, 1987 O Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) india Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Price FREE 50 621 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अनुयोगद्वारसूत्र जैन आगमों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इसमें प्रतिरादित विषय अन्य प्रागमों में प्ररूपित विषयों से बहत अंशों में भिन्न हैं, अतएव विशिष्ट जिज्ञास जनों के लिए इसका अध्ययन और मनन भी विशेष उपयोगी है। प्रमोद का विषय है कि प्रागमप्रकाशन की कड़ी में समिति इस ग्रागम को पाठकों के करकमलों में पहुँचा रही है। अागमों की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना के देखन में माहित्यवाचस्पति विद्वट्टर उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. का बहुमूल्य सहयोग समिति को प्रारंभ से ही प्राप्त रहा है। सचाई यह है कि आपका महयोग भी आगमप्रकाशन की त्वरित गति का एक प्रधान कारण रहा है। साधुसम्मेलन पुना में सम्मिलित होने के लिए सुदूर विहार करते हुए भी नापने प्रस्तावनालेखन के हमारे अनुरोध को विस्मृत नहीं किया। शब्दों द्वारा प्रापका आभार व्यक्त करना संभव नहीं है। पर्ण विश्वास है, आगे भी इसी प्रकार आपका सहयोग प्राप्त होता रहेगा। प्रस्तुत पागम के अनुवादक-विवेचक श्रमणसंघ के उपाध्याय बिद्वान श्रेष्ठ प्रवक्ता श्री केवल मुनिजी म. का नाम कौन नहीं जानता ? अापकी ओर से समिति को जो महत्वपूर्ण योगदान प्राप्त हुआ है, वह मुक्त कंठ से सराहनीय ही नहीं स्तुत्य भी है। साथ ही जिन विद्वानों के सहयोग ने अन्य के प्रकाशन, सम्पादन, संशोधन में सहयोग प्रदान किया है, उन सभी के प्रति हम आभारी हैं। अनुयोगद्वार प्रागमग्रन्थमाला का २८वां ग्रन्थ है। इसके पश्चात जीवाजीवाभिगम, छेदसूत्र और चन्द्र-सूर्य काशन शेष रहता है / कतिपय अनिवार्यतामों के कारण इनके प्रकाशन में कुछ विलम्ब होने को संभावना है, तथापि प्रयास यही है कि यथासंभव शीन बत्तीसी का प्रकाशन परा किया जा सके / कतिपय प्रागमों के पनाकार प्रकाशन की योजना भी समिति के समक्ष है। उसे भी कार्यान्वित करने का प्रयास चालू कर दिया गत खाचरौद अधिवेशन में निर्णय लिया गया है कि प्रागम बत्तीसी की उपलब्धि को अक्षण्ण रखा जाए और जो पागम समाप्त हो जाएँ उनका पुन: मुद्रण कराया जाए। इस निर्णय के अनुसार प्रागमप्रकाशन का कार्य भविष्य में भी निरन्तर चाल रहेगा और प्रागमप्रकाशन समिति स्थायी रूप ग्रहण करेगी। अतएव निवेदन है कि जिन सदस्य महानुभावों ने अपनी किश्तें अभी तक नहीं भेजी हैं, वे कृपया शीघ्र भेजकर इस पुनीत योजना के कार्यान्वयन में पुण्य के भागी बनें। रतनचंद मोदी सायरमल चौरडिया चांदमल बिनायकिया कार्यवाहक अध्यक्ष प्रधानमंत्री मंत्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकथ्य श्रमण भगवान महावीर द्वारा भाषित और गणधरों आदि द्वारा संकलित अंग, उपांग, आगमों से यह अनुयोगद्वारसूत्र अपनी वर्णनशैली और बर्ण्य विषय की दृष्टि से भिन्न है। समस्त प्रागमों के प्राशय और उसकी व्याख्या को समझने की कुजो रूप होने से इसका अनूठा ही स्थान है। इसमें प्राध्यात्मिक विचारों की विवेचना की अपेक्षा दार्शनिक दृष्टि प्रमुख होने से इसे उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिये मार्गनिर्देशक शास्त्र कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो शास्त्र-व्याख्याताओं के लिये यह सूत्र प्रशिक्षण (Training) देने वाला है। अनुयोग का अर्थ 'अनुयोग' अनु और योग शब्दों का यौगिकरूप है। इसका सामान्य अर्थ है-शब्द का उसके अर्थ के साथ योग-सम्बन्ध जोड़ना / लेकिन प्रत्येक शब्द मूल में एक होते हए भी अनेकार्थक है। वे अर्थ उसमें गभित हैं। अतः यथाप्रसंग शब्द और निश्चित अर्थ की संयोजना अनुयोग कहलाता है। आगमों में अनुयोग की चर्चा नन्दी और समवायांग सूत्र में जो भागमों का परिचय दिया है, उसमें प्राचारांग प्रादि आगमों के संख्येय अनुयोगद्वार हैं, यह उल्लेख है / स्थानांगसूत्र में द्रव्यानुयोग के दस प्रकार बताये हैं / भगवतीसूत्र में अनुयोगद्वारसूत्रगत अनुयोगद्वार के चार मूल द्वारों में से नयविचारणा का विस्तार से वर्णन किया है। इस संक्षिप्त संकेत से यह कहा जा सकता है कि भगवान महावीर के समय में सूत्र की व्याख्या करने की जो विधा थी, उस सबका समावेश रूप-एक परिपक्वरूप अनुयोगद्वारसूत्र है। __ अनुयोगद्वारसूत्र में स्वीकृत व्याख्यापद्धति का परिज्ञान तो पाठक स्वयं इस शास्त्र के अध्ययन से कर लेंगे कि व्याख्येय शब्द का निक्षेप करके उसके अनेक अर्थों का निर्देश कर उस शब्द का प्रस्तुत में कौन सा अर्थ ग्राह्य है, यह शैली अपनायी है। इसी शैली का अनुसरण वैदिक और बौद्ध-साहित्य में किया गया है, जो अनेक ग्रंथों को देखने से स्पष्ट हो जाता है / किन्तु विस्तारभय से उस सबका यहाँ उल्लेख किया जाना संभव नहीं है। अनुयोगद्वारसूत्र के कर्ता इस सूत्र के कर्ता स्थविर आर्यरक्षित माने जाते हैं। यह इस आधार पर माना जाता है कि आर्य वन तक तो जिस किसी भी सूत्र का अनुयोग करना होता उसको चरणकरणानुयोग आदि चारों अनुयोग सम्बन्धी मानकर व्याख्या की जाती थी, परन्तु समयपरिवर्तन को लक्ष्य में लेकर दीर्घद्रष्टा स्थविर पार्यरक्षित ने अनुयोग का पार्थक्य किया, तब से किसी भी सूत्र का सम्बन्ध चारों अनुयोगों में से किसी एक अन्योग से जोड़ कर अर्थ किया जाने लगा / इसीलिए इसके कर्ता स्थविर आर्यरक्षित माने जाते हैं / लेकिन पाचारांग आदि ग्रागमों के परिचय का जैसा पूर्व में उल्लेख किया गया है, उससे स्पष्ट है कि इसके मूल उपदेष्टा श्रमण भगवान् महावीर हैं और उसी प्राधार से स्थविर आयरक्षित ने अनुयोगद्वारसूत्र का निर्यहण (दोहन) किया। इसीलिए कर्ता के रूप में स्थविर आर्यरक्षित का पुण्य-स्मरण किया जाने लगा। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार स्वकथ्य का अंतिम चरण उपसंहार है। इसमें पूर्वोक्त संक्षिप्त विचारों का संक्षेप में दुहराना योग्य नहीं है। अतः सर्वप्रथम स्व. विद्वद्वर्य युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. का एवं उनकी दूरदर्शी श्लाघनीय प्रतिभा का अभिनंदन करता हूँ कि उनकी प्रेरणा से पागम वाङमय सर्वजनसुलभ हो सका / मुझे हर्ष है कि से माध्यम से प्रस्तुत अनुयोगद्वारसूत्र द्वारा इस प्रकाशन में सहयोग देने की आकांक्षा की पूर्ति का अवसर प्राप्त हा / समिति के प्रबन्धकों को साधुवाद है कि स्वर्गीय युवाचार्यश्री द्वारा निर्धारित प्रणाली के अनुसार वे प्रागम-साहित्य के प्रकाशन में संलग्न हैं। वयोवृद्ध एवं ज्ञानवद्ध पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल के प्रति प्रमोदभाव व्यक्त करता है कि वे अपनी विद्वत्ता को सुनियोजित कर पागमों को जनगम्य बनाने के लिये प्रयत्नशील हैं। __ अंत में मैं अपने सहयोगी श्री देवकुमारजी जैन की प्रात्मीयता का स्मरण करता हूँ कि इस जटिल मानेजाने वाले सूत्र को सुसंपादित करने एवं सुगम से सुगमतर बनाने में अपनी योग्यता, बुद्धि का पूरा-पूरा योग दिया है। उनके श्रम का सुफल है कि शास्त्रगत भावों को इतना स्पष्ट कर दिया कि वे सर्वजनहिताय सरल, सुबोध हो सके। इसी संदर्भ में एक बात और स्पष्ट कर देता है कि शास्त्रगत भावों को स्पष्ट करने में पूर्ण विवेक रखा है, फिर भी कहीं स्खलना हो गई हो तो पाठक क्षन्तव्य मानकर संशोधित और सूचित करने का लक्ष्य रखेंगे / कि बहुना ! केवल मुनि अहमदनगर 15-4-1987 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम मंगलाचरण अभिधेयनिर्देश 0 आवश्यकनिरूपण यावश्यक पद के निक्षेप की प्रतिज्ञा आवश्यक के निक्षेप नामस्थापना-यावश्यक आगमद्रव्य-यावश्यक भागमद्रव्य-पावश्यक और नय दष्टियाँ नोग्राममद्रव्य-प्रावश्यक नोभागमज्ञायकशरीर द्रब्यावश्यक नोआगमभव्य शरीर द्रव्यावश्यक ज्ञायकशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त-द्रव्यावश्यक लौकिक द्रव्यावश्यक कूप्राब चनिक द्रव्यावश्यक लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक भावावश्यक आगमभावावश्यक नोपागमभावावश्यक लौकिकभावावश्यक कुप्राकवनिक भावावश्यक लोकोत्तरिक भावावश्यक आवश्यक के पर्यायवाची नाम 0 x orm.xxr99. श्रुतनिरूपण श्रत के भेद नाम और स्थापनाश्रुत द्रव्यश्रुत के भेद मागमद्रव्यश्रत an [8] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोग्रागमद्रव्यश्रुत ज्ञायक्रशरीरद्रव्यश्रुत भव्यशरीरद्रव्यश्रुत जशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुत भावश्रुत नोमागमभावश्रुत लोकिकभावश्रुत लोकोत्तरिकभावश्रुत श्रुत के नामान्तर mr Mr ormxWr UU mr r r स्कन्धनिरूपण स्कन्ध-निरूपण के प्रकार नाम-स्थापना स्कन्ध द्रव्यस्कन्ध नोमागमद्रव्यस्कन्ध मायकशरीर-द्रव्यस्कन्ध नोप्रागम-भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध जायक शरीर-भव्य शरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध सचित्तद्रव्यस्कन्ध अचित्तद्रव्यस्कन्ध मिश्रद्रव्यस्कन्ध ज्ञायक शरीर-भव्य शरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध का प्रकारान्तर से प्ररूपण कृत्स्नस्कन्ध अकृत्स्नस्कन्ध अनेकद्रव्यस्कन्ध भावम्कन्धनिरूपण स्कन्ध के पर्यायवाची नाम प्रावश्यक के प्राधिकार और अध्ययन उपक्रमनिरूपण अनुयोगद्वार-नामनिर्देश उपक्रम के भेद और नाम-स्थापना उपक्रम द्रव्य उपक्रम सचित्तद्रव्योपक्रम अचित्तद्रव्योपक्रम Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रद्रव्योपक्रम क्षेत्रोपक्रम कालोयक्रम भावोपक्रम उपक्रमवर्णन की शास्त्रीय दृष्टि xxxx आनुपूर्वीनिरूपण प्रानुपूर्वी निरूपण नाम-स्थापना आनुपूर्वी द्रव्यानुपूर्वी नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनोपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी के भेद नंगम-व्यवहारमयसम्मत अर्थपदप्ररूपणा और प्रयोजन नैगम-व्यवहार नयसम्मत भंगसमुत्कीर्तन और उसका प्रयोजन नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता समवतारप्ररूपणा अनुगमप्ररूपणा सत्पदप्ररूपणा द्रव्यप्रमाण क्षेत्रप्ररूपणा स्पर्शनाप्ररूपणा कालप्ररूपणा अन्तरप्ररूपणा nxn Toद दर 0.KOM भागप्ररूपणा भावप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा संग्रहनयसम्मत अनोपनिधिकी द्रव्यानपूर्वीप्ररूपणा संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता एवं प्रयोजन संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता एवं प्रयोजन संग्रहनयसम्मत भंगोपदर्शनता समवतारप्ररूपणा संग्रहनयसम्मत अनुगमप्ररूपणा सत्पदप्ररूपणा संग्रहनयसम्मत क्षेत्रप्ररूपणा संग्रहनयसम्मत स्पर्शनाप्ररूपणा संग्रहनयसम्मत काल और अन्तरप्ररूपणा संग्रहनयसम्मत भागप्ररूपणा [10] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहनयसम्मत भावप्ररूपणा प्रोपनिधिको-द्रव्यानुपूर्वी निरूपण पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी औपनिधिको-द्रव्यानुपूर्वी का दूसरा प्रकार पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकार नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनोपनिधिको क्षेत्रानपूर्वी नंगम-स्यबहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणा और प्रयोजन नंगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी भंगसमुत्कीर्तनता एवं प्रयोजन नेगम-व्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता नै गम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानी की समवतारप्ररूपणा नैगम-स्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वी अनुगम प्ररूपणा अनुगमसंबन्धी सत्पदप्ररूपणता अनुगमसंबन्धी द्रव्यप्रमाण क्षेत्रानुपूर्वी को अनुगमान्तर्वर्ती क्षेत्रप्ररूपणा अनुगमगत स्पर्शनाप्ररूपणा अनुगमगत कालप्ररूपणा अनुगमगत अन्तरप्ररूपणा अनुगमगत भागप्ररूपणा अनुगमगत भावप्ररूपणा अनुगमगत अल्पबहुत्वप्ररूपणा संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिको क्षेत्रानपूर्वीप्ररूपणा ग्रोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी की विशेष प्ररूपणा अधोलोक्क्षेत्रानुपूर्वी तिर्यम् (मध्य) लोक क्षेत्रानुपूर्वी ऊर्ध्व लोकक्षेत्रानुपूर्वी प्रोपनिधिको क्षेत्रानपूर्वी के वर्णन का द्वितीय प्रकार कालानुपूर्वीप्ररूपणा नंगम-व्यवहारनयसम्मत अनोपनिधिको कालानुपूर्वी (क) अर्थपदप्ररूपणता - (ख) भंगसमुत्कीर्तनता 102 103 104 0 0 0 744 0 112 113 [11] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr 118 or 118 or or or 119 120 121 124 125 (ग) भंगोपदर्शनता (घ) समवतार (ङ) अनुगम (ङ 1) सत्यदप्ररूपणता (2) द्रव्यप्रमाण (3, 4) क्षेत्र और स्पर्शनाप्ररूपणा (ङ 5) कालप्ररूपणा (ङ 6) अन्तरप्ररूपणा (ङ 7) भागप्ररूपणा (ङ 8, 9) भाव और अल्पबहुत्वद्वार संग्रहनयमात्य अनोपनिधिकीकालानुपूर्वी संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता आदि प्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी : प्रथम प्रकार श्रोपनिधिको कालानुपूर्वी : द्वितीय प्रकार उत्कीर्तनानुपूर्वीनिरूपण गणनानुपूर्वीप्ररूपणा संस्थापनानुपूर्वीप्ररूपणा समाचारी-मानुपूर्वीप्ररूपणा भावानुपूर्वीप्ररूपणा 125 125 126 127 128 नामाधिकार - rm m ~ ~ 146 147 148 148 नामाधिकार की भूमिका एकनाम द्विताम विनाम द्रव्यनाम गुणनाम वर्णनाम मंधनाम रसनाम स्पर्शनाम संस्थाननाम पर्यायनाम विनाम की व्याख्या का दूसरा प्रकार चतुर्नाम पंचनाम r 149 151 woo~~ 152 153 [12] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छहनाम 155 و سی ام م م ا ر م م औदयिकभाव जीवोदयनिष्पन्न श्रोदयिकभाव अजीवोदय निष्पन्न प्रौदयिकभाव प्रौपशमिकभाव क्षायिकभाव क्षायोपशमिकभाव पारिणामिक भाव सान्निपातिकभाव द्विकसंयोगज सान्निपातिकभाव निकसंयोगज सान्निपातिकभाव चतु:संयोगज सान्निपातिकभाव पंचसंयोगी सानिपातिकभाव सप्तनाम सप्तस्वरों के स्वर स्थान जीवनिश्रित सप्त स्वर प्रजीवनिश्रित सप्त स्वर सप्त स्वरों के स्वर लक्षण-फल सप्त स्वरों के ग्राम और उनकी मूच्र्छताएँ सप्तस्वरोत्पत्ति प्रादि विषयक जिज्ञासाएँ : समाधान गीतगायक की योग्यता गीत के दोष गीत के पाठ गुण गीत के वृत्त-छन्द गीत की भाषा गीतगायक के प्रकार उपसंहार अष्ट्रनाम و م 182 182 187 185 185 ou wo ouorovo-o-~ नबनाम 194 194 वीररस शृगार रस अद्भुतरस रौद्ररस बीडनकरस बीभत्सरस हास्यरस 195 195 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणरस प्रशान्तरस 199 202 203 203 204 204 205 0 दसनाम गौणनाम नोगौणनाम प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम प्रधानपदनिष्पन्ननाम अनादि-सिद्धान्तनिष्पन्ननाम नामनिष्पन्नताम अवयवनिष्पन्ननाम संयोगनिष्पन्नताम द्रव्यसंयोगजनाम क्षेत्रसंयोगजनाम कालसंयोगनिष्पन्न नाम भावसंयोगनिष्पन्ननाम प्रमाणनिष्पन्ननाम नामप्रमाणनिष्पन्नलाम स्थापनाप्रमाणनिष्पन्ननाम नक्षत्रनाम देवनाम कुलनाम पाषण्डनाम जीवितहेतुनाम माभिप्रायिकनाम द्रव्यप्रमाणनिष्पन्ननाम भावप्रमाणनिष्पन्ननाम सामासिकभावप्रमाणनिष्पन्ननाम द्वन्द्व समास बहुब्रीहि समास कर्मधारय समास द्विगु समास तत्पुरुष समास अव्ययीभाव समास एकशेष समास तद्धितजभावप्रमाणनाम कर्मनाम 214 215 215 216 217 217 219 222 222 [14] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAM शिल्पनाम श्लोकनाम संयोगनाम समीपनाम संयूथनाम ऐश्वर्यनाम अपत्यनाम धातु जनाम निरुक्तिजनाम 224 225 225 225 226 226 227 प्रमाणाधिकार 227 229 229 my mr M m m MY له प्रमाण के भेद द्रव्यप्रमाणनिरूपण प्रदेशनिष्पन्न द्रव्य प्रमाण विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण मानप्रमाण धान्यमानप्रमाण रसमानप्रमाण उन्मानप्रमाण अवमानप्रमाण गणिमप्रमाण प्रतिमानप्रमाण क्षेत्रप्रमाणप्ररूपण प्रदेशनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण अंगुलस्वरूपनिरूपण आत्मांगुल प्रात्मांगुल का प्रयोजन प्रात्मांगुल के भेद अंगुलत्रिक का अल्पबहुत्व उत्सेधांगुल परमाणुनिरूपण व्यवहारपरमाणु व्यावहारिकपरमाणु का कार्य उत्सेधांगुल का प्रयोजन नारक-अवगाहना निरूपण 244 244 245 247 248 249 ل . ل ل 253 256 258 259 [ 15 ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 265 266 274 276 279 280 282 282 284 285 281 भवनपति देवों को अवगाहना पंच स्थावरों की शरीरावगाहना द्वीन्द्रिय जीवों की अवगाहना श्रीन्द्रिय जीवों की शरीरावमाहना चतुरिन्द्रिय जीवों की शरीरावगाहना पंचेन्द्रियतियेंच जीवों की शरीरावगाहना मनुष्य अवगाहनानिरूपण वाणव्यंतर और ज्योतिष्क देवों की अवगाहना वैमानिक देवों को अवगाहना उत्सेधांगुल के भेद और भेदों का अल्पबहत्व प्रमाणांगुलनिरूपण प्रमाणांगुल का प्रयोजन प्रमाणांगुल के भेद, अल्पबहुत्व कालप्रमाणप्ररूपण समयनिरूपण समयसमूहनिष्पत्र कालविभाग औपमिककालप्रमाणनिरूपण पल्योपम-सागरोपमप्ररूपण प्रद्धापल्योपम-सागरोपमनिरूपण मारकों की स्थिति भवनपति देवों की स्थिति पंच स्थावरों की स्थिति विकलेन्द्रियों की स्थिति पंचेन्द्रियतिर्यंचों की स्थिति जलचरपंचेन्द्रियतियंवों की स्थिति स्थलचर पंचेन्द्रिय तियंचों की स्थिति खेवर पंचेन्द्रिय तियंत्रों की स्थिति संग्रहणी गाथाएं मनुष्यों की स्थिति व्यंतर देवों की स्थिति ज्योतिष्क देवों की स्थिति वैमानिक देवों की स्थिति सौधर्म प्रादि अच्युतपर्यन्त कल्पों के देवों की स्थिति अवेयक और अनुत्तर देवों की स्थिति क्षेत्र पल्योपम का निरूपण 291 291 298 301 0 0 Mr r r m mm or r 0 0 0 0 0 305 307 307 308 312 or mmm SNY or or 318 322 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ سه سه 326 الله الله الله الله 336 338 338 341 343 344 345 346 सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम-सागरोपम सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन अजीवद्रव्यों का वर्णन जीवद्रव्यप्ररूपणा शरीरनिरूपण चौवीस दंडकवर्ती जीवों की शरीरप्ररूपणा पंचशरीरों का संख्यापरिमाण बद्धमुक्त क्रियशरीरों की संख्या बद्धमुक्त आहारक शरीरों का परिमाण बद्धमुक्त तेजसशरीरों का परिमाण बद्धमुक्त कार्मणशरीरों की संख्या नारकों में बद्धमुक्त पंचशरीरों की प्ररूपणा भवनवासियों के बद्ध-मुक्त शरीर पृथ्वी-अप-तेजस्कायिक जीवों के बद्ध-मुक्त शरीर वायुकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीर वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीर विकलत्रिकों के बद्ध-मुक्त शरीर पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकों के बद्ध-मुक्त शरीर मनुष्यों के बद-मुक्त पंचशरीर बाणव्यंतर देवों के बन-मुक्त शरीर ज्योतिष्कदेवों के बद्धमुक्त पंच शरीर ज्योतिष्क देवों के बद्ध-मूक्त शरीर एवं कालप्रमाण का उपसंहार भावप्रमाण गुणप्रमाण अजीवगुणप्रमाणनिरूपण जीवगुणप्रमाणनिरूपण प्रत्यक्षप्रमाणनिरूपण मनुमानप्रमाणनिरूपण पूर्ववत् अनुमाननिरूपण शेषवत्-अनुमाननिरूपण दृष्टसाधयंवत्-अनुमान प्रतिकूल विशेषदृष्ट-साधर्म्यवत्-अनुमान के उदाहरण उपमानप्रमाण साधोपनीत उपमान वैधोपनीत उपमान मागमप्रमाणनिरूपण 349 353 354 357 358 358 360 361 366 369 372 372 374 [17] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 381 386 AWWWW NA 386 388 401 401 दर्शनगुणप्रमाण चारित्रगुणप्रमाण नयप्रमाणनिरूपण प्रस्थकदृष्टान्त द्वारा नयनिरूपण वसतिदृष्टान्त द्वारा नयनिरूपण प्रदेशष्टान्त द्वारा नयनिरूपण भव्यशरीर द्रव्यसंख्या निरूपण ज्ञायकशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्य शंख एकभविक प्रादि शंखविषयक नयदृष्टि औपम्यसंख्यानिरूपण सत्-सदरूप प्रौपम्यसंख्या सद्-प्रसद् रूप औपम्यसंख्या असत्-सत् प्रौपम्य संख्या असद्-असद् रूप प्रौपम्य संख्या परिमाणसंख्यानिरूपण कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या दृष्टिवाद श्रुतपरिमाणसंख्यानिरूपण ज्ञानसंख्या निरूपण मणनासंख्यानिरूपण संख्यात आदि के भेद संख्यातनिरूपण परीतासंख्यातनिरूपण युक्तासंख्यातनिरूपण असंख्यातासंख्यात का निरूपण परीतानन्तनिरूपण युक्तानन्तनिरूपण अनन्तानन्तनिरूपण भाव-संख्यानिरूपण वक्तव्यतानिरूपण वक्तव्यता के भेद स्वसमयवक्तव्यतानिरूपण परसमयवक्तव्यतानिरूपण स्वसमय-परसमयवक्तव्यतानिरूपण वक्तव्यता के विषय में नयदृष्टियाँ 0 0 0 0 0 on or m"-xxr 1704 0 0 0 0 0 0 409 412 G Aao 424 424 425 426 426 [18] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थाधिकारनिरूपण अर्थाधिकारनिरूपण 429 समवतारनिरूपण 429 समवतारनिरूपण नाम स्थापनाद्र व्यसमवतार क्षेत्रममवतार कालसमवतार भावसमवतार Or mmmm. निक्षेपाधिकार or m m3 441 441 441 443 444 444 निक्षेपनिरूपण प्रोधनिष्पत्रनिक्षेप अध्ययननिरूपण नाम-स्थापना-अध्ययन द्रव्य अध्ययन भाव-अध्ययन अक्षीणनिरूपण नाम-स्थापना-प्रक्षीण द्रव्य-प्रक्षीण भाव-अक्षीण आय-निरूपण नामस्थापना-प्राय प्रागम-द्रव्य-प्राय नोमागम-द्रव्य-प्राय भाव-प्राय क्षपणानिरूपण नामस्थापनाक्षपणा द्रव्यक्षपणा भावक्षपणा नामनिष्पन्न निक्षेपप्ररूपणा नाम-स्थापना-सामायिक द्रव्यसामायिक भावसामायिक सामायिक के अधिकारी की संज्ञायें 445 448 449 Xxxxx K [19] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 श्रमण की उपमायें प्रकारान्तर से श्रमण का निर्वचन सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप 457 457 अनुगमनिरूपण 458 458 1 अनुगमनिरूपण नियुक्त्यनुगम निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम सूत्रस्पशिक नियुक्त्यनुगम 458 459 462 467 468 471 नयनिरूपण नयनिरूपण की भूमिका नंगम प्रादि सात नयों के लक्ष्य नयवर्णन उपसंहार परिशिष्ट 1. कथानक 2. कालगणना की संज्ञाओं और क्रम में विविधता 3. गाथानुक्रम 4. विशिष्ट शब्दसूची 5. संज्ञावाचकशब्दानुक्रम 474 477 492 [20] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वार : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तावना अध्यात्म और विज्ञान अतीत काल से ही मानवजीवन के साथ अध्यात्म और विज्ञान का अत्यन्त गहरा सम्बन्ध रहा है / ये दोनों सत्य के अन्तस्तल को समुद्घाटित करने वाली दिव्य और भव्य दृष्टियाँ हैं। अध्यात्म आत्मा का विज्ञान है / वह आत्मा के शुद्ध और अशुद्ध स्वरूप का, बंध और मोक्ष का, शुभ और अशुभ परिणितियों का, ह्रास और विकास का गम्भीर गहन विश्लेषण है तो विज्ञान भौतिक प्रकृति की गरु गम्भीर ग्रन्थियों को सुलझाने का महत्त्वपूर्ण साधन है। उसने मानव के तन, मन और इन्द्रियों के संरक्षण व संपोषण के लिए विविध आयाम उपस्थित किए है। जीवन की अखण्ड सता के साथ दोनों का मधुर सम्बन्ध है। अध्यात्म जीवन की अन्तरंग धारा का प्रतिनिधित्व करता है तो विज्ञान बहिरंग धारा का नेतृत्व करता है। अध्यात्म का विषय है जीवन के अन्तःकरण, अन्तश्चैतन्य एवं प्रात्मतत्त्व का विवेचन व विश्लेषण करना। आत्मा के विशोधन व ऊर्वीकरण करने की प्रक्रिया प्रस्तुत करना / जीव और जगत, पारमा और परमात्मा, व्यक्ति और समाज प्रभृति के शाश्वत तथ्यपरक सत्य का दिग्दर्शन करना / जब कि विज्ञान का क्षेत्र है प्रकृति के अणु से लेकर ब्रह्माण्ड तक का प्रयोगात्मक अनुसन्धान करना। अध्यात्म योग है तो विज्ञान प्रयोग है। अध्यात्म मन, वचन और काया की प्रशस्त शक्तियों को केन्द्रित कर मानव-चेतना को विकसित करने वाली निर्भय और निर्द्वन्द्व बनाने की दिव्य व भव्य दृष्टि प्रदान करता है। वह विवेक के तृतीय नेत्र को उद्घाटित कर काम और विकारों को भस्म करता है। जब कि विज्ञान नित्य नई भौतिक सुख-सुविधाओं को समुपलब्ध कराने में अपूर्व देता है। विज्ञान के फलस्वरूप ही मानव अनन्त आकाश में पक्षियों की भाँति उड़ान भरने लगा है, मछलियों की भांति अनन्त सागर की गहराई में जाने लगा है और पृथ्वी पर द्रुतगामी साधनों से गमन करने लगा है। विद्युत् के दिव्य चमत्कारों से कौन चमत्कृत नहीं है ! अध्यात्म अन्तर्मुख है तो विज्ञान बहिर्मख है। अध्यात्म अन्तरंग जीवन को सजाता है, संवारता है, तो विज्ञान बहिरंग जीवन को विकसित करता है। बहिरंग जीवन में किसी भी प्रकार की विखलता नहीं पाये, द्वन्द्व समुत्पन्न न हों, इसलिए अन्तरंग दृष्टि की आवश्यकता है एवं अन्तरंग जीवन को समाधियुक्त बनाने के लिए बहिरंग का सहयोग भी अपेक्षित है। बिना बहिरंग सहयोग के अन्तरंग जीवन विकसित नहीं हो सकता / मूलतः अध्यात्म और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं। उनमें किसी प्रकार का विरोध और द्वन्द्व नहीं है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं, जीवन की अखण्डता के लिए दोनों की अनिवार्य आवश्यकता है। [21] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म का प्रतिनिधि आगम जैन-आगम आध्यात्मिक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले चिन्तन का अद्भुत व अनूठा संग्रह है, संकलन है। आगम शब्द बहुत ही पवित्र और व्यापक अर्थगरिमा को अपने-आप में समेटे हुए है। स्थूल दृष्टि से भले ही आगम और ग्रन्थ पर्यायवाची शब्द रहे हों पर दोनों में गहरा अन्तर है। प्रागम 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की साक्षात् अनुभूति की अभिव्यक्ति है। वह अनन्त सत्य के द्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग तीर्थंकरों की विमल वाणी का संकलन-आकलन है। जबकि ग्रन्थों व पुस्तकों के लिए यह निश्चित नियम नहीं है। वह राग-द्वेष के दलदल में फंसे हुए विषय-कषाय की आग में झुलसते हुए, विकार और वासनात्रों से संत्रस्त व्यक्ति के विचारों का संग्रह भी हो सकता है। उसमें कमनीय कल्पना की ऊँची उड़ान भी हो सकती है पर वह केवल वाणी का विलास है, शब्दों का आडम्बर है, किन्तु उसमें अन्तरंग की गहराई नहीं है। __ जैन पागम में सत्य का साक्षात् दर्शन है, जो अखण्ड है, सम्पूर्ण व समग्र मानवचेतना को संस्पर्श करता है / सत्य के साथ शिव का मधुर सम्बन्ध होने से वह सुन्दर ही नहीं, अतिसुन्दर है। वह पार्षवाणी तीर्थकर या ही है। यास्क ने ऋषि की परिभाषा करते हए लिखा है-'जो मत्य का साक्षात द्रष्टा है, वह ऋषि हैं'।' प्रत्येक साधक ऋषि नहीं बन सकता, ऋषि वह है जिसने तीक्ष्ण प्रज्ञा, तर्कशुद्ध ज्ञान से सत्य की स्पष्ट अनुभूति की है। यही कारण है कि वेदों में ऋषि को मंत्रद्रष्टा कहा है। मंत्रद्रष्टा का अर्थ है---साक्षात् सत्यानुभूति पर प्राधूत शिवत्व का प्रतिपादन करने वाला सर्वथा मौलिक ज्ञान / वह आत्मा पर आई हुई विभाव परिणतियों के कालूष्य को दूर कर केवलज्ञान और केवलदर्शन से स्व-स्वरूप को पालोकित करता है / जो यथार्थ सत्य का परिज्ञान करा सकता है, प्रारमा का पूर्णतया परिवोध करा सके, जिससे आत्मा पर अनुशासन किया जा सके, वह पागम है / उसे दूसरे शब्दों में शास्त्र और सूत्र भी कह सकते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है--जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञेय का, आत्मा का परिबोध हो एवं प्रात्मा का अनुशासन किया जा सके, कह शास्त्र है। शास्त्र शब्द शास् धातु से निर्मित हुपा है, जिसका अर्थ है-शासन शिक्षण और उदबोधन / जिस तत्त्वज्ञान से आत्मा अनुशासित हो, उबुद्ध हो, वह शास्त्र है। जिससे आत्मा जागत होकर तप, क्षमा एवं अहिंसा की साधना में प्रवृत्त होती है, यह शास्त्र है / और जो केवल गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी के द्वारा कहा गया है, वह सूत्र है। दूसरे शब्दों में जो ग्रन्थ प्रमाण से अल्प अर्थ की अपेक्षा महान, बत्तीस दोषों से रहित, लक्षण तथा आठ गुणों से सम्पन्न होता हुअा सारवान् अनुयोगों से सहित, व्याकरण विहित, निपातों से रहित, अनिंद्य और सर्वज्ञ कथित है, वह सूत्र है / 1. ऋषिदर्शनात् / —निरुक्त रा११ 2. साक्षात्कृतधर्माणो ऋषयो बभूवुः। -निरुक्त 1120 3. 'सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमावावतो सत्थं' टीका-शासु अनुशिष्टौ शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम् / —विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1304 4. सुत्तं गणधरकधिदं तहेब' पत्तेयबुद्धकधिदं च / सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसब्धि कधिदं च / / -मूलाचार, 5180 5. अप्पम्मथ महत्थं बत्तीसा दोसविरहियं जं च / लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठे हि गुणे हि उववेयं / अप्पक्खरमसंदिद्धं च सारवं विस्सग्रो मुहं / अत्योभमणवज्जं च सुतं सव्वण्णुभासियं // -भाव. निर्यक्ति, 880, 886 [22] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सन्दर्भ में यह समझना आवश्यक है कि प्रागम कहो, शास्त्र कहो या सूत्र कहो, सभी का एक ही प्रयोजन है। वे प्राणियों के अन्तर्मानस को विशुद्ध बनाते हैं। इसलिए प्राचार्य हरिभद्र ने कहा--जैसे जल वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके उसको उज्ज्वल बना देता है, वैसे ही शास्त्र भी मानव के अन्तःकरण में स्थित काम, क्रोध आदि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र और निर्मल बना देता है। जिससे प्रात्मा का सम्यक बोध हो, प्रात्मा अहिंसा संयम और तप साधना के द्वारा पवित्रता की ओर गति करे, वह तत्त्वज्ञान शास्त्र है, अागम है। ___ मागम भारतीय साहित्य की मूल्यवान् निधि है। डॉ. हरमन जेकोबी, डॉ. शुकिंग प्रभृति अनेक पाश्चात्य मुर्धन्य मनीषियों ने जैन-पागम साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन कर इस सत्य-तथ्य को स्वीकार किया है कि विश्व को अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद के द्वारा सर्वधर्म-समन्वय का पुनीत पाठ पढ़ाने वाला यह सर्वश्रेष्ठतम साहित्य है। पागम साहित्य बहुत ही विराट और व्यापक है। समय-समय पर उसके वर्गीकरण किये गए हैं। प्रथम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में हया / द्वितीय वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में किया गया / तृतीय वर्गीकरण आर्य रक्षित ने अनुयोगों के आधार पर किया है। उन्होंने सम्पूर्ण अागम साहित्य को चार अनुयोगों में बांटा है। __अनुयोग शब्द पर चिन्तन करते हुए प्राचीन साहित्य में लिखा है--'अणुओयणमणुयोगो'---अनुयोजन को अनुयोग कहा है।' 'अनुयोजन' यहाँ पर जोड़ने व संयुक्त करने के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। जिससे एक दूसरे को सम्बन्धित किया जा सके 1 इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने लिखा है-जो भगवत कथन से संयोजित करता है, वह 'अनुयोग' है। अभिधानराजेन्द्र कोष में लिखा है-लघु-सूत्र के साथ महान्-अर्थ का योग करना अनुयोग है / 12 अनुयोग एक चिन्तन अनुयोग शब्द 'अनु' और 'योग' के संयोग से निर्मित हुआ है / अनु उपसर्ग है। यह अनुकूल अर्थवाचक है। सूत्र के साथ अनुकूल, अनुरूप या सुसंगत संयोग अनुयोग है / बृहत्कल्प 3 में लिखा है कि अनु का अर्थ 6. मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् / अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुबंधाः / / -योगबिन्दु, प्रकरण 219 7. समवायांग 14:136 8. अहवा तं समासो दुविहं पण्णतं तं जहा—अंगपविट्ठ अंगबाहिर च। --नन्दी, सूत्र 43 9. (क) अावश्यक नियुक्ति, 363-377 (ख) विशेषावश्यकभाष्य 2284-2295 (ग) दशकालिक नियुक्ति, 3 टी. 10. “युज्यते सबध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योग:" 11. "अणुसूत्रं महानर्थस्ततो महतीर्थस्याणुना सूत्रेण योगो अनुयोगः" 12. देखो 'अणुप्रोग' शब्द, पृ. 340 13. अणुणा जोगो अणुजोमो अणु पच्छाभावो य थेवे य / जम्हा पच्छाऽभिहियं सुतं थोवं च तेणाणु / / ---बृहत्कल्प 1, गा. 190 [ 23 ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चाद्भाव या स्तोक है। उस दृष्टि से अर्थ के पश्चात् जायमान या स्तोक सूत्र के साथ जो योग है, वह अनुयोग है। आचार्य मलयगिरि 4 के अनुसार अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग है / अथवा सूत्र का अपने अभिधेय में जो योग होता है, वह अनुयोग है। यही बात आचार्य हरिभद्र, 5 आचार्य अभयदेव," प्राचार्य शान्तिचन्द्र' ने लिखी है / प्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का भी यही अभिमत है / 18 __ जैन आगम साहित्य में अनुयोग के विविध भेद-प्रभेद हैं। नन्दी में प्राचार्य देववाचक ने अनुयोग के दो विभाग किये हैं। वहां पर दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चलिका ये पांच भेद किये गये हैं।" उसमें 'अनुयोग' वतुर्थ है / अनुयोग के 'मूल प्रथमानुयोग' और 'गण्डिकानुयोग' ये दो भेद किए गये हैं। मूल प्रथमानुयोग क्या है ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए प्राचार्य ने कहा-मूल प्रथमानुयोग में अर्हन् भगवान् को सम्यक्त्वप्राप्ति के भव से पूर्वभव, देवलोकगमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्यश्री, प्रव्रज्या, तप, केवलज्ञान की उत्पत्ति, तीर्थप्रवर्तन, शिष्य-समुदाय, गण-गणधर, आर्यिकाएँ, प्रवर्तिनी, चतुर्विध संघ का परिमाण, सामान्य केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यक् श्रुतज्ञानी, वादी, अनुत्तर विमान में गये हुए मुनि, उत्तर वैत्रियधारी मुनि, सिद्ध अवस्था प्राप्त मुनि, पादपोपगमन अनशन को प्राप्त कर जो जिस स्थान पर जितने भक्त का अनशन कर अन्तकृत हुए / अज्ञान-रज से विषमुक्त हो जो मुनिवर अनुत्तर सिद्धि मार्ग को प्राप्त हुए उनका वर्णन है / इसके अतिरिक्त इन्हीं प्रकार के अन्य भाव, जो अनुयोग में कथित हैं, वह 'प्रथमानुयोग' है। दूसरे शब्दों में यों यह सकते हैं:--'प्रथमानुयोग में सम्यक्त्वप्राप्ति से लेकर तीर्थप्रवर्तन और मोक्षगमन तक का वर्णन है।" दूसरा गण्डिकानुयोग है / गण्डिका का अर्थ है--समान वक्तव्यता से प्राधिकार का अनुसरण करने वाली वाक्यपद्धति; और अतुयोग अर्थात-----अर्य प्रकट करने की विधि। प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है----इक्ष के मध्य भाग की मण्डिका सदृश एकार्थ का अधिकार यानी ग्रन्थपद्धति / गण्डिकानुयोग के अनेक प्रकार हैं-२३ 14. सूत्रस्यार्थेन सहानुकूलं योजनमनुयोगः / अथवा अभिधेये व्यापारः सूत्रस्य योग: / अनुकूलोऽनुरूपो वा योगो अनुयोगः / यथा घटशब्देन घटस्य प्रतिपादनमिति।। -आवश्यकनियुक्ति, मलय.. नि. 127 15. आवश्यकनियुक्तिहरिभद्रियावृत्ति 130 16. (क) समवायांग, अभयदेववृत्ति 147 (ख) स्थानांग, 4 / 1 / 262, पृ. 200 17. जम्बूदीपप्रज्ञप्ति-अमेयरत्नमंजूषा वृत्ति, पृ. 4-5 18. अणुजोयणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमाभिधेयेणं / वावारो वा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा // ---विशेषावश्यकभाष्य, गा. 1383 19. परिक्कमे, सुत्ताई, धुव्वगए, अणुयोगे, चूलिया। -श्रीमलयगिरोयानंदीवृत्ति, पृ. 235 20. पढमाणुयोगे, गंडियाणुयोगे। -श्रीनन्दीचूर्णी मुल, पृ. 58 21. इह मूलभावस्तु तीर्थंकरः तस्य प्रथमं पूर्वभवादि अथवा मूलस्स पढमाणुयोगे एत्यतित्वगरस्स अतीतभव परियाय परिसत्तई भाणियन्या / श्रीनंदीवृत्ति चूर्णी, पृ. 58 22. से कि तं गंडियाणुयोगे? गंडियाणुयोगे अणेगविहे पम्गत्ते.... -श्रीसमवायांगवृत्ति, पृ. 120 [ 24 ] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) कुलकर गण्डिकानुयोग-विमलवाहन आदि कुलकरों की जीवनियाँ / (2) तीर्थंकर गण्डिकानुयोग-तीर्थकर प्रभु की जीवनियाँ / (3) गणधर गण्डिकानुयोग----णधरों की जीवनियाँ। (4) चक्रवर्ती गण्डिकानुयोग-भरतादि चक्रवर्ती राजायों की जीवनियाँ। (5) दशाह गण्डिकानुयोग- समुद्र विजय प्रादि दशा) की जीवनियाँ। (6) बलदेव गण्डिकानयोग राम आदि बलदेवों की जीवनियाँ। (7) वासुदेव गण्डिकानुयोग-कृष्ण प्रादि वासुदेवों की जीवनियाँ। (4) हरिवंश गण्डिकानुयोगहरिवंश में उत्पन्न महापुरुषों की जीवनियाँ / (9) भद्रबाहु गण्डिकानुयोग---भद्रबाहु स्वामी की जीवनी। (10) तपःकर्म गण्डिकानुयोग- तपस्या के विविध रूपों का वर्णन / / (11) चित्रान्तर गण्डिकानुयोग-भगवान ऋषभ तथा अजित के अन्तर समय में उनके वंश के सिद्ध या सर्वार्थ सिद्ध में गये हैं, उनका वर्णन / {12) उत्सपिणी गण्डिकानुयोग-उत्सपिणी काल का विस्तृत वर्णन। (13) अवतपिणी गण्डिकानुयोग–अवसपिणी काल का विस्तृत वर्णन। देव, मानब, तियंच, और नरक गति में गमन करना, विविध प्रकार से पर्यटन करना आदि का अनुयोग 'गण्डिकानुयोग' में है। जैसे-वैदिकपरम्परा में विशिष्ट व्यक्तियों का वर्णन पुराण साहित्य में हुआ है, वैसे ही जैनपरम्परा में महापुरुषों का वर्णन गण्डिकानुयोग में हुआ है। गण्डिकानुयोग की रचना समय-समय पर मूर्धन्य मनीषी तथा प्राचार्यों ने की। पंचकल्पणि२३ के अनुसार कालकाचार्य ने गण्डिकाएँ रची थीं, पर उन गण्डिकाओं को संघ ने स्वीकार नहीं किया / आआर्य ने संघ से निवेदन किया- मेरी गण्डिकाएँ क्यों स्वीकृत नहीं की गई हैं ? उन गण्डिकायों में रही हुई त्रुटियां बतायी जायें, जिससे उनका परिष्कार किया जा सके। संघ के बहुश्रुत प्राचार्यों ने उन गण्डिकानों का गहराई से अध्ययन किया और उन्होंने उन पर प्रामाणिकता को मुद्रा लगा दी। इससे यह स्पष्ट है-कालकाचार्य जैसे प्रकृष्ट प्रतिभासम्पन्न प्राचार्य की गण्डिकाएँ भी संघ द्वारा स्वीकृत होने पर ही मान्य की जाती थीं / इससे गण्डिकाओं की प्रामाणिकता सिद्ध होती है / अनुयोग का अर्थ व्याख्या है / व्याख्येय वस्तु के आधार पर अनुयोग के चार विभाग किये गये हैं-चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, और द्रव्यानुयोग / 24 दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थ द्रव्यसंग्रह की टीका'५ में, पंचास्तिकाय में, तत्त्वार्थवृत्ति में, इन अनुयोगों के नाम इस प्रकार मिलते हैं प्रथमानुयोग, 23. पञ्चकल्पचूणि। -कालकाचार्य प्रकरण, पृ. 23-24 24. चत्तारिउ अणुप्रोगा, चरणे धम्म गणियाणुप्रोगे य / दचियाऽणुप्रोगे य तहा, जहकम्मं ते महड्ढीया / / -अभिधान राजेन्द्रकोष, प्र. भाग, पृ. 256 25. प्रथमानुयोगो....चरणानुयोगो....करणानुयोगो....द्रव्यानुयोगो इत्युक्तलक्षणानुयोगचतुष्टयरूपे चतुर्विधं श्रुतज्ञानं ज्ञातव्यम् / -द्रव्यसंग्रह टीका, 421182 26. पंचास्तिकाय, 173 27. तत्वार्थवृत्ति, 254 / 15 [25] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग। श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में नाम और कर्म में कुछ अन्तर अवश्य है पर भाव सभी का एक-सा है। श्वेताम्बर दृष्टि से सर्वप्रथम चरणानुयोग है / 28 रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्राचार्य समन्तभद्र। ने चरणानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है-गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं / द्रव्यसंग्रह की टीका में लिखा है-उपासकाध्ययन प्रादि में श्रावक का धर्म और मुलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है, वह चरणानुयोग है। 30 बहद्रव्यसंग्रह, अनगारधर्मामृत टीका प्रादि में भी चरणानूयोग की परिभाषा इसी प्रकार मिलती है / प्राचार सम्बन्धी साहित्य परणानुयोग में आता है। जिनदासगणि३२ महत्तर ने धर्मकथानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है सर्वज्ञोक्त अहिंसा आदि स्वरूप धर्म का जो कथन किया जाता है, अथवा अनुयोग के विचार से जो धर्मसम्बन्धी कथा कहो जाती है, वह धर्मकथा है। प्राचार्य हरिभद्र 33 ने भी अनुयोगद्वार की टीका में अहिंसा लक्षणयुक्त धर्म का जो पाख्यान है, उसे धर्मकथा कहा है। महाकवि पुष्पदन्त ने भी लिखा है-जो अभ्युदय, निःश्रेयस की संसिद्धि करता है और सद्धधर्म से जो निबद्ध है, वह सद्धधर्मकथा है। धर्मकथातुयोग को ही दिगम्बर परम्परा में प्रथमानुयोग कहा है। रत्नकरण्डश्रावकाचार३५ में लिखा है---धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का परमार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान है, जिसमें एक पुरुष या विषष्टि श्लाघनीय पुरुषों के पवित्र-चरित्र में रत्नत्रय और ध्यान का निरूपण है, वह प्रथमानुयोग है। गणितानुयोग, गणित के माध्यम से जहाँ विषय को स्पष्ट किया जाता है, दिमम्बर परम्परा में इसके स्थान पर करणानुयोग यह नाम प्रचलित है। करणानुयोग का अर्थ है-लोक-प्रलोक के विभाग को, युगों 28. (क) आवश्यकनियुक्ति 363-777 (ख) विशेषावश्यकभाष्य 2284-2295 29. गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-बृद्धिरक्षाङ्गम् / चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति / / –रत्नकरण्ड. 45 30. द्रव्यसंग्रह टीका, 42118229 31. सकलेतरचारित्र-जन्म रक्षा विद्धिकृत / विचारणीयश्चरणानुयोगश्चरणारतः / / –अनगारधर्मामृत, 3.11 पं. आशाधरजी 32. धम्मकहा नाम जो अहिंसादिलक्खणं सब्बण्णपणीयं धम अणुयोगं वा कहेइ एसा धम्मकहा। दशवकालिकचूणि, पृ. 29 33. अहिंसालक्षणधर्मान्वाख्यानं धर्मकथा। -अनुयोगद्वार टीका, पृ. 10 34. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थ-संसिद्धिरंजसा / _सद्धर्मस्त निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता। -महापुराण, महाकवि पुष्पदंत, 11120 35, प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् / बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोध: समीचीनः // रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 43 36. लोकालोक-विभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च / आदर्शभिव तथा मतिरवैति करणानुयोग च।। -रलकरण्ड श्रावकाचार, 44 [26] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के सदृश प्रकट करने वाले सम्यग्ज्ञान को करणानुयोग कहते हैं। करण शब्द के दो अर्थ हैं--(१) परिणाम और (2) गणित के सूत्र / द्रव्यानुयोग-जो श्रुतज्ञान के प्रकाश में जीव-अजीद, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष आदि तत्त्वों को दीपक के सदृश प्रकट करता है, वह द्रव्यानुयोग है। जिनभद्रमणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है३८—द्रव्य का द्रव्य में, द्रव्य के द्वारा अथवा द्रव्यहेतुक जो अनुयोग होता है, उसका नाम द्रव्यानुयोग है। इसके अतिरिक्त द्रब्य का पर्याय के साथ अथवा द्रव्य का द्रव्य के ही साथ जो योग (सम्बन्ध) होता है, वह भी द्रव्यानुयोग है। इसी तरह बहुवचन--द्रव्यों का द्रव्यों में भी समझना चाहिए। आगम-साहित्य में कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार से इन अनुयोगों का वर्णन है। आर्य वज्र तक आगमों में अनुयोगात्मक दृष्टि से पृथक्ता नहीं थी। प्रत्येक मूत्र की चारों अनुयोगों द्वारा व्याख्या की जाती थी। प्राचार्य भद्रबाहु ने इस सम्बन्ध में लिखा है--कालिक श्रुत अनुयोगात्मक व्याख्या की दृष्टि से अपृथक् थे। दूसरे शब्दों में यों कह सकते है उनमें चरण-करणानुयोग प्रभति अनुयोग चतुष्टय के रूप में अविभक्तता थी। आर्य वज के पश्चात् कालिक सूत्र और दृष्टिवाद की अनुयोगात्मक पृथक्ता (विभक्तता) की गई। आचार्य मलयगिरि४० ने प्रस्तुत विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है-आर्य वन तक श्रमण तीक्ष्ण बुद्धि के धनी थे, अत: अनुयोग की दृष्टि से अविभक्त रूप से व्याख्या प्रचलित थी। प्रत्येक सूत्र में चरण-करणानुयोग आदि का अविभागपूर्वक वर्तन था। मुख्यता की दृष्टि से नियुक्तिकार ने यहाँ पर कालिक श्रुत को ग्रहण किया है अन्यथा अनुयोगों का कालिक-उत्कालिक आदि सभी में अविभाग था / 41 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने इस सम्बन्ध में विश्लेषण करते हए लिखा है-आर्य वज्र तक जब अनुयोग अपृथक् थे तब एक ही सूत्र की चारों अनुयोगों के रूप में व्याख्या होती थी। 37. जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापूण्ये च बन्धमोक्षौ च / द्रव्यानुयोग-दीय: श्रुतविद्या लोकमातनुते // -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 46 38. दब्बस्स जोऽणुप्रोगो दव्वे दव्वेण दव्वहेऊ वा। दबस्म पज्जवेण व जोगो, दब्वेण वा जोगो / / बहवयणोऽवि एवं नेओ जो वा कहे अणवउत्तो। दन्वाणुयोग एसो....." ----विशेषावश्यकभाष्य, 1398-99 39. जावंत अज्जवइरा अपुहुत्तं कालिप्राणुप्रोगस्स / तेणारेण पुहुत्तं कालिप्रसुइ दिट्ठिवाए अ॥ -अावश्यकनियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, गाथा 163, पृ. 383 40. यावदार्यवज्रा-आर्यवजस्वामिनो मुखो महामतयपस्तावत्कालिकानुयोगस्य कालिकश्रुतव्याख्यानस्यापृथक्त्व प्रतिसूत्रं चरण करणानुयोगादीनामविभागेन वर्तनमासीत्, तदासाधूनां तीक्ष्णप्रज्ञत्वात् / कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा सर्वानुयोगस्यापृथक्त्वमासीत् / / आवश्यक निर्यक्ति, पृ. 383 प्रका. आगमोदय समिति अपहत्ते अणियोगो चत्तारि बार भासए एगो। पूहत्ताणोग करणे ते अत्थ तोवि वोच्छिन्ना // कि बहरेहिं पुहुत्तं कयमह तदणंतरेहि भणियम्मि / तदणतहिं तदभिहिय गहिय सुत्तत्थ सारेहि। —विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2286-2287 41. / 27 ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगों का विभाग कर दिया जाय, उनकी प्रथक-पृथक छंटनी कर दी जाय तो वहाँ उस सूत्र में चारों अनुयोग व्यवच्छिन्न हो जायेंगे / इन प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार ने लिखा है, जहाँ किसी एक सूत्र की व्याख्या चारों अनुयोगों में होती थी, वहाँ चारों में से अमुक अनुयोग के आधार पर व्याख्या करने का यहाँ पर अभिप्राय है। प्रार्यरक्षित से पूर्व अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था, उसमें प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण, धर्म, गणित और द्रव्य की दृष्टि से की जाती थी। यह व्याख्यापद्धति बहुत ही क्लिष्ट और स्मृति की तीक्ष्णता पर अवलम्बित थी। प्रायंरक्षित के 1. दुबंलिका पुष्यमित्र, 2. फल्गुरक्षित, 3. विन्ध्य और 4. गोष्ठामाहिल ये चार प्रमुख शिष्य थे। विन्ध्यमुनि महान् प्रतिभासम्पन्न शीघ्रयाही मनीषा के धनी थे। आर्य रक्षित शिष्यमण्डली को आगम वाचना देते, उसे विन्ध्यमुनि उसी क्षण ग्रहण कर लेते थे / अत: उनके पास अग्निम अध्ययन के लिए बहुत-सा समय अवशिष्ट रहता / उन्होंने पार्यरक्षित से प्रार्थना की-मेरे लिए अध्ययन की प्रथक व्यवस्था करें। प्राचार्य ने प्रस्तुत महनीय कार्य के लिए महामेधावी दुर्बलिका पुष्यमित्र को नियुक्त किया। अध्यापनरत दुर्बलिका पुष्यमित्र ने कुछ समय के पश्चात् आर्यरक्षित से निवेदन किया-आर्य विन्ध्य को पागम वाचना देने से मेरे पठित पाठ के पुनरावर्तन में बाधा उपस्थित होती है। इस प्रकार की व्यवस्था से मेरी अधीत पूर्वज्ञान की राशि विस्मृत हो जायेगी / प्रार्यरक्षित ने सोचा महामेधावी शिष्य की भी यह स्थिति है तो आगमज्ञान का सुरक्षित रहना बहुत ही कठिन है। दूरदर्शी आर्य रक्षित ने गम्भीरता से चिन्तन कर जटिल व्यवस्था को सरल बनाने हेतु श्रागम-अध्ययन क्रम को चार अनुयोगों में विभक्त किया / यह महत्त्वपूर्ण कार्य दशपुर में बीरनिर्वाण सं. 592, वि. सं. 122 के आसपास सम्पन्न हुआ था। यह वर्गीकरण विषय सादृश्य की दृष्टि से किया गया है। प्रस्तुत वर्गीकरण करने के बावजद भी यह भेद-रेखा नहीं खींची जा सकती कि अन्य आगमों में अन्य अनुयोगों का वर्णन नहीं है। उदाहरण के रूप में, उत्तराध्ययनसूत्र में धर्मकथा के अतिरिक्त दार्शनिक तथ्य भी पर्याप्त मात्रा में हैं। भगवतीसूत्र तो अनेक विषयों का विराट सागर है। आचारांग आदि में भी अनेक विषयों की चर्चाएँ हैं। कुछ आगमों को छोड़कर अन्य आगमों में चारों अनुयोगों का सम्मिश्रण है / यह जो वर्गीकरण हुआ है वह स्थूल दृष्टि को लेकर हुआ है। व्याख्याक्रम की दृष्टि से यह वर्गीकरण अपृथक्त्वानुयोग और पृथक्त्वानुयोग के रूप में दो प्रकार का है। हम यहाँ पर चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग, द्रव्यानुयोग और धर्मकथानुयोग पर चिन्तन न कर केवल अनुयोगद्वारसूत्र पर चिन्तन करेंगे। मूल पागमों में नन्दी के पश्चात् अनुयोगद्वार का नाम आता है। नन्दी और अनुयोगद्वार ये दोनों आगम चुलिका सूत्र के नाम से पहचाने जाते हैं। चलिका शब्द का प्रयोग उन अध्ययनों या ग्रन्थों के लिए होता है जिनमें अवशिष्ट विषयों का वर्णन या वणित विषयों का स्पष्टीकरण किया गया हो। 42. (क) देविदवंदिएहि महाणुभावोहि रक्खियज्जेहिं / जुगुमासज्ज विभत्तो, अणुयोगो तो करो चउहा / / चत्तारि अणुयोग चरणधम्मगणियाणुयोग य / दन्वियणुयोगे वहा जहक्कम महिड्ढिया // -अभिधानराजेन्द्रकोशः (ख) कालिय सुयं च इसिभासिआई तइयो अमूरपन्नत्ती। सलोन दिठिवाओ चउत्थरो होइ अणुरोगो // -आवश्यकनियुक्ति-१२४ [28] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक पोर महानिशीथ के अन्त में भी चूलिकाएं-चूलाएं-चूड़ाएँ प्राप्त होती हैं। चूलिकाओं को वर्तमान युग की भाषा में ग्रन्थ का परिशिष्ट कह सकते हैं / नन्दी और अनुयोगद्वार भी पागम साहित्य के अध्ययन के लिए परिशिष्ट का कार्य करते हैं / जैसे पांच ज्ञानरूप नन्दी मंगलस्वरूप है वैसे ही अनुयोगद्वारसूत्र भी समग्र आगमों को और उसकी व्याख्यानों को समझने में कुंजी सदृश है। ये दोनों प्रागम एक दूसरे के परिपूरक हैं। प्रागमों के वर्गीकरण में इनका स्थान चलिका में है। जैसे भव्य मन्दिर शिखर से अधिक शोभा पाता है वैसे ही प्रागममन्दिर भी नन्दी और अनुयोगद्वार रूप शिखर से अधिक जगमगाता है। हम पूर्व पंक्तियों में यह बता चुके हैं अनुयोग का अर्थ व्याख्या या विवेचन है। भद्रबाहु स्वामी ने प्रावश्यकनियुक्ति में अनुयोग के अनुयोम-नियोग, भाषा-विभाषा और कार्तिक ये पर्याय बताये हैं। 43 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में४४ संघदासगणि ने बृहत्कल्पभाष्य५ में इन सभी पर्यायों का विवरण प्रस्तुत किया है / यह सत्य है कि जो पर्याय दिये गये हैं, वे सभी पर्याय पूर्ण रूप से एकार्थक नहीं हैं, किन्तु अनुयोगद्वार के जो विविध प्रकार हैं, उन्हें ही पर्याय लिखने में आया है।४६ आगमप्रभावक श्री पुण्यविजयजी महाराज ने अपनी अनुयोगद्वार की विस्तृत प्रस्तावना में अंग साहित्य में अनुयोग की चर्चा कहाँ-कहाँ पर पाई है, इस पर प्रमाण पुरस्सर प्रकाश डाला है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि श्रमण भगवान् महावीर के समय सूत्र की जो व्याख्यापद्धति थी उसी व्याख्यापद्धति का विकसित और परिपक्वरूप हमें अनुयोगद्वारसूत्र में सहज रूप से निहारने को मिलता है। उसके पश्चात लिखे गये जैन आगमों के व्याख्यासाहित्य में अनुयोगद्वार की ही शैली अपनाई गई। श्वेताम्बर ग्रन्थों में ही नहीं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थो में भी इस शैली के सुन्दर संदर्शन होते हैं / अनुयोगद्वार में द्रव्यानुयोग की प्रधानता है / उसमें चार द्वार हैं, 1899 श्लोकप्रमाण उपलब्ध मूल पाठ है / 152 मद्य सूत्र हैं और 143 पद्य सूत्र हैं। अनुयोगद्वार में प्रथम पंचज्ञान से मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् आवश्यक-अनुयोग का उल्लेख है। इससे पाठक को सहज ही यह अनुमान होता है कि इसमें आवश्यकसूत्र की व्याख्या होगी, पर ऐसा नहीं है / इसमें अनुयोग के द्वार अर्थात् व्याख्यात्रों के द्वार उपक्रम आदि का ही विवेचन किया गया है। विवेचन या व्याख्यापद्धति कैसी होनी चाहिए यह बताने के लिए आवश्यक को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत सूत्र में केवल पावश्यक, श्रुत, स्कन्ध, अध्ययन नामक ग्रन्थ की व्याख्या, उसके छह अध्ययनों में पिण्डार्थ (अर्थाधिकार का निर्देश), उनके नाम और सामायिक शब्द की व्याख्या दी है। आवश्यकसूत्र के पदों की व्याख्या नहीं है। इससे स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार मुख्यरूप से अनुयोग की व्याख्याओं के द्वारों का निरूपण करने वाला ग्रन्थ है-—आवश्यकमुत्र को व्याख्या करने वाला नहीं। आगमसाहित्य में अंगों के पश्चात् सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान आवश्यकसूत्र को दिया गया है, क्योंकि 43. अपयोगो अणियोगो भास विभासा य वत्तियं चैव / ते अणुयोगस्स' तु गामा एगठिया पंच // याव. नि. गाथा 126, विशे. 1382, ब्र. 187 44. विशेषावश्यकभाष्य 1418, 1419, 1420 45. वृहत्कल्पभाष्य मा. 195, 196, 198, 199 46. नंदिसुत्तं-अणुप्रोगद्दाराई–प्रस्तावना पुण्यविजयजी म., पृ. 37-39 [29] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत सूत्र में निरूपित सामायिक से ही श्रमणजीवन का प्रारम्भ होता है। प्रतिदिन प्रातः सन्ध्या के समय श्रमणजीवन की जो आवश्यक किया है इसकी शुद्धि और माराधना का निरूपण इसमें है। अत: अंगों के अध्ययन से पूर्व आवश्यक का अध्ययन आवश्यक माना गया है। एतदर्थ ही आवश्यक को व्याख्या करने की प्रतिज्ञा प्रस्तुत सूत्र में की है। व्याख्या के रूप में भले ही सम्पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या न हो, केवल ग्रन्थ के नाम के पदों की व्याख्या की गई हो, तथापि व्याख्या को जिस पद्धति को इसमें अपनाया गया है वही पद्धति सम्पूर्ण आगमों की व्याख्या में भी अपनाई गई है / यदि यह कह दिया जाय कि आवश्यक की व्याख्या के बहाने से ग्रन्थकार ने सम्पूर्ण प्रागमों के रहस्यों को समझाने का प्रयास किया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आगम के प्रारम्भ में प्राभिनिबोधिक आदि पांच ज्ञानों का निर्देश करके श्रतज्ञान का विस्तार से निरूपण किया है / क्योंकि श्रुतज्ञान का उद्देश (पढ़ने की प्राज्ञा), समद्देश (पढ़े हए का स्थिरीकरण), अनुज्ञा (अन्य को पढ़ाने की प्राज्ञा) एवं अनुयोग (विस्तार से व्याख्यान) होता है। जबकि शेष चार ज्ञानों का नहीं होता। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के उद्देशादि होते हैं वैसे ही कालिक, उत्कालिक और प्रावश्यकसूत्र के भी होते हैं / सर्वप्रथम यह चिन्तन किया गया है कि प्रावश्यक एक अंगरूप है या अनेक अंगरूप ? एक श्रुतस्कन्ध है या अनेक श्रुतस्कन्ध ? एक अध्ययनरूप है या अनेक अध्ययनरूप? एक उद्देशनरूप है या अनेक उद्देशनरूप ? समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि प्रावश्यक न एक अंगरूप है, न अनेक अंगरूप, वह एक श्रुतस्कन्ध है और अनेक अध्ययनरूप है। उसमें न एक उद्देश है न अनेक / अावश्यक' श्रुतस्कन्धाध्ययन का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन इन चारों का प्रथक-पृथक निक्षेप किया गया है। आवश्यक निक्षेप चार प्रकार का है-- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। किसी का भी आवश्यक यह नाम रख देना नाम-प्रावश्यक है। किसी वस्तु की आवश्यक के रूप में स्थापना करने का नाम स्थापनामावश्यक है। स्थापनानावश्यक के 40 प्रकार हैं-काष्ठकर्मजन्य, चित्रकर्मजन्य, वस्त्रकर्मजन्य, लेप्यकर्मजन्य, ग्रंथिकर्मजन्य, वेष्टनकर्मजन्य, परिकर्मजन्य, (धातु आदि को पिघला कर सांचे में ढालना) संघातिकर्मजन्य (वस्त्रादि के ढकड़े जोड़ना) और अक्षकर्मजन्य (पासा) वराटककर्मजन्य (कौड़ी) इनसे प्रत्येक के दो भेद हैं--एक रूप और अनेक रूप / पुन: सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना रूप दो भेद हैं। इस तरह स्थापनामावश्यक के 40 भेद होते हैं / द्रव्यमावश्यक के आगमतः और नोआगमतः ये दो भेद हैं। आवश्यकपद स्मरण कर लेना और उसका निर्दोष उच्चारणादि करना आगमतः द्रव्यग्नावश्यक है। इसका विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए सप्तनय की दृष्टि से द्रव्यावश्यक पर चिन्तन किया है। नोग्रागमत: द्रव्यावश्यक का तीन दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। वे दृष्टियाँ हैं शरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त / आवश्यकपद के अर्थ को जानने वाले व्यक्ति के प्राणरहित शरीर को ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक कहते हैं। जैसे मधु या घृत से रिक्त हुए घट को भी मधुघट या धृतघट कहते हैं, क्योंकि पहले उसमें मधु या घृत था। वैसे ही प्रावश्यकपद का अर्थ जानने वाला चेतन तत्त्व, अभी नहीं है तथापि उसका शरीर है; भूतकालीन सम्बन्ध के कारण वह ज्ञशरोरद्रव्यावश्यक कहलाता है। जो जीव वर्तमान में आवश्यकपद का अर्थ नहीं जानता है, किन्तु आगामी काल में अपने इसी शरीर द्वारा उसे जानेगा वह भव्यशरीरद्रव्यावश्यक है। ज्ञशरीर और भव्यशरीर से अतिरिक्त तदव्यतिरिक्त है / वह लौकिक, कुमावनिक और लोकोत्तरीय रूप में तीन प्रकार का है। राजा, युवराज सेठ, सेनापति, सार्थवाह प्रभृति का प्रात: व सायंकालीन आवश्यक कर्तव्य वह लौकिकद्रव्यावश्यक है। कुतीथिकों की क्रियाएँ कुप्रावच निकद्रव्यावश्यक है। श्रमण के गुणों से रहित, निरंकुश, [30] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले स्वच्छन्द-विहारी की अपने मत की दृष्टि से उभयकालीन क्रियाएँ लोकोत्तरद्रव्यावश्यक हैं / भावभावश्यक' पागमत: और नोप्रागमतः रूप में दो प्रकार का है। आवश्यक के स्वरूप को उपयोगपूर्वक जानना आगमतः भावनावश्यक है। नोप्रागमत: भावनावश्यक भी लौकिक और कुप्रावचनिक तथा लोकोत्तरिक रूप में तीन प्रकार का है। प्रातः महाभारत, सायं रामायण प्रभति का स-उपयोग पठन-पाठन लौकिकपावश्यक है। चर्म ग्रादि धारण करने वाले तापस आदि का अपने इष्टदेव को सांजलि नमस्कारादि करना कूप्रावच निक भावनावश्यक है। शुद्ध-उपयोग सहित वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखने वाले चविध तीर्थ का प्रात: सायंकाल उपयोगपूर्वक आवश्यक करना लोकोत्तरिक-भावनावश्यक है। __आवश्यक का निक्षेप करने के पश्चात् सूत्रकार श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन का निक्षेपपूर्वक विवेचन करते हैं। श्रुत भी आवश्यक की तरह 4 प्रकार का है—नामश्रुत, स्थापनाश्रुत, द्रव्यश्रुत और भावश्रुत / श्रुत के श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना-प्रवचन एवं प्रागम' ये एकार्थक नाम हैं। स्कन्ध के भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भावस्कन्ध ऐसे 4 प्रकार हैं। स्कन्ध के गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग, राशि, पुञ्ज, पिंड, निकर, संघात, याकूल और समूह, ये एकार्थक नाम हैं।४८ अध्ययन 6 प्रकार का है—सामायिक, चविशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान / सामायिक रूप प्रथम अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार अनुयोगद्वार हैं। उपक्रम का नामोपक्रम, स्थापनोक्रम , द्रव्योपक्रम, क्षेत्रोपक्रम, कालोपक्रम और भावोपक्रम रूप 6 प्रकार का है। अन्य प्रकार से भी उपक्रम के छह भेद बताये गये हैं--प्रानुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार / उपक्रम का प्रयोजन है कि ग्रन्थ के सम्बन्ध में प्रारम्भिक ज्ञातव्य विषय की चर्चा / इस प्रकार की चर्चा होने से ग्रन्थ में आये हए क्रमरूप से विषयों का निक्षेप करना / इससे वह सरल हो जाता है। पानपूर्वी के नाभानुपूर्वी, स्थापनानुपूर्वी, द्रव्यानुपूर्वी, क्षेत्रानुपूर्वी, कालानुपूर्वी, उत्कीर्तनानुपूर्वी, गणनानपूर्वी, संस्थानानुपूर्वी, सामागार्यानुपूर्वी, भावानुपूर्वी, ये दस प्रकार हैं जिनका सूत्रकार ने अतिविस्तार से निरूपण किया है। प्रस्तुत विवेचन में अनेक जैन मान्यताओं का दिग्दर्शन कराया गया है / नामानुपूर्वी में नाम के एक, दो यावत दस नाम बताये हैं। संसार के समस्त द्रव्यों के एकार्थवाची अनेक नाम होते हैं किन्तु वे सभी एक नाम के ही अन्तर्गत आते हैं। द्विनाम के एकाक्षरिकनाम और अनेकाक्षरिकनाम ये दो भेद हैं। जिसके उच्चारण करने में एक ही अक्षर का प्रयोग हो वह एकाक्षरिक नाम है। जैसे धी, स्त्री, ही इत्यादि। जिसके उच्चारण में अनेक अक्षर हों, वह अनेकाक्षरिकनाम है / जैसे- कन्या, वीणा, लता, माला इत्यादि। अथवा जीवनाम, अजीबनाम अथवा विशेषिकनाम, विशेषिकनाम इस तरह दो प्रकार का है। इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। त्रिनाम के द्रव्यनाम, गुणनाम और पर्यायनाम ये तीन प्रकार हैं। द्रव्यनाम के 47. सुयं सुत्तं गंथं सिद्धन्त सासणं प्राण त्ति वयण उवएसो। पण्णवणे प्रागमे वि य एगट्ठा पज्जवा सुत्ते // ---सू. 42, गाथा 1 48. गण काय निकाए निए खंधे बग्गे तहेव रासी य।। पूजे य पिण्डे निगरे संघाए पाउल समूहे // --सू. 12, गा.१ (स्कन्धाधिकार) ( 31) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अाकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और श्रद्धासमय (काल) ये छह भेद हैं / गुणनाम के वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम और संस्थाननाम आदि अनेक भेद-प्रभेद हैं। पर्यायनाम के एक गुण कृष्ण, द्विगुण कृष्ण, त्रिगुण कृष्ण, यावत् दसगुण, संख्येयगुण, असंख्येयगुण और अनन्तगुण कृष्ण इत्यादि अनेक प्रकार हैं / चतुर्नाम 4 प्रकार का है.-यागमत:, लोपतः, प्रकृतितः और विकारतः। विभक्त्यन्त पद में वर्ण का प्रागमन होने से पद्म का पानि ! यह पागमत: पद का उदाहरण है। वर्गों के लोप से जो पद बनता है वह लोपत: पद है; जैसे---पटोऽत्र-पटोत्र / सन्धिकार्य प्राप्त होने पर भी सन्धि का न होना प्रकृतिभाव कहलाता है। जैसे शाले एते, माले इमे / विकारत: पद के उदाहरण-दंडाग्रः, नदीह, मधुदकम् / पंचनाम पांच प्रकार का है-नामिक, नैपातिक, आख्यातिक, औपसगिक और मिश्र / पदनाम औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक ओर सन्निपातिक–छह प्रकार का है। इन भावों पर कर्मसिद्धान्त व गुणस्थानों की दृष्टि से विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसके पश्चात् सप्तनाम में सप्त स्वर पर, अष्टनाम में अष्ट विभक्ति पर, नवनाम में नवरस एवं दसनाम में गुणवाचक दस नाम बताये हैं। उपक्रम के तृतीय भेद प्रमाण पर चिन्तन करते हुए द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण के रूप में चार भेद किये गये हैं। द्रव्यप्रमाण प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न रूप से दो प्रकार का है। प्रदेशनिष्पन्न-द्रव्यप्रमाण के अन्तर्गत परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध प्रादि है। विभागनिष्पन्नद्रव्यप्रमाण के मान, उन्मान, अवमान, गणितमान और प्रतिमान, ये पांच प्रकार हैं। इनमें से मान के दो प्रकार है----धान्यभानप्रमाण, रसमानप्रमाण / धान्यमानप्रमाण के प्रसृति, सेधिका, कुडब, प्रस्थ, प्राढक, द्रोणि जघन्य, मध्यम, उत्कुष्ट, कुम्भ आदि अनेक भेद हैं। इसी प्रकार रसमान प्रमाण के भी विविध भेद हैं। उन्मान प्रमाण के अर्द्धकर्ष, कर्ष, अर्द्धपल, पल, अक्षतुला, तुला, अर्द्धभार, भार आदि अनेक भेद हैं। इस प्रमाण से अगर, कुमकुम, खाँड, गुड़ आदि वस्तुनों का प्रमाण मापा जा सकता है। जिस प्रमाण से भूमि प्रादि का माप किया जाय वह अवमान है / इसके हाथ, दंड, धनुष्य श्रादि अनेक प्रकार हैं। गणितमानप्रमाण में संख्या से प्रमाण निकाला जाता है / जैसे एक, दो से लेकर हजार, लाख, करोड़ आदि जिससे द्रव्य के पाय-व्यय का हिसाब लगाया जाय / प्रतिमानजिससे स्वर्ण आदि मापा जाय। इसके गुजा कांगणी निष्पाव, कर्ममाशक, मण्डलक, सोनया प्रादि अनेक भेद हैं। इस प्रकार द्रव्यप्रमाण की चर्चा है। क्षेत्र प्रमाण प्रदेश निष्पन्न और विभागनिष्पन्न दो प्रकार का है। एक-प्रदेशावगाही, द्वि-प्रदेशावगाही आदि पुदगलों से व्याप्त क्षेत्र को प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहा गया है। विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण के अंगुल, वितस्ति, हस्त. कुक्षि, दंड, कोश, योजन आदि नाना प्रकार हैं। अंगुल-प्रात्मांगुल, उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल के रूप में तीन प्रकार का है। जिस काल में जो मानव होते हैं उनके अपने अंगुल से 12 अंगुल प्रमाण मुख होता है / 108 अंगुल प्रमाण पूरा शरीर होता है। वे पुरुष उत्तम, मध्यम और जघन्य रूप से 3 प्रकार के हैं। जिन पुरुषों में पूर्ण लक्षण हैं और 108 अंगुल प्रमाण जिनका शरीर है वे उत्तम पुरुष हैं, जिन पुरुषों का शरीर 104 अंगुल प्रमाण है वे मध्यम पुरुष हैं और जिनका शरीर 96 अगुल प्रमाण है वे जघन्य पुरुष हैं। इन अंगुलों के प्रमाण से छह अंगुल का 1 पाद, 2 पाद की 1 वितस्ति, 2 वितस्ति का १हाथ, 2 हाथ की 1 कुक्षि, 2 कुक्षि का एक धनुष्य, दो हजार धनुष्य का 1 कोश, 4 कोश का एक योजन होता है। प्रस्तुत प्रमाण से प्राराम, उद्यान, कानन, चन, वनखण्ड, कुंआ, वापिका, नदी, खाई, प्राकार, स्तुप आदि नापे जाते हैं। उत्सेधांगुल का प्रमाण बताते हुए परमाणु त्रसरेणु, रथरेणु का वर्णन विविध प्रकार से किया है / प्रकाश में जो धूलिकण आँखों से दिखाई देते हैं वे बसरेणु हैं / रथ के चलने से जो धूलि उड़ती है वह रथरेणु है। परमाणु [ 32] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का दो दृष्टियों से प्रतिपादन हे सूक्ष्म-परमाणु और व्यावहारिक-परमाणु / अनन्त सूक्ष्म-परमाणुगों के मिलने से एक व्यावहारिक-परमाणु बनता है। व्यावहारिक-परमाणुओं की कमशः वृद्धि होते-होते मानवों का बालाग्र, लोख, जू, यब और अंगुल बनता है, जो क्रमश: पाठ गुने अधिक होते हैं। प्रस्तुत अंगुल के प्रमाण से छह अंगुल का अर्द्धपाद, 12 अंगुल का पाद, 24 अंगुल का एक हस्त, 48 अंगुल की एक कुक्षि, 96 अंगुल का 1 धनुष्य होता है। इसी धनुष्य के प्रमाण से दो हजार धनुष्य का 1 कोश और 4 कोश का 1 योजन होता है। उत्सेधागुल का प्रयोजन 4 गतियों के प्राणियों की अवगाहना नापना है। यह अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रूप से दो प्रकार की होती है। जैसे नरक में जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष्य प्रमाण है और उत्तर विक्रिमा करने पर जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार धनुष्य होती है। इस तरह उत्सेधागल का प्रमाण स्थायी, निश्चित और स्थिर है। उत्सेधांगुल से एक हजार गुना अधिक प्रमाणांगुल होता है। वह भी उत्सेधांगुल के समान निश्चित है। अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभ और उनके पुत्र भरत के अंगुल को प्रमाणांगुल माना गया है। अन्तिम तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर के एक अंगूल के प्रमाण में दो उत्सेधांगुल होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उनके 500 अंगुल के बराबर 1000 उत्सेधांगुल अर्थात 1 प्रमाणांगुल होता है। इस प्रमाणांगुल से अनादि पदार्थों का नाप ज्ञात किया जाता है। इससे बडा अन्य कोई अंगुल नहीं हैं। कालप्रमाग प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न रूप से दो प्रकार का है। एक समय की स्थिति वाले परमाण या स्कन्ध ग्रादि का काल प्रदेश निष्पन्न कालप्रमाण कहलाता है। समय, पावलिका, मुहर्त, दिन, अहोरात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्य, सागर, अवसर्पिणी, उत्सपिणी, परावर्तन आदि को विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहा गया है। समय बहुत ही मूश्म कालप्रमाण हैं। इसका स्वरूप प्रतिपादित करते हुए वस्त्र-विदारण का उदाहरण दिया है। असंख्यात समय की एक प्रावलिका, संख्यात प्रावलिका का एक उच्छ्वासनिश्वास, प्रसन्न मन, पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति के एक श्वासोच्छ्वास को प्राण कहते हैं। सात प्राणों का 1 स्तोक, 7 स्तोकों का 1 लव', उसके पश्चात् शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम की संख्या तक प्रकाश डाला है जिसका हम अन्य भागमों के विवेचन में उल्लेख कर चुके हैं / इस कालप्रमाण से चार गतियों के जीवों के आयुष्य पर विचार किया गया है। भावप्रमाण तीन प्रकार का है—गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण / गुणप्रमाण---जीवगुणप्रमाण और अजीवगुणप्रमाण इस तरह से दो प्रकार का है। जीवगुणप्रमाण के तीन भेद-ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाग और चारित्रगुणप्रमाण हैं। इसमें से ज्ञानगुणप्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ये चार भेद हैं। प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष दो भेद है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शन्द्रिय तक पांच भेद हैं। नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के प्रवधिज्ञान, मन पर्यवज्ञान और केवलज्ञानप्रत्यक्ष-ये तीन भेद हैं। अनुमान—पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् तीन प्रकार का है। पूर्ववत्अनुमान को समझाने के लिए एक रूपक दिया है। जैसे--किसी माता का कोई पुत्र लघुबय में अन्यत्र चला गया और युवक होकर पुनः अपने नगर में आया। उसे देखकर उसकी माता पूर्व लक्षणों से अनुमान करती है कि यह पुत्र मेरा ही है। इसे पूर्ववत्अनुमान कहा है। 49. प्रत्यक्षप्रमाण का विस्तृत विवरण नन्दीसूत्र के विवेचन में दिया गया है / इसके अतिरिक्त देखिए, लेखक का 'जैन आगम साहित्यः मनन मीमांसा' ग्रन्थ / [ 33 ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषवत अनुमान कार्यतः, कारणतः, गुणत:, अवयवतः और प्राश्रयत: इस तरह पांच प्रकार का है। कार्य से कारण का ज्ञान होना कार्यतःअनुमान कहा जाता है। जैसे शंख, भेरी आदि के शब्दों से उनके कारणभूत पदार्थों का ज्ञान होना; यह एक प्रकार का अनुमान है। कारणतः अनुमान वह है जिसमें कारणों से कार्य का ज्ञान होता है। जैसे--तन्तूपों से पट बनता है, मिट्टी के पिण्ड से घट बनता है। गुणतःअनमान वह है जिससे गण के ज्ञान से गुणी का ज्ञान किया जाय; जैसे-कसौटी से स्वर्ण की परीक्षा, गंध से फलों की परीक्षा। अवयवतः अनुमान है अवयवों से अवयवी का ज्ञान होना; जैसे—सींगों से महिष का, शिखा से कुक्कुट का, दांतों से हाथी का। आश्रयत:अनुमान वह है जिसमें पाश्रय से प्राश्रयी का ज्ञान होता है। इसमें साधन से साध्य पहचाना जाता है; जैसे धुएँ से अग्नि, बादलों से जल, सदाचरण से कुलीन पुत्र का ज्ञान होता है। रष्टसाधर्म्यवत-अनुमान के सामान्यदृष्ट और विशेषष्टये दो भेद हैं। किसी एक व्यक्ति को देखकर तद्देशीय या तज्जातीय अन्य व्यक्तियों की आकृति आदि का अनुमान करना सामान्यष्ट-अनुमान है। इसी प्रकार अनेक व्यक्तियों की प्राकृति आदि से एक व्यक्ति की प्राकृति का अनुमान भी किया जा सकता है। किसी व्यक्ति को पहले एक बार देखा हो, पुन: उसको दूसरे स्थान पर देखकर अच्छी तरह पहचान लेना विशेषष्ट-अनुमान है। उपमानप्रमाण के साधम्योपनीत और वैधोपनीत ये दो भेद हैं। साधोपनीत के किंचित साधयोंपनीत, प्रायःसाधोपनीत और सर्वसाधोपनीत ये—तीन प्रकार हैं। जिसमें कुछ साधर्म्य हो वह किंचितसाधोपिनीत है। उदाहरण के लिए जैसा आदित्य है वैसा खद्योत है, क्योंकि दोनों ही प्रकाशित हैं। जैसा चन्द्र है वैसा कुमुद है, क्योंकि दोनों में शीतलता है। जिसमें लगभग समानता हो वह प्राय:साधोपनीत है; जैसे- गाय है वैसी नील-गाय है। जिसमें सब प्रकार की समानता हो वह सर्वसाधम्योपनीत है। यह उपमा देश, काल आदि की भिन्नता के कारण अन्य में नहीं प्राप्त होती। अतः उसकी उसी से उपमा देना सर्वसाधोपनीत-उपमान है। इसमें उपमेय और उपमान भिन्न नहीं होते / जैसे—सागर सागर के सदृश है। तीर्थंकर तीर्थंकर के समान हैं। वैधयोपनीत के किचितवैधम्योपनीत, प्रायःवैधम्योपनोत और सर्ववैधोपनीत-ये तीन प्रकार हैं। आगम दो प्रकार के हैं-लौकिक और लोकोत्तर / मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए ग्रन्थ लौकिक आगम हैं। जिन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया है ऐसे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी द्वारा प्रतिपादित द्वादशांग गणिपिटक-यह लोकोत्तर आगम है अथवा आगम के सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम अथवा आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम, इस प्रकार तीन भेद हैं। तीर्थकर द्वारा कथित अर्थ उनके लिए प्रात्मागम है। गणधररचित सूत्र गणधर के लिए आत्मागम है और अर्थ उनके लिए परम्परागम है। उसके पश्चात् सूत्र, अर्थ दोनों परम्परागम हैं / यह ज्ञानगुणप्रमाण का वर्णन है। दर्शनगुणप्रमाण के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन गुणप्रमाण–ये चार भेद हैं / चारित्रगुणप्रमाण पांच प्रकार का है- सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यातचारित्र गुणप्रमाण / सामायिकचारित्र इत्वरिका और यावत्कथित रूप से दो प्रकार का है। छेदोपस्थापनीयच चार और निरतिचार (सदोष और निर्दोष) ऐसे दो प्रकार का है। इसी प्रकार परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यातचारित्र भी क्रमशः निविश्यमान और निविष्टकाविक, प्रतिपाती और अप्रतिपाती, छानस्थिक और कैवलिक इस प्रकार दो-दो तरह के हैं। चारित्रगुणप्रमाण के प्रवान्तर भेद-प्रभेदों पर प्रस्तुत पागम में प्रकाश नहीं डाला गया है। [34] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवगुणप्रमाण के 5 प्रकार हैं-वर्ण गुणप्रमाण, गंधगुणप्रमाण, रसगुणप्रमाण, स्पर्शगुणप्रमाण और इनके क्रमश: 5, 2, 5, 6 और 5 भेद प्रतिपादित किये गये हैं। यह गुणप्रमाण का वर्णन हुआ। भावप्रमाण का दूसरा भेद नयप्रमाण है। नय के नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवं भूत-ये सात प्रकार हैं। प्रस्थक, वसति एवं प्रदेश के दृष्टान्त से इन नयों का स्वरूप समझाया है। भावप्रमाण का तृतीय भेद संख्याप्रमाण है / वह नामसंख्या, स्थापनासंख्या, द्रव्यसंख्या, उपमानसंख्या, परिमाणसंख्या, ज्ञानसंख्या, गणनासंख्या और भावसंख्या-इस तरह आठ प्रकार का है। गणनासंख्या विशेष महत्त्वपूर्ण होने से उसका विस्तार से विवेचन किया है। जिसके द्वारा गणना की जाय बह गणनासंख्या कहलाती है। एक का अंक गिनने में नहीं पाता अत: दो से गणना की संख्या का प्रारम्भ होता है। संख्या के संप्रेयक, असंख्येयक और अनन्त, ये तीन भेद हैं / संख्येयक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद हैं / असंख्येयक के परीतासरूप्रेयका, यूक्तासंख्येयक और असंख्येयासंख्येयक तथा इन तीनों के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन-तीन भेद हैं। इस प्रकार असंख्येयक के 9 भेद हुए / अनन्तक के परीतान्तक, युक्तानन्तक और अनन्तानन्तक, ये तीन भेद हैं। इनमें से परीतान्तक और युक्तानन्तक के जपन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन-तीन भेद हैं और अनन्तान्तक के जघन्य और मध्यम, ये दो भेद हैं। इस प्रकार कुल 8 भेद होते हैं। संख्येयक के 3, असंख्येयक के 9 और अनन्तक के 8, कुल 20 भेद हुए। यह भावप्रमाण का वर्णन हुआ / हमने पूर्व पृष्ठों में सामायिक के चार अनुयोगद्वारों में से प्रथम अनुयोगद्वार उपक्रम के ग्रानुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार, ये 6 भेद किये थे। उनमें पानुपूर्वी, नाम और प्रमाण पर चिन्तन किया जा चुका है / अवशेष 3 पर चिन्तन करना है। वक्तन्यता के स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और उभय समयवक्तव्यता, ये तीन प्रकार हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि स्व-सिद्धान्तों का वर्णन करता स्वसमयवक्तव्यता है। अन्य मतों के सिद्धान्तों की व्याख्या करना परसमयवक्तव्यता है। स्वपर-उभय मतों की व्याख्या करना उभयसमयवक्तव्यता है। जो जिस अध्ययन का अर्थ है अर्थात विषय है वही उस अध्ययन का अधिकार है। उदाहरण के रूप में, जैसे आवश्यक सूत्र के 6 अध्ययनों का सावद्ययोग से निवत्त होना ही उसका विषयाधिकार है वही अर्थाधिकार कहलाता है। समवतार का तात्पर्य यह है कि प्रानुपूर्वी आदि जो द्वार हैं उनमें उन-उन विषयों का समवतार करना अर्थात सामायिक आदि अध्ययनों की प्रानुपूर्वी आदि पांच बातें विचार कर योजना करना / समवत स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसमवतार इस प्रकार छह भेद हैं। द्रव्यों का स्वगुण की अपेक्षा से प्रात्मभाव में नवतीर्ण होना-व्यवहारनय की अपेक्षा से पररूप में अवतीर्ण होना आदि द्रव्यसमवतार हैं। क्षेत्र का भी स्वरूप, पररूप और उभयरूप से समवतार होता है। काल समवतार श्वासोच्छ्वास से संख्यात, असंख्यात और अनन्तकाल (जिसका विस्तार पूर्व में दे चुके हैं) तक का होता है। भावसमवतार के भी दो भेद हैं—नात्मभावसमवतार और तदुभयसमवतार / भाव का अपने ही स्वरूप में समवतीर्ण होना प्रात्मभावसमवतार कहलाता है। जैसे-क्रोध का क्रोध के रूप में समवतीर्ण होना / भाव का स्वरूप और पररूप दोनों में समवतार होना तदुभयभावसमवतार है। जैसे-.--क्रोध का क्रोध के रूप में समवतार होने के साथ ही मान के रूप में समवतार होना तदुभयभावसमवतार है। [35] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वारसूत्र का अधिक भाग उपक्रम की चर्चा ने रोक रखा है। शेष तीन निक्षेप संक्षेप में हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना ऐसी है कि ज्ञातव्य विषयों का प्रतिपादन उपक्रम में ही कर दिया है जिससे बाद के विषयों को समझना अत्यन्त सरल हो जाता है। उपक्रम में जिन विषयों की चर्चा की गई है उन सभी विषयों पर हम तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करना चाहते थे जिससे कि प्रबुद्ध पाठकों को यह परिज्ञात हो सके कि प्रागमसाहित्य में अन्य स्थलों पर इन विषयों को चर्चा किस रूप में है। और परवर्ती साहित्य में इन विषयों का विकास किस रूप में हुआ है। पर समयाभाव के कारण हम चाहते हुए भी यहाँ नहीं कर पा रहे हैं। 'प्रमाण एक अध्ययन' शीर्षक लेख में हमने प्रमाण की चर्चा विस्तार से की है, अत: जिज्ञासु पाठक उस ग्रन्थ का अवलोकन कर सकते हैं / 50 निक्षेप—यह अनुयोगद्वार का दूसरा द्वार है। निक्षेप जैनदर्शन का एक पारिभाषिक और लाक्षणिक शब्द है। पदार्थबोध के लिए निक्षेप का परिज्ञान बहुत ही आवश्यक है। निक्षेप की अनेक व्याख्याएँ विभिन्न ग्रन्थों में मिलती हैं। जीतकल्पभाष्य में प्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है "नि' शब्द के तीन अर्थ है..—ग्रहण, आदान और प्राधिक्य / 'क्षेप' का अर्थ है--प्रेरित करना। जिस वचनपद्धति में नि/अधिक क्षेप/विकल्प है, वह निक्षेप है।५१ सूत्रकृतांगचूणि जिनदासगणिमहत्तर ने निक्षेप की परिभाषा इस प्रकार की है.--जिसका क्षेप/स्थापन नियत और निश्चित होता है, वह निक्षेप है / 52 वहद् द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द ने लिखा है, युक्तिमार्ग में प्रयोजनवशात्, जो वस्तु को नाम मादि चार भेदों में क्षेपण स्थापन करे वह निक्षेप है।५३ नयचक्र में प्राचार्य मल्लिसेन मल्लधारी ने निक्षेप की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है- वस्तु का नाम आदि में क्षेप करने या धरोहर रखना निक्षेप है।५४ षटखण्डागम की धवला टीका में प्राचार्य वीरसेन ने निक्षेप की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है—संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अस्थित वस्तु को उनसे निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है, वह निक्षेप है।५५ दुसरे शब्दों में यू कह सकते हैं, जो अनिर्णीत वस्तु का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव द्वारा निर्णय कराये वह निक्षेप है। इसे यों भी कह सकते हैं—अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करना निक्षेप है। 50. जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृष्ठ 376 से 405 / --लेखक देवेन्द्र मुनि शास्त्री 51. गहणं पादाण ति होति णिसद्दो तहाहियथम्मि / खिव पेरणे व भणितो अहिउक्खेवो तु णिक्खेवो / / ___-जीत कल्पभाध्य 809 (बवलचन्द्र केशवलाल मोदी, अहमदावाद) 52. निक्षिप्यतेऽनेनेति निक्षेपः / नियतो निश्चितो क्षेपो निक्षेपः / / —सूत्रकृतांगचूणि 1, पृष्ठ 17 53. जुत्ती सुजुत्तमग्गे जं चउभेयेण होइ खलु ठवणं / वज्जे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समये / / –बृहद्नयचक्र 269 54. वस्तु नामादिषु क्षिपतीति निक्षेपः / –नयचक्र 45 55. संशयविपर्यये अनध्यवसाये वा स्थितस्तेभ्योऽपसायं निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः / -धवला 4 | 1, 3, 1 / 2 / 6 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् शब्द का अर्थ में और अर्थ का शब्द में आरोप करना यानी शब्द और अर्थ को किसी एक निश्चित अर्थ में स्थापित करना निक्षेप है।५६ संक्षिप्त में सार यह है कि जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान या उपचार से वस्तु में जिन प्रकारों से प्राक्षेप किया जाय वह निक्षेप है। क्षेपक्रिया के भी दो प्रकार हैं, प्रस्तुत अर्थ का बोध कराने वाली शब्दरचना और दूसरा प्रकार है अर्थ का शब्द में आरोप करना / क्षेपणक्रिया वक्ता के भावविशेष पर प्राधृत है। प्राचार्य उमास्वाति ने निक्षेप का पर्यायवाची शब्द न्यास दिया है। तत्त्वार्थ राजवातिक में 'न्यासो निक्षेप:५७ के द्वारा स्पष्टीकरण किया है। नाम आदि के द्वारा वस्तू में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं / 58 निक्षेप के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार प्रकार हैं। प्रस्तुत द्वार में निक्षेप के अोधनिष्पन्न निक्षेप, नामनिष्पन्न निक्षेप और मुत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप- इस प्रकार तीन भेद किये हैं। अोघनिष्पन्न निक्षेप, अध्ययन, अक्षीण, प्राय और क्षपणा के रूप में चार प्रकार का है। अध्ययन के नामाध्ययन, स्थापनाध्ययन, द्रब्याध्ययन और भावाध्ययन--ये चार भेद हैं। अक्षीण के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव—ये चार भेद हैं। इन चार में भावाक्षीणता के ग्रागमत: भावाक्षीणता और नोयागमत: भावाक्षीणता कहलाती है। जो व्यय करने पर भी किचिन्मात्र भी क्षीण न हो वह नोग्रागमतः भावाक्षीणता कहलाती है। जैसे-एक जगमगाते दीपक से शताधिक दीपक प्रज्वलित किये जा सकते हैं, किन्तु उससे दीपक की ज्योति क्षीण नहीं होती वैसे ही प्राचार्य श्रत का दान देते हैं। वे स्वयं भी श्रतज्ञान से दीप्त रहते हैं और दुसरों को भी प्रदीप्त करते हैं / सारांश यह है कि श्रुत का क्षीण न होना भावाक्षीणता है। प्राय के नाम, स्थापनादि चार भेद हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ प्रशस्त प्राय है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की प्राप्ति अप्रशस्त प्राय है। क्षपणा के नाम, स्थापनादि चार भेद हैं / क्षपणा का अर्थ निर्जरा, क्षय है / क्रोधादि का क्षय होना प्रशस्त क्षपणा है। ज्ञानादि का नष्ट होना अप्रशस्त क्षपणा है। मोघनिष्पन्न निक्षेप के विवेचन के पश्चात नामनिष्पन्न निक्षेप का विवेचन करते हुए कहा है-जिस वस्तु का नामनिक्षेपनिष्पन्न हो चुका है उसे नामनिष्पन्ननिक्षेप कहते हैं, जैसे सामायिक / इसके भी नामादि चार भेद हैं / भावसामायिक का विवेचन विस्तार से किया है और भावमामायिक करने वाले श्रमण का प्रादर्श प्रस्तुत करते हुए बताया है—जिसकी आत्मा सभी प्रकार से सावध व्यापार से निवृत्त होकर मूलगुणरूप संयम, उत्तरगुणरूप नियम तथा तप आदि में लीन है उसी को भावसामायिक का अनुपम लाभ प्राप्त होता है। जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियों को प्रात्मवत देखता है, उनके प्रति समभाव रखता है वही सामायिक का सच्चा अधिकारी है। जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही अन्य प्राणियों को भी दःख प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर जो न किसी अन्य प्राणी का हनन करता है, न करवाता है और न करते हुए की अनुमोदना ही करता है वह श्रमण है, आदि / 56. णिच्छए णिण्णए खिवदि त्ति शिक्खेयो। -धवला पु. 1, पृ. 10 57. नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः। -तत्त्वार्थसूत्र 1 / 5 58. उपायो न्यास उच्यते। -धवला 1111111, गा. 11 / 17 [ 37 ] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रालापक निक्षेप वह है जिसमें 'करेमि भंते सामाइयं' आदि पदों का नामादि भेदपूर्वक व्याख्यान किया जाता है / इसमें सून का शुद्ध और स्पष्ट रूप से उच्चारण करने की सूचना दी है / अनुयोगद्वार का तृतीय द्वार अनुगम है / उत्तराध्ययनणि में अनुगम की व्याख्या इस प्रकार की गई है-जिसके द्वारा सूत्र का अनुसरण अथवा सूत्र के अर्थ का स्पष्टीकरण किया जाता है, वह अनुगम/व्याख्या है। अनुयोगद्वारणि में अनुगम की व्याख्या इस प्रकार मिलती है-अर्थ से सूत्र अणु अर्थात् लघु होता है, उसके अनुरूप गमन करना अनुगम है / 60 दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि सूत्र और अर्थ के अनुकूल गमन करना अनुगम है / 11 अनुयोगद्वार मलधारीय टीका में अनुगम को परिभाषा इस रूप में मिलती है--सूत्र पढ़ने के पश्चात् न करना अनुगम है। जिसके द्वारा सूत्रानुसारी ज्ञान होता है, वह अनुगम है।५२ अनुगम के मूत्रानुगम और निर्युक्त्यनुगम, ये दो भेद हैं / निर्युक्त्यनुगम के तीन भेद हैं- निक्षेपनियुक्त्यनुगम, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम / इसमें निक्षेपनियुक्त्यनुगम का विवेचन किया जा चुका है। उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम के उद्देश, निर्देश, निर्गम आदि छव्वीस भेद बताये हैं / सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम का अर्थ है-अस्खलित, अमिलित, अन्य सूत्रों के पाठों से असंयुक्त, प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ--अोष्ठ से विमुक्त तथा गुरुमुख से ग्रहण किये हुए उच्चारण से युक्त सूत्रों के पदों का स्व सिद्धान्त के अनुरूप विवेचन करना। अनुयोगद्वार का चौथा द्वार नय है / नय जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जो वस्तु का बोध कराते हैं वे नय हैं / 3 वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। बस्तु के उन सम्पूर्ण धर्मों का यथार्थ और प्रत्यक्ष ज्ञान केवल सर्वज्ञसर्वदर्शी को ही हो सकता है। पर सामान्य मानव में बह सामर्थ्य नहीं है। सामान्य मानव एक समय में कुछ का ही ज्ञान कर पाता है / यही कारण है कि उसका ज्ञान प्रांशिक है, प्रांशिक ज्ञान को नय कहते हैं। यह स्मरण रखना होगा, प्रमाण और नय ये दोनों ज्ञानात्मक हैं। किन्तु दोनों में अन्तर यही है कि प्रमाण सम्पूर्ण वस्तु का ज्ञान कराता है तो नय वस्तु के एक अंश का ज्ञान कराता है। प्रमाण को सकलादेश और नय को विकलादेश कहा है। सकलादेश में वस्तु के समस्त धर्मों की विवक्षा होती है पर विकलादेश में एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों की विवक्षा नहीं होती। विकलादेश को सम्यक् इसीलिए माना जाता है कि वह जिस धर्म की विवक्षा करता है उसके अतिरिक्त अन्य धर्मों का प्रतिषेध नहीं करता किन्तु उन धर्मों की उपेक्षा करता है। वक्ता के अभिप्राय की दृष्टि से नय का लक्षण इस प्रकार है-बिरोधी धर्मों का निषेध न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है / 4 दूसरे शब्दों में अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ शब्दप्रयोग नय है।६५ जितने वचन 59. अनुगम्यतेऽनेनास्मिश्चेति अनुगमः। -उत्तराध्ययनपूणि, पृष्ठ 9 60. प्रत्थातो सुत्तं अणु, तस्स अणुरूवग मणत्तानो अनुगमो। –अनुयोगद्वारचूर्णि, पृष्ठ 18 61. सूत्रार्थानुकूलगमनं वा अनुगमः। ----अनुयोगद्वारचूणि, पृष्ठ 23 62. सूत्रपठनादनु पाचाद् गमनं-व्याख्यानमनुगमः / अनुसूत्रमों गम्यते-ज्ञायते' अनेनेत्यनुगमः // --अनुयोगद्वार मल्लधारी टीका, पन्ना 54 63. नयंति गमयंति प्राप्नुवंति वस्तु ये ते नयाः। -उत्तराध्ययनचूणि, पृष्ठ 234 64. प्रमेयकमलमार्तण्ड / --पृष्ठ 676 65. सर्वार्थ सिद्धि / --श३३ [ 38 ] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रकार हैं, उतने ही नय भी हैं / 16 इस तरह नय के अनन्त भेद हो सकते हैं। तथापि उनका समाहार करते हुए और समझने की सरलता की दृष्टि से उन सब वनन-पक्षों को अधिक से अधिक सात भेदों में विभाजित कर दिया है / अनुयोगद्वार में सात नयों का वर्णन है। 1. नेग मनय, 2. संग्रहनय, 3. व्यवहारनय, 4. ऋजुसूत्रनय, 5. शब्दनय, 6. समभिरूढनय 7. एवं भूतनय / ठाणांग 67 और प्रज्ञापना 8 में भी सात नयों का वर्णन है। सात नयों में शब्द समभिरूढ़ और एवं भूत ये तीन शब्दनय है 66 और नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थनय हैं। तीन शब्द को विषय कहते हैं, अतः शब्दनय है और शेष चार अर्ध को अपना विषय बनाते हैं इसलिये अर्थनय सामान्य और विशेष प्रादि अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नैगमनय है।०० प्रस्तुत नय सत्तारूप सामान्य को द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व रूप अवान्तर सामान्य को असाधारण रूप विशेष तथा पररूप से व्यावृत्त और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को जानता है अथवा दो द्रव्यों में से, दो पर्यायों में से तथा द्रव्य और पर्याय में से किसी एक को मुख्य और दूसरे को गौण करके जानना नैगमनय है।" विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य रूप से जानना संग्रहनय है / 72 जैसे---जीव कहने से त्रस, स्थावर प्रभति सभी प्रकार के जीवों का परिज्ञान होता है, भेद महित सभी पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के विरोध के बिना एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला संग्रहनय है / 73 दूसरे शब्दों में समस्त पदार्थों का सम्यक प्रकार से एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।०४ अथवा यों भी कह सकते हैं कि व्यवहार की अपेक्षा न करके सतादि रूप से सकल पदार्थों का संग्रह करना संग्रहनय है। संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों का योग्य रोति से विभाग करने वाला अभिप्राय व्यवहारनय है।६ संग्रहनय जिस अर्थ को ग्रहण करता है. उस अर्थ का विशेष रूप से बोध करने के लिए उसका पृथक्करण अावश्यक होता है। यह सत्य है, संग्रहनय में सामान्य मात्र का ही ग्रहण होता है तथापि उस सामान्य का रूप क्या है ? इसका विश्लेषण करने के लिए व्यवहार की जरूरत होती है। इसलिए सामान्य को भेदपूर्वक ग्रहण करना व्यवहारनय है। वर्तमानकालवर्ती पर्याय को मान्य करने 66. जावड्या वयणपहा तावइया चेव होन्ति णयवाया। -सन्मतितकं, गाथा 47 67. सत्त मूलनया पं. तं.–नेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुते, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते / -स्थानांग 7552 68. से कि त णयगती ? जण भेगमसंगहवबहारउज्जुसुयससमभिरूढएवंभूयाणं नयाण जागती, अथवा सचणया वि जं इच्छति / प्रज्ञापना, पन्ना 16 69. तिहं सद्दनयाण। -अनुयोग द्वार 148 70. सामान्यविशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नंगमः। -जैनतकभाषा 71. णेगेहिं भाणे हि मिय इत्ति णेगमस्स य निरूती। -अनुयोग द्वारसूत्र 72. सामान्यमात्रग्राही परामर्श : संग्रहः / - जैनतर्कभाषा 73. स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदान् विशेषेण समस्तग्रहणात् संग्रहः / —सर्वार्थसिद्धि 1133 74. सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते / निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथासति विभाव्यते // -श्लोकवातिक 1133 75. व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहकः संग्रहनयः। --धवलाखण्ड 13 76. संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसंधिना क्रियते स व्यवहारः / - जैनतर्कभाषा 77. संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवह्रियते इति व्यवहारः। -आप्तपरीक्षा 9 [ 39] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले—ग्रहण करने वाले अभिप्राय को ऋजुसूत्रनय कहते हैं। 8 भूतकाल विनष्ट और भविष्यकाल अनुत्पन्न होने से वह केवल वर्तमान कालवी पर्याय को ही ग्रहण करता है। ऋजूसूत्रनय वर्तमान क्षण की पर्याय को ही प्रधानता देता है / जैसे—-मैं इस समय सुख भोग रहा हूँ। यहाँ पर क्षणस्थायी सुखपर्याय को सुख मानकर उस सुरवपर्याय का प्राधार जो प्रात्मद्रव्य है, उसको गौण कर दिया गया है। पर्यायवाची शब्दों में भी काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग के भेद से अर्थभेद मानना शब्दनय है।७६ विभिन्न संयोगों के आधार पर जो शब्दों में अर्थभेदी कल्पना की जाती है, वह शब्दनय है / पर्यायवाची शब्दों में भिन्न अर्थ को घोतित करना नियुक्ति थानी व्युत्पत्ति के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद स्वीकार करने वाला ममभिरूढनय है। इन्द्र, शक, पुरन्दर, प्रभति शब्द पर्यायवाची हैं। तथापि भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति से भिन्न-भिन्न अर्थ को धोतित करते हैं। शब्दनय तो समान काल, कारक, लिग आदि युक्त पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ मानता है। किन्तु कारक आदि का भेद होने पर ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थ भेद स्वीकार करता है। पर कारक आदि का भेद न होने पर पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ मानता है पर समभिरूढनय तो पर्यायभेद होने से ही उन शब्दों में अर्थभेद मानता है।८० जिस ममय पदार्थों में जो क्रिया होती है, उस समय क्रिया के अनुकूल शब्दों से अर्थ के प्रतिपादन करने को एवं भूतनय कहते हैं।६१ जैसे-~-ऐश्वर्य का अनुभव करते समय इन्द्र, समर्थ होने के समय शक्र और नगरों का नाश करते समय पुरन्दर कहना। एवंभूतनय निश्चय प्रधान है, शब्दों की जो व्युत्पत्ति है उस व्युत्पत्ति का निमित्तभुतक्रिया जव पदार्थ में होती है तब वह पदार्थ को उस शब्द का बाच्य मानता है। इस प्रकार सातों नय पूर्व-पूर्व नय से उत्तर-उत्तर नयों का विषय सुक्ष्म होता चला गया। नंगमनय सामान्य और विशेष भेद-अभेद दोनों को ग्रहण करता है। जबकि संग्रहनय की दृष्टि उससे संकीर्ण है, वह सामान्य और अभेद को विषय करता है। संग्रहनय से भी व्यवहारनय का विषय कम है। संग्रहनय जहाँ समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, और व्यवहारनय संग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से ग्रहण करता है। ऋजुसूत्रनय का विषय व्यवहारनय से कम है, कि व्यवहारनय त्रैकालिक विषय की सत्ता को मानता है। जबकि ऋजुमुत्रनय से वर्तमान पदार्थ का ही परिज्ञान होता है। ऋजुमुत्रनय की अपेक्षा शब्दनय का विषय कम है। क्योंकि शब्दनय काल आदि के भेद से वर्तमान पर्याय में भी भेद स्वीकार करता है। शब्दमय वर्तमान पर्याय के वाचक विविध पर्यायवाची शब्दो में से काल, लिंग, संख्या, पुरुष प्रादि व्याकरण मम्बन्धी विषमतानों का निराकरण करके केवल' समान काल, लिंग आदि शब्दों को एकार्थवाची मानता है। जबकि ऋजूसूत्रनय में काल ग्रादि का भेद नहीं होता / शब्दनय से भी समभिरूढ का विषय कम है। वह पर्याय और व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद मानता है। जबकि शब्दनय पर्यायवाची शब्दों में किसी भी प्रकार का भेद नहीं मानता / समभिरूडनय इन्द्र, शक्र आदि एकार्थवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की दृष्टि से भिन्न अर्थवाची मानता है। वह किमी एक ही शब्द को वाचक रूप में रूढ करता है। पर वह सूक्ष्मता शब्दनय में नहीं है। एवंभूतनय का विषय समभिरूढनय से भी न्यून है। वह अर्थ को भी उस शब्द का वाच्य तभी मानता है, जब अर्थ अपनी 78. (क) ऋजु वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्र प्राधान्यत: सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः / (ख) पच्चुप्पलग्गाही उज्जुसुनो णयविही मुणे अव्वो। -जैनतर्कभाषा 79. कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः / कालकारकलिंगसंख्यापुरुषोपसर्गाः कालादयः / --जैनतर्क भाषा 20. पर्यायशब्देषु नियुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहन् समभिरूढः / -जैनतर्कभाषा 81. येनात्मनाभूतस्तेनैवाध्यवसायतीति एवंभूतः। -सर्वार्थसिद्धि 1133 [ 40 ] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t) व्युत्पति मूल क्रिया में लगा हो। सारांश यह है, पूर्व-पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म और सूक्ष्मतर विषय वाला होता है; और उत्तर-उत्तर नय का विषय पूर्व-पूर्व नय के विषय पर ही आधत है। और प्रत्येक का विषय क्षेत्र उत्तरोत्तर त्यून होने से इनका परस्पर में पौरापर्य सम्बन्ध है। नयद्वार के विवेचन के साथ ही चारों प्रकार के अनुयोगद्वार का वर्णन पूर्ण होता है / इस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्द-सिद्धान्तों का विवेचन है। उपक्रम-निक्षेप शैली की प्रधानता और साथ ही भेद-प्रभेद की प्रचुरता होने से यह आगम अन्य प्रागमों से क्लिष्ट है तथापि जनदर्शन के रहस्य को समझाने के लिए यह अतीव उपयोगी है। जैनागम की प्राचीन चणि-टोकानों के प्रारम्भ के भाग को देखते हए ज्ञात होता है कि समग्र निरूपण में वही पद्धति अपनाई गई है जो अनुयोगद्वार में है। यह सिर्फ श्वेताम्बरसम्मत जैन आगमों को टीकानों पर ही नहीं लागू होता वरन् दिगम्बर अपनाई है। इसका प्रमाण दिगम्बरसम्मत षट्खण्डागम आदि प्राचीन शास्त्रों की टीका से मिलता है प्राचीनता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अनुयोगद्वार में सांस्कृतिक सामग्री भी प्रचार मात्रा में है। संगीत के सात स्वर, स्वरस्थान, गायक के लक्षण, ग्राम, मूच्र्छनाएँ, संगीत के गुण और दोष, नवरस, सामुद्रिक लक्षण, 108 अंगुल के माप वाले, शंखादि चिह्न वाले, मस, तिल प्रादि व्यंजन वाले उत्तम पुरुष प्रादि बताये गये हैं। निमित के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला है, जैसे-आकाशदर्शन और नक्षत्रादि के प्रशस्त होने पर सुवृष्टि और अप्रशस्त होने पर भिक्ष आदि / इस तरह इसमें सांस्कृतिक व सामाजिक वर्णन भी किया गया है। 82 अनुयोगहार के रचयिता या संकलनकर्ता आरक्षित माने जाते हैं। आर्य रक्षित से पहले यह पद्धति थी कि प्राचार्य अपने मेधावी शिष्यों को छोटे-बड़े सभी सूत्रों की वाचना देते समय चारों अनुयोगों का बोध थे। उस वाचना का क्या रूप था? वह आज हमारे समक्ष नहीं है, तथापि इतना कहा जा सकता है कि बे बाचना देते समय प्रत्येक सूत्र पर आचारधर्म, उसके पालनकर्ता, उनके साधन-क्षेत्र का विस्तार और नियमग्रहण की कोटि एवं भंग आदि का वर्णन कर सभी अनुयोगों का एक साथ बोध कराते थे। इसी वाचना को अपृथक्त्वानुयोग कहा गया है। प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि जब चरणकरणानुयोग आदि चारों अनुयोगों का प्रत्येक सूत्र पर विचार किया जाय तो वह अपृथक्त्वानुयोग है। अपृथक्त्वानुयोग में विभिन्न नपरष्टियों का अवतरण किया जाता है और उसमें प्रत्येक सूत्र पर विस्तार से चर्चा की जाती है।८३ आर्य वनस्वामी तक कालिक आगमों के अनुयोग (वाचना) में अनुयोगों का अपृथक्त्व रूप रहा / उसके पश्चात प्राय रक्षित ने कालिक श्रुत और दृष्टिवाद के पृथक् अनुयोग की व्यवस्था की।४ कारण निमार्यरक्षित के धर्मशासन में ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी और बादी सभी प्रकार के सन्त थे। उन शिष्यों में पुष्यमित्र के तीन विशिष्ट महामेधावी शिष्य थे। उनमें से एक का नाम दुर्बलिकापुष्यमित्र, दूसरे का धृतपुष्यमित्र और तीसरे का वस्त्रपुष्यमित्र था। ध्रतपुष्यमित्र और वस्त्रपुष्यमित्र की लब्धि का यह प्रभाव था कि प्रत्येक गृहस्थ के घर से श्रमणों को घृत और वस्त्र सहर्ष उपलब्ध होते थे। दुर्बलिकापुष्यमित्र निरन्तर स्वाध्याय में तल्लीन रहते थे। 82. 'नन्दोसुत्तं अनुयोगदाराई' की प्रस्तावना। -पृष्ठ 52 से 70 83. अपुहुत्तमेगभावो सुत्ते सुत्ते सुवित्थरं जत्थ / भन्नंतणुप्रोगा चरणधम्मसंखाणदल्याण // -आवश्यक मलयगिरि वृत्ति, पृ. 383 84. जावंति अज्जवइरा अपुहुत्तं कालियाणुनोगे य / तेणारेण पुहुत्त कालियसुय दिट्टिवाये य // (वहीं) [41] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायंरक्षित के अन्य मुनि, विन्ध्य, फल्गुरक्षित, गोष्ठामाहिल प्रतिभासम्पन्न शिष्य थे। उन्हें जितना सूत्रपाठ प्राचार्य से प्राप्त होता था उससे उन्हें सन्तोष नहीं होता था, अत: उन्होंने एक पृथक् वाचनाचार्य की व्यवस्था के लिए प्रार्थना की। आचार्य ने दुर्वलिकापुष्यमित्र को इसके लिए नियुक्त किया / कुछ दिनों के पश्चात् दुर्बलिकापुष्यमित्र ने प्राचार्य से निवेदन किया कि वाचना देने में समय लग जाने के कारण मैं पठित ज्ञान का पुनरावर्तन नहीं कर पाता, अतः विस्मरण हो रहा है। प्राचार्य को आश्चर्य हुआ कि इतने मेधावी शिष्य की भी यह स्थिति है / अतः उन्होंने प्रत्येक सूत्र के अनुयोग पृथक्-पृथक कर दिये / अपरिणामी और प्रतिपरिणामी शिष्य नय दृष्टि का मूलभाव नहीं समझ कर कहीं कभी एकान्त ज्ञान, एकान्त क्रिया, एकान्त निश्चय अथवा एकान्त व्यवहार को हो उपादेय न मान लें तथा सूक्ष्म विषय में मिथ्याभाव नहीं ग्रहण करें, एतदर्थ नयों का विभाग नहीं किया।८५ अनुयोगद्वार का रचना समय वीर निर्वाण संवत् 827 से पूर्व माना गया है और कितने ही विद्वान उसे दुसरी शताब्दी की रचना मानते हैं। प्रागमप्रभावक पुण्यविजयजी महाराज आदि का यह मन्तव्य है कि अनुयोग का पृथक्करण तो प्राचार्य प्रायं रक्षित ने किया किन्तु अनुयोगद्वारसूत्र की रचना उन्होंने ही की हो ऐसा निश्चित रूप से नहीं कह सकते। व्याख्या साहित्य मूल ग्रन्थ के रहस्य का समुद्घाटन करने हेतु अतीतकाल से उस पर व्याख्यात्मक साहित्य लिखा जाता रहा है। व्याख्यात्मक लेखक मूल ग्रन्थ के अभीष्ट अर्थ का विश्लेषण तो करता ही है, साथ ही उस सम्बन्ध में अपना स्वतन्त्र चिन्तन भी प्रस्तुत करता है। प्राचीनतम जैन व्याख्यात्मक साहित्य में प्रागमिक व्याख्याओं का गौरवपूर्ण स्थान है। उस व्याख्यात्मक साहित्य को पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है। (1) नियुक्तियाँ (निज्जुत्ति), (2) भाष्य (भास), (3) चूणियाँ (चुण्णि), (4) संस्कृत टीकाएँ और (5) लोकभाषाओं में रचित व्याख्याएँ / नियुक्तियाँ और भाष्य ये जैन आगमों की प्राकृत पद्य-बद्ध टीकाएँ हैं जिनमें विशेष रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्याएँ की गई हैं। इस व्याख्याशैली का दर्शन हमें अनुयोगद्वारसूत्र में होता है। पर अनुयोगद्वार पर न नियुक्ति लिखी गई है और न कोई भाष्य ही लिखा गया है। अनुयोगद्वार पर सबसे प्राचीन व्याख्या चूणि है। चणियाँ प्राकृत अथवा संस्कृतमिश्रित प्राकृत में लिखी गई व्याख्याएँ हैं। गद्यात्मक होने के क / यात्मक होने के कारण चणियों में भावनाभिव्यक्ति निर्बाध गति से हो पाई है। वह भाष्य और नियुक्ति की अपेक्षा अधिक विस्तृत और चतुर्मुखी ज्ञान का स्रोत है। अनुयोगद्वार पर दो चूणियाँ उपलब्ध हैं। एक चूणि के रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं, जो केवल अंगुल पद पर है / दूसरी अनुयोगद्वारचूणि के रचयिता जिनदासगणिमहत्तर हैं वे संस्कृत और प्राकृत के अधिकारी विज्ञ थे / इनके गुरु का नाम गोपालगणि था, जो वाणिज्यकुलकोटिक गण और वज्रशाखा के 85. (क) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पृष्ठ 399 (ख) प्रभावकचरित्र 240-243, पृष्ठ 17 (ग) ऋषिमण्डल स्तोत्र 210 [ 42] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान थे और उनके विद्यागुरु प्रद्युम्नक्षमाश्रमण थे। उनके पिता का नाम नाग था और माता का नाम गोपा था 86 जिनदासमहत्तर के जीवन के सम्बन्ध में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। नन्दीणि के अन्त में उन्होंने जो अपना परिचय दिया है, वह बहुत ही अस्पष्ट है / 60 उत्तराध्ययनणि में उन्होंने अपने गुरु के नाम का एवं कुल, गण और शाखा का उल्लेख किया है, पर स्वयं के नाम का उल्लेख नहीं किया। निशीथणि के प्रारम्भ में उन्होंने प्रद्युम्न क्षमाश्रमण का विद्यागुरु के रूप में उल्लेख किया है। निशीथचूर्णि के अन्त में उन्होंने अपना परिचय रहस्य शैली में दिया है। वे लिखते हैं, अकारादि स्वरप्रधान वर्णमाला को एक वर्ग मानने पर अवर्ग से सवर्ग तक पाठ वर्ग बनते हैं। प्रस्तुत क्रम से तृतीय 'च' वर्ग का तृतीय अक्षर 'ज', चतुथं 'ट' वर्ग का पंचम अक्षर 'ण', पंचम 'त' वर्ग का तृतीय अक्षर 'द', अष्टम वर्ग का तृतीय अक्षर 'स' तथा प्रथम 'अ' वर्ग की मात्रा 'इकार' द्वितीय मात्रा 'आकार' को क्रमश: 'ज' और 'द' के साथ मिला देने पर जो नाम होता है, उसी नाम को धारण करने वाले व्यक्ति ने प्रस्तुत चणि का निर्माण किया है / 12 अनुयोगद्वारणि के रचयिता जिनदासगणिमहत्तर ही हैं। उनका समय विक्रम संवत् 650 से 750 के मध्य है / क्योंकि नन्दीचूणि की रचना वि. सं. 733 में हुई है। अनुयोगद्वारणि मूल सूत्र का अनुसरण करते हुए लिखी गई है ! इस चूणि में प्राकृत भाषा का हो मुख्य रूप से प्रयोग हया है। संस्कृत भाषा का प्रयोग अति अल्प मात्रा में हुआ है। इसमें प्राराम प्रभृति शब्दों की व्याख्या है। प्रारम्भ में मंगल के सम्बन्ध में भावनन्दी का स्वरूपविश्लेषण करते हुए ज्ञान के 86. वाणिजकुलसंभूतो कोडियगणितो य वज्जसाहीतो। गोवालियमहत्तरप्रो विक्खातो पासि लोगम्मि / / ससमय-परसमयविऊ प्रोयस्सी देहिग सुगंभीरो। सीसगणसंपरिवडो वखाणरतिप्पियो प्रासी // तेसि सोसेण इमं उत्तज्झयणाण चण्णिरखंडं तु / रइयं अणुग्गहत्थं सीसाणं मंदबुद्धीग || -उत्तराध्ययनचूणि-१-२, 3, गाथा 57. सविसेसायरजुत्तं काउ पणामं च अत्यदायिस्स / पज्जुण्णखमासमणस्स चरण-करणाणुपालस्स // -निशोधविशेषचूणि, पीठिका 2 88. संकरजडमउडविभूसणस्स तण्णामसरिसणामस्स / तस्स सुतेणेस कता विसेसचुण्णी णिसीहस्स // .-निशीविशेषचूणि, उद्देशक 13 89. रविकरमभिधाणक्खरसत्तमवग्गंत-अक्खरजुएणं। णामं जसिथिए सुतेण तिसे कया चुण्णी // -निशीथ विशेषचूर्णि, उद्देशक 15 90. णि रे ग म म त ण ह स दा जि या पसुपतिसंखगजट्ठिताकुला। कमट्टिता धीमतचिंतियक्ख रा फुडं कहेयंतऽभिधाण कत्तुणो॥ नन्दीणि 1 91. उत्तराध्ययनचूणि 1, 2, 3 . 92. ति चउ पण अमवग्गे ति तिग अपखरा व तेसि / पढमततिएही तिदुसरजुएही णामं कयं जस्स // -निशीथचूर्णि [ 43 ] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच भेदों पर चिन्तन न कर यह लिखा है कि इस पर हम नन्दीचूणि' में व्याख्या कर चुके हैं। अतः उसका अवलोकन करने हेतु प्रबुद्ध पाठकों को मुचन किया है / इससे यह भी स्पष्ट है कि अनुयोगद्वारचूणि, नन्दीचूर्णि के पश्चात् लिखी गई। अनुयोगविधि और अनुयोगार्थ पर चिन्तन करते हुए आवश्यक पर पर्याप्त प्रकाश डाला है / आनुपूर्वी पर विवेचन करते हुए कालानुपूर्वी का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए उन्होंने पूर्वागों का परिचय दिया है। सप्त स्वरों का संगीत की दृष्टि से गहराई से चिन्तन किया है। वीर, शृगार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, वीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त इन नौ रसों का मोदाहरण निरूपण है। मात्मागुल, उत्सेधांगुल, प्रामाणांगुल, कालप्रमाण, मनुष्य प्रादि प्राणियों का प्रमाण गर्भज प्रादि मानकों की संख्या आदि पर विवेचन किया गया है। ज्ञान और प्रमाण, संख्यात असंख्यात, अनन्त आदि विषयों पर भी चूणिकार ने प्रकाश डालने का प्रयास किया है। प्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, जो सुप्रसिद्ध भाष्यकार रहे हैं, जिन्होंने अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर एक च िलिखी थी, उस चणि को जिनदामगणिमहत्तर ने अक्षरश: उदधत किया है। 3 प्रस्तुत चणि में प्राचार्य ने अपना नाम भी दिया है / 4 चणि के पश्चात जैन मनीषियों ने आगम साहित्य पर संस्कृत में अनेक टीकाएँ लिखी हैं। टीकादारों में प्राचार्य रिभद्रसूरि का नाम सर्वप्रथम है। वे प्राचीन टीकाकार हैं। हरिभद्रसूरि प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी प्राचार्य थे। उन्होंने अनेक आगमों की टीकाएँ लिखी हैं। अनुयोगद्वार पर भी उनकी एक महत्त्वपूर्ण टीका है, जो अनुयोगद्वारणि की शैली पर लिखी गई है। टीका के प्रारम्भ में उन्होंने सर्वप्रथम श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार कर अनुयोगद्वार पर विवृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है / 5 अनुयोगवृत्ति का नाम उन्होंने शिष्यहिता दिया है। इस वत्ति की रचना नन्दी विवरण के पश्चात हई है ! 6 मंगल आदि शब्दों का विवेचन नन्दीबत्ति में हो जाने के कारण इसमें विवेचन नहीं किया है, ऐसा टीकाकार का मत है। यावश्यक शब्द पर निक्षेपपद्धति से चिन्तन किया है। श्रुत पर निक्षेपपद्धति से विचार कर टीकाकार ने चतुर्विध श्रत के स्वरूप को आवश्यक विवरण से समझाने का सूचन किया है। स्कन्ध, उपक्रम प्रादि को भी निक्षेप की दृष्टि से समझाने के पश्चात विस्तार के साथ प्रानुपूनी वा प्रतिपादन किया है। प्रानुपूर्वी के अनुक्रम, अनुपरिपाटो, ये पर्यायवाची बताये हैं / आनुपूर्वी के पश्चात् द्विनाम से लेकर दशनाम तक का व्याख्यान किया गया है। प्रमाण पर चिन्तन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है और समय से लेकर पल्योपम-सागरोपम तक का वर्णन किया गया है। भावप्रमाण के वर्णन में प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रौपम्य, पागम, दर्शन, चारित्र नय और संख्या पर विचार किया है। जाननय और क्रियानय के समन्वय की उपयोगिता सिद्ध की गई है। - .--. 93. गणधरवाद पं. दलसुत्र मालवणिया, पृष्ठ 211 94. श्री श्वेताम्बराचार्य श्री जिनदासगणिमहत्तर पूज्यपादानामनुयोगद्वाराणां चूणिः ---अनुयोगद्वारणि 95. प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र त्रिदशेन्द्रनरेन्द्रपूजितं वीरम् / __ अनुयोगद्वाराणां प्रकटार्थी विवृत्तिमभिधास्ये // अनुयोगद्वारवृत्ति ? 96. नन्द्यध्ययनव्याख्यानसमनन्तरमेवानुयोगद्वाराध्ययनावकाशः। --अनुयोगद्वारवत्ति, पृष्ठ 1 97. विज्ञप्ति: फलदा पंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् / / क्रियन फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् / यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् // ...-अनुयोगद्वारवृत्ति, पृष्ठ 126, 127 [44 ] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वार पर दूसरी वृत्ति मलधारी प्राचार्य हेमचन्द्र की है। प्राचार्य हेमचन्द्र महान् प्रतिभा-सम्पन्न और आममों के समर्थ ज्ञाता थे। यह वृत्ति सूत्रस्पर्शी है। सूत्र के गुरु गम्भीर रहस्यों को इसमें प्रकट किया गया है। वृत्ति के प्रारम्भ में श्रमण भगवान महावीर को, गणधर गौतम प्रभृति प्राचार्यवर्ग को एवं श्रुत देवता को नमस्कार किया गया है। वृत्तिकार ने इस बात का स्पष्टीकरण किया है कि प्राचीन मेधावी प्राचार्यों ने चणि व टीकानों का निर्माण किया है। उनमें उन प्राचार्यों का प्रकाण्ड पाण्डित्य झलक रहा है। तथापि मैंने मन्दबुद्धि व्यक्तियों के लिए इस पर वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति ग्रन्थकार की प्रौढ रचना है। कृति के अध्ययन से ग्रन्थकार की गहन अध्ययनशीलता का अनुभव होता है। प्रागन के मर्मस्पर्शी विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्राचार्य आगम के एक मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनकी प्रस्तुत वति अनुयोगद्वार की गहनता को समझाने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। प्राचार्य हरिभद्र की टीका अत्यन्त संक्षिप्त थी और वह मुख्य रूप से प्राकृत चणि का ही अनुवाद थी। प्राचार्य हेमचन्द्र ने सुविस्तृत टीका लिखकर पाठकों के लिए अनुयोगद्वार को सरल और सूग्राह्य बना दिया है। वत्ति में यत्र-तत्र अन्य ग्रन्थों के श्लोक उधत किए गये हैं। वृति का व्रन्थमान 5900 श्लोक प्रमाण है। पर वृत्ति में रचना के समय का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। संस्कृत टीका युग के पश्चात् लोक भाषाओं में बालावबोध की रचनाएँ प्रारम्भ हुईं, क्योंकि टीकाओं में दार्शनिक विषयों की चर्चाएं चरम सीमा पर पहँच गई थीं। जनसाधारण उन विषयों को सहज रूप से नहीं समझ मकता था, अतः जनहित की दष्टि से आगमों के शब्दार्थ करने वाले संक्षिप्त लोकभाषाओं में टब्बानों का निर्माण किया। स्थानकवासी प्राचार्य मुनि धरमसिंहजी ने विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे / टब्वे मूलस्पर्शी अर्थ को स्पर्श करते हैं। सामान्य व्यक्तियों के लिए ये बहुत ही उपयोगी हैं। अनुयोगद्वार पर भी एक टब्बा लिखा हुआ है / टटबा के पश्चात आगमों का अनुवादयुग प्रारम्भ हमा। आचार्य अमोलक ऋषिजी म. ने स्थानकवासी परम्परामान्य बत्तीस ग्रागमों का हिन्दी अनुवाद किया। उसमें अनुयोगद्वार भी एक है। यह अनुवाद सामान्य पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। श्रमण संघ के प्रथम प्राचार्य प्रात्मारामजी म. ने आगमों के रहस्यों को समुद्घाटित करने हेतु अनेक ग्रागमों पर हिन्दी में व्याख्याएँ लिखीं। वे व्याख्याएँ सरल, सरस और सुगम हैं। उन्हाने अनुयोगद्वार पर भी संक्षिप्त म विवेचन लिखा। स्थानकवासी परम्परा के प्राचार्य घासीलालजी म. ते संस्कृत में विस्तृत टीकाएँ लिखीं। उन टीकाओं का हिन्दी और गुजराती में अनुवाद भी किया। प्राय: उनके रचित बत्तीस प्रागमों की टीकाएँ मुद्रित हो चुकी हैं। लेखक ने अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं। इस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र पर अनेक मुर्धन्य मनीषियों ने कार्य किया है। जब प्रकाशनयूग प्रारम्भ हुआ तब सर्वप्रथम सन् 1880 में अनुयोगद्वारसूत्र मलधारी हेमचन्द्रकृत वृत्ति सहित रायवहादुर धनपतसिंह कलकत्ता से प्रकाशित हया / उसके पश्चात सन 1915-16 में वही आगम देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार बम्बई से प्रकाशित हुआ है। पुनः सन् 1924 में प्रागमोदय समिति बम्बई से बह वृत्ति प्रकाशित हुई और सन् 19391940 में केसरबाई ज्ञान मन्दिर पाटन से यह वृत्ति प्रकाशित हुई। सन् 1928 में अनुयोगद्वार हरिभद्रकृत वृत्ति सहित ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ। [ 45 ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संवत् 2446 में सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी हैदराबाद ने अनुयोगद्वार, प्राचार्य अमोलक ऋषिजी द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद को प्रकाशित किया / सन् 1931 में श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्स बम्बई ने उपाध्याय प्रात्मारामजी म. कृत हिन्दी अनुवाद का पूर्वाधं प्रकाशित किया और उसका उत्तरार्ध मुरारीलाल चरणदास जैन पटियाला ने प्रकाशित किया। अनुयोगद्वारसूत्र का मूलपाठ अनेक स्थलों से प्रकाशित हना है, पर महावीर विद्यालय बम्बई का संस्करण अपनी शानी का है। शुद्ध मूलपाठ के साथ ही प्राचीनतम प्रतियों के आधार से महत्त्वपूर्ण टिप्पण भी दिये हैं और आगमप्रभावक पूण्यविजयजी म. की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना भी है। प्रस्तुत आगम स्वर्गीय सन्तरत्न युवाचार्य मधुकर मुनिजी महाराज ने पागम बत्तीसी के प्रकाशन का दायित्व वहन किया और उनकी प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने आगम सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। विविध मनीषियों के पुरुषार्थ से स्वल्प समय में अनेक आगम प्रकाशित होकर प्रबुद्ध पाठकों के हाथों में पहुंचे। प्रायः शुद्ध मूलपाठ, अर्थ और संक्षिप्त विवेचन के कारण यह संस्करण अत्याधिक लोकप्रिय हुआ है। प्रस्तुत जिनागम ग्रन्थमाला के अन्तर्गत अनुयोगद्वारसूत्र का शानदार प्रकाशन होने जा रहा है। पूर्व परम्परा की तरह इसमें भी शुद्ध मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद और विवेचन किया गया है। इस प्रागम के सम्पादक और विवेचक हैं उपाध्याय श्री केवलमुनिजी महाराज। आप ज्योतिपूरुष जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के शिष्यरल हैं / आप प्रसिद्ध प्रवचनकार, संगीतकार, कहानीकार, उपन्यासकार और निबन्धकार हैं। आपकी तीन दर्जन से अधिक पुस्तके विविध विधामों में प्रकाशित हुई हैं और वे अत्यधिक लोकप्रिय भी हुई हैं। आपश्री जीवन के उषाकाल में गीतकार रहे, शताधिक सरस-सरल भजनों का निर्माण कर जन-जन के प्रिय बने / उसके पश्चात् विविध विषयों पर कहानियां लिखीं, कहानियों के माध्यम से उन्होंने जन-जीवन में सुख और शान्ति का सरसज्ज बाग किस प्रकार लहलहा सकता है, इस पर प्रकाश डाला। उसके पश्चात् उनकी लेखनी उपन्यास की विधा को ओर मुड़ी। पौराणिक-ऐतिहासिक-धार्मिक कथाओं को उन्होंने उपन्यास विधा में प्रस्तुत कर जनमानस का ध्यान जैनसाहित्य को पढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। साथ ही उन्होंने ललित शैली में निबन्ध लिखकर अपनी उत्कृष्ट साहित्यिक रुचि का परिचय दिया। अनुयोगद्वार जैनागम साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है जैसा कि हम पूर्व पंक्तियों में बता चुके हैं। अनुयोगद्वार का सम्पादन करना बहुत ही कठिन है। किन्तु उपाध्याय श्रीजी ने सुन्दर सम्पादन कर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया है। यह सम्पादन अपने-आप में अनठा है। जिज्ञासु पाठकों के लिए अनुयोगद्वार का यह सुन्दर संस्करण अति उपयोगी सिद्ध होगा। सम्पादनकला विशारद पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से परिमार्जन कर सोने में सुगन्ध का कार्य किया है। मैं प्रस्तुत आगम पर बहुत ही विस्तार से प्रस्तावना लिखना चाहता था, पर पूना सन्त सम्मेलन होने के कारण पाली से पूना पहुँचना बहुत ही आवश्यक था। निरन्तर विहार यात्रा चलने के कारण तथा सम्मेलन के भीड़-भरे वातावरण में भी लिखना सम्भव नहीं था। सम्मेलन में महामहिम राष्ट्रसंत आचार्यसम्राट् श्री प्रानन्द ऋषिजी महाराज ने मुझे संघ का उत्तरदायित्व प्रदान किया, इसलिए समयाभाव रहना स्वाभाविक था। उधर प्रस्तावना के लिए निरन्तर आग्रह प्राता रहा कि लघु प्रस्तावना भी लिखकर भेज दें। समयाभाव के कारण संक्षेप [46 ] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ही कुछ लिख गया है। यदि कभी समय मिल गया तो विस्तार से अनुयोगद्वार पर लिखने की भावना रखता है। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुरुकर मुनिजी महाराज का मैं किन शब्दों में ग्राभार व्यक्त करूं। उनकी अपार कृपा सदा मुझ पर रही है। प्रस्तुत प्रस्तावना लिखने में भी उनका पथ-प्रदर्शन मेरे लिए सम्बल रूप में रहा है / अन्त में मैं आशा करता हूँ कि प्रबुद्ध पाठकगण प्रस्तुत प्रागम का स्वाध्याय कर अपने ज्ञान की अभिवृद्धि करेंगे और जीवन को पावन-पवित्र बनायेंगे। -उपाचार्य देवेन्द्र मुनि श्री तिलोकरत्न स्था. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड आचार्य आनन्द ऋषिजी महाराज मार्ग अहमदनगर (महाराष्ट्र) आचार्यसम्राट् जयन्ती-२६ जुलाई, 1987 [ 47 ] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोहाटी मद्रास ब्यावर जोधपुर मद्रास दुर्ग मद्रास श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर कार्यकारिणी समिति 1. श्रीमान सेठ कंवरलालजी वैताला अध्यक्ष 2. श्रीमान सेठ रतनचन्दजी मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष 3. श्रीमान सेठ खींवराजजी चोरडिया उपाध्यक्ष 4. श्रीमान् धनराजजी विनायकिया उपाध्यक्ष 5.. श्रीमान् हुक्मीचन्दजी पारख उपाध्यक्ष 6. श्रीमान् पारसमलजी चोरडिया उपाध्यक्ष 7. श्रीमान् जसराजजी पारख उपाध्यक्ष 8. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया महामंत्री 9. श्रीमान् चाँदमलजी विनायकिया मन्त्री 10. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा सहमन्त्री 11. श्रीमान अमरचन्दजी मोदी सहमंत्री 12 श्रीमान् जंवरीलालजी शीशोदिया कोषाध्यक्ष 13. श्रीमान् अमरचन्दजी बोथरा कोषाध्यक्ष 14. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता 15. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरड़िया सदस्य 16. श्रीमान् एस. बादलचन्दजी चोरडिया सदस्य 17. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा सदस्य 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा सदस्य 19. श्रीमान भंवरलालजो श्रीश्रीमाल सदस्य ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर मद्रास सदस्य इन्दौर मद्रास मद्रास ब्यावर सिकन्दराबाद दुर्ग 20. श्रीमान् चांदमलजी चौपडा सदस्य ब्यावर सदस्य मद्रास सदस्य नागौर सदस्य 21. श्रीमान् चन्दनमलजो चोरड़िया 22. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा 23. श्रीमान् आसूलालजी बोहरा 24. श्रीमान् सुमेरमलजी मेड़तिया 25. श्रीमान् जालमसिंहजी मेड़तवाल 26. श्रीमान् प्रकाशचन्दजी जैन महामन्दिर, जोधपुर जोधपुर सदस्य परामर्शदाता ब्यावर परामर्शदाता नागौर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिअज्जरक्खियथेरविरइयं अणुओगद्दारसुत्तं श्रीआर्यरक्षितस्थविरविरचित अनुयोगद्वारसूत्र Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वारसूत्र मंगलाचरण 1. नाणं पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा--आभिणियोहियणाणं 1. सुयणाणं 2. ओहिणाणं 3. मणपज्जवणाणं 4. केवलणाणं 5 / [1] ज्ञान के पांच प्रकार (भेद) कहे हैं / वे इस प्रकार-१ अभिनिबोधिकज्ञान, 2 श्रुतज्ञान, 3 अवधिज्ञान, 4 मन पर्यवज्ञान, 5 केवलज्ञान। विवेचन-यह मंगलाचरणात्मक सूत्र है। शास्त्र के स्वयं मंगलरूप होने पर भी सूत्रकार ने शिष्ट पुरुषों की आचार-व्यवहार-परंपरा का परिपालन करने के लिये, शास्त्र की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिये, शिष्यों को शास्त्र के विषयभूत अर्थज्ञान की प्राप्ति की दृढ़ प्रतीति कराने के लिये शास्त्र की आदि में मंगलसूत्र का निर्देश किया है। ज्ञान की मंगलरूपता कैसे ? सर्व ज्ञेय पदार्थों का ज्ञाता, विघ्नों का उपशमक, कर्म की निर्जरा का हेतु, निज-मानन्द का प्रदाता और प्रात्मगुणों का बोधक होने से ज्ञान मंगलरूप है। इसीलिये सूत्रकार की मंगलरूपता का बोध कराने के लिये ज्ञान के वर्णन से शास्त्र को प्रारम्भ किया है। ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति-भावसाधन, करणसाधन, अधिकरणसाधन और कर्तृ साधन इन चार प्रकारों से ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति संभव है 'ज्ञातिः ज्ञानम्' - अर्थात् जानना ज्ञान है। यह भावसाधन ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति है। अर्थात् जानने रूप क्रिया को ज्ञान कहते हैं। 'ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्' यह ज्ञान शब्द की करणसाधन व्युत्पत्ति है, अर्थात् प्रात्मा जिसके द्वारा पदार्थों को जानता है, वह ज्ञान है। इस व्युत्पत्ति द्वारा ज्ञानावरणकर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम लक्षित होता है। क्योंकि इनके होने पर ही आत्मा में ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। इसलिये ज्ञानावरणकर्म का क्षय और क्षयोपशम ज्ञान रूप होने के कारण अभेद संबंध से ज्ञानरूप ही है, जो पदार्थों को जानने में साधकतम है। 'ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा' पदार्थ जिसमें जाने जायें वह ज्ञान है—यह अधिकरणमूलक व्युत्पत्ति है। इसके द्वारा आत्मा ज्ञान रूप प्रतीत होता है। यहाँ परिणाम (ज्ञान) और परिणामी (आत्मा) का अभेद होने के कारण प्रात्मा को ज्ञान रूप मान लिया गया है / क्योंकि ज्ञानावरणकर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से विशिष्ट अात्मा का परिणाम ज्ञान है और आत्मा उस परिणाम वाला है। अथवा ज्ञान गुण है और आत्मा उस गुण का आधार होने से गुणवान्-गुणी है। 'जानातीति ज्ञानम्' इस कर्तसाधन व्युत्पत्ति से यह अर्थ लभ्य है कि आत्मा जानने की क्रिया का कर्ता है। इसलिये क्रिया और कर्ता में अभेदोपचार होने से ज्ञान का 'प्रात्मा' यह व्यपदेश होता है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 // [अनुमोगद्वारसूत्र उक्त समग्र कथन का सारांश यह हुआ कि जिसके द्वारा वस्तुओं का स्वरूप जाना जाये, अथवा जो निज स्वरूप का प्रकाशक है, अथवा जो ज्ञानावरणकर्म के क्षय या क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न होता है, वह ज्ञान है / ज्ञान की पंचप्रकारता का कारण-ज्ञान के पांच प्रकार-भेद अर्थापेक्षया तीर्थंकरों ने और सूत्र की अपेक्षा गणधरों ने प्ररूपित किये हैं। यह संकेत 'पण्णत्त-प्रज्ञप्त' शब्द द्वारा किया गया है।' अथवा 'पण्णत्तं' शब्द की संस्कृतछाया प्राज्ञाप्तं भी होने से यह अर्थ हुआ कि ज्ञान की पंचप्रकारता का बोध गणधरों ने प्राज्ञों-तीर्थकर भगवन्तों से प्राप्त प्राप्त किया है / अथवा 'पण्णत्ता' पद की संस्कृतछाया प्राज्ञात भी होती है। अतएव इस पक्ष में प्राज्ञों-गणधरों द्वारा आत्तां--- तीर्थकरों से ग्रहण किया है, यह अर्थ हुन्ना / अथवा 'प्रज्ञाप्तं' यह संस्कृत छाया होने पर यह अर्थ हुमा कि भव्य जीवों ने स्वप्रज्ञा-बुद्धि से ज्ञान की पंचप्रकारता का बोध प्राप्तं--प्राप्त किया है। सारांश यह कि सूत्रकार ने 'पण्णत्त' शब्द प्रयोग द्वारा अपनी लघुता प्रकट करते हुए यह स्पष्ट किया है कि स्वबुद्धि या कल्पना से यह कथन नहीं करता हूँ, प्रत्युत तीर्थकर भगवन्तों द्वारा निरूपित प्राशय को ही यहाँ स्पष्ट कर रहा हूँ / ' ज्ञान के पांच भेदों के लक्षण-क्रमश: इस प्रकार हैं आभिनिबोधिकज्ञान-योग्य देश में अवस्थित वस्तु को मन और इन्द्रियों की सहायता से जानने वाले बोध-ज्ञान को आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं। यह अर्थ अभि-नि-बोध इन शब्दों से प्रकट होता है। इस प्राभिनिबोधिकज्ञान का अपर नाम मतिज्ञान भी है। यहाँ ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञान का तथा अभिनिबोध शब्द इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले विशिष्ट ज्ञान का बोधक है। अतः 'प्राभिनिबोधिक. च तज्ज्ञानं च प्राभिनिबोधिकज्ञान' इस तरह इन दोनों सामान्य-विशेष-ज्ञानों में समानाधिकरणता है / श्रुतज्ञात-बोले गये शब्द द्वारा अर्थग्रहण रूप उपलब्धिविशेष को श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रत अर्थात शब्द / कारण में कार्य का उपचार करने से शब्द को भी श्रतज्ञान शब्द श्रोता को अभिलषित अर्थ का ज्ञान कराने में कारण है। यह ज्ञान भी मन और इन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होता है, फिर भी इसकी उत्पत्ति में इन्द्रियों की अपेक्षा मन की मुख्यता होने से इसे मन का विषय माना गया है। ___ अवधिज्ञान-'अवधानमवधिः इन्द्रियाद्यनपेक्षमात्मनः साक्षादर्थग्रहणम्, अवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम्'- अर्थात् इन्द्रियों और मन की सहायता के विना केवल ग्रात्मा द्वारा होने वाले अर्थग्रहण को अवधि कहते हैं और अवधिरूप जो ज्ञान वह अवधिज्ञान कहलाता है। मथवा मर्वा योकि 1. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं / -प्राब. नियुक्ति, गाथा 62 2. 'पण्णतंति' प्रज्ञप्तमर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरः प्ररूपितमित्यर्थः / प्रनेन स्त्रकृता प्रात्मन: स्वमनीषिकापरिहता भवति / -अनु. सूत्रवृत्ति, पृष्ठ 1 3. श्रुतमनिन्द्रियस्य / -तत्त्वार्थसूत्र 2 / 22 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतमान निरूपण] का अर्थ मर्यादा है और रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करना अरूपी को नहीं, यही इसकी मर्यादा-अवधि है / अतएव जो ज्ञान मर्यादा सहित-रूपी पदार्थों को जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं।। मनःपर्यवज्ञान-मन:-परि-अव इन तीन शब्दों से निष्पन्न 'मनःपर्यव' शब्द है / सज्ञी जीवों द्वारा काययोग से गहीत और मन रूप से परिणामित मनोवर्गणा के पुद्गलों को मन कहते हैं। 'परि' का अर्थ है सर्व प्रकार से और 'अव्' धातु रक्षण, गति, कांति, प्रीति, तृप्ति और अवगम (बोध) अर्थ में प्रयुक्त होती है / उक्त अर्थों में से यहाँ अवगम अर्थ में अव् धातु का प्रयोग हुआ है / अतएव संज्ञी जीवों द्वारा किए जाने वाले चिन्तन के अनुरूप मन के परिणामों को सर्व प्रकार से अवगम करना-जानना मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। केवलज्ञान-संपूर्ण ज्ञेय पदार्थों को (उनकी त्रिकालवर्ती गुण-पर्यायों सहित) विषय करने वाले, जानने वाले ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं। पांच ज्ञानों का क्रम केवलज्ञान के अतिरिक्त शेष मतिज्ञान प्रादि चार ज्ञानों के अनेक अवान्तर भेद हैं, जिन्हें जिज्ञासू जन नन्दीस्त्र प्रादि से जान लेवें / प्रासंगिक होने से पांच ज्ञानों के क्रमविन्यास का कारण स्पष्ट किया जाता हैं। सर्वप्रथम मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का निर्देश करने का कारण यह है कि ये दोनों ज्ञान सम्यक अथवा मिथ्या रूप में, न्यूनाधिक मात्रा में, समस्त संसारी जीवों में सदैव रहते हैं। इन दोनों ज्ञानों के होने पर ही शेष ज्ञान होते हैं। इसीलिये इन दोनों का सर्वप्रथम निर्देश किया है और दोनों में भी पहले मतिज्ञान के उल्लेख का कारण यह है कि मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है। मति और श्रत ज्ञान के अनन्तर अवधिज्ञान कहने का कारण यह है कि इन दोनों के साथ अवधिज्ञान की कई बातों में समानता है / यथा—जैसे मिथ्यात्व के उदय से मति और श्रुत ज्ञान मिथ्यारूप में परिणत होते हैं, उसी प्रकार अवधिज्ञान भी मिथ्यारूप में परिणत हो जाता है। तथा जब कोई विभंगज्ञानी सम्यग्दृष्टि होता है, तब तीनों ज्ञान एक साथ सम्यक् रूप में परिणत होते हैं / मति एवं श्रुत ज्ञान की लब्धि की अपेक्षा छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक स्थिति है, अवधिज्ञान की भी उतनी ही स्थिति है। अवधिज्ञान के अनन्तर मनःपर्यवज्ञान का निर्देश करने का कारण यह है कि दोनों में प्रत्यक्षत्व आदि की समानता है। जैसे अवधिज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, विकल है, क्षयोपशमजन्य है एवं रूपी पदार्थ इसका विषय है, उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञान भी है। केवलज्ञान सबसे अंत में प्राप्त होता है, अतएव उसका निर्देश सबसे अंत में किया है। इन पांच ज्ञानों में प्रादि के चार ज्ञान क्षायोपशमिक और अंतिम केवलज्ञान ज्ञानावरणकर्म के सर्वथा क्षय से पाविर्भूत होने के कारण क्षायिकभाव रूप है। 1. केवल शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण, अनन्त और निरावरण भी अर्थ होते हैं। इसका अर्थ ग्रन्थान्तरों से ज्ञात करें। 2. श्रुतं मतिपूर्व ............. / -तत्त्वार्थसूत्र 120 6. मतिश्रुतावधयो विपर्यमश्च / -तत्त्वार्थसूत्र 1232 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगदारसूत्र मतिज्ञानादि पांच ज्ञानों में से एक साथ एक जीव में अधिक से अधिक चार ज्ञान लब्धि की अपेक्षा से हो सकते हैं। यदि एक ज्ञान हो तो मात्र केवलज्ञान होगा। क्योंकि यह क्षायिक ज्ञान है, अतः इसके साथ मतिज्ञान आदि चार क्षायोपशमिक ज्ञानों का सद्भाव नहीं पाया जाता है। दो होने पर मति और श्रुत ज्ञान होंगे। क्योंकि ये दोनों ज्ञान सामान्यतया सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं / तीन होने पर मति, श्रुत और अवधि अथवा मति, श्रुत और मनःपर्यव यह तीन ज्ञान पाये जाते हैं और चारों हों तो मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव ये चारों ज्ञान संभव हैं। उपयोग की दृष्टि से एक समय में एक ही ज्ञान होता है। अभिधेयनिर्देश 2. तत्थ चत्तारि णाणाई ठप्पाइं ठवणिज्जाई, जो उहिस्संति णो समुहिस्संति णो अणुण्णविज्जति, सुयणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ / 2] इन (पांच प्रकार के) ज्ञानों में से चार ज्ञान (मति, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान) व्यवहार योग्य न होने से स्थाप्य हैं, स्थापनीय हैं। क्योंकि ये चारों ज्ञान (गुरु द्वारा शिष्यों को) उपदिष्ट नहीं होते हैं, समुपदिष्ट नहीं होते हैं और न इनकी प्राज्ञा दी जाती है। किन्तु श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होता है। विवेचन-सूत्र में श्रतज्ञान को अभिधेय कोटि में ग्रहण करने और शेष चार ज्ञानों को ग्रहण न करने के कारण को स्पष्ट किया है कि यद्यपि श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष मतिज्ञान आदि चारों ज्ञान भी पदार्थबोध के हेतु हैं, परन्तु श्रुतज्ञान की तरह इनमें शब्दव्यवहार की प्रवृत्ति का प्रभाव होने से ये अपने स्वरूप, अनुभव एवं पदार्थ के स्वरूप को व्यक्त नहीं कर पाते हैं। श्रुतज्ञान का आश्रय लिये बिना वे अपने विषयभूत हेयोपादेय विषय से न तो साक्षात् रूप में निवृत्त कराते हैं और न उसमें प्रवृत्त कराते हैं। इसीलिये उक्त चार ज्ञानों को यहाँ विचारकोटि में ग्रहणयोग्य नहीं माना है। जो लोकोपकार में प्रवृत्त होता है, वह संव्यवहार्य है, लेकिन मत्यादि चार ज्ञानों की स्थिति वैसी नहीं है। मत्यादि चार ज्ञानों के असंव्यवहार्य होने से इनका उद्देश, समुद्देश नहीं होता और न अनुज्ञाप्राज्ञा होती है। ये चारों ज्ञान अपने-अपने प्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम एवं क्षय से स्वतः हो जाया करते हैं। अपनी याविर्भति-उत्पत्ति में उद्देश, समुद्देश आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं। श्रुतज्ञान के उद्देश आदि होने का कारण-प्रायः लोक की हेयोपादेय अर्थ में प्रवत्ति-निवृत्ति श्रुतज्ञान के द्वारा देखने में ग्राती है तथा केवलज्ञानादि द्वारा जाने गये अर्थ की प्ररूपणा श्रुतज्ञान (शब्द) द्वारा की जाती है। इसीलिये उसे संव्यवहार्य-लोकव्यवहार का कारण होने से, गुरुपदेश से उसकी प्राप्ति होने से, गुरु द्वारा शिष्यों को प्रदान किये जाने से और स्वपर-स्वरूप का प्रतिपादन करने में समर्थ होने से श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा प्रादि किया जाना संभव है और जिसके उद्देश आदि होते हैं, उसमें अनुयोग, उपक्रम प्रादि अनुयोगद्वारों की प्रवृत्ति होती है। सारांश यह हुआ कि श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष चार ज्ञान आदान-प्रदान करने योग्य नहीं हैं, परोपकारी नहीं हैं, अपितु जिस ग्रात्मा को जो ज्ञान होता है वही उसका अनुभव करता है, अन्य नहीं / A . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतज्ञान निरूपण] किन्तु श्रुतज्ञान परोपकारी है इसीलिये श्रुतज्ञान के उद्देश प्रादि होते हैं और चारों ज्ञानों का स्वरूप - वर्णन भी श्रुतज्ञान द्वारा किया जाता है। विशिष्ट शब्दों के अर्थ-ठप्पाइं-स्थाप्य--असंव्यवहार्य-व्यवहार में जिनका उपयोग किया जाना संभव नहीं है। ठवणिज्जाइं-स्थापनीय हैं—अव्याख्येय होने से इस प्रसंग में वे विचारकोटि में ग्रहण किये जाने योग्य नहीं हैं / णो उहिस्संति- इनका उद्देश नहीं किया जाता है। तुम्हें पढ़ना चाहिए, शिष्य के लिये इस प्रकार के गुरु के ग्राज्ञा-उपदेश रूप बचन को उद्देश कहते हैं / णो समुद्दिस्संति-समुद्देश नहीं होता / यह पठित ग्रन्थ विस्मृत न हो जाय, अत: इसकी आवृत्ति करो, इसे स्थिर-परिचित करो, इस प्रकार का गुरु का प्रादेशमूलक वचन समुद्देश कहलाता है / णो अणुण्णविज्जति-अनुज्ञा-पाज्ञा नहीं दी जाती। पठित ग्रन्थ का धारणा रूप संस्कार जमाअो, दूसरों को इसे पढ़ाओ, इस प्रकार के गुरु के ग्राना रूप वचन को अनुज्ञा कहते हैं। 3. जइ सुयणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, कि अंगपविटुस्स उद्देसो समुद्देसो अगुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? अंगपविट्ठस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, अंगबाहिरस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पदत्तइ। ___ इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। [3 प्र.] भगवन् ! यदि श्रुतज्ञान में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो वह उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति अंगप्रविष्ट श्रुत में होती है / अथवा अंगबाह्य श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है ? 3 उ.] आयुष्मन् ! अंगप्रविष्ट (पाचारांग आदि) श्रुत में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तथा अंगबाह्य आगम (श्रुत) में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवर्तित होते हैं। 4. जइ अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अगुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, कि कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुग्णा अणुओगो? कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। उक्कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। [4 प्र.] भगवन् ! यदि अंगबाह्य श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो क्या वह उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति कालिकश्रुत में होती है अथवा उत्कालिक श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवर्तमान होते हैं ? [4 उ.] आयुष्मन् ! कालिकश्रुत में भी उद्देश यावत् अनुयोग की प्रवृत्ति होती है और उत्कालिक श्रुत में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होते हैं, किन्तु यहाँ उत्कालिक श्रुत का उद्देश यावत् अनुयोग प्रारम्भ किया जायेगा। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -4 क [अनुबोगवार विवेचन-यह दो सूत्र शास्त्र के वर्ण्य विषय की भूमिका रूप हैं और प्रश्नोत्तर के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि यद्यपि अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य रूप में माने गये दोनों प्रकार के श्रुत का अनुयोग किया जाता है। लेकिन यहाँ अंगबाह्यश्रुत और उसके भी कालिक एवं उत्कालिक रूप से माने गये दो भेदों में से मात्र उत्कालिक श्रुत के सम्बन्ध में अनुयोग का विचार किया जा रहा है। अंगप्रविष्ट--तीर्थंकरों के उपदेशानुसार जिन शास्त्रों की रचना स्वयं गणधर करते हैं, वे अंगप्रविष्ट शास्त्र कहलाते हैं / अंगबाह्य-अंगश्रुत का आधार लेकर जिनकी रचना स्थविर करते हैं, उन शास्त्रों को अंगबाह्य कहते हैं। कालिकश्रुत-जिस श्रुत का रात्रि व दिन के प्रथम और अंतिम प्रहर में स्वाध्याय किया जाता है। उत्कालिकश्रुत--जो अस्वाध्यायकाल को छोड़कर कालिक से भिन्नकाल में भी पढ़ा जाता है। अंगप्रविष्ट प्रादि विभागों में परिगणित शास्त्रों के नाम एवं परिचय के लिये नंदीसूत्र देखिये। 5. जइ उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? कि आवस्सगस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? आवस्सगवइरित्तस्स उद्देस्सो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? आवस्सगस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो, आवस्सगवरित्तस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगो।। [5 प्र. भगवन् ! यदि उत्कालिक श्रुत के उद्देश प्रादि 4 होते हैं तो क्या वे उद्देश आदि आवश्यक के होते हैं अथवा आवश्यकव्यतिरिक्त (आवश्यकसूत्र से भिन्न) उत्कालिक श्रुत के होते हैं ? [5 उ.] आयुष्मन् ! यद्यपि आवश्यक और आवश्यक से भिन्न दोनों के उद्देश आदि 4 होते हैं परन्तु यहाँ (इस शास्त्र में) आवश्यक का अनुयोग प्रारम्भ किया जा रहा है / विवेचन सूत्र में शास्त्र के निश्चित वर्ण्य विषय का संकेत किया गया है कि सूत्रकार को आवश्यकसूत्र का अनुयोग करना अभीष्ट है और इष्ट होने का कारण यह है कि आवश्यकसूत्र सकल समाचारी का मूल आधार है। आवश्यकसूत्र में उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा के प्रवर्तमान होने पर भी सूत्रकार ने उनका उल्लेख न करके अवसर प्राप्त होने की अपेक्षा केवल अनुयोग करने का संकेत किया है। अनुयोग का निरुक्त्यर्थ-सूत्र के साथ अनु--नियत-अनुकूल अर्थ का योग-जोड़ना अर्थात् इस सूत्र का यह अभिधेय है, इस प्रकार की संयोजना करके शिष्य को समझाना, सूत्र के अर्थ का कथन करना / अथवा एक सूत्र के अनन्त अर्थ होते हैं, इस प्रकार अर्थ महान् और सूत्र अणुरूप होता है, अतएव अणु-सूत्र के साथ अर्थ के योग को अणुयोग (अनुयोग) कहते हैं।' 1. निययाणुक लो जोगो सुत्तस्सत्थेण जो य अणुप्रोगो। सुत्तं च अणु तेणं जोगो अस्थस्स अशुप्रोगो॥ -अनुयोग. वृत्ति प. 7 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतमान निरूपण अनुयोगविषयक वक्तव्यता का क्रम इस प्रकार है-- 1. निक्षेप-नाम, स्थापना प्रादि रूप से बस्तु स्थापित करके अनुयोग (कथन) करना। 2. एकार्थ-अनुयोग के पर्यायवाची शब्दों को कहना जैसे अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा, वार्तिक, ये अनुयोग के समानार्थक पर्यायवाची नाम हैं।' 3. निरुक्ति-शब्दगत अक्षरों का निर्वचन करना। अर्थात् तीर्थकरप्ररूपित अर्थ का गणधरोक्त शब्दसमूह रूप सूत्र के साथ अनुकूल, नियत सम्बन्ध प्रकट करना / 4. विधि---सूत्र के अर्थ कहने अथवा अनुयोग करने की पद्धति को विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है--सर्वप्रथम गुरु को शिष्य के लिये सूत्र का अर्थ कथन करना चाहिये। दूसरी बार उस कथित अर्थ को नियुक्ति करके समझाना चाहिये और तीसरी बार प्रसंग, अनुप्रसंग सहित जो अर्थ होता हो उसका निर्देश करना चाहिये / यही सामान्य से अनुयोग की विधि है। अनुयोग श्रवण के अधिकारी सामान्य से परिषद् (श्रोतृसमूह) के तीन प्रकार हैं१. ज्ञायक 2. अज्ञायक और 3. दुर्विदग्धा / ज्ञायकपरिषद--गुण और दोषों के स्वरूप को जो विशेष रूप से जानती है और कुशास्त्रों के मानने वाले मतों में जिसे आग्रह नहीं होता, ऐसी परिषद् ज्ञायकपरिषद् कहलाती है। यह परिषद् हंस की तरह दोष रूपी जल का परित्याग करके गुण रूपी दूध को ग्रहण करने वाली होती है / अज्ञायकपरिषद-जिसके सदस्य स्वभावतः भद्र, सरल होते हैं और समझाने से सन्मार्ग पर या जाते हैं / ऐसी परिषद् को अज्ञायकपरिषद् कहते हैं / दुविदग्धापरिषद्-जिसके सदस्य किसी भी विषय में निष्णात न हों, अप्रतिष्ठा के भय से जो निष्णात से नहीं पूछे, ज्ञान के संस्कार से रहित, पल्लवग्राही पांडित्य से युक्त हों, ऐसे व्यक्तियों को सभा दुर्विदग्धापरिषद् कहलाती है। इन तीन परिषदानों में से आदि की दो अनुयोग का बोध प्राप्त करने योग्य हैं। अनुयोगकर्ता की योग्यता-अनुयोग करने के अधिकारी-कर्ता की योग्यता का शास्त्रों में इस प्रकार से उल्लेख किया है--- १-४–जो पार्यदेश में उत्पन्न हुआ हो। जिसका कुल (पितृवंश) और जाति (मातृवंश) विशुद्ध हो / सुन्दर प्राकृति, रूप आदि से संपन्न हो। 5. जो दृढ़ संहननी (शारीरिक शक्तिसंपन्न) हो / 6. धृतियुक्त-परिषह और उपसर्ग सहन करने में समर्थ हो / 7. अनाशंसी-सत्कार-सम्मान आदि का अनाकांक्षी हो। 8. अविकत्थन-व्यर्थ का भाषण करने वाला न हो / 9. अमायी-कपट - - -- -- ------ ----- 1. अणोगो य निमोगो भास विभासा य बत्तियं चेव / एए अणुप्रोगस्स य नामा एगट्ठिया पंच // -अनुयोगवृत्ति प. 7 2. सुत्तत्थो खलु पढमो, बीनो निज्जुत्तिमीसितो भणितो। तइश्रो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुप्रोगे। -अनुयोग. वृत्ति प. 7 3. अनुयोग. वृत्ति प.८ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [अनुयोगबारसूत्रः भावरहित-निष्कपट हो। 10. स्थिरपरिपाटी–अभ्यास द्वारा अनुयोग करने का स्थिर अभ्यासी अथवा गुरुपरम्परा से प्राप्त ज्ञान का धनी हो / 11. ग्रहीतवाक्य-पादेय वचन बोलने वाला हो। 12. जितपरिषद्-सभा को प्रभावित करने वाला एवं क्षुभित न होने वाला हो। 13. जितनिद्र- शास्त्रीय अध्ययन-चिन्तन-मनन करते हुए निद्रा का वशवर्ती नहीं होने वाला। 14. मध्यस्थ-पक्षपात रहित-- निष्पक्ष हो। 15 देश, काल, भाव का ज्ञाता हो। 16. आसन्नलब्धप्रतिभ-प्रतिवादी को परास्त करने की प्रतिभा से सम्पन्न हो। 17. नानाविधदेशभाषाविज्ञ-अनेक देशों की भाषाओं का ज्ञाता हो / 18. पंचविध प्राचारयुक्त-ज्ञानाचार आदि पांच प्रकार के प्राचारों का पालक हो। 19 सूत्रार्थतदुभय-विधिज्ञ-सूत्र, अर्थ एवं उभय (सूत्रार्थ) की विधि का जानकार हो। 20. आहरण-हेतु-उपनयनय-निपुण-उदाहरण, हेतु, उपनय और नय दृष्टि का मर्मज्ञ हो / 21. ग्राहणाकुशल-शिष्य को तत्त्व ग्रहण कराने में कुशल हो। 22. स्वसमय-परसमयवित्-स्व और पर सिद्धान्त में निष्णात हो / 23. गम्भीर-उदार स्वभाव वाला हो / 24. दीप्तिमान्-परवादियों द्वारा परास्त न किया जा सके / 25. शिव-जनकल्याण करने की भावना से भावित हो / 26. सौम्य-शान्त स्वभाव वाला हो / 27. गुणशतकलित-दया, दाक्षिण्य आदि सैकड़ों गुणों से युक्त हो। इस प्रकार के गुणों से युक्त व्यक्ति प्रवचन का अनुयोग करने में समर्थ होता है या अनुयोग करने का अधिकारी है।' इस प्रकार अनुयोग सम्बन्धी वक्तव्यता जानना चाहिये / प्रावश्यक पद के निक्षेप की प्रतिज्ञा 6. जइ आवस्सयस्स अणुओगो आवस्सयण्णं किमंग अंगाई ? सुयक्खंधो सुयक्संधा? अजायणं अज्झयणाई ? उद्देसगो उद्देसगा? ___ आवस्सयण्णं णो अंगं णो अंगाई, सुयक्खंधो पो सुयक्खंधा, णो अज्सयणं, अज्मयणाई, जो उद्देसगो, गो उद्देसगा। [6 प्र.] भगवन् ! यदि यह अनुयोग आवश्यक का है तो क्या वह (आवश्यकसूत्र) एक अंग रूप है या अनेक अंग रूप है ? एक श्रुतस्कन्ध रूप है या अनेक श्रुतस्कन्ध रूप है ? एक अध्ययन रूप है या अनेक अध्ययन रूप है ? एक उद्देशक रूप है या अनेक उद्देशक रूप हैं ? [6 उ.] आयुष्मन् ! आवश्यकसूत्र (अंगप्रविष्ट द्वादशांग से बाह्य होने से) एक अंग नहीं है और अनेक अंग रूप भो नहीं है। वह एक श्रुतस्कन्ध रूप है, अनेक श्रुतस्कन्ध रूप नहीं है, (छह अध्ययन होने से) अनेक अध्ययन रूप है, एक अध्ययन रूप नहीं है, एक या अनेक उद्देशक रूप नहीं है, (अर्थात् आवश्यकसूत्र में उद्देशक नहीं हैं / ) विवेचन--यहाँ आवश्यकसूत्र के परिचय संबन्धी एक और बहुवचन की अपेक्षा आठ प्रश्न हैं और उनके उत्तर दिये हैं कि यह छह अध्ययनात्मक श्रुतस्कन्ध रूप होने से अनेक अध्ययन और एक श्रुतस्कन्ध रूप है / शेष छह प्रश्न अग्राह्य होने से अनादेय हैं। 1. अनुयोग-वृत्ति प, 7 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निरूपण विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं-- अंग-तीर्थकरों के अर्थ-उपदेशानुसार गणधरों द्वारा शब्दनिबद्ध श्रुत की अंग संज्ञा है। श्रुतस्कन्ध अध्ययन का समूहात्मक बहतकाय खंड श्रुतस्कन्ध कहलाता है। अध्ययन-शास्त्र के किसी एक विशिष्ट अर्थ के प्रतिपादक अंश को अध्ययन कहते हैं / उद्देशक-अध्ययन के अन्तर्गत नामनिर्देशपूर्वक वस्तु का निरूपण करने वाला प्रकरणविशेष उद्देशक कहलाता है। आवश्यक आदि पदों का निक्षेप करने की प्रतिज्ञा 7. तम्हा आवस्सय णिक्सिविस्सामि, सुयं णिक्खिबिस्सामि, खंथं णिक्खिविस्सामि, अज्मयणं णिक्सिविस्सामि / [7] (आवश्यकसूत्र श्रुतस्कन्ध और अध्ययन रूप है) इसलिये आवश्यक का निक्षेप करूंगा। इसी तरह श्रुत, स्कन्ध एवं अध्ययन शब्दों का निक्षेप-यथासंभव नाम आदि में न्यास-करूंगा। 8. जत्थ य जं जाणेज्जा णिक्खेवं णिक्खिवे हिरवसेसं। जत्थ वि य न जाणेज्जा चउक्कयं निविखवे तत्थ // 1 // [8] यदि निक्षेप्ता (निक्षेप करने वाला) जिस वस्तु के समस्त निक्षेपों को जानता हो तो उसे (उस जीवादि रूप वस्तु में) उन सबका निरूपण करना चाहिये और यदि सर्व निक्षेपों को न जानता हो तो चार (नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव) निक्षेप तो करना ही चाहिये / / 1 / / विवेचन-इन दो सूत्रों में श्रावश्यक प्रादि पदों का निक्षेप करने की प्रतिज्ञा एवं अधिकतम, न्यूनतम निक्षेप करने के कारण व कर्ता की योग्यता का निर्देश किया है। आवश्यक आदि पदों का निक्षेप करने का कारण--पूर्व में यह स्पष्ट हो चुका है कि इस शास्त्र में आवश्यक का अनुयोग किया जायेगा। इसके अर्थ का स्पष्ट रूप से विवेचन तभी हो सकता है जब पदों का निक्षेप किया जाये / इसलिये आवश्यक आदि पदों का निक्षेप करने की प्रतिज्ञा की है। निक्षेप करने की उपयोगिता--यह है कि शब्द के विविध अर्थों में से प्रसंगानुरूप अर्थ की अभिव्यक्ति निक्षेप द्वारा ही होती है। ऐसा करने पर अर्थ का प्रतिपादन किस दृष्टि से किया जा रहा है, यह बात समझ में आती है। क्योंकि अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का विधान करने में निक्षेप ही समर्थ है। जिससे प्रकृन अर्थ का बोध और अप्रकृत अर्थ का निराकरण हो जाता है। निक्षेपकर्ता की योग्यता-वागव्यवहार की प्रामाणिकता का कारण निक्षेप है। इसलिये सामान्यतया तो साधारण, असाधारण सभी व्यक्ति इसके करने के अधिकारी हैं। लेकिन यदि निक्षेप्ता नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव प्रादि जितने रूप से शब्द का अर्थ जाने, अधिक से अधिक उतने प्रकारों द्वारा शब्द का निक्षेप करे ! यदि इन सब भेदों से परिचित न हो तो उसे शब्द का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार प्रकार से अवश्य निक्षेप करना चाहिये। क्योंकि इनका क्षेत्र व्यापक होने से प्रत्येक पदार्थ कम से कम नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव रूप तो है ही। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र : आवश्यक के निक्षेप 9. से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं चउन्विहं पण्णत्तं / तं जहानामावस्सयं 1 ठवणावस्सयं 2 दब्धावस्सयं 3 भावावस्सयं 4 / [9 प्र.] भगवन् ! आवश्यक का स्वरूप क्या है ? [9 उ.] आयुष्मन् ! आवश्यक चार प्रकार का कहा है / यथा-१. नाम-यावश्यक, 2. स्थापना-पावश्यक, 3 द्रव्य-यावश्यक, 4 भाव-आवश्यक / विवेचन--'यथोद्देशं निर्देशः' इस न्यायानुसार प्रथम आवश्यक का निक्षेप किया है। सूत्र में से किं तं प्रावस्सयं' इत्यादि में से 'से' अथ अर्थ का द्योतक मगधदेशीय शब्द है और 'प्रथ' शब्द का प्रयोग मंगल, अनन्तर, प्रारम्भ, प्रश्न और उपन्यास आदि अर्थों में होता है / प्रस्तुत में इसका उपयोग वाक्य के उपन्यास अर्थ में किया गया है। 'कि' प्रश्नार्थसूचक है और 'तं' पूर्व प्रक्रान्त परामर्शक सर्वनाम है। 'आवश्यक' शब्द का निर्वचन-विभिन्न रूपों में इस प्रकार किया जा सकता है जो अवश्य करने योग्य हो, वह आवश्यक है। अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ के द्वारा प्रतिदिन क्रमशः दिन और रात्रि के अंत में करने योग्य साधना को आवश्यक कहते हैं-अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम् / आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर पूर्ण रूपेण-सर्व प्रकार से गुणों के वश्य--अधीन करे, वह अावश्यक है—'गुणानां प्रासमन्ताद्वश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकम् / ' - इन्द्रिय और कषाय आदि भावशत्रु सर्वप्रकार से जिसके द्वारा वश में किये जाते हैं, वह पावश्यक है --'ग्रा-समन्ताद् वश्या भवन्ति इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो यस्मात्तदावश्यकम् / ' 'श्रावस्सयं' का संस्कृत रूप 'आवासक भी होता है / अतएव गुणशून्य आत्मा को सर्वात्मना गुणों से जो बासित करे उसे प्रावासक (ग्रावश्यक) कहते हैं—'गुणशून्यमात्मानम् प्रा-समन्तात् वासयति गुणैरित्यावासकम् / ' निक्षेपविधि के अनुसार आवश्यक के सामान्यतया नाम प्रादि चार प्रकार होने का कारण यह है कि प्रत्येक शब्द का अर्थ नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार रूपों में हो सकता है। शास्त्रीय भाषा में इस रूप का संकेत करने के लिये निक्षेप शब्द का प्रयोग हुआ है / अब यथाक्रम उक्त चार रूपों द्वारा आवश्यक का वर्णन करते हैं। नाम-स्थापना-प्रावश्यक 10. से कि तं नामावस्सयं? नामावस्सयं जस्स णं जीवस्स या अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सए त्ति नाम कीरए / से तं नामावस्सयं / 1. संयक्त पद का खण्ड-खण्ड रूप में पृथक्करण करके वाक्य के प्रथं के स्पष्टीकरण करने को निर्वचन कहते हैं। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निरूपण] [13 [10 प्र.] भगवन् ! नाम-आवश्यक का स्वरूप क्या है ? [10 उ.] आयुष्मन् ! जिस किसी जीव या अजीव का अथवा जीवों या अजीवों का, तदुभय (जीव और अजीव) का अथवा तदुभयों (जीवों और अजीवों) का (लोकव्यवहार चलाने के लिये) 'आवश्यक' ऐसा नाम रख लिया जाता है, उसे नाम-यावश्यक कहते हैं। 11. से कि तं ठवणावस्सयं ? जण्णं कटुकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संधाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगा वा सम्भावठवणाए वा असम्भावठवणाए वा आवस्सए त्ति ठवणा ठविज्जति / से तं ठवणावस्सयं / [11 प्र.] भगवन् ! स्थापना-आवश्यक का क्या स्वरूप है ? [11 उ.] आयुष्मन् ! स्थापना-आवश्यक का स्वरूप इस प्रकार है-काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म, ग्रंथिम, वेष्टिम, पूरिम, संघातिम, अक्ष अथवा वराटक में एक अथवा अनेक प्रावश्यक रूप से जी सदभाव अथवा असदभाव रूप स्थापना की जाती है, वह स्थापना-अावश्यक है। यह स्थापना-यावश्यक का स्वरूप है। 12. नाम-ट्टवणाणं को पइविसेसो ? णामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा। [12 प्र.] भगवन् ! नाम और स्थापना में क्या भिन्नता-अंतर है ? [12 उ.] आयुष्मन् ! नाम यावत्कथिक होता है, किन्तु स्थापना इत्वरिक और यावत्कर्थिक, दोनों प्रकार की होती है। विवेचन-इन तीन सूत्रों में नाम और स्थापना आवश्यक का स्वरूप एवं दोनों की विशेषता-- भिन्नता का निर्देश किया है। नाम-आवश्यक-नाम, अभिधान या संज्ञा को कहते हैं। अतएव तदात्मक आवश्यक नामआवश्यक कहलाता है / नाम-प्रावश्यक में नाम ही आवश्यक रूप होता है- अथवा नाम मात्र से ही जो आवश्यक कहलाये वह नाम-पावश्यक है। नाम का क्षेत्र इतना व्यापक है कि लोकव्यवहार चलाने के लिये जीव, अजीव, जीवों, अजीवों अथवा जीवाजीव से मिश्रित पदार्थ अथवा पदार्थों के लिये उपयोग होता है। इसको उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करते हैं / जीव का प्रावश्यक यह नामकरण किये जाने में व्यक्ति की इच्छा मुख्य है। जैसे किसी व्यक्ति ने अपने पुत्र का नाम देवदत्त रखा। लेकिन उसे देव ने दिया नहीं है, फिर भी लोकव्यवहार के लिये ऐसा कहा जाता है। यही दष्टि नाम-आवश्यक के लिये भी समझना चाहिये कि भावआवश्यक से शून्य किसी जीव, अजीव का व्यवहारार्थ आवश्यक नामकरण कर दिया गया है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अमुयोगहारभूत्र एक अजीव में आवश्यक नाम का प्रयोग इस प्रकार जानना चाहिये-आवश्यक शब्द का एक अर्थ आवास भी बतलाया है। अतएव सूखे अचित्त अनेक कोटरों से व्याप्त वृक्षादि में 'यह सर्प का आवास है, इस नाम से लोकव्यवहार होता है। अनेक जीवों के लिये आवासक यह नाम इस प्रकार घटित होता है---इष्टिकापाक आदि की अग्नि में अनेक मूषिकायें संमूर्छन जन्म धारण करती हैं। इस अपेक्षा से वह इष्टिकापाक आदि की अग्नि मूषिकावास रूप से कही जाती है / इस प्रकार उन असंख्यात अग्निजीवों का प्रावासक नाम सिद्ध होता है। अनेक अजीवों का प्रावासक नाम इस प्रकार जानना चाहिये--घोंसला अनेक अचित्त तिनकों से बनता है और उसमें पक्षी रहने से पक्षियों का वह आवासक है, यह कहा जाता है। अतः उन अनेक अजीवों में आवासक ऐसा नाम सिद्ध है। जीव और अजीव इन दोनों का प्रावासक यह नाम इस प्रकार है ---जलाशय, उद्यान आदि से युक्त राजमहल राजा का प्रावास नाम से कहलाता है। वहाँ जलाशय-उद्यान आदि सचित्त और ईंट आदि अचित्त हैं और इन दोनों से निष्पन्न राजमहल ग्रावास रूप होने से वह इन दोनों से निष्पन्न राजमहल आवास रूप होने से आवासक नामनिक्षेप का विषय बनता है। इसी प्रकार राजप्रासाद समस्त नगर राजा आदि का प्रावास रूप से व्यवहार में कह दिया जाता है। जिससे उन संमिलित अनेक अजीवों और जीवों का प्रावासक ऐसा नाम कहलाता है। इसी प्रकार अन्य सभी जीव आदि के लिये प्रावासक संज्ञा समझ लेना चाहिये। स्थापना-आवश्यक-'अमुक यह है' इस अभिप्राय से जो स्थापना की जाती है, उसे स्थापना और काष्ठादि की पुतली में आवश्यकवान् श्रावक आदि रूप जो स्थापना होती है उसे स्थापनाआवश्यक कहते हैं / यह आवश्यक क्रिया और आवश्यक क्रियावान में प्रभेदोपचार से संभव है। अर्थात भाव-यावश्यक से रहित वस्तु में भाव-अावश्यक के अभिप्राय से स्थापना किये जाने से इसे स्थापनाआवश्यक कहते हैं। __यह स्थापना तत्सदृश-तदाकार और असदश-अनाकार (अतदाकार) इन दोनों प्रकार की वस्तुओं में कुछ कालविशेष के लिये अथवा यावत्कथिक (जब तक वस्तु रहे तब तक) के लिये की जा सकती है। यद्यपि जैसे भाव-पावश्यक से शून्य वस्तु में नामनिक्षेप किया जाता है, उसी प्रकार भाव से शून्य वस्तु में तदाकार या अतदाकार स्थापना भी की जाती है। अतएव भावशून्यता की अपेक्षा दोनों में समानता है। परन्तु काल-मर्यादा की अपेक्षा दोनों में विशेषता होने से दोनों पृथक-पृथक माने श्रिय दव्य के अस्तित्व काल तक रहता है। अर्थात नामव्यवहार यावत्कथिक ही है, जबकि स्थापना स्वल्प काल के लिये भी और यावत्कथिक भी होती है / इसके सिवाय दोनों में अन्य प्रकार से भी भिन्नता संभव है / जैसे कि इन्द्रादि की प्रतिमा में कुंडल-कटक-केयूर ग्रादि से भूषित आकृति दिखती है और देखकर सम्मान, प्रादर का भाव पैदा होता है-वैसा नाम इन्द्र को देखने-सुनने से उल्लास आदि उत्पन्न नहीं होता है। इस प्रकार की स्थितिविशेष नाम और स्थापना निक्षेप के पार्थक्य-भिन्नता का कारण है। जाते Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्यकमिपणा सूत्रगत विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं कट्रकम्मे (काष्ठकर्म)-लकड़ी में उकेरी गई प्राकृति / चित्तकम्मे -(चित्रकर्म) कागज आदि पर चित्रित प्राकृति। पोत्थकम्मे (पुस्तकम)- कपड़े पर चित्रित प्राकृति आदि / अथवा पुस्तक प्रादि में बनाई गई रचना विशेष या ताडपत्र पर छेद कर बनाये गये प्राकार प्रादि / लेप्पकम्मे (लेन्यकर्म)गीली मिट्टी के पिंड से रचित प्राकार | गंथिमे (ग्रन्थिम)- सूत आदि को गूथकर बनाई गई रचना / वेढिमे (वेष्टिम)-एक, दो या अनेक वस्त्रों को वेष्टित कर, लपेटकर बनाया गया आकार / पूरिमे (पूरिम)-गर्म तांबे, पीतल ग्रादि को सांचे में ढालकर बनाया गया प्राकार / संघाइमे (संघातिम)पुष्पों आदि को अथवा अनेक वस्त्रखंडों को सांधकर-जोड़कर बनाया गया रूपक / अक्खे (अक्ष)चौपड़ के पासे प्रादि / वराडए (वराटक)-कौड़ी। 13. से कि तं दवावस्सयं ? दव्वावस्मयं दुविहं पण्णत्तं / तं जहा-आगमतो य 1 णो आगमतो य 2 / [13 प्र.] भगवन् ! द्रव्य-यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [13 उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यावश्यक दो प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार—१. प्रागमद्रव्यावश्यक, 2. नोग्रागमद्रव्यावश्यक / विवेचन----यहाँ भेद करके द्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया गया है। द्रव्य--जो उन-उन पर्यायों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है, अर्थात् जो अतीत, अनागत भाव का कारण हो उसे द्रव्य कहते हैं / विवक्षित पर्याय का जो अनुभव कर चुकी अथवा भविष्यत् काल में अनुभव करेगी ऐसी वस्तु प्रस्तुत प्रसंग में द्रव्य के रूप में परिगणित हुई है। ___ इस प्रकार का द्रव्य रूप जो आवश्यक हो वह द्रव्य-आवश्यक है / अर्थात् जो आवश्यक रूप परिणाम का अनुभव कर चुका अथवा भविष्य में अनुभव करेगा ऐसा अावश्यक के उपयोग से शून्य साधु का शरीर आदि द्रव्य-आबश्यक पद का अभिधेय है / प्रागमद्रव्य-यावश्यक 14. से किं तं आगमतो दवावस्सयं ? आगमतो दवावस्सयं जस्स णं आवस्सए ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं णामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अब्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पतिपुण्णधोसं कंठोविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं / से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, गो अणुप्पेहाए / कम्हा ? "अणुवओगो दव" मिति कटु / [14 प्र. भगवन् ! अागमद्रव्य-पावश्यक का क्या स्वरूप है ? [14 उ.] आयुष्मन् ! आगमद्रव्य-आवश्यक का स्वरूप इस प्रकार है-जिस (साधु) ने 'पावश्यक' पद को सीख लिया है, (हृदय में) स्थित कर लिया है, जित–प्रावृत्ति करके धारणा रूप कर लिया है, मित--श्लोक, पद, वर्ण आदि के संख्याप्रमाण का भली-भांति अभ्यास कर लिया है, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [अनुयोगद्वारसूत्र परिजित--आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी पूर्वक सर्वात्मना परावर्तित कर लिया है, नामसम-स्वकीय नाम की तरह अविस्मृत कर लिया है, घोषसम-उदात्तादि स्वरों के अनुरूप उच्चारण किया है, अहीनाक्षर-अक्षर की हीनतारहित उच्चारण किया है, अनत्यक्षर-अक्षरों की अधिकता रहित उच्चारण किया है, अव्याविद्धाक्षर-व्यतिक्रम रहित उच्चारण किया है, अस्खलित--स्खलित रूप (बीच-बीच में कुछ अक्षरों को छोड़कर) से उच्चारण नहीं किया है, अमिलित-शास्त्रान्तर्वर्ती पदों को मिश्रित करके उच्चारण नहीं किया है, अव्यत्यानंडित-एक शास्त्र के भिन्न-भिन्न स्थानगत एकार्थक सूत्रों को एकत्रित करके पाठ नहीं किया है,' प्रतिपूर्ण-अक्षरों और अर्थ की अपेक्षा शास्त्र का अन्यूनाधिक अभ्यास किया है, प्रतिपूर्ण घोष-यथास्थान समुचित घोषों पूर्वक शास्त्र का परावर्तन किया है, कंठोष्ठविप्रमुवत---स्वरोत्पादक कंठादि के माध्यम से स्पष्ट उच्चारण किया है, गुरुवाचनोपगत-गुरु के पास (अावश्यक शास्त्र की) वाचना ली है, जिससे वह उस शास्त्र की वाचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा से भी युक्त है। किन्तु (अर्थ का अनुचिन्तन करने रूप) अनुप्रेक्षा (उपयोग) से रहित होने से वह आगमद्रव्य-आवश्यक है। क्योंकि 'अनुपयोगो द्रव्यं' इस शास्त्रवचन के अनुसार आवश्यक के उपयोग से रहित होने के कारण उसे आगमद्रव्य-पावश्यक कहा जाता है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में पागमद्रव्य-प्रावश्यक का स्वरूप बताया है। सूत्रार्थ स्पष्ट है / आगम-श्रतज्ञान का कारण प्रात्मा, तदधिष्ठित देह और उपयोगशुन्य सुत्र का उच्चारण शब्द है। ये सभी साधन होने से कारण में कार्य का उपचार करके उन्हें पागम कहा है। द्रव्य कहने का कारण यह है कि विवक्षित भाव का कारण द्रव्य होता है। इसलिये आवश्यक में उपयोग रहित त्मा को आगमद्रव्य-मावश्यक कहा जाता है। यदि उपयोग पूर्वक अनप्रेक्षा हो तब वह भाव-प्रावश्यक जाये / अतएव अनुपयोग के कारण उसे द्रव्य-प्रावश्यक कहा गया है। सूत्रकार ने शिक्षितादि श्रुतगुणों के वर्णन द्वारा यह सूचित किया है कि इस प्रकार से शास्त्र का अभ्यासी भी यदि उसमें अनुपयुक्त (उपयोग बिना का) हो रहा है तो वह द्रव्यश्रुत-द्रव्ययावश्यक ही है। श्रुतगुणों में 'अहीनाक्षर' का ग्रहण इसलिये किया है कि होनाक्षर सूत्र का उच्चारण करने से अर्थ में भेद हो जाता है और उससे क्रिया में भेद भाने से परम कल्याण रूप मोक्ष की प्राप्ति न होकर अनन्त संसार की प्राप्ति रूप अनर्थ प्रकट होते हैं / घोषसम और परिपूर्ण घोष-इन दोनों विशेषणों में स घोषसम विशेषण शिक्षाकालाश्रयी है और परिपूर्णघोष विशेषण परावर्तनकाल की अपेक्षा है / प्रागमद्रव्य-पावश्यक और नयदृष्टियाँ 15. [1] गमस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एग दवावस्सयं, दोणि अणुवउत्ता आगमओ दोण्णि दवावस्तयाई, तिणि अणुवउत्ता आगमओ तिणि दव्वावस्सयाई, एवं जावइया अणुवउत्ता तावइयाई ताई गमस्स आगमओ दवावस्सयाई। 1. सूत्रों का पाठ करते समय बीच-बीच में स्वबुद्धि से रचित तत्सदृश सूत्रों का उच्चारण करना अथवा बोलले समय जहाँ विराम लेना हो वहाँ विराम नहीं लेना और जहाँ विराम नहीं लेना हो वहाँ विराम लेने को भी व्यत्याग्रंडित कहते हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निरूपण] [17 [15-1] नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त प्रात्मा एक आगमद्रव्य-प्रावश्यक है। दो अनुपयुक्त आत्माएं दो प्रागमद्रव्य-अावश्यक, तीन अनुपयुक्त आत्माएँ तीन भागमद्रव्य-प्रावश्यक है। इसी प्रकार जितनी भी अनुपयुक्त प्रात्माएँ हैं, वे सभी उतनी ही नैगमनय की अपेक्षा आगमद्रव्यअावश्यक है। [2] एवमेव ववहारस्स वि / [15-2| इसी प्रकार (नैगमनय के सदृश ही) व्यवहारनय भी प्रागमद्रव्य-आवश्यक के भेद स्वीकार करता है। [3] संगहस्स एगो वा अणेगा वा अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा आगमओ दव्वावस्सयं वा दवावस्सयाणि वा से एगे दव्वावस्सए / [15-3] संग्रहनय (सामान्यमात्र को ग्रहण करने वाला होने से) एक अनुपयुक्त प्रात्मा एक द्रव्य-यावश्यक और अनेक अनुपयुक्त प्रात्माएँ अनेक द्रव्य-प्रावश्यक हैं, ऐसा स्वीकार नहीं करता है / वह सभी आत्माओं को एक द्रव्य-पावश्यक ही मानता है। [4] उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दवावस्सयं, पुहत्तं नेच्छइ / / 15-4] ऋजुसूत्रनय के मन से एक अनुपयुक्त प्रात्मा एक अागमद्रव्य-प्रावश्यक है। वह पृथक्त्व-भेदों को स्वीकार नहीं करता है / [5] तिण्हं सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू / कम्हा? जइ जाणए अणुवउत्ते ण भवति / से तं आगमओ दवावस्सयं / [15-5] तीनों शब्दनय (शब्द, समभिरूढ, एवंभूत नय) ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हो तो उसे प्रवस्तु (असत) मानते हैं। क्योंकि जो ज्ञायक है वह उपयोगशुन्य नहीं होता है और जो उपयोगरहित है उसे ज्ञायक नहीं कहा जा सकता। यह पागम से द्रव्य-यावश्यक का स्वरूप है / विवेचन- सूत्र में पागमद्रव्य-पावश्यक के विषय में नयों का मन्तव्य स्पष्ट किया है / वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। किन्तु वचन में एक समय में एक ही धर्म का कथन करने की योग्यता होने से उस एक धर्म के ग्राहक बोध को नय कहते हैं। प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्मों के होने से नयों की संख्या भी अनन्त है, तथापि सुगमता से बोध कराने के लिये उनका सात विभागों में समावेश कर लिया जाता है। नैगमनय की मान्यतानुसार पदार्थ सामान्य और विशेष उभय रूप है / वह न केवल सामान्य रूप है और न केवल विशेष रूप ही है। अतः वह एक नहीं अपितु अनेक प्रकारों द्वारा अर्थ का बोध कराता है। अतएव उस नय की दृष्टि से विशेष रूप भेद को प्रधान मानकर जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, उतने ही आगमद्रव्य-यावश्यक हैं। वह संग्रहनय की तरह एक ही द्रव्य-अावश्यक नहीं मानता। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [अनुयोगद्वारसूत्र संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थों का विधिपूर्वक विभाग जिस अभिप्राय से किया जाता है, उस अभिप्राय को व्यवहारनय कहते हैं। व्यवहारनय में लौकिक प्रवृत्ति-व्यवहार की प्रधानता होती है, जिससे वह लोकव्यवहारोपयोगी पदार्थों को स्वीकार करता है, अन्य को नहीं। लोकव्यवहार में जल श्रादि लाने के लिये घट आदि 'विशेष' उपकारी दिखते हैं अतः उस विशेष के अतिरिक्त अन्य कोई घटत्व आदि सामान्य नहीं है / अतएव व्यवहारनय विशेष को वस्तु रूप से स्वीकार करता है, सामान्य को नहीं। जिससे विशेष-भेद की मुख्यता से नैगमनय के सदृश ही जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हों, उतने ही आगमद्रव्य-आवश्यक हैं / इस प्रकार प्ररूपणा में समानता होने से सूत्रकार ने क्रमप्राप्त संग्रहनय को छोड़कर ग्रन्थलाधव की दृष्टि से व्यवहारनय का उपन्यास संग्रहनय से पूर्व और नैगमनय के अनन्तर किया है / समस्त भुवनत्रयवर्ती वस्तुसमूह का सामान्यमुखेन संग्रह करने वाले, जानने वाले संग्रहनय की अपेक्षा एक अथवा अनेक जितनी भी अनुपयुक्त आत्मायें हैं, वे सब आगम से एक द्रव्य-आवश्यक है। क्योंकि संग्रहनय मात्र सामान्य को ही ग्रहण करता है, विशेषों को नहीं और विशेषों को स्वीकार न करने में उसका मन्तव्य यह है कि वे विशेष सामान्य से पृथक् हे या अपृथक् हैं ? यदि प्रथमपक्ष स्वीकार किया जाय तो सामान्य के अभाव में खरविषाणवत् विशेष सम्भव नहीं हैं और विशेष सामान्य से अपृथक् होने से वे सामान्य ही है। इसलिये सामान्य से व्यतिरिक्त विशेष सम्भव नहीं हैं। अतः जितने भी द्रव्य-आवश्यक हैं, वे सभी सामान्य से अव्यतिरिक्त होने के कारण एक ही पागमद्रव्य-आवश्यक रूप हैं। अतीत, अनागत पर्यायों को छोड़कर वर्तमान स्वकीय पर्याय को स्वीकार करने वाला ऋजुसूवनय एक आगमद्रव्य-प्रावश्यक को मानता है, पार्थक्य-भेद को स्वीकार नहीं करता है। क्योंकि अतीत पर्याय के विनष्ट होने और अनागत पर्याय के अनुत्पन्न होने से वह वर्तमान पर्याय को ही मानता है और वह वर्तमान पर्याय एक सामयिक होने से एक ही है। इसी कारण इस नय की दृष्टि में पृथक्त्व-नानात्व नहीं है / जिससे इस नय की मान्यतानुसार ग्रागमद्रव्य-अावश्यक एक ही है, अनेक नहीं। शब्दप्रधान नयों का नाम शब्दनय है। शब्द के द्वारा ही अर्थावगम होने से ये शब्द को प्रधान मानते हैं। शब्द, समभिरूढ़ और एबं भूत के भेद से शब्दनय तीन हैं। इनका मन्तव्य है कि ज्ञातृत्व और अनुपयुक्तता का समन्वय सम्भव नहीं है। क्योंकि ज्ञाता होने पर अनुपयुक्त और अनुपयुक्त होने पर ज्ञाता यह स्थिति वन नहीं सकती है। ज्ञाता है तो वह उसमें उपयुक्त है और यदि अनुपयुक्त है तो वह उसका ज्ञाता नहीं है। इसलिये आवश्यकशास्त्र के अनुपयुक्त ज्ञाता को लेकर की जाने वाली आगमद्रव्य-प्रावश्यक की प्ररूपणा असत् है। इस प्रकार से आगमद्रव्य-ग्रावश्यक का स्वरूप एवं तत्सम्बन्धित नयों का मन्तव्य जानना चाहिये। नोग्रागमद्रव्य-आवश्यक 16. से कि तं नोआगमतो दवावस्सयं? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निरूपण] नोआगमतो दन्वावस्तयं तिविहं पण्णत्तं / तं जहा-जाणगसरीरदब्वावस्सयं 1 भवियसरीरदव्वावस्सयं 2 जाणगसरीरवियसरीरवतिरित्तं दवावस्सयं 3 / [16 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्य-यावश्यक का स्वरूप क्या है ? [16 उ.] अायुष्मन् ! नोआगमद्रव्य-यावश्यक तीन प्रकार का है। यथा-१. ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक, 2. भव्यशरीरद्रव्यावश्यक, 3. जायकशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्तद्रव्यावश्यक / विवेचन--सूत्र में भेदों के द्वारा नोआगमद्रव्यावश्यक का स्वरूप बताया है। नो शब्द का प्रयोग सर्वथा और एकदेश दोनों प्रकार के निषेधों में होता है / यहाँ नोग्रागमद्रव्यावश्यक के भेदों में 'नो' शब्द सर्वथा और एकदेश अभाव के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि इन भेदों में पागम काआवश्यकादि ज्ञान का सर्वथा अभाव है और एकदेशप्रतिषेधवचन में नो शब्द का उदाहरण इस प्रकार जानना चाहिये-यावर्तादि क्रियाओं को करते और वंदनासूत्र प्रादि रूप आगम का उच्चारण करते हुए जो आवश्यक करते हैं, वे नोग्रागभद्रव्यावश्यक हैं / इसके तीन प्रकार हैं / अब क्रम से उनका विवेचन करते हैं। नोआगमजायकशरीरद्रव्यावश्यक 17. से कि तं जाणगसरीरदवावस्सयं ? जाणगसरोरदव्यावस्सयं आवस्सए त्ति पदत्याधिकारजाणगस्स जं सरीरयं ववगयचुतचावितचत्तदेहं जीवविष्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ता णं कोइ भणेज्जा-अहो! णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिङेणं भावेणं आवस्सए ति पयं आधनियं पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उपदसियं / जहा को दिळंतो? अयं महकुभे आसी, अयं घयकुभे आसी / से तं जाणगसरोरदवावस्सयं। [17 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [17 उ.] आयुष्मन् ! आवश्यक इस पद के अर्थाधिकार को जानने वाले के व्यपगतचैतन्य से रहित, च्युत-च्यावित ग्रायकर्म के क्षय होने से श्वासोच्छवास आदि दस प्रकार के प्राणों से रहित, त्यक्तदेह-आहार-परिणतिजनित वृद्धि से रहित, ऐसे जीव विप्रमुक्त शरीर को शैयागत, संस्तारकगत अथवा सिद्धशिलागत-अनशन ग्रादि अंगीकार किये गये स्थान पर स्थित देखकर कोई कहे-'अहो ! इस शरीररूप पुद्गलसंघात ने जिनोपदिष्ट भाव से आवश्यक पद का (गुरु से) अध्ययन किया था, सामान्य रूप से शिष्यों को प्रज्ञापित किया था, विशेष रूप से समझाया था, अपने प्राचरण द्वारा शिष्यों को दिखाया था, निदर्शित---अक्षम शिष्यों को आवश्यक ग्रहण कराने का प्रयत्न किया था, उपशित-नयों और युक्तियों द्वारा शिष्यों के हृदय में अवधारण कराया था। ऐसा शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्य-आवश्यक है। शिष्य -इसका समर्थक कोई दृष्टान्त है ? प्राचार्य--(दृष्टान्त इस प्रकार है...) यह मधु का घड़ा था, यह घी का घड़ा था / यह ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन—सूत्र में द्रव्यावश्यक के दूसरे भेद नोमागम के ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। जिसने पहले आवश्यकशास्त्र का सविधि ज्ञान प्राप्त कर लिया था, किन्तु अब पर्यायान्तरित हो जाने से उसका वह निर्जीव शरीर यावश्यकसूत्र के ज्ञान से सर्वथा रहित होने के कारण नोप्रागमज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक है। यद्यपि मृतावस्था में चेतना नहीं होने से उस शरीर में द्रव्यावश्यकता नहीं है, तथापि भूतपूर्वप्रज्ञापननयापेक्षया अतीत आवश्यक पर्याय के प्रति कारणता मानकर उसमें द्रव्यावश्यक है / लोकव्यवहार में ऐसा माना भी जाता है, जो सूत्रगत दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि पहले जिम घड़े में मधु या घृत भरा जाता था लेकिन अब नहीं भरे जाने पर भी यह मधुकंभ है, यह धृतकुंभ है' ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार निर्जीव शय्यादिगत शरीर भी भूतकालीन आवश्यक पर्याय का कारण रूप आधार होने से नोग्रागम की अपेक्षा द्रव्यावश्यक है। सूत्रस्थ 'अहो' शब्द दैन्य, विस्मय और आमंत्रण इन तीन अर्थों में प्रयुक्त हया है। जैसे शरीर अनित्य है इससे दैन्य का, इस निर्जीव शरीर ने आवश्यक जाना था इससे विस्मय का और देखो इस शरीरसंघात ने आवश्यकशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था, इससे परिचितों को ग्रामंत्रित करने का ग्राशय घटित होता है। विशिष्ट शब्दों का अर्थ—सेज्जा (शय्या) सर्वांगप्रमाण लंबा-चौड़ा पाटा आदि / संथार (संस्तार) अढाई हाथ प्रमाण लंबा-चौड़ा पाट, यह शय्या के प्रमाण से प्राधा होता है। सिद्धसिलातल (सिद्धशिलातल) अनेकविध तपस्यायों को करने वाले साधुजनों ने जहाँ स्वयमेव जाकर भक्तप्रत्याख्यान रूप अनशन किया है, करते हैं और करेंगे, अथवा जहाँ पर जिस किसी महर्षि ने संस्तारक करके मरणधर्म को प्राप्त किया हो, उस स्थान का नाम सिद्धगिलातल है / नोआगमभव्यशरीरद्रव्यावश्यक 18. से कि तं भवियसरीरदब्वावस्सयं? भवियसरीरदवावस्सयं जे जोवे जोणिजम्मणणिक्खते इमेणं चेव सरीरसमुस्सएणं आदत्तएणं जिणोवदिठेणं भावेणं आवस्सए त्ति पयं सेवकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ / जहा को दिळतो? अयं महुकुमे भविस्सइ, अय धयकुभे भविस्सइ / से तं भवियसरीरदब्वावस्सयं / [18 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [18 उ.] आयुष्मन् ! समय पूर्ण होने पर जो जीव जन्मकाल में योनिस्थान से बाहर निकला और उसी प्राप्त शरीर द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार भविष्य में आवश्यक पद को सीखेगा, किन्तु अभी सीख नहीं रहा है, ऐसे उम जीव का वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यावश्यक कहलाता शिष्य-इसका कोई दृष्टान्त है ? प्राचार्य-(दृष्टान्त इस प्रकार है-) यह मधुकंभ होगा, यह घृतकुंभ होगा। यह भव्यशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावश्यक निरूपण [21 विवेचन-सूत्र में नोग्रागमद्रव्यावश्यक के दूसरे भेद भव्यशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। वर्तमान की अपेक्षा इस शरीर में आगम के प्रभाव को लेकर नोग्रागमता जानना चाहिये। यद्यपि इस समय के शरीर में पागम का अभाव है, लेकिन 'भाविनि भूतवदुपचार:-भावी में भी भूत की तरह उपचार होता है-के न्यायानुसार भविष्यकालीन स्थिति को ध्यान में रखकर उपचार से उसमें द्रव्यावश्यकता मानी है। क्योंकि वर्तमान में न सही किन्तु यही शरीर आगे चलकर इसी पर्याय में आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता बनेगा। यही बात दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट की गई है कि भविष्य में मधु या घृत जिनमें भरा जागा उन घड़ों को वर्तमान में मधुघट या घृतघट कहा जाता है। इन दोनों दृष्टान्तों में संकल्पमात्रग्राही नैगमनय की अपेक्षा है / ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यावश्यक 19. से कि तं जाणगसरीरवियसरीरवतिरित्ते दवावस्सए ? जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दम्यावस्सए तिविधे पण्णत्ते / तं जहा--लोइए 1 कुप्पावणिते 2 लोउत्तरिते 3 // [19 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [19 उ.] आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यावश्यक तीन प्रकार का है। यथा-१ लौकिक, 2 कुप्रावनिक, 3 लोकोतरिक / विवेचन-सूत्र में उभयव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक के तीन भेदों के नाम गिनाये हैं / यथाक्रम उनका वर्णन करते हैं। लौकिक द्रव्यावश्यक 20. से कि तं लोइयं दवावस्सयं? लोइयं दवावस्मयं जे इमे राईसर-तलवर-माउंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्टि-सेणावइ-सत्यवाहप्पभितिओ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए सुविमलाए फुल्लुप्पल-कमलकोमलुम्मिल्लियम्मि अहपंडुरे पभाए रत्तासोगप्पगासकिसुयसुयमुहगुजरागसरिसे कमलागर-नलिणिसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते मुधोयण-दंतपक्खालण-तेल्ल-फगिह-सिद्धत्थय-हरियालियअदाग-धव-पुष्फ-मल्ल-गंध-तंबोल-वत्थमाइयाई दवावस्सयाई करेत्ता ततो पच्छा रायकुलं बा देवकुलं वा आरामं वा उज्जाणं वा सभं वा पवं वा गच्छति / से तं लोइयं दवावस्सयं। [20 प्र.] भगवन् ! लौकिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [20 उ.] आयुष्मन् ! जो ये राजेश्वर अथवा राजा, ईश्वर, तलवर, माङविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, मार्थवाह आदि रात्रि के व्यतीत होने से प्रभातकालीन किंचिन्मात्र प्रकाश होने पर, पहले की अपेक्षा अधिक स्फुट प्रकाश होने, विकसित कमलपत्रों एवं मृगों के नयनों के Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [अनुयोगद्वारसूत्र ईषद् उन्मीलन से युक्त, यथायोग्य पीतमिश्रित श्वेतवर्णयुक्त प्रभात के होने तथा रक्त अशोकवृक्ष, पलाशपुष्प, तोते के मुख और गुंजा (चिरमी) के अर्ध भाग के समान रक्त, सरोवरवर्ती कमलवनों को विकसित करने वाले और अपनी सहस्र रश्मियों से दिवसविधायक तेज से देदीप्यमान सूर्य के उदय होने पर मुख को धोना, दंतप्रक्षालन, तेलमालिश करना, स्नान, कंघी आदि से केशों को संवारना, मंगल के लिए सरसों, पुष्प, दूर्वा आदि का प्रक्षेपण, दर्पण में मुख देखना, धूप जलाना, पुष्पों और पुष्पमालाओं को लेना, पान खाता, स्वच्छ वस्त्र पहनना आदि करते हैं और उसके बाद राजसभा, देवालय, पारामगृह, उद्यान, सभा अथवा प्रपा (प्याऊ) की ओर जाते हैं, वह लौकिक द्रव्यावश्यक है। विवेचन--सूत्र में लौकिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है कि संसारी जनों द्वारा आवश्यक कृत्यों के रूप में जिनको अवश्य करना होता है, वे सब लौकिक द्रव्यावश्यक हैं। इन दंतप्रक्षालन आदि लौकिक प्रावश्यक कृत्यों में द्रव्य शब्द का प्रयोग मोक्षप्राप्ति के कारणभूत आवश्यक की अप्रधानता की अपेक्षा से किया है / मोक्ष का प्रधान कारण तो भावावश्यक है, न कि द्रव्यावश्यक / अतएव 'अप्पाहण्णे वि दब्बसद्दोत्थि'-अप्रधान अर्थ में भी द्रव्य शब्द प्रयुक्त होता है. इस शास्त्रवचन के अनुसार अप्रधानभूत आवश्यक द्रव्यावश्यक है तथा इन दंतधावनादि कृत्यों में लोकप्रसिद्धि से भी आगमरूपता नहीं है, अतः इनमें आगम का अभाव होने से नोग्रागमता सिद्ध है। प्रभातवर्णन की विशेषता-'पाउपभायाए' इत्यादि पदों द्वारा सूत्रकार ने प्रभात की विशेष अवस्थाओं का वर्णन किया है। यथा-'पाउप्पभाया' इस पद द्वारा प्रभात की प्रथम अवस्था बतलाई है। इस समय में प्रभात की प्राभा की प्रारंभिक अवस्था होती है। इसके बाद यथाक्रम से प्रभात की द्वितीय अवस्था होती है, जिसमें पूर्व की अपेक्षा प्रकाश स्फुटतर तथा धीरे-धीरे बढ़कर कमलों के ईषत् विकास से युक्त होकर कुछ-कुछ श्वेततामिश्रित पीत वर्ण से समन्वित हो जाता है, जिसे सुविमलाए....अहपंडुरे पभाए पद से स्पष्ट किया है। इसके बाद प्रभात तृतीय अवस्था में पहुँचता है / तब सूर्य पूर्ण रूप में उदित होकर अपने प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है। इस उषाकालीन स्थिति का संकेत रत्तासोगप्पगास....तेयसा जलते पद द्वारा किया है / विशिष्ट शब्दों के अर्थ- राईसर-राजेश्वर-चक्रवर्ती, वासुदेव आदि, अथवा राजा-- महामाडलिक, ईश्वर--युवराज, सामान्य मांडलिक, अमात्य आदि, तलवर-राजा द्वारा प्रदत्त रत्नालंकृत स्वर्णपट्ट को मस्तक पर धारण करने वाला / माइंबिय-जिनके आसपास में अन्य गांव नहीं हो अथवा छिन्न-भिन्न जनाश्रय विशेष को मडंब और इन मडंबों के अधिपति को माडंबिक कहते हैं। कोडुबिय-कौटुम्बिक--अनेक कुटुम्बों का प्रतिपालन करने वाले / इन्भ–इभ नाम हाथी का है। जिनके पास हाथी-प्रमाण द्रव्य हो। सेहि-जो कोटयधीश हैं तथा राजा द्वारा नगरसेठ की उपाधि से विभूषित एवं संमानार्थ स्वर्णपट्टप्राप्त / सेणावइ हाथी अादि चतुरंग सेना के नायक सेनापति / सत्यवाह--सार्थवाह-गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रय-विक्रय योग्य द्रव्यसमूह को लेकर लाभ की इच्छा से जो अन्य व्यापारियों के समूह के साथ देशान्तर जाते हैं एवं उन का संवर्धन करते हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निरूपण कुप्रावाचनिक द्रव्यावश्यक 21. से कि तं कुप्पावणियं दवावस्सयं? कुप्पावणियं दवावस्सयं जे इमे चरग-चोरिग-चम्मखंडिय-भिच्छुडग-पंडुरंग-गोतमगोम्वतिय-गिहिधम्म-धम्मचितग-अविरुद्ध-विरुद्ध-वु-सावगप्पभितयो पासंडत्था कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते इंदस्स वा खंदस्स वा रुद्दस्स वा सिवस्स वा वेसमणस्स वा देवस्स वा नागस्स वा जक्खस्स वा भूयस्स वा मुगुदस्स वा अज्जाए वा कोट्टकिरियाए वा उवलेवणसम्मज्जणाऽऽवरिसण-धूव-पुप्फ-गंध-मल्लाइयाई दवावस्सयाई करेंति / से तं कुप्पावयणियं दवाबस्सयं / [21 प्र.] भगवन् ! कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [21 उ.] आयुष्मन् ! जो ये चरक, चीरिक, चर्मखंडिक, भिक्षोण्डक, पांडुरंग, गौतम, गोवतिक, गहीधर्मा, धर्मचिन्तक, अविरुद्ध, विरुद्ध, वृद्धथावक आदि पाषंडस्थ रात्रि के व्यतीत होने के अनन्तर प्रभात काल में यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान तेज से दीप्त होने पर इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण-कुबेर अथवा देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुन्द, आर्यादेवी, कोट्टक्रियादेवी आदि की उपलेपन, संमार्जन, स्नपन (प्रक्षालन), धूप, पुष्प, गंध, माला प्रादि द्वारा पूजा करने रूप द्रव्यावश्यक करते हैं, वह कुप्रावधनिक द्रव्यावश्यक है / विवेचन-सूत्र में कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। मोक्ष के कारणभूत सिद्धांतों से विपरीत सिद्धान्तों की प्ररूपणा एवं प्राचरण करने वाले चरक आदि कुप्रावचनिकों के आवश्यक को कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक कहते हैं। ये चरक आदि इन्द्रादिकों की प्रतिमानों का उपलेपन आदि आवश्यक कृत्य करते है, अतः प्रावश्यक पद दिया है तथा इन उपलेपनादि क्रियायों में मोक्ष के कारणभूत भावावश्यक की अप्रधानता होने से द्रव्यत्व एवं आगम के सर्वथा अभाव की अपेक्षा नोप्रागमता जानना चाहिये। सूत्र में 'प्रभति' शब्द से परिवाजक प्रादि का एवं यावत् शब्द से पूर्वोक्त 20 वें सूत्र में कथित प्रातःकाल की तीन अवस्थानों और सूर्य के सहस्ररश्मि, दिनकर ग्रादि विशेषणों को ग्रहण किया गया सूत्रगत शब्दों का अर्थ--चरग (चरक)—समुदाय रूप में एकत्रित होकर भिक्षा मांगने वाले अथवा खाते-खाते चलने वाले / चोरिग (चीरिक)-मार्ग में पड़े हुए वस्त्रखंडों (चिथड़ों) को पहनने वाले / चम्मखंडिय(चर्मखंडिक)-चमड़े को वस्त्र रूप में पहनने वाले अथवा जिनके चमड़े के ही समस्त उपकरण होते हैं। भिच्छुडग (भिक्षोण्डक)-अपने घर में पालित गाय प्रादि के दूधादि से नहीं किन्तु भिक्षा में प्राप्त अन्न से ही उदरपूर्ति करने वाले अथवा सुगत के शासन को मानने वाले / पंडरंग (पाण्डरांग)--शरीर पर भस्म (राख) का लेप करने वाले। गोतम (गौतम)-बैल को कौडियों की मालाओं से विभूषित करके उसकी विस्मयकारक चाल दिखाकर भिक्षावृत्ति करने वाले / गोलिय (गोव्रतिक)-गोचर्या का अनुकरण करने वाले / गोव्रत का पालन करने वाले ये गायों के मध्य में रहने की इच्छा से गायें जब गांव से निकलती हैं तब उनके साथ ही निकलते हैं, वे जब बैठती हैं तब Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [अनुयोववारसूत्र बैठते हैं, खडी होती हैं तब खडे होते हैं, जब चरती हैं, तब कन्दमूल, फल आदि का भोजन करते हैं और जब जल पीती हैं तब जल पीते हैं / ' गिहिधम्म (महिधर्मा)---गृहस्थधर्म ही श्रेयस्कर है, ऐसी जिनकी मान्यता है और ऐसा मानकर उसी का आचरण करने वाले। धम्मचिंतग (धर्मचिन्तक)याज्ञवल्क्य प्रादि ऋषिप्रणीत धर्मसंहिता आदि के अनुसार धर्म के विचारक और तदनुसार दैनिक प्रवृत्ति, प्राचार वाले / अविरुद्ध (अविरुद्ध)-देव, नप, माता, पिता और तिर्यंचादि का विना किसी भेदभाव के समानरूप में—एकसा विनय करने वाले वैनयिक मिथ्यादष्टि / विरुद्ध (विरुद्ध)-पुण्यपाप, परलोक आदि को नहीं मानने वाले अक्रियावादी। इनका प्राचार-विचार सर्व पाखंडियों, सर्व धर्म वालों की अपेक्षा विपरीत होने से ये विरुद्ध कहलाते हैं / बुड्ढ-सावग (वृद्ध श्रावक)-ब्राह्मण / प्राचीन काल की अपेक्षा इनमें वद्धता मानी है। क्योंकि भरतचक्रवर्ती ने अपने शासनकाल में देव, धर्म, गुरु का स्वरूप सुनाने के लिये इनकी स्थापना की थी। अथवा वृद्धावस्था में दीक्षा अंगीकार करके तपस्या करने वाले श्रावक / पासंडत्था (पाषण्डस्थ)—पाषण्ड अर्थात् व्रतों का पालन करने वाले / खंद (स्कन्द)-कार्तिकेय-महेश्वर का पुत्र / रुद्र (रुद्र)-महादेव / सिव (शिव)-व्यंतरदेव विशेष / वेसमण (वैश्रमण)-कुबेर, धनरक्षक यक्षविशेष / नाग (नागकुमार) भवनपतिनिकाय का देवविशेष / जक्ख, भूत (यक्ष, भूत-व्यंतरजातीय देव / मुगुन्द (मकन्द) बलदेव / अज्जा (ग्रा)देवीविशेष / कोट्टकिरिया (कोट्टक्रिया)-महिपासुर की मर्दक देवी। उवलेवण (उपलेपन) तेल, घी प्रादि का लेप करना / सम्मज्जण (सम्मार्जन)-वस्त्रखंड से पोंछना / आवरिसण (ग्रावर्षण)गंधोदक से अभिषेक करना, स्नान कराना। लोकोतरिक द्रव्यावश्यक 22. से कि तं लोगोत्तरियं दवावस्सयं? लोगोत्तरियं दबाबस्सयं जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्कायनिरणुकंपा हया इव उद्दामा गया इव निरंकुसा घट्ठा मट्ठा तुप्पोट्ठा पंडरपडपाउरणा जिणाणं अणाणाए सच्छंदं विहरिऊणं उभओकालं आवस्सगस्स उवठ्ठति / से तं लोगुत्तरियं दवावस्सयं से तं जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्वावस्सयं / से तं नोआगमतो दवावस्तयं / से तं दवावस्सयं / {22 प्र.] भगवन् ! लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? 22 उ.] प्रायःमन ! लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार है---जो (साधु) श्रमण के (मुल और उत्तर) गणों से रहित हों, छह काय के जीवों के प्रति अनुकम्पा न होने न होने के कारण अश्व की तरह उद्दाम (शीघ्रगामी-जल्दी-जल्दी चलने वाले) हों, हस्तिवत् निरंकुश हों, स्निग्ध पदार्थों के लेप से अंग-प्रत्यंगों को कोमल, सलौना बनाते हों, जल आदि से बारंबार शरीर को धोते हों, अथवा तेलादि से केशों का संस्कार करते हों, अोठों को मुलायम रखने के लिये मक्खन लगाते हों, पहनने-अोढने के वस्त्रों को धोने में आसक्त हों और जिनेन्द्र भगवान की प्राज्ञा की उपेक्षा कर स्वच्छंद विचरण करते हों, किन्तु उभयकाल (प्रातः सायंकाल) आवश्यक करने के लिये तत्पर हो तो उनकी बह क्रिया लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक है / 1. इन गोतिका की चर्या का विस्तृत वर्णन रघुबंश प्रथम सर्ग में राजा दिलीप की प्रवृत्ति द्वारा किया गया है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निरूपण] [25 इस प्रकार यह ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक का स्वरूप जानना चाहिये / यह नोपागमद्रव्यावश्यक का निरूपण हुआ और साथ ही द्रव्यावश्यक की वक्तव्यता भी पूर्ण हुई। विवेचन--सूत्र में उभयव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक के तीसरे भेद का स्वरूप स्पष्ट करते हुए नोग्रागमद्रव्यावश्यक एवं द्रव्यावश्यक की वक्तव्यता का उपसंहार किया है / लोक में श्रेष्ठ साधुओं द्वारा आचरित एवं लोक में उत्तर-उत्कृष्टतर जिनप्रवचन में वर्णित होने से आवश्यक लोकोत्तरिक है। किन्तु श्रमणगुण से रहित स्वच्छन्दविहारी द्रव्यलिंगी साधुओं द्वारा किये जाने से वह प्रावश्यककर्म अप्रधान होने के कारण द्रव्यावश्यक है तथा भावशून्यता के कारण उसका कोई फल प्राप्त नहीं होता है / प्रस्तुत में 'नो' शब्द एकदेश प्रतिषेध अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि प्रतिक्रमणक्रिया रूप एकदेश में आगमरूपता नहीं है, किन्तु उसके ज्ञान का सद्भाव होने से आगम की एकदेशता है। इस प्रकार क्रिया की दृष्टि से आगम का प्रभाव और ज्ञान की दृष्टि से आगम का सद्भाव प्रकट करने से 'नो' शब्द में देशप्रतिषेधरूपता है। इस प्रकार सप्रभेद द्रव्यावश्यक का निरूपण जानना चाहिये। अब क्रमप्राप्त भावावश्यक का वर्णन करते हैं। भावावश्यक 23. से कि तं भावावस्सयं ? भावावस्सयं दुविहं पण्णत्तं / तं जहा-आगमतो य 1 पोआगमतो य 2 // [23 प्र.] भगवन् ! भावावश्यक का क्या स्वरूप है ? [23 उ.] आयुष्मन् ! भावावश्यक दो प्रकार का है-१. आगमभावावश्यक और 2. नोप्रागमभावावश्यक। विवेचन–प्रस्तुत में भेदों द्वारा भावावश्यक का स्वरूपवर्णन प्रारम्भ किया है। विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त अर्थ को भाव कहते हैं। अतः यहाँ भाव शब्द विवक्षित क्रिया के अनभव से युक्त साध्वादि के लिये प्रयुक्त हना है और उनक और उत्तका आवश्यक भावावश्यक है। यह कथन भाव और भाववान् में अभेदोपचार की अपेक्षा किया गया है। जैसे ऐश्वर्य रूप इन्दन क्रिया के अनुभव से युक्त को भावतः इन्द्र कहा जाता है अथवा विवक्षित क्रिया के अनुभव रूप भाव को लेकर जो आवश्यक होता है वह भावावश्यक है। इस भावावश्यक के दो भेद हैं / क्रम से जिनका वर्णन इस प्रकार है-- प्रागमभावावश्यक 24. से कि तं आगमतो भावावस्सयं ? आगमतो भावावस्सयं जाणए उवउत्ते। से तं आगमतो भावावस्सयं / Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र [24 प्र.] भगवन् ! अागमभावावश्यक का क्या स्वरूप है ? [24 उ.] आयुष्मन् ! जो आवश्यक पद का ज्ञाता हो और साथ ही उपयोग युक्त हो, वह प्रागमभावावश्यक कहलाता है / विवेचन-सूत्र में प्रागमभावावश्यक के स्वरूप का निर्देश किया है। ज्ञायक होने के साथ जो उसके उपयोग से भी युक्त हो वह आगम से भाव-आवश्यक है। अर्थात् अावश्यक के अर्थज्ञान से जनित उपयोग को भाव और उस भाव से युक्त आवश्यक को भावावश्यक कहते हैं एवं आवश्यक के अर्थ के ज्ञाता का आवश्यक में उपयोगरूप परिणाम आगमभावावश्यक है। ज्ञायक एवं उपयोगयुक्त साधु को उस परिणाम से युक्त होने के कारण अभेदविवक्षा से भावावश्यक कहा जाता है। नोप्रागमभावावश्यक 25. से कि तं नोआगमतो भावावस्सयं? नोआगमतो भावावस्सयं तिविहं पण्णत्तं / तं जहा—लोइयं 1 कुप्पावणियं 2 लोगुत्तरियं 3 / [25 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमभावावश्यक किसे कहते हैं ? [25 उ.] आयुष्मन् ! नोग्रागमभावावश्यक तीन प्रकार का है। जैसे—१. लौकिक, 2. कुप्रावनिक और 3. लोकोत्तरिक / विवेचन-नोग्रागमद्रव्यावश्यक के अनुरूप नोप्रागमभाववाश्यक के भी लौकिक प्रादि तीन भेद हैं / क्रम से उनकी व्याख्या इस प्रकार है-- लौकिक भावावश्यक 26. से कि तं लोइयं भावावस्सयं? लोइयं भावावस्सयं पुटवण्हे भारहं अवरग्हे रामायणं / से तं लोइयं भावावस्सयं / [26 प्र.] भगवन् ! लौकिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है ? [26 उ.] आयुष्मन् ! दिन के पूर्वार्ध में महाभारत का और उत्तरार्ध में रामायण का वाचन करने, श्रवण करने को लौकिक नोग्रागमभावावश्यक कहते हैं / विवेचन-सूत्र में नोग्रागम से लौकिक भावावश्यक का स्वरूप बतलाया है कि नियत समय पर लोकव्यवहार में प्रागमरूप से माने गये महाभारत, रामायण आदि का वांचना और श्रवण अवश्य करने योग्य होने से लौकिक आवश्यक हैं और उनके अर्थ में वक्ता एवं श्रोता के उपयोगरूप परिणाम होने से भावरूपता है। किन्तु वांचने वाले का बोलने, पुस्तक के पन्ने पलटने, हाथ का संकेत करने तथा श्रोता के हाथों को जोड़े रहने आदि रूप कियायें पागमरूप नहीं हैं। क्योंकि 'किरिया आगमो न होइ'-क्रिया आगम नहीं होती है, ज्ञान ही अागमरूप है। इसलिये क्रियारूप देश में पागम का अभाव होने से नोग्रागमता है। इस तरह एकदेश में प्रागमता की अपेक्षा यह लौकिक-भावावश्यक का स्वरूप जानना चाहिये। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निरूपण] कुप्रावनिक भावावश्यक 27. से कि तं कुप्पावणियं भावावस्सयं ? कुप्पावयणियं भावावस्सयं जे इमे चरग-चीरिय-जाव पासंडत्था इज्जजलि-होम-जप्प-उंदुरुक्कनमोक्कारमाइयाई भावावस्सयाई करेंति / से तं कुप्पावणियं भावाबस्सयं / [27 प्र.] भगवन् ! कुप्रावनिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है। [27 उ.| प्रायुप्मन् ! जो ये चरक, चीरिक यावत् पापण्डस्थ (उपयोगपूर्वक) इज्या यज्ञ, अंजलि, होम-हबन, जाप, उन्दुमक्क --धूपप्रक्षेप या बैल जैसी ध्वनि, वंदना आदि भावावश्यक करते हैं, वह कुप्रावनिक भाबावश्यक है। विवेचन--सूत्र में कुप्रावनिक भावावश्यक का स्वरूप बनलाया है। मिथ्याशास्त्रों को मानने वाले चरक, चीरिक आदि पाषंडी यथावसर जो भावसहित यज्ञ आदि क्रियायें करते हैं, वह कुप्रावचनिक भावावश्यक है। चरक ग्रादि द्वारा अवश्य ही निश्चित रूप से किये जाने से ये यज्ञ आदि अावश्यक रूप हैं नथा इनके करने वालों की उन क्रियाओं में उपयोग एवं श्रद्धा होने से भावरूपता है / तथा इन चरकादि का उन क्रियाओं संबन्धी उपयोग तो देशतः आगम रूप है और हाथ, सिर आदि द्वारा होने वाली प्रवृत्ति आगमरूप नहीं है / इसीलिए अागम के एक देश की अपेक्षा नोग्रागम हैं / कतिपय शब्दों के विशिष्ट अर्थ - इज्जंजलि--(इज्यांजलि) यज्ञ और तन्निमित्तिक जलधारा प्रक्षेप–छोड़ना / अथवा इज्या --पूजा गायत्री प्रादि के पाठपूर्वक ब्राह्मणों द्वारा की जाने वाली संध्योपासना और अंजलि-हाथ जोड़कर नमस्कार करना अथवा इज्या माता आदि गुरुजनों को अंजलि- नमस्कार करना / उन्दुरुक्क-उन्दु-मुख और रुक्क बैल जैसी ध्वनि करना, अर्थात् मुख से बैल जैसी गर्जना करना अथवा धूपप्रक्षेप करना। लोकोत्तरिक भावावश्यक 28. से कि तं लोगोत्तरियं भावावस्सयं ? लोगोत्तरियं भावावस्सयं जगणं इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तयज्झवसिते तत्तिश्वज्यवसाणे तयट्टोवउत्ते तय पियकरणे तब्भावणाभाविते अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओकालं आवस्सयं करेंति, से तं लोगोत्तरियं भावावस्सयं / से तं नोआगमतो भावावस्सयं / से तं भावावस्सयं / [28 प्र.] भगवन् ! लोकोत्तरिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है ? [28 उ.] अायुष्मन् ! दत्तचित्त और मन की एकाग्रता के साथ, शुभ लेश्या एवं अध्यवसाय से सम्पन्न, यथाविधि क्रिया को करने के लिये तत्पर अध्यवसायों से सम्पन्न होकर, तीव्र प्रात्मोत्साहपूर्वक उसके (प्रावगायक के) अर्थ में उपयोगयुक्त होकर एवं उपयोगी करणों---शरीरादि को नियोजित कर, उसकी भावना से भावित होकर जो ये श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविकायें Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 [अनुयोगद्वारसूत्र अन्यत्र मन (वचन-काय) को डोलायमान (संयोजित किये बिना उभयकाल (प्रात:-संध्या समय) अावश्यक-प्रतिक्रमणादि करते हैं, वह लोकोत्तरिक भावावश्यक है। इस प्रकार से यह नोग्रागम भावावश्यक का स्वरूप जानना चाहिये और इसके साथ ही भावावश्यक की वक्तव्यता पूर्ण हुई। विवेचन-सूत्र में लोकोत्तरिक भावावश्यक का स्वरूप बतलाया है। जो श्रमण आदि जिनप्रवचन में मन को केन्द्रित कर दोनों समय अावश्यक करते हैं, उसे लोकोत्तरिक भावावश्यक कहते हैं / __ प्रतिक्रमण आदि क्रियायें श्रमण आदि जनों को अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक हैं। इनके करने वालों का उनमें उपयोग वर्तमान रहने से भावरूपता है। 'तयट्ठोव उत्त' और 'तयप्पियकरणे' इन दो पदों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि आवश्यक क्रियायें स्वयं तो पागम रूप नहीं हैं अत: आवश्यकक्रियारूप एकदेश में तो अनागमता है किन्तु इनके ज्ञानरूप एकदेश में प्रागमता का सद्भाव होने से उभयरूपता के कारण इन्हें नोपागम लोकोत्तरिक भावावश्यक जानना चाहिये। प्रावश्यक के पर्यायवाची नाम 29. तस्स णं इमे एगट्टिया गाणाघोसा णाणावंजणा णामधेज्जा भवंति / तं जहा आवस्सयं 1 अवस्सकरणिज्जं 2 धुवगिरगहो 3 विसोही य 4 / / अज्झयणछक्कवग्गो 5 नाओ 6 आराहणा 7 मग्गो 8 // 2 // समण सावएण य अवस्सकायब्वयं हवति जम्हा / अंतो अहो-निसिस्स उ तम्हा आवस्सयं नाम // 3 // से तं आवस्तयं। [29] उस आवश्यक के नाना घोष (स्वर) और अनेक व्यंजन वाले एकार्थक अनेक नाम इस प्रकार हैं 1 आवश्यक, 2 अवश्यकरणीय, 3 ध्र वनिग्रह, 4 विशोधि, 5 अध्ययन-षट्कवर्ग, 6 न्याय, 7 श्राराधना और 8 मार्ग। श्रमणों और श्रावकों द्वारा दिन एवं रात्रि के अन्त में अवश्य करने योग्य होने के कारण इसका नाम आवश्यक है / यह आवश्यक का स्वरूप है। विवेचन--यहाँ आवश्यक के पर्यायवाची नाम बतलाये हैं। जो पृथक्-पृथक् उदात्तादि स्वर वाले और अनेक प्रकार के ककारादि व्यंजन वाले होने से किंचित् अर्थभेद रखते हुए भी एकार्थसमानार्थवाचक हैं 1. आवश्यक-अवश्य करने योग्य कार्य को आवश्यक कहते हैं / सामायिक आदि की साधना साधु आदि के द्वारा अवश्य निश्चित रूप से किये जाने योग्य होने से आवश्यक है। अथवा ज्ञानादि गुणों और मोक्ष की जिसके द्वारा पूर्णतया प्राप्ति होती है वह आवश्यक है- 'ज्ञानादिगुणा मोक्षो वा प्रासमन्ताद्वश्यः क्रियतेऽनेनेत्यावश्यकम् / ' अथवा इन्द्रिय, कषायादि भावशत्रुओं को सर्वत: वश में करने वालों के द्वारा जो किया जाता है, उसे आवश्यक कहते हैं—'पासमन्ताद् वश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो येषां, तैरेव क्रियते यत् तदावश्यकम् / ' Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुत निरूपण] [29 2. अवश्यकरणीय -- मुमुक्षु साधकों द्वारा नियमतः अनुष्ठेय होने के कारण अवश्यकरणीय है / 3. ध्रुवनिग्रह ---अनादि होने के कारण कर्मों को तथा कर्मों के फल जन्म - जरा-मरणादि रूप संसार को भी ध्रुव कहते हैं और आवश्यक कर्म एवं कर्मफलरूप संसार का निग्रह करने वाला होने के कारण ध्र वनिग्रह है। 4. विशोषि-कर्म से मलिन अात्मा की विशुद्धि का हेतु होने से आवश्यक विशोधि कहलाता 5. अध्ययनषट्कवर्ग-प्रावश्यकसूत्र में सामायिक आदि छह अध्ययन होने से यह अध्ययनषट्कवर्ग है। 6. न्याय--अभीष्ट अर्थ की सिद्धि का सम्यक उपाय होने से न्याय है / अथवा जीव और कर्म के अनादिकालीन सम्बन्ध के अपनयन का कारण होने से भी न्याय कहलाता है / 7. आराधना-आराध्य-मोक्षप्राप्ति का हेतु होने से आराधना है। 8. मार्ग-मार्ग का अर्थ है उपाय / अतः मोक्षपुर का प्रापक-उपाय होने से मार्ग है। इस प्रकार से सूत्रकार ने पहले जो 'पावस्सयं निक्खिविस्सामि' प्रतिज्ञा की थी, तदनुसार प्रायश्यक का न्यास करके वर्णन किये जाने से यह आवश्यकाधिकार समाप्त हुग्रा। श्रुत के भेद 30. से कि तं सुयं? सुयं चम्विहं पण्णत्तं / तं जहा-नामसुयं 1 ठवणासुयं 2 दव्वसुयं 3 भावसुयं 4 / [30 प्र.] भगवन् ! श्रुत का क्या स्वरूप है ? [30 उ.] आयुष्मन् ! श्रत चार प्रकार का है–१ नामश्रुत, 2 स्थापनाश्रुत, 3 द्रव्यश्रुत, 4 भाबश्रुत। विवेचन---सूत्रकार ने आवश्यक के अनन्तर 'सुयं निक्खविस्सामि' ---श्रुत का निक्षेप करूंगा, इस प्रतिज्ञानुसार निक्षेपविधि से श्रत के स्वरूप का वर्णन करना प्रारंभ किया है। नाम और स्थापना श्रुत 31. से कि तं नामसुषं? नामसुयं जस्स णं जीवस्स या अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण बा सुए इ नाम कोरति / से तं नामसुयं / [31 प्र] भगवन् ! नामश्रु त का क्या स्वरूप है ? [31 उ.] आयुष्मन् ! जिस किसी जीव या अजीव का, जीवों या अजीवों का, उभय का अथवा उभयों का 'श्र त' ऐसा नाम रख लिया जाता है, उसे नामश्रुत कहते हैं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30) P4 अनुयोगद्वारसूत्र 32. से कि तं ठवणासुयं ? ठवणासुयं जगणं कटुकम्मे वा जाव सुए इ ठवणा ठविज्जति / से तं ठवणासुयं / [32 प्र.] भगवन् ! स्थापनाच त का स्वरूप क्या है ? [32 उ.] अायुष्मन् ! काष्ठ यावत् कौड़ी आदि में यह श्रत है, ऐसी जो स्थापना, कल्पना या आरोप किया जाता है, वह स्थापनाश्रुत है / 33. नाम-ठवणाणं को पतिविसेसो ? नामं आवहिा, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा। [33 प्र.] भगवन् ! नाम और स्थापना में क्या विशेषता-अन्तर है ? [33 उ.] आयुष्मन् ! नाम यावत्कथिक होता है, जबकि स्थापना इत्वरिक और यावत्कथिक दोनों प्रकार की होती है। विवेचन यहाँ नाम और स्थापनारूप श्रत का स्वरूप बतलाने के साथ उन दोनों में अन्तर का निर्देश किया है। नाममात्र से श्रुत नामश्रुत है--नाम्ना--नाममात्रेण श्रुतं नामश्र तमिति-- इस समास के अनुसार जिस जीव, अजीव आदि का श्रुत यह नाम रख लिया जाता है, वह नामश्रुत है / जीव अादि का श्रत नाम रखने का कारण पूर्वोक्त नामावश्यक के कथनानुसार जानना चाहिये / स्थापनाश्रत का विवेचन भी पूर्वोक्त स्थापनावश्यक के अनुरूप है। किन्तु आवश्यक के बदले यहाँ श्रुत शब्द का प्रयोग करना चाहिये। अतएव तदाकार, अतदाकार काष्ठादि अथवा काष्ठादि से निमित्त प्राकृति में जो श्रुतपठनादि क्रियावन्त साधु आदि की स्थापना की जाती है, यह स्थापनाथत है। नाम और स्थापना आवश्यक के सदश ही नाम और स्थापना श्रुत में भी अन्तर जानना चाहिये कि नाम का प्रयोग वस्तु के सद्भाव रहने तक होता है जबकि स्थापना वस्तु के सद्भाव पर्यन्त और यथायोग्य अल्पकाल के लिये भी की जा सकती है। द्रव्यश्रत के भेद 34. से किं तं दध्वसुयं ? दव्वसुयं दुविहं पण्णत्तं / तं जहा आगमतो य 1 नोआगमतो य 2 / [34 प्र.] भगवन् ! द्रव्यश्र त का क्या स्वरूप है ? [34 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्यश्रुत दो प्रकार का है। जैसे----१ आगमद्रव्यश्रुत, 2 नोग्रागमद्रव्यश्रुत / प्रागमद्रव्यश्रत 35. से कि तं आगमतो दव्वसुयं ? आगमतो दध्वसुयं जस्स गं सुए ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव कम्हा? जइ जाणते अणुवउत्ते ण भवइ / से तं आगमतो दव्वसुयं / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [31 भुत निरूपण] [35 प्र.] भगवन् ! आगम की अपेक्षा द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है ? [35 उ.] आयुष्मन् ! जिस साधु आदि ने श्रुत यह पद सीखा है, स्थिर, जित, मित, परिजित किया है यावत् जो ज्ञायक है वह अनुपयुक्त नहीं होता है आदि / यह पागम द्रव्यश्रुत का स्वरूप है / विवेचन-सूत्र में पागम द्रव्यश्र त का स्वरूप बतलाया है कि थ तपद के अभिधेय--प्राचारादि शास्त्रों को जिसने सीख तो लिया है, किन्तु उसके उपयोग से शून्य है, इस कारण वह पागम से द्रव्यश्र त है। __ 'जाव कम्हा' पद द्वारा आवश्यक विषयक पूर्वोक्त शब्द नय आदि की मान्यता सम्बन्धी सूत्रालापक तक का अतिदेश किया गया है जो इस प्रकार है णामसमं घोषसमं अहीणवखरं अणक्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णधोसं कंठोढविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं / से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए णो अणुप्पेहाए / कम्हा ? 'अणु वयोगो दव्व' मिति कटु / णेगमस्स एगो अणुवउत्तो पागमयो एगं दवाबस्सयं (दव्वसुयं) दोण्णि अणुवउत्ता आगमयो दोणि दव्वावस्सयाई (दव्वसुयाई) तिण्णि अणुवउत्ता प्रागमो तिणि दवावस्सयाई (दव्वसुयाई) एवं जावड्या अणुबउत्ता तावइयाई ताई अंगमस्स प्रागमयो दवावस्सयाई (दव्वसुयाई)। एवमेव बबहारस्स वि। संगहस्स एगो वा प्रणेगा वा अणुबउत्तो वा अणुवउत्ता वा प्रागमो दवावस्मयं (दब्वसुयं) वा दव्वावस्सयाणि (दव्वसुयाणि) वा से एगे दवावस्सए (दब्वसुए)। उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमनो एगं दवावस्सयं (दव्वसुर्य), पुहुत्त नेच्छइ / तिण्हं सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्त अवत्थू / कम्हा ? ........... / इनका अर्थ द्रव्यावश्यक के प्रसंग में किये गये गये अर्थ के अनुरूप है। किन्तु सर्वत्र आवश्यक के स्थान में श्रु त शब्द का प्रयोग करना चाहिए।' नोप्रागमद्रव्यश्रुत 36. से कि तं णोआगमतो दन्नसुयं ? णोआगमतो दव्वसुयं तिविहं पन्नत्तं / तं जहा-जाणयसरीरदव्वसुयं 1 भवियसरीरदव्वसुर्य 2 जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्यसुयं 3 / / |36 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है ? [36 उ.] आयुष्मन् ! नोयागमद्रव्यश्रु त तीन प्रकार का कहा है। जैसे -1, ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रु त, 2. भव्यशरीरद्रव्यश्रत, 3. ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यथ त ! विवेचन-सूत्र में नोग्रागमद्रव्यावश्यक के समान नोग्रागमद्रव्यश्रुत के भी तीन भेदों के नामों का उल्लेख किया है / क्रम से अब इन तीनों का स्पष्टीकरण करते हैं / 1. देखें सूत्र संख्या 14, 15 का अर्थ / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [अनुयोगद्वारसूत्र जायकशरीरद्रव्यश्रुत 37. से किं तं जाणयसरीरदव्वसुतं ? जाणयसरीरदश्वसुतं सुतत्तिपदत्याहिकारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुतचावितचत्तदेहं जीवविप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं वा सिद्धसिलाथलगयं वा, अहो ! णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिदिलैणं भावेणं सुए इ पयं आवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उवदंसियं / जहा को दिळंतो? अयं मधुकुभे आसी, अयं घयकुमे आसी / से तं जाणयसरीरदव्वसुतं / [37 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीर-द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है ? [37 उ.] आयुष्मन् ! श्रु तपद के अर्थाधिकार के ज्ञाता के व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त, जीवरहित शरीर को शय्यागत, संस्तारकगत अथवा सिद्धाशिला-तपोभूमिगत देखकर कोई कहे-- अहो ! इस शरीररूप परिणत पुद्गलसंघात द्वारा जिनोपदेशित भाव से 'श्रु त' इस पद की गुरु से वाचना ली थी, शिष्यों को सामान्य रूप से प्रज्ञापित और विशेष रूप से प्ररूपित, दर्शित, निर्दाशत, उपदर्शित किया था, उसका वह शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक है। शिष्य-इसका दृष्टान्त ? प्राचार्य-(जैसे किसी घड़े में से मधु या घी निकाल लिये जाने के बाद कहा जाये कि) यह मधु का घड़ा है, यह घी का घड़ा है / इसी प्रकार निर्जीव शरीर भूतकालीन श्रुतपर्याय का आधाररूप होने से ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रु त कहलाता है। विवेचन--यहाँ ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुत का स्वरूप बतलाया है। सूत्रगत पदों की विस्तृत व्याख्या ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक के अनुरूप जानना चाहिये। ___ जीवविषमुक्तता के आधार पर पत्थर आदि पुद्गलसंघातों में भी कदाचित् श्र तज्ञातृत्व, कर्तत्व एवं मुक्तत्व की संभावना की जाय तो उसका निराकरण करने के लिये सूत्र में शय्यागत आदि पदों की योजना की है। भव्यशरीरद्रव्यश्रत 38. से किं तं भवियसरीरदव्वसुतं ? भवियसरीरदव्वसुतं जे जीवे जोणीजम्मण-निक्खते इमेणं चेव सरीरसमुस्सरणं आवत्तएणं जिणीवइट्ठणं भावेणं सुए इ पयं सेकाले सिक्खिस्सति, ण ताव सिक्खति / जहा को दिळंतो ? अयं मधुकुभे भविस्सति, अयं घयकुभे भविस्सति / से तं भवियसरीरदब्वसुतं / [38 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यश्रु त का क्या स्वरूप है ? [38 उ.] आयुष्मन् ! भव्यशरीरद्रव्यश्रत का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-समय पूर्ण होने पर जो जीव योनि में से निकला और प्राप्त शरीरसंघात द्वारा भविष्य में जिनोपदिष्ट Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [33 श्रुत निरूपण]. भावानुसार श्रुतपद को सीखेगा, किन्तु वर्तमान में सोख नहीं रहा है, ऐसे उस जीव का वह शरीर भव्यशरीर-द्रव्यश्रुत है / शिष्य-इसका दृष्टान्त क्या है ? प्राचार्य (मधु और घी जिन घड़ों में भरा जाने वाला है, परन्तु अभी भरा नहीं है, उनके लिये) 'यह मधुघट है, यह घृतघट है' ऐसा कहा जाता है / विवेचन--यहाँ भविष्य में भावश्रत की कारण रूप पर्याय होने की योग्यता की अपेक्षा भव्यशरीरद्रव्यथ त का स्वरूप निर्दिष्ट किया है। ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रत 39. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवतिरित्तं दव्वसुतं ? जाणयसरीरभवियसरीरवतिरित्तं पत्तयपोत्थयलिहियं / [39 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त-द्रव्यश्रु त का क्या स्वरूप है ? [39 उ.] अायुष्मन् ! ताड़पत्रों अथवा पत्रों के समूहरूप पुस्तक में अथवा वस्त्रखंडों पर लिखित श्रु त ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुत है। विवेचन-पूर्वोक्त ज्ञशरीर और भव्यशरीर द्रव्यश्रु त का लक्षण घटित न होने से उनसे भिन्न यह द्रव्यश्र त का लक्षण यहाँ निरूपित किया है। पत्रादि पर लिखित श्रु त भावथ त का कारण होने से उभयव्यतिरिक्त-द्रव्यश्रुत है। पत्र आदि पर लिखे श्र त में उपयोग रहितता होने से द्रव्यत्व है। आत्मा, देह और शब्द प्रागम के कारण हैं / इनका अभाव होने से अथवा पत्र आदि में लिखित श्रुत में अचेतनता होने के कारण नोग्रागमता है। ___'सुय' पद की संस्कृतछाया 'सूत्र' भी होती है, अत: शिष्य की बुद्धि की विशदता के लिये सुय के प्रकरण में प्रकारान्तर से सूत्र (सूत) की भी व्याख्या की जाती है 40, अहवा सुत्तं पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा–अंडयं 1 बोंडयं 2 कोडयं 3 वालयं 4 वक्कयं 5 / [40] अथवा (ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्य-) सूत्र पांच प्रकार का है—१. अंडज 2. बोंडज, 3. कीटज, 4. वालज, 5. बल्कज / 41. से किं तं अंडयं? अंडयं हंसगम्भादि / से तं अंडयं / [41 प्र.] भगवन् ! अंडज किसे कहते हैं ? [41 उ.] अायुष्मन् ! हंसगर्भादि से बने सूत्र को अंडज कहते हैं / 42. से कि तंबोंडयं? बोंडयं फलिहमादि / से तं बोंडयं / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [अनुयोगद्वारसूत्र [42 प्र.] भगवत् ! बोंडज किसे कहते हैं ? [42 उ.] अायुष्मन् ! बोंड--कपास या रुई से बनाये गये सूत्र को कहते हैं। 43. से कि तं कीडयं ? कीडयं पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा-पट्टे 1 मलए 2 अंसुए 3 चोणंसुए 4 किमिरागे 5 / से तं कीडयं। [43 प्र.] भगवन् ! कोटजसूत्र किसे कहते हैं। _ [43 उ.] अायुष्मन् ! कीटजसूत्र पांच प्रकार का है-१. पट्ट, 2. मलय, 3. अंशुक, 4. चीनांशुक, 5. कृमि राग / 44. से कि तं बालयं ? वालयं पंचविहं पण्णतं / तं जहा-उण्णिए 1 उट्टिए 2 मियलोमिए 3 कुतवे 4 किट्टिसे 5 / से तं वालयं। [44 प्र.] भगवन् ! वालज सूत्र का क्या स्वरूप है ? / [44 उ.] अायुष्मन् ! वालज सूत्र के पांच प्रकार हैं- 1. प्रोणिक, 2. औष्ट्रिक, 3. मृगलोमिक, 4. कौतव, 5. किट्टिस / 45. से कि तं वक्कयं ? वक्कयं सणमाई / से तं वक्कयं / से तं जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तं दठवसुयं / से तं मोआगमतो दव्वसुयं / से तं दध्वसुयं / [45 प्र.] भगवन् ! बल्कज किसे कहते हैं ? [45 उ.] अायुष्मन् ! सन आदि से निर्मित सूत्र को कहते हैं / इस प्रकार यह जायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्रत का वर्णन है और इसके साथ ही नोआगमद्रव्यश्र त एवं सप्रभेद द्रव्यथ त का निरूपण समाप्त हुआ। विवेचन - यहाँ सूय का अर्थ सूत्र (सूत) भी होने की अपेक्षा उभयव्यतिरिक्तद्रव्यश्र त का वर्णन करने के साथ नोग्रागमद्रव्यश्र त एवं समग्र द्रव्यश्रु त के निरूपण की पूर्णता का संकेत किया है / कारण में कार्य का उपचार अंडज आदि नामों का हेतु है। अतएव जिस वस्तु से और जिस क्षेत्र विशेष में जो सूत्र बना, उसको उस नाम से कहा है। अंडज आदि की व्याख्या ___ अंडज के रूप में हंसगर्भ का उल्लेख किया गया है। हंस, पतंगा जातीय एक चतुरिन्द्रिय जीव है, जिसे कोशा भी कहते हैं / वह अपनी लार से एक थैली (कोशिका, कुशेरा) बनाकर उसी में बंद हो जाता है / उससे उत्पन्न सूत्र का नाम अंडज है। बोंड अर्थात् कपास का कोश और उस कपास से बने सूत को बोंडज कहते हैं / अथवा बोंड अर्थात् वमनीफल-रुई से या सेमल की रुई से बने सूत्र का नाम बोंडज है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत निरूपण] कीट-चतुरिन्द्रिय जीवविशेष की लार से उत्पत्र सूत्र को कीटज कहते हैं / पट्ट आदि पांचों भेद कीटजन्य होने से कीटज हैं। पट्टसूत्र की उत्पत्ति के विषय में ऐसा माना जाता है कि जंगल में सघन लताच्छादित स्थानों में मांसपुंज रखकर उसकी आजू-बाजू कुछ अंतर में ऊंची-नोची अनेक कीलें गाड़ दी जाती हैं / मांस के लोभी कीट-पतगे मांसपुजों पर मंडराते हैं और कोलों के आसपास घूमकर अपनी लार को छोड़ते हैं / उस लार को एकत्रित करके जो सूत बनता है, उसे पट्टसूत्र कहते हैं। मलय देश में बने कीटज सूत्र को मलय कहते हैं तथा चीन देश से बाहर कीटों की लार से बना सूत्र अंशुक और चीन देश में बना सूत्र चीनांशुक कहलाता है। कृमिरागसूत्र के विषय में ऐसा सुना जाता है कि किन्हीं क्षेत्रविशेषों में मनुष्यादि का रक्त बर्तन में भरकर उसके मुख को छिद्रों वाले ढक्कन से ढंक देते हैं। उसमें बहुत से लाल रंग के कृमिकीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। वे कृमि छिद्रों से निकलकर बाहर आसपास के प्रदेश में उड़ते हुए अपनी लार छोड़ते हैं / इस लार को इकट्रा करके जो सूत बनाया जाता है, वह कृमिरागसूत्र कहलाता है। लाल रंग के कृमियों से उत्पन्न होने के कारण इस सूत का रंग भी लाल होता है / __ रोमों-बालों से बने सूत को बालज कहते हैं / भेड़ के रोमों-बालों से जो सूत बनता है वह औणिक, ऊंट के रोमों से बना सूत औष्ट्रिक, मृग के रोमों से बना सूत मृगलोमिक तथा चूहे के रोमों से बना सूत कोतव कहलाता है। इन प्रौणिक आदि सूत्रों को बनाते समय इधर-उधर बिखरे बालों का नाम किट्टिस है। इनसे निर्मित अथवा औणिक आदि सूत को दुहरा-तिहरा करके बनाया गया सूत अथवा घोड़ों आदि के बालों से बना सूत किट्टिस कहलाता है। सन आदि की छाल से बनाया गया सूत बल्कज है। भावश्रुत 46. से कि तं भावसुयं ? भावसुयं दुविहं पन्नत्तं / तं जहा -आगमतो य 1 नोआगमतो 52 / [46 प्र.] भगवन् ! भावच त का क्या स्वरूप है ? [46 उ.] आयुष्मन् ! भावश्रु त दो प्रकार का है / यथा- 1 आगमभावश्रुत और 2 नोग्रागमभावथ त / 47. से कि तं आगमतो भावसुयं ? आगमतो भावसुयं जाणते उवउत्ते / से तं आगमतो भावसुयं / [47 प्र.] भगवन् ! अागमभाव त का क्या स्वरूप है ? [47 उ.] आयुष्मन् ! जो श्र त (पद) का ज्ञाता होने के साथ उसके उपयोग से भी सहित हो, वह आगमभावथ त है / यह पागम से भावश्रुत का लक्षण है। विवेचन--सूत्र में प्रागमभावश्रत का लक्षण बताया है। श्रत रूप पद के अर्थ के अनुभवउपयोग से युक्त साधु आदि भावशब्द का वाच्यार्थ है। अभेदोपचार से साध्वादि भी भावश्रुत Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36] [अनुयोगद्वारसूत्र हैं। श्रत में उपयोगरूप परिणाम के सद्भाव से उसमें भावता और श्रु त के अर्थज्ञान के सद्भाव से आगमता जानना चाहिये / नोमागमभावश्रुत 48. से किं तं नोआगमतो भावसुयं ? नोआगमतो भावसुयं दुविहं पन्नत्तं / तं जहा-लोइयं 1 लोउत्तरियं च 2 / [48 प्र.] भगवन् ! नोआगम की अपेक्षा भावश्रुत का क्या स्वरूप है ? [48 उ.] आयुष्मन् ! नोप्रागमभावश्रुत दो प्रकार का है / जैसे-१. लौकिक, 2. लोकोत्तरिक / लौकिक भावश्रुत 49. से कि तं लोइयं भावसुयं ? लोइयं भावसुयं जं इमं अण्णाणिएहि मिच्छदिट्ठीहिं सच्छंदबुद्धि-महविगप्पियं / तं जहाभारहं रामायणं भीमासुरुक्कं कोडिल्लयं घोडमुहं सगडभद्दिआओ कप्यासियं नागसुहुमं कणगसत्तरी वइसे सियं बुद्धवयणं वेसियं काविलं लोयाययं सद्वितंतं माढरं पुराणं वागरणं नाङगादी, अहवा बावत्तरिकलाओ चत्तारि य वेदा संगोवंगा / से तं लोइयं भावसुयं / [49 प्र.] भगवन् ! लौकिक (नोआगम) भाव त का क्या स्वरूप है ? [49 उ.] आयुष्मन् ! अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा अपनी स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचित महाभारत, रामायण, भीमासुरोक्त, कौटिल्य (रचित अर्थशास्त्र), घोटकमुख, शटकभद्रिका, कासिक, नागसूक्ष्म, कनकसप्तति, वैशेषिकशास्त्र, बौद्धशास्त्र, कामशास्त्र, कपिलशास्त्र, लोकायतशास्त्र, षष्ठितंत्र, माठरशास्त्र, पुराण, व्याकरण, नाटक प्रादि अथवा बहत्तर कलायें और सांगोपांग चार वेद लौकिक नोप्रागमभावथत हैं। विवेचन--सूत्र में लौकिक नोप्रागमभावश्रुत का स्वरूप बतलाया है कि सर्वज्ञोक्त प्रवचन से विरुद्ध अभिप्राय वाली बुद्धि और मति द्वारा विरचित सभी शास्त्र लौकिक भावभुत हैं / महाभारत, रामायण आदि में प्रागमशास्त्र रूप लोकप्रसिद्धि होने से ग्रागमता और इनमें वर्णित क्रियायें मोक्ष की हेतु न होने से अनागम हैं। इस प्रकार की उभयरूपता को बताने के लिये सूत्रकार ने नोग्रागम पद का प्रयोग किया है। तथा 'उपयोगो भावनिक्षेप:--उपयोग ही भाव निक्षेप है' ऐसा शास्त्रवचन होने से इनमें संलग्न उपयोग की अपेक्षा भावरूपता जाननी चाहिये, किन्तु शब्दों के अचेतन होने से ये महाभारत प्रादि भावश्रुत नहीं हैं। सूत्र में प्रयुक्त बुद्धि और मति शब्दों में से अवग्रह और ईहा रूप विचारधारा बुद्धि है और अवाय तथा धारणा रूप विचारधारा को मति कहते हैं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत निरूपण [37 अज्ञानिक पद में न समास अल्पार्थ का बोधक है, अत: अज्ञानिक का तात्पर्य 'अल्पज्ञान वाले' जानना चाहिये तथा ऐसे अल्पज्ञानी सम्यग्दृष्टि भी होते हैं-अतः उनकी निवृत्ति के लिये मिथ्यादृष्टि पद दिया है। सूत्रोक्त कतिपय ग्रन्थों के नाम तो सर्वविदित हैं और शेष अप्रसिद्ध ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है भीमासुरुक्कं-भीमासुरोक्त, एक जैनेतर प्राचीन शास्त्र / संभवतः इसमें अंगविद्या का वर्णन किया गया होगा। __कोडिल्लयं-कौटिल्यक-चाणक्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र / अथवा कोडिल्ल यानी मुगदर / अतः मुग्दर आदि शस्त्रों की निर्माण विधि सूचक शास्त्र / घोडमुहं-घोटमुख, अश्वादि पशुओं का वर्णन करने वाला शास्त्र / सगडद्दिा -शकटभद्रिका-शकटव्यूह आदि के रूप में सैन्यरचना की विधि बताने वाला शास्त्र। कप्पासिय-कार्यासिक-कपास आदि से सूत, कपड़ा आदि बनाने की विधि बताने वाला शास्त्र / नागसुहुम-नागसूक्ष्म-एक जैनेतर शास्त्र / संभवतः इसमें सर्प आदि विषैले जीव-जन्तुओं का वर्णन किया गया होगा। कणगसत्तरी-कनकसप्तति-एक प्राचीन जैनेतर शास्त्र / संभव है इसमें सोने आदि धातुओं का अथवा सोने के तार से मिश्रित कपड़ा बनाने की विधि का वर्णन किया गया हो। वइसेसिय-वैशेषिक, कणाद मुनि द्वारा प्ररूपित दर्शनविशेष-वैशेषिकदर्शन / बुद्धवयण-बुद्धवचन, तथागत बुद्ध द्वारा प्ररूपित दर्शन-बौद्ध दर्शन / वेसिय-वैशिक-कामशास्त्र, व्यापार-व्यवसाय का शास्त्र / काविल–कापिल, कपिल ऋषिरचित दर्शन–सांख्यदर्शन / लोयायय-लोकायत, बृहस्पतिरचित शास्त्र–चार्वाकदर्शन। सद्वितंत-षष्ठितंत्र--सांख्यदर्शन अथवा धूर्तता सिखाने वाला शास्त्रविशेष / माढर-माठर, शास्त्रविशेष / बहत्तर कलाओं के नाम समवायांग आदि सूत्रों से जान लेना चाहिये। सामवेद, ऋगवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद ये चार वेद प्रसिद्ध हैं तथा शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, ये वेदों के छह अंग और इनकी व्याख्या रूप ग्रन्थ उपांग हैं। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3j [अनुयोगद्वारसूत्र लोकोत्तरिक भावश्रुत 50. से कि तं लोगोत्तरियं भावसुयं ? ___ लोगोत्तरियं भावसुयं जं इमं अरहतेहि भगवंतेहिं उत्पन्ननाण-दसणधरोहि तीत-पाप्पन्न-मगावतजाणाह सम्वन्नहि सव्वदरिसोहि तेलोक्कवाहिय-महिय-पूइहि अपहिहयवरनाण-दंसणधरेहि पणोतं दुवालसंग गणिपिडगं / तं जहा--आयारो 1 सूयगडो 2 ठाणं 3 समवाओ 4 वियाहपण्णत्ती 5 नायाधम्मकहाओ 6 उवासगदसाओ 7 अंतगडदसाओ 8 अणुत्तरोववाइयदसाओ 9 पण्हावागरणाई 10 विवागसुयं 11 दिदिवाओ 12 य / से तं लोगोत्तरिय भावसुयं / से तं नोआगमतो भावसुयं / से तं भावसुयं / [50 प्र.] भगवन् ! लोकोत्तरिक (नोग्रागम) भावश्रुत का क्या स्वरूप है ? |50 उ.] अायुष्मन् / ( ज्ञान-दर्शनावरण कर्म के क्षय से ) उत्पन्न केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले, भूत-भविष्यत् और वर्तमान कालिक पदार्थों को जानने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा अवलोकित, महित-पूजित, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहंत भगवन्तों द्वारा प्रणीत 1 आचारांग, 2 सूत्रकृतांग, 3 स्थानांग, 4 समयायांग, 5 व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6 ज्ञातृधर्मकथा, 7 उपासकदशांग, 8 अन्तकृद्दशांग, 9 अनुत्तरोपपातिकदशांग, 10 प्रश्नव्याकरण, 11 विपाकश्रुत, 12 दृष्टिवाद रूप द्वादशांग, गणिपिटक लोकोत्तरिक नोपागम भावश्रुत हैं। इस प्रकार से नोपागम भावश्रुत का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन--सूत्र में नोग्रागम की अपेक्षा लोकोत्तरिक भावश्रुत का स्वरूप बतलाया है / अर्हत् भगवन्तों द्वारा प्रणीत गणिपिटक में उपयोगरूप परिणाम होने से भावश्रुतता है और यह उपयोग रूप परिणाम चरणगुण-चारित्रगुण से युक्त है तो वह नोग्रागम से भावश्रुत है / क्योंकि चरणगुण क्रिया रूप है और क्रिया आगम नहीं होती है। इस प्रकार यहाँ 'नो' शब्द एकदेशनिषेधक रूप में प्रयुक्त हुआ है। तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा अर्थतः प्ररूपित प्राचार प्रादि द्वादश अंग गणिपिटक लोकोत्तरिक भावश्रुत हैं। श्रुत के नामान्तर 51. तस्स णं इमे एगढिया नाणाघोसा नाणावंजणा नामधेज्जा भवंति / तं जहा सुय सुत्त गंथ सिद्धत सासणे आण वयण उबदेसे / पण्णवण आगमे या एगट्ठा पज्जवा सुते // 4 // से तं सुयं / [51] उदात्तादि विविध स्वरों तथा ककारादि अनेक व्यंजनों से युक्त उस श्रुत के एकार्थवाचक (पर्यायवाची) नाम इस प्रकार हैं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. श्रुत, 2. सूत्र, 3. ग्रन्थ, 4. सिद्धान्त, 5. शासन, 6. प्राज्ञा, 7. वचन, 8. उपदेश, 9. प्रज्ञापना, 10. प्रागम, ये सभी श्रु त के एकार्थक पर्याय हैं / इस प्रकार से त की वक्तव्यता समाप्त हुई / विवेचन यहाँ श्रु त के पर्यायवाची नामों को गिनाया है, जिनमें शब्दभेद होने पर भी अर्थभेद नहीं है। क्योंकि 1. गुरु के समीप सुने जाने के कारण यह श्रत है। 2. अर्थों की सूचना मिलने के कारण इसका नाम सूत्र है। 3. तीर्थकर रूप कल्पवृक्ष के बचन रूप पुष्यों का प्रथन होने से इनका नाम ग्रंथ है। 4. प्रमाणसिद्ध अर्थ को प्रकट करने वाला-बताने वाला होने से यह सिद्धान्त है। 5. मिथ्यात्वादि से दूर रहने की शिक्षा-सीख देने के कारण अथवा मिथ्यात्वी को शासित, संयमित करने वाला होने से यह शासन है।' 6. मुक्ति के लिये आज्ञा देने वाला होने से अथवा मोक्षमार्गप्रदर्शक होने से इसे अाज्ञा कहते हैं। 7. वाणी द्वारा प्रकट किये जाने से यह वचन है। 8. उपादेय में प्रवृत्ति और हेय से निवृत्ति का उपदेश (शिक्षा) देने वाला होने से इसे उपदेश कहते हैं। 9. जीवादिक पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का प्ररूपण करने वाला होने से यह प्रमाफ्ना है। 10. आचार्य परंपरा से पाने अथवा आप्तवचन रूप होने से यह पागम है। इस प्रकार श्रु ताधिकार के अधिकृत विषयों का विवेचन समाप्त हुआ। स्कन्ध-निरूपण के प्रकार 52. से कि तं खंधे ? खंधे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा- नामखधे 1 ठवणाखंधे 2 वन्वखंधे 3 भावखंधे 4 // [52 प्र.] भगवन् ! स्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [52 उ.] आयुष्मन् ! स्कन्ध के चार प्रकार हैं। वे इस तरह-१. नामस्कन्ध, 2. स्थापनास्कन्ध, 3 द्रव्यस्कन्ध, 4 भावस्कन्ध / विवेचन- 'खंचं निक्सिविस्सामि' स्कन्ध का निक्षेप करूंगा-इस प्रतिज्ञा के अनुसार सूत्र में निक्षेपविधि से स्कन्ध की प्ररूपणा प्रारम्भ की गई है। 1. हारिभद्रीया और मलधारियावृत्ति में शासन के स्थान पर पाठान्तर के रूप के प्रवचन शब्द है। जिसका अर्थ यह है कि प्रशस्त-प्रधान-श्रेष्ठ-प्रथम वचन होने से इसका नाम प्रवचन है--'प्रशस्तं प्रथम वा वचनं प्रवचनम् / ' Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.] [अनुयोपद्वारसूत्र खंधं (स्कन्ध) का अर्थ है पुद्गलप्रचय-पुद्गलों का पिंड / समूह-समुदाय, कंधा, वृक्ष का धड़ (जहाँ से शाखायें निकलती हैं) के लिये भी स्कन्ध शब्द का प्रयोग होता है / नाम-स्थापनास्कन्ध 53. से कि तं नामखंधे ? नामखंधे जस्स गं जीवस्स वा अजीवस्स वा जाव खंधे ति णामं कज्जति / से तं णामखंधे। [53 प्र.] भगवन् ! नामस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [53 उ.] आयुष्मन् ! जिस किसी जीव या अजीव का यावत् स्कन्ध यह नाम रखा जाता है, उसे नामस्कन्ध कहते हैं / 54. से कि तं ठवणाखंधे ? ठवणाखंधे जणं कटुकम्मे वा जाव खंधे इ ठवणा ठविति / से तं ठेवणाखंधे। [54 प्र. भगवन् ! स्थापनास्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [54 उ.] आयुष्मन् ! काष्ठादि में 'यह स्कन्ध है' इस प्रकार का जो आरोप किया जाता है, वह स्थापनास्कन्ध है। 55. णाम-ठवणाणं को पतिविसेसो ? नाम आबकहिथं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा। [55 प्र.] भगवन् ! नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? [55 उ.] आयुष्मन् ! नाम यावत्कथिक (वस्तु के अस्तित्व रहने तक) होता है परन्तु स्थापना इत्वरिक-स्वल्पकालिक और यावत्कथिक दोनों प्रकार की होती है। विवेचन—ऊपर नाम और स्थापना स्कन्ध का स्वरूप बतलाया है। उनकी विशेष व्याख्या नाम स्थापना आवश्यक के अनुरूप समझ लेनी चाहिये। द्रव्यस्कन्ध 56. से कि तं दध्वखंधे ? दव्वखंधे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा--आगमतो य 1 नोआगमतो य 2 / [56 प्र.] भगवन् ! द्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [56 उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यस्कन्ध दो प्रकार का है / यथा--१. आगमद्रव्यस्कन्ध और 2. नोग्रागमद्रव्यस्कन्ध / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्ध निरूपण 57. (1) से कि तं आगमओ दव्वखंधे ? आगमओ दश्वखंधे जस्स णं खंधे इ पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं जाव णेगमस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एगे दव्यखंधे, दो अणवत्ता आगमओ दो (पिण) दव्वखंधाई, तिणि अणवत्ता आगमओ तिणि दव्वखंधाई, एवं जावइया अणुवउत्ता तावइयाई ताई दम्वखंधाई। [57 प्र. 1] भगवन् ! अागमद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? {57 उ. 1] आयुष्मन् ! जिसने स्कन्धपद को गुरु से सीखा है, स्थित किया है, जित, मित किया है यावत् नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त आत्मा आगम से एक द्रव्यस्कन्ध है, दो अनुपयुक्त आत्मायें दो, तीन अनुपयुक्त आत्मायें तीन आगमद्रव्यस्कन्ध हैं, इस प्रकार जितनी भी अनुपयुक्त आत्मायें हैं, उतने ही प्रागमद्रव्यस्कन्ध जानना चाहिये / (2) एवमेव ववहारस्स वि / 2. इसी तरह (नगमनय की तरह) व्यवहारनय भी आगमद्रव्यस्कन्ध के भेद स्वीकार करता है। (3) संगहस्त एगो वा अणेगा वा अणुक्उत्तो वा अणुवउत्ता वा दबखंधे वा दव्यखंधाणि वा से एगे दव्वखंधे। 3. सामान्यमात्र को ग्रहण करने वाला संग्रहनय एक अनपयक्त प्रात्मा एक द्रव्यस्कन्ध और अनेक अनुपयुक्त आत्मायें अनेक प्रागमद्रव्यस्कन्ध ऐसा स्वीकार नहीं करता, किन्तु सभी को एक ही आगमद्रव्यस्कन्ध मानता है। (4) उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगे दव्वखंधे, पुहत्तं णेच्छति / 4. ऋजुसूत्रनय से एक अनुपयुक्न अात्मा एक आगमद्रव्यस्कन्ध है / वह भेदों को स्वीकार नहीं करता है। (5) तिण्हं सद्दणयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू / कम्हा ? जइ जाणए कहं अणुवउत्ते भवति ? से तं आगमओ दवखंधे। 5. नीनों शब्दनय ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हो तो उसे अबस्तु-असत् मानते हैं / क्योंकि जो ज्ञायक है वह अनुपयुक्त नहीं होता है / यह पागमद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है / विवेचन—यहाँ अागमद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप एवं तद्विषयक नय-विवक्षाओं का उल्लेख किया है। इन सबका वर्णन पूर्वोक्त आवश्यक के स्थान पर स्कन्ध पद रखकर पागमद्रव्यावश्यक की तरह जानना चाहिये / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [अनुयोगद्वारसूत्र नोश्रागमद्रव्यस्कन्ध 58. से किं तं णोआगमतो दवखंधे ? पोआगमतो बब्वखंधे तिबिहे पण्णत्ते / तं जहा-जाणगसरीरदब्वखंधे 1 भवियसरीरदव्यखंधे 2 जाणगसरीरभक्यिसरीरवइरित्ते दश्वखंधे 3 / [58 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [58 उ.] आयुष्मन् ! नोआगमद्रव्यस्कन्ध तीन प्रकार का है। यथा-१. ज्ञायकशरीरद्रव्यस्कन्ध, 2. भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध और 3. ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध / जायकशरीरद्रव्यस्कन्ध 59. से कि तं जाणगसरीरदब्वखंधे ? जाणगसरीरदव्वखंधे खंधे 6 पयस्थाहिगार-जाणगस्स जाव खंधे इ पयं आवियं पण्ण वियं परूपियं जाव से तं जाणगसरीरदन्वखंधे / [59 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [59 उ.] आयुष्मन् ! स्कन्धपद के अर्थाधिकार को जानने वाले यावत् जिसने स्कन्ध पद का (गुरु से) अध्ययन किया था, प्रतिपादन किया था, प्ररूपित किया था, आदि पूर्ववत् समझना चाहिए / यह ज्ञायकशरीरद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है / विवेचन--सूत्र में नोपागम ज्ञायकशरीरद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप बताया है। जिसका विशद अर्थ पूर्वोक्त ज्ञायकशरी रद्रव्यावश्यक के सदृश जानना चाहिये / मात्र आवश्यक के स्थान पर स्कन्ध शब्द का प्रयोग किया जाए। सूत्रगत दो 'जाव' पदों द्वारा सूत्र 17 में उल्लिखित पदों को ग्रहण करना चाहिये / नोग्रागम-भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध 60. से कि तं भवियसरीरदश्वखंधे ? भवियसरीरदव्वखंधे जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते जाव खंधे इ पयं सेकाले सिक्खिस्सइ / जहा को दिळंतो? अयं महुकुमे भविस्सइ, अयं घयकु मे भविस्सति / से तं भवियसरीरदब्वखंधे। [60 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [60 उ.] अायुष्मन् ! समय पूर्ण होने पर यथाकाल कोई योनिस्थान से बाहर निकला और वह यावत् भविष्य में 'स्कन्ध' इस पद के अर्थ को सीखेगा (किन्तु अभी नहीं सीख रहा है), उस जीव का शरीर भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध है / शिष्य-इसका दृष्टान्त ? Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्ध निरूपण प्राचार्य-दृष्टान्त इस प्रकार है--वर्तमान में मधु या घी नहीं भरा है किन्तु भविष्य में भरा जायेगा ऐसे घड़े के लिये कहना—यह मधुकुभ है, यह घृतकुंभ है। इस प्रकार भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन -..-ज्ञायकशरीर एवं भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध की व्याख्या द्रव्यावश्यक की व्याख्या के समान होने से तदनुरूप जानना चाहिये। ज्ञायकशरोर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध 61. से कि तं जाणगसरीरभवियसरीरवारिते दव्वखंधे ? जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखंधे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सचित्ते 1 अचित्ते 2 मीसए 3 // [61 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [61 उ. प्रायुष्मन् ! ज्ञायकशरीर भव्यशरीव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध के तीन प्रकार हैं / वे प्रकार ये हैं-१ सचित्त, 2 अचित्त और 3 मिश्र / विवेचन--सूत्र में उभयव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध के एक अपेक्षा से तीन भेद बतलाये हैं। सचित्तद्रव्यस्कन्ध 62. से किं तं सचित्तदव्वखंधे ? सचित्तदध्वखंधे अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा-हयखंधे गयखंधे किन्नरखंधे किंपुरिसखंधे महोरगखंधे उसभखंधे / से तं सचित्तदव्वखंधे / [62 प्र.] भगवन् ! सचित्तद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [62 उ.] आयुष्मन् ! सचित्तद्रव्यस्कन्ध के अनेक प्रकार हैं। वे इस तरह हय (अश्व) स्कन्ध, गज (हाथी) स्कन्ध, किन्नरस्कन्ध, किंपुरुषस्कन्ध, महोरगस्कन्ध, वृषभ (बैल) स्कन्ध / इस प्रकार यह सचित्तद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है / विवेचन—चेतना, संज्ञान, उपयोग, मन और विज्ञान ये सब चित्त के पर्यायवाची नाम हैं। इस चित्त से जो युक्त हो वह सचित्त है। स्कन्ध का अर्थ पूर्व में बताया जा चुका है। यह सचित्तस्कन्ध व्यक्तिभेद की अपेक्षा अनेक प्रकार का है। जो उदाहरण के रूप में दिये गये हयस्कन्ध आदि नामों से स्पष्ट है। अपौद्गलिक होने से यद्यपि जीव में स्कन्धता घटित नहीं होती है, परन्तु यह ऐकान्तिक नियम नहीं कि पुद्गलप्रचय में ही स्कन्धता मानी जाए। प्रत्येक जीव असंख्यातप्रदेशी है। अतः उन प्रदेशों की समुदाय रूप स्कन्धता उसमें सुप्रतीत ही है। अर्थात् जीव पुद्गलप्रचय रूप नहीं, किन्तु असंख्यात प्रदेशों का समुदाय रूप स्कन्ध है / इसके अतिरिक्त जीव का गृहीत शरीर के साथ अमुक अपेक्षा से अभेद है और सचित्तद्रव्यस्कन्ध का अधिकार होने से यहाँ उन-उन शरीरों में रहे जीवों में परमार्थतः सचेतनता होने से ह्यादिकों को स्कन्ध रूप में ग्रहण किया है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] अनुयोगद्वारसूत्र यद्यपि सचित्तद्रव्यस्कन्ध की सिद्धि हयस्कन्ध आदि में से किसी एक उदाहरण से हो सकती थी तथापि प्रात्मावतवाद का निराकरण करने एवं जीवों के भिन्न-भिन्न स्वरूप तथा उनकी अनेकता बताने के लिये उदाहरण रूप में हय ग्रादि पृथक-पृथक जीवों के नाम दिये हैं / अद्वैतवाद को स्वीकार करने पर भेदव्यवहार नहीं बनता है। अचित्तद्रव्यस्कन्ध 63. से कि तं अचित्तदत्वखंधे ? अचित्तदव्वखंधे अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा--दुपएसिए खंधे तिपएसिए खंधे जाव दसपएसिए खंधे संखेज्जपएसिए खंधे असंखेज्जपएसिए खंधे अणंतपएसिए खंधे / से तं अचित्तदव्वखंधे। [63 प्र.| भगवन् ! अचित्तद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप क्या है ? [63 उ. आयुष्मन् ! अचित्तद्रव्यस्कन्ध अनेक प्रकार का प्ररूपित किया है। वह इस तरह-द्विप्रदेशिक स्कन्ध, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध यावत् दसप्रदेशिक स्कन्ध, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध / यह अचित्तद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है। विवेचन-यहाँ सूत्रकार ने अचित्तद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप बताया है / दो प्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक जो और जितने भी पुद्गलस्कन्ध हैं वे सब अचित्तद्रव्यस्कन्ध हैं। प्रकृष्टः (पुदगलास्तिकाय-} देश: प्रदेश:, इस व्युत्पत्ति के अनुसार सबसे अल्प परिमाण बाले पुद्गलास्तिकाय का नाम प्रदेश-परमाण है / दो आदि अनेक परमाणुओं के मेल से बनने वाले स्कन्धों का मूल परमाणु है। परमाणु में अस्तिकायता इसलिये है कि वह स्कन्धों का उत्पादक है। मिश्रद्रव्यस्कन्ध 64. से किं तं मीसदध्वखंधे ? मीसदव्वखंधे अणेगविहे पण्णते। तं जहा-सेणाए अग्गिमखंधे सेणाए मज्झिमखंधे सेणाए पच्छिमखंधे / से तं मीसदव्वखंधे। [64 प्र.] भगवन् ! मिश्रद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [64 उ.] आयुष्मन् ! मिश्रद्रव्यस्कन्ध अनेक प्रकार का कहा है / यथा-सेना का अग्रिम स्कन्ध, सेना का मध्य स्कन्ध, सेना का अंतिम स्कन्ध / यह मिश्रद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है / विवेचन--सूत्रकार ने मिश्रद्रव्यस्कन्ध के उदाहरण के रूप में सेना का उल्लेख किया है। इसका कारण यह है कि सेना सचेतन और अचेतन इन दोनों का मिथण (संयोग) रूप अवस्था है। हाथी, घोड़े, मनुष्य आदि सचेतन तथा तलवार, धनुष, कवच, भाला आदि अचेतन वस्तुग्रों के समुदाय का नाम सेना है / इसीलिये इसे मिश्रद्रव्यस्कन्ध कहा है। ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध का प्रकारान्तर से प्ररूपण 65. अहवा जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दम्वखंधे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा- कसिणखंधे 1 अकसिणखंधे 2 अगदवियखंधे 3 / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्ध निरूपण [45 65] अथवा ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरन्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध्र के तीन प्रकार हैं। जैसे-१ कृत्स्नस्कन्ध, 2 अकृत्स्नस्कन्ध, 3 अनेकद्रव्यस्कन्ध / विवेचन--यहाँ उभयव्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध के प्रकारान्तर से कृत्स्न (संपूर्ण), अकृत्स्न (अपूर्ण) और अनेक (एक से अधिक द्रव्यों का समुदाय), इन तीन भेदों के नाम बताये हैं / अब क्रम से उनका स्पष्टीकरण करते हैं। कृत्स्नस्कन्ध 66. से कि तं कसिणखंधे ? कसिणखंधे से चेव हयक्खंधे गयक्खंधे जाव उसभखंधे / से तं कसिणखंधे। [66 प्र.] भगवन् ! कृत्स्नस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [66 उ. आयुष्मन ! हयस्कन्ध, गजस्कन्ध्र यावत् वृषभस्कन्ध जो पूर्व में कहे, वही कृत्स्नस्कन्ध हैं / यही कृत्स्नस्कन्ध का स्वरूप है। विवेचन--यहाँ कृत्स्नस्कन्ध का स्वरूप बतलाया गया है। यद्यपि इस कृत्स्नस्कन्ध के उदाहरणों में भी सचित्तद्रव्यस्कन्ध के उदाहरण हयस्कन्ध आदि का उल्लेख किया है, लेकिन दोनों में अन्तर यह है कि सचित्तद्रव्यस्कन्ध में तो य (अश्व) आदि जीवों की विवक्षा की है, उनके शरीर की नहीं और कृत्स्नस्कन्ध के प्रसंग में जीव और जीवाधिष्ठित शरीरावयव इन दोनों के समुदाय की विवक्षा है। इस तरह अभिधेय-भिन्नता से सचित्तद्रव्यस्कन्ध और कृत्स्नस्कन्ध में भेद (अन्तर) है / अर्थात् कृत्स्नस्कन्ध में जीव और जीवाधिष्ठित शरीरावयवों के समुदाय को और सचित्तद्रव्यस्कन्ध में मात्र असंख्यातप्रदेशी जीव को ग्रहण किया है / इस प्रकार उदाहरण एक होने पर भी दोनों में अन्तर है। यस्कन्ध, गजस्कन्ध्र प्रादि के आकार-प्रकार में जो छोटापन, बड़ापन है, वह पौद्गलिक प्रदेशों की अपेक्षा है, लेकिन प्रत्येक जीव असंख्यातप्रदेशी है और उस शरीर में सभी प्रदेशों के सर्वात्मना तदाकार रूप से रहने के कारण असंख्यात प्रदेश सर्वत्र तुल्य हैं, हीनाधिकता नहीं है। पुद्गल प्रदेशों में वृद्धि हानि होने पर भी प्रात्मप्रदेशों में वृद्धि-हानि नहीं होती है / अकृत्स्नस्कन्ध 67. से कितं अकसिणखंधे ? अकसिणखंधे से चेक दुपएसियादी खंधे जाव अणंतपदेसिए खंधे / से तं अकसिणखंधे / [67 प्र.] भगवन् ! अकृत्स्नस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [67 उ. प्रायुष्मन् ! अकृत्स्नस्कन्ध पूर्व में कहे गये द्विप्रदेशिक स्कन्ध आदि यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं / इस प्रकार अकृत्स्नस्कन्ध का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन--सूत्र में अकृत्स्नस्कन्ध की व्याख्या की है / अकृत्स्न यानि अपरिपूर्ण / अतएव जिस स्कन्ध से अन्य कोई दूसरा बड़ा स्कन्ध होता है, वह अपरिपूर्ण होने के कारण अकृत्स्नस्कन्ध है। द्विप्रदेशिक प्रादि स्कन्ध अपूर्ण हैं और इनमें अपरिपूर्णता इस प्रकार है कि द्विप्रदेशिक स्कन्ध त्रिप्रदेशिक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वारसूत्र स्कन्ध से न्यून होने के कारण अपरिपूर्ण है। इसी तरह उत्तरोत्तर की अपेक्षा पुर्व-पूर्व का स्कन्ध अकृत्स्नस्कन्ध जानना चाहिये। यह अकृत्स्नता कृत्स्नता प्राप्त होने के पूर्व तक होती है। पूर्व में द्विप्रदेशिक आदि से लेकर अनन्त प्रदेश बाले स्कन्ध सामान्य रूप से अचित्त कहे हैं। परन्तु अकृत्स्नद्रव्यस्कन्ध के प्रकरण में सर्वोत्कृष्ट स्कन्ध से नीचे के स्कन्ध ही उत्तरोत्तर की अपेक्षा अकृत्स्नस्कन्ध रूप में ग्रहण किये हैं। यही इन दोनों में भेद है। अनेकद्रव्यस्कन्ध 68. से कि तं अगदवियखंधे ? अगदवियखंधे तस्सेव देसे अवचिते तस्सेव देसे उचिए / से तं अगदवियखंधे / से तं जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दब्वखंधे / से तं नोआगमतो दव्वखंधे / से तं दव्वखंधे / [68 प्र.] 'भगवन् ! अनेकद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? |68 उ.] आयुष्मन् ! एकदेश अपचित और एकदेश उपचित भाग मिलकर उनका जो समुदाय बनता है, वह अनेकद्रव्यस्कन्ध है। इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध का निरूपण समाप्त हया और इसकी समाप्ति के साथ नोग्रागम द्रव्यस्कन्ध का और माथ ही द्रव्यस्कन्ध का वर्णन भी पूर्ण हुआ जानना चाहिये। विवेचन—सूत्रार्थ स्पष्ट है। इसमें विशेष कथनीय यह है कि एक देश अपचित भाग अर्थात् जीवप्रदेशों से रहित (अचेतन नख केशादि रूप भाग एवं एकदेश उपचित--जी पीठ, उदर आदि भाग के संयोग से एक विशिष्ट आकार वाला जो देह रूप समुदाय बनता है, वह अनेकद्रव्यस्कन्ध है / जैसे हयस्कन्ध, गजस्कन्ध आदि / यद्यपि यह अनेकद्रव्यस्कन्ध भी कृत्स्नस्कन्ध की तरह हयादि स्कन्ध रूप से प्रतीत होता है, फिर भी दोनों में यह अंतर है कि कृत्स्नस्कन्ध में तो मात्र जीव के प्रदेशों से व्याप्त शरीरावयव रूप देश को हो विवक्षित किया है, जीव-प्रदेशों से अव्याप्त नखादि प्रदेशों को नहीं, किन्तु अनेकद्रव्यस्कन्ध में पूर्वोक्त के साथ नखादि रूप अचेतन देश भी विवक्षित हैं। मिश्रद्रव्यस्कन्ध से भी यह अनेकद्रव्यस्कन्ध भिन्न है। क्योंकि मिश्रद्रव्यस्कन्ध में तो पृथकपथक रूप से अवस्थित हस्ती, तलवार आदि को मिश्रस्कन्ध रूप से कहा है, परन्तु इस अनेकद्रव्यस्कन्ध में विशिष्ट परिणाम रूप से परिणत हुए सचेतन-अचेतन द्रव्यों के एक समुदाय को अनेक द्रव्यस्कन्ध कहा है। भावस्कन्ध निरूपण 69. से कि तं भावखंधे ? भावखंधे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा--आगमतो य 1 नोआगमतो य 2 / [69 प्र.] भगवन् ! भावस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्ध निरूपण [47 [69 उ.] पायुष्मन् ! भावस्कन्ध दो प्रकार का कहा है। वह इस तरह-१. आगमभावस्कन्ध 2. नोग्रागमभावस्कन्ध / 70. से कितं आगमतो भाबखंधे? आगमतो भावबंधे जाणए उवउत्ते / से तं आगमतो भायखंधे। [70 प्र.] भगवन् ! आगमभावस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [70 उ.] आयुष्मन् ! स्कन्ध पद के अर्थ का उपयोग युक्त ज्ञाता आगमभावस्कन्ध है। 71. से कि तं नोआगमओ भावखंधे ? नोआगमओ भावखंधे एएसि चेव सामाइयमाइयाणं छण्हं अज्झयणाणं समुदयसमिइसमागमेणं निष्फन्ने आवस्सगसुयक्खंधे भावखंधे ति लब्भइ / से तं नोआगमतो भावखंधे / से तं भावखंधे / [71 प्र. भगवन् ! नोप्रागमभावस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [71 उ.] आयुष्मन् ! परस्पर-संबन्धित सामायिक आदि छह अध्ययनों के समुदाय के मिलने से निष्पन्न अावश्यकश्रुतस्कन्ध नोग्रागमभावस्कन्ध कहलाता है। इस प्रकार से भावस्कन्ध की वक्तव्यता जानना चाहिए। विवेचन-इन सूत्रों में भावस्कन्ध का स्वरूप स्पष्ट किया है। इनमें से प्रागमभावस्कन्ध की व्याख्या तो पागमभावावश्यक प्रतिपादक सूत्र की जैसी जानना चाहिए / नोग्रागमभावस्कन्ध की स्वरूपव्याख्या में 'समुदयसमिइसमागमेणं' पद मुख्य है। इसमें 'समुदयसमिइ' का अर्थ है सामायिक आदि छह अध्ययनों के समूह का अव्यवहित मिलना तथा समागम यानि षट्प्रदेशी स्कन्ध की तरह छह अधिकार वाले अावश्यकश्रुतस्कन्ध का प्रात्मा में एक रूप होना। अर्थात् लोहशलाकाओं की तरह परस्पर निरपेक्ष सामायिक आदि पट अावश्यकों के समुदाय-समिति-समागम से निष्पन्न आवश्यकश्रुतस्कन्ध का नाम भावस्कन्ध है / यही भावस्कन्ध जब मुखवस्त्रिका, रजोहरण ग्रादि की व्यापार रूप क्रिया से विवक्षित किया जाता है तब वह नोआगमभावस्कन्ध है। यहाँ नोग्रागम में प्रयुक्त 'नो' शब्द सर्वथा आगमभाव का निषेधक नहीं है किन्तु एकदेश का निषेधक है। स्कन्धपदार्थ का ज्ञान पागम, उसमें ज्ञाता का उपयोग भाव और रजोहरण आदि द्वारा की जाने वाली प्रमार्जना आदि त्रियाय नोमागम हैं / स्कन्ध के पर्यायवाची नाम 72. तस्स णं इमे एगट्ठिया नाणाघोसा नाणावंजणा नामधेज्जा भवंति / तं जहा---- गण काय निकाय खंध वग्ग रासी पुजे य पिड नियरे य / संघाय आकुल समूह भावखंधस्स पज्जाया // 5 // से तं खंधे। [72.] उस भावस्कन्ध के विविध घोषों एवं व्यंजनों वाले एकार्थक (पर्यायवाची) नाम इस प्रकार हैं-- Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [अनुयोगद्वारसूत्र (गाथार्थ) गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग, राशि, पुंज, पिंड, निकर, संघात, आकुल और समूह, ये सभी भावस्कन्ध के पर्याय हैं / विवेचन-पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है१. गण-मल्ल आदि गणों की तरह स्कन्ध अनेक परमाणुगों का संश्लिष्ट परिणाम होने से गण कहलाता है। 2. काय--स्कन्ध भी पुथ्वीकायादि की तरह होने से उसे काय कहते हैं। 3. निकाय-घट जीवनिकाय की तरह यह स्कन्ध भी निकाय रूप है / 4. स्कन्ध-द्विप्रदेशी, विप्रदेशी आदि रूप संश्लिष्ट परिणाम वाला होने से स्कन्ध कहलाता 5. वर्ग---गोवर्ग की तरह स्कन्ध वर्ग है। 6. राशि-चावल, गेहूं आदि धान्य राशिवत् होने से स्कन्ध का नाम राशि भी है। 7. पुज-एकत्रित किये गये धान्यपुंजवत् होने से इसे पंज कहते हैं। 8. पिंड-गुड़ आदि के पिंडवत् होने से पिंड है। 9. निकर-चांदी ग्रादि के समूह की तरह होने से यह निकर है। 10. संघात-महोत्सव आदि में एकत्रित जनसमुदाय की तरह होने से इसका नाम संघात है। 11. आकुल-आंगन आदि में एकत्रित (व्याप्त) जनसमूह जैसा होने से स्कन्ध को प्राकुल कहते हैं। 12. समूह-नगरादि के जनसमूह की तरह वह समूह है। इस प्रकार स्कन्धाधिकार का समग्र वर्णन जानना चाहिये / पावश्यक के अधिकार और अध्ययन 73. आवस्सगस्स णं इमे अत्थाहिगारा भवंति / तं जहा~ सावज्जजोगविरती 1 उक्कित्तण 2 गुणवओ य पडिवत्ती 3 // खलियस्स निदणा 4 वतिगिच्छ 5 गुणधारणा 6 चेव // 6 / / [73] प्रावश्यक के अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं-- (गाथार्थ) 1. सावद्ययोगविरति, 2. उत्कीर्तन, 3. गुणवत्प्रतिपत्ति, 4. स्खलितनिन्दा, 5. व्रणचिकित्सा और 6 गुणधारणा। विवेचन यहाँ आवश्यक के छह अर्थाधिकारों के नाम बताये हैं। ये अर्थाधिकार इसलिये हैं कि प्रावश्यक की साधना, पाराधना द्वारा जो उपलब्धि होती है अथवा जो करणीय है उसका बोध इनके द्वारा होता है / स्पष्टीकरण इस प्रकार है ___सावद्ययोगविरति--हिंसा, असत्य अादि सावद्य योगों का त्याग करना। अर्थात् हिंसा आदि निन्दनीय कार्यों से विरत होना अथवा हिंसा आदि के कारण होने वाली मलिन मानसिक आदि वृत्तियों के प्रति उन्मुख न होना सावद्ययोगविरति (सामायिक) अर्थाधिकार है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्ध निरूपण] उत्कीर्तन-सावद्ययोग की विरति से जो स्वयं सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए एवं दूसरों को भी आत्मशुद्धि के लिये इसी सावधयोग-प्रवृत्ति के त्याग का जिन्होंने उपदेश दिया ऐसे उपकारियों के गुणों की स्तुति करना उत्कीर्तन (चतुर्विशतिस्तव) अर्थाधिकार है। गुणवत्प्रतिपत्ति-सावद्ययोगविरति की साधना में तत्पर गुणवान् अर्थात् मूल एवं उत्तर गुणों के धारक संयमी निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग की प्रतिपत्ति-आदर-सम्मान करना गुणवत्प्रतिपत्ति (वंदना) अर्थाधिकार है। स्खलितनिन्दा-संयमसाधना करते हुए प्रमादवश होने वाली स्खलना--अतिचार--दोष की शुद्ध बुद्धि से संवेगभावनापूर्वक निन्दा-गर्दा करना स्खलित निन्दा (प्रतिक्रमण) अर्थाधिकार है। चिकित्सा-स्वीकृत साधना में कायोत्सर्ग करके शरीर पर ममत्व-रागभाव त्याग करके—अतिचारजन्य भावव्रण (घाव-दोष) का प्रायश्चित्त रूप औषधोपचार द्वारा निराकरण करना बणचिकित्सा (कायोत्सर्ग) अर्थाधिकार है / गुणधारणा–प्रायश्चित्त द्वारा दोषों का प्रमार्जन करके मूल और उत्तर गुणों को अतिचार रहित-निर्दोष धारण-पालन करना गुणधारणा (प्रत्याख्यान) अर्थाधिकार है / गाथोक्त 'च' और 'एव' शब्दों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि मूल में आवश्यक के यही छह अर्थाधिकार हैं और इनसे सम्बन्धित प्राचार-विचार आदि सभी का इन्हीं में समावेश हो जाता है। 74. आवस्सगस्स एसो पिडत्थो वण्णितो समासेणं / एत्तो एक्केक्कं पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि // 7 // तं जहा--सामाइयं 1 बउवीसत्थओ 2 वंदणं 3 पडिक्कमणं 4 काउस्सग्गो 5 पच्चक्खाणं 6 / [74] इस प्रकार से आवश्यकशास्त्र के समुदायार्थ का संक्षेप में कथन करके अब एक-एक अध्ययन का वर्णन करूंगा। उनके नाम यह हैं..--- 1. सामायिक 2. चतुर्विंशतिस्तव 3. वंदना 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग और 6. प्रत्याख्यान / विवेचन यह प्रतिज्ञावाक्य है / पिंडार्थ के रूप में आवश्यकशास्त्र के जिस अर्थ का पूर्व में संकेत किया है उसी का विशद वर्णन करने के लिये यहाँ पृथक-पृथक अध्ययनों के नाम बताये हैं। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है सामायिक अध्ययन सर्वसावद्ययोग की विरति का प्रतिपादक है। चतुर्विशतिस्तव अध्ययन चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन-गुणानुवाद किये जाने से उत्कीर्तन ____वंदना अध्ययन मूलगुणों एवं उत्तरगुणों से संपन्न मुनियों का बहुमान करने रूप होने से गुणवत्प्रतिपत्ति प्राधिकार है / प्रतिक्रमण अध्ययन मूलगुणों और उत्तरगुणों से स्खलित होने पर लगे अतिचारों का निराकरण करने वाला होने से स्खलितनिन्दा अर्थाधिकार रूप है।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.] [अनुयोगद्वारसूत्र कायोत्सर्ग नामक पांचवाँ अध्ययन चारित्रपुरुष के अतिचाररूपी भावव्रण की प्रायश्चित्त रूप चिकित्सा करने के कारण ब्रणचिकित्सा अधिकार है। प्रत्याख्यान अध्ययन मूल और उत्तर गुणों को निरतिचार धारण करने रूप होने से गुणधारणा अर्थाधिकारात्मक है। यद्यपि कृत प्रतिज्ञानुसार आवश्यक, श्रुत और स्कन्ध के अनन्तर अध्ययन का निक्षेप किया जाना चाहिये था, किन्तु वक्ष्यमाण 'निक्षेप-अनुयोगद्वार' में निक्षेप किये जाने से यहाँ मात्र अध्ययनों के नामों का उल्लेख किया है। अनुयोगद्वार-नामनिर्देश 75. तत्थ पढमायणं सामाइयं / तस्स णं इमे चत्तारि अणुओगद्दारा भवति / तं जहा--उवक्कमे 1 णिक्लेवे 2 अणुगमे 3 गए 4 / 75. इन (छह अध्ययनों) में से प्रथम सामायिक अध्ययन के यह चार अनुयोगद्वार हैं१. उपक्रम 2. निक्षेप 3. अनुगम 4. नय / विवेचन--- 'एक्केक्क पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि' के निर्देशानुसार सूत्रकार ने सामायिक सम्बन्धी विचारणा प्रारम्भ की है / सामायिक के प्रथम उपन्यास का कारण यह है कि सामायिक समस्त चारित्रगुणों का आधार और मानसिक, शारीरिक दुःखों के नाश तथा मुक्ति का प्रधान हेतु है / सामायिक की नियुक्ति---समस्य प्रायः-समायः प्रयोजनमस्येति सामायिकम्- सर्वभूतों में प्रात्मवत् दृष्टि से संपन्न राग-द्वेष रहित आत्मा के (समभाव रूप) परिणाम को सम और इस सम की आय-प्राप्ति या ज्ञानादि गुणोत्कर्ष के साथ लाभ को समाय कहते हैं। यह समाय ही जिसका प्रयोजन है, उसका नाम सामायिक है। अनुयोग---अध्ययन के अर्थ का कथन करने की विधि का नाम अनुयोग है। अथवा सूत्र के साथ उसका अनुकूल अर्थ स्थापित करना अनुयोग है। उपक्रम---निक्षेप करने योग्य बनाने की रीति से दूरस्थ वस्तु का समीप लाना-प्रतिपादन करना / अथवा गुरु के जिस वचन-व्यापार द्वारा अथवा विनीत शिष्य के विनयादि गुणों से वस्तु निक्षेपयोग्य की जाती है उसे उपक्रम कहते हैं। निक्षेप---नाम, स्थापना आदि के भेद से सूत्रगत पदों का न्यास-व्यवस्थापन करना। अनुगम-सूत्र का अनुकूल अर्थ कहना / नय.-अनन्त धर्मात्मक वस्तु के शेष धर्मों को अपेक्षादृष्टि से गौण मानकर मुख्य रूप से एक अंश को ग्रहण करने वाला बोध / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम निरूपण] उपक्रम आदि का क्रमविन्यास–निक्षेपयोग्यताप्राप्त वस्तु निक्षिप्त होती है और इस योग्य बनाने का कार्य उपक्रम द्वारा होता है / अत: सर्वप्रथम उपक्रम और तदनन्तर निक्षेप का निर्देश किया है ! नाम आदि के रूप में निक्षिप्त वस्तु ही अनुगम की विषयभूत बनती है, इसलिये निक्षेप के अनन्तर अनुगम का तथा अनुगम से युक्त (ज्ञात) हुई वस्तु नयों द्वारा विचारकोटि में आती है, अतएव अनुगम के बाद नय का कथन किया गया है। उपक्रम के भेद और नाम-स्थापना उपक्रम 76. से कि तं उवक्कमे ? उवक्कमे छविहे पण्णत्ते। तं जहा-नामोवक्कमे 1 ठवणोवक्कमे 2 दग्वोबक्कमे 3 खेतोवक्कमे 4 कालोवक्कमे 5 भावोवक्कमे 6 / [76 प्र.] भगवन् ! उपक्रम का स्वरूप क्या है ? [76 उ.] प्रायुष्मन् ! उपक्रम के छह भेद हैं। वे इस प्रकार--१. नाम-उपक्रम, 2. स्थापनाउपक्रम, 3. द्रव्य-उपक्रम, 4. क्षेत्र-उपक्रम, 5. काल-उपक्रम, 6. भाव-उपक्रम / 77. नाम-ठवणाओ गयाओ। [77] नाम-उपक्रम और स्थापना-उपक्रम का स्वरूप नाम-प्रावश्यक एवं स्थापनाअावश्यक के समान जानना चाहिये। विवेचन-सूत्रकार ने इन दो सूत्रों में उपक्रम के भेदों के साथ नाम और स्थापना उपक्रम का स्वरूप बतलाया है / किसी चेतन या अचेतन पदार्थ का “उपक्रम' ऐसा नाम रख लेना नाम-उपक्रम है और किसी पदार्थ में उपक्रम का आरोप करना-उपक्रम रूप से उसे मान लेना स्थापना-उपक्रम कहलाता है। द्रव्य-उपक्रम 78. से कि तं दव्वोवक्कमे ? / दबोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा आगमओ य 1 नोअगमओय 2 जाव जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दावोवक्कमे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा–सचित्ते 1 अचित्ते 2 मीसए 3 / [78 प्र.] भगवन् ! द्रव्य-उपक्रम का क्या स्वरूप है ? [78 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्य-उपक्रम दो प्रकार का है-१. आगमद्रव्य-उपक्रम, 2. नोमागमद्रव्य-उपक्रम इत्यादि पूर्ववत् जानना चाहिये यावत् ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्य-उपक्रम के तीन प्रकार हैं / वे इस तरह ..1. सचित्तद्रव्य-उपक्रम, 2. अचित्तद्रव्य-उपक्रम, 3. मिश्रशरीरद्रव्यउपक्रम / विवेचन --सूत्र में द्रव्य-उपक्रम की व्याख्या तो को है, लेकिन कतिपय विषयों के लिये संकेत मात्र किया है, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिये Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52]] [अनुयोगद्वारसूत्र भूतकालीन अथवा भविष्यत्कालीन उपक्रम की पर्याय को वर्तमान में उपक्रम रूप से कहना द्रव्य-उपक्रम है / इसके भी द्रव्यावश्यक के भेदों की तरह आगम और नोग्रागम को प्राश्रित करके दो भेद हैं। उनमें से उपक्रम के अर्थ का अनुपयुक्त ज्ञाता आगम की अपेक्षा द्रव्योपक्रम है और नोग्रामम को आश्रित करके ज्ञायकशरीर, भव्यशरीर तथा दोनों से व्यतिरिक्त, ये तीन भेद होते हैं। उनमें उपक्रम के अनुपयुक्त ज्ञाता का निर्जीव शरीर नोआगमज्ञायकशरीरद्रव्योपक्रम तथा जिस प्राप्त शरीर से जीव आगे उपक्रम के अर्थ को सीखेगा वह भव्यशरीरद्रव्योपक्रम है और इन दोनों से व्यतिरिक्त नोग्रागमद्रव्योपक्रम का सूत्र में इस प्रकार से संकेत किया है-- जिस उपक्रम का विषय सचित्तद्रव्य है, अचित्तद्रव्य है और सचित्त-प्रचित्त दोनों प्रकार का द्रव्य है, उसे अनुक्रम से उभय-व्यतिरिक्त सचित्तद्रव्योपक्रम, अचित्तद्रव्योपक्रम और मिश्रद्रव्योपक्रम जानना चाहिये। इनका विशेषता के साथ स्पष्टीकरण प्रागे किया जा रहा है / सचित्तद्रव्योपक्रम 79. से कि तं सचित्तदवोवक्कमे ? सचित्तदवोबक्कमे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा–दुपयाणं 1 चउप्पयाणं 2 अपयाणं 3 / एक्केक्के दुविहे परिकम्मे य 1 वत्थुविणासे य 2 / [79 प्र.] भगवन् ! सचित्तद्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है ? 79 उ.] आयुष्मन् ! सचित्तद्रव्योपक्रम तीन प्रकार का कहा है / यथा--१. द्विपद-मनुष्यादि दो पैर वाले द्रव्यों का उपक्रम, 2. चतुष्पद-चार पैर वाले पशु आदि का उपक्रम, 3. अपद-बिना पैर वाले वृक्षादि द्रव्यों का उपक्रम / ये प्रत्येक उपक्रम भी दो-दो प्रकार के हैं--१. परिकर्मद्रव्योपक्रम, 2. वस्तुविनाशद्रव्योपक्रम / 80. से कि तं दुपए उवक्कमे ? दुपए उवक्कमे दुपयाणं नडाणं नट्टाणं जल्लाणं मल्लाणं मुट्टियाणं वेलंबगाणं कहगाणं पदगाणं लासगाणं आइक्खगाणं लंखाणं मंखाणं तूणइल्लाणं तुबवीणियाणं कायाणं मागहाणं / से तं दुपए उवक्कमे। [80 प्र.] भगवन् ! द्विपद-उपक्रम का क्या स्वरूप है ? [80 उ.] आयुष्मन् ! नटों, नर्तकों, जल्लों (रस्सी पर खेल करने वालों), मल्लों, मौष्टिकों (मुट्ठी से प्रहार करने वालों, पंजा लड़ाने वालों), बेलबकों (विदूषकों, बहुरुपियों), कथकों (कथाकहानी कहने वालों), प्लवकों (छलांग लगाने बालों, तैरने वालों), लासकों (हास्योत्पादक क्रियायें करने वालों, भांडों), पाख्यायकों (शुभाशुभ बताने वालों), लंखों (बांस आदि पर चढ़कर खेल दिखाने वालों), मंखों (चित्रपट दिखाने वाले भिक्षुओं), तूणिकों (तंतुवाद्य-वादकों), तुंबवीणकों (तुम्बे की वीणा-वादकों), कावडियाओं तथा मागधों (मंगलपाठकों) आदि दो पैर वालों का परिकर्म और विनाश करने रूप उपक्रम आयोजन द्विपदद्रव्योपक्रम है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम निरूपण] 81. से किं तं चउप्पए उवक्कमे ? चउप्पए उवक्कमे चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं इच्चाइ / से तं चउप्पए उबक्कमे / [81 प्र.] भगवन् ! चतुष्पदोपक्रम का क्या स्वरूप है ? [81 उ. आयुष्मन् ! चार पैर वाले अश्व, हाथी आदि पशुओं के उपक्रम को चतुष्पदोपक्रम कहते हैं। 82. से किं तं अपए उवक्कमे ? अपए उवक्कमे अपयाणं अंबाणं अंबाडगाणं इच्चाइ / से तं अपए उवक्कमे / सेतं सचित्तदव्योवक्कमे। [82 प्र.भगवन् ! अपद-द्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है ? [82 उ.] आयुष्मन् ! प्राम, अाम्रातक प्रादि बिना पैर वालों से संबन्धित उपक्रम को अपद-उपक्रम कहते हैं। इस प्रकार से सचित्तद्रव्योपक्रम का स्वरूप जानना चाहिये / विवेचन--इन तीन सूत्रों में सचित्तद्रव्योपक्रम का स्वरूप बतलाया गया है / सचेतन होने से द्विपद, चतुष्पद और अपद इन तीन में समस्त शरीरधारी जीवों का ग्रह्ण हो जाने से सचित्तद्रव्योपक्रम के तीन भेद बताये हैं। द्विपदों, चतुष्पदों और अपदों के रूप में क्रमश: नट आदि मनुष्यों, हाथी आदि चौपायों और ग्राम प्रादि अपदों (वृक्षों) के नाम सुगमता से बोध कराने के लिये उदाहरण रूप में प्रयुक्त किये हैं। वस्तु के गुण, शक्तिविशेष की वृद्धि करने के प्रयत्न या उपाय को परिकर्म और वस्तु के विनाश के साधनों-तलवार ग्रादि के द्वारा उनको विनष्ट किये जाने के प्रयत्न को वस्तुविनाश उपक्रम कहते हैं। __नट, नर्तक आदि द्विपदों की शारीरिक शक्ति बढ़ाने वाले घृतादि पदार्थों का सेवन रूप प्रयत्नविशेष द्विपद परिकर्म-उपक्रम है और तलवार आदि के द्वारा इन्हीं का बिनाश-घात करने रूप प्रयत्न-आयोजन वस्तुविनाशोपक्रम कहलाता है / इसी प्रकार चतुष्पदों और अपदों संबन्धी परिकर्म और विनाश विषयक उपक्रमों के लिये भी समझ लेना चाहिये। अचित्तद्रव्योपक्रम 83. से किं तं अचित्तदवोरक्कमे ? अचित्तदव्योवक्कमे खंडाईणं गुडादोणं मत्स्यंडोणं / से तं अचित्तदव्योवक्कमे / [83 प्र.] भगवन् ! अचित्तद्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है ? Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] [अनुयोगद्वारसूत्र [83 उ.] आयुष्मन् ! खांड (शक्कर), गुड़, मिश्री अथवा राब आदि पदार्थों में उपायविशेष से मधुरता की वृद्धि करने और इनके विनाश करने रूप उपक्रम को अचित्तद्रव्योपक्रम कहते हैं। मिश्रद्रव्योपक्रम 84. से कि तं मीसए दवोवक्कमे ? मोसए दव्वोवक्कमे से चेव थासग-आयंसगाइमंडिते आसादी। से तं मीसए दव्योवक्कमे / स तं जाणयसरीरभवियस रोरवइरित्ते दव्वोवक्कमे / से तं नोआगमओ दबोवक्कमे / से तं दव्योवक्कमे / [84 प्र.] भगवन् ! मिश्रद्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है ? [84 उ.] अायुष्मन् ! स्थासक, दर्पण आदि से विभुषित एवं (कुंकुम आदि से) मंडित अश्वादि सम्बन्धी उपक्रम को मिश्रद्रव्योपक्रम कहते हैं। इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्योपक्रम का स्वरूप जानना चाहिये और इसके साथ ही नोग्रागमद्रव्योपक्रम एवं द्रव्योपक्रम की वक्तव्यता पूर्ण हुई / विवेचनअचित्तद्रव्योपक्रम की व्याख्या सुगम है, अचित्त पदार्थों में गुणात्मक वृद्धि अथवा उनको नष्ट करने के लिये किया जाने वाला प्रयत्न अचित्तद्रव्योपक्रम कहलाता है। मिश्रद्रव्योपक्रम के विषय में यह जानना चाहिये--अश्व, बैल आदि सचित्त हैं और स्थासक, आदर्श, कुंकुम आदि अचित्त हैं। मिश्र शब्द द्वारा इन दोनों का बोध कराया है। ऐसे विभूषित, मंडित अश्यादि को शिक्षण देकर विशेष गुणों से युक्त करना तो परिकर्मरूप द्रव्योपक्रम है एवं तलवार आदि के द्वारा उनका प्राणनाश करना आदि वस्तुविनाशरूप द्रव्योपक्रम है / शब्दार्थ-थासग (स्थासक) अश्व को विभूषित करने वाला प्राभूषण / आयंसग (आदर्श)बैल आदि के गले का दर्पण जैसा चमकीला प्राभूषण विशेष / क्षेत्रोपक्रम 85. से कि तं खेत्तोवक्कमे ? खेतोवक्कमे जण्णं हल-कुलियादीहिं खेताई उवक्कामिजंति / से तं खेत्तोवक्कमे / [85 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रोपक्रम का क्या स्वरूप है ? [85 उ.] आयुष्मन् ! हल, कुलिक आदि के द्वारा जो क्षेत्र को उपक्रान्त किया जाता है, वह क्षेत्रोपक्रम है। विवेचन-यहाँ संक्षेप में क्षेत्रोपक्रम का स्वरूप बतलाया है और क्षेत्र शब्द से गेहूं आदि अन्न को उत्पन्न करने वाले स्थान-खेत को ग्रहण किया है। अतएव हल और कुलिक-खेत में से तणादि को हटाने के काम में आने वाला एक प्रकार का हल (देशी भाषा में इसे 'बखर' कहते हैं / ) से जोतकर खेत को बीजोत्पादन योग्य बनाना परिकर्म विषयक क्षेत्रोपक्रम है और उसी क्षेत्र को हाथी आदि Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम निरूपण] बांध कर बीजोत्पादन के अयोग्य (बंजर) बना देना विनाश-विषयक क्षेत्रोपक्रम है। क्योंकि हाथी के मल-मूत्र से खेत की बीजोत्पादन शक्ति का नाश हो जाता है। / यद्यपि परिकर्म और विनाश क्षेत्रगत पृथ्वी आदि द्रव्यों के होने की अपेक्षा इसे द्रव्योपक्रम कहा जा सकता है, फिर भी क्षेत्रोपक्रम को पृथक् मानने का कारण यह है कि क्षेत्र का अर्थ है आकाश और प्राकाश अमूर्त है, अतः उसका तो उपक्रम नहीं होता है। किन्तु साधेय रूप में वर्तमान पृथ्वी आदि द्रव्यों का उपक्रम हो सकने से उनका उपक्रम... प्राधार रूप आकाश में उपचरित कर लिये जाने से उसे क्षेत्रोपक्रम कहते हैं। जैसे कि मञ्चा क्रोशन्ति–मंच बोलते हैं, ऐसा जो कहा जाता है वह प्राधेय रूप पुरुषों आदि को मंच रूप प्राधार में उपचरित करके कहा जाता है। कालोपक्रम 86. से कितं कालोवक्कमे? कालोवक्कमे जं णं नालियादीहि कालस्सोवक्कमणं कीरति / से तं कालोवक्कमे / [86 प्र.] भगवन् ! कालोपक्रम का क्या स्वरूप है ? [86 उ.] अायुष्मन् ! नालिका आदि के द्वारा जो काल का यथावत् ज्ञान होता है, वह कालोपक्रम है। विवेचन--सूवार्थ स्पष्ट है / नालिका (तांबे का बना पेदे में एक छिद्र सहित पात्र-विशेष, जलघड़ी, रेतघड़ी आदि) अथवा कील आदि की छाया द्वारा काल का जो यथार्थ परिज्ञान किया जाता है वह परिकर्मरूप तथा नक्षत्रों आदि को चाल से जो काल विनाश होता है वह वस्तुविनाश रूप कालोपक्रम है। काल' द्रव्य का पर्याय है और द्रव्य-पर्याय का मेचकमणिवत् संवलित रूप होने से द्रव्योपक्रम के वर्णन में कालोपक्रम का भी कथन किया जा चुका मानना चाहिये। तथापि समय, पावलिका, मुहूर्त इत्यादि रूप से काल का स्वतंत्र अस्तित्व बताने के लिये कालोपक्रम का पृथक् निर्देश किया है। भावोपक्रम 87. से कि तं भावोवक्कमे ? भावोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा—आगमतो य 1 नोआगमतो य 2 // [87 प्र.] भगवन् ! भावोपक्रम का क्या स्वरूप है ? [87 उ.] आयुष्मन् ! भावोपक्रम के दो प्रकार हैं / वे इस तरह----१. प्रागमभावोपक्रम, 2. नोग्रागमभावोपक्रम / 88. से कि तं आगमओ भावोवक्कमे ? आगमओ भावोवक्कमे जाणए उवउत्ते। से तं आगमओ भावोवक्कमे / [88 प्र. भगवन् ! आगमभावोपक्रम का क्या स्वरूप है ? Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र [88 उ.] आयुष्मन् ! उपक्रम के अर्थ को जानने के साथ जो उसके उपयोग से भी युक्त हो, वह आगमभावोपक्रम है। 89. से कि तं नोआगमतो भावोवक्कमे ? नोआगमतो भावोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा---पसत्थे य 1 अपसत्थे य 2 / [89 प्र.] भगवन् ! नोआगमभावोपक्रम का स्वरूप क्या है ? [89 उ.] आयुष्मन् ! नोभागमभावोपक्रम दो प्रकार का कहा है / यथा-१. प्रशस्त और 2. अप्रशस्त / 90. से किं तं अपसत्थे भावोवक्कमे ? अपसत्थे भावोवक्कमे डोडिणि-गणियाऽमच्चाईणं से तं अपसत्थे भावोवक्कमे / [90 प्र.] भगवन् ! अप्रशस्त भावोपक्रम का क्या स्वरूप है ? [90 उ.] आयुष्मन् ! डोडणी ब्राह्मणी, गणिका और अमात्यादि का अन्य के भावों को जानने रूप उपक्रम अप्रशस्त नोागमभावोपक्रम है / ' 91. से कि तं पसत्थे भावोवक्कमे ? पसत्थे भावोवक्कमे गुरुमादीणं / से तं पसत्थे भावोवक्कमे / से तं नोआगमतो भावोवक्कमे / से तं भावोवक्कमे। [91 प्र.] भगवन् ! प्रशस्त भावोपक्रम का क्या स्वरूप है ? [91 उ.] आयुष्मन् ! गुरु आदि के अभिप्राय को यथावत् जानना प्रशस्त नोप्रागमभावोपक्रम है। इस प्रकार से नोप्रागमभावोपक्रम का और इसके साथ ही भावोपक्रम का वर्णन पूर्ण हया जानना चाहिये। विवेचन-सूत्रकार ने यहाँ सप्रभेद भावोपक्रम का स्वरूप निर्देश करने के साथ भावोपक्रम की वक्तव्यता की समाप्ति का संकेत किया है। भावोपक्रम--स्वभाव, सत्ता, आत्मा, योनि और अभिप्राय ये भाव शब्द के पांच अर्थ हैं। इनमें से यहाँ अभिप्राय अर्थ ग्रहण किया गया है। अतएव अर्थ यह हुआ कि भाव-अभिप्राय के यथावत् परिज्ञान को भावोपक्रम कहते हैं और उपक्रम शब्द के अर्थ के ज्ञान के साथ उसके उपयोग से युक्त जीव आगमभावोपक्रम कहलाता है। नोग्रागमभावोपक्रम के अप्रशस्त और प्रशस्त यह दो भेद होने का कारण यह है कि डोडिणी, ब्राह्मणी प्रादि ने परकीय अभिप्राय को जाना तो अवश्य किन्तु बह सांसारिक फलजनक होने से अप्रशस्त है / गुरु आदि का अभिप्राय मोक्ष का कारण होने से प्रशस्त है / 1. इन दृष्टान्तों के कथानक परिशिष्ट में देखिये। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] अब भारतीय लौकिक दृष्टि की अपेक्षा यह उपक्रम का वर्णन जानना चाहिये। अब शास्त्रीय पद्धति से उपक्रम का निरूपण करते हैं। उपक्रम वर्णन की शास्त्रीय दृष्टि __ 92. अह्वा उवक्कमे छव्विहे पण्णत्ते / तं जहा आणुपुवी 1 नामं 2 पमाणं 3 वत्तम्वया 4 अत्याहिगारे 5 समोयारे 6 // [52] अथवा उपक्रम के छह प्रकार हैं। यथा--१. आनुपूर्वी, 2. नाम, 3. प्रमाण, 4. वक्तव्यता, 5. अधिकार पोर 6. समवतार / _ विवेचन--प्रकारान्तर से उपक्रम के इन भेदों का निर्देश करने का कारण यह है कि पूर्व में जिस प्रशस्त भावोपक्रम का वर्णन किया है, वह गुरुभावोपक्रप रूप है / पूर्व में आदि शब्द से ग्रहण किये गये शास्त्रीय भावोपक्रम का वर्णन यहाँ प्रस्तुत है। प्रानुपूर्वी प्रादि प्रकारों द्वारा किये जाने से उसके छह भेद हो जाते हैं। प्रानुपूर्वी निरूपण 93. से कि तं आणुपुवी ? आणुपुत्वी दसविहा पण्णता / तं जहा--नामाणुपुव्वी 1 ठवणाणुपुब्बो 2 दवाणुपुन्वी 3 खेत्ताणुयुवी 4 कालाणुपुची 5 उक्कित्तणाणुयुब्बी 6 गणणाणुपुब्बी 7 संठागाणुपुन्वी 8 सामायारियाणुपुत्वी 9 भावाणुपुन्वी 10 / 193 प्र.] भगवन् ! प्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [93 उ.] आयुष्मन् ! प्रानुपूर्वी दस प्रकार की है / वह इस प्रकार---१. नामानुपूर्वी, 2. स्थापनानुपूर्वी, 3. द्रव्यानुपूर्वी, 4. क्षेत्रानुपूर्वी, 5. कालानुपूर्वी, 6. उत्कीर्तनानुपूर्वी, 7. गणनानुपूर्वी, 8. संस्थानानुपूर्वी, 9. समाचार्यनुपूर्वी, 10. भावानुपूर्वी / विवेचन--सूत्र में शास्त्रोपक्रम के प्रथम भेद पानुपूर्वी के दस नामों को गिनाया है। जिनका यथाक्रम विवेचन आगे किया जाएगा। आनुपूर्वी ----प्रानुपूर्वी, अनुक्रम एवं परिपाटी, ये प्रानुपूर्वी के पर्यायवाची शब्द हैं / अत: अर्थ यह हुआ कि अनुक्रम-एक के पीछे दूसरा ऐसी परिपाटी को प्रानुपूर्वी कहते हैं--पूर्वस्य अनुपश्चादनुपूर्व तस्य भावः प्रानुपूर्वी / नाम-स्थापना पानुपूर्वी 94. से कि तं गामाणुपुवी? नाम-ठवणाओ तहेव / [94 प्र.] भगवन् ! नाम (स्थापना) प्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [94 उ.] प्रायुध्मन् ! नाम और स्थापना प्रानुपूर्वी का स्वरूप नाम और स्थापना अावश्यक जैसा जानना चाहिये / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] (अनुयोगद्वारसूत्र द्रव्यानपूर्वी 95. दवाणुपुरवी जाव से कि तं जाणगसरीरभवियसरीरवईरित्ता दव्वाणुपुवी ? जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता दब्वाणुपुब्बी दुविहा पणत्ता / तं जहा–उवणिहिया य 1 अणोणिहिया य 2 / [25] द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप भी ज्ञायकशरीर-भव्यशरीव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी के पहले तक सभेद द्रव्यावश्यक के समान जानना चाहिये। प्र. भगवन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? उ. आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रब्यानुपूर्वी दो प्रकार की कही है। यथा--१ प्रोपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी और 2 अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी / 96. तत्थ णं जा सा उवाणिहिया सा ठप्पर। [96] इनमें से औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी स्थाप्य है / तथा-- 97. तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पन्नता। तं जहा-णेगम-ववहाराणं 1 संगहस्स य 2 // [97] अनोपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी के दो प्रकार हैं-१ नैगम-व्यवहारनयसंमत, 2 संग्रहह्नयसंमत। विवेचन--सूत्र संख्या 94-95 में नाम, स्थापना आनुपूर्वी तथा द्रव्यानुपूर्वी के कतिपय भेदों का स्वरूप सदृश नाम वाले आवश्यक के भेदों के जैसा समझने का अतिदेश किया है / इसके अतिरिक्त विशेष कथनीय इस प्रकार है औपनिधिको आनुपूर्वी—इसका मूल शब्द उपनिधि है / जिसमें 'उप' का अर्थ है समीप तथा 'निधि' का अर्थ है रखना। अतएव किसी एक विवक्षित पदार्थ को पहले व्यवस्थापित करके फिर उसके पास ही पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से अन्यान्य पदार्थों को रखे जाने को उपनिधि कहते हैं और यह उपनिधि जिस अानुपूर्वी का प्रयोजन है, उसे प्रोपनिधिकी आनुपूर्वी कहते हैं। अनौप निधिको आनुपूर्वो-अनुपनिधि-पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रमानुसार पदार्थ की स्थापना, व्यवस्था नहीं करना अनौपनिधिकी श्रानुपूर्वी कहलाती है / इन दोनों में अल्पविषय वाली होने से प्रोपनिधिकी प्रानुपूर्वी को गौण मानकर पहले बहुविषय वाली अनौपनिधिकी प्रानुपूर्वी का वर्णन प्रारंभ किया है। प्रोपनिधिकी प्रानुपूर्वी का कथन आगे किया जाएगा। अनौपनिधिको आनुपूर्वी की द्विविधता-गम, संग्रह, व्यवहार आदि सात नयों का द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दो नयों में अन्तर्भाव हो जाता है। द्रव्याथिकनय द्रव्य ही परमार्थ है, इस प्रकार पर्यायों को गौण करके द्रव्य को स्वीकार करता है और पर्यायाथिकनय की दृष्टि से पर्यायें ही मुख्य हैं सत् हैं / नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय द्रव्य को ही विषय करने वाले Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वो निरूपण होने से द्रव्याथिकनय हैं तथा ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये चार नय पर्यायों को विषय करने वाले होने से पर्यायाथिकनय हैं। सामान्य से द्रव्याथिकनय दो प्रकार का है-१ विशुद्ध, 2 अविशुद्ध / नैगम और व्यवहार नय अनन्त परमाण, अनन्त द्वयणक ग्रादि अनेक व्यक्ति स्वरूप और कृष्णादि अनेक गुणा के आधारभूत त्रिकालवर्ती द्रव्य को विषय करने वाले होने से अविशद्ध हैं और संग्रहनय स्वजाति की अपेक्षा परमाण आदि एक सामान्य रूप द्रव्य को ही विषय करता है। यह द्रव्यगत पूर्वापर विभाग को नहीं मानता है। इसकी दृष्टि में अनेक भिन्न-भिन्न परमाणु आदि भी परमाणुत्व आदि रूप से समानता वाले होने के कारण एक हैं, अतः उनमें भी भेद नहीं है। इन सब कारणों से संग्रहनय विशुद्ध है / अतएव द्रव्याथिकनय के मत से द्रव्यानुपूर्वी का शुद्ध-अशुद्ध स्वरूप बताने के लिये अनोपनिधिको आनुपूर्वी के दो भेद हो जाते हैं। स्कन्ध में अनौपनिधिको आनुपूर्वी कसे? जिज्ञासू का प्रश्न है कि स्कन्ध अनन्तप्रदेशी तक के होते हैं। उनमें कोई त्रिप्रदेशी, कोई चतुःप्रदेशी इस प्रकार उत्तरोत्तर समस्त स्कन्ध क्रमपूर्वक होने से उनमें पूर्वानुपूर्वी के क्रम से स्थापना की व्यवस्था होने के कारण औपनिधिकित्व संभव है, अनौपनिधिकरूपता कैसे ? इसका उत्तर यह है कि स्कन्धगत त्रिप्रदेशिकता आदि किसी के द्वारा क्रम से रखकर नहीं बनाई गई है। वह तो स्वभाव से ही है। सभी स्कन्ध स्वाभाविक परिणाम से परिणत होते रहते हैं। प्रतएव स्कन्ध में अनौपनिधिकीपन है। जहाँ तीर्थकर प्रादि के द्वारा पूर्वानपुर्वी के क्रम से वस्तों की व्यवस्था होती है. वहाँ पर प्रोपनिधिको अानुपूर्वी होती है / जैसे धर्म, अधर्म ग्रादि छह द्रव्यों में अथवा सामायिक आदि छह अध्ययनों में। अनौपनिधिको में आनुपूवित्व कैसे ? यद्यपि अनौपनिधिकी में पूर्वानुपूर्वी के क्रम से व्यवस्थापन नहीं होता है, फिर भी तीन आदि परमाणुनों में प्रादि, मध्य और अन्त रूप नियत क्रम से व्यवस्थापन की योग्यता ही आनुपूर्वित्व का कारण है। पाठभेद-अत्रोक्त सूत्र 94-95 के स्थान पर किसी-किसी प्रति में निम्न प्रकार से विस्तृत पाठ है नामठवणामो गयायो, से कितं दब्बाणपुब्बी ? 2 दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—आगमयो अ नोबागमयो अ। से कि तं प्रागमयो दवाणपुवी ? 2 जस्स णं आणुपुग्वित्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव नो अणुप्पेहाए, कम्हा ? अणुवनोगो दवमितिकट्ट, गमस्स णं एगो अणुवउत्तो पागमनो एगा दव्वाणपुवी जाव कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ से तं आगमो दव्वाणुपुवी / से किं तं नोग्रागमो दवाणुपुब्बी ?2 तिविहा पण्णत्ता, तं जहा---जाणयसरीरदब्वाणुपुन्वी भविग्रसरीरदव्वाणपुबी, जाणयसरीर-भविप्रसरीरवइरित्तादव्वाणुपुवी। से किं तं जाणयसरीरदवाणुपुत्री ? 2 पयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं बवगयचुयचावियचत्तदेहं सेसं जहा दबावस्सए तहा भाणिग्रव्वं जाव से तं जाणयसरीरदव्वाणुपुवी। से किं तं भविसरीरदव्वाणुपुब्बी ? 2 जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते सेसं जहा दवावस्सए जाब से तं भविसरीरदब्वाणुपुब्बी। सूत्रपाठ का आशय स्पष्ट है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी के भेद 98. से किं तं गम-ववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुव्धी ? णेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया दवाणुपुती पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा अटुपयपरूवणया 1 भंगसमुक्कित्तणया 2 भंगोवदंसणया 3 समोयारे 4 अणुगमे 5 / [98 प्र] भगवन् ! नैगमनय और व्यवहारनय द्वारा मान्य अनौपनिचिकी द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [98 उ.आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत द्रव्यानुपूर्वी के पांच प्रकार हैं। वे इस प्रकार---१ अर्थपदप्ररूपणा, 2 भंगसमुत्कीर्तनता, 3 भंगोपदर्शनता, 4 समवतार और 5 अनुगम / विवेचन-नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का जिन पांच प्रकारों द्वारा विचार किया जाना है, उनके लक्षण इस प्रकार हैं..... अर्थपदप्ररूपणा—त्र्यणुक स्कन्ध आदि रूप अर्थ को विषय करने वाले पद की प्ररूपणा करना / अर्थात् सर्वप्रथम संज्ञा-संज्ञी के सम्बन्ध मात्र का कथन करना अर्थपदप्ररूपणा है / भंगसमुत्कीर्तनता-पानुपूर्वी आदि के पदों से निष्पन्न हुए पृथक्-पृथक् भंगों का और संयोगज दो आदि भंगों का संक्षेप रूप में कथन करना भंगसमुत्कीर्तनता है / भंगोपदर्शनता---सूत्र रूप में उच्चारित हुए उन्हीं भंगों में से प्रत्येक भंग का अपने अभिधेय रूप त्र्यणकादि अर्थ के साथ उपदर्शन--कथन करना / अर्थात भंगसमत्कीर्तन में तो मात्र भंगविता मूत्र का ही उच्चारण होता है और भंगोपदर्शन में वही सूत्र अपने विषयभून अर्थ के साथ कहा जाता है / यही दोनों में अन्तर है। समवतार आनुपूर्वी प्रादि द्रव्यों का स्वस्थान और परस्थान में अन्तर्भाव होने के विचारों के प्रकार का नाम समवतार है। अनुगम-प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का सत्पदप्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारों से विचार करता अनुगम है। नेगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणा और प्रयोजन 99. से कि तं गम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया? गम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया तिपएसिए आणुपुन्वी, चउपएसिए आणुपुवी जाव दसपएसिए आणुपुन्वी, संखेज्जपदेसिए आणुपुटवी, असंखेज्जपदेसिए आणुपुन्वी, अणंतपएसिए आणुपुग्वी। परमाणुपोग्गले अणाणुपुन्यो / दुपएसिए अवतन्त्रए / तिपएसिया आणुपुठवीओ जाव अणंतपएसिया आणुपुवीओ / परमाणुपोग्गला अणाणुपुथ्वीओ। दुपएसिया अवत्तबगाई। से तं अंगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया / 699 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपद की प्ररूपणा का क्या स्वरूप है ? [99 उ.] आयुष्मन् ! (तीन प्रदेश बाला) त्र्यणुकस्कन्ध प्रानुपूर्वी है। इसी प्रकार चतुष्प्रदेशिक प्रानुपूर्वी यावत् दसप्रदेशिक, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वो निरूपण स्कन्ध आनुपूर्वी है। किन्तु परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वो रूप है। द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्य है। अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनेक अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूवियाँ-अनेक प्रानुपूर्वी रूप हैं ! अनेक पृथक-पृथक पुद्गल परमाणु अनेक अनानुपूर्वी रूप हैं / अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनेक प्रवक्तव्य हैं। इस प्रकार नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणा का स्वरूप जानना चाहिये / विवेचन--सूत्र में नेगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणा की व्याख्या की गई है। यहाँ यह समझना चाहिये कि आनुपूर्वी परिपाटी को कहते हैं और परिपाटी रूप पानुपूर्वी वहीं होती है जहाँ आदि, मध्य और अन्त रूप गणना का व्यवस्थित क्रम होता है। ये आदि, मध्य और अन्त त्रिप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध एवं स्कन्धों में होते हैं। इसलिये इनमें प्रत्येक स्कन्ध प्रानुपूर्वी रूप होता है। परमाणु अनानुपूर्वी रूप क्यों ? --एक परमाणु अथवा पृथक्-पृथक् स्वतंत्र सत्ता वाले अनेक परमाणुओं में प्रादि, मध्य और अंतरूपता नहीं होने से वे अनानुपूर्वी हैं / आनुपूर्वीरूपता उनमें संभव नहीं है। द्विप्रदेशिक स्कन्ध की अवक्तव्यता का कारण यद्यपि द्विप्रदेशिक स्कन्ध में दो परमाणु संश्लिष्ट रहते हैं, इसलिये यहाँ अन्योन्यापेक्षा पूर्वस्य अनु-पश्चात्--अर्थात् एक के बाद दूसरा, इस प्रकार की अनुपूर्वरूपता---पानुपूर्वी है। किन्तु मध्य के अभाव में संपूर्ण गणनानुक्रम नहीं बन पाने से द्विप्रदेशिक स्कन्ध में गणतानुक्रमात्मक प्रानुपूर्वी रूप से कथन किया जाना अशक्य है और द्विप्रदेशी स्कन्ध में परस्पर की अपेक्षा पूर्व-पश्चाद्भाव का सद्भाव होने से पुद्गल परमाणु की तरह अनानपूर्वी रूप से भी उसे नहीं कह सकते हैं। इस प्रकार प्रानुपूर्वी और अनानुपूर्वी रूप से कहा जाना शक्य नहीं होने से यह द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रवक्तव्य है। आदि, मध्य, अन्त का वाच्यार्थ-प्रादि अर्थात् जिससे पर (अगला) है किन्तु पूर्व नहीं। जिससे पूर्व भी है और पर भी है, यह मध्य और जिससे पूर्व तो है किन्तु पर नहीं, वह अन्त कहलाता है। बहुवचनान्त पदों का निर्देश क्यों ?.-त्रिप्रदेशिक प्रानुपूर्वी है इत्यादि एक वचनान्त से संज्ञा-संज्ञी सम्बन्ध का कथन सिद्ध हो जाने पर भी प्रानुपर्छ आदि द्रव्यों का हरएक भेद अनन्त व्यक्ति रूप है तथा नैगम एवं व्यवहारनय का ऐसा सिद्धान्त है, इस बात को प्रदर्शित करने के लिये 'त्रिप्रदेशा: प्रानुपूर्व्यः' ऐसा वहुवचनान्त प्रयोग किया है। अर्थात् त्रिप्रदेशिक एकद्रव्यरूप एक ही आनुपूर्वी नहीं किन्तु त्रिप्रदेशिकद्रव्य अनन्त हैं, अतः उतनी ही अनन्त आनुपूर्वियों की सत्ता है। क्रमविन्यास में हेतु---सूत्रकार ने एक परमाणु से निष्पन्न अनानुपूर्वी द्रव्य, परमाणुद्वय के संबन्ध से निष्पन्न अवक्तव्य द्रव्य और फिर परमाणु त्रय के संश्लेष से निष्पन्न प्रानुपूर्वी द्रव्य, इस प्रकार द्रव्य की वृद्धिरूप पूर्वानुपूर्वी क्रम का लथा इसी प्रकार परमाणुवयनिष्पन्न आनुपूर्वी, परमाणुद्वयनिष्पन्न अवक्तव्य और एक परमाणुनिष्पन्न अनानुपूर्वी रूप पश्चानुपूर्वी का उल्लंघन करके पहले प्रानुपूर्वी द्रव्य का, तदनन्तर अनानुपूर्वी द्रव्य का और सबसे अंत में प्रवक्तव्य द्रव्य का निर्देश यह स्पष्ट करने के लिये किया है कि ग्रानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य अल्प हैं और अनानुपूर्वी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वारसूत्र द्रव्यों की अपेक्षा प्रवक्तव्य द्रव्य और भी अल्प हैं। इस प्रकार से द्रव्य की अल्पना-न्यूनता का निर्देश करने के लिये सूत्र में यह क्रमविन्यास किया है। 100. एयाए णं गम-बवहाराणं अदुपयपरूवणयाए कि पओयणं ? एयाए णं गम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए भंगसमुक्कित्तणया कीरइ। [100 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत इस अर्थपदप्ररूपणा रूप प्रानुपूर्वी से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? [100 उ.| आयुष्मन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणा द्वारा भंगसमुत्कीर्तना की जाती है अर्थात् भंगों का कथन किया जाता है। विवेचन—सूत्र में यह स्पष्ट किया है कि अर्थपदप्ररूपणा का प्रयोजन यह है कि उसके बाद भंगसमत्कीर्तन रूप कार्य होता है। तात्पर्य यह है कि अर्थपदप्ररूपणा में प्रानपर्वा ह है कि अथपदप्ररूपणा में प्रानुपूर्वा, अनानपर्वी, प्रवक्तव्य संज्ञाये निश्चित होने के बाद ही भंगों का समुत्कीर्तन (कथन) हो सकता है, अन्यथा नहीं। नंगम-व्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तन और उसका प्रयोजन 101. से कि तं गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ? गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आणुपुत्वी 1 अस्थि अगाणुपुची 2 अस्थि अवत्तवए 3 अस्थि आणुपुवीओ 4 अस्थि अणाणुपुब्बीओ 5 अस्थि अवत्तव्वयाई 6 / अहवा अस्थि आणुपुन्वी य अणाणुपुव्वी य 1 अहवा अस्थि आणुपुन्वी य अणाणुयुवीओ य 2 अहह्वा अस्थि आणुपुत्वीओ य अणाणुपुम्वी य 3 अहवा अस्थि आणुपुन्वीओ य अणाणुयुवीओ य दक', अहवा अत्थि आणुपुची य अवतव्वए य 1 अहवा अस्थि आणुपुवी य अवत्तव्ययाई च 2 अहवा अस्थि आणुपुब्बीओ य अवत्तन्वए य 3 अहवा अस्थि अणुपुन्वीओ य अवत्तन्वयाइं च दक, अहवा अस्थि अणाणुपुन्वी य अवत्तव्वए य 1 अहवा अस्थि अणाणुपुटबी य अवत्तव्वयाई च 2 अहवा अत्थि अणाणुपुवीओ य अवत्तवए य 3 अहवा अस्थि अणाणुपुवीओ य अवत्तब्वयाइं च ट्रक / अहवा अस्थि आणुपुवी य अणाणुपुब्वी य अवत्तव्वए य 1 अहवा अस्थि आणुपुब्वी य अणाणुपुग्वी य अवत्तव्वयाई च 2 अहवा अस्थि आणुपुत्वी य अणाणुपुन्चोओ य अवत्तव्बए य 3 अहवा अस्थि आणुपुश्वी य अणाणुपुम्वीओ य अवत्तव्बयाई च ट्क अहवा अस्थि आगुपुटवीओ य अणाणुपुवी य अवत्तवए य 5 अहवा अस्थि आणुपुव्वीओ य अणाणुपुन्वी य अवत्तव्ययाइं च 6 अहवा अस्थि आणुपुत्वीओ य अणाणुपुथ्वीओ य अवत्तवए य 7 अहवा अस्थि आणुपुब्वीओ य अणाणुपुव्वीओ य अवत्तध्वयाई च 8, एए अढ भंगा। एवं सम्वे वि छव्वीसं भंगा 26 / से तं नेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया। [101 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तन का क्या स्वरूप है ? 6101 उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तन का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये१. 'टक' चार (4) संख्या का द्योतक अक्षरांक है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण 1. आनुपूर्वी है, 2. अनानुपूर्वी है, 3. प्रवक्तव्य है, 4. आनुपूबियां हैं, 5. अनानुपूर्वियां हैं, 6. (अनेक) प्रवक्तव्य हैं / अथवा 1 अानुपूर्वी और अनानुपूर्वी है, 2. प्रानुपूर्वी और अनानुपूर्वियाँ हैं, 3. प्रानुपूर्वियां और अनानुपूर्वी है, 4. मानुगृवियां और अनानुपूर्वियां हैं / अथवा 1. पानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक है, 2. आनुपूर्वी और (अनेक) अवक्तव्य हैं, 3. आनुपूबियां और अवक्तव्य है 4. प्रामुपूर्वियां और (अनेक) प्रवक्तव्य हैं / अथवा 1. अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य है, 2. अनानुपूर्वी और (अनेक) प्रवक्तव्य है, 3. अनानुपूर्वियां और (एक) प्रवक्तव्य है, 4. अनानुपूवियां और अनेक प्रवक्तव्य हैं / अथवा 1. आनपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य है, 2. प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अनेक प्रवक्तव्य हैं, 3. प्रानुपूर्वी, अनानवियां और प्रवक्तव्य है, 4. पानपूर्वी, अनानुपूर्वियां और अनेक अवक्तव्य हैं, 5. मानवियां, अनानपूर्वी और प्रवक्तव्य है, 6 अानपवियां, अनानुपूर्वी और अनेक प्रवक्तव्य हैं, 7. प्रानुपूर्वियां, अनानुपूर्वियां और अवक्तव्य है, 8. आनुपूर्वियां, अनानुपूर्वियां और अनेक प्रवक्तव्य हैं, इस प्रकार यह पाठ भंग हैं / ये सब मिलकर छब्बीस भंग होते हैं / यह नैगम-व्यवहारतयसम्मतभंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप है। विवेचन--सूत्र में नैगम-व्यवहारनपसम्मत छब्बीस भंगों का समुत्कीर्तन (कथन किया है / जो परस्पर संयोग और असंयोग की अपेक्षा से बनते हैं / इन छब्बीस भंगों के मूल आधार प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य यह तीन पदार्थ हैं / इनके असंयोग पक्ष में एकवचनान्त तीन और बहुवचनान्त तीन इस प्रकार छह भंग होते हैं। संयोगपक्ष में इन तीन पदों के द्विकसंयोगी भंग तीन चतुभंगी रूप होने से कुल बारह हैं। इन एक-एक भंग में दो-दो का संयोग होने पर एकवचन और बहुवचन को लेकर चार-चार भंग होते हैं / इसलिये तीन चतुर्भगी और उनके कुल बारह भंग हो जाते हैं। त्रिकसंयोग में एकवचन और बहुवचन को लेकर आठ अंग बनते हैं। इस प्रकार छह, बारह और पाठ भंगों को मिलाने से कुल छब्बीस भंग हो जाते हैं। सुगमता से बोध के लिये उनका प्रारूप इस प्रकार हैअसंयोगी भंग 6 द्विकसंयोगी भंग 12 विकसंयोगी भंग 8 (प्रथम चतुभंगी) 1. आनुपूर्वी 1. आनुपूर्वी अनानुपूर्वी, 1. आनुपूर्वी---अनानुपूर्वी-- 2. अनानुपूर्वी 2. आनुपूर्वी अनानुपूर्वियां, प्रवक्तव्य, 3. अवक्तव्यक 3. आनुपूर्वियां अनानुपूर्वी, 2. आनुपूर्वी---अनानुपूर्वी..... 4. प्रानुपूर्वियां 4. आनुपूर्वियां अनानुर्वियां। अनेक अवरक्तव्यक, 5. अनानुपूर्वियां 3, आनुपूर्वी----अनानुपूर्वियां-- 6. अनेक प्रवक्तव्यक प्रवक्तव्यक, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र (द्वितीय चतुर्भगी) 1. प्रानुपूर्वी--अवक्तव्यक, 4. आनुपूर्वी--अनानुपूर्वियां-- 2. आनुपूर्वी अनेक प्रवक्तव्यक, अनेक अवक्तव्यक, 3. पानुपूर्वियां--प्रवक्तव्यक, 5. आनुपूर्वियां अनानुपूर्वी-- 4. यानुपूर्वियां अनेक प्रवक्तव्यक, प्रवक्तव्य। 6. ग्रानुपूर्विया-अनानुपूर्वी, (तृतीय चतुभंगी) अनेक प्रवक्तव्यक, 1. अनानुपूर्वी -अवक्तव्यक, 7. प्रानुपूवियां—अनानुपूर्विया 2. अनानुपूर्वी अनेक -प्रवक्तव्यक ग्रवक्तव्यक 8. प्रानुपूर्तियां --अनानुवियां 3. अनानुपूवियां—प्रवक्तव्यक, - अनेक प्रवक्तव्यक / 4. अनानुर्वियां अनेक अवक्तव्यक। कुल मिलाकर बारह भंग होते हैं। इन भंगों का समुत्कीर्तन-वर्णन इसलिये किया जाता है कि असंयोगी छह और संयोगज बीस भंगों में से बक्ता जिस भंग से द्रव्य की विवक्षा करना चाहता है, वह उस भंग से विवक्षित द्रव्य को कहे / इसी कारण यहाँ नैगम-व्यवहारनयसंमत समस्त भंगों का कथन करने के लिये इन भंगों का समुत्कीर्तन किया है। 102. एयाए णं णेगम-ववहाराणं मंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयणं ? एयाए णं अंगम-बवहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए भंगोवदसणया कोरइ / [102 प्र.] भगवन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? [102 उ.] अायुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का प्रयोजन यह है कि उसके द्वारा भंगोपदर्शन-भंगों का कथन किया जाता है। विवेचन.....सूत्र में समुत्कीर्तन का प्रयोजन बताया है / यद्यपि भंगसमुत्कीर्तन और भंगोपदर्शन का आशय स्थूल दृष्टि से एक जैसा प्रतीत होता है, लेकिन शब्दभेद से अर्थभेद होने के न्यायानुसार दोनों में अंतर है / वह इस प्रकार---भंगसमुत्कोर्तन में तो भंगों का नाम और वे कितने होते हैं, यह बतलाते हैं और भंगोपदर्शन में उनका त्र्यणुक आदि वाच्यार्थ कहा जाता है। क्योंकि वाचकसूत्र के कथन के बिना वाच्य रूप अर्थ का कथन करना असंभव है। इसलिये भंगोपदर्शनता, भंगसमुत्कीर्तनता का फल जानना चाहिये / अर्थात् भंगसमुत्कीर्तनता कारण है और भंगोपदर्शन उसका कार्य है। नैगम-व्यवहारनयसम्मत भगोपदर्शनता 103. से कि तं गम-ववहाराणं भंगोवदंसणया ? णेगम-बबहाराणं भंगोवदंसणया तिपदेसिए आणुपुत्वी 1 परमाणुपोग्गले अणाणुपुवी 2 दुपदेसिए अवत्तव्वए 3 तिपदेसिया आणुपुत्वीओ 4 परमाणुपोग्गला अणाणुपुम्बीओ 5 दुपदेसिया Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन पूर्वी निरूपण] [65 अवत्तव्वयाइं 6 / अहवा तिपदेसिए य परमाणुपोग्गले य आणुपुश्वी य अणाणुपुम्वी य 1 अहवा तिपदेसिए य परमाणुपोग्गला य आणुपुब्बी य अणाणु पुवीओ य 2 अहवा तिपदेसिया य परमाणुपोग्गले य आणपुग्वीओ य अणाणुपुवी य 3 अहवा तिपदेसिया य परमाणुपोग्गला य आणुपुग्वीओ य अणाणुपुवीओ य 4, अहवा तिपदेसिए य दुपदेसिए य आणुपुज्वी य अवत्तव्वए य 1 अहवा तिपदेसिए य दुपदेसिया य आणुपुम्वी य अवत्तम्वयाई च 2 अहवा तिपदेसिया य दुपदेसिए य आणु पुथ्वीओ य अवत्तव्वए य 3 अहवा तिपदेसिया य दुपदेसिया य आणुपुवीओ य अवत्तम्वयाई च 4, अहवा परमाणुपोग्गले य दुपदेसिए य अणाणुपुची य अवत्तवए य 1 अहवा परमाणुपोग्गले य दुपदेसिया य अणाणुपुवी य अवत्तब्धयाइं च 2 अहवा परमाणुपोग्गला य दुपदेसिए य अणाणुपुष्वीओ य अवत्तव्वए य 3 अहवा परमाणुपोग्गला य दुपदेसिया य अणाणुपुब्बीओ य अवतव्वयाइं च 4 / अहवा तिपदेसिए य परमाणु पोग्गले य दुपदेसिए य आणुपुम्वी य अणाणुपुची य अवत्तध्वए य 1 अहवा तिपदेसिए य परमाणुपोग्गले य दुपदेसिया य आणु पुष्वी य अणाणुपुरको य अवत्तव्वयाइं च 2 अहवा तिपदेसिए य परमाणुपोग्गला य दुपदेसिए य आणुपुन्वी य अणाणुपुश्वीओ य अवत्तवए य 3 अहवा तिपए सिए य परमाणुपोग्गला य दुपदेसिया य आणुपुर्वी य अणाणुपुत्वीयो य अवत्तन्वयाई च ट्रक अहवा तिपदेसिया य परमाणुपोग्गले य दुपदेसिए य आणुपुवीओ य अणाणुपुन्वी य अवत्तवए य 5 अहवा तिपदेसिया य परमाणुपोग्गले य दुपदेसिया य आणुपुथ्वीओ य अणाणुपुथ्वी य अवत्तवियाई च 6 अहवा तिपदेसिया य परमाणुपोग्गला य दुपदेसिए य आणुपुथ्वीओ य अणाणुपुथ्वीओ य अवत्तब्बए य 7 अह्वा तिपदेसिया य परमाणुपोग्गला य दुपदेसिया य आणुपुठवीओ य अणाणुपुब्बीओ य अवत्तव्बयाई च 8 / से तं नेगम-चवहाराणं भंगोवदसणया। [103 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता का क्या स्वरूप है ? [103 उ.] अायुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता का स्वरूप इस प्रकार है-- 1. त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अानुपूर्वी है, 2. परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी है, 3 द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रवक्तव्य है, 4. त्रिप्रदेशिक अनेक स्कन्ध प्रानुवियाँ हैं, 5. अनेक परमाणु पुद्गल अनानुपूवियाँ हैं, 6. अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रवक्तव्यक हैं। (इस प्रकार से असयोगी छह भगों का अर्थ जानना चाहिये।) अथवा 1. त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और परमाणुपुद्गल प्रानुपूर्वी और अनानुपूर्वी रूप है, 2. त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और अनेक परमाणुपुद्गल प्रानुपूर्वी और अनानुपूवियों का वाच्यार्थ है, 3. अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और परमाणुपुद्गल प्रानुपूर्वियां और अनानुपूर्वी है, 4 अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और अनेक परमाणुयुद्गल प्रानुपूर्वियों और अनानुपूवियों का रूप हैं / अथवा--- 1. त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूर्वी-प्रवक्तव्य रूप है, 2. विप्रदेशिक स्कन्ध और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध पानुपूर्वी प्रवक्तव्यक रूप हैं, 3. अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अानुपूर्वियाँ और प्रवक्तव्य रूप हैं, 4. अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध मानुपूर्वियों और अवक्तव्यको रूप हैं / अथवा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] [अनुयोगद्वारसूत्र 1. परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनानुपूर्वी प्रवक्तव्यक रूप है, 2. परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनानुपूर्वी प्रवक्तव्यकों रूप है, 3. अनेक परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनानुपूवियों और प्रवक्तव्य रूप है, 4. अनेक परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनानुपूवियों और प्रवक्तव्यको रूप हैं / अथवा 1. विप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूर्वी-अनानुपूर्वी प्रवक्तव्यक रूप है, 2. त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकों रूप है, 3. त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, अनेक परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूर्वी, अनानपूवियों और प्रवक्तव्यक रूप है, 4. त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, अनेक परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूर्वी, अनानुवियों और प्रवक्तव्यकों रूप है, 5. अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणपुदगल और द्विप्रदेशिकस्कन्ध प्रानुवियों, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक रूप है, 6. अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वियों, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यको रूप है, 7. अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अनेक परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वियों, अनानुपूर्वियों और अवक्तव्यक रूप है, 8. अनेक त्रिप्रदेशिकस्कन्ध, अनेक परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिकस्कन्ध्र अनुपूर्वियों-.-अनानुपूर्वियों-प्रवक्तव्यको रूप हैं। इस प्रकार से नैगम-व्यवहारनयसंमन भंगोपदर्शनता का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन...-पूर्व में भंगसमूत्कीर्तन के द्वारा जो संक्षेप रूप में संकेत किया था, उसी का यहाँ विस्तार से वाच्यार्थ स्पष्ट किया है कि किस भग के द्वारा किसके लिये संकेत किया है। जैसे कि त्रिप्रदेशी स्कन्ध प्रानुपूर्वी शब्द का, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी का और द्विप्रदेशीस्कन्ध अववतव्य शब्द का त्राच्य है। अतएव एकवचन व बहुवचन के रूप में जिस प्रकार से प्रानुपूर्वी आदि शब्द का प्रयोग किया गया हो, उसका उसी रूप में वाच्यार्थ निर्धारित कर लेना चाहिए। ___ अर्थपदप्ररूपणा और भंगोपदर्शनता में यह अन्तर है कि अर्थपदप्ररूपणा में तो केवल अर्थपद रूप पदार्थ का कथन और भंगोपदर्शनता में भिन्न-भिन्न रूप से कथित भंगों का अर्थ स्पष्ट किया जाता है / इसलिये यहाँ पुनरुक्ति की कल्पना नहीं करनी चाहिये। समवतार-प्ररूपणा 104. (1) से कि तं समोयारे ? समोयारे णेगम-ववहाराणं आणपुव्वीदव्वाइं कहि समोयरंति ? कि आणुपुब्वोदहि समोयरंति ? अणाणुपुटवीदहि समोयरंति ? अवत्तव्वयदोह समोयरंति? नेगम-ववहाराणं आणुपुव्वोदवाई आणुपुष्यीदवहिं समोयरंति, णो अणाणुपुग्वीदहि समोयरंति नो अवत्तव्ययहि समोयरंति / [104-1 प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वीदव्य' कहाँ समवतरित (समाविष्ट) होते हैं ? क्या आनुपूर्वीद्रव्यों में समवतरित होते हैं, अनानुपूर्वीद्रव्यों में अथवा प्रवक्तव्यकद्र व्यों में समवतरित होते हैं ? Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण [67 [104-1 उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत पानुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं, किन्तु अनानुपूर्वीद्रव्यों में या अवक्तव्यद्रव्यों में समवतरित नहीं होते हैं। [2] गम-ववहाराणं अणाणुपुब्बोदव्वाई कहि समोयरंति ? कि अणुपुग्वीदोह समोयरंति ? अणाणुपुथ्वीदवेहि समोयरंति ? अवत्तव्वयादवहिं समोयरंति ? णेगम-ववहाराणं अणाणुपुब्धीदव्वाई णो आणुपुब्वोदबेहिं समोयरंति, अणाणुपुच्वीदहि समोयरंति, णो अवत्तव्वयदहि समोयरति / [104.2 प्र.] नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वीद्रव्य कहाँ समवतरित होते हैं ? क्या अानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनानुपूर्वी द्रव्यों में या प्रवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं ? 1204-2 उ.] आयुष्मन् ! अनानुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों में और प्रवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित नहीं होते हैं किन्तु अनानुपूर्वीद्रव्यों में समवतरित होते हैं / [3] गम-यवहाराणं अवत्तन्वयदवाई कहिं समोयरंति ? कि आणुपुत्रीदहि समोयरंति ? अणाणुपुब्वीदहिं समोयरंति ? अवत्तव्वयदहि समोयरति ? गम-ववहाराणं अवत्तव्वयदव्वाइं णो आणुपुत्वीदहि समोयरंति, णो अणाणुपुवीदोहिं समोयरंति, अवत्तव्वयदहिं समोयरंति / से तं समोयारे / [104-3 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयमान्य अवक्तव्यद्रव्य कहाँ समवतरित होते हैं ? क्या आनुपूर्वीद्रव्यों में अथवा अनानुपूर्वीद्रव्यों में या अवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं ? [104-3 उ.] यायुष्मन् ! अबक्तव्यकद्रव्य प्रानुपूर्वीद्रव्यों में और अनानुपूर्वोद्रव्यों में समवतरित नहीं होते हैं किन्तु अवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं। यह समवतार की वक्तव्यता है। विवेचन--सूत्रकार ने सूत्र में कौन द्रव्य किसमें सभवतरित होता है, यह स्पष्ट किया है। समवतार का तात्पर्य है समावेश अर्थात् प्रानुपूर्वी प्रादि द्रव्यों का बिना किसी विरोध के अपनी जाति में रहना, जात्यन्तर में नहीं रहने का और कार्य में कारण का उपचार करके 'आतुपूर्वी ग्रादि द्रव्यों का अन्तर्भाव स्वस्थान में होता है, या परस्थान में, इस प्रकार के चिन्तनप्रकार-विचार के उत्तर को भी समवतार कहते हैं। यह विचार किस प्रकार से किया जाता है ? उसको सूत्र में स्पष्ट किया है। अविरुद्ध रूप से प्रानुपूर्वीद्रव्य---त्रि प्रदेशिक प्रादि स्कन्ध-प्रानुपूर्वी द्रव्य में, अनानुपूर्वी द्रव्य-परमाणुपुद्गल---अनानुपूर्वीद्रव्य में और अवक्तव्यद्रव्य-द्विप्रदेशिकस्कन्ध –अवक्तव्यद्रव्य में अविरोध रूप से - अपनी जाति में विना विरोध के रहते हैं। इस प्रकार की अविरोधवृत्तिता स्वजातीय पदार्थ में ही हो सकती है, इतर जाति में नहीं। पानुपूर्वीद्रव्यों का समवतार यदि परजाति में भी माना जाए नो परजाति में रहने पर उसमें स्वजाति में रहने की अविरोधवृत्तिता नहीं बन सकेगी। इससे यह सिद्धान्त प्रतिफलित हुअा कि नाना देशवर्ती समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वीद्रव्यों में रहते हैं, परजाति में नहीं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अबक्तव्य द्रव्यों के लिये भी समझ लेना चाहिये। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र अनुगमप्ररूपरणा 105. से कि तं अणुगमे ? अणुगमे णवविहे पण्णत्ते / तं जहा संतपयपरूवणया 1 दध्वपमाणं च 2 खेत्त 3 फुसणा य 4 / कालो य 5 अंतरं 6 भाग 7 भाव 8 अप्पाबह 9 चेव // 8 // [105 प्र.] भगवन् ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? 105 उ.] आयुष्मन् ! अनुगम नौ प्रकार कहा गया है, जैसे-१. सत्पदप्ररूपणा, 2. द्रव्यप्रमाण 3. क्षेत्र, 4. स्पर्शना, 5. काल, 6. अन्तर, 7. भाग, 8. भाव और 9. अल्पवहुल / __विवेचन -सूत्र में नेगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के अन्तिम भेद अनुगम को वक्तव्यता प्रारम्भ की है। अनुगम-सूत्र के अनुकूल अथवा अनुरूप व्याख्यान करने की विधि को अनुगम कहते हैं / अथवा सूत्र पढ़ने के पश्चात् उसका व्याख्यान करना अनुगम है। इस अनुगम के सत्पदप्ररूपणा आदि नौ भेद हैं, जिनके लक्षण इस प्रकार हैं सत्पदप्ररूपणा--विद्यमान पदार्थविषयक पद की प्ररूपणा को कहते हैं। जैसे प्रानुपूर्वी आदि द्रव्य सत् पदार्थ के वाचक हैं, असत् पदार्थ के वात्रक नहीं, ऐसी प्ररूपणा करना / अनुगम करते समय यह प्रथम करने योग्य होने से सर्वप्रथम इसका विन्यास किया है। द्रव्यप्रमाण--यानपूर्वी ग्रादि पदों के द्वारा जिन द्रव्यों को कहा जाता है उनकी संख्या का विचार करने को कहते हैं। क्षेत्र-प्रानुपूर्वी आदि पदों द्वारा कथित द्रव्यों के आधारभूत क्षेत्र का विचार करना। स्पर्शन--प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों द्वारा स्पर्शित क्षेत्र की पर्यालोचना करना / क्षेत्र में केवल आधारभूत आकाश का ही ग्रहण है, जबकि स्पर्शना में आधारभूत क्षेत्र के चारों तरफ के और ऊपर-नीचे के वे आकाशप्रदेश भी ग्रहण किये जाते हैं जो आधेय द्वारा स्पशित होते हैं, यही क्षेत्र और स्पर्शन में अन्तर है। काल -अानुपूर्वी प्रादि द्रव्यों की स्थिति की मर्यादा का विचार करना / अन्तरविरहकाल / अर्थात् विवक्षित पर्याय का परित्याग हो जाने के बाद पुन: उसी पर्याय की प्राप्ति में होने वाले विरहकाल को अन्तर कहते हैं / भाग -पानपूर्वी प्रादि द्रव्य दूसरे द्रव्यों के कितने भाग में रहते हैं, ऐसा विचार करना / भाव---विवक्षित प्रानुपूर्वी आदि द्रव्य किस भाव में हैं, ऐसा विचार करना। अल्पबहुत्व-...अर्थात् न्यूनाधिकता। द्रव्यार्थिक, प्रदेशार्थिक और तदुभय के आश्रय से इन भानुपूर्वी आदि द्रव्यों में अल्पाधिकता का विचार किया जाना अल्पबहुत्व कहलाता है। इनका विस्तृत विचार क्रम से आगे के सूत्रों में किया जा रहा है / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण सत्पद प्ररूपणा 106. (1) नेगम-ववहाराणं आणुपुब्बीदव्वाइं कि अस्थि मस्थि ? णियमा अस्थि / [106-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य हैं अथवा नहीं हैं ? [106-1 उ.] अायुष्मन् ! नियम से--अवश्य हैं / (2) नेगम-ववहाराणं अणाणुपुधीदव्वाइं कि अस्थि णत्थि ? णियमा अस्थि / [106-2 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनपसंमत अनानुपूर्वी द्रव्य हैं अथवा नहीं हैं ? | 106-2 उ.] अायुष्मन् ! अवश्य हैं। (3) नेगम-ववहाराणं अवत्तव्वगदम्वाइं कि अस्थि पत्थि ? नियमा अत्थि। [106-3 प्र.] भगवन् ! क्या नैगम-व्यवहारनयसमत ग्रवक्तव्यक द्रव्य हैं या नहीं हैं ? [106-3 उ.] अायुष्मन् ! अवश्य हैं / (इस प्रकार से सत्पदप्ररूपणा रूप प्रथम भेद की बक्तव्यता जानना चाहिये / ) विवेचन - सूत्र में नेगम-व्यबहारनयसंमत प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का निश्चितरूपेण अस्तित्व प्रकट किया है। वे असत् रूप नहीं हैं और न उनका कभी अभाव हो सकता है। यही सत्पदप्ररूपणा का हार्द है। द्रव्यप्रमारण 107. (1) नेगम-ववहाराणं आणुपुथ्वीदवाई कि संखेज्जाइं असंखेज्जाई अणंताई ? नो संखज्जाई नो असंखेज्जाई अणंताई। [107-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ? [107-1 उ.] आयुष्मन् ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं किन्तु अनन्त हैं। [2] एवं दोण्णि वि। [107-2] इसी प्रकार शेष दोनों (अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य) भी अनन्त हैं / इस प्रकार से अनुगम के द्रव्यप्रमाण नामक दूसरे भेद की वक्तव्यता जानना चाहिये / विवेचन—सूत्र में अनुगम के दूसरे भेद का हार्द स्पष्ट किया है कि प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य अनन्त हैं और इनके अनन्त होने का कारण यह है कि ये प्रत्येक आकाश के एक-एक प्रदेश में अनन्त-अनन्त भी पाये जाते हैं / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70) अनुयोगद्वारसूत्र असंख्यातप्रदेशी आकाश रूप क्षेत्र में अनन्त प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का अवस्थान कैसे संभव है ? इसका उत्तर यह है कि क्योंकि पुद्गल का परिणमन अचिन्त्य है और प्राकाश में अवगाहन शक्ति है / जैसे एक प्रदीप की प्रभा से व्याप्त एक गहान्तर्वर्ती अाकाश प्रदेशों में दूसरे और भी अनेक प्रदीपों की प्रभा का अवस्थान होता है, इसी प्रकार प्रानुपूर्वी आदि अनन्त द्रव्यों को असंख्यातप्रदेशी ग्राकाश में उसकी अवगाहनशक्ति के योग से एवं पुदगल परिणमन की विचित्रता से अवस्थिति होने में और प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों को अनन्त मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है। प्रस्तुत में प्रयुक्त ‘एवं दोणि वि' के स्थान पर किसी-किसी प्रति में निम्नलिखित पाठ है-. 'एवं अणाणुपुब्बीदव्वाइं अवत्तव्वगदब्वाइं च अणंताई भाणिग्रवाई।' जिम में संक्षेप और विस्तार की अपेक्षा शब्दों में अन्तर है, लेकिन दोनों का प्राशय समान है। क्षेत्रप्ररूपणा 108. [1] णेगम-ववहाराणं आणुपुत्वीदवाई लोगस्स कतिभागे होज्जा? कि संखेज्जइभागे होज्जा ? असंस्खेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सवलोए होज्जा ? __ एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा असंखेज्जइभागे वा होज्जा संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा सम्बलोए बा होज्जा, नाणादम्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा। [108-1 प्र.] भगवन् ! नैगम व्यवहारनयसंमत ग्रानुपूर्वी द्रव्य (क्षेत्र के) कितने भाग में अवगाढ हैं ? क्या लोक के संख्यातवें भाग में अवगाढ हैं ? असंख्यातवें भाग में अवगाढ हैं ? क्या संख्यात भागों में अवगाढ हैं ? असंख्यात भागों में अवगाढ हैं ? अथवा समस्त लोक में अवगाढ हैं ? [108-1 उ.] आयुष्मन् ! किसी एक प्रानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा कोई लोक के संख्यातवें भाग में प्रवगाढ है, कोई एक प्रानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है तथा कोई एक प्रानुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यात भागों में रहता है और कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात भागों में रहता है और कोई एक द्रव्य समस्त लोक में अवगाढ होकर रहता है। किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा तो वे नियमतः समस्त लोक में अवगाढ हैं। [2] नेगम-ववहाराणं अणाणुपुन्वीदवाई कि लोगस्स संखेज्जइभागे होज्जा? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए वा होज्जा ? एगदवं पडुच्च नो संखेज्जइभागे होज्जा असंखेज्जइभागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो सव्वलोए होज्जा, णाणादब्वाइं पडुच्च नियमा सवलोए होज्जा। [108-2 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में अवगाढ हैं? असंख्यात भाग में अवगाढ हैं ? संख्यात भागों में हैं या असंख्यात भागों में हैं अथवा समस्त लोक में अवगाढ हैं ? Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण [108-2 उ.] अायुष्मन् ! एक अनानपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा वह लोक के संख्यातवें भाग में अवगाढ नहीं है, असंख्यानवें भाग में अवगाढ है, न संख्यात भागों में, न असंख्यात भागों में और न सर्वलोक में अवगाढ है, किन्तु अनेक अनानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोक में अवगाढ है। [3] एवं अवत्तथ्वगदम्वाणि वि / [108-3] इसी प्रकार प्रवक्तव्यद्रव्य के विषय में भी जानना चाहिये / (यह क्षेत्र प्ररूपणा का प्राशय है।) विवेचन--सूत्र में प्रानुपूर्वी प्रादि द्रव्यों के क्षेत्र विषयक पांच प्रश्नों के उत्तर दिये हैं / वे पांच प्रश्न इस प्रकार हैं.-- 1. पानुपूर्वी प्रादि द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं ? अथवा 2. असंख्यातवें भाग में रहते हैं ? अथवा 3. लोक के संख्यात भागों में रहते हैं ? अथवा 4. असंख्यात भागों में रहते हैं ? अथवा 5. समस्त लोक में रहते हैं ? यह पूर्व में बताया जा चुका है कि कम से कम त्र्यणुक स्कन्ध प्रानुपूर्वीद्रव्य है तथा द्वयणुक स्कन्ध और परमाणु क्रमश: प्रवक्तव्य एवं अनानुपूर्वी द्रव्य हैं। यह त्र्यणक आदि का व्यवहार पुद्गलद्रव्य में ही होता है। अतएव पुद्गलद्रव्य का आधार यद्यपि सामान्य से तो लोकाकाश रूप क्षेत्र नियत है / परन्तु विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पुदगलद्रव्यों के आधारक्षेत्र के परिमाण में अंतर होता है। अर्थात् अाधारभूत क्षेत्र के प्रदेशों की संख्या प्राधेयभूत पुद्गलद्रव्य के परमाणुओं की संख्या से न्यून या उसके बराबर हो सकती है, अधिक नहीं। इसलिये एक परमाणु रूप अनानुपूर्वीद्रव्य आकाश के एक ही प्रदेश में स्थित रहता है परन्तु द्वयणुक एक प्रदेश में भी रह सकता है और दो प्रदेशों में भी। इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढ़ते-बढ़ते त्र्यणुक, चतुरणुक यावन् संख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश, दो प्रदेश, तीन प्रदेश यावन् संख्यात प्रदेशरूप क्षेत्र में ठहर सकते है / संख्याताणुक द्रव्य की स्थिति के लिये असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार असंख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश से लेकर अधिक से अधिक अपने बराबर के असंख्यात संख्या वाले प्रदेशों के क्षेत्र में ठहर सकता है। किन्तु अनन्ताणुक और अनन्तानंतागुक स्कन्ध के विषय में यह जानना चाहिये कि वह एक प्रदेश, दो प्रदेश इत्यादि क्रम से बढ़ते-बढ़ते संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र में ठहर सकते हैं। उनकी स्थिति के लिये अनन्त प्रदेशात्मक क्षेत्र की जरूरत नहीं है। पुद्गलद्रव्य का सबसे बड़ा स्कन्ध, जिसे अचित्त महास्कन्ध कहते हैं और जो अनन्तानन्त गुणों का बना होता है, वह भी असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में ही ठहर जाता है। लोकाकारा के प्रदेश असंख्यात ही हैं और उससे वाहर पुद्गल की अवगाहना संभव नहीं है। उपर्युक्त समग्र कथन प्रानुपूर्वी प्रादि एक-एक द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए / किन्तु अनेक की अपेक्षा इन समस्त द्रव्यों का अवगाहन समस्त लोकाकाश में है / जिसका स्पष्टीकरण 'नाणादबाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा' पद द्वारा किया गया है / अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणुगों से निष्पन्न अचित्त महास्कन्धरूप प्रानुपर्वीद्रव्य के एक समय Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [अनुयोगद्वारसूत्र में समस्त लोक में अवगाढ रहने को केवलीसमुद्घात के चतुर्थ समयवर्ती प्रात्मप्रदेशों के सर्वलोक में व्याप्त होने की तरह जानना चाहिये / स्पर्शना प्ररूपमा 109.[1] णेगम-ववहाराणं आणुपृथ्वीदव्वाई लोगस्स कि संखेज्जइभामं फुसंति ? असंखेज्जइभागं फुसंति ? संखेज्जे भागे फुसंति ? असंखेज्जे भागे फुसंति ? सटवलोयं फुसंति ? एगदव्यं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागं वा फुसंति, असंखेज्जइभागं वा फुसंति संखेज्जे वा भागे फुसंति असंखेज्जे वा भागे फुसंति सव्वलोगं वा फुसंति, णाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोगं फुसंति / [109-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत यानुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? अथवा असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? संख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? अथवा असंख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? अथवा समस्त लोक का स्पर्श करते हैं ? [109-1 उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा एक ग्रानपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है, असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है, संख्यात भागों का स्पर्श करता है, असंख्यात भागों का स्पर्श करता है अथवा सर्वलोक का स्पर्श करता है, किन्तु अनेक (आनुपूर्वी) द्रव्य तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं / (2) णेगम-ववहाराणं अशाणुपुत्वीदव्याणं पुच्छा, एग दवं पडुच्च नो संखेज्जइभाग फुसंति असंखेज्जइभरगं फुसंति नो संखेज्जे भागे फुसंति नो असंखेज्जेभागे फुसंति नो सव्वलोगं फुसंति, नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोग फुसंति / [109-2 प्र] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? इत्यादि प्रश्न है / [109.2 प्र.] आयुष्मन् ! एक एक अनानुपूर्वी की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करते हैं किन्तु असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं, संन्यात भागों का, असंख्यात भागों का या सर्वलोक का स्पर्श नहीं करते हैं। किन्तु अनेक अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। (3) एवं अवत्तव्वगदम्वाणि वि भाणियवाणि। [109-3] प्रवक्तव्य द्रव्यों की स्पर्शना भी इसी प्रकार समझना चाहिये / विवेचन--सूत्र में पानपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों की एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा स्पर्णना का विचार किया है। सूत्रार्थ सुगम है और प्रश्नोत्तर का प्रकार क्षेत्रप्ररूपणा के समान ही जानना चाहिए। लेकिन क्षेत्र और स्पर्शना में यह अंतर है कि परमाणुद्रव्य की जो अवगाहना एक आकाश प्रदेश में होती है, वह क्षेत्र है तथा परमाणु के द्वारा अपने निवासस्थानरूप एक अाकाशप्रदेश के अतिरिक्त चारों ओर तथा ऊपर-नीचे के प्रदेशों के स्पर्श को स्पर्शना कहते हैं / परमाणु Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] की स्पर्शना आकाश के सात प्रदेशों की इस प्रकार है--चारों दिशाओं के चार प्रदेश, ऊपर-नीचे के दो प्रदेश एवं एक वह प्रदेश जहाँ स्वयं उसकी अवगाहना है / इस प्रकार अनानुपूर्वी द्रव्य की कुल मिलाकर सात प्रदेशों की स्पर्शना होती है। यद्यपि परमाणु निरंश है, एक है, तथापि सात प्रदेशों के साथ उसकी स्पर्शना होती है / कालप्ररूपणा 110. [1] गम-ववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं कालओ केवचिरं होंति ? एगं दन्वं पडुच्च जहणणं एग समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, नाणादब्वाइं पडुच्च णियमा सम्वद्धा। [110-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत प्रानुपूर्वीद्रव्य काल की अपेक्षा कितने काल तक (मानुपूर्वीद्रव्य रूप में) रहते हैं ? / [110-1 उ.] आयुष्मन् ! एक प्रानुपूर्वीद्रव्य जघन्य एक समय एवं उत्कृष्ट असंख्यात काल तक उसी स्वरूप में रहता है और विविध पानपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा नियमत: स्थिति सार्वकालिक है। [2] एवं दोन्नि वि। [2] इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति भ. जानना चाहिये / विवेचन-पूत्र में प्रानुपूर्वी ग्रादि द्रव्यों का एक और अनेक की अपेक्षा से उन्हीं प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों के रूप में रहने के काल का कथन किया गया है। पानपर्वीद्रव्य का पानपर्वीद्रव्य के रूप में रहने का जघन्य एक समयरूप और उत्कृष्ट असंख्यात काल इस प्रकार घटित होता है कि परमाणुद्वय आदि में दूसरे एक आदि परमाणुओं के मिलने पर एक अपूर्व प्रानुपूर्वीद्रव्य उत्पन्न हो जाता है और एक समय के बाद ही उसमें से एक आदि परमाणु के छूट जाने पर वह प्रानुपूर्वीद्रव्य उस रूप से विनष्ट हो जाता है। इस अपेक्षा प्रानुपूर्वीद्रव्य का पानुपूर्वी के रूप में रहने का काल जघन्य एक समय होता है और जब वही एक प्रानुपूर्वीद्रव्य असंख्यात काल तक उसी पानपूर्वीद्रव्य के रूप में रहकर एक प्रादि परमाणु से वियुक्त होता है तब उसकी अवस्थिति का उत्कृष्ट असंख्यात काल जानना चाहिये / अनेक प्रानपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा तो इन प्रानुपूर्वीद्रव्यों की स्थिति नियमतः सार्वकालिक है। क्योंकि ऐसा कोई काल नहीं कि जिसमें ये प्रानुपूर्वी द्रव्य न हों। किसी भी एक प्रानुपूर्वीद्रव्य का प्रानुपूर्वी रूप में रहने का काल अनन्त नहीं है। क्योंकि पुद्गलसंयोग को उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल की ही होती है, इससे अधिक नहीं / / अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों का भी एक और अनेक की अपेक्षा उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति काल अानुपूर्वीद्रव्यवत् जानना चाहिये। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [अनुयोगद्वारसूत्र यहाँ प्रयुक्त 'एवं दोन्नि वि' सूत्र के स्थान पर किसी-किसी प्रति में 'अणाणपूवी दवाई अवक्तव्वगदव्वाइं च एवं चेव भाणिअव्वाई' पाठ है और तदनुरूप उसकी व्याख्या की है। लेकिन शब्दभेद होने पर भी दोनों के प्राशय में अंतर नहीं है, मात्र संक्षेप और विस्तार की अपेक्षा है। अन्तरप्ररूपणा 111. [1] णेगम-बवहाराणं आणुपुवीदव्वाणमंतरं कालतो केवचिरं होति ? एगं दव्वं पडुच्च जहण्णणं एगं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं, नाणादव्वाइं पडुच्च पत्थि अंतरं। [111-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत पानपूर्वीद्रव्यों का कालापेक्षया अंतरव्यवधान कितना होता है ? [111-1 उ,] आयुष्मन् ! एक प्रानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल का अंतर होता है, किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अंतर-विरहकाल नहीं है। [2] णेगम-वहाराणं अणाणुपुवीदव्वाणं अंतरं कालतो केवचिरं होइ ? एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं संमयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, नाणादवाइं पडुच्च पत्थि अंतरं। [111-2 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्यों का काल की अपेक्षा अंतर कितना होता है ? [111-2 उ.] आयुष्मन् ! एक अनानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा अन्तरकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल प्रमाण है तथा अनेक अनानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा अंतर नहीं है। [3] णेगम-ववहाराणं अवत्तव्वगदम्वाणं अंतरं कालतो केवचिरं होति? एगं दवं पडुच्च जहण्णणं एग समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं, नाणादवाई पडुच्च त्थि अंतरं / [111-3 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अवक्तव्यद्रव्यों का कालापेक्षया अन्तर कितना है ? [111-3 उ.] अायुष्मन् ! एक प्रवक्तव्यद्रव्य की अपेक्षा अंतर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है, किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है / विवेचन-सूत्र के तीन विभागों में क्रमशः आनुपूर्वीद्रव्यों, अनानुपूर्वीद्रव्यों और प्रवक्तव्यद्रव्यों का एक और अनेक की अपेक्षा से कालापेक्षया अंतर बताया है कि पानपूर्वी प्रादि द्रव्य आनुपूर्वी आदि स्वरूप का परित्याग करके पुन: उसी प्रानुपूर्वी स्वरूप को कितने काल के व्यवधान से प्राप्त करते हैं / वह इस प्रकार है। एक आनुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा जघन्य अंतर एक समय का, उत्कृष्ट अंतर अनन्त काल का है। नाना द्रव्यों की अपेक्षा अंतर नहीं होने का भाव इस प्रकार जानना चाहिये कि त्र्यणुक, चतुरणक आदि आनुपूर्वीद्रव्यों में से कोई एक आनुपूर्वीद्रव्य स्वाभाविक अथवा प्रायोगिक परिणमन से खंड-खंड होकर आनुपूर्वी पर्याय से रहित हो जाए और पुन: वही द्रव्य एक समय के बाद स्वाभाविक आदि Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [75 परिणाम के निमित्त से उन्हीं परमाणयों के संयोग से विवक्षित पानपूर्वी रूप बन जाए तो इस प्रकार एक आनुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा प्रानुपूर्वी स्वरूप के परित्याग और पुन: उसी स्वरूप में आने के बीच में एक समय का जघन्य अंतर पड़ा / इसीलिये एक पानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अंतरकाल एक समय का बताया है। उत्कृष्ट अंतरकाल अनन्त काल इस प्रकार है---कोई एक विवक्षित आनुपूर्वीद्रव्य पूर्वोक्त रीति से प्रानुपूर्वीपर्याय से रहित हो गया और निर्गत वे परमाण अन्य द्वयणक, त्र्यणक आदि से लेकर अनन्तप्रदेशीस्कन्ध पर्यन्त रूप अनन्त स्थानों में प्रत्येक उत्कृष्ट काल की स्थिति का अनुभव करते हुए संश्लिष्ट रहे। इस प्रकार प्रत्येक द्वयणुक आदि अनन्त स्थानों में अनन्त काल तक संश्लिष्ट होतेहोते अनन्त काल समाप्त होने पर जब उन्हीं परमाणुगों द्वारा वही विवक्षित पानुपूर्वीद्रव्य पुन: निष्पन्न हो तब यह अनन्त काल का उत्कृष्ट अन्तर होता है / नाना पानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा काल का अन्तर नहीं बताने का कारण यह है कि लोक में अनन्तानन्त प्रानुपूर्वीद्रव्य सर्वदा विद्यमान रहते हैं / इसलिये ऐसा कोई समय नहीं है कि जिसमें समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य अपनी आनुपूर्वीरूपता का एक साथ परित्याग कर देते हों। एक अनानुपूर्वीद्रव्य का जघन्य अन्तर एक समय होने का और अनेक की अपेक्षा अन्तर नहीं न तथा प्रवक्तव्यद्रव्यों का एक--अनेकापेक्षया जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर अानुपूर्वी द्रव्यवत् है / लेकिन एक अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात काल प्रमाण बताने का कारण यह है कि परमाणु रूप अनानुपूर्वीद्रव्य किसी भी स्कन्ध के साथ अधिक से अधिक असंख्यात काल तक संयुक्त अवस्था में रहता है / इसीलिये असंख्यात काल का उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिये / असंख्यात काल तक संयुक्त रहने में पुद्गलस्वभाव कारण है। काल की तरह क्षेत्र की अपेक्षा भी अन्तर होता है। जैसे कि इस पृथ्वी से सूर्य का अन्तर आठ सौ योजन है। इसीलिये सूत्र में क्षेत्रगत अन्तर के परिहारार्थ काल पद का प्रयोग किया है कि यहां कालापेक्षया अन्तर का विचार करना अभीष्ट है, क्षेत्रकृत अन्तर का नहीं। भागप्ररूपणा 112. [1] गम-ववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाई सेसदव्वाणं कहभागे होज्जा? किं संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा? नो संखेज्जइभागे होज्जा नो असंखेज्जइभागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नियमा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा। [112-1 प्र.] भगवन् ! नेगम-व्यवहारनयसंमत समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग हैं ? क्या संख्यात भाग हैं ? असंख्यात भाग हैं अथवा संख्यात भागों या असंख्यात भागों [112-1 उ.] आयुष्मन् ! आनुपूर्वीद्रव्य शेष द्रब्यों के संख्यात भाग, असंख्यात भाग अथवा संख्यात भागों रूप नहीं हैं, परन्तु नियमत: असंख्यात भागों रूप हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 [अनुयोगद्वारसूत्र [2] गम-ववहाराणं प्रणाणुपुत्वीदव्वाई सेसदव्वाणं कहभागे होज्जा ? कि संखेन्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? नो संखेज्जइभागे होज्जा असंखेज्जइभागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा। [112-2 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग होते हैं ? क्या संख्यात भाग होते हैं ? असंख्यात भाग होते हैं ? संख्यात भागों रूप होते हैं ? अथवा असंख्यात भागों रूप होते हैं ? [112-2 उ.] आयुष्मन् ! अनानुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के संख्यात भाग नहीं होते हैं, संख्यात भागों अथवा असंख्यात भागों रूप नहीं होते हैं / किन्तु असंख्यात भाग होते हैं। [3] एवं अवत्तब्बगदवाणि वि। [3] अवक्तव्य द्रव्यों संबन्धी कथन भी उपर्युक्तानुरूप असंख्यात भाग समझना चाहिये / विवेचन—सूत्र में यह स्पष्ट किया है कि आनुपूर्वीद्रव्य (त्र्यणुकादि स्कन्ध) अनानुपूर्वीद्रव्य (परमाणु) और प्रवक्तव्यद्रव्य (द्वयणुकस्कन्ध) कितन्त्रवें भाग होते हैं ? इसका अभिप्राय यह है कि आनुपूर्वीद्रव्य, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य द्रव्यों से अधिक हैं या कम ? इसके उत्तर के लिये सूत्र में पद दिया-नियमा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा / अर्थात् ये शेष द्रव्यों के असंख्यात भागों रूप अधिक हैं। शेष द्रव्यों की अपेक्षा समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य अधिक इसलिये हैं कि अनानुपूर्वी द्रव्य परमाणु रूप है और अबक्तव्यद्रव्य द्वयण क रूप है तथा आनुपूर्वीद्रव्य त्र्यणुक आदि स्कन्ध से लेकर अनन्ताणुकस्कन्ध पर्यन्त हैं। इसीलिये ये आनुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात भागों से अधिक हैं / यही कथन निम्नलिखित आगमिक उद्धरण से स्पष्ट है 'एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखिज्जपएसियाणं असंखेज्जपएसियाणं अणतपएसियाण य खंधाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा, परमाणुपोग्गला अणतगुणा संखिज्जपएसिया खंधा संखिज्जगुणा असंखेज्जपएसिया खंधा असंखेज्जगुणा / ' [अनुयोग. वृत्ति प. 66] इस सूत्र में समस्त पुद्गल जाति की अपेक्षा से उसके असंख्यातप्रदेशीस्कन्ध असंख्यातगुणे कहे हैं और ये असंख्यातप्रदेशीस्कन्ध पानुपूर्वी में ही अन्तर्भूत होते हैं / अतएव जब सब प्रानुपूर्वीद्रव्य शेष समस्त द्रव्यों से भी असंख्यातगुणे हैं तो फिर अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातगुणे तो स्वयमेव सिद्ध हैं। __ अनानुपूर्वीद्रव्य (परमाणु) प्रानुपूर्वी और प्रवक्तव्य द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग हैं तथा प्रवक्तव्यद्रव्य आनुपूर्वी और अनानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा असंख्यातवें भाग जानना चाहिये, जिसके लिये सूत्र में संकेत किया है-असंखेज्जइभागे होज्जा। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [77 भावप्ररूपणा 113. [1] गम-ववहाराणं प्राणुपुत्वीदन्वाइं कयरम्मि भावे होज्जा ? कि उदइए भावे होज्जा ? उवसमिए भावे होज्जा ? खाइए भावे होज्जा? खानोवसमिए भावे होज्जा ? पारिणामिए भावे होज्जा ? सनिवाइए भावे होज्जा? णियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा। [113-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य किस भाव में वर्तते हैं ? क्या प्रौदयिक भाव में, औपशमिक भाव में, क्षायिक भाव में, क्षयोपशामिक भाव में, पारिणामिक भाव में अथवा सान्निपातिक भाव में वर्तते हैं ? [113 उ.] आयुष्मन् ! समस्त आनुपूर्वीद्रव्य सादि पारिणामिक भाव में होते हैं / [2] अणाणुपवीदव्वाणि अवत्तव्यदवाणि य एवं चेव भाणियवाणि। [2] अनानुपूर्वीद्रव्यों और अवक्तव्यद्रव्यों के लिये भी इसी प्रकार जानना चाहिये / अर्थात् वे भी सादिपारिणामिक भाव में हैं / विवेचन–आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में सादिपारिणामिक भाव होता है, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है द्रव्य का विभिन्न रूपों में होने वाले परिणमन–परिवर्तन को परिणाम कहते हैं और यह परिणाम ही पारिणामिक है / अथवा परिणमन या उससे जो निष्पन्न हो उसे पारिणामिक कहते हैं। यह पारिणामिकभाव सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का है। अनादि परिणमन तो लोकनियामक रूपी और अरूपी द्रव्यों में से धर्मास्तिकाय आदि अरूपी द्रव्यों का होता है और वह उनका स्वभावतः उस रूप में अनादि काल से होता चला पा रहा है और अनन्तकाल तक होता रहेगा। लेकिन रूपी पुदगलद्रव्य में जो परिणमन होता है, वह सादि-परिणाम है। मेघपटल, इन्द्रधनुष प्रादि पौद्गलिक द्रव्यों के परिणमन में अनादिता का अभाव है। क्योंकि पुद्गलों का जो विशिष्ट रूप में परिणमन होता है वह उत्कृष्ट रूप से भी असंख्यात काल तक ही स्थायी रहता है। इसलिये समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य सादिपारिणामिक भाव वाले हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य द्रव्यों में भी सादिपारिणामिक भाव जानना चाहिए। अल्पबहुत्वप्ररूपणा 114. [1] एएसि गं भंते। गम-बवहाराणं प्राणुपुत्वीदव्वाणं अणाणुपुथ्वीदव्याणं प्रवत्तवयदव्वाण य दवट्ठयाए पएसट्टयाए दबढ़-पएसट्टयाए कयरे कयरोहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोतमा ! सम्वत्थोवाइं गम-बवहाराणं अवत्तन्वयदवाई दवट्ठयाए, प्रणाणुपुत्वीदव्वाइं दस्वट्ठयाए विसेसाहियाई, प्राणुपुव्वीदव्वाइं दव्वट्टयाए प्रसंखेज्जगुणाई।। [114-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत प्रानुपूर्वीद्रव्यों, अनानुपूर्वीद्रव्यों और Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] [अनुयोगद्वारसूत्र प्रवक्तव्यद्रव्यों में से द्रव्य, प्रदेश और द्रव्यप्रदेश की अपेक्षा कौन द्रव्य किन द्रव्यों की अपेक्षा अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [114-1 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा नैगम-व्यवहारनयमम्मत अवक्तव्यद्रव्य सबसे स्तोक (अल्प) हैं, अवक्तव्यद्रव्यों की अपेक्षा अनानुपूर्वीद्रव्य, द्रव्य की अपेक्षा विशेषाधिक हैं और द्रव्यापेक्षा मानुपूर्वीद्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्यातगुणे होते हैं। [2] पएसट्टयाए णेगम-ववहाराणं सव्वत्थोवाई प्रणाणुषुब्बोदव्वाइं अपएसट्टयाए, प्रवत्तव्वयदव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुत्वीदव्वाइं पएसट्टयाए अणंतगुणाई / [2] प्रदेश की अपेक्षा नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य अप्रदेशी होने से सर्वस्तोक हैं, प्रदेशों की अपेक्षा प्रवक्तव्यद्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक और प्रानुपूर्वीद्रव्य प्रवक्तव्य द्रव्यों से अनन्तगुणे हैं। [3] दव्वट्ठ-पएसट्टयाए सम्वत्थोवाइं गम-बवहाराणं अवत्तत्वगदवाई दवट्ठयाए, प्रणाणुपुत्वीदव्वाई दन्वट्ठयाए अपएसट्टयाए विसेसाह्यिाई, अवत्तव्वगदव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई, प्राणुपुबीदव्वाइं दवट्टयाए असंखेज्जगुणाई, ताई चेव पएसट्ठयाए अणंतगुणाई। से तं अणुगमे / से तं गम-ववहाराणं अणोवणिहिया दवाणुपुवी / [3] द्रव्य और प्रदेश से अल्पबहुत्व नैगम-व्यवहारनयसम्मत अवक्तव्यद्रव्य-द्रव्य की अपेक्षा सबसे अल्प हैं / द्रव्य और अप्रदेशार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वीद्रव्य विशेषाधिक हैं, प्रदेश की अपेक्षा प्रवक्तव्यद्रव्य विशेषाधिक है, अानुपूर्वीद्रव्य द्रव्य की अपेक्षा असंख्यातगुण और वही प्रदेश की अपेक्षा अनन्तगुण हैं। इस प्रकार से अनुगम का वर्णन पूर्ण हया एवं साथ ही नगम-व्यवहारनयसंमत अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी की वक्तव्यता भी पूर्ण हुई / विवेचन--सूत्रकार ने नैगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का द्रव्य, प्रदेश और उभय की अपेक्षा अल्पबहुत्व बतलाया है / स्पष्टीकरण इस प्रकार है द्रव्यार्थ से प्रवक्तव्यद्रव्य सर्वस्तोक, उनसे अनानुपूर्वीद्रव्य विशेषाधिक और उनसे आनुपूर्वीद्रव्य असंख्यातगुण होने में वस्तुस्वभाव कारण है। दूसरी बात यह है कि अनानुपूर्वी द्रव्य-परमाणु में एक ही और अवक्तव्यद्रव्य में द्विप्रदेशीस्कन्ध रूप एक स्थान ही लभ्य है, परन्तु प्रानुपूर्वीद्रव्य में व्यणुकस्कन्ध से लगाकर एकोत्तर वृद्धि से-एक-एक प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि होने से अनन्ताणुक स्कन्ध पर्यन्त अनन्त स्थान हैं। इसीलिये आनुपूर्वीद्रव्य, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातगुणे बताये हैं। - प्रदेशों की अपेक्षा अनानुपूर्वीद्रव्य को सबसे कम बताने का कारण यह है कि यदि परमाणु रूप इन अनानुपूर्वी द्रव्यों में भी द्वितीय आदि प्रदेश मान लिये जायें तो प्रदेशार्थता से भी अनानुपूर्वीद्रव्यों की प्रवक्तव्यद्रव्यों से अधिकता मानी जा सकती है, परन्तु परमाणु अप्रदेशी है और यहाँ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वो निरूपण [79 प्रदेशार्थता की अपेक्षा अल्पवहुत्व का कथन किया है / अतः अनानुपूर्वीद्रव्य सर्वस्तोक हैं, यही सिद्धान्त युक्तियुक्त है। यद्यपि अनानुपूर्वी द्रव्यों के अग्रदेशी होने से प्रदेशार्थता नहीं है, तथापि 'प्रकृष्टः देशः प्रदेशः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सर्व सूक्ष्म देश अर्थात् पुद्गलास्तिकाय के निरंश भाग को प्रदेश कहते हैं और ऐसा प्रदेशत्व परमाणु द्रव्य में है। इसीलिये प्रदेशार्थता की अपेक्षा यहाँ अनानुपूर्वीद्रव्यों का विचार किया है। प्रवक्तव्यद्रव्यों को अनानुपूर्वीद्रव्यों से प्रदेशार्थता की अपेक्षा विशेषाधिक कहने का कारण यह है कि अनानुपूर्वीद्रव्य एकप्रदेशी (अप्रदेशी) है जबकि प्रवक्तव्यद्रव्य द्विप्रदेशी है। इसीलिये अवक्तव्यद्रव्यों को प्रदेशापेक्षा अनानुपूर्वीद्रव्यों से विशेषाधिक कहा है। आनुपूर्वीद्रव्य अवक्तव्यद्रव्यों की अपेक्षा प्रदेशार्थता से अनन्तगुणे इसलिये हैं कि इनके प्रदेश प्रवक्तव्य द्रव्यों के प्रदेशों से अनन्तगुणे तक हैं। द्रव्य और प्रदेशरूप उभयार्थता की अपेक्षा प्रवक्तव्यद्रव्यों को सर्वस्तोक बताने का कारण यह है कि पूर्व में अवक्तव्यद्रव्यों में द्रव्यार्थता की अपेक्षा सर्वस्तोकता कही है और अनानुपूर्वीद्रव्यों को प्रवक्तव्यद्रव्यों से उभयार्थ की अपेक्षा जो कुछ अधिकता कही है वह द्रव्यार्थता से जानना चाहिये किन्तु अनानुपूर्वीद्रव्यों से अवक्तव्यद्रव्य प्रदेशार्थता की अपेक्षा विशेषाधिक हैं और यह अधिकता उनके द्विप्रदेशी होने के कारण जानना चाहिये। आनुपूर्वीद्रव्यों के विषय में द्रव्य और प्रदेशार्थता की अपेक्षा जो पृथक-पृथक निर्देश किया है, वही उभयरूपता के लिये भी समझ लेना चाहिये कि द्रव्यार्थता की अपेक्षा असंख्यात गुणे और प्रदेशार्थता की अपेक्षा अनन्तगुण हैं / इस प्रकार ये नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी विषयक विवेचनीय का कथन करने के बाद अब संग्रहह्नयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का विवेचन प्रारम्भ करते हैं। .. संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी प्ररूपरणा 115, से कि तं संगहस्स अणोवणिहिया दवाणपच्ची ? संगहस्स प्रणोवाणिहिया दवाणुपुव्वी पंचविहा पग्णत्ता। तं जहा--अपयपरूवणया 1 भंगसमुक्कित्तणया 2 भंगोवदंसणया 3 समोयारे 4 अणुगमे 5 / [115 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? __ [115 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पांच प्रकार की कही है। वे प्रकार हैं-१. अर्थपदप्ररूपणता, 2. भंगसमुत्कीर्तनता, 3. भंगोपदर्शनता, 4. समवतार, 5. अनुगम / विवेचन--संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी की प्ररूपणा भी पूर्वोक्त नैगमव्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी की तरह पांच प्रकारों द्वारा करने का कथन सूत्र में किया है। इन अर्थपदप्ररूपणता आदि के लक्षण पूर्वोक्त अनुसार ही जानना चाहिये / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूब संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपरणता एवं प्रयोजन 116. से कि तं संगहस्स अटुपयपरूवणया? संगहस्स अटुपयपरूवणया तिपएसिया प्राणुपुन्वी चउप्पएसिया प्राणुपुटवी जाव दसपएसिया प्राणुपुवी संखिज्जपएसिया आणुपुव्वी असंखिज्जपएसिया आणुपुत्वी अणंतपदेसिया आणुपुत्वी, परमाणुपोग्गला अणाणुपुव्वी, दुपदेसिया अवतव्वए / से तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया / [116 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? [116 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप इस प्रकार हैत्रिप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी है, चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् दसप्रदेशिक स्कन्ध अानुपूर्वी है, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अानुपूर्वी है, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अानुपूर्वी है, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूर्वी है / परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी हैं और द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रवक्तव्यक है / संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का यह स्वरूप है। विवेचन--संग्रहनय की दृष्टि से यह अर्थपदप्ररूपणता है। इसमें और पूर्व की नंगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता में यह अन्तर है कि नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध एक प्रानुपूर्वीद्रव्य है और अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अनेक प्रानुपूर्वीद्रव्य हैं। इस प्रकार एकत्व और अनेकत्व दोनों का निर्देश किया है। यह कथन अनन्तप्रदेशी स्कन्ध पर्यन्त जानना चाहिये। किन्तु संग्रहनय सामान्यवादी है और उसके अविशुद्ध एवं विशुद्ध यह दो प्रकार हैं / अतएव सामान्यवादी होने से अविशुद्ध संग्रहनय के मतानुसार समस्त त्रिप्रदेशिक स्कन्ध एक ही पानुपूर्वी है, क्योंकि सभी त्रिप्रदेशिक स्कन्ध यदि वे अपने त्रिप्रदेशित्व रूप सामान्य से भिन्न हैं तो द्विप्रदेशिक प्रादि स्कन्ध की तरह वे त्रिप्रदेशिक स्कन्ध नहीं कहला सकते हैं और यदि त्रिप्रदेशिकत्व रूप सामान्य से वे अभिन्न हैं तो वे सभी त्रिप्रदेशी स्कन्ध एक रूप ही हैं। इसी कारण सभी विप्रदेशिक स्कन्ध एक ही आनुपूर्वी है, अनेक प्रानुपूर्वीद्रव्य नहीं हैं। इसी प्रकार चतुःप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर अनन्ताणुक स्कन्ध तक सब स्वतन्त्र, स्वतन्त्र भिन्नभिन्न चतुष्प्रदेशी आदि पानुपूर्वी हैं / उक्त दृष्टि अविशुद्ध संग्रहह्नय की है। परन्तु विशुद्ध संग्रहनय के मतानुसार त्रिप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध पर्यन्त के स्कन्धों की जितनी भी आनुपूर्वियां हैं, वे सब मानुपूवित्व रूप सामान्य से अभिन्न होने के कारण एक ही प्रानुपूर्वी रूप हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक के लिये समझना चाहिये कि अनानुपूवित्व रूप सामान्य से अभिन्न होने के कारण समस्त परमाणुपुद्गल रूप अनानुपूर्वियां एक ही अनानुपूर्वी हैं। प्रवक्तव्यकत्व रूप सामान्य से अभिन्न होने के कारण समस्त द्विप्रदेशिक स्कन्ध भी एक अवक्तव्यक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानु नि 117. एयाए णं संगहस्स अटुपयपरूवणयाए कि पोयणं ? एयाए णं संगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया कोरइ। [117 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत इस अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है ? [117 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत इस अर्थपदग्ररूपणता द्वारा संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता (भंगों का निर्देश) की जाती है। विवेचन–इस सूत्र द्वारा संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का प्रयोजन स्पष्ट किया है कि इससे भगसमुत्कीर्तनता रूप प्रयोजन सिद्ध होता है / इस भंगसमुत्कीर्तनता की व्याख्या निम्न प्रकार है--- संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता एवं प्रयोजन / 118. से किं तं संगहस्स भंगसमुक्कितणया ? संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आणुपुब्बी 1 अस्थि प्रणाणुपुरी 2 अस्थि अवत्तवए 3 अहवा अस्थि आणुपुव्वी य प्रमाणुपव्धी य 4 अहवा अस्थि आणुपन्दो य प्रवत्तम्बए य 5 अहवा अस्थि प्रणाणुयुम्वी य अवतन्वए य 6 अहवा अस्थि प्राणुपुच्ची य प्रणाणुपुथ्वी य अवत्तवए य 7 / एवं एए सत्त भंगा / से तं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया / [118 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या स्वरूप है ? / 118 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप इस प्रकार है 1. प्रानुपूर्वी है, 2. अनानपूर्वी है, 3. अवक्तव्यक है। अथवा–४. प्रानुपूर्वी और अनानुपूर्वी है, 5. ग्रानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक है, 6. अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक है। अथवा-७. आनुपूर्वीअनानुपूर्वी-अवक्तव्यक है। इस प्रकार ये सात भंग होते हैं / यह प्ररूपणा संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप है। 116. एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयणं ? एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए संगहस्स भंगोवदंसणया कज्जति / [119 प्र. भगवन् ! इस संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? [119 उ.] आयुष्मन् ! इस संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता के द्वारा भंगोपदर्शन किया जाता है। विवेचन--इन दो सूत्रों में भंगसमुत्कीर्तनता का आशय और प्रयोजन स्पष्ट किया है / भंगसमुत्कीर्तनता में मूल तीन पद हैं--प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य / इनके वाच्यार्थ पूर्व में स्पष्ट किये जा चके हैं। इन तीनों पदों के पृथक-पृथक स्वतन्त्र तीन भंग, दो-दो पदों के संयोग से तीन भंग और तीनों पदों के संयोग से एक भंग बनता है। इस प्रकार तीनों पदों के स्वतन्त्र और संयोगज कुल सात भंग होते हैं। इन भंगों के कथन द्वारा भंगोपदर्शनता रूप प्रयोजन सिद्ध होता है, अतएव अब भंगोपदर्शनता को स्पष्ट करते हैं। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] अनुयोगद्वारा संग्रहमयसम्मत भंगोपदर्शनता 120. से कि तं संगहस्स भंगोवदंसणया ? भंगोवसणया तिपएसिया प्राणुपु वी 1 परमाणुपोग्गला प्रणाणुपुवी 2 दुपएसिया प्रवत्तव्वए 3 महवा तिपएसिया य परमाणुपोग्गला य आणुपुवी य प्रणाणुपुवी य 4 महवा तिपएसिया य बुपएसिया य प्राणुपुवी य अवत्तन्वए य 5 अहवा परमाणुपोग्गला य दुपएसिया य अणाणुपुथ्वी य अवत्तव्यए य 6, अहवा तिपएसिया य परमाणुयोग्गला य दुपएसिया य आणुपुवी य अणाणुपुथ्वी य अवत्तव्यए य 7 / से तं संगहस्स भंगोवदंसणया। [120 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत भंगोपदर्शनता का क्या स्वरूप है ? [120 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत भंगोपदर्शनता का स्वरूप इस प्रकार है--त्रिप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं / अथवा-- त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और परमाणपुद्गल आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में, त्रिप्रदेशिक और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी-प्रवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में तथा परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध, अनानुपूर्वी-प्रवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं / अथवा त्रिप्रदेशिक स्कन्ध-परमाणुपुद्गल-द्विप्रदेशिक स्कन्ध प्रानुपूर्वी-अनानुपूर्वी-प्रवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं। इस प्रकार से संग्रहनयसम्मत भंगोपदर्शनता का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन--पूर्व सूत्र में भंगसमुत्कीर्तन के रूप में जिन संज्ञाओं का उल्लेख किया था, उन संज्ञाओं का वाच्यार्थ इस सूत्र में स्पष्ट किया है कि प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक शब्द के द्वारा यावन्मात्र त्रिप्रदेशिक आदि स्कन्ध, परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध ग्रहण किये जाते हैं। अर्थात् यही इनके वाच्यार्थ हैं। इसी प्रकार द्विकसंयोगी और विकसंयोगी पदों का वाच्यार्थ समझ लेना चाहिये। समवतारमरूपणा 121. से कि तं समोयारे ? समोयारे संगहस्स आणुपुचीदवाई कहि समोयरंति ? कि आणुपुवीदव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुब्बीदन्वेहि समोयरंति ? अवत्तव्दयदन्वेहि समोयरंति ? __संगहस्स आणुपुत्वीदन्वाइं प्राणुपुत्वीदर्वेहि समोयरंति, नो अशाणुपुब्बोदव्वेहि समोयरंति, नो प्रवत्तब्वयदब्वेहि समोयरंति / एवं दोण्णि वि सट्ठाणे सट्ठाणे समोयरंति / से तं समोयारे / [121 प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? क्या संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? अथवा अनानुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? या अवक्तव्यकद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनपूवी निरूपण] [83 [121 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वीद्रव्यों में समवतरित होते हैं, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों में नहीं। इसी प्रकार दोनों भी-अनानुपूर्वीद्रव्य और अवक्तव्यकद्रव्य भी स्वस्थान में ही समवतरित होते हैं। यह समवतार का स्वरूप है। विवेचन-समवतार सम्बन्धी स्पष्टीकरण नैगमव्यवहारनयसम्मत समवतार के प्रसंग में किया जा चुका है। तदनुरूप यहाँ भी समझ लेना चाहिये कि सजातीय का सजातीय में ही समावेश होता है / समावेश होना ही समवतार की परिभाषा है। संग्रहनयसम्मत अनुगमप्ररूपणा 122. से कि तं अणुगमे ? भणुगमे अट्टविहे पन्नते। तं जहा---- संतपयपरूवणया 1 द वपमाणं 2 च खेत्त 3 फुसणा 4 य / कालो 5 य अंतरं 6 भाग 7 भाव 8 अप्पाबहुं नस्थि // 6 // [122 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत अनुगम का क्या स्वरूप है ? [122 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत अनुगम आठ प्रकार का है / वह इस प्रकार (गाथार्थ) 1. सत्पदप्ररूपणा, 2. द्रव्यप्रमाण, 3. क्षेत्र, 4. स्पर्शना, 5. काल, 6. अन्तर, 7. भाग और 8. भाव / (किन्तु संग्रहनय सामान्यग्नाही होने से) इसमें अल्पबहुत्व नहीं होता है। विवेचन--सूत्र में अनुगम के आठ प्रकारों के नाम गिनाये हैं। इनकी व्याख्या इस प्रकार है-- सत्पदप्ररूपणा 123. संगहस्स आणुपुव्वोदव्वाइं कि अस्थि णस्थि ? नियमा अस्थि / एवं दोण्णि वि। [123 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य हैं अथवा नहीं हैं ? [123 उ.] आयुष्मन् ! नियमत: (निश्चित रूप से) हैं। इसी प्रकार दोनों (अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक) द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये। विवेचन--इस सत्पदप्ररूपणा द्वारा यह प्ररूपित किया है कि ये आनुपूर्वी आदि पद असदर्थविषयक नहीं हैं / किन्तु जैसे स्तम्भ आदि पद स्तम्भ आदि रूप अपने वास्तविक अर्थ को विषय करते हैं, उसी प्रकार आनुपूर्वी आदि पद भी वास्तविक रूप में विद्यमान पदार्थ के वाचक हैं। इसी तथ्य को बताने के लिये सूत्र में कहा है-'नियमा अस्थि / ' द्रव्यप्रमाणप्ररूपणा ...... 124. संगहस्स प्राणपुचीदवाइं कि संखेज्जाइं असंखेज्जाई अणंताई ? नो संखेज्जाई नो असंखेज्जाइं नो अणंताई, नियमा एगो रासी / एवं दोगिण वि। .. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुबोमाारसूत्र [124 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [124 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं हैं और अनन्त भी नहीं हैं, परन्तु नियमत: एक राशि रूप हैं। इसी प्रकार दोनों--(अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक) द्रव्यों के लिये भी जानना चाहिये / विवेचन-द्रव्यप्रमाणप्ररूपणा में पानुपूर्वी प्रादि पदों द्वारा कहे गये द्रव्यों की संख्या का निर्धारण होता है। यही बात सूत्र में स्पष्ट की है। संग्रहनय सामान्य को विषय करने वाला होने से उसके मत से संख्यात आदि भेद संभव नहीं हैं / किन्तु एक-एक राशि ही हैं / इसी बात का संकेत करने के लिये सूत्र में पद दिया है--नियमा एगो रासी / जिसका अर्थ यह है कि जैसे विशिष्ट एक परिणाम से परिणत एक स्कन्ध में तदारंभक परमाणुओं की बहुलता होने पर भी एकता की ही मुख्य रूप से विवक्षा होती है। उसी प्रकार आनुपूर्वीद्रव्य अनेक होने पर भी उनमें आनुपूर्वीत्व सामान्य एक होने से उन्हें संग्रहनय एक मानता है। संग्रहनयसम्मत क्षेत्रप्ररूपणा 125. संगहस्स आणुपुग्वीचन्दाई लोगस्स कतिभागे होज्जा ? कि संखेज्जतिभागे होज्जा ? असंखेज्जतिभागे होज्जा? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा? नो संखेज्जतिभागे होज्जा नो असंखेज्जतिभागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेस होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा सम्वलोए होज्जा ? एवं दोणि वि। [125 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य लोक के कितने भाग में हैं ? क्या संख्यात भाग में हैं ? असंख्यात भाग में हैं ? संख्यात भागों में हैं ? असंख्यात भागों में हैं ? अथवा सर्वलोक में हैं ? [125 उ.] आयुष्मन् ! समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यात भाग, असंख्यात भाग, संख्यात भागों या असंख्यात भागों में नहीं हैं किन्तु नियमतः सर्वलोक में हैं। इसी प्रकार का कथन दोनों (अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक) द्रव्यों के लिए भी समझना चाहिये / अर्थात् ये दोनों भी समस्त लोक में हैं ? विवेचन--संग्रहनय की अपेक्षा आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का क्षेत्र सर्वलोक बताया है। उसका कारण यह है कि प्रानुवित्व आदि रूप सामान्य एक है और वह सर्वलोकव्यापी है। इसीलिये आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की सत्ता सर्वलोक में है। संग्रहनयसंमत स्पर्शनाप्ररूपणा 126. संगहस्स आणुपुत्वीदव्वाइं लोगस्स कि संखेज्जतिभागं फुसंति ? असंखेज्जतिभागं फुसंति ? संखेज्जे भागे फुसंति ? असंखेज्जे भागे फुसंति ? सब्बलोगं फुसंति ? नो संखेज्जतिभागं फुसंति नो प्रसंलेज्जतिभागं फुसंति नो संखेज्जे भागे फुसंति नो असंखेज्जे भागे फुसंति, नियमा सबलोग फुसति / एवं दोनि वि / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [126 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग का, असंख्यात भाग का, संख्यात भागों या असंख्यात भागों या सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ? 6126 उ.] अायुष्मन् ! प्रानुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यात भाग का स्पर्श नहीं करते हैं, असंख्यात भाग का स्पर्श नहीं करते हैं, संख्यात भागों और असंख्यात भागों का भी स्पर्श नहीं करते हैं, किन्तु नियम से सर्वलोक का स्पर्श करते हैं / इसी प्रकार का कथन अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक रूप दोनों द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये। विवेचन-आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की स्पर्शना का कारण पूर्वोक्त क्षेत्रप्ररूपणा के समान समझ लेना चाहिये / ये प्रानुपूर्वी आदि द्रव्य आनुपूवित्व आदि रूप सामान्य के सर्वव्यापी होने से सर्वलोकव्यापी हैं, उनकी सत्ता सर्वलोक में है। अतएव ये सभी नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। संग्रहनयसम्मत काल और अंतर की प्ररूपणा 127. संगहस्स प्राणुपुब्बीदवाई कालओ केवचिरं होंति ? सव्वद्धा / एवं दोणि वि। {127 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य काल की अपेक्षा कितने काल तक (आनुपूर्वी रूप में) रहते हैं ? | [127 उ.] आयुष्मन् ! आनुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वी रूप में सर्वकाल रहते हैं / इसी प्रकार का कथन शेष दोनों द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये। 128. संगहस्स आणुपुन्वीदव्याणं कालतोकेवचिरं अंतरं होति ? नत्थि अंतरं / एवं दोणि वि। [128 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्यों का कालापेक्षया कितना अंतर-बिरहकाल होता है ? [128 उ.] आयुष्मन् ! कालापेक्षया आनुपूर्वीद्रव्यों में अंतर नहीं होता है / इसी प्रकार शेष दोनों द्रव्यों के लिये समझना चाहिये / विवेचन-इन दोनों सूत्रों में संग्रहनयमान्य समस्त प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का काल की अपेक्षा अवस्थान और अंतर का निरूपण किया है। जिसका प्राशय यह है प्रानुपूर्वित्व, अनानुपूवित्व और अवक्तव्यकत्व सामान्य का विच्छेद नहीं होने से इनका अवस्थान सर्वाद्धा-सार्वकालिक है और इसीलिये काल की अपेक्षा इनका विरहकाल भी नहीं है। इन दोनों बातों का निरूपण करने के लिये पद दिये हैं-'सव्वद्धा' और 'नत्थि अंतरं'। सारांश यह कि प्रानुपूर्वित्व आदि का कालत्रय में सत्त्व रहने के कारण विच्छेद न होने से उनका अवस्थान सार्वकालिक है और इसीलिये उनमें कालिक अंतर-विरहकाल भी संभव नहीं है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र संग्रहनयसम्मत भागप्ररूपणा 126. संगहस्स आणुपुत्वीदवाई सेसद वाणं कतिभागे होज्जा ? कि संखेज्जतिभागे होज्जा ? असंखेज्जतिभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागेस होज्जा? / .. नो संखेज्जतिभागे होज्जा नो असंखेज्जतिभागे होज्जा णो संखेज्जेसु भागेस होज्जा गो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा तिभागे होज्जा / एवं दोणि वि। [129 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग प्रमाण होते हैं ? क्या संख्यात भाग प्रमाण होते हैं या असंख्यात भाग प्रमाण होते हैं ? संख्यात भागों प्रमाण अथवा असंख्यात भागों प्रमाण होते हैं ? [129 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत प्रानुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के संख्यात भाग, असंख्यात भाग, संख्यात भागों या असंख्यात भागों प्रमाण नहीं हैं, किन्तु नियमत: तीसरे भाग प्रमाण होते हैं / इसी प्रकार दोनों (अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक) द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिये / विवेचन-सूत्र में भागप्ररूपणा का प्ररूपण किया। प्राशय यह है कि संग्रहनयमान्य समस्त प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों में से आनुपूर्वीद्रव्य नियम से शेष द्रव्यों के विभाग प्रमाण हैं। क्योंकि अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को मिलाकर जो राशि उत्पन्न होती है, उस राशि के तीन भाग करने पर जो तृतीय भाग आये तत्प्रमाण आनुपूर्वीद्रव्य हैं। क्योंकि यह तीन राशियों में से एक राशि है / इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के लिये जानना कि वे भी तीसरे-तीसरे भाग प्रमाण हैं। संग्रहनयसम्मत भावप्ररूपरणा 130. संगहस्स आणुपुवीदव्वाई कयरम्मि भावे होज्जा ? नियमा सादिपारिणामिए भावे होज्जा / एवं दोणि वि / अप्पाबहुं नत्थि / से तं अणुगमे। से तं संगहस्स अणोवणिहिया वन्वाणुपुत्री / से तं अणोवणिहिया दव्वाणुपुवी। [130 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसंमत प्रानुपूर्वीद्रव्य किस भाव में होते हैं ? [130 उ.] आयुष्मन् ! प्रानुपूर्वीद्रव्य नियम से सादिपारिणामिक भाव में होते हैं / यही कथन शेष दोनों (अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक) द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये। राशिगत द्रव्यों में अल्पबहुत्व नहीं है / यह अनुगम का वर्णन है / इस प्रकार से संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का कथन पूर्ण हुन्ना और साथ ही अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी की बक्तव्यता भी पूर्ण हुई। विवेचन-सूत्रार्थ स्पष्ट है / संवन्धित विशेष वक्तव्य इस प्रकार है आनुपूर्वी आदि राशिगत द्रव्यों में अल्पबहुत्व नहीं है। क्योंकि संग्रहनय की दृष्टि से पानपूर्वी प्रादि द्रव्यों में अनेकत्व नहीं है, सभी एक-एक द्रव्य हैं। जब अनेकत्व नहीं, सभी एक-एक हैं तो उनमें अल्पबहुत्व कैसे संभव होगा? Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानुपूर्वी निरूपण] अल्पबहुत्व नहीं होने पर भी संग्रहनयमान्य अनुगम के प्रकरण में जो 'संगहस्य आणुपुवीदव्वाइं कि संखिज्जाई............' आदि बहुवचनान्त पदों का प्रयोग किया गया है उसका कारण यह है कि संग्रहनय की अपेक्षा तो ये द्रव्य एक-एक हैं, परन्तु व्यवहारनय से बहुत भी हैं। इस प्रकार से अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का निरूपण समाप्त हुआ। अब पूर्व में जिस औपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी को स्थाप्य मानकर वर्णन नहीं किया था, उसका कथन आगे किया जाता है। प्रोपनिधिको द्रव्यानुपूर्वीनिरूपण 131. से कि तं प्रोवणिहिया दव्वाणुपुवी ? प्रोवणिहिया दब्बाणुपुब्बी तिविहा पण्णत्ता। तं जहा---पुव्वाणुपुव्वी 1 पच्छाणुपुटवी 2 अणाणुपुत्वी 3 य। [131 प्र.] भगवन् ! प्रोपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [131 उ.] आयुष्मन् ! औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तीन प्रकार कहे हैं, यथा-१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी और 3. अनानुपूर्वी / विवेचन-सूत्र में प्रोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तीन भेद बताये हैं / 'उपनिधिनिक्षेपो विरचनं प्रयोजनमस्या इत्योपनिधिको' अर्थात् किसी एक वस्तु को स्थापित करके उसके समीप पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से अन्य वस्तुओं को स्थापित करना उपनिधि का अर्थ है। यह प्रयोजन जिसका हो, उसका नाम प्रोपनिधिकी है। यह द्रव्यविषयक द्रव्यानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी आदि रूपों से तीन प्रकार की है। पूर्वानुपूर्वी-विवक्षित धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यविशेष के समुदाय में जो पूर्व-प्रथम द्रव्य है, उससे प्रारंभ कर अनुक्रम से प्रागे-आगे के द्रव्यों की स्थापना अथवा गणना की जाती है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं / यथा-धर्मास्तिकाय से प्रारंभ कर क्रमानुसार कालद्रव्य तक गणना करना। . . पश्चानुपूर्वो-उस द्रव्यविशेष के समुदाय में से अतिम द्रव्य से लेकर विलोमक्रम से प्रथम द्रव्य तक जो आनुपूर्वी, परिपाटी निक्षिप्त की जाती है वह पश्चानुपूर्वी है / अनानुपूर्वी-पूर्वानुपूर्वी एवं पश्चानुपूर्वी इन दोनों से भिन्न स्वरूप वाली आनुपूर्वी को अनानुपूर्वी कहते हैं। अब यथाक्रम इन तीनों भेदों का निरूपण करते है। पूर्वानुपूर्वी 132. से कि तं पुवाणुपुवी ? पुग्वाणुपुन्वी धम्मस्थिकाए 1 अधम्मत्थिकाए 2 अागासत्थिकाए 3 जीवत्थिकाए 4 पोग्गलस्थिकाए 5 अद्धासमए 6 / से तं पुव्वाणुग्यो / [132 प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मनुबोगशालूम [132 उ.] आयुष्मन् ! पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-१. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. अाकाशास्तिकाय, 4. जीवास्तिकाय, 5. पुद्गलास्तिकाय, 6. अद्धाकाल / इस प्रकार अनुक्रम से निक्षेप करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। परचानुपूर्वो 133. से कि तं पच्छाणुपुग्यो ? पच्छाणुपुब्बी श्रद्धासमए 6 पोग्गलस्थिकाए 5 जीवस्थिकाए 4 भागासस्थिकाए 3 अधम्मस्थिकाए 2 धम्मस्थिकाए 1 / से तं पच्छाणुपुवी। [133 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [133 उ.] आयुष्मन् ! पश्चानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है कि 6. अद्धासमय, 5. पुद्गलास्तिकाय, 4. जीवास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, और 1. धर्मास्तिकाय / इस प्रकार के विलोमक्रम से निक्षेपण करने को पश्चानुपूर्वी कहते हैं / अनानुपूर्वी 134. से कि तं अणाणएवी ? अणाणुपुवी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेडीए अण्णमण्णम्भासो दुरूवलो / से तं अणाणुपुवी। [134 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [134 उ.] प्रायुष्मन् ! एक से प्रारंभ कर एक-एक की वृद्धि करने पर छह पर्यन्त स्थापित श्रेणी के अंकों में परस्पर गुणाकार करने से जो राशि आये, उसमें से आदि और अंत के दो रूपों (भंगों) को कम करने पर अनानुपूर्वी बनती है / विवेचन–इन तीन सूत्रों (132, 133, 134) में औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी के एक अपेक्षा से पूर्वानुपूर्वी आदि तीन भेदों का स्वरूप बतलाया है। धर्मास्तिकाय आदि के लक्षण प्रायः सुगम है कि गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में सहायक द्रव्य को धर्मास्तिकाय और उनकी स्थिति में सहायक द्रव्य को अधर्मास्किाय, सभी द्रव्यों को अवस्थान-अवकाश देने में सहयोगी द्रव्य को प्राकाशास्तिकाय, चेतनापरिणाम युक्त द्रव्य को जीवास्तिकाय, पूरण-गलन स्वभाव वाले द्रव्य को पुद्गलास्तिकाय और पूर्वापर कोटि-विप्रमुक्त वर्तमान एक समय को अद्धासमय कहते हैं। षड्द्रव्यों की विशेषता-धर्मास्तिकाय आदि इन षड्द्रव्यों में से अद्धासमय एक समयात्मक होने से अस्ति रूप है किन्तु 'काय' नहीं है। शेष पांच द्रव्य प्रदेशों के संघात रूप होने से अस्तिकाय कहलाते हैं / जीवास्तिकाय सचेतन और शेष पांच अचेतन हैं / पुद्गलास्तिकाय रूपी-मूर्त और शेष पांच द्रव्य अमूर्तिक-अरूपी हैं / धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन अस्तिकाय द्रव्य द्रव्यापेक्षा एक-एक द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय अनन्तद्रव्य हैं तथा काल अप्रदेशीद्रव्य है / जीव, धर्म, अधर्म ये तीन असंख्यात Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [89 प्रदेशी हैं / प्राकाशास्तिकाय सामान्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्य है / लोकाकाशरूप आकाश असंख्यातप्रदेशी और अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है / पुद्गलास्तिकाय के संख्यात, असंख्यात अनन्त प्रदेश होते हैं / अणुरूप पुद्गल तो एक प्रदेशी है और स्कन्धात्मक पुद्गल दो प्रदेशों के संघात से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशों तक का समुदाय रूप हो सकता है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन अस्तिकाय नित्य, अवस्थित एवं निष्क्रिय हैं और जीव, पुद्गल सक्रिय अस्तिकाय द्रव्य हैं। षड् द्रव्यों का क्रमविन्यास-धर्म पद मांगलिक होने से सर्वप्रथम धर्मास्तिकाय का और तत्पश्चात् उसके प्रतिपक्षी अधर्मास्तिकाय का उपन्यास किया गया है। इनका आधार आकाश है, अत: इन दोनों के अनन्तर आकाशास्तिकाय का उल्लेख किया है, तत्पश्चात आकाश की तरह अमूर्तिक होने से जीवास्तिकाय का न्यास किया है। जीव के भोगोपभोग में आने वाला होने से जीव के अनन्तर पुद्गलास्तिकाय का विन्यास किया है तथा जीव और अजीब का पर्याय रूप होने से सबसे अंत में अद्धासमय का उपन्यास किया है। क्रमविन्यास की उक्त दृष्टि पूर्वानुपूवित्व में हेतु है। इसी क्रम को प्रतिलोम क्रम से सबसे अंतिम अद्धासमय से प्रारंभ करके क्रमानुसार उल्लेख किये जाने पर पश्चानुपूर्वी कहलाती है / किन्तु अनानुपूर्वी में विवक्षित पदों के उक्त दोनों क्रमों की उपेक्षा करके संभवित भंगों से इन पदों की विरचना की जाती है। उसमें सबसे पहले एक का अंक रखकर एक-एक की उत्तरोत्तर वृद्धि छह संख्या तक होती है, जैसे 1-2-3-4-5-6 / फिर इनमें परस्पर गुणा करने पर बनने वाली अन्योन्याभ्यस्त राशि (2x243444546-720) में प्रादि एवं अंत्य भंगों को है अनानुपूर्वी बनती है, क्योंकि प्राद्य भंग पूर्वानुपूर्वी का और अंतिम भंग पश्चानुपूर्वी का है। औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का दूसरा प्रकार 135. अहवा ओवणिहिया दव्याणुपुची तिविहा पत्नत्ता / तं जहा-पुवाणुपुत्वी 1 पच्छाणुपुची 2 प्रणाणुपुवी 3 / [135] अथवा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी तीन प्रकार की कही है। यथा--१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी और 3, अनानुपूर्वी / विवेचन-पूर्व सुत्र में सामान्य से धर्मास्तिकाय आदि षड द्रव्यों की पूर्वानुपूर्वी आदि का कथन किया है। अब उसी को पुद्गलास्तिकाय पर घटित करने के लिये पुनः औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तीन भेदों का यहाँ उल्लेख किया है। पूर्वानुपूर्वी आदि तीनों के लक्षण सामान्यतया पूर्ववत् हैं। लेकिन पुद्गलास्तिकाय की अपेक्षा क्रम से पुन: उनका निरूपण करते हैंपूर्वानुपूर्यो 136. से कि तं पुवाणुपुत्री ? पुवाणुपुब्वी परमाणुपोग्गले दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए जाय संखिज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए अणंतपएसिए / से तं पुवाणुपुग्यो। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 [अनुयोगद्वारसूत्र [136 प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [136 उ.] आयुष्मन् ! पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है--परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, यावत् दशप्रदेशिक स्कन्ध, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध रूप क्रमात्मक अानुपूर्वी को पूर्वानुगूर्वी कहते हैं। पश्चानुपूर्वो 137. से किं तं पच्छाणुपुदी ? पच्छाणुपुब्धी अणंतपएसिए प्रसंखिज्जपएसिए संखिज्जपएसिए जाव दसपएसिए जाव तिपएसिए दुपएसिए परमाणुपोग्गले / से तं पच्छाणुपुवी। [137 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का स्वरूप क्या है ? [137 उ.] आयुष्मन् ! पश्चानुपूर्वी का स्वरूप यह है-अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध यावत् दशप्रदेशिक स्कन्ध यावत् त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, द्विप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणपुद्गल / इस प्रकार का विपरीत क्रम से किया जाने वाला त्यास पश्चानुपूर्वी है। अनानुपूर्वी 138. से कि तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुठवी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सहीए अत्रमन्नभासो दुरूवणो / से तं अणाणुपुग्यो / से तं ओवणिहिया दवाणुपुवी / से तं जाणगव्वइरित्ता दवाणुपथ्वी / से तं नोआगमओ दम्वाणुपुब्बी / से तं दव्वाणुपवी। [138 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [138 उ.] आयुष्मन् ! एक से प्रारंभ करके एक-एक की वृद्धि करने के द्वारा निमित अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध पर्यन्त की श्रेणी की संख्या को परस्पर गुणित करने से निष्पन्न अन्योन्याभ्यस्त राशि में से आदि और अंत रूप दो भंगों को कम करने पर अनानुपूर्वी बनती है। यह औपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी का वर्णन जानना चाहिये / इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी का और साथ ही नोप्रागम द्रव्यानुपूर्वी तथा द्रव्यानुपूर्वी का भी वर्णन पूर्ण हुया / विवेचन-यहाँ पूर्वानुपूर्वी आदि रूप में पुद्गलास्तिकाय को उदाहृत करने का कारण यह है कि पूर्वानुपूर्वी नादि के विचार में परमाणु आदि द्रव्यों का परिपाटी रूप क्रम पुद्गल द्रव्यों की बहुलता के कारण संभव है। एक-एक द्रव्य रूप माने जाने से धर्म, अधर्म, आकाश इन तीनों अस्तिकाय द्रव्यों में पुद्गलास्तिकाय की तरह द्रव्यबाहुल्य नहीं है तथा जीवास्तिकाय में अनन्त जीवद्रव्यों की सत्ता होने के कारण यद्यपि द्रव्यबाहुल्य है, फिर भी परमाणु, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में जैसा पूर्वानुपूर्वी आदि रूप पूर्व-पश्चाद्भाव है, वैसा जीवद्रव्य में नहीं है। क्योंकि प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेश वाला होने से समस्त जीवों में तुल्यप्रदेशता है। परमाण, द्विप्रदेशिक स्कन्ध आदि द्रव्यों में विषम प्रदेशता है, जिससे वहाँ पूर्व-पश्चादभाव है। अद्धासमय एक समय प्रमाण रूप है / इसीलिये उसमें भी पूर्वानुपूर्वी आदि संभव नहीं है / Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण [91 इन सब कारणों से धर्मास्तिकाय आदि अन्य द्रव्यों को छोड़कर पुद्गलास्तिकाय को ही पूर्वानुपूर्वी आदि रूप से उदाहृत किया गया है। __ इस प्रकार पूर्व में बताये गये द्रव्यानुपूर्वी के दो प्रकारों का पूर्ण रूप से कथन किया जा चुका है / अतः अब क्रमप्राप्त क्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन प्रारंभ करते हैं / क्षेत्रानुपर्वो के प्रकार 136. से कि तं खेत्ताणुपुत्वी ? खेत्ताणुपुब्बी दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-ओवणिहिया य अणोवणिहिया य। [139 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [139 उ.] अायुप्मन् ! क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की है। यथा-१. प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी और 2. अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी / 140. तत्थ णं जा सा ओवणिहिया सा ठप्पा / [140] इन दो भेदों में से औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी (अल्प विषय वाली होने से पश्चात् वर्णन किये जाने के कारण) स्थाप्य है / 141. तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पन्नत्ता / तं नहा-णेगम-क्वहाराणं 1 संगहस्स य 2 / [141] अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की कही गई है। यथा--१. नैगम-व्यवहारनयसंमत और 2. संग्रहनयसंमत / विवेचन-यह तीन सूत्र क्षेत्रानुपूर्वी के वर्णन की भूमिका रूप हैं। सूत्रोक्त क्रमानुसार इनका वर्णन आगे किया जा रहा है / नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी 142. से कि तं गम-ववहाराणं अणोवणियिा खेत्ताणुपुती ? गम-ववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुवी पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा---अटुपयपरूवणया 1 भंगसमुक्कित्तणया 2 भंगोवदंसणया 3 समोयारे 4 अणुगमे 5 / [142 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [142 उ.] आयुष्मन् ! इस उभयनयसम्मत अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी की प्ररूपणा के पांच प्रकार हैं / यथा--१. अर्थपदप्ररूपणता, 2. भंगसमुत्कीर्तनता, 3. भंगोपदर्शनता, 4. समवतार, 5. अनुगम। विवेचन-सूत्रोक्त अर्थपदप्ररूपणता आदि की लक्षण-व्याख्या द्रव्यानुपूर्वी के प्रसंग में किये गये वर्णन के समान जाननी चाहिये / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92) [अनुयोगद्वारसूत्र नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपरणा और प्रयोजन 143. से कि तं गम-बवहाराणं अट्ठपयपरूवणया ? णेगम-ववहाराणं अनुपयपरूवणया तिपएसोगाढे आणुपुवी जाव दसपएसोगाढे आणुपुम्वी जाव संखिज्जपएसोगाढे आणुपन्वी असंखेज्जपएसोगाढे आणुपवी, एगपएसोगाढे अणाणुपुच्ची, दुपएसोगाढे अवत्तव्वए, तिपएसोगाढा आणुपुथ्वीओ जाव दसपएसोगाढा आणुपुवीश्रो जाव संखेज्जपए. सोगाढा आणुपुन्वीओ असंखिज्जपएसोगाढा आणुपुवीओ, एगपएसोगाढा प्रणाणुपुब्धीओ, दुपएसोगाढा अवत्तव्वगाई / से तं गम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया। [143 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारमयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? [143 उ.] आयुष्मन् ! उक्त नयद्वय-सम्मत अर्थपदप्ररूपणा का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये---तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् दस प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् संख्यात अाकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध पानुपूर्वी है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध अानुपूर्वी है / / ग्राकाश के एक प्रदेश में अवगाढ द्रव्य (पुद्गलपरमाणु) से लेकर यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक क्षेत्रापेक्षया अत्तानुपूर्वी कहलाता है / दो आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्य (दो, तीन या असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध भी) क्षेत्रापेक्षया प्रवक्तव्यक है। तीन आकाशप्रदेशावगाही अनेक-बहुत द्रव्यस्कन्ध प्रानुपूर्वियां हैं यावत् दसप्रदेशावगाही द्रव्यस्कन्ध प्रानुपूर्वियां हैं यावत् संख्यातप्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध अानुपूर्वियां हैं, असंख्यात प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियां हैं। एक प्रदेशावगाही पुद्गलपरमाणु प्रादि (अनेक) द्रव्य अनानुपूर्वियां हैं। दो अाकाशप्रदेशावगाही द्वयणुकादि द्रव्यस्कन्ध प्रवक्तव्यक हैं / यह नंगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप जानना चाहिये / 144. एयाए णं गेगम-बवहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए कि पोयणं ? एयाए णं णेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया कीरति / [144 प्र.] भगवन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है ? [144 उ.] आयुष्मन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता द्वारा नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। विवेचन-इन दो सूत्रों में क्रमश: नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के प्रथम भेद अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप एवं प्रयोजन बतलाया है / सूत्रार्थ स्पष्ट है। संबन्धित विशेष वक्तव्य इस प्रकार है Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण [93 क्षेत्रानुपूर्वी में क्षेत्र की प्रधानता है। व्यणुकादि रूप पुद्गलस्कन्धों के साथ उसका सीधा सम्बन्ध नहीं है। अतएव त्रिप्रदेशावगाही द्रब्यस्कन्ध से लेकर अनन्ताणक पर्यन्त स्कन्ध यदि वे एक आकाशप्रदेश में स्थित हैं तो उनमें क्षेत्रानुपूर्वीरूपता नहीं है / फिर भी यहाँ जो त्रिप्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध को आनुपूर्वी कहा गया है, उसका तात्पर्य आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाह रूप पर्याय से विशिष्ट द्रव्यस्कन्ध है। क्योंकि तीन पूदगलपरमाणु वाले द्रव्यस्कन्ध आकाश रूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों को भी रोककर रहते हैं। इसीलिये आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाही द्रव्यस्कन्ध भी पानुपूर्वी कहे जाते हैं। वैसे तो क्षेत्रानुपूर्वी का अधिकार होने से यहाँ क्षेत्र की मुख्यता है। परन्तु तदवगाढद्रव्य को क्षेत्रानुपूर्वीरूपता क्षेत्रावगाह रूप पर्याय की प्रधानता विवक्षित होने की अपेक्षा से है। प्रसंग होने पर भी क्षेत्र की मुख्यता का परित्याग करके उपचार को प्रधानता देकर तदवगाही द्रव्य में क्षेत्रानुपूर्वी का विचार इसलिये किया गया है कि सत्पदप्ररूपणता आदि रूप वक्ष्यमाण विचार का विषय द्रव्य है और इसी के माध्यम से जिज्ञासुओं को समझाया जा सकता है तथा क्षेत्र नित्य, अवस्थित, अचल होने से प्रायः उसमें आनुपूर्वी आदि की कल्पना किया जाना सुगम नहीं है, इसीलिये क्षेत्रावगाही द्रव्य के माध्यम से क्षेत्रानुपूर्वी का विचार किया है। सूत्रोक्त 'असंखेज्जपएसोगाढे पाणषुब्बी—'असंख्येयप्रदेशावगाढ प्रानुपूर्वी' इस पद का अर्थ प्राकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ असंख्यात अणुओं वाला अथवा अनन्त अणुओं वाला द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है, ऐसा जानना चाहिये / इसका तात्पर्य यह है कि एक पुद्गलपरमाणु आकाश के एक ही प्रदेश में अवगाढ होना है। परन्तु दो प्रदेश वाले स्कन्ध से लेकर असंख्यात प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्धों में से प्रत्येक पुद्गलस्कन्ध कम से कम एक प्राकाशप्रदेश में और अधिक से अधिक जिस स्कन्ध में जितने प्रदेश-परमाणु हैं उतने ही आकाश के प्रदेशों में अवगाढ होता है, अनन्त आकाशप्रदेशों में नहीं। क्योंकि द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है और लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश है। अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य संबन्धी विवरण का प्राशय यह है कि एक आकाशप्रदेश में स्थित परमाणु और स्कन्ध क्षेत्र की अपेक्षा अनानुपूर्वी हैं तथा द्विप्रदेशावगाढ़ द्विप्रदेशिक आदि स्कन्ध क्षेत्र की अपेक्षा प्रवक्तव्यक है / / इस अर्थपदप्ररूपणा का प्रयोजन भंगसमुत्कीर्तनता है / अतः अब भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप और प्रयोजन स्पष्ट करते हैं। नैगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी-भंगसमुत्कीर्तनता एवं प्रयोजन 145. से कि तं गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया? गम-बवहाराणं भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आणुपुथ्वी 1 अस्थि अणाणुयुधी 2 अस्थि अवत्तन्वए 3 एवं दवाणुपुब्बीगमेणं खेत्ताणुपुवीए वि ते चेव छन्वीसं भंगा भाणियन्वा, जाव से तं गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया। [145 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या स्वरूप है ? Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अनुयोगद्वारसूत्र [145 उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप इस प्रकार है-१ प्रानुपूर्वी है, 2 अनानुपूर्वी है, 3 प्रवक्तव्यक है इत्यादि द्रव्यानुपूर्वी के पाठ की तरह क्षेत्रानुपूर्वी के भी वही छब्बीस भंग हैं, यावत् इस प्रकार नैगमव्यवहारनय सम्मन भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप जानना चाहिये / 146. एयाए णं णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयणं ? एयाए गं गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए णेगम-ववहाराणं भंगोवदंसणया कज्जति / [146 प्र. भगवन् ! इस नैगम-व्यवहारनयमम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? 146 उ. प्रायुष्मन ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत भगसमुत्कीर्तनता द्वारा नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता की जाती है। विवेचन-सूत्र में नंगम-व्यवहारनयमम्मत क्षेत्रानुपूर्वी के छब्बीस भंग द्रव्यानुपूर्वी के भंगों के नामानुरूप होने का उल्लेख किया है। द्रव्यानुपूर्वी संबन्धी छब्बीस भंगों के नाम सूत्र 101, 103 में बताये गये हैं। नगम-व्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता 147. से कि तं गंगम-ववहाराणं भंगोवदंसणया ? गम-ववहाराणं भंगोचदंसगया तिपएसोगाढे आणुपुन्वी एगपएसोगाढे अणाणुपुल्वी दुपएसोगाढे अवत्तव्वए, तिपएसोगाढाओ आणुपुवीओ एगपएसोगाढाओ अणाणुपुचीओ दुपएसोगाढाई अवत्तव्वयाई, अहवा तिपएसोगाढे य एगपएसोगाढे य आणुपुत्वी य अणाणुपुत्वी य, एवं तहा चेव दवाणुपुटवीगमेणं छब्बीसं भंगा भाणियव्वा जाव से तं गम-ववहाराणं भंगोवदंसणया। (147 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता का क्या स्वरूप है ? [147 उ.] आयुष्मन् ! तीन प्राकाशप्रदेशावगाढ व्यणुकादि स्कन्ध प्रानुपूर्वी पद का वाच्य हैं--प्रानुपूर्वी हैं। एक प्राकाशप्रदेशावगाही परमाणुसंघात अनानुपूर्वी तथा दो अाकाशप्रदेशावगाही चणुकादि स्कन्ध क्षेत्रापेक्षा अवक्तव्यक कहलाता है / तीन आकाशप्रदेशाबगाही अनेक स्कन्ध 'मानुपूवियो' इस बहुवचनान्त पद के वाच्य हैं, एक एक आकाशप्रदेशावगाही अनेक परमाणुसंघात 'अनानुपूवियां' पद के लथा द्वि आकाराप्रदेशावगाही द्वयणुक आदि अनेक द्रव्यस्कन्ध 'प्रवक्तव्यक' पद के वाच्य हैं। अथवा त्रिप्रदेशावगाढस्कन्ध और एक प्रदेशावगाढस्कन्ध एक प्रानुपूर्वी और एक अनानुपूर्वी है। इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी के पाठ की तरह छब्बीस भंग यहाँ भी जानने चाहिये यावत् यह नैगमव्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता का स्वरूप है। विवेचन-सूत्र में भंगोपदर्शनता का स्वरूप स्पष्ट किया है / यहाँ बताये गये छब्बीस भंगों का वर्णन द्रव्यानुपूर्वी के अनुरूप है। लेकिन दोनों के वर्णन में यह भिन्नता है कि द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरणगत प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक पदों के वाच्यार्थ त्रिप्रदेशिक ग्रादि स्कन्ध, एकप्रदेशी पुद्गलपरमाणु और द्विप्रदेशीस्कन्ध हैं जबकि इस क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकरणगत भंगोपदर्शनता Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [95 में अाकाश के तीन प्रदेशों में स्थित त्रिप्रदेशिक आदि स्कन्ध ही प्रानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ माने हैं किन्तु एक या दो अाकाशप्रदेशों में स्थित त्रिप्रदेशिक आदि स्कन्ध प्रानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ नहीं हैं / क्योंकि यह पूर्व में कहा जा चुका है कि विप्रदेशिक स्कन्ध अाकाश के एक प्रदेश में भी, दो प्रदेशों में भी और तीन प्रदेशों में भी अवगाढ हो सकता है। इसलिये क्षेत्रानुपूर्वी में यदि त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अाकाश के एक प्रदेश में अवगाढ है तो वह क्षेत्र की अपेक्षा अनानुपूर्वी और यदि दो प्रदेशों में अवगाढ है तो अवक्तव्यक शब्द का वाच्य होगा / इसी तरह असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अाकाय के एक. दो, तीन प्रादि प्रदेशों में और असंख्यात प्रदेशों में भी ठहर सकता है। प्रतः क्षेत्र की अपेक्षा यह असंख्याताणक स्कन्ध भी एक प्रदेश में स्थित होने पर अनानुपूर्वी माना जाएगा और दो प्रदेशों में अवगाद होने पर प्रवक्तव्यक तथा तीन से लेकर असंख्यात प्रदेशों तक में स्थित होने पर प्रानुपूर्वी माना जायेगा / इस दृष्टि को ध्यान में रखकर क्षेत्र की अपेक्षा प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक इन एकवचनान्त एवं बहुवचनान्त पदों के असंयोग और संयोग से बनने वाले छब्बीस भंगों का वाच्यार्थ भंगोपदर्शनता में समझ लेना चाहिये / नगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वी को समवतारप्ररूपणा 148. [1] से कि तं समोयारे ? समोयारे णेगम-ववहाराणं प्राणुपुत्वीदव्वाई कहि समोयरंति ? किं आणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुब्वोदब्वेहि समोयरंति ? अवत्तन्वयदव्वेहि समोयरंति ? आणुपुटवीदव्वाइं आणुपुवीदवेहि समोयरंति, नो अणाणुपुव्वोदवेहि समोयरंति नो अवत्तन्वयदव्वेहि समोयरंति / 148-1 प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत अानुपूर्वी द्रव्यों का समावेश कहाँ होता है ? क्या प्रानुपूर्वी द्रव्यों में, अनानुपूर्वी द्रव्यों में अथवा प्रवक्तव्यक द्रव्यों में समावेश होता है ? [148-1 उ. प्रायुष्मन् ! प्रानुपूर्वी द्रव्य पानुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं, किन्तु अनानुपूर्वी द्रव्यों और प्रवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट नहीं होते हैं / [2] एवं तिणि वि सट्टाणे समोयरंति ति भाणियन्वं / से तं समोयारे / [2] इस प्रकार तीनों स्व-स्व स्थान में ही समाविष्ट होते हैं / यह ममवतार का स्वरूप है। विवेचन -सूत्र में समवतार का स्वरूप बताया है। ममवतार का अर्थ है समाविष्ट होना, एक का दूसरे में मिल जाना। यह समबनार स्वजाति रूप द्रव्यों में होता है. परजाति रूप में नहीं / यही समवतार का स्वरूप है / Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96] [अनुयोगद्वारसूत्र नैगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वो-अनुगमप्ररूपणा 146. से कि तं अणुगमे ? अणुगमे गविहे पण्णत्ते / तं जहा-- संतपयपरूवणया 1 दव्वपमाणं 2 च खेत्त 3 फुसणा 4 य / कालो 5 य अंतरं 6 भाग 7 भाव 8 अप्पाबहुं 6 चैव // 10 // {149 प्र.] भगवन् ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? [149 उ.] अायुष्मन् ! अनुगम नौ प्रकार का कहा है / यथा-(गाथार्थ) 1 सत्पदप्ररूपणता, 2 द्रव्य प्रमाण, 3 क्षेत्र, 4 स्पर्शना, 5 काल, 6 अंतर, 7 भाग, 8 भाव और 9 अल्पबहुत्व / विवेचन--सूत्र में अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी संबन्धी अनुगम के भेदों के नाम गिनाये हैं / इन नौ भेदों के लक्षण पूर्वोक्त अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी-अनुगम के अनुरूप समझ लेना चाहिये। अब यथाक्रम इन नौ भेदों की वक्तव्यता का प्राशय स्पष्ट करते हैं। अनुगमसंबन्धी सत्पदप्ररूपणता 150. से कि तं संतपयपरूवणया ? णेगम-ववहाराणं खेत्ताणुपुब्बीदव्वाइं कि अस्थि पत्थि ? णियमा अस्थि / एवं दोणि वि / [150 प्र.) भगवन् ! सत्पदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वीद्रव्य (मत्-अस्तित्व-रूप) हैं या नहीं ? [150 उ.] आयुष्मन् ! नियमतः हैं। इसी प्रकार दोनों अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये कि वे भी नियमत:-निश्चित रूप से हैं। अनुगमसंबन्धी द्रव्यप्रमाण 151. णेगम-बवहाराणं आणुपुवीदव्वाइं कि संखेज्जाइं असंखेज्जाई अणंताई ? मो संखेज्जाइं नो अणंताई, नियमा असंखेज्जाई / एवं दोण्णि बि / [151 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं? [151 उ.] अायुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वी द्रव्य न तो संख्यात हैं और न अनन्त हैं किन्तु नियमतः असंख्यात हैं। इसी प्रकार दोनों अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये। विवेचन--सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का प्रमाण असंख्यात बतलाया है। क्योंकि आकाश के तीन प्रदेशों में स्थित द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा प्रानुपूर्वी रूप हैं और तीन ग्रादि प्रदेश वाले स्कन्धों के आधारभूत क्षेत्रविभाग असंख्यातप्रदेशी लोक में असंख्यात हैं। इसलिये द्रव्य की अपेक्षा बहुत प्रानुपूर्वी द्रव्य भी आकाश रूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों में तीन, चार, पांच, छह आदि से लेकर अनन्तप्रदेश(परमाणु)वाले अनेक आनुपूर्वीद्रव्य अवगाढ होकर रहते हैं। अत: ये सब द्रव्य तुल्य Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] प्रदेशावगाही होने के कारण एक हैं / क्षेत्रानुपूर्वी में लोक के ऐसे त्रिप्रदेशात्मक विभाग असंख्यात हैं / इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य भी तत्तुल्य संख्या वाले होने के कारण असंख्यात होते हैं। इसी प्रकार प्रानुपूर्वी द्रव्य की तरह अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्य भी असंख्यात हैं। तात्पर्य यह है कि लोक के एक-एक प्रदेश में अवगाही अनेक द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा एक ही अनानुपूर्वी रूप हैं और असंख्यात इसलिये हैं कि लोक असंख्यातप्रदेशी है और लोक के एक-एक प्रदेश में ये एकएक रहते हैं तथा दो प्रदेशों में स्थित बहुत भी द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा प्रवक्तव्यक द्रव्य हैं। क्योंकि अाकाश के दो प्रदेश रूप विभाग असंख्यात होते हैं, इसलिये अाधार की अपेक्षा तदवगाही द्रव्य भी असंख्यात हैं। क्षेत्रानुपूर्वी को अनुगमान्तर्वर्ती क्षेत्रप्ररूपणा 152. [1] गम-ववहाराणं खेत्ताणुपुम्बीदवाई लोगस्स कतिभागे होज्जा ? कि संखिज्जइभागे वा होज्जा? असंखेज्जहभागे वा होज्जा ? जाव सम्वलोए वा होज्जा ? एगदन्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा असंखेज्जइभागे वा होज्जा संखेज्जेसु का भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा देसूणे वा लोए होज्जा, णाणादब्वाई पडुच्च णियमा सम्वलोए होज्जा। |152-1 प्र.| भगवन् ! नेगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में रहते हैं ? क्या संख्यातवें भाग में, असंख्यातवें भाग में यावत् सर्वलोक में रहते हैं ? [152-1 उ.] आयुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में, असंख्यातवें भाग में. संख्यातभागों में, असंख्यातभागों में अथवा देशोन लोक में रहते हैं, किन्तु विविध द्रव्यों की अपेक्षा नियमत: मर्वलोकव्यापी हैं। [2] अणाणुपुचीदवाणं पुच्छा, एग दव्वं पडुच्च नो संखिज्जतिभागे होज्जा असंखिज्जतिभागे होज्जा नो संखेज्जेसु० नो असंखेज्जेसु० नो सम्वलोए होज्जा, नाणादवाइं पडुच्च नियमा सवलोए होज्जा। | 152-2 प्र. | नँगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वी द्रव्य के विषय में भी यही प्रश्न है। [152-2 उ.] यायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग में, संख्यात भागों में, असंख्यात भागों में अथवा सर्वलोक में अवगाढ नहीं है किन्तु असंख्यातवें भाग में है तथा अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वलोक में व्याप्त हैं। [3] एवं अवत्तव्वगदम्वाणि वि भाणियवाणि / |3] प्रवक्तव्यक द्रव्यों के लिये भी इसी प्रकार जानना चाहिये। विवेचन -सूत्र में एक और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा क्षेत्रानुपूर्वी के द्रव्यों की क्षेत्रप्ररूपणा की है। उसका प्राशय यह है--एक आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्य की अपेक्षा तो लोक के संख्यातवें या असंख्यातवें भाग में, संख्यात भागों या असंख्यात भागों में रहता है और देशोन लोक में भी रहता है / इसका कारण Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [अनुयोगद्वारसूत्र यह है कि स्कन्ध द्रव्यों की परिणमनशक्ति विचित्र प्रकार की होती है। अतः विचित्र प्रकार की परिणमनशक्ति वाले होने के कारण स्कन्ध द्रव्यों का अवगाह लोक के संख्यात आदि भागों में होता है / क्योंकि विशिष्ट क्षेत्र में अवगाह से उपलक्षित हुए स्कन्ध द्रव्यों को ही क्षेत्रानुपूर्वी रूप से कहा गया है। प्रश्न-क्षेत्रानुपूर्वी के प्रसंग में एक द्रव्य की अपेक्षा अानुपूर्वी द्रव्य को देशोन लोक में अवगाढ होना बताया है किन्तु द्रव्यानुपूर्वी में अनन्तानन्त परमाणुओं से निष्पन्न एवं पुद्गलद्रव्य के सबसे बड़े स्कन्ध रूप अचित्त महास्कन्ध को सर्वलोकव्यापी कहा है। इस प्रकार अचित्त महास्कन्ध की अपेक्षा एक प्रानुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त होता है। अत: यहाँ (क्षेत्रानुपूर्वी में) जो एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा देशोन लोक में अवगाहना कही है, वह युक्तियुक्त कैसे है ? उत्तर-इस जिज्ञासा के समाधान के लिये यह समझना चाहिये कि यह लोक आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों से सदा व्याप्त है, अशून्य है। अतएव यदि ग्रानुपूर्वी द्रव्य को सर्वलोकव्यापी माना जाये तो फिर अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों के ठहरने के लिये स्थान न होने के कारण उनका प्रभाव मानना पड़ेगा। किन्तु जब देशोन लोक में एक प्रानुपूर्वी द्रव्य व्याप्त होकर रहता है, ऐसा मानते हैं तब अचित्त महास्कन्ध से पूरित हुए लोक में कम-से-कम एक प्रदेश और द्विप्रदेश ऐसे भी रह जाते हैं जो क्रमशः अनानुपूर्वी द्रव्य के विषयरूप से तथा अवक्तव्यक द्रव्य के विषयरूप से विवक्षित हो जाते हैं। इन एक और दो प्रदेशों में पानुपूर्वी द्रव्य का सद्भाव रहता है तो भी अप्रधान होने से उसकी नहीं किन्तु अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों की प्रधानता होने से विवक्षा की जाती है। इसीलिये एक प्रानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा से देशोन लोक में अवगाहित कहा गया है। सारांश यह है कि क्षेत्रानुपूर्वी में यदि लोक के समस्त प्रदेश ग्रानुपूर्वी रूप मान लिये जायें तो उस स्थिति में अनानुपूर्वी और अवनव्यक प्रदेश कौन से होंगे जिनमें अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य ठहर सकें ? अतः यह मानना चाहिये कि क्षेत्रानुपूर्वी में एक प्रदेश अनानुपूर्वी का विषय है और दो प्रदेश प्रवक्तव्यक के विषय हैं / अतः अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों के विषयभूत प्रदेश को छोड़कर शेष समस्त प्रदेश प्रानुपूर्वी रूप हैं। इस प्रकार क्षेत्रानुपूर्वी में एक प्रानुपुढे द्रव्य की अपेक्षा देशोन समस्त लोक में पानुपूर्वी द्रव्य अवगाह हैं, यह जानना चाहिए। एक अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाही इसलिये माना है कि अनानुपूर्वी रूप से वही द्रव्य विवक्षित हुअा है जो लोक के एक प्रदेश में अवगाढ हो और लोक का एक प्रदेश लोक का असंख्यातवाँ भाग है / नाना अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वलोकन्यापी इसलिये माने हैं कि एक-एक प्रदेश में अवगाढ अनानुपूर्वी द्रव्यों के भेद समस्त लोक को व्याप्त किये हुए हैं। प्रवक्तव्यक द्रव्यों की वक्तव्यता भी अनानुपूर्वी द्रव्यों के समान कथन करने का प्राशय यह है कि एक अवक्तव्यक द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाहित रहता है। क्योंकि लोक के प्रदेशद्वय में अवगाढ हुए द्रव्य को प्रवक्तव्यक द्रव्य रूप से कहा गया है और ये दो प्रदेश लोक के असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग रूप हैं तथा जितने भी प्रवक्तव्यक द्रव्य हैं वे सभी लोक के दो-दो प्रदेशों में रहने के कारण सर्वलोकव्यापी माने गये हैं। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण एक ही क्षेत्र में परस्पर विरुद्ध आनुपूर्वो आदि व्यपदेश कैसे संगत ?- अनानुपूर्वी आदि द्रव्यों के सर्वलोकव्यापी होने पर भी एक ही क्षेत्र में प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक ये तीनों पृथक्पृथक् विषय वाले होने पर भी इनकी संगति इस प्रकार है कि अयादि प्रदेशों में अवगाढ ग्रानुपूर्वी द्रव्य से एक प्रदेशावगाढ द्रव्य भिन्न है और इन दोनों से द्विप्रदेशावगाढ भिन्न है। इस प्रकार प्राधेय रूप अवगाहक द्रव्य के भेद से प्राधार रूप अवगाह्य क्षेत्र में व्यपदेशभेद होना युक्त ही है। क्योंकि भिन्न-भिन्न सहकारियों के संयोग से तत्तद् धर्म की अभिव्यक्ति होने पर अनन्त धर्मात्मक एक ही वस्तु में युगपत् व्यपदेशभेद होना देखा जाता है। जैसे खङ्ग, कुन्त, कवच आदि से युक्त एक ही व्यक्ति को खङ्गी, कुन्ती, कवची आदि कहते हैं। अनुगमगत स्पर्शनाप्ररूषणा 153. [1] गम-ववहाराण आणपन्दीदवाई लोगस्स कि संखेज्जइभागं फुसंति ? असंखेज्जति० 2 जाब सम्वलोगं फुसंति ? एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जतिभागं वा फुसंति असंखेज्जतिभागं वा संखेज्जे वा भागे असंखेज्जे वा भागे देसूणं वा लोगं फुसंति, जाणादव्वाई पडुच्च णियमा सव्वलोगं फुसंति / [153-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत पानुपूर्वी द्रव्य क्या (लोक के) संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? या असंख्यातव भाग का, संख्यातवें भागों का अथवा असंख्यातवें भागों का अथवा सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ? 153-1 उ. अायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग का, असंख्यावें भाग का, संख्यातवें भागों का, असंख्यावें भागों का अथवा देशोन सर्व लोक का स्पर्श करते हैं किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। [2] अणाणुपुवीदवाइं अवत्तव्ययदव्वाणि य जहा खेत्तं, नवरं फुसणा भाणियब्वा / [2] अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की स्पर्थना का कथन पूर्वोक्त क्षेत्र द्वार के अनुरूप समझना चाहिये, विशेषता इतनी है कि क्षेत्र के बदले यहाँ स्पर्शना (स्पर्ण करता है) कहना चाहिये। विवेचन--सूत्र में नेगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वी प्रादि द्रव्यों की स्पर्शना का निर्देश किया है। एक प्रानुर्वी आदि द्रव्य लोक के संख्यात प्रादि भाग से लेकर देशोन लोक का स्पर्श करते हैं / एक आनुपूर्वी द्रव्य को देशोन लोक की स्पर्शना कहने का कारण यह है कि यदि एक प्रानुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक का स्पर्श करे तो अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों को रहने का अवकाश प्राप्त नहीं हो सकेगा और तब उन दोनों का प्रभाव मानना पड़ेगा। अत: इन दोनों द्रव्यों का सद्भाव बताने और इन्हें भी अवकाश प्राप्त होने के लिए एक आनुपूर्वी द्रव्य की स्पर्शना देशोन सर्व लोक बताई है। शेष वर्णन पूर्वोक्त क्षेत्र प्ररूपणावत् है / अनुगमगत कालप्ररूपणा 154. णेगम-ववहाराणं आणुपुटवीदवाई कालतो केवचिरं होति ? Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वारसूत्र एगदव्धं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, णाणादब्वाइं पडुच्च सम्बद्धा / एवं दोणि वि। [154 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयमम्मत ग्रानुपूर्वी द्रव्य काल की अपेक्षा कितने समय तक (ग्रानुपूर्वी द्रव्य के रूप में) रहते हैं / / [154 उ.] आयुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक ममय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहते | विविध द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः (प्रानपूर्वी द्रव्यों की स्थिति) सार्वकालिक है / इसी प्रकार दोनों---अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों की भी स्थिति जानना चाहिये। विवेचन--प्रश्न किया गया है कि प्रानुपूर्वी आदि द्रव्य अपने-अपने रूप में कब तक रहते हैं ? इसका उत्तर एक और अनेक द्रब्य को प्राश्रित करके दिया है। जिसका निष्कर्ष यह है एक द्रव्य की अपेक्षा तो कम से कम एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक एक आनुपूर्वी द्रव्य क्षेत्र में अवगाढ रहता है। यानी द्विप्रदेश या एक प्रदेश में अवगाहित हुअा द्रव्य परिणमन की विचित्रता से जव प्रदेशत्रय आदि में अवगाहित होता है, उस समय उसमें ग्रानुपूर्वी ऐसा व्यपदेश हो जाता है / अब यदि वह द्रव्य एक समय तक वहाँ अवगाहित रहकर बाद में पहले की तरह दो प्रदेशों में या एक प्रदेश में अवगाहित हो जाए तब वह क्षेत्रापेक्षया आनुपूर्वी द्रव्य नहीं रहता, अत: उसकी स्थिति एक समय की है। लेकिन जब वहीं अानुपूर्वी द्रव्य असंख्यात काल तक तीन अादि अाकाशप्रदेशों में अवगाढ रहकर पुन: द्विप्रदेशावगाढ या एकप्रदेशावगाही बनता है तब उस पानुपूर्वी द्रव्य की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल की होती है / इसी प्रकार एक अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य द्रव्य की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के विषय में समझना चाहिये / एक आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की उत्कृष्ट स्थिति अनन्त काल इसलिये नहीं है कि एक द्रव्य अधिक से अधिक असंख्यात काल तक ही एक रूप में अवगाढ रह सकता है / अनेक आनुपूर्वी आदि तीनों द्रव्यों का अवस्थान सार्वकालिक मानने का कारण यह है कि ऐसा कोई भी समय नहीं है कि जिसमें कोई न कोई आनुपूर्वी आदि द्रव्य अवगाहित न हों। अनुगमगत अन्तरप्ररूपणा | 155. णेगमबवहाराणं आणुपुत्वीदवाणमंतरं कालतो केवचिरं होति ? तिण्णि वि एणं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, णाणादवाई पडुच्च णस्थि अंतरं। [155 प्र.] भगवन् ! नंगम-व्यवहारनयमम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों का काल की अपेक्षा अन्तर कितने समय का है ? [155 उ.] अायुष्मन् ! तीनों (आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों) का अन्तर एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण 101 विवेचन-सूत्र में एक और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तरप्ररूपणा की गई है। प्रश्नोत्तर में भिन्नता क्यों ? यद्यपि प्रश्न तो पानुपूर्वी द्रव्यों को आश्रित करके किया है लेकिन उत्तर में 'तिण्ण वि' तीनों को ग्रहण इसलिये किया है कि इन तीनों द्रव्यों का अन्तर समान है। जिसका भाव यह है कि जिस समय कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य किसी एक विवक्षित क्षेत्र में एक समय तक अवगाढ रह कर किसी दूसरे क्षेत्र में अवगाहित हो जाता है और फिर पुनः अकेला या किसी दूसरे द्रव्य से संयुक्त होकर उसी विवक्षित आकाशप्रदेश में अवगाढ होता है तो उस समय उस एक आनुपूर्वी द्रव्य का अन्तरकाल-विरहकाल जघन्य एक समय है तथा जब वही द्रव्य अन्य क्षेत्र-प्रदेशों में असंख्यात काल तक अवगाढ रह कर मात्र उसी अथवा अन्य द्रव्यों से संयुक्त होकर पूर्व के ही अवगाहित क्षेत्रप्रदेश में अवगाहित होता है तब उत्कृष्ट विरहकाल असंख्यात काल होता है। अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों के लिये भी इसी प्रकार जानना चाहिये। विरहकाल अनन्तकालिक क्यों नहीं?–यद्यपि द्रव्यानुपूर्वी में एक द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट विहरकाल अनन्तकाल का बताया है / परन्तु क्षेत्रानुपूर्वी में असंख्यात काल का इसलिये माना गया है कि द्रव्यानुपूर्वी में तो विवक्षितद्रव्य से दूसरे द्रव्य अनन्त हैं। अतः उनके साथ क्रम-क्रम से संयोग होने पर पुनः अपने स्वरूप की प्राप्ति में उसे अनन्त काल लग जाता है / परन्तु यहाँ (क्षेत्रानुपूर्वी में) विवक्षित अवगाहक्षेत्र से अन्य क्षेत्र असंख्यात प्रदेश प्रमाण ही है। इसलिये प्रतिस्थान में अवगाहना की अपेक्षा उसकी संयोगस्थिति असंख्यात काल है। जिससे विवक्षित प्रदेश से अन्य असंख्यात क्षेत्र में परिभ्रमण करता हुआ द्रव्य पुन: उसी विवक्षित प्रदेश में अन्य द्रव्य से संयुक्त होकर या अकेला ही असंख्यात काल के बाद अवगाहित होता है। नाना द्रव्यों को अपेक्षा अंतर क्यों नहीं ?- सभी प्रानुपूर्वी द्रव्य एक साथ अपने स्वभाव को छोड़ते नहीं हैं। क्योंकि असंख्यात ग्रानुपूर्वी द्रव्य सदैव विद्यमान रहते हैं। अतएव नाना द्रव्यों की अपेक्षा अंतर नहीं है / अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों के अंतर का विचार भी इसी प्रकार जानना चाहिये। अनुगमगत भागप्ररूपणा 156. णेगम-ववहाराणं आणुपुवीदव्वाइं सेसदवाणं कतिभागे होज्जा ? तिणि वि जहा दव्वाणुपुवीए। [156 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत प्रानुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग प्रमाण होते हैं ? [156 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्यानुपूर्वी जैसा ही कथन तीनों द्रव्यों के लिये यहाँ भी समझना चाहिये। विवेचन --सूत्र में द्रव्यानुपूर्वी के अतिदेश द्वारा क्षेत्रानुपूर्वी के द्रव्यों की भागप्ररूपणा का कथन किया है। इसका भाव यह है कि अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यान भागों से अधिक हैं तथा शेष द्रव्य प्रानुपूर्वी द्रव्यों के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। ___ आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात भागाधिक कैसे ? -- प्रानुपूर्वी द्रव्य को असंख्यात भागों से अधिक मानने पर जिज्ञासु का प्रश्न है Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 अनुयोगद्वारसूत्र यह पूर्व में कहा है कि तीन आदि प्रदेशों में स्थित द्रव्य प्रानुपूर्वी हैं, एक-एक प्रदेश में स्थित अनानुपूर्वी और दो-दो प्रदेशों में स्थित द्रव्य प्रवक्तव्यक हैं और ये तीनों द्रव्य सर्वलोकव्यापी हैं / अत: विचार करने पर आनुपूर्वी द्रव्य सबसे अल्प सिद्ध होते हैं। वह इस प्रकार लोक असंख्यातप्रदेशी हैं। लेकिन उन असंख्यात प्रदेशों को असत्कल्पना से 30 मानकर उन प्रदेशों के स्थान पर 30 रखें। इन तीस प्रदेशों में एक-एक अनानुपूर्वी द्रव्य अवगाहित है, अतः अनानुपूर्वी द्रव्यों की संख्या 30 तथा एक-एक प्रवक्तव्यक द्रव्य लोक के दो-दो प्रदेशों में अवगाढ होने के कारण उनकी संख्या 15 तथा मानुपूर्वी द्रव्य लोक के तीन-तीन प्रदेशों में अवगाढ होने से उनकी संख्या 10 अाती है। बहुत से आनुपूर्वी द्रव्य तीन से लेकर असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ हैं, अत: उनकी संख्या और भी कम होनी चाहिए / इस प्रकार विचार करने पर वे कम ही प्राप्त होते हैं। उत्तर यह है कि जो अाकाशप्रदेश एक प्रानुपूर्वी द्रव्य से अवगाढ होते हैं, वे ही यदि अन्य प्रानुपूर्वी द्रव्यों से अवगाढ नहीं हों तो पूर्वोक्त कथन युक्तिसंगत माना जा सकता है, परन्तु ऐसा है नहीं / क्योंकि एक आनुपूर्वी द्रव्य में जो तीन आकाशप्रदेश उपयुक्त होते हैं, वे ही तीन प्रदेश अन्य-अन्य ग्रानुपुर्वी द्रव्यों द्वारा भी अवगाढ होते हैं। इसलिये लोक का एक-ाक प्रदेश अनेक त्रिकसंयोगी प्रानपूर्वी द्रव्यों का प्राधार होता है। इसी प्रकार से चत: संयोगी यावत असंख्यात संयोगी द्रव्यों के विषयों में भी जानना चाहिये / इस प्रकार एक-एक आकाशप्रदेश अनेकानेक त्रि-अणुकादि प्रानुपूर्वी द्रव्यों से संयुक्त होता है। प्रानुपूर्वी द्रव्य रूप प्राधेय के भेद से प्रत्येक प्रदेश रूप आधार का भी भेद हो जाता है। क्योंकि आकाशप्रदेश जिस स्वरूप से एक आधेय से उपयुक्त होते हैं, उसी स्वरूप से वे दूसरे प्राधेय से उपयुक्त नहीं होते हैं। यदि ऐसा ही माना जाये कि अाकाशप्रदेश जिस स्वरूप से एक ग्राधेय से संयुक्त होते हैं, उसी स्वरूप से वे अन्य प्राधेय से भी संयुक्त होते हैं तो एक प्राधार में उनकी अवगाहना होने से उन अनेक प्राधेयों में घट में घट के स्वरूप की तरह एकता प्रसक्त होगी। इसलिये अपने स्वरूप की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी लोक में जितने भी त्रिकुसंयोगादि से लेकर असंख्यात संयोग पर्यन्त के संयोग हैं, उतने ही प्रानुपूर्वी द्रव्य हैं / ये प्रानुपूर्वी द्रव्य तीन आदि संयोगों के बहुत होने के कारण बहुसंख्या वाले हैं और अवक्तव्यक द्रव्य द्विक संयोगों के कम होने के कारण कम हैं तथा अनानुपूर्वीद्रव्य लोकप्रदेशों की संख्या के बराबर होने के कारण उनसे भी कम ही हैं। अनुगमगत भावप्ररूपरणा 157. गम-ववहाराणं आणुपुत्वीदवाई कयरम्मि भावे होज्जा ? तिन्नि वि णियमा सादिपारिणामिए भावे होज्जा / [157 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य किस भाव में वर्तते हैं ? [157 उ.] आयुष्मन् ! तीनों ही (आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी, प्रवक्तव्यक) द्रव्य नियमतः सादि पारिणामिक भाव में वर्तते हैं / विवेचन--सूत्रार्थ सुगम है। इस भावप्ररूपणा का तात्पर्य यह है कि तीन आदि प्रदेशों में प्रानुपूर्वी द्रव्यों का अवगाहपरिणाम, एक प्रदेश में अनानुपूर्वी द्रव्यों का अवगाहपरिणाम और द्विप्नदेशों Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुषी निरूपण [103 में अवक्तव्यक द्रव्यों का अवगाहपरिणाम मादि है। इसलिये ये सब द्रव्य सादिपारिणामिक भाववर्ती हैं।' अनुगमगत अल्पबहुत्वप्ररूपणा 158. [1] एएसि गं भंते ! गम-बवहाराणं आणुपुत्वीदव्वाणं अणाणुपुत्वीदध्वाणं अवत्तन्वयदव्वाण य दवट्टयाए पएसट्टयाए दब्वट्ठपएसट्ठयाए य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवाइं गम-ववहाराणं अवत्तम्बयदव्वाइं दब्बट्ठयाए, अणाणुयुब्बोदवाई दम्वट्ठयाए विसेसाहियाई, आणुपुटवीदवाइं दब्बठ्ठयाए असंखेज्जगुणाई / [158-1 प्र.] भगवन् ! इन नैगम-व्यवहारनयसंमत प्रानुपूर्वी द्रव्यों, अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्य क द्रव्यों में कौन द्रव्य किन द्रव्यों से द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थता की अपेक्षा अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [158-1 उ. गौतम ! नैगम-ज्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा सब से अल्प हैं / द्रव्यार्थना की अपेक्षा अनानुयूर्वी द्रव्य अवक्तव्यक द्रव्यों से विशेषाधिक है और आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्यातगुण हैं / [2] पएसठ्ठयाए सम्वत्थोवाई गम-बवहाराणं अणाणुपुब्बीदवाइं अपएसठ्ठयाए, अवत्तम्वयदव्वाइं पएसठ्ठयाए विसेसाहिया, आणुपुब्बीदवाई पएसठ्ठयाए असंखेज्जगुणाई। 2] प्रदेशार्थता की अपेक्षा नैगम-व्यवहारतयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य अप्रदेशी होने के कारण सर्वस्तोक हैं। प्रदेशार्थता की अपेक्षा अवक्तव्यक द्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक हैं और प्रानुपुर्वी द्रव्य प्रदेशार्थता की अपेक्षा प्रवक्तव्यक द्रव्यों से असंख्यातगुण हैं। [3] दव्वट्ठ-पएसठ्ठयाए सव्वत्थोवाई गम-ववहाराणं अवत्तव्यदवाई दवट्ठयाए, अणाणुपुब्बीदव्वाई दव्वट्ठयाए अपएसट्ठयाए बिसेसाहियाई, अबत्तव्वयदव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुब्बोदव्वाई दवट्ठयाए असंखेज्जगुणाई, ताई चेव पएसठ्ठयाए असंखेन्जगुणाई। से तं अणुगमे / से तं गम-बवहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुब्बी / [3] द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थता की अपेक्षा में नैगम-व्यवहारनयसंमत अवक्तव्य क द्रव्य द्रव्यार्थ से सबसे अल्प है, (क्योंकि पूर्व में द्रव्यार्थता से प्रवक्तव्यक द्रव्यों में सर्वस्तोकता बताई है।) द्रव्यार्थता और अप्रदेशार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य प्रवक्तव्यक द्रव्यों से विशेषाधिक हैं। प्रवक्तव्यक द्रव्य ...- ---.-- . .. " -- - 1. किन्हीं किन्हीं प्रतियों में 'तिनिधि णियमा सादिपारिणामिए भावे होज्जा' के स्थान पर 'णियमा साइ पारिणामिए भावे होज्जा / एवं दोणिवि' पाठ है / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [अनुयोगद्वारसूत्र प्रदेशार्थता की अपेक्षा विशेषाधिक हैं। प्रानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा असंख्यातगुण है और उसी प्रकार प्रदेशार्थता की अपेक्षा भी असंख्यातगुण हैं / / इस प्रकार से अनुगम की वक्तव्यता जानना चाहिये तथा इसके साथ ही नैगम-व्यवहारनयसंमत अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन-सूत्र में क्षेत्रानुपूर्वी के अनुगमगत अल्पबहुत्व का निर्देश किया है / यहाँ यह जानना चाहिये द्रव्यों की गणना को द्रव्यार्थता तथा प्रदेशों की गणना को प्रदेशार्थता एवं द्रव्यों तथा प्रदेशों दोनों की गणना को द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थना या उभयार्थता कहते हैं। आनुपूर्वी में विशिष्ट द्रव्यों के अवगाह से उपलक्षित हुए नभःप्रदेशों में यह तीन नभःप्रदेशों का समूदाय है. यह चार नभःप्रदेशों का समुदाय है, इत्यादि रूप नभःप्रदेशसमुदाय द्रव्य हैं और इन समुदायों के जो ग्रारंभक हैं वे प्रदेश हैं / अनानपूर्वी में एक-एक प्रदेश-अवगाढ द्रव्य से उपलक्षित सकल आकाशप्रदेश पृथक्-पृथक प्रत्येक द्रव्य हैं / एक-एक प्रदेश रूप द्रव्य में अन्य प्रदेशों का रहना असंभव होने से यहाँ प्रदेश संभव नहीं हैं। प्रवक्तव्यकों में लोक में जितने-जितने दो-दो प्रदेशों के योग हैं, उतने प्रत्येक द्रव्य हैं और इन द्विकयोगों को प्रारंभ करने वाले प्रदेश हैं। शेष अल्पबहुत्व का कथन सुगम है / इस वर्णन के साथ नैगम-व्यवहारनयसंमत अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन समाप्त हुआ। अब क्रमप्राप्त संग्रहह्नयसंमत अनोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन प्रारंभ करते हैं / संग्रहनयसंमत अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वीप्ररूपणा 159. से कि तं संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणपुवी ? जहेव दवाणुपुवी तहेव खेत्ताणुपुल्वी यव्वा / से तं संगहस्स अगोवणिहिया खेत्ताणपुवी। से तं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुम्बी। [159 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसंमत अनोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [159 उ.] आयुष्मन् ! पूर्वोक्त संग्रहनयसमत अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी की तरह इस क्षेत्रानुपूर्वी का भी स्वरूप जानना चाहिये / इस प्रकार से संग्रहनयसंमत अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी की और साथ ही अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी की वक्तव्यता समाप्त हुई / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [105 विवेचन--सूत्र में संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के अतिदेश द्वारा क्षेत्रानुपूर्वी के वर्णन करने का संकेत किया है। लेकिन किसी-किसी प्रति में इस संक्षिप्त कथन से सम्बन्धित सूत्रपाठ इस प्रकार है से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुवी ? संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुब्बी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा--प्रत्थपयपरूवणया 1, भंगसमुक्कित्तणया 2, भंगोवदंसणया 3, समोयारे 4, अणुगमे 5 / से किं तं संगहस्स अत्थपयपरूवणया? संगहम्स अत्थपयपरूवणया तिपएसोगाढे प्राणुपुत्री चउप्पासोगाढे आणुपुवी, जाब दसपए अणाणुपुत्वी, दुप्पएसोगाढे अवत्तव्वए / से तं संगहस्स अत्थपयपरूवणया / एयाए णं संगहस्स अत्थपयपरूबणयाए कि पोयणं ? संगहस्स प्रत्थपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया कज्जइ / संगहस्स भंगसमुश्कित्तणया अस्थि आणुपुब्बी, अत्थि अणाणुपुवी, अस्थि अवत्तव्वए / अहवा अस्थि प्राणुपुवी अणाणपुब्बी य, एव जहा दवाणुपुब्बीए संगहस्स तहा भाणियब्वं जाव से तं सगहस्स भंगस मुक्कित्तणया। एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए कि पयोयणं ? एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए संगहस्स भंगोवदंसणया कज्जइ / से कि तं संगहस्स भंगोवदंसणया? संगहस्स भंगोवदंसणया तिप्पएसोगाढे प्राणुपुब्बी, एगपएसोगाढे अणाणुपुवी, दुप्पएसोगाढे अवत्तत्रए / अहवा तिप्पएसोगाढे य एगपएसोगाढे य प्राणुघुवी य अणाणुपुवी य, एवं जहा दव्वाणुपुबीए संगहस्स तहा खेत्ताणुपुब्बीए वि भाणियच्वं जाव से तं संगहस्स भंगोवदंसणया। से किं तं समोयारे ? समोयारे संगहस्स प्राणुपुत्वीदव्वाई कहिं समोयरंति ? किं आणुपुवीदव्वेहि समोयरंति? अणाणुपुत्वीदव्वेहि ? अवत्तव्वगदसेहि ? तिण्णिवि सटाणे समोयरंति / से तं समोयारे। से किं तं अणुगमे ? अणुगमे अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा -- संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं नत्थि / संगहस्स प्राणुपुब्बीदवाइं कि अत्थि णस्थि ? णियमा अत्थि / एवं तिणि वि सेसगदाराई जहा दव्याणपुठवीए संगहस्स तहा खेत्ताणपुवीए वि भाणियव्वाइं जाब से तं अणुगमे / से तं संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुयी / से तं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुब्बी। इन सूत्रों का अर्थ-पूर्वोक्त द्रव्यानुपूर्वीगत पाठ की तरह जानना चाहिए / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [अनुयोगद्वारसूत्र अब क्षेत्रानुपूर्वी के दूसरे भेद प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी की प्ररूपणा प्रारम्भ करते हैं। इसके दो प्रकार हैं-विशेष और सामान्य / बहुवक्तव्य होने से पहले विशेषापेक्षया वर्णन करते हैं। औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी की विशेष प्ररूपणा 160. से कितं ओवणिहिया खेत्ताणपुवी ? ओणिहिया खेत्ताणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता। तं जहा---पुव्वाणुपुब्यो 1 पच्छाणुपुब्धो 2 अणाणुपुठवी 3 / [160 प्र.] भगवन् ! प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [160 उ.] आयुष्मन् ! औषनिधिको क्षेत्रातुपूर्वी के तीन भेद हैं। वे इस प्रकार-१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी और 3. अनानुपूर्वी / 161. से कि तं पुवाणुपुवी ? पुयाणुगुब्धी अहोलोए 1 तिरियलोए 2 उड्ढलोए 3 / से तं पुन्वाणुपुव्वी। [161 प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [161 उ.] आयुष्मन् ! 1. अधोलोक, 2. तिर्यक्लोक और 3. ऊवलोक, इस क्रम से (क्षेत्र-लोक का) निर्देश करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। 162. से कि तं पच्छाणुपुदी ? पच्छाणुपुन्वी उड्डलोए 3 तिरियलोए 2 अहोलोए 1 / से तं पच्छाणुपुव्वी / [162 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [162 उ.] अायुष्मन् ! पूर्वानुपूर्वी के क्रम के विपरीत 1. ऊर्ध्वलोक, 2. तिर्यक्लोक, 3. अधोलोक, इस प्रकार का क्रम पश्चानुपूर्वी है / 163. से कि तं अणाणुपुब्बी ? अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए तिगच्छगयाए सेढोए अनमन्नम्भासो दुरूवणो / से तं अणाणुपुत्वी। [163 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? [163 उ.] आयुष्मन् ! एक से प्रारम्भ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा निर्मित्त तीन पर्यन्त की श्रेणी में परस्पर गुणा करने पर निष्पन्न अन्योन्याभ्यस्त राशि में से आद्य और अतिम दो भंगों को छोड़कर जो राशि उत्पन्न हो वह अनानुपूर्वी है। विवेचन–इन तीन सूत्रों में प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का स्वरूप बतलाया है / औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में जैसे द्रव्यानुपूर्वी का अधिकार होने से धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को पूर्वानुपूर्वी प्रादि रूप में उदाहृत किया है, वैसे ही यहाँ क्षेत्रानुपूर्वी का प्रकरण होने से अधोलोक आदि क्षेत्र पूर्वानुपूर्वी आदि के रूप में उदाहृत हुए हैं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण [107 अधोलोक प्रादि भेद का कारण-लोक के अधोलोक आदि तीन भेद होने का मुख्य आधार मध्यलोक के बीचोंबीच स्थित सुमेरुपर्वत है। इसके नीचे का भाग अधोलोक और ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक तथा दोनों के बीच में मध्यलोक है। मध्यलोक का तिर्छा विस्तार अधिक होने से इसे तिर्यक्लोक भी कहते हैं। अधोलोक आदि का प्रारम्भ कहाँ से ?-- जैन भुगोल के अनुसार लोक ऊपर से नीचे तक लम्बाई में चौदह राज है और विस्तार में अनियत है। यह धर्मास्तिकाय अादि षड्द्रव्यों से व्याप्त है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर बहु सम भूभाग बाले मेरुपर्वत के मध्य में आकाश के दो-दो प्रदेशों के वर्ग (प्रतर) में आठ रुचक प्रदेश हैं। उनमें से एक अधस्तन प्रतर से लेकर नीचे के नौ सौ योजन गहराई को छोड़कर उससे नीचे अधोलोक है। इसी प्रकार उपरितन प्रतर से लेकर ऊपर के नौ सौ योजन छोड़कर ऊपर कुछ कम सात राजू लम्बा ऊर्ध्वलोक है। इन अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के बीच में अठारह सौ योजन प्रमाण ऊँचाई वाला तिर्यग्लोक-मध्यलोक है / अधोलोक आदि नामकरण का हेतु सामान्य रूप से तो मेरुपर्वत से नीचे का भाग अधोलोक, ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक और बराबर समरेखा में तिर्छा फैला क्षेत्र तिर्यग्लोक-मध्यलोक के नामकरण का हेतु है। लेकिन विशेषापेक्षया कारण यह है.---'अधः' शब्द अशुभ अर्थ का वाचक है। अतएव क्षेत्रस्वभाव से अधिकतर अशुभ द्रव्यों का परिणमन अधोलोक संज्ञा का हेतु है Tऊर्ध्व' शब्द शुभ अर्थ का वाचक है। अतएव ऊर्ध्वलोक में क्षेत्र-प्रभाव से द्रव्यों का परिणमन प्राय: शुभ हुअा करता है। अतएव शुभ परिणाम वाले द्रव्यों के सम्बन्ध से ऊर्ध्वलोक यह नाम है। तिर्यक् शब्द का एक अर्थ मध्यम भी होता है। अत: इस मध्यलोक में क्षेत्र-प्रभाव से प्रायः मध्यम परिणाम वाले द्रव्य होते हैं। इसलिये इन मध्यम परिणाम रूप द्रव्यों के संयोग बाले लोक का नाम मध्यलोक या तिर्थक्लोक है / अथवा अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के मध्य में स्थित होने से यह मध्यलोक कहलाता है। अधोलोक आदि का क्रमविन्यास---सूत्र में सर्वप्रथम अधोलोक के उपन्यास का कारण यह है कि वहाँ पर प्राय: जघन्य परिणाम वाले द्रव्यों का ही सम्बन्ध रहा करता है। इसीलिए जिस प्रकार चौदह गुणस्थानों में जघन्य होने से सर्वप्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान का उपन्यास किया जाता है, उसी प्रकार यहाँ पर भी जघन्य होने से अधोलोक का सर्वप्रथम उपन्यास किया है तथा मध्यम परिणाम वाले द्रव्यों के संबन्ध के कारण तत्पश्चात् तिर्यक्लोक का और उत्कृष्ट परिणाम वाले द्रव्यों के संबन्ध के कारण अन्त में ऊर्ध्वलोक का उपन्यास किया है। ___ यह कथन पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा जानना चाहिये / पश्चानुपूर्वी में पूर्वानुपूर्वो का व्युत्क्रम (विपरीत क्रम) है / अनानुपूर्वी में इन तीन पदों के छह भंग होते हैं / अनानुपूर्वी में प्रादि और अंत भंग छोड़ने का कारण यह है कि आदि का भंग पूर्वानुपूर्वी का और अंतिम भंग पश्चानुपूर्वी का है। अब पूर्वोक्त प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का लोकत्रयापेक्षा पृथक्-पृथक् वर्णन करते हैं / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] [अनुयोगद्वारसूत्र अधोलोकक्षेत्रानुपूर्वी 164. अहोलोयलेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा–पुव्वाणुपुच्वी 1 पच्छाणुपुव्वी 2 अगाणुपुत्रो 3 / [164] अधोलोकक्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही है / यथा... 1. पूर्वानुपूर्वी. 2. पश्चानुपूर्वी, 3. अनानुपूर्वी। 165. से कि तं पुवाणुपुवी ? पुवाणुपुब्बी रयणप्पभा 1 सक्करप्पभा 2 वालयप्पभा 3 पंकप्पभा 4 धूमप्पभा 5 तमप्पभा 6 तमतमध्यभा 7 / से तं पुन्वाणुपुवी / [165 प्र.] भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [165 उ.] आयुष्मन् ! 1. रत्नप्रभा. 2. शर्कराप्रभा, 3. बालुकाप्रभा, 4. पंकप्रभा, 5. धूमप्रभा, 6. तमःप्रभा, 7. तमस्तमःप्रभा, इस क्रम से ( सात नरकभूमियों के ) उपन्यास करने को अधोलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी कहते हैं। 166. से कि तं पच्छाणुपुची ? पच्छाणुपुन्वी तमतमा 7 जाव रयणप्पभा 1 / से तं पच्छाणुपुछी / [166 प्र.] भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है? [166 उ.] आयुष्मन् ! तमस्तमःप्रभा से लेकर यावत् रत्नप्रभा पर्यन्त व्युत्क्रम से (नरकभूमियों का) उपन्यास करना अधोलोकपश्चानुपूर्वी कहलाती है। 167. से कि तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुन्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए सत्तगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवणो। से तं अणाणुपुग्वी। [167 प्र.] भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [167 उ.] आयुष्मन् ! अधोलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है-अादि में एक स्थापित कर सात पर्यन्त एकोत्तर वृद्धि द्वारा निर्मित श्रेणी में परस्पर गुणा करने से निष्पन्न राशि में से प्रथम और अन्तिम दो भंगों को कम करने पर यह अनानुपूर्वी बनती है। विवेचन----प्रस्तुत चार सूत्रों में अधोलोकक्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन किया है / अधोलोक में रत्नप्रभा आदि सात नरकपृथ्वियां हैं। रत्नप्रभा प्रादि नाम का कारण-पहली नरकपृथ्वी का नाम रत्नप्रभा इसलिये है कि वहाँ नारक जीवों के प्रावास स्थानों से अतिरिक्त स्थानों में इन्द्रनील आदि अनेक प्रकार के रत्नों की प्रभा- कान्ति का सद्भाव है / शर्कराप्रभा नामक द्वितीय पृथ्वी में शर्करा-पाषाणखंड जैसी प्रभा है। बालुकाप्रभा में बालू-रेती जैसी प्रभा है। चौथी पंकप्रभापृथ्वी में कीचड़ जैसी प्रभा है / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण [109 धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तम:प्रभा पृथ्वियों में क्रमश: धूम-धंधा, अंधकार और गाढ़ अंधकार जैसी प्रभा है। इसी कारण सातों नरकपृथ्वियां सार्थक नाम वाली हैं। अनानुपूर्वी में एक आदि सात पर्यन्त सात अंकों का परस्पर गुणा करने पर 5040 भंग होते हैं। इनमें से आदि का भंग पूर्वानुपूर्वी और अंतिम भंग पश्चानुपूर्वी रूप होने से इन दो को छोड़कर शेष 5038 भंग अनानुपूर्वी के हैं। तिर्यग (मध्य) लोकक्षेत्रानपर्वो 168. तिरियलोयखेत्ताणुपुत्वी तिविहा पण्णता / तं जहा-पुन्वाणुपुव्वी 1 पच्छाणुपुब्वी 2 अणाणुपुव्वी 3 / [16] तिर्यग् (मध्य) लोकक्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद कहे गये हैं। वे इस प्रकार१. पूर्वानृपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी, 3. अनानुपूर्वी / 169. से कि तं पुग्वाणुपुची? पुव्वाणुपुन्वी जंबुद्दीवे लवणे धायइ-कालोय-पुक्खरे वरुणे। खीर-घय-खोय-नंदी-अरुणवरे कुडले रुयगे / / 11 // जंबुद्दीवाओ खलु निरंतरा, सेसया असंखइमा। भुयगवर-कुसवरा वि य कोंचवराभरणमाईया // 12 // आभरण-वत्थ-गधे उप्पल-तिलये य पउम-निहि-रयणे / वासहर-दह-गदीओ विजया वक्खार-कप्पिदा / / 13 // कुरु-मंदर-आवासा कडा नक्खत्त-चंद सूरा य / देवे नागे जवखे भूये य सयंभुरमणे य // 14 // से तं पुवाणुयुयी। [169. प्र. भगवन् ! मध्यलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [169. उ.] आयुष्मन् ! मध्यलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखंडद्वीप, कालोदधिसमुद्र, पुष्करद्वीप, (पुष्करोद) समुद्र, वरुणद्वीप, वरुणोदसमुद्र, क्षीरद्वीप, क्षीरोदसमुद्र, घृतद्वीप, धृतोदसमुद्र, इक्षुवरद्वीप, इक्षुवरसमुद्र, नन्दीद्वीप, नन्दीसमुद्र, अरुणवरद्वीप, अरुणवरसमुद्र, कुण्डलद्वीप, कुण्डलसमुद्र, रुचकद्वीप, रुचकसमुद्र / 11 / जम्बूद्वीप से लेकर ये सभी द्वीप-समुद्र बिना किसी अन्तर के एक दूसरे को घेरे हुए स्थित हैं / इनके आगे असंख्यात-असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अनन्तर भुजगवर तथा इसके अनन्तर असंख्यात द्वीप-समुद्रों के पश्चात् कुशवरद्वीप समुद्र है और इसके बाद भी असंख्यात द्वीप-समुद्रों के पश्चात् कौंचवर द्वीप है / पुनः असंखपात द्वीप-समुद्रों के पश्चात प्राभरणों आदि के सदश शुभ नाम वाले द्वीपसमुद्र हैं / 12 / यथा---- Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 {अनुयोगद्वारसूत्र प्राभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल, तिलक, पद्म, निधि, रत्न, बर्षधर, हृद, नदी, विजय, वक्षस्कार, कल्पेन्द्र / 13 / कुरु, मंदर, आवास, कट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्यदेव, नाग, यक्ष, भुत ग्रादि के पर्यायवाचक नामों वाले द्वीप-समुद्र असंख्यात हैं और अन्त में स्वयंभूरमणद्वीप एवं स्वयंभ्रमणसमुद्र है। यह मध्यलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी की बक्तव्यता है / 170. से कि तं पच्छाणुपुम्बी ? पच्छाणुपुब्धी सयंभुरमणे य भूए य जाव जंबुद्दीवे / से तं पच्छाणुपुथ्वी। [170 प्र.] भगवन् ! मध्यलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [170 उ.] आयुग्मन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र, भूतद्वीप अादि से लेकर जम्बुद्वीप पर्यन्त व्युत्क्रम से दीप-समुद्रों के उपन्यास करने को मध्यलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी कहते हैं। 171. से कि तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुवी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो / से तं अणाणुपुव्यो। [171 प्र.] भगवन् ! मध्यलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? 171 उ.] अायुष्मन् ! मध्यलोकक्षेत्रअनानुर्वी की वक्तव्यता इस प्रकार है-क से प्रारम्भ कर असंख्यात पर्यन्त की श्रेणी स्थापित कर उनका परम्पर गुणाकार करने पर निष्पन्न राशि में से आद्य और अन्तिम इन दो भंगों को छोड़कर मध्य के समस्त भंग मध्यलोकक्षेत्रअनानपूर्वी कहलाते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में मध्यलोकक्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण किया है। मध्यलोकवर्ती असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य में पहला द्वीप जम्बूद्वीप है और उसके बाद यथाक्रम से पागे-आगे समुद्र और द्वीप हैं। उनमें प्रथम द्वीप का नाम जम्बूवृक्ष से उपलक्षित होने से जम्बूद्वीप है और असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अन्त में स्वयंभूरमण नामक समुद्र है। ये सभी द्वीप-समुद्र दुने-दूने विस्तार वाले, पूर्व-पूर्व द्वीप समुद्र को वेष्टित किये हुए और चूड़ी के आकार वाले हैं। लेकिन जम्बूद्वीप लवणसमुद्र से घिरा हुआ थाली के आकार का है / इसके द्वारा अन्य कोई समुद्र वेष्टित नहीं है / इन असंख्यात द्वीप-समुद्रों की निश्चित संख्या अढ़ाई उद्धार सागरोपम के समयों की संख्या के बराबर है। मध्यलोक का भी मध्य यह जम्बुद्वीप एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है और इसके भी मध्य में एक लाख योजन ऊंचा सुमेरुपर्वत है जो अधो, मध्य एवं ऊर्ध्व लोक के विभाग का कारण है। गाथोक्त पुष्कर से लेकर स्वयंभूरमण तक के शब्द क्रमशः उस-उस नाम वाले द्वीप और समुद्र दोनों के वाचक जानना चाहिए। गाथोक्त द्वीप संख्या में भिन्नता---गाथा में नन्दीश्वरद्वीप के अनन्तर अरुणवर, कुंडल और रुचक इन तीन नामों का उल्लेख है, लेकिन अनुयोगद्वारणि में अरुणवर, अरुणावास, कुण्डलवर Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [111 शंखबर, रुचकवर इन पांच नामों को गिनाया है / इस प्रकार चूर्णि के मत से रुचकबर का क्रम तेरहवां और गाथानुसार ग्यारहवां है। समुद्रीय जलों का स्वाद-लवणसमुद्र लवण के समान रस वाले जल से पूरित है। कालोद एवं पुष्करोद का जल शुद्धोदक के रस-समान रस वाला है। बारुणोद वारुणीरसवत् , क्षीरोद क्षीररस जैसे, धृतोद घृत जैसे तथा इक्षुरससमुद्र इक्षुरस जैसे स्वाद से युक्त जल वाला है। इसके बाद के अन्तिम स्वयंभूरमणसमुद्र को छोड़कर शेष सभी समुद्र इक्षुरस जैसे स्वाद वाले जल से युक्त हैं। स्वयंभूरमणसमुद्र के जल का स्वाद शुद्ध जल जैसा है। सभी द्वीप-समुद्रों का नामोल्लेख क्यों नहीं सूत्रकार ने असंख्यात द्वीप-समुद्रों के नामों में से कतिपय का वो उल्लेख किया किन्तु उनके अतिरिक्त अंतरालबर्ती शेष द्वीप-समुद्रों का नामोल्लेख इसलिये नहीं किया है कि वे असंख्यात है किन्त लोक में शंख, ध्वज, कलश, स्वस्तिक, श्रीवत्म, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि जितने भी पदार्थों के शुभ नाम हो सकते हैं, उन सबसे उपलक्षित अन्त गलबनी द्वीप-समुद्रों के नाम जान लेना चाहिये। ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपर्छ 172. उडलोगखेत्ताणुपुन्वी तिविहा पण्णत्ता। तं जहा--पुन्वाणुपुब्बी 1 पच्छाणुपुवी 2 अणाणुपुब्बी 3 / [172] ऊर्ध्व लोकक्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की है। वह इस रूप से----१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी, 3. अनानुपूर्वी। 173. से कि तं पुयाणपुच्ची? पुन्वाणुपुब्बी सोहम्मे 1 ईसाणे 2 सणंकुमारे 3 माहिदे 4 बंभलोए 5 लंतए 6 महासुक्के 7 सहस्सारे 8 आणते 9 पाणते 10 आरणे :11 अच्चुते 12 गेवेज्जविमाणा 13 अणुत्तरविमाणा 14 ईसिपल्भारा 15 / से तं पुम्वाणुघुवी। [173 प्र.] भगवन् ! ऊर्यलोकक्षेत्रविषयक पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [173 उ. प्रायुष्मन् ! 1. सौधर्म, 2. ईशान, 3. सनत्कुमार, 4. माहेन्द्र, 5. ब्रह्मलोक, 6. लान्तक, 7. महाशुक्र, 8. सहस्रार, 9. आनत, 10. प्राणत, 11. पारण, 12. अच्युत, १३.३वेयकविमान, 14. अनुत्तरविमान, 15. ईषत्प्रारभारापृथ्वी, इस क्रम से ऊर्ध्वलोक के क्षेत्रों का उपन्यास करने को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी कहते हैं। 174. से कि तं पच्छाणुपुब्बी ? पच्छाणुपुवो ईसिपम्भारा 15 जाव सोहम्मे 1 / से तं पच्छाणुपुयी। [174 प्र. भगवन् ! ऊवलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [174 उ.] अायुष्मन् ! ईषत्प्रागभाराभूमि से सौधर्म कल्प तक के क्षेत्रों का व्युत्क्रम से उपन्यास करने को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी कहते हैं / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [अनुयोगद्वारसूत्र 175. से किं तं अणाणुयुव्वी ? अणाणुपुथ्वी एयाए चेव एगादिगाए एगुत्तरियाए पण्णरसगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णमासो दुरूवूणो / से तं अणाणुपुब्वी। [175 प्र.] भगवन् ! ऊर्ध्व लोकक्षेत्रअनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? [175 उ.] अायुष्मन् ! आदि में एक रखकर एकोत्तरवृद्धि द्वारा निमित्त पन्द्रह पर्यन्त की श्रेणी में परस्पर गुणा करने पर प्राप्त राशि में से आदि और अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष भंगों को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी कहते हैं। विवेचन—यहाँ ऊर्ध्वलोकक्षेत्रान पूर्वी का स्वरूप स्पष्ट किया है। सर्वप्रथम सौधर्मकल्प का उपन्यास इसलिये किया है कि वह प्ररूपणकर्ता से सर्वाधिक निकट है / सौधर्मनाम का कारण यह है कि उस क्षेत्र सम्बन्धी (बत्तीस लाख) विमानों में सौधर्मावतंसकविमान सर्वश्रेष्ठ है और वह इस विमान से युक्त है। इसी प्रकार से ईशान से लेकर अच्युत तक के कल्पों के ईशानावतंसक आदि विमानों के लिये भी समझना चाहिये कि उन-उन कल्पों में वे-वे विमान सर्वश्रेष्ठ हैं, अतएव ये कल्प उन्हीं नामों वाले हैं। ___सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त के बारह देवलोकों में इन्द्र, सामानिक प्रादि वर्गात्मक भेद होने से वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं। वेयक और अनुत्तर विमान कल्पातीत संज्ञक हैं / इनमें इन्द्र आदि भेदरूप कल्प नहीं पाया जाता है। लोक रूप पुरुष की ग्रीवा के स्थानापन्न विमानों की अवेयक संज्ञा है। इनकी कुल संख्या नौ है और अधो, मध्य और ऊर्ध्व इन तीन वर्गों में ये तीन-तीन की संख्या में स्थित हैं। अनुत्तरविमान अन्य देवविमानों से अनुत्तर-श्रेष्ठतम होने से अनुत्तर कहलाते हैं। यह अनुत्तर विमान कुल पांच हैं, जिनके नाम विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध हैं। ये विजयादि अपराजित पर्यन्त चार विमान पूर्वादि चार दिशाओं में एक-एक स्थित हैं और इनके बीच में सर्वार्थसिद्ध विमान है। विजयादि पांचों विमानों में सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं और निश्चित रूप से वे मुक्तिपद प्राप्ति के अधिकारी होते हैं। ___ नव ग्रैवेयक तक विमानों में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों तरह के जीव उत्पन्न हो सकते हैं। ईषत्प्राग्भारापृथ्वी अपने प्रान्तभाग में भाराक्रान्त पुरुष की तरह कुछ झुकी हुई होने से ईषत्प्राग्भारा कहलाती है। इसे सिद्धशिला भी कहते हैं। ऊर्ध्वलोकक्षेत्र संबन्धी पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी संबन्धी विशेष वक्तव्यता अन्य ग्रागमों से समझ लेनी चाहिये। अब प्रकारान्तर से प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन है / औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी के वर्णन का द्वितीय प्रकार 176. अहवा ओवणिहिया खेताणुपुवी तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-- गुब्वाणुपुब्वी 1 पच्छाणुपुथ्वी 2 अणाणुपुम्वी 3 / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [113 [176] अथवा प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है / यथा--..१ पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी और 3. अनानुपूर्वी / 177. से कि तं पुवाणुपुब्वी ? पुवाणुपुवी एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे जाव दसपएसोगाढे जाव असंखेज्जपएसोगाढे / से तं पुवाणुपुदी। [177 प्र.] भगवन् ! (औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी संबन्धी) पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [177 उ.] आयुष्मन् ! एकप्रदेशावगाढ, द्विप्रदेशावगाढ यावत् दसप्रदेशावगाढ यावत् असंख्यातप्रदेशाबगाढ के क्रम में क्षेत्र के उपन्यास को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। 178. से कि तं पच्छाणुपुत्री ? पच्छाणुपुची असंखेज्जपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे / से तं पच्छाणुपुत्री। [178 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [178 उ.] आयुष्मन् ! असंख्यातप्रदेशावगाढ यावत् एकप्रदेशावगाढ रूप में व्युत्क्रम से क्षेत्र का उपन्यास पश्चानुपूर्वी है। 179. से कि तं अणाणुपुत्वो? अणाणुपुन्बी एयाए चेन एगादियाए एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छगयाए सेढीए अन्नमनभासो दुरूवूणो / से तं अणाणुपुब्धी / से तं ओवणिहिया खेताणुपुन्वी / से तं खेत्ताणुपुव्वी। [179 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [179 उ.] आयुष्मन् ! एक से प्रारंभ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा असंख्यात प्रदेश पर्यन्त की स्थापित श्रेणी का परस्पर गुणा करने से निष्पन्न राशि में से आद्य और अंतिम इन दो रूपों को कम करने पर क्षेत्रविषयक अनानुपूर्वी बनती है। ___ इस प्रकार से औप निधिकी क्षेत्रानुपूर्वी की एवं साथ ही क्षेत्रानुपूर्वी की वक्तव्यता समाप्त हुई जानना चाहिये। विवेचन.. इन चार सूत्रों में सामान्य से औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का विवेचन करके क्षेत्रानुपूर्वी की वक्तव्यता का उपसंहार किया है / लोकाकाश असंख्यात प्रदेशप्रमाण है। अतः एकप्रदेश रूप क्षेत्र से प्रारंभ करके त्रमशः असंख्यात प्रदेश पर्यन्त के क्षेत्र का पूर्वानुपूर्वी आदि के रूप में उल्लेख किया है। अव क्षेत्रानुपूर्वी के अनन्तर क्रमप्राप्त कालानुपूर्वी का वर्णन प्रारंभ करते हैं। कालानुपूर्वीप्ररूपणा 180. से किं तं कालाणुपुवी? कालाणुपुच्ची दुविहा पण्णत्ता / तं जहा--ओवणिहिया य 1 अणोवर्णािहया य 2 / [180 प्र.] भगवन् ! कालानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [180 उ.] आयुष्मन् ! कालानुपूर्वी के दो प्रकार हैं, यथा- 1 औपनिधिकी और 2 अनौपनिधिको / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [अनुयोगद्वारसूत्र 181. तत्व णं जाता ओवाणिहिया सा ठप्पा / [181] इनमें से (अल्प विषय बाली होने से अभी विवेचन न करने के कारण) औपनिधिको कालानुपूर्वी स्थाध्य है / तथा--- 182. तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-णेगम-ववहाराणं 1 संगहस्स य 2 // [182] अनोपनिधिको कालानुपूर्वी दो प्रकार की कही गई है---१ नैगम-व्यवहारनयसंमत और 2 संग्रहनयसम्मत। विवेचन यह सूत्रत्रय कालानुपूर्वी के वर्णन करने की भूमिका रूप हैं। अब सूत्रगत संकेतानुसार प्रथम नैगम-व्यवहारनयसंमत अनोपनिधिको कालानुपूर्वी का विवेचन प्रारंभ करते हैं / नेगम-व्यवहारनयसंमत अनौपनिधिको कालानुपूर्वी 183. से कि तं गम-ववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुग्यो ? गम-ववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुटवी पंचविहा पण्णता / तं जहा-अटुपयपरूवणया 1 भंगसमुक्कित्तणया 2 भंगोवदसणया 3 समोतारे 4 अणुगमे 5 / [183 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अनौपनिधिको कालानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [183 उ.] आयुष्मन् ! (नैगम व्यवहारनयसंमत) अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी के पांच प्रकार कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- अर्थपदप्ररूपणता, 2 भंगसमुत्कीर्तनता, 3 भंगोपदर्शनता, 4 समवतार, 5 अनुगम। विवेचन-सूत्रोक्त अर्थपदप्ररूपणता प्रादि के लक्षण पूर्व में बतलाये जा चुके हैं। अतएव प्रसंगानुरूप अब उनका मंतव्य स्पष्ट करते हैं। (क) अर्थपदप्ररूपणता 184. से कि तं गम-ववहाराणं अट्ठपदपरूवणया ? गम-ववहाराणं अट्ठपदपरूवणया तिसमयदिईए आणुपुन्वी जाव दससमयढिईए आणुपुब्बी संखेज्जसमयट्टिईए आणुपुब्धी असंखेज्जसमद्वितीए आणुपुत्वी। एगसमय द्वितीए अणाणुपुवी। दुसमयट्टिईए अवत्तन्वए। तिसमय द्वितीयाओ आणुयुध्वीओ जाव संखेज्जसमद्वितीयाओ आणुपुथ्वीओ असंखेज्जसमयद्वितीयाओ आणुपुत्वोओ। एगसमय द्वितीयाओ अणाणुपुत्वीओ। दुसमयट्टिईयाई अवत्तन्वयाई। से तं गम-ववहाराणं अट्ठपयपरूषणया। [184 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वो निरूपण] [115 [184 उ.] आयुष्मन् ! (नगम-व्यवहारनयसंमत) अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप इस प्रकार है-तीन समय की स्थिति वाला द्रव्य आनुपूर्वी है यावत् दस समय, संख्यात समय, असंख्यात समय की स्थितिवाला द्रब्य प्रानुपूर्वी है। एक समय की स्थिति वाला द्रव्य अनानुपूर्वी है / दो समय की स्थिति वाला द्रव्य अवक्तव्यक है। तीन समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य प्रानुपूवियां हैं यावत् संख्यातसमयस्थितिक, असंख्यातसमयस्थितिक द्रव्य अानुपूर्वियां हैं। एक समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य अनेक अनानुपूर्वियां हैं। दो समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य अनेक अवक्तव्यक रूप हैं। इस प्रकार से नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप जानना चाहिये / 185. एयाए णं णेगम-ववहाराणं अट्टफ्यपरूवणयाए जाव भंगसमुक्कित्तणया कज्जति। [185] इस नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता के द्वारा यावत् भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। विवेचन--इन दो सूत्रों में नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी के पहले भेद अर्थपदप्ररूपणता का प्राशय और प्रयोजन बताया है। अर्थपदप्ररूपणता के प्रसंग में प्रयुक्त पानपूर्वी, अनानपूर्वी एवं प्रवक्तव्यक शब्द के अर्थ पूर्व में स्पष्ट किये जा चुके हैं। अतएव काल के वर्णन के प्रसंग में जिस द्रव्य की स्थिति कम से कम तीन समय की है, वह त्रिसमयस्थितिक द्रव्य आनुपूर्वी है। ऐसा द्रव्य परमाणु, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध भी हो सकता है। परन्तु उसकी स्थिति कम से कम तीन समय की होनी चाहिये। अधिक-से-अधिक असंख्यात समय की स्थिति वाला द्रव्य भी प्रानुपूर्वी रूप कहा जाएगा। __ यद्यपि क्षेत्रानुपूर्वी की तरह कालानुपूर्वी के प्रसंग में भी उल्लेख तो द्रव्यविशेष का है, परन्तु यहाँ समयत्रय आदि रूप कालपर्याय से युक्त द्रव्य ग्रहण किये हैं। इस प्रकार काल की तीन प्रादि समय रूप पर्याय और उन पर्यायों वाले द्रव्य में अभेद का उपचार करके एवं कालपर्याय को प्रधान मानकर कालपर्यायविशिष्ट द्रव्य में कालानुपूर्वी जानना चाहिये / अनन्तसामयिक कालानुपूर्वी क्यों नहीं ?-सूत्र में तीन समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्य को कालापेक्षया आनुपूर्वी रूप में ग्रहण किया है, क्योंकि स्वभाव से ही किसी भी द्रव्य की अनन्त समय की स्थिति नहीं होती है। अर्थात् ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं जिसकी स्थिति अनन्त समय की हो। इसीलिये अनन्त समय की स्थिति वाली कालानुपूर्वी का यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य विषयक विशेषता-पानुपूर्वी में तो त्रिसमय स्थितिक से लेकर असंख्यातसमयस्थितिक पर्यन्त परमाणु आदि द्रव्यों को प्रानुपूर्वी के रूप में ग्रहण किया है। अर्थात् Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] अनुयोगद्वारसूत्र आनुपूर्वी में आद्य इकाई तीन समय है और चरम असंख्यात समय है। लेकिन अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक में यह विशेषता है अनानुपूर्वी में द्रव्य चाहे परमाणु से लेकर अनन्ताणुक रूप हो, लेकिन उसकी स्थिति यदि एक समय की है तो वह कालापेक्षया अनानुपूर्वी है / इसी प्रकार यदि उसकी स्थिति दो ममय प्रमाण है वह दो समय की स्थिति वाला है तो वह प्रवक्तव्यक द्रव्य है / एक-बहुवचनान्तता का कारण-सूत्रकार ने एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा आनुपूर्वी आदि का निर्देश किया है। उसका कारण यह है कि तीन ग्रादि समयों की स्थिति वाले प्रानुपूर्वी द्रव्य एक-एक व्यक्ति रूप भी हैं और अनेक अनन्त व्यक्ति रूप भी हैं। इसीलिये तीन आदि समय की स्थिति वाले एक द्रव्य को एक प्रानुपूर्वी, एक समय की स्थिति वाले एक द्रव्य को एक अनानपूर्वी और द्विसमय की स्थिति वाले एक द्रव्य को एक प्रवक्तव्यक कहा है। लेकिन जब वही ग्रानपूर्वी आदि द्रव्य विशेष-भेद की विवक्षा से अनेक-व्यक्ति रूप होते हैं तब वहुवचन की अपेक्षा प्रानुपूर्वियों, अनानुपूवियों और अबक्तव्यको रूप कहलाते हैं।' सूत्र में अर्थपदप्ररूपणता के प्रयोजन रूप में भंगसमुत्कीर्तनता का संकेत किया है, अत: अव भंगसमुत्कीर्तनता का निर्देश करते हैं / (ख) भंगसमुत्कीर्तनता 186. से किं तं गम-बवहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ? गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तगया अस्थि आणुपुन्वी अस्थि अणाणुपुब्धी अस्थि अवत्तवए, एवं दव्वाणुपुग्विगमेणं कालाणुपुव्वीए वि ते चेव छस्वीसं भंगा भाणियच्या नाव से तं गम-बवहाराणं भंगसमुक्कित्तणया। [168 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या स्वरूप है ? 186 उ.] आयुष्मन् ! अानुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है, प्रवक्तव्यक है, इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वीवत् कालानुपूर्वी के भी 26 भंग जानना चाहिये यावत् यह नैगम व्यवहारनयसंमत भंगसत्कीर्तनता का स्वरूप है। 187. एयाए णं णेगम-ववहाराणं जाव कि पओयणं ? एयाए णं णेगम-बवहाराणं जाव भंगोवदंसणया कज्जति / [187 प्र.] भगवन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसंमत यावत् ( भंगसमुत्कीर्तनता का ) क्या प्रयोजन है ? {187 उ.] आयुष्मन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसंमत यावत् ( भंगसमुत्कीर्तनता ) से भंगोपदर्शनता की जाती है। 1. सूत्र संख्या 185 के स्थान पर किसी-किसी प्रति में निम्नलिखित सूत्र पाठ है एपाए ण नेगम-व्यवहाराणं अट्टमयपरूबणयाए कि पोअणं? एमाए णं णेगम-बवहाराणं प्रपयपरूनणयाए अंगम-ववहा राणं भंगसमुक्त्तिणया कज्जई। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण [117 _ विवेचन—इस सूत्रपाठ की व्याख्या स्पष्ट है। द्रव्यानुपूर्वी की तरह कालानुपूर्वा के प्रसंग में भी छब्बीस भंग जानना चाहिये / वे छब्बीस भंग इस प्रकार हैं--- पानपूर्वी आदि एकवचनान्त तीन पद के असंयोगी तीन भंग हैं और इसी प्रकार बहुवचनान्त पद के तीन भंग बनते हैं। इस प्रकार पृथक-पृथक छह भंग हो जाते हैं और संयोगपक्ष में इन तीनों पदों के द्विसंयोगी भग तीन होते हैं। इनमें एक-एक भंग में दो-दो का संयोग होने पर एकवचन और बहुवचन को लेकर चार-चार भंग हो जाते हैं। इस प्रकार तीनों भंगों के द्विकसंयोगी कुल भंग बारह बनते हैं तथा त्रिकसंयोग में एकवचन और बहुवचन को लेकर अाठ भंग बनते हैं। इस प्रकार सब भंग मिलाकर (6+12+8=26) छब्बीस होते हैं / द्रव्यानुपूर्वी के प्रसंग में इनके नाम बताये जा चके हैं। तदनसार यहाँ भी वही नाम समझ लेना चाहिये। अब प्रयोजनरूप में संकेतित भगोपदर्शनता का निरूपण करते हैं। (ग) भंगोपदर्शनता 188. से कि तं गम-ववहाराणं भंगोवदसणया ? गम-ववहाराणं भंगोवदंसणया तिसमयठितीए आणुपुवी एगसमयठितीए अणाणपुथ्वी अणाणुपुवी दुसमयहितीए अवत्तववए, तिसमद्वितीयाओ आणुपुवीओ एगसमयद्वितीयाओ अणाणुपुवीओ दुसमय द्वितीयाई अवत्तब्वयाई / एवं दव्वाणुगमेणं ते चेव छव्वीसं भंगा भाणियव्वा, जाव से तं गम-ववहाराणं भंगोवदसणया। (188 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता का क्या स्वरूप है ? 1188 उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता का स्वरूप इस प्रकार है-.. त्रिसमयस्थितिक एक-एक परमाणु आदि द्रव्य प्रानुपूर्वी है, एक समय की स्थिति वाला एक-एक परमाण प्रादि द्रव्य अनान पर्वी है और दो समय की स्थिति वाला परमाण आदि द्रव्य प्रवक्तव्यक है। तीन समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य 'पानुपूवियां' इस पद के वाच्य हैं। एक समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य 'अनानपूर्वियां तथा दो समय की स्थिति वाले द्रव्य 'अवक्तव्य' पद के वाच्य हैं। इस प्रकार यहाँ भी द्रव्यानुपूर्वी के पाठानुरूप छब्बीस भंगों के नाम जानने चाहिए, यावत् यह भगोपदर्शनता का प्राशय है / विवेचन--सूत्रार्थ का स्पष्टीकरण इस प्रकार है तीन समय की स्थिति वाला, एक समय की स्थिति वाला और दो समय की स्थिति वाला एक-एक व्यक्ति रूप परमाणु आदि अनन्ताणुक पर्यन्त द्रव्य क्रमशः प्रानुपूर्वी, अनानपूर्वी और प्रवक्तव्यक है। यह तो हुया एकवचनापेक्षा प्रानुपूर्वी प्रादि पद का वाच्यार्थ, लेकिन जब यही तीन समय प्रादि की स्थिति वाले पूर्वोक्त द्रव्य व्यक्ति अनेक रूप में विवक्षित होते हैं तब वे 'आनुपवियां' आदि बहुवचनान्त पद के वाच्य हो जाते हैं। यह असंयोग पक्ष में एकवचन के तीन और बहुवचन के तीन, कुल छह भंगों का कथन है। लेकिन प्रस्तुत सूत्र में संयोगज भंगों की वाच्यार्थरूपता का उल्लेख नहीं किया है / उन भंगों को द्रव्यानपूर्वी के समान समझ लेना चाहिए। यह मंगोपदर्शनता की वक्तव्यता है। अब समवतार का कथन करते हैं / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] अनुयोगबारसूत्र (घ) समवतार 189. से कि तं सभोयारे ? समोयारे गम-ववहाराणं आणुपुस्विदव्वाइं कहि समोयरंति ? जाव तिणि वि सट्ठाणे सट्ठाणे समोयरंति ति भाणियव्वं / से तं समोयारे / [189 प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों का कहाँ समवतार (अन्तर्भाव) होता है ? यावत्--- 189 उ.] तीनों ही स्व-स्व स्थान में समवतरित होते हैं। इस प्रकार समवतार का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन- सूत्र में समवतार संबन्धी प्राशय का संकेत मात्र किया है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है समवतार अर्थात् उन-उन द्रव्यों का स्व-स्व जातीय द्रव्यों में अन्तर्भूत होना / इस अपेक्षा पूर्वपक्ष के रूप में निम्नलिखित प्रश्न हैं--- क्या नैगम-व्यवहारमयसंमत समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वीद्रव्यों में या अनानुपूर्वीद्रव्यों में या प्रवक्तव्यकद्रव्यों में अन्तर्भूत होते हैं ? इसी प्रकार के तीन-तीन प्रश्न अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्य-विषयक भी जानना चाहिये / इस तरह कुल नौ प्रश्न हैं। जिनका उत्तर इस प्रकार है 1. नैगम-व्यवहारनयसंमत सभी प्रानुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों में ही समाविष्ट होते हैं / किन्तु अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट नहीं होते हैं / 2. नैगम-व्यवहारनयमान्य समस्त अनानुपूर्वीद्रव्य अपनी जाति (अनानुपूर्वीद्रव्य ) में अन्तर्भूत होते हैं। उनका विजातीय प्रानुपूर्वी या अवक्तव्य द्रव्यों में अन्तर्भाव नहीं होता है। 3. नैगम-व्यवहारनयसंमत अवक्तव्यद्रव्य अवक्तव्यकद्रव्यों में ही अन्तर्भूत होते हैं, अन्य आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में नहीं। सारांश यह कि आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक ये तीनों ही प्रकार के द्रव्य अपनेअपने स्थान (जाति) में ही अन्तर्भूत होते हैं / (ङ) अनुगम 190. से कितं अणुगमे ? अणुगमे णवविहे पण्णत्ते / तं जहा संतपयपरूवणया 1 जाव अप्पाबहुं चेव 9 // 15 // [190 प्र.] भगवन् ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? [190 उ.] प्रायुष्मन् ! अनुगम नी प्रकार का कहा है। वे प्रकार हैं-१ सत्पदप्ररूपणा यावत् 9 अल्पबहुत्व / क्वेिचन-सूत्र में अनुगम के नौ प्रकारों में से पहले सत्पदप्ररूपणता और अंतिम अल्पबहुत्व का नामोल्लेख द्वारा और शेष का ग्रहण जाव-यावत् पद द्वारा किया है। उन सभी नौ प्रकारों के नाम अनुक्रम से इस प्रकार हैं Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानुपूर्वो निरूपण] 1. सत्पदप्ररूपणता, 2. द्रव्यप्रमाण, 3. क्षेत्र, 4. स्पर्शना, 5. काल, 6. अंतर, 7. भाग, 8. भाव, 9. अल्पबहुत्व / इन नौ प्रकारों के लक्षण पूर्व कथनानुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। इनका वक्तव्यता इस प्रकार है(ङ- 1) सत्पदप्ररूपरणता 191. णेगम-ववहाराणं आणुपुग्विदम्वाई कि अस्थि णस्थि ? नियमा तिणि वि अस्थि / [191 प्र.] भगवन् ! नैगम व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं हैं ? [191 उ.] आयुष्मन् ! नियमत: ये तीनों द्रव्य हैं। विवेचन--सूत्र में अनुगम के प्रथम भेद सत्पदप्ररूपणता का प्राशय स्पष्ट किया है / विद्यमान पदार्थविषयक पद की प्ररूपणा को सत्पदप्ररूपणता कहते हैं। अतएव जब ऐसा प्रश्न किया जाता है कि नैगम-व्यवहारनयसंमत अानुपूर्वी, अनानुपूर्वी एवं प्रवक्तव्य द्रव्य हैं या नहीं? तब इसका उत्तर दिया जाता है—नियमा तिण्णि वि अस्थि-ये तीनों द्रव्य सदैव अस्ति रूप हैंनियमत: ये तीनों द्रव्य हैं। यही सत्पदप्ररूणता की वक्तव्यता का आशय है / (2) द्रव्यप्रमाण 192. गम-ववहाराणं आणुपुन्विदव्वाई कि संखेज्जाई असंखेज्जाइं अणंताई ? तिणि वि नो संखेज्जाइं, असंखेज्जाई, नो अणंताई। [192 प्र.] भगवन् ! नैगम व्यवहारनयसम्मत पानुपूर्वी प्रादि द्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात है या अनन्त हैं ? [192 उ.] आयुष्मन् ! तीनों द्रव्य संख्यात और अनन्त नहीं हैं, परन्तु असंख्यात हैं। विवेचन सूत्र में प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों को असंख्यात बताया है। इसका कारण यह है कि लोक में द्रव्य तो अनन्त हैं, किन्तु तीन समय आदि की स्थिति वाले प्रत्येक परमाणु आदि की समयत्रयादि रूप स्थिति एक ही है। क्योंकि यहाँ काल की प्रधानता है और द्रव्यबहुत्व की गौणता। इसलिये तीन समय, चार समय आदि की, एक समय की और दो समय की स्थिति वाले जितने भी परमाणु आदि अनन्त द्रव्य हैं वे सब अपनी-अपनी स्थिति की अपेक्षा से एक ही आनुपूर्वी आदि द्रव्य * रूप हैं अर्थात् तीन समय की स्थिति वाले अनन्त द्रव्य एक ही प्रानुपूर्वी हैं। इसी प्रकार चार समय की स्थिति बाले अनन्त द्रव्य एक आनुपूर्वी हैं यावत् दस समय की स्थिति वाले एक आनुपूर्वी हैं, इत्यादि / अनानुपूर्वो और अवक्तव्य द्रव्य असंख्यात कैसे ?- यद्यपि एक समय की स्थिति वाले और दो समय की स्थिति वाले द्रव्यों में प्रत्येक द्रव्य अनन्त हैं। लेकिन लोक के असंख्यात प्रदेश हैं, अत: उनके अवगाह भेद असंख्यात हैं। इसलिये एक समय की स्थिति वाले और दो समय की स्थिति वाले जितने भी द्रव्य हैं, उनमें से एक-एक द्रव्य में अवगाहना के भेद से भिन्नता है / अतएव इस भिन्नता की Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [अनुयोगद्वारसूत्र विवक्षा की वजह से प्रत्येक द्रव्य असंख्यात हैं / तात्पर्य यह है कि लोक असंख्यातप्रदेशी है, अतः लोक में एक समय की स्थिति वाले और दो समय की स्थिति बाले द्रव्यों के रहने के स्थान असंख्यात हैं। अतः उन असंख्यात अाधार रूप स्थानों में ये द्रव्य रहते हैं। इसलिये एक समय की और दो समय की स्थिति वाले प्रत्येक द्रव्य में असंख्यातता सिद्ध है। (ङ 3, 4) क्षेत्र और स्पर्शना प्ररूपणा 193. णेगम-ववहाराणं आणुपुस्विदव्वाइं लोगस्स कि संखेज्जइभागे होज्जा ? पुच्छा। एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जतिभागे वा होज्जा जाव असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा देसूणे वा लोए होज्जा, नाणादव्वाई पडुच्च नियमा-सवलोए होज्जा / एवं अणाणुपुग्वि-अवत्तव्यदवाणि भाणियव्वाणि जहा णेगम-बवहाराणं खेत्ताणुपुवीए। [193 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनेक आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में रहते हैं ? इत्यादि प्रश्न है / [ 193 उ.] अायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा (समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य) लोक के संख्यात भाग में रहते हैं यावत् असंख्यात भागों रहते हैं अथवा देशोन लोक में रहते हैं। किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोक में रहते हैं / समस्त अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्य द्रव्यों की वक्तव्यता भी नैगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी के समान है। 194. एवं फुसणा कालाणुपुवीए वि तहा चेव भाणितम्वा / [194] इस कालानुपूर्वी में स्पर्शनाद्वार का कथन तथैव (क्षेत्रानुपूर्वी जैसा ही) जानना चाहिये। विवेचन- इन दो सूत्रों में अनुगम के क्षेत्र और स्पर्शना इन दो द्वारों का निरूपण किया है। क्षेत्रद्वार में प्रानुपूर्वी-त्रयादि समय की स्थिति वाले द्रव्य का लोक के संख्यात प्रादि भागों में रहना उन-उन भागों में उनका अवगाह सम्भवित होने की अपेक्षा जानना चाहिये तथा तीन आदि समय की स्थिति वाले सूक्ष्म परिणामयुक्त स्कन्ध के देशोन लोक में अवगाहित होने पर एक प्रानुपूर्वी द्रव्य देशोन लोकवर्ती होता है। अानुपूर्वी द्रव्य सर्वलोकव्यापी इसलिये नहीं कि सर्वलोकव्यापी तो अचित्त महास्कन्ध ही होता है और वह अचित्त महास्कन्ध एक समय तक ही सर्वलोकव्यापी रहता है। तदनन्तर उसका' संकोच-उपसंहार हो जाता है। उसे काल की अपेक्षा ग्रानुपूर्वी द्रव्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रानुपूर्वी द्रव्य कम से कम तीन समय की स्थिति वाला ही होता है। यदि अचित्त महास्कन्ध को सर्वलोकव्यापी माना जाये तो फिर अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य द्रव्यों के ठहरने का स्थान न होने के कारण उनका प्रभाव मानना पड़ेगा। लेकिन देशोन लोक में उसकी स्थिति मानने पर लोक में कम से कम एक प्रदेश ऐसा भी रहेगा जिसमें अनानुपूर्वी और अबक्तव्यक द्रव्य के ठहरने के लिये स्थान मिल जाता है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूओं निरूपण] [121 - इसी प्रकार से एक अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य के लिये समझना चाहिये कि वे लोक के असंख्यात भाग में रहते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- क्षेत्रानुपूर्वी की तरह कालानुपूर्वी में भी एक अनानुपूर्वी और एक प्रवक्तव्य द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। काल की अपेक्षा क्रमश: जिसकी एक समय और दो समय की स्थिति है, वह क्षेत्र की अपेक्षा भी एक और दो प्रदेश में स्थित होता है और वे प्रदेश लोक के असंख्यातवें दो आदेश मलधारीयावृत्ति में निम्नलिखितदो प्रादेशान्तरों का उल्लेख है--१. पाएसंतरेण वा सव्व पुच्छा होज्जा / 2. महाखंधवज्जमन्नदश्वेसु पाइल्ला चउपुच्छासु होज्जा / प्रथम अादेश का संकेत अनानुपूर्वी के अवगाढ होने के प्रसंग में किया है। वह प्रकारान्तर से सूत्रोक्त संख्येय आदि पांचों पृच्छाओं में लभ्य है। तात्पर्य यह हुआ कि एक समय की स्थिति वाले अनानुपूर्वीद्रव्य में से कोई एक द्रव्य लोक के संख्यात भाग में, कोई एक असंख्यात भाग में, कोई एक संख्यात भागों में कोई एक असंख्यात भागों में और कोई एक सर्वलोक में रहता है तथा नाना अनानुपूर्वीद्रव्यों को अपेक्षा वे सर्वलोक में भी रहते हैं / क्योंकि एक समय की स्थिति वाले अनानुपूर्वी द्रव्यों का सर्वत्र सत्त्व है। एक अनानुपुर्वीद्रव्य का सर्वलोक में रहना अचित्त महास्कन्ध की दंड, कपाट आदि अवस्थाओं की अपेक्षा जानना चाहिए। क्योंकि ये दंडादि अवस्थायें प्राकार भेद से परस्पर भिन्नभिन्न हैं और एक-एक समयवर्ती हैं। अत: एक-एक समयवर्ती होने के कारण वे पृथक्-पृथक अनानुपूर्वीद्रव्य हैं। दूसरे प्रादेश का सम्बन्ध प्रवक्तव्य द्रव्य से है। दो समय की स्थिति वाला कोई एक अवक्तव्य कद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में, कोई असंख्यातवें भाग में, कोई संख्यात भागों में और कोई असंख्यात भागों में अवगाढ होता है. किन्त सर्वलोक में अवगाह नहीं होता है। क्योंकि सर्वलोक में अबगाढ तो महास्कन्ध होता है और वह दो समयों की स्थिति वाला नहीं है। इसी कारण अवक्तव्यकद्रव्य के विषय में पांचवाँ विकल्प सम्भव नहीं है / नाना प्रवक्तव्यकद्रव्यों की सर्वलोकव्यापिता स्वत: सिद्ध ही है। स्पर्गना के लिये क्षेत्रानुपूर्वीवत समझने के संकेत का तात्पर्य यह है कि क्षेत्रानुपूर्वी की तरह कालान पूर्वी में भी एक-एक पान पूर्वीद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग, संख्यात भागो, असंख्यात भागों अथवा देगोन लोक का और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। तथा--.. एक-गाक अनानपर्वी और अवक्तव्य क द्रव्य लोक के मात्र असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं / किन्तु संख्यातवें भाग, संख्यातवें भागों, असंख्यातवें भागों और देशोन लोक का स्पर्श नहीं करते हैं। विविध द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोक का स्पर्ण जानना चाहिये / (ङ 5) कालप्ररूपणा 195. [1] णेगम-बवहाराणं आणुपुग्विदन्वाई कालतो केवचिरं होंति ? एगं दध्वं पडुच्च जहणणं तिणि समया उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, नाणादब्वाइं पडुच्च सम्वद्धा। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [अनुयोगहारसूत्र . [195-1 प्र.] भगवन् ! नंगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वीद्रव्य कालापेक्षा (प्रानुपूर्वी रूप में) कितने काल तक रहते हैं। [195-1 उ.] अायुष्मन् ! एक प्रानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा जघन्य स्थिति तीन समय की और उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल की है / अनेक आनुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा स्थिति सर्वकालिक है / [2] गम-ववहाराणं अणाणुपुग्विदव्वाई कालो केवचिरं होंति ? एगदन्नं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं एक्कं समयं, नाणादम्बाइं पडुच्च सम्वद्धा। [195-2 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य कालापेक्षा (अनानुपूर्वी रूप में) कितने काल तक रहते हैं ? [195-2 उ.] आयुष्मन् ! एक द्रव्यापेक्षया तो अजघन्य और अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय की तथा अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वकालिक है / [3] गम-ववहाराणं अवत्तव्वयदव्वाइं कालतो केवचिरं होंति ? एणं दव्वं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया, नाणादब्वाइं पडुच्च सव्वद्धा। [195-3 प्र.] भगवन ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अवक्तव्यकद्रव्य कालापेक्षया (प्रवक्तव्यक रूप में) कितने काल रहते हैं ? [195-3 उ.] प्रायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति दो समय की है और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा स्थिति सर्वकालिक है / विवेचन----यहाँ अनुगम के पांचवें कालद्वार की प्ररूपणा की है। एक पानपूर्वीद्रव्य की जघन्य स्थिति तीन समय और उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात समय की बताने का कारण यह है कि ग्रानपूर्वीद्रव्यों में तीन समय की स्थिति बाले द्रव्य सबसे कम हैं और वे तीन समय तक ही प्रानपवीं के रूप में रहते हैं। इसलिये एकवचनान्त पानपर्वी िद्रव्यों की जघन्य स्थिति तीन समय प्रमाण कही है और असंख्यात समय की स्थिति कहने का कारण यह है कि वह द्रव्य असंख्यात काल के बाद ग्रानुपूर्वी रूप में रहता ही नहीं है। नाना पानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा स्थिति सर्वकालिक इसलिये है कि नाना प्रानुपूर्वी द्रव्यों का सदैव सद्भाव रहता है। एक-एक अनानपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्य की स्थिति मात्र क्रमश: एक समय और दो समय प्रमाण होने से इन दोनों के विषय में जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा विचार किया जाना सम्भव नहीं होने से अजघन्य और अनुत्कृष्ट काल स्थिति एक और दो समय की बतलाई है। क्योंकि एक समय की स्थिति वाला द्रव्य अनानुपूर्वी और दो समय की स्थिति वाला द्रव्य प्रवक्तव्यक है / नाना अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्य सर्वकाल में सम्भव होने से उनकी स्थिति सर्वाद्धा प्रमाण है। (ङ 6.) अन्तरप्ररूपणा 196. [1] णेगम-ववहाराणं आणुपुग्विदव्याणमंतरं कालतो केवचिरं होति ? एगदव्वं पडुच्च जहरणेणं एग समयं उक्कोसेणं दो समया, नाणादब्वाइं पडुच्च नत्थि अंतरं / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण |123 196-1 प्र. भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों का कालापेक्षया अन्तर कितने समय का होता है ? [196-1 उ.] अायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है / किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। [2] गम-ववहाराणं प्रणाणुपुग्विदव्वाणं अंतरं कालतो केवचिरं होति ? एगदव्वं पडुच्च जहण्णेणं दो समया उपकोसेणं असंखेज्जं कालं, णाणादव्याई पडुनच गत्पि अंतरं / [196-2 प्र.] भगवन् ! कालापेक्षया नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वी द्रव्यों का अन्तर कितने समय का होता है ? [196-2 उ./ आयुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय का और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है / [3] गम-बवहाराणं अवत्तन्वगदम्वाणं पुच्छा। एगदव्वं पडुच्च जहण्णणं एग समय उक्कोसेणं असंखेनं कालं, जाणावठवाइं पडुच्च परिण अंतरं। [196-3] अनानुपूर्वीद्रव्यों की तरह नैगम-व्यवहारनयसम्मत अवक्तव्यकद्रव्यों के विषय में भी प्रश्न है। एक द्रव्य की अपेक्षा अवक्तव्यकद्रव्यों का अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात काल प्रमाण है / अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है / विवेचन–यहाँ प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का अन्तर-विरहकाल बतलाया है। वे अपने प्रानुपूर्वी आदि रूपों को छोड़कर अन्य परिमाण से परिणत होकर पुनः उसी रूप में कितने समय बाद परिणत हो जाते हैं ? एक आनुपूर्वीद्रव्य का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः एक और दो समय बताने का कारण यह है कि यदि तीन समय की स्थिति वाला कोई विवक्षित एक प्रानुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वी रूप अपने परिणाम को छोड़कर किसी दूसरे परिणाम से एक समय तक परिणत रहकर पुनः उसी परिणाम से तीन समय की स्थिति वाला बन जाता है तब जघन्य अन्तर एक समय का होता है और जिस समय वही द्रव्य दो समय तक परिणामान्तर से परिणत बना रहकर बाद में तीन समय की स्थिति वाला बनता है तो उस दशा में उत्कृष्ट दो समय का अन्तर होता है। यदि परिणामान्तर से परिणत बना हुआ वह द्रव्य क्षेत्रादि संबन्ध के भेद से दो समय से अधिक समय तक भी रहता है तो उस समय भी वह उस स्थिति में भी पानुपूर्वित्व का अनुभवन करता है और तब वह अन्तर ही नहीं होता है। नाना द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं कहने का कारण यह है कि तीन समय की स्थिति वाले कोई न कोई द्रव्य लोक में सर्वदा रहते हैं। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [अनुयोगद्वारसूत्र अनानपूर्वी द्रव्यों में एक द्रव्य की अपेक्षा जधन्य दो समय और उत्कृष्ट असख्यात काल का अन्तर बताने का कारण यह है कि एक समय की स्थिति वाला एक अनानपूर्वी द्रव्य जिस समय किसी अन्य रूप में दो समय तक परिणत रहकर बाद में पुनः उसी अपनी स्थिति में पा जाता है तब जघन्य से दो समय का अन्तर माना जाता है और यदि परिणामान्तर से परिणत हा एक समय तक रहता है तो वह अन्तर ही नहीं होता है। क्योंकि उस स्थिति में भी वह एक समय की स्थिति वाला होने से अनानुपूर्वी रूप ही है और यदि दो समय के बाद भी परिणामान्तर से परिणत बना रहता है तो जघन्यता नहीं है / जब वही द्रव्य असंख्यात काल तक परिणामान्तर से परिणत रहकर पुन: एक समय की स्थिति वाले परिणाम को प्राप्त करता है तब उत्कृष्ट असंख्यात काल का ग्रन्तर होता है / नाना द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर न कहने का कारण यह है कि लोक में सर्वदा उनका सद्भाव रहा करता है। एकवचनान्त अवक्तव्यद्रव्य के जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर के लिये यह समझना चाहिये कि दो समय की स्थिति वाला कोई प्रवक्तव्यकद्रव्य परिणामान्तर से परिणत हुआ एक समय तक रहता है और बाद में पुनः वह दो समय की स्थिति को प्राप्त कर लेता है तब विरहकाल जघन्य रूप में एक समय है और जब दो समय की स्थिति वाला कोई अवक्तव्यद्रव्य असंख्यात काल तक परिणामान्तर से परिणत रहकर पुन: दो समय की अपनी पूर्व स्थिति में प्राता है तब उसका अन्तर असंख्यात काल का माना जाता है / नाना अवक्तव्यद्रव्यों का लोक में सर्वदा सद्भाव पाये जाने से अन्तर नहीं है। (ङ 7) भागद्वार 197. णेगम-ववहाराणं प्राणुपुम्विदन्वाइं सेसदब्वाणं कइभागे होज्जा ? पुच्छा। जहेव खेत्ताणुपुवीए। [197 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग प्रमाण हैं ? |197 उ.] आयुष्मन् ! यहाँ कालानुपूर्वी के प्रसंग में तीनों द्रव्यों के लिये क्षेत्रानुपुर्वी जैसा ही कथन समझना चाहिये। . विवेचन-सूत्र में कालानुपूर्वी के भागद्वार का वर्णन करने लिये क्षेत्रानुपूर्वी के भागद्वार का अतिदेश किया है और क्षेत्रानुपूर्वी के प्रसंग में द्रव्यानुपूर्वी का अतिदेश किया है / प्राशय यह हुआ कि द्रव्यानुपूर्वी के भागद्वार द्वार की तरह इस कालानपूर्वी के भागद्वार की भी वक्तव्यता जाननी चाहिये। संक्षेप में वह इस प्रकार है समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातभागों से अधिक --असंख्यातगुणित हैं और शेष द्रव्य-अनानपूर्वी एवं प्रवक्तव्यक द्रव्य-इनकी अपेक्षा असंख्यातभाग न्यून हैं, इसका कारण के अनान पूर्वी एक समय की स्थिति रूप एक स्थान को और प्रवक्तव्यकद्रव्य द्विसमय की स्थिति रूप एक स्थान को ही प्राप्त है, किन्तु प्रानुपूर्वीद्रव्य तीन-चार-पांच आदि समय की स्थिति रूप स्थानों से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति रूप स्थानों को प्राप्त करता है / इस प्रकार प्रानपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातभागों से अधिक और शेष दो द्रव्य उसकी अपेक्षा असंख्यातभाग न्यून होते हैं। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन यूरू निरूपण! |125 (8,9) भाव और अल्पबहत्व द्वार 198. भावो वि तहेव / अप्पाबहुं पि तहेव नेयन्वं जाव से तं अणुगमे / से तं गम-ववहाराणं अणीवणिहिया कालाणुपुवी। [198] भावद्वार और अल्पवहुत्व का भी कथन क्षेत्रानुपूर्वी जैसा ही समझना चाहिये यावत् अनुगम का यह स्वरूप है। इस प्रकार नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी कालानुपूर्ती का वर्णन पूर्ण हुमा / विवेचन---सूत्र में क्षेत्रानुपूर्वी की भाव और अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की तरह कालानुपूर्वी के भी इन दोनों द्वारों का कथन करने का उल्लेख करते हुए अनु गम और नैगम-व्यवहार नयसम्मत अनौपनिधिकी कालानु पूर्वी के वर्णन की समाप्ति की सूचना दी गई है / भाव और अल्पबहत्व प्ररूपणा का सारांश इस प्रकार हैआनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक ये तीनों द्रव्य सादि पारिणामिक भाव वाले हैं। इनका अल्पवहुत्व इस प्रकार जानना चाहिये-समस्त प्रवक्तव्यद्रव्य स्वभाव से ही कम होने से शेष दो द्रव्यों की अपेक्षा अल्प हैं / अनानुपूर्वीद्रव्य अबक्तव्यकद्रव्यों की अपेक्षा विशेषाधिक तथा अानुपूर्वीद्रव्य इन दोनों द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातगुण अधिक हैं / यह असंख्यातगुणाधिकता पूर्वोक्त भागद्वार की तरह यहाँ जानना चाहिये। ___ इस प्रकार नैगम-व्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी का वर्णन करने के पश्चात् अव मंग्रहनयमान्य अनोपनिधिको कालानुपूर्वी का विचार किया जाता है। संग्रहनयमान्य अनौपनिधिको कालान पूर्वी / 199. से कि तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणपुवी ? संगहस्स प्रणोवििहया कालाणुपुवी पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा—अटुपयपरूवणया 1 भंगसमुक्कित्तणया 2 भंगोवदसणया 3 समोतारे 4 अणुगमे 5 / [199 प्र.] भगवन ! संग्रहनयसंमत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [199 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी पांच प्रकार की है / वे प्रकार हैं- 1. अर्थपदप्ररूपणना, 2. भंगसमुत्कीर्तनता, 3. भंगोपदर्शनता, 4. समवतार और 5. अनुगम / विवेचन--अर्थपदप्ररूपणता आदि के लक्षण पूर्व में कहे जा चुके हैं। आगे उनके प्राशय का निर्देश करते हैं। संग्रहनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता आदि 200. से कि तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ? संगहस्स अट्ठपयपरूवणया एयाई पंच वि दाराई जहा खेत्ताणपुब्बीए संगहस्स तहा कालाणुपुवीए विभाणियवाणि, गवरं ठितीअभिलावो जाव से तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुवी / से तं प्रणोवणिहिया कालाणुपुग्वी। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] अमुयोगद्वारसूत्र 1200 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? [200 उ.] आयुष्मन् ! इन पांचों द्वारों का कथन संग्रहनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी की तरह समझ लेना चाहिये / विशेष यह कि 'प्रदेशावगाढ' के बदले 'स्थिति' कहना चाहिये यावत् इस प्रकार से संग्रहनयसंमत अनीपनिधिको कालानुपूर्वी और अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी का वर्णन हुआ। विवेचन--सूत्र में संग्रहनयसंमत अनौपनिधिको क्षेत्रान पूर्वी के अतिदेश द्वारा कालानुपूर्वी के पांच पदों का वर्णन किया है / क्षेत्रानुपूर्वी संबन्धी इन पांच पदों का विस्तार से वर्णन पूर्व में किया गया है / तदनुमार प्रदेशावगाढता के स्थान पर 'समयस्थितिक' पद का प्रयोग करके जैसा-का-तैसा वर्णन यहाँ समझ लेना चाहिये / इस प्रकार से समस्त अनौपनिधिकी कालानपूर्वी का वर्णन करने के अनन्तर अब अल्पवक्तव्य होने से स्थाप्य मानी गई औपनिधिकी कालानुपूर्वी की व्याख्या करते हैं / प्रोपनिधिको कालानुपूर्वी : प्रथम प्रकार 201. [1] से किं तं प्रोवणिहिया कालागुपुन्वी ? ओवणिहिया कालाणुपुब्वी तिविहा पणत्ता। तं जहा-पुन्वाणुपुग्यो 1 पच्छाणुपुग्यो 2 प्रणाणुपुथ्यो 3 / [20 1-1 प्र.] भगवन् ! औपनिधिकी कालानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [20 1-1 उ. प्रायुष्मन् ! औपनिधिकी कालानुपूर्वी के तीन प्रकार हैं--१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी और 3. अनानुपूर्वी / [2] से कि तं पुष्वाणुपुष्वी ? पुष्वाणुपुब्धी एगसमयठितीए दुसमयठितीए तिसमयठितीए जाव दससमयठितीए नाव संखेज्जसमयठितीए असंखेज्जसमयठितीए / से तं पुष्याणुपुब्बी। [201-2 प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [201-2 उ. आयुष्मन् ! पूर्वानुपर्वी का स्वरूप इस प्रकार है—एक समय की स्थिति वाले, दो समय की स्थिति वाले, तीन समय की स्थिति वाले यावत् दस समय की स्थिति वाले यावत् संख्यात समय की स्थिति वाले, असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों का अनुक्रम से उपन्यास करने को (ोपनिधिकी) पूर्वानुपूर्वी कहते हैं / [3] से कि तं पच्छाणुपुम्वी ? पच्छाणुपुवी असंखेज्जसमयठितीए जाय एक्कसमयठितीए / से तं पच्छाणुपुख्खी। 1201-3 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [201-3 उ.] आयुष्मन् ! असंख्यात समय की स्थिति वाले से लेकर एक समय पर्यन्त की स्थिति वाले द्रव्यों का-व्युत्क्रम से उपन्यास करना पश्चानुपूर्वी है / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] 127 [4] से कि तं अणाणुपुवी? प्रणाणुपुब्धी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए असंखेजगच्छगयाए सेढोए अण्णमण्णभासो दुरूवणो / से तं अणाणुपुत्री। [201-4 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [201-4 उ.] आयुष्मन् ! अनान पूर्वी का स्वरूप इस प्रकार जानना कि एक से लेकर असंख्यात पर्यन्त एक-एक की वृद्धि द्वारा निष्पन्न श्रेणी में परस्पर गुणाकार करने से प्राप्त महाराशि में से प्रादि और अंत के दो भंगों से न्यून भंग अनानुपूर्वी हैं। विवेचन--सूत्र में औपनिधिकी कालानपर्वी का वर्णन किया गया है। सूत्र का प्राशय स्पष्ट है कि आदि से प्रारंभ कर अंत तक का क्रम पूर्वानुपूर्वी, व्युत्क्रम से-अन्त से प्रारंभ कर आदि तक का क्रम पश्चानपर्वी तथा अन क्रम एवं व्युत्क्रम से आदि और अंत के दो स्थानों को छोड़कर शेष सभी बीच के भंग अनानुपूर्वी रूप हैं। प्रादि भंग पूर्वानुपूर्वी और अंतिम भग पश्चानुपूर्वी रूप होने से इनको ग्रहण न करने का कथन किया है। अब प्रकारान्तर से औपनिधिकी कालानुपूर्वी का वर्णन करते हैं / प्रोपनिधिको कालानपवी : द्वितीय प्रकार 202. [1] अहवा ओवणिहिया कालाणुपुग्वी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-पुथ्वाणपुची 1 पच्छाणुपुथ्वी 2 अणाणुपुच्ची 3 / [202-1] अथवा प्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है / जैसे-१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी, 3. अनानुपूर्वी / _[2] से कि तं पुश्वाणुपुथ्वी ? पुवाणुपुब्बी समए प्रावलिया आणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते दिवसे अहोरते पक्खे मासे उद् प्रयणे संवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससतसहस्से पुन्वंगे पुग्वे तुडियंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अववे हूहुयंगे हुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे गलिणंगे णलिणे अथनिउरंगे अथनिउरे अउयंगे अउए नउयंगे नउए पउयंगे पउए चलियंगे चलिए सोसपहेलियंगे सीसपहेलिया पलिओबमे सागरोवमे ओसप्पिणी उस्सपिणी पोग्गलपरियट्टे तीतद्धा अणागतद्धा सम्वद्धा। से तं पुग्धाणुपुथ्वी / [202-2 प्र. भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या रवरूप है ? [202-2 उ. प्रायुष्मन् ! समय, आवलिका, पानप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वाग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हुहुकांग, हुहुक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपुरांग, अर्थनिपुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, पुद्गलपरावर्त, अतीताद्धा, अनागताद्धा, सर्वाद्धा रूप क्रम से पदों का उपन्यास करना काल संबन्धी पूर्वानुपूर्वी है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 [अनुयोगद्वारसूत्र [3] से कि तं पच्छाणुपुब्धी ? ....... पच्छाणुपुत्वी सम्वद्धा अणागतद्धा जाव समए / से तं पच्छाणुपुब्यो / |202-3 प्र.] भगवन् ! पश्चानपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [202-3 उ.] अायुष्मन् ! मर्वाद्धा, अनागताद्धा यावत् समय पर्यन्त व्युत्क्रम से पदों की स्थापना करना पश्चानुपूर्वी है / [4] से कि तं अणाणुपुत्वो? अणाणपुग्नी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमणभासो दुरूवणे / से तं अणाणुपुची / से तं प्रोवणिहिया कालाणुपुब्बो / से तं कालाणुपुथ्वी। {202-4 प्र.] भगवन् ! अनानपर्वी का स्वरूप क्या है ? [202-4 उ.] अायुष्मन् ! इन्हीं की (समयादि की) एक से प्रारंभ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा सर्वाद्धा पर्यन्त की श्रेणी स्थापित कर परस्पर गुणाकार से निष्पन्न राशि में से प्राद्य और अंतिम दो भंगों को कम करने के बाद बचे शेष भंग अनानुपूर्वी हैं / इस प्रकार से प्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी और साथ ही कालानुपूर्वी का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन--सूत्र में प्रकारान्त र से ग्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी का स्वरूप बताया है और अंत में कालानुपूर्वी के वर्णन की समाप्ति का संकेत किया है। सूत्रोक्त प्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी की वक्तव्यता का स्पष्टीकरण इस प्रकार है औपनिधिकी कालानुपूर्वी के दोनों प्रकारों के अवान्तर भेदों के नाम समान हैं। प्रथम प्रकार में काल और द्रव्य का अभेदोपचार करके समयनिष्ठ द्रव्य का कालानुपूर्वी के रूप में और दूसरे प्रकार में कालगणना के क्रम का कथन किया है। समय काल का सबसे सूक्ष्म अंश और काल गणना की प्राद्य इकाई है। इससे समस्त प्रावलिका आदि रूप काल संज्ञानों की निष्पत्ति होती है। इसीलिये सूत्रकार ने सर्वप्रथम इसका उपन्यास किया है / समय ग्रादि का वर्णन प्रागे किया जाएगा। समय से लेकर सर्वाद्धा पर्यन्त अनुक्रम से उपन्यास पूर्वानुपूर्वी, व्युत्क्रम से उपन्यास पश्चानुपूर्वी एवं पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी गणना के अाद्य भंग को छोड़ कर यथेच्छ किसी भी भंग से उपन्यास करना अनानुपूर्वी रूप है / इस प्रकार समग्र रूप से कालानुपूर्वी का वर्णन करने के अनन्तर अत्र क्रमप्राप्त उत्कीर्तानुपूर्वी का निरूपण करते हैं / उत्कीर्तनानुपूर्वीनिरूपरण 203. [1] से कि तं उक्कित्तणाणुपुब्बी ? उक्कित्तणाणुपुत्वी तिविहा पणत्ता / तं जहा-पुन्वाणुपुव्वी 1 पच्छाणुपुब्वी 2 अणाणुपुन्वी 3 / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण] [129 |203-5 प्र. भगवन् ! उत्कीर्तनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [203-1 उ.] आयुष्मन् ! उत्कीर्तनानुपूर्वी के तीन प्रकार हैं। यथा-१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी, 3, अनानुपूर्वी / [2] से किं तं पुव्वाणपुवी ? पुवाणुपुवी उसभे 1 अजिए 2 संभवे 3 अभिणंदणे 4 सुमती 5 पउमप्पभे 6 सुपासे 7 चंदप्पहे 8 सुविही 9 सीतले 10 सेज्जसे 11 वासुपुज्जे 12 विमले 13 अणते 14 धम्मे 15 संती 16 कुथू 17 अरे 18 मल्ली 19 मुणिसुव्वए 20 णमी 21 अरि?णेमी 22 पासे 23 वद्धमाणे 24 / से तं पुवाणुपुवी। 1203-2 प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? 203-2 उ.] अायुष्मन् ! पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये--१. ऋषभ, 2. अजित, 3. संभव, 4. अभिनन्दन, 5. सुमति, 6. पद्मप्रभ, 7. सुपार्श्व, 8. चन्द्रप्रभ, 9. सुविधि, 10. शीतल, 11. श्रेयांस, 12, वासुपूज्य, 13. विमल, 14. अनन्त, 15. धर्म, 16. शांति, 17. कुन्थ, 18. अर, 19. मल्लि, 20. मुनिसुव्रत, 21. नमि, 22. अरिष्टनेमि, 23. पार्व, 24. वर्धमान, इम क्रम से नामोच्चारण करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। [3] से कि तं पच्छाणुपुटवी ? पच्छाणुपुवी बद्धमाणे 24 पासे 23 जाव उसमे 1 / से तं पच्छाणुपुवी / 203-3 प्र. | भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? 1203-3 उ.] मायुग्मन् / व्युत्क्रम से अर्थात् वर्धमान, पार्श्व से प्रारंभ करके प्रथम ऋपभ पर्यन्न नामोच्चारण करना पश्चानुपूर्वी है / [4] से कि तं प्रणाणपुवी ? अणाणुयुध्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए चउधीसगच्छगयाए सेढीए अगणमण्णन्भासो दुरूवणे / से तं प्रणाणुपुवी / से तं उक्कित्तणाणुपुवी। [203-4 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? |203-4 उ.| प्रायुष्मन् ! इन्हीं की (ऋषभ से वर्धमान पर्यन्त की एक से लेकर एक-एक की वद्धि करके चौवीस संख्या की श्रेणी स्थापित कर परस्पर गुणाकार करने से जो राशि बनती है उसमें मे प्रथम और अंतिम भंग को कम करने पर शेष भंग अनानुपूर्वी हैं। विवेचन--सूत्र में उत्कीर्तनापूर्वी की व्याख्या की है। नाम के उच्चारण करने को उत्कीर्तन कहते हैं और इस उत्कीर्तन की परिपाटी उत्कीर्तनानुपूर्वी कहलाती है। ऋषभ, अजित प्रादि का क्रम से वर्धमान पर्यन्त परिपाटी रूप में नामोच्चारण करना उत्कीर्तनानुपूर्वी का प्रथम भेद पूर्वानुपूर्वी है / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [अनुयोगद्वारसूत्र इन ऋषभ आदि के नामोच्चारण में ऋषभनाथ सबसे प्रथम उत्पन्न हुए हैं, इसलिये उनका प्रथम नामोच्चारण किया है / तदनन्तर जिस क्रम से अजित प्रादि हुए उसी क्रम से उनका उच्चारण किया है। पश्चानुपूर्वी में वर्धमान को ग्रादि करके ऋषभ पद को अंत में उच्चारित किया जाता है। एक से लेकर चौवीस अंकों का परस्पर गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो, उसमें प्रादि-अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं / ऋषभ आदि के उत्कीर्तन का कारण-इस शास्त्र में प्रावश्यक का प्रकरण होने पर भी अनानुपूर्वी में सामायिक आदि का उत्कीर्तन न कहकर प्रकरणबाह्य ऋषभ आदि का उत्कीर्तन करने का कारण यह है कि यह शास्त्र सर्वव्यापक है / इसी बात का समर्थन करने के लिये ऋषभ आदि का उत्कीर्तन किया है और उनके नाम का उच्चारण करना इसलिये युक्त है कि वे तीर्थकर्ता हैं। इनके नाम का उच्चारण करने वाला श्रेय को प्राप्त कर लेता है। शेष सूत्रस्थ पदों की व्याख्या सुगम्य है / गरणनानुपर्वो प्ररूपरणा 204. [1] से कि तं गणणाणुपुच्ची ? गणणाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा—पुवाणुपुत्री 1 पच्छाणपस्वी 2 प्रणाणुपुयी 3 / [204-1 प्र.] भगवन् ! गणनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [204-1 उ.] आयुष्मन् ! गणनानुपूर्वी के तीन प्रकार हैं। वे इस तरह---१. पूर्वानुपूर्वी 2. पश्चानुपूर्वी 3. अनानुपूर्वी / [2] से कि तं पुवाणुपुब्बी ? पुवाणुपुवी एक्को दस सयं सहस्सं दससहस्साई सयसहस्सं बससयसहस्साई कोडी दस कोडीनो कोडीसयं दसकोडीसयाइं से तं पुवाणुपुथ्वी / [204-2 प्र. भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? 204-2 उ.] अायुष्मन् ! एक, दस, सौ, सहस्र (हजार), दम सहस्र, शतसहस्र (लाख), दसशतसहस्र, कोटि (करोड़), दस कोटि, कोटिशत (अरब), दस कोटिशन (दस अरब), इस प्रकार से गिनती करता पूर्वानुपूर्वी है। [3] से कि तं पच्छाणुपुथ्वी ? पच्छाणुपुल्वी दसकोडिसयाई जाव एक्को / से तं पच्छाणुपुल्यो। [204-3 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [204-3 उ.] आयुष्मन् ! दस अरब से लेकर व्युत्क्रम से एक पर्यन्त की गिनती करना पश्चानुपूर्वी है। [4] से किं तं प्रणाणुपुवी ? अणाणुपुब्बी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए दसकोडिसयगच्छगयाए सेढोए अन्नमनभासो दुरूवूणो / से तं अणाणुपुब्बी / से तं गणणाणुपुवी / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी मिरूपण [131 [204-4 प्र. भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है। [204-4 उ. आयुष्मन् ! इन्हीं को एक से लेकर दस अरब पर्यन्त की एक-एक वृद्धि वाली श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर गुणा करने पर जो भंग हों, उनमें से प्रादि और अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं / विवेचन प्रस्तुत में सप्रभेद गणनानुपूर्वी का स्वरूप बतलाया है। गिनती करने की पद्धति को गणनानुपूर्वी कहते हैं / 'एक' यह गणना का प्रादि स्थान है और इसके बाद क्रमश: पूर्व-पूर्व को दस गुणा करते जाने पर उत्तर-उत्तर की दस, सौ, हजार आदि की संख्याएँ प्राप्त होती हैं। इनमें पूर्वानुपूर्वी एक से प्रारंभ होती है और पश्चानुपूर्वी इसके विपरीत उत्कृष्ट से प्रारंभ कर जघन्यतम गणनास्थान में पूर्ण होती है। अनानुपूर्वी में जघन्य और उत्कृष्ट पद रूप अनुक्रम एवं व्युत्क्रम छोड़ करके यथेच्छ क्रम का अनुसरण किया जाता है। अब क्रमप्राप्त संस्थानानपूर्वी का स्वरूप बतलाते हैं / संस्थानानपूर्वोप्ररूपणा 205. [1] से कि तं संठाणाणुपुवी ? संठाणाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-पुन्धागुपुत्वी 1 पच्छाणुपुच्ची 2 अणाणुपुवी 3 / |205.1 प्र.] भगवन् ! संस्थानापूर्वी का क्या स्वरूप है ? [205-1 उ. आयुष्मन् ! संस्थानापूर्वी के तीन प्रकार हैं--- 1. पूर्वानुपूर्वी 2. पश्चानुपूर्वी 3. अनानुपूर्वी / [2] से कि तं पुवाणुपुथ्वी ? पुवाणुपुब्बी समचउरंसे 1 णग्गोहमंडले 2 सादी 3 खुज्जे 4 वामणे 5 हुंडे 6 / से तं पुवाणुपुलो। [205-2 प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी किसे कहते हैं ? [205-2 उ.] आयुष्मन् ! 1. समचतुरस्त्रसंस्थान, 2. न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, 3. सादि-- संस्थान, 4. कुब्जसंस्थान, 5. वामनसंस्थान, 6. हुंडसंस्थान के कम से संस्थानों के विन्यास करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। [3] से कि तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुची हुंडे 6 जाव समचउरंसे 1 / से तं पच्छाणपन्धी / [205-3 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [205-3 उ.] आयुष्मन् ! हंडसंस्थान से लेकर समचतुरस्रसंस्थान तक व्युत्क्रम से संस्थानों का उपन्यास करना पश्चानुपूर्वी है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [अनुयोगद्वारसूत्र [4] से कि तं अणाणुपुन्यो ? अणाणुपुम्वी एयाए व एगादियाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नभाओ दुरूवूणे / से तं अणाणुपुब्वी / से तं संठाणाणुपुत्वी / [205-4 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [205-4 प्र.] अायुप्मन् ! एक से लेकर छह तक को एकोत्तर वृद्धि वाली श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने पर निष्पन्न राशि में से प्रादि और ग्रन्न रूप दो भगों को कम करने पर शेष भंग अनानुपूर्वी हैं / इस प्रकार से संस्थानानुपूर्वी का स्वरूप जानना चाहिए। विवेचन--सूत्र में संस्थानानुपूर्वी का स्वरूप बतलाया है / संस्थान, आकार और प्राकृति, ये समानार्थक शब्द हैं / इन संस्थानों की परिपाटी संस्थानानुपूर्वी कहलाती है। यद्यपि ये संस्थान जीव और अजीव सम्बन्धी होने से दो प्रकार के हैं, तथापि यहाँ जीव से संबद्ध और उसमें भी पंचेन्द्रिय जीव संबन्धी ग्रहण किये गये हैं। ये संस्थान समचतुरस्र प्रादि के भेद से छह प्रकार के हैं। इनके लक्षण क्रमश इस प्रकार हैं 1. समचतुरस्रसंस्थान-..'समा चतस्रोऽस्त्रयो यत्र तत् समचतुरस्रम्' यह इसकी व्युत्पत्ति है। तात्पर्य यह हुअा कि जिस संस्थान में नाभि से ऊपर के और नीचे के समस्त अवयव सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार अपने-अपने प्रमाण से युक्त हों हीनाधिक न हों, वह समचतुरस्रसंस्थान है। इस संस्थान में शरीर के नाभि से ऊपर और नीचे के सभी अंग-प्रत्यंग प्रमाणोपेत होते हैं / आरोह-परिणाह (उतारचढ़ाव) अनुरूप होता है। इस संस्थान वाला शरीर अपने अंगुल से एक सौ पाठ अंगुल ऊंचाई वाला होता है, यह संस्थान सर्वोत्तम होता है / समस्त संस्थानों में मुख्य, शुभ होने से इस संस्थान का प्रथम उपन्यास किया है। 2. न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान-न्यग्रोध के समान विशिष्ट प्रकार के शरीराकार को न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान कहते हैं / न्यग्रोध वटवृक्ष का नाम है / इसके समान जिसका मंडल (आकार)हो अर्थात् जैसे न्यग्रोध-वटवृक्ष ऊपर में संपूर्ण अवयवों वाला होता है और नीचे बैसा नहीं होता। इसी प्रकार यह संस्थान भी नाभि से ऊपर विस्तार वाला और नाभि से नीचे हीन प्रमाण वाला होता है। इस प्रकार का संस्थान न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान कहलाता है। 3. सादिसंस्थान----'पादिना सह यद् वर्तते तत् सादि / ' अर्थात् नाभि से नीचे का उत्सेध नाम का देहभाग यहाँ यादि शब्द से ग्रहण किया गया है / अतएव नाभि से नीचे का भाग जिस संस्थान में विस्तार वाला और नाभि से ऊपर का भाग हीन होता है, वह संस्थान सादि है / यद्यपि समस्त शरीर आदि सहित होते हैं, तो भी यहाँ सादि विशेषण यह बतलाने के लिए प्रयुक्त किया है इस सस्थान में नाभि के नीचे के अवयव आद्य संस्थान जैसे होते हैं, नाभि से ऊपर के अवयव वैसे नहीं होते। 4. कुब्ज संस्थान--जिस संस्थान में सिर, ग्रीवा, हाथ, पैर तो उचित प्रमाण वाले हों, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी निरूपण [133 किन्तु हृदय, पीठ और उदर प्रमाण-विहीन हों, वह कुब्जसंस्थान है। अर्थात् पीठ, पेट आदि में बड हो ऐसा संस्थान कुब्जसंस्थान कहलाता है। 5. वामनसंस्थान--जिस संस्थान में बक्षस्थल, उदर और पीठ लक्षणयुक्त प्रमाणोपेत हों और बाकी के अवयव लक्षणहीन हों, उसका नाम वामनसंस्थान है। यह संस्थान कुब्ज से विपरीत होता है / सामान्य व्यवहार में ऐसे स्थान वाले को बौना या बामनिया कहा जाता है / 6. हुंडसंस्थान -जिस संस्थान में समस्त शरीरावयव प्राय: लक्षणविहीन हों। किन्हीं-किन्हीं प्राचार्यों ने संस्थानों के क्रम में वामन को चौथा और कुब्ज को पांचवां स्थान दिया है / समचतुरस्त्र संस्थान समस्त लक्षणों से युक्त होने से मुख्य है और शेष में यथाक्रम लक्षणों से हीनता होने के कारण अशुभता है / इस प्रकार संस्थानानुपूर्वी की वक्तव्यता पूर्ण हुई / अब शेष रहे दो भानुपूर्वीभेदों में से पहले समाचारी-प्रानुपूर्वी का विचार करते हैं / समाचारो-प्रानुपूर्वीप्ररूपरणा 206. [1] से किं तं सामायारीमाणुपुथ्वी ? सामायारोआणुपुग्वी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-पुन्वाणुपुव्वी 1 पच्छाणुपुच्वी 2 अणाणुयुव्वी 3 / [206-1 प्र.] भगवन् ! समाचारी-यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? / 206-1 उ.] अायुष्मन् ! ममाचारी-अानुपूर्वी तीन प्रकार की है--१. पूर्वानुपूर्वी 2. पश्चानुपूर्वी, 3. अनानुपूर्वी / [2] से कि तं पुन्वाणुपुब्बी ? पुवाणुपुवी इच्छा 1 मिच्छा 2 तहक्कारो 3 आवसिया 4 य निसीहिया 5 / आपुच्छणा 6 य पडिपुच्छा 7 छंदणा 8 य निमंतणा। उवसंपया य काले 10 सामायारी भवे बसविहा 3 // 16 // से तं पुन्वाणुपुन्वी / [206-2 प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [206-2 उ.] आयुष्मन् ! पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है 1. इच्छाकार, 2. मिथ्याकार, 3. तथाकार, 4. अावश्यकी, 5. नैषेधिकी, 6. आप्रच्छना, 7. प्रतिप्रच्छना, 8. छंदना, 9. निमंत्रणा, 10. उपसंपद् / यह दस प्रकार की समाचारी है। उक्त क्रम से इन पदों की स्थापना करना पूर्वानुपूर्वी है। [3] से कि तं पच्छाणुपुब्बी ? पच्छाणुपुब्बी उवसंपया 10 जाव इच्छा 1 / से तं पच्छाणुपन्वी / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R [अनुमोमबारसूत्र 1206-3: प्र. भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का स्वरूप क्या है ? [206-3 उ.] आयुष्मन् ! उपसंपद् से लेकर इच्छाकार पर्यन्त व्युत्क्रम से स्थापना करना समात्कारी सम्बन्धी पश्चानुपूर्वी है। [4]. से कि तं अणाणुपुच्ची ? अणाणुपुत्वी एयाए चेव एमादियाए एगुत्तरियाए दसगच्छगयाए सेढीए अन्नमसम्भासो. दुरूवूणो / से तं अणाणुपुवी। से तं सामाधारीआणुपुची। 12.6.4 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? 206-4 उ.] अायुष्मन् ! एक से लेकर दस पर्यन्त एक-एक की वृद्धि द्वारा श्रेणी रूप में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने से प्राप्त राशि में से प्रथम और अन्तिम भंग को कम कारने पर शेष रहे भंग अमानुपूर्वी हैं। इस प्रकार से समाचारी-मानुपूर्वी का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन—सूत्रार्थ सुगम है। शिष्ट जनों द्वारा प्राचरित क्रियाकलाप रूप प्राचार की परिपाटी समाचारी यानपूीं है और उस समाचारी का इच्छाकार आदि के क्रम से उपन्यास करना पूर्वानुपूर्वी आदि है / इच्छाकार आदि के लक्षण इस प्रकार हैं-- 1. इच्छाकार-बिना किसी दबाव के अान्तरिक प्रेरणा से व्रतादि के आचरण करने की इच्छा करना इच्छाकार है। 2. मिथ्याकार-प्रकृत्य का सेवन हो जाने पर पश्चात्ताप द्वारा मैंने यह मिथ्या– असत आचरण किया, ऐसा विचार करना मिथ्याकार कहलाता है। 3. तथाकार गुरु के वचनों को 'तहत' कहकर स्वीकार करना-गुरु-आज्ञा को स्वीकार करना। 4. आवश्यको-अावश्यक कार्य के लिए बाहर जाने पर गुरु से निवेदन करना / 5. नषेधिको कार्य करके वापस आने पर अपने प्रवेश की सूचना देना। 6. आपच्छमा--किसी भी कार्य को करने के लिये गुरुदेव से प्राज्ञा लेला—पूछना / 7. प्रतिप्रच्छना—कार्य को प्रारंभ करते समय पुनः गुरुदेव से पूछना अथका किसी कार्य के लिये गुरुदेव ने मना कर दिया हो तब थोड़ी देर बाद कार्य की अनिवार्यता बताकर पुनः पूछना। 8. छंदना- अन्य सांभोमिक साधुनों से अपना लाया पाहार आदि ग्रहण करने के लिये निवेदन करना। 9. निमन्त्रणा–पाहारादि लाकर श्राफ्को दूंगा, ऐसा कहकर अन्य साधुओं को निमंत्रित करना / 10. उपसंपत्-श्रुतादि की प्राप्ति के अर्थ अन्य साधु की प्राधीनता स्वीकार करना / इच्छाकारादि का उपन्यासक्रम-धर्म का आचरण स्वेच्छामूलक है। इसके लिये पर की आज्ञा कार्यकारी नहीं होती है। इसलिये इच्छा प्रधान होने से सर्वप्रथम इच्छाकार का उपन्यास किया है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानुपूर्वी निरूपण] [135 असादिकों में स्खलमा होने पर "मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता है / अत: इच्छाकार के बाद मिथ्याकार का पाठ रखा है। और मिथ्याकार ये दोनों गरुवचनों पर विश्वास रखने पर शक्य है. अतः मिथ्याकार के बाद तथाकार का विन्यास किया है / गुरुवचन को स्वीकार करके भी शिष्य का कर्तव्य है कि जब यह उपाश्रय से बाहर जाए तो अाज्ञा लेकर जाए। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये तथाकार के बाद आवश्यकी का पाठ रखा है। बाहर गया हया शिष्य नषेधिकी पूर्वक ही उपाश्रय में प्रवेश करे / यह संकेत करने के लिये अावश्यकी के बाद नैषेधिकी का उपन्यास किया है। उपाश्रय में प्रविष्ट शिष्य जो कुछ भी करे वह गुरु की आज्ञा लेकर करे / यह बताने के लिए नषेधिकी के बाद आप्रच्छना का पाठ रखा है। किसी कर्त्तव्य कार्य को करने के लिये शिष्य गुरु से आज्ञा ले और वे उस कार्य को न करने की आज्ञा दें और कार्य अत्यावश्यक हो तो कार्य प्रारंभ करने के पूर्व पुन: गुरु से प्राज्ञा ले, यह बताने के लिए प्राप्रच्छना के अनन्तर प्रतिप्रच्छना का विन्यास किया है। गुरु की आज्ञा प्राप्त कर अशनादि लाने वाला शिष्य उसके परिभोग के लिये अन्य साधुओं को सादर आमंत्रित करे, इस बात को बताने के लिये प्रतिप्रच्छना के बाद छंदना का पाठ रखा है। गृहीत आहारादि में ही छन्दना होती है, परन्तु अगृहीत आहारादि में निमंत्रणा होती है, इसीलिये छन्दना के बाद निमंत्रणा का विन्यास किया है। इच्छाकार से लेकर निमंत्रणा तक की सभी समाचारी गुरुमहाराज की निकटता के बिना नहीं की जा सकती है / इसका संकेत करने के लिये सबसे अंत में उपसंपत् का उपन्यास किया है / समाचारी-पानुपूर्वी का यह स्वरूप है / अब आनुपूर्वी के अंतिम भेद भावानुपूर्वी का कथन करते हैं / भावानुपूर्वीप्ररूपरणा 207. [1] से किं तं भावाणुपुन्वी ? भावाणुपुब्बी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-पुवाणुपुब्बी 1 पच्छाणुपुव्वी 2 अणाणुपुवी 3 / [207-1 प्र.] भगवन् ! भावानपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [207-1 उ.] आयुष्मन् ! भावानपुर्वी तीन प्रकार की है / यथा- 1. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी, 3. अनानुपूर्वी / [2] से कि संपुधाणुपुग्यो ? पुवाणुपुरधी सबइए 1 उपसमिए 2 खतिए 3 खओक्समिए 4 प्रारिणामिए 5 सन्निवातिए 6 / से तं पुयाणुपुब्धी।। [207-2 प्र.] 'भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136) [अनुयोगद्वार सूत्र [207-2 उ.] अायुष्मन् ! 1. प्रौदयिकभाव, 2. प्रौपशमिकभाव, 3. क्षायिकभाव, 4. क्षायोपशमिकभाव 5. पारिणामिक भाव, 6. सान्निपातिकभाव, इस क्रम से भावों का उपन्यास करना पूर्वानुपूर्वी है। [3] से कि तं पच्छाणपन्वी ? पच्छाणुपुच्ची सन्निवातिए 6 जाव उदइए 1 / से तं पच्छाणपुवी। [207-3 प्र.] भगवन् ! पश्चानपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [207-3 उ.] आयुग्मन ! सान्निपातिकभाव से लेकर प्रौदयिकभाव पर्यन्त भावों को व्युत्क्रम से स्थापना करना पश्चानुपूर्वी है। [4] से कि तं अशाणपत्वी ? अणाणुपुन्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमनभासो दुरूव्रणो / से तं अणाणुपुछी / से तं भावाणुयुची / से तं आणुपुत्वी त्ति पदं समत्तं / [207-4 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [207-4 उ.] अायुष्मन् ! एक से लेकर एकोत्तर वृद्धि द्वारा छह पर्यन्त की श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने पर प्राप्त राशि में से प्रथम और अंतिम भंग को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं / इस प्रकार से भाव-अनानुपूर्वी का वर्णन पूर्ण हुआ और इसके साथ ही उपक्रम के प्रानुपूर्वी नामक प्रथम भेद की वक्तव्यता भी समाप्त हुई। विवेचन—सूत्र में भावानुपूर्वी का स्वरूप बतलाया है। वस्तु के परिणाम (पर्याय) को भाव कहते हैं / प्रस्तुत भाव अन्तःकरण की परिणति विशेष रूप हैं। भाव जीव और अजीव दोनों में पाये जाते हैं, परन्तु प्रसंग होने से यहाँ जीब से संबद्ध भावों को ग्रहण किया है, अर्थात् ये प्रौदयिक प्रादि भाव जीव के परिणाम विशेष हैं / इन परिणाम रूप भावों की परिपाटी को भावानुपूर्वी कहते हैं। भावों का क्रमविन्यास -इस शास्त्र में नारकादि चारों गतियां औदयिकभाव रूप से कही जाने वाली हैं और प्रौदयिकभाव रूप नरकादि गतियों के होने पर ही शेष प्रौपशमिक आदि भाव यथासंभव उत्पन्न होते हैं / इसी कारण उसका सर्वप्रथम उपन्यास किया है और इसके बाद अवशिष्ट पांच भावों का। अवशिष्ट पाच भावों में भी प्रौपशमिक भाव अल्प विषय वाला है / इसलिये प्रथम सौपशमिक भाव का और प्रौपशमिक की अपेक्षा अधिक विषय वाला होने से औपशमिक के बाद क्षायिकभाव का विन्यास किया है। इसके अनन्तर विषयों की तरतमता का पाश्रय करके क्रम से क्षायोपशमिक और पारिणामिक भाव का पाठ रखा है / इन पूर्वोक्त भावों के द्विकादि संयोगों से सान्निपातिकभाव उत्पन्न होता है / इससिये अब से अंत में सान्निपातिकभाव का उपन्यास किया गया है / __इस प्रकार का क्रमविन्यास पूर्वानुपूर्वी रूप है और व्युत्क्रम पश्चानुपूर्वी है और आदि तथा अंत भंग को छोड़कर शेष भंग अनानुपूर्वी हैं। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [137 इस प्रकार से भावानुपूर्वी का वर्णन जानना चाहिये / पूर्व में नामानुपूर्वी से लेकर भावानुपूर्वी नक जो दस ग्रानुपूवियों के नाम गिनाये थे, उनका वर्णन समाप्त हो चुका है, यह सूचना सूत्र में से तं प्राणुपुव्वी' पद द्वारा दी गई है तथा 'ग्राणुपुब्बि ति पदं समत्त' पद द्वारा यह बतलाया है कि उपक्रम के प्रथम भेद प्रानुपूर्वी की बक्तव्यता भी समाप्त हुई। अब उपक्रम के दूसरे भेद नाम का वर्णन करते हैं। नामाधिकार की भूमिका 208. से कि तं गामे ? णामे दसविहे पण्णत्ते / तं जहा--एगणामे 1 दुणामे 2 तिणामे 3 चउणामे 4 पंचणामे 5 छणामे 6 सत्तणामे 7 अट्ठणामे 8 णवणामे 9 दसणामे 10 / | 208 प्र. भगवन् ! नाम का क्या स्वरूप है ? | 208 उ.| अायुष्मन् ! नाम के दस प्रकार हैं। वे इस तरह---१. एक नाम, 2. दो नाम, 3. तीन नाम. 4. चारनाम, 5. पांच नाम, 6. छह नाम, 7. सात नाम, 8. पाठ नाम, 9, नो नाम. 10. दम नाम / विवेचन----उपक्रम के द्वितीय भेद नाम की प्रमपणा की भूमिका रूप यह सूत्र है। नाम का लक्षण--- जीव, अजीव रूप किसी भी वस्तु का अभिधायक-वाचक शब्द नाम कहलाता है।' इस नाम के एक, दो, तीन आदि प्रकारों से दस भेद हैं / जिस एक नाम से समस्त पदार्थों का कथन हो जाए, वह एक नाम है / जैसे सत् / ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं जो सत्ता से विहीन हो अतः इस सत् नाम से लोकवर्ती समस्त पदार्थो का युगपत् कथन हो जाने से सत् एक नाम का उदाहरण है। इसी प्रकार जिन दो, तीन, चार, यावत् दस नामों से समस्त विवक्षित पदार्थ कहने योग्य वनते हैं वे क्रमशः दो से लेकर दस नाम तक जानना चाहिए / अब कम से एक, दो ग्रादि नामों के स्वरूप का निर्देश करते हैं। 1. एकनाम 209. से कि तं एगणामे ? एगणामे णामाणि जाणि काणि वि दव्वाण गुणाण पज्जवाणं च / तेसि आगमनिहसे नाम ति परूविया सण्णा // 17 // से तं एगणामे। 1. जं वत्थुशोभिहाणं पज्जयभेयाणसारि तं णामं / पइभेअं जं नमई पइभेअं जाइ जं भणिअं॥ अनुयोगवत्ति, पत्र 104 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [अनुयोगद्वारतत्र [209 प्र.] भगवन् ! एकनाम का क्या स्वरूप है ? [209 उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यों, गुणों एवं पर्यायों के जो कोई नाम लोक में रूढ़ हैं, उन सरको 'नाम' ऐसी एक सज्ञा आगम रूप निकष (कसौटी) में कही गई है / 17 / यह एकनाम का स्वरूप है। विवेचन—सूत्र में एकनाम का स्वरूप बतलाया है / जीव, अजीव भेद विशिष्ट द्रव्यों के जैसे जीव, जन्तु, आत्मा, प्राणी, अाकाश, नभस्, तारापथ व्योम, अम्बर इत्यादि और गुणों के यथा ज्ञान, बुद्धि, बोध इत्यादि तथा रूप, रस, गंध इत्यादि तथा नारकत्व आदि पर्यायों के जैसे नारक, तिर्यंच, मनुष्य आदि, एक गुण कृष्ण, दो गुण कृष्ण इत्यादि लोक में रूढ़ सभी नाम 'नामत्व' इस सामान्य पद से गृहीत हो जाने से वे एक नाम कहलाते हैं / सारांश यह है कि संसार में द्रव्यों, गुणों, पर्यायों के सभी लोफरूढ़ नाम यद्यपि पृथक्-पृथक् हैं, किन्तु नामत्व सामान्य की अपेक्षा वे सब नाम एक ही हैं। आगम की निकषरूपता-जैसे सोना, चांदी ग्रादि के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान निकषपट्ट (कसौटी) से होता है, उसी प्रकार जीवादि पदार्थों के स्वरूप का परिज्ञान आगम-~-शास्त्र से / अतः उनके स्वरूप के परिज्ञान का हेतु होने से सूत्रकार ने प्रागम को निकष की उपमा से उपमित किया है / 2. द्विनाम 210. से कि तं दुणामे ? कुणामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगवखरिए य 1 अणेगक्खरिए य / [210 प्र.] भगवन् ! द्विनाम का क्या स्वरूप है ? [210 उ.] आयुष्मन् ! द्विनाम के दो प्रकार हैं-१. एकाक्षरिक और 2. अनेकाक्षरिक / 211. से कि तं एगखरिए ? एगक्खरिए अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहाह्रीः श्रीः धीः स्त्री। से तं एगवखरिए। [211 प्र.] भगवन् ! एकाक्षरिक द्विनाम का क्या स्वरूप है ? [211 उ.] आयुष्मन् ! एकाक्षरिक द्विनाम के अनेक प्रकार हैं। जैसे कि ह्री (लज्जा अथवा देवता विशेष), श्री (लक्ष्मी अथवा देवता विशेष), धी (बुद्धि), स्त्री आदि एकाक्षरिक नाम हैं। 212. से कि तं अणेगवखरिए? अणेगक्खरिए अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा–कण्णा वीणा लता माला / से तं अणेगक्खरिए / [212 प्र.] भगवन् ! अनेकाक्षरिक द्विनाम का क्या स्वरूप है ? [212 उ.] आयुष्मन् ! अनेकाक्षरिक नाम के भी अनेक प्रकार हैं / यथा---कन्या, वीणा, लता, माला प्रादि अनेकाक्षरिक द्विनाम हैं। विवेचन-सूत्र में द्विनाम का स्वरूप उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है। द्विनाम का तात्पर्य है दो अक्षरों से बना हुअा नाम / किसी भी वस्तु का उच्चारण अक्षरों के Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण माध्यम से होता हैं / अतः एक अक्षर से निष्पन्न नाम को एकाक्षरिक और एक से अधिक-अनेक अक्षरों से निष्पन्न होने वाले नाम को अनेकाक्षरिक कहते हैं / श्री, ही आदि नामों के अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य नामों को भी एकाक्षरिक नाम समझना चाहिये तथा वीणा, माला आदि दो अक्षरों के योग से निष्पन्न नामों की तरह बलाका, पताका आदि तीन अक्षरों या इनसे अधिक अक्षरों से निष्पन्न नामों को अनेकाक्षरिक नाम में अन्साहित जानना चाहिए। इन एकाक्षर और अनेकाक्षरों से निष्पन्न नाम से विवक्षित समस्त वस्तुसमूह का प्रतिपादन किये जाने से यह द्विनाम कहलाता है / नाम के द्वारा वस्तु वाच्य होती है / अत: अब प्रकारान्तर से वस्तुमुखेन द्विनाम का निरूपण करते हैं 213. अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-जीवनामे य 1 अजीवनामे य 2 / [213] अथवा द्विनाम के दो प्रकार कहे गये हैं / यथा-१. जीवनाम और 2. अजीवनाम / 214. से कि तं जीवणामे ? जोवणामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं नहा—देवदत्तो जण्णदत्तो विष्णुदत्तो सोमवतो। सेतं जीवनामे। [214 प्र.] भगवन् ! जीवनाम का क्या स्वरूप है ? [214 उ.] आयुष्मन् ! जीवनाम के अनेक प्रकार कहे गये हैं। जैसे देवदत्त, यज्ञदत्त, विष्णुदत्त, सोमदत्त इत्यादि / यह जीवनाम का स्वरूप है / 215. से कि तं अजीवनामे ? अजीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा-घडो पडो कडो रहो / सेतं अजीवनामे / [215 प्र.] भगवन् ! अजीवनाम का क्या स्वरूप है ? 215 उ.] आयुष्मन् ! अजीवनाम भी अनेक प्रकार के हैं / यथा-घट, पट, कट, रथ इत्यादि / यह अजीवनाम हैं। विवेचन---नाम के द्वारा वाच्य पदार्थ दो प्रकार के हैं-- जीव और अजीब / जिसमें चेतना पाई जाती है उसे जीव कहते हैं / अथवा तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, प्रायु और श्वासोच्छवास रूप गों तथा ज्ञान, दर्शन आदि भावप्राणों से जो जीता था, जीता है और जीवित रहेगा वह जीव है। जिसमें जीव का गुण, धर्म, स्वभाव नहीं पाया जाता है उसे अजीव कहते हैं। यह दोनों प्रकार के पदार्थ लोक में सदैव पाये जाते है। अतः लोकव्यवहार चलाने के लिये उनकी जो पृथक्-पृथक् संज्ञाएं निर्धारित की जाती हैं, उनका द्विनाम में अन्तर्भाव कर लिया जाता किन्तु जीव और अजीव कहने मात्र से लोक-व्यवहार नहीं चलता है / क्योंकि एक शब्द से इष्ट अर्थ का ग्रहण और अनिष्ट का परिहार नहीं किया जा सकता है। तथा ये जीव और अजीच Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [अनुयोगद्वारसूत्र पदार्थ अनेक हैं / अतः उन सब का बोध कराने के लिये प्रकारान्तर से पुनः द्विनाम का निरूपण करते हैं। 216. [1] अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा--विसे सिए य 1 अविसेसिए य 2 / [266-1] अथवा अपेक्षादृष्टि से द्विनाम के और भी दो प्रकार हैं। यथा-... 1. विशेषित और अविशेषित / विवेचन-सूत्र में द्विनाम का एक और रूप स्पष्ट किया है / अविशे पित-अभेद-सामान्य और विशेषित-भेद-विशिष्ट की अपेक्षा भी द्विनाम के दो प्रकार है / इन दो प्रकारों के होने का कारण यह है--उत्तरापेक्षया पूर्व अविशेष और भेद प्रधान होने से उत्तर विशेष है। जो निम्नलिखित सूत्रों से स्पष्ट है-- [2] अविसे सिए दवे, विसेसिए जीवदच्चे य अजीवदव्वे य / [216-2] द्रव्य यह अविशे पित नाम है और जीवद्रव्य एवं ग्रजी व द्रव्य ये विशेषित नाम हैं। [3] अविसे सिए जीवदव्वे, विसेसिए णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे / [216-3] जीवद्रव्य को अविशेधित नाम माने जाने पर नारक, तिर्यंचयोनिक, मनाय और देव ये विशेषित नाम हैं। [4] अविसेसिए णेरइए, विसेसिए रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धमपभाए तमाए तमतमाए। अविसेसिए रयणप्पभापुढविणेरइए, विसेसिए पज्जत्तए य अपज्जत्तए य। एवं जाव अविसेसिए तमतमापुढविणेरइए, विसेसिए पज्जत्तए य अपज्जत्तए य। [216-4] नारक अविशेषित नाम है और रत्नप्रभा का नारक, शर्कराप्रभा का नारक. वालुकाप्रभा का नारक, पंकप्रभा का नारक, धूमप्रभा का नारक, तमःप्रभा का नारक, तमस्तमःप्रभा का नारक यह विशेषित द्विनाम हैं। रत्नप्रभा का नारक, इस नाम को अविशेषित माना जाए तो रत्नप्रभा का पर्याप्त नारक और रत्नप्रभा का अपर्याप्त नारक विशेषित नाम होंगे यावत् नमस्तमःप्रभापृथ्वी के नारक को अविशेषित मानने पर उसके पर्याप्त और अपर्याप्त ये विशेषित नाम कहलाएँगे। [5] अविसेसिए तिरिक्खजोणिए, विसेसिए एगिदिए बेइंदिए तेइं दिए चरिदिए पंचिदिए / (216-5 तिर्यनयोनिक इस नाम को अविशेषित माना जाए तो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये पांच विशेषित नाम हैं। [6] अविसेसिए एगिदिए, विसेसिए पुढविकाइए आउकाइए तेउकाइए बाउकाइए वणस्सइकाइए। अक्सेिसिए पुढ बिकाइए, विसेसिए सुहुमपढविकाइए य बादरपुढविकाइए य / अक्सेिसिए सुहुमपुढविकाइए, विसेसिए पज्जत्तयसुहुमपुढविकाइए य अपज्जत्तयसुहुमपुढविकाइए य। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण 141 ___ अविसेसिए बादरपुढविकाइए, विसेसिए पज्जत्तयबादरपुढविकाइए य अपज्जत्तयवावरपुढविकाइए य। एवं आउ. तेउ. वाउ. वणस्सती. य अविसेसिए य पज्जत्तय-अपज्जयभेदेहि भाणियन्वा / [216-6] एकेन्द्रिय को विशेपित नाम माना जाये तो पृथ्वी काय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय ये विशेषित नाम हैं। ___ यदि पृथ्वीकाय नाम को अविशेषित माना जाये तो सूक्ष्मपृथ्वीकाय और बादरपृथ्वीकाय यह विशेषित नाम हैं। सूक्ष्मपृथ्वीकाय नाम को अविशेषित मानने पर पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय और अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय यह विशेषित नाम हैं / बादरपृथ्वीकाय नाम अविशेषित है तो पर्याप्न बादरपृथ्वीकाय और अपर्याप्त बादरपृथ्वीकाय यह विशेषित नाम हैं। इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय इन नामों को अविशेषित नाम माने जाने पर अनुक्रम से उनके पर्याप्त और अपर्याप्त ये विशेपित नाम हैं। [7] अविसेसिए बेइंदिए, विसेसिए यज्जत्तयबेइंदिए य अपज्जत्तय बेइंदिए य / एवं तेइंदियचरिदिया वि भाणियब्वा / [216-7 ] यदि द्वीन्द्रिय को अविशेषित नाम माना जाये तो पर्याप्त द्वीन्द्रिय और अपर्याप्त दीन्द्रिय विशेषित नाम हैं / इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के लिये भी जानना चाहिए / [8] अविसेसिए पंचेंदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए खयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य / [216-8] पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक को अविशेषित नाम मानने पर जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक विशेषित नाम हैं। [9] अविसेसिए जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए, विसे सिए सम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिए य गम्भवतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य / / अविसेसिए सम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिए, विसेसिए पज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयसमुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिए य / अविसेसिए गम्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए, विसे सिए पज्जत्तयगम्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य / [216-9] जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक अविशेषित नाम है तो सम्मूर्छिम जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक और गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक यह विशेषित नाम है। संमूर्छिम जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक अविशेषित नाम है तो उसके पर्याप्त संमूर्छिम जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, अपर्याप्त संमूर्छिम जलचर पंचेन्द्रियतियं त्रयोनिक ये दो भेद विशेषित नाम हैं। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142) [अनुमोपद्वार गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक यह नाम अविषित है और पर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक तथा अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रियतियंचयोनिक नाम विशेषित हैं। [10] अविसेसिए बलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए, विससिए चउपयलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिए य परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य / अविससिए चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिए य गन्भवतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य / अविससिए सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए पन्जत्तयसम्मुग्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिए य अपज्जत्तयसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिकालजोणिए य। अविसेसिए गम्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिए, विसेंसिए पज्जत्तयगम्भवक्कतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयगम्भवक्कतियच उप्पमथलयरपंधेदियतिरिक्खजोगिए य। अविसेसिए परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिए, विसेसिए उरपरिसप्पथलयरपंरियतिरिक्खजोणिए य भुयपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिए य। एवं सम्मुच्छिमा पज्जत्ता अपज्जता य, गम्भवक्कंतिया वि पज्जत्ता अपज्जत्ता य भाणियख्वा / [216-10 अलबर पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक को अविशेषित नाम माने जाने पर चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, परिसर्प थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक विशेषित नाम हैं। यदि चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतियंचयोनिक को अविणेषित माना जाये तो सम्मूर्छिम चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतियंचयोनिक और गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक थे भेद विशेषित नाम हैं। सम्मूर्छिम चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रिय तिर्थचयोनिक यह अविशेषित नाम हो तो पर्याप्त सम्मूर्छिम चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक और अपर्याप्त सम्मूर्छिम चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक विशेषित नाम हैं। यदि गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतियं च योनिक नाम को अविशेषित माना जाये तो पर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक और अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक ये विशेषित नाम हैं। यदि परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक यह अविशेषित नाम है तो उसके भेद उरपरिसर्प थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक और भुजपरिसर्प थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नाम विशेषित नाम हैं। इसी प्रकार संमूर्छिम पर्याप्त और अपर्याप्त तथा गर्भव्युत्क्रान्तिक पर्याप्त, अपर्याप्त का कथन कर लेना चाहिये। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हामाधिकार निरूपण] [11] अविसेसिए खहयरपं.दियतिरिक्खजोणिए, विसेंसिए सम्मुच्छिमखहयरपंचेदियतिरिक्खजोणिए य गम्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य। अविसेसिए सम्मुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए पज्जत्तयसम्मुस्छिमखयरपंचेदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयसमुच्छिमखयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य / ___ अविसेसिए गम्भवतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए पज्जत्तयगम्भवक्कतियखहयरपंचेदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए य / / [216-11] खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक अविशषित नाम है तो समूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और गर्भव्यत्क्रान्तिक खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक विशे पित नाम रूप हैं। ___ यदि संमूछिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नाम को अविणेषित नाम माना जाये तो पर्याप्त समूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और अपर्याप्त संमूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक रूप उसके भेद विशेषित नाम हैं। इसी प्रकार गर्भव्युत्क्रान्तिक खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नाम को अविशेषित माना जाये तो पर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक ये नाम विशेषित नाम कहे जायेंगे। [12] अविसेसिए मगुस्से, विसेलिए सम्मुच्छिममणसे य गम्भवक्कंतियमणुस्से य / अविसेसिए सम्मुच्छिममणूसे, विसेसिए पज्जत्तयसम्मुच्छिममणसे य अपज्जत्तगसम्मुच्छिममणूसे य। अविसेसिए गब्भवक्कंतियमणसे, विसेसिए पज्जत्तयगम्भवक्कलियमणूसे य अपज्जत्तयगन्भवक्कंतियमणूसे य। [216-12] मनुष्य इस नाम को अविशेषित (सामान्य) नाम माना जाये तो संमूच्छिम मनुष्य और मर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य यह नाम विशेषित कहलायेंगे। संमूच्छिम मनुष्य को अविशेषित नाम मानने पर पर्याप्त समूच्छिम मनुष्य और अपर्याप्त संमूच्छिम मनुष्य यह दो नाम विशेपित नाम हैं। यदि गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य को अविशेषित माना जाये तो पर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य और अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य नाम विशेषित रूप हो जायेंगे। [13] अविससिए देवे, विसेसिए भवणवासी वाणमंतरे जोइसिए वेमाणिए य / अविसेसिए भवणवासी, विसेसिए असुरकुमारे एवं नाग. सुवण्ण. विज्जु. अग्गि. दीव. उदधि. दिसा. वात. थणियकुमारे / सव्वेसि वि अविससिय-विससिय-पज्जत्तय-अपज्जसयभेया भाणियस्वा / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [अनुयोगद्वारसूत्र [216-13] देव नाम को अविशेषित मानने पर उसके अवान्तर भेद भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक यह देवनाम विशेषित कहलायेगे। यदि उक्त देवभेदों में से भवनवासी नाम को अविशेषित माना जाये तो असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार, और स्तनितकुमार ये नाम विशेषित हैं 1 इन सब नामों में से भी प्रत्येक को यदि प्रविशषित माना जाये तो उन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद विशेषित नाम कहलााँगे। [14] अविसेसिए वाणमंतरे, विसेसिए पिसाए भूते जक्खे रक्खसे किण्णरे किंपुरिसे महोरगे गंधवे। एतेसि पि अविसेसिय-विसेसिय-पज्जत्तय-अपज्जत्तयभेय भाणियन्वा / [216-14] वाणव्यंतर इस नाम को अविशेषित मानने पर पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, ये नाम विशेषित नाम हैं / इन मबमें से भी प्रत्येक को अविशेषित नाम माना जाये तो उनके पर्याप्त अपर्याप्त भेद विशेषित नाम कहलायेंगे / [15] अविसेसिए जोइसिए, विसेसिए चंदे सूरे गहे नक्खत्ते तारारूवे / एतेसि पि अविससिय-विसेसिय-पज्जत्तय-अपज्जत्तयभेया भाणियव्वा / [216-15] यदि ज्योतिष्क नाम को अविशेषित माना जाये तो चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप नाम विशेषित कहे जायेंगे। इनमें से भी प्रत्येक को अविशेषित नाम माना जाये तो उनके पर्याप्त, अपर्याप्त भेद विशेषित नाम हैं। जैसे कि पर्याप्त चन्द्र, अपर्याप्त चन्द्र प्रादि / [16] अविसेसिए वेमाणिए, विसे सिए कप्पोवगे य कप्पातीतए य / अविसेसिए कप्पोवए, विसेसिए सोहम्मए ईसाणए सणंकुमारए माहिदए बंभलोगए लतयए महासुक्कए सहस्सारए आणयए पाणयए आरणए अच्चुतए / एतेसि पि अविसेसिय-विसेसिय-पज्जत्तय-अपज्जत्तयभेदा भाणियव्वा / [216-16] यदि वैमानिक देवपद को अविशेषित नाम माना जाये तो उसके कल्पोपपन्न और कल्पातीत यह दो प्रकार विशेषित नाम हैं / / कल्पोपपत्र को अविशेषिन नाम मानने पर सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतक, महाशुक्र, महस्रार, आनन, प्राणत, पारण, अच्युत विमानवासी देव नाम विशेषित नाम यदि इनमें से प्रत्येक को अविशेषित नाम माना जाये तो उनके पर्याप्त, अपर्याप्त रूप भेद विशेषित नाम कहलायेंगे। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [145 [17] अविसेसिए कप्पातीतए, विसेसिए गेवेज्जए य अणुत्तरोववाइए य / अविसे सिए गेवेज्जए, विसेसिए हेछिमगेवेज्जए मज्झिममेवेज्जए उरिमगेयेज्जए / अविसेसिए हेटिमगेवेज्जए, विसेसिए हेद्विमहेडिमगेवेज्जए हेटिममज्झिमगेवेज्जए हेट्ठिमउरिमगेवेज्जए। अविसेसिए मज्झिमगेवेज्जए, विसेसिए मज्झिमहे टिमगेवेज्जए मज्झिममज्झिमगेवेज्जए मज्झिमउवरिमगेवेज्जए। अविसेसिए उरिमगेवेज्जए, विसेसिए उचरिमहेटिमगेवेज्जए उरिमज्झिमगेवेज्जए उवरिमउवरिमगेवेज्जए। एतेसि पि सम्वेसि अविसेसिय-विसेसिय-पज्जत्तय-अपज्जत्सयभेदा भाणियध्वा / [216-17] यदि कल्पातीन को अविशेषित नाम माना जाये तो ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरोपपातिक देव विशेषित नाम हो जाएँगे ! अवयकवासी को अविशेषित नाम मानने पर अधस्तनप्रैवेयक, मध्यमवेयक, उपरितनग्रेवेयक ये नाम विशेषित नाम रूप होंगे। जब अधस्तनप्रैवेयक को अविशेषित नाम माना जायेगा तब अधस्तन-अधस्तन ग्रेवेयक, अधस्तन-मध्यम प्रैवेयक, अधरतन-उपरितन अवेयक नाम विशेषित नाम कहलायेंगे / अविशेषित नाम के रूप में मध्यमवेयक को मानने पर मध्यम-अधस्तन अवेयक, मध्यम-मध्यम वेयक, मध्यम-उपरिम वेयक नाम विशेपित नाम होंगे। यदि उपरिम अवेयक को अविशेषित नाम माना जाए तो उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक, उपरिममध्यम ग्रंवेयक, उपरिम-उपरिम वेयक ये नाम विशेषित नाम कहलायेंगे। इन सबको भी अविणेषित नाम माना जाये तो उनके पर्याप्त और अपर्याप्त ये विशेषित नाम कहलायेंगे। [18] अविसेसिए अणुत्तरोववाइए, विसेसिए विजयए वेजयंतए जयंतए अपराजियए सन्वट्ठसिद्धए। एतेसि पि सम्वेसि अविसेसिय-विसेसिय-पज्जत्तय-अपज्जत्तयभेदा भाणियव्वा / |216-18 | यदि अनुत्तरोपपातिक देव इस नाम को अविशेषित नाम कहा जाये तो विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित. सर्वार्थमिद्धविमानदेव विशेषित नाम कहलायेंगे / इन सबको भी अविशपिन नाम की कोटि में ग्रहण किया जाए तो प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद विशेषित नाम रूप हैं। [19] अविसेसिए अजोवदम्वे, विसेसिए धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए य / अविसेसिए पोग्गलस्थिकाए विसेसिए परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव अणंतपएसिए / से तं दुनामे। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] अनुयोगद्वारसूत्र 216-19] यदि अजीवद्रव्य को अविशेषित नाम माना जाये तो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय, ये विशेषित नाम होंगे। यदि पुद्गलस्तिकाय को भी अविशेषित नाम माना जाये तो परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध, यह नाम विशेषित कहलायेंगे / इस प्रकार से द्विनाम का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-इन सूत्रों में अविशेषित और विशेषित इन दो अपेक्षाओं से द्विनाम का वर्णन किया है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। सग्रहनय सामान्य अंश को और व्यवहारनय विशेष को प्रधानता देकर स्वीकार करता है / संग्रहनय द्वारा गृहीत अविशेषित--सामान्यएकत्व में व्यवहारनय विधिपूर्वक भेद करता है। इन दोनों नयों की दृष्टि से ये नाम अविशेषित और विशेषित बन जाते हैं। इनमें पूर्व-पूर्व अविशेषित- सामान्य और उत्तरोत्तर विशेषित-विशेष नाम हैं। सूत्रार्थ सुगम है। सामान्य-विशेष नामों के द्वारा जीव और अजीव द्रव्यों के इस प्रकार भेद करना चाहिये। कतिपय पारिभाषिक शब्द--सूत्र में आगत प्राय: सभी शब्द पारिभाषिक हैं। लेकिन उनमें से यहाँ कतिपय विशेष शब्दों के ही अर्थ प्रस्तुत करते हैं। संमूर्छिम जीव वे हैं जो तथाविहकर्म के उदय से गर्भ के बिना ही उत्पन्न हो जाते हैं। व्युत्क्रान्ति का तात्पर्य उत्पत्ति है। अतः जिन जीवों की उत्पत्ति गर्भजन्म से होती है वे गर्भव्युत्क्रान्तिक जीव हैं / जो सरकते हैं, वे परिसर्प कहलाते हैं / ये जीव भुजपरिसर्प और उरपरिसर्प के भेद से दो प्रकार के हैं / सादिक जीव छाती से सरकने वाले होने से उरपरिसर्प कहलाते हैं और जो जीव भुजाओं से सरकते हैं, वे भुजपरिसर्प हैं। जैसे गोधा, नकुल आदि / इस प्रकार से द्विनाम की वक्तव्यता जानना चाहिये। त्रिनाम 217. से किं तं तिनामे ? तिनामे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा- दवणामे 1 गुणणामे 2 पज्जवणामे य 3 / [217 प्र. भगवन् ! त्रिनाम का क्या स्वरूप है ? [117 उ.] आयुष्मन् ! त्रिनाम के तीन भेद हैं। वे इस प्रकार--१. द्रव्यनाम, 2. गुणनाम और 3 पर्यायनाम / विवेचन-तीन विकल्प वाला नाम त्रिनाम है। सूत्र में द्रव्य, गुण और पर्याय को त्रिनाम का उदाहरण बतलाया है। द्रव्य, गुण, पर्याय का लक्षण-उन-उन पर्यायों को जो प्राप्त करता है उसका नाम द्रव्य है। यह द्रव्य शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है। इस अर्थ के परिप्रेक्ष्य में जैन दार्शनिकों ने द्रव्य की व्याख्या दो प्रकार से की है जो गुण और पर्याय का आधार हो तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाला हो, उसे द्रव्य कहते हैं। त्रिकाल स्थायी स्वभाव वाले असाधारण धर्म को गुण और प्रति समय पलटने वाली अवस्था को अथवा गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं / गुण ध्रव और पर्याय Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [147 उत्पाद-व्यय रूप हैं / इन द्रव्य, गुण और पर्याय के नाम को क्रमशः द्रव्यनाम, गुणनाम और पर्यायनाम कहते हैं। क्रम से अब इन तीनों का स्वरूप बतलाते हैं / (क) द्रव्यनाम 218. से कि तं दवणामे ? दवणामे छबिहे पण्णत्ते / तं जहा-धम्मत्थिकाए 1 अधम्मस्थिकाए 2 आगासस्थिकाए 3 जीवस्थिकाए 4 पोग्गल स्थिकाए 5 अद्धासमए 6 अ / से तं दवणामे / [218 प्र.] भगवन् ! द्रव्यनाम का क्या स्वरूप है ? [218 उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यनाम छह प्रकार का है। यथा-१. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 4. जीवास्तिकाय, 5. पुद्गलास्तिकाय, 6. अद्धासमय / विवेचन-सूत्र में द्रव्यनाम के रूप में विश्व के मौलिक उपादानभूत छह द्रव्यों के नाम बताये हैं। इन छह द्रव्यों में धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय पर्यन्त पांच मुख्य द्रव्य हैं और अद्धासमय की अभिव्यक्ति प्राय: पुद्गलों के माध्यम से होने के कारण उसकी विशेष स्थिति है। वर्तना, परिणमन, परत्व-अपरत्व ग्रादि रूपों के द्वारा उसका बोध होता है। धर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य ही भूर्त है / अर्थात् ऐन्द्रियिक अनुभूति योग्य होने के साथ रूप, रस, गंध, स्पर्श गुणों से युक्त है, जबकि शेष द्रव्य अमूर्त-अरूपी होने से इन्द्रियगम्य नहीं हैं / इसी दृष्टि से प्रथम धर्म से लेकर जीव पर्यन्त अमूर्त द्रव्यों का और इनके बाद मूर्त पुद्गल का निर्देश किया है। धर्म से लेकर पुद्गल पर्यन्त द्रव्यों के साथ अस्तिकाय विशेषण इसलिये दिया है कि ये द्रव्य अस्ति–त्रिकालावस्थायी होने के साथ-साथ काय-बहुप्रदेशी हैं / 'अस्ति' शब्द यहाँ प्रदेशों का वाचक है, अतएव प्रदेशों के काय-पिण्ड रूप द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। श्रद्धासमय का अस्तित्व वर्तमान समय रूप होने से उसके साथ 'काय' विशेषण नहीं लगाया है। (ख) गुरगनाम 219. से कि तं गुणणामे ? __गुणणामे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहावण्णणामे 1 गंधणामे 2 रसणामे 3 फासणामे 4 संठाणगामे 5 / [219 प्र. भगवन् ! गुणनाम का क्या स्वरूप है ? [219 उ.] आयुष्मन् ! गुणनाम के पांच प्रकार कहे हैं। जिनके नाम हैं-~१. वर्णनाम, 2. गंधनाम, 3. रसनाम, 4. स्पर्शनाम, 5. संस्थाननाम / _ विवेचन-सूत्र में बताए गए गुणनाम के पांचों भेद पुद्गलद्रव्य में पाये जाते हैं / यद्यपि धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के अपने-अपने गुण हैं, परन्तु पुद्गलद्रव्य के सिवाय शेष द्रव्यों के अमूर्त होने से उनके गुण भी अमूर्त हैं। इस कारण संभवतः उनका उल्लेख नहीं किया गया है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] [अनुयोगद्वारसूत्र इन वर्णनाम आदि के लक्ष इस प्रकार हैं__ वर्णनाम—जिसके द्वारा वस्तु अलंकृत, अनुरंजित की जाये उरो वर्ण कहते हैं। इस वर्ण का नाम वर्णनाम है / वर्ण चक्षुरिन्द्रिय का विषय है। गंधनाम—जो संघा जाये वह गंध है / यह नाणेन्द्रिय का विषय है। इस गध के नाम को गंधनाम कहते हैं। रसनाम-जो चखा जाता है वह रभ है। यह रसनेन्द्रिय का विषय है। रम का जो नाम बह रसनाम है। स्पर्शनाम-जो स्पर्णनेन्द्रिय द्वारा स्पर्श करने पर जाना जाए वह स्पर्श है और इस म्पर्श का नाम स्पर्शनाम है। संस्थाननाम-आकार, प्राकृति को संस्थान कहते हैं। इस संस्थान के नाम को संस्थाननाम कहते हैं। गुणनाम के इन पांचों भेदों का वर्णन इस प्रकार हैवर्णनाम 220. से कितं वण्णनामे? वण्णनामे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-कालवण्णनामे 1 नीलवण्णनामे 2 लोहियवण्णनामे 3 हालिद्दवण्णनामे 4 सुक्किलवण्णनामे 5 / से तं वण्णनामे / 1220 प्र.] भगवन् ! वर्णनाम का क्या स्वरूप है ? {220 उ.] आयुष्मन् ! वर्णनाम के पांच भेद हैं। वे इस प्रकार-१. कृष्णवर्णनाम 2. नीलवर्णनाम 3. लोहित (रक्त) वर्णनाम 4. हारिद्र (पीत) वर्णनाम 5. शुक्लवर्णताम / यह वर्णनाम का स्वरूप है। विवेचन--सूत्र में वर्णनाम के पांच मूल भदों के नाम बताये हैं। काले, पीले, नीले प्रादि वर्ण (रंग) के स्वरूप को सभी जानते हैं / कत्थई, धूसर आदि और भी वर्ण के जो अनेक प्रकार के हैं, वे इन कृष्ण आदि पाँच मौलिक वर्गों के संयोग से निष्पन्न होने के कारण स्वतन्त्र वर्ण नहीं हैं। इसलिये उनका पृथक उल्लेख नहीं किया है। गंधनाम 221. से कि तं गंधनामे ? गंधनामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–सुरभिगंधनामे य 1 दुरभिगंधनामे य 2 / से तं गंधनामे / [221 . भगवन् ! गंधनाम का क्या स्वरूप है ? [221 उ.] आयुष्मन् ! गंधनाम के दो प्रकार हैं / यथा—१. सुरभिगंधनाम 2. दुरभिगंधनाम / यह गंधनाम का स्वरूप है। विवेचन—सूत्र में गंधनाम के मूल दो भेदों का संकेत किया है। जो गंध अपनी ओर आकृष्ट करती है, वह सुरभिगंध और जो विमुख करती है, वह दुरभिगंध है। इन दोनों के संयोगज और भी अनेक भेद हो सकते हैं, परन्तु इन दोनों की प्रधानता होने से उनका पृथक् निर्देश नहीं किया है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण |149 रसनाम 222. से कि तं रसनामे ? रसनामे पंच विहे पण्णत्ते। तं जहा-तित्तरसणामे 1 कडुयरसणामे 2 कसायरसगामे 3 अंबिलरसणामे 4 महुररसणामे य 5 / से तं रसनामे / [222 प्र. भगवन् ! रसनाम का क्या स्वरूप है ? [222 उ.] आयुष्मन् ! रसनाम के पांच भेद हैं / जैसे—१. तिक्तरसनाम 2. कटु करसनाम 3. कषायरसनाम 4. ग्राम्लरसनाम 5. मधुर रसनाम / इस प्रकार से रसनाम का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-सूत्र में तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर के भेद से रस के पांच प्रकार बतलाये है / इन रसों के गुण, धर्म, स्वभाव इस प्रकार हैं 1. तिक्तरस कफ, अरुचि, पित्त, तृषा, कुष्ठ, विष, ज्वर आदि विकारों को नष्ट करने वाला है। यह रस प्राय: नीम आदि में पाया जाता है। 2. गले के रोग का उपशमक, काली मिर्च आदि में पाया जाने वाला रस कटु करस है। 3. जो रक्तदोष आदि का नाशक है, ऐसा प्रांवला, बहेड़ा आदि में पाया जाने वाला रस कषायरस है / यह स्वभावत: रूक्ष, शीत एवं रोचक होता है / 4. इमली आदि में रहा हुआ रस ग्राम्ल रस है / यह जठराग्नि का उद्दीपक है / पित्त और कफ का नाश करता है, रुचिवर्धक है / लोकभाषा में इसको खट्टा रस कहते हैं। 5. पित्तादि का शमन करने वाला रस मधुर रस है। यह रस बालक, वृद्ध और क्षीण शक्ति वालों को लाभदायक होता है तथा खांड, शक्कर आदि मीठे पदार्थों में पाया जाता है। स्पर्शनाम 223. से कि तं फासणामे ? फासणामे अदविहे पण्णत्ते / तं जहा.-कक्खडफासणामे 1 मउयफासणामे 2 गरुयफासणामे 3 लहुयफासणामे 4 सीतफासणामे 5 उसिणफासणामे 6 गिद्धफासणामे 7 लुक्खफासणामे ८।सेतं फासणामे। [223 प्र.] भगवन् ! स्पर्शनाम का क्या स्वरूप है ? [223 उ.] आयुष्मन् ! स्पर्शनाम के आठ प्रकार कहे हैं। उनके नाम हैं-१. कर्कशस्पर्शनाम 2. मृदुस्पर्शनाम 3. गुरुस्पर्शनाम 4. लघुस्पर्शनाम 5. शीतस्पर्शनाम 6. उष्णस्पर्शनाम 7. स्निग्धस्पर्शनाम 8. रूक्षस्पर्शनाम / यह स्पर्शनाम का स्वरूप है / विवेचन-सूत्र में स्पर्शनाम के आठ प्रकारों का उल्लेख किया है। इन आठ प्रकारों में से Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [अनुयोगदारसूत्र प्रत्येक के साथ नाम शब्द जोड़ देने पर पूरा नाम हो जाता है / जैसे कर्कशस्पर्शनाम, मृदुस्पर्शनाम यावत् रूक्षस्पर्शनाम / पाषाण आदि में कर्कश—खुरदरास्पर्श रहता है / कोमल स्पर्ण मृदुस्पर्श कहलाता है। यह वेत्र आदि में पाया जाता है। जो अधःपतन का कारण हो और लोहे के गोलक आदि में पाया जाता है, वह गुरुस्पर्श है। जो स्पर्श प्रायः ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक गमन में कारण हो और अर्कतुल (आक की रुई) अादि में पाया जाता है, वह लघुस्पर्श है। शीतलता-ठंडेपन का अनुभव कराने में जो हेतु है तथा वर्फ आदि में पाया जाता है, वह शीतस्पर्श है। जो उष्णता---गर्मी का बोधक, आहारादि के पकाने का कारण हो एवं अग्नि आदि के रहता है वह उष्णस्पर्ण है। परस्पर मिले हुए पुद्गलद्रव्यों के संश्लिष्ट होने का जो कारण हो और तेलादि पदार्थों में पाया जाये वह स्निग्धस्पर्श है / जो पुद्गल द्रव्यों के परस्पर प्रबन्ध का कारण हो, ऐसा भस्मादि का स्पर्श रूक्षस्पर्श है। इन स्पर्शो का जो नाम वह तत्तत् नाम बाला स्पर्शनाम समझना चाहिए। स्पर्श के उक्त पाठ भेदों के संयोगज स्पर्शों का भी इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाने से उनका पृथक् निर्देश नहीं किया है। संस्थाननाम 224. से कि तं संठाणणामे ? संठाणणामे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा--परिमंडलसंठाणणामे 1 वट्टसंठाणणामे 2 तंससंठाणणामे 3 चउरंससंठाणणामे 4 आयतसंठाणणामे 5 / से तं संठाणणामे / से तं गुणणामे / (224 प्र.] भगवन् ! संस्थाननाम का क्या स्वरूप है ? |224 उ.] अायुष्मन् ! संस्थाननाम के पांच प्रकार कहे गये हैं। यथा-१. परिमण्डलसंस्थाननाम, 2. वृत्तसंस्थाननाम, 3. व्यत्रसंस्थाननाम, 4. चतुरस्रसंस्थाननाम, 5. आयतसंस्थाननाम। यह संस्थाननाम का स्वरूप है / इस प्रकार से यह गुणनाम की व्याख्या समाप्त हई जानना चाहिए। विवेचन—सूत्र में संस्थाननाम के भेदों को बतलाकर गुणनाम की वक्तव्यता की समाप्ति की सूचना दी है। संस्थान के पांच भेदों का स्वरूप प्रसिद्ध है / जो थाली, सूर्य या चन्द्रमण्डल के समान गोल हो, बीच में किंचिन्मात्र भी खाली स्थान न हो, ऐसा संस्थान परिमण्डलसंस्थान कहलाता है। जब कि वत्तसंस्थान चूडी के समान (बीच में खाली) गोल होता है। तीन कोण (कोने) वाले संस्थान को श्यन-त्रिभुज या तिकोना संस्थान कहते हैं। तीनों भुजाओं की लम्बाई चौड़ाई की भिन्नता से यह सस्थान अनेक प्रकार का हो सकता है। चतुरस्रसंस्थान में चारों कोण एवं लम्बाई-चौड़ाई समान होती है, जबकि आयतसंस्थान में चारों कोण समान होने पर भी लम्बाई अधिक और चौड़ाई कम होती है। . इस प्रकार आकारों की भिन्न-भिन्नरूपता से संस्थाननाम के मुख्य पांच भेद हैं। इनके सिवाय Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] 151 और जो भी भिन्न-भिन्न प्राकृतियां सम्भव हैं, उनका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाने से पांच से अधिक मौलिक संस्थान सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार से गुणनाम की वक्तव्यता का प्राशय जानना चाहिये / पर्यायनाम 225. से कि तं पज्जवनामे ? पज्जवनामे अणेगविहे पण्णते। तं जहा--एगगुणकालए दुगुणकालए जाव अणंतगुणकालए, एगगुणनोलए दुगुणनोलए जाव प्रणतगुणनीलए, एवं लोहिय-हालिद्द-सुक्किला वि भाणियव्वा / एगगुणसुरभिगंधे दुगुणसुरभिगंधे जाव अणंतगुणसुरभिगंधे एवं दुरभिगंधो बि भाणियब्वो। एगगुणतित्ते दुगुणतित्ते जाव अणंतगुणतित्ते, एवं काय-कसाय-अंबिल-महुरा वि भाणियब्वा / एगगुणकक्खडे दुगुणकक्खडे जाव अणंतगुणकक्खडे, एवं मउय-गरुय-लहुय-सीत-उसिण-गिद्धलुक्खा वि भाणियव्वा / से तं पज्जवणामे / [225 प्र.| भगवन् ! पर्यायनाम का क्या स्वरूप है ? [225 उ.] अायुष्मन् ! पर्यायनाम के अनेक प्रकार हैं। यथा-एकगुण (अंश) काला, द्विगुणकाला यावत् अनन्तगुणकाला, एकगुणनीला, द्विगुणनीला यावत् अनन्तगुणनीला तथा इसी प्रकार लोहित (रक्त), हारिद्र (पीत) और शुक्लवर्ण की पर्यायों के नाम भी समझना चाहिए / एकगुणसुरभिगंध, द्विगुणसुरभिगंध यावत् अनन्तगुणसुरभिगंध, इसी प्रकार दुरभिगंध के विषय में भी कहना चाहिए / - एकगुणतिक्त, द्विगुणतिक्त यावत् अनन्तगुणतिक्त, इसी प्रकार कटुक, कषाय, अम्ल एवं मधुर रस की पर्यायों के लिये भी कहना चाहिए। एकगुणकर्कश, द्विगुणकर्कश यावत् अनन्तगुणकर्कश, इसी प्रकार मृदु, गुरु, लघु, शीत, उरण, स्निग्ध, रूक्ष स्पर्श की पर्यायों की वक्तव्यता है। यह पर्यायनाम का स्वरूप है। विवेचन--सूत्र में पर्यायनाम की व्याख्या की है। पर्याय का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। पर्याय द्रव्य के समान सर्वदा स्थायी-ध्र व रूप न होकर उत्पत्ति-विनाश रूपों के माध्यम से परिवर्तित होती रहती है। प्रस्तुत प्रसंग में गुणों को माध्यम बनाकर पर्याय का स्वरूप बताया है / पर्याय एकगुण (अंश) कृष्ण प्रादि रूप है। अर्थात जिस परमाणु आदि द्रव्य में कृष्णगुण का एक अंश हो वह परमाणु आदि द्रव्य एकगुणकृष्णवर्ण आदि वाला है। इसी प्रकार दो आदि अंश से लेकर अनन्त अंशों तक के लिये जानना चाहिये / ये सभी अंश पर्याय हैं। पुदगलास्तिकाय के दो भेद हैं-- अणु और स्कन्ध / इनमें से स्कन्धों में तो पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और पाठ स्पर्ण कुल मिलाकर बोस गुण और परमाणुओं में कर्कश, मृदु, गुरु, लघु ये चार स्पर्श नहीं होने से कुल सोलह गुण पाये जाते हैं तथा एक परमाणु में शेष रहे शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [अनुयोगद्वारसूत्र इन चार स्पर्शों में से भी एक समय में अविरोधी दो स्पर्श तथा एक वर्ण, एक गंध, एक रस, इस प्रकार कुल पाँच गुण और उनके पर्याय सम्भव हैं। ये वर्ण आदि गुण मूर्त वस्तु---पुद्गल से कभी विलग नहीं होते हैं किन्तु इनके एक, दो आदि रूप अंश रूपान्तरित होते रहते हैं। तभी द्रव्य के प्रवस्थान्तर होने का बोध होता है। जैसे किसी परमाणु में सर्वजधन्य (एकगुण) कृष्णादि गुण हैं, वे दो अंश कृष्णादि गुणों के आने पर निवृत हो जाते हैं / इसीलिये कृष्णादि गुणों के ये एक. दो, तीन यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्त अंश सब पर्याय पुद्गलास्तिकाय के गुण-पर्यायों का उल्लेख क्यों ? जैसे ये वर्ण, गंध आदि गुण और इनके अंश रूप पर्याय पुद्गलास्तिकाय में पाए जाते हैं, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय आदि में भी गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व श्रादि गुण और प्रत्येक में अनन्त अगुरुलघु रूप पर्याय पाए जाते हैं। परन्तु अमूर्त होने से उनका उल्लेख नहीं करके इन्द्रिय-प्रत्यक्ष होने से पुद्गल की द्रव्य, गुण और पर्यायरूपता का ही यहाँ उल्लेख किया है। इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्याय के भेद से विनाम की व्याख्या करने के बाद अब प्रकारान्तर से पुनः त्रिनाम की एक और व्याख्या करते हैं / त्रिनाम की व्याख्या का दूसरा प्रकार 226. तं पुण णाम तिविहं इत्थी 1 परिसं 2 णपुसगं 3 चेव / एएसि तिण्हं पि य अंतम्मि परूवणं वोच्छं // 18 // तत्थ पुरिसस्स अंता आ ई ऊ ओ य होंति चत्तारि / ते चेव इत्थियाए हवंति ओकारपरिहीणा // 19 // अं ति य इं ति य उ ति य अंता उ णपुसगस्स बोद्धव्वा / एतेसि तिण्हं पि य वोच्छामि निसणे एत्तो // 20 // आकारंतो राया ईकारंतो गिरी य सिहरी य / ऊकारंतो विण्ह दुमो ओअंताओ परिसाणं // 21 // आकारता माला ईकारंता सिरी य लच्छी य / ऊकारंता जंबू वह य अंता उ इत्थीणं // 22 // अंकारतं धन्नं इंकारतं नसकं अच्छि / उंकारंतं पीलु महुं च अंता णपुसाणं / / 23 / / से तं तिणामे। [226] उस त्रिनाम के पुनः तीन प्रकार हैं / जैसे-१ स्त्रीनाम 2 पुरुषनाम और 3 नपुंसकनाम / इन तीनों प्रकार के नामों का बोध उनके अन्त्याक्षरों द्वारा होता है। / / 18 / / पुरुषनामों के अंत में 'पा, ई, ऊ, ओ' इन चार में से कोई एक वर्ण होता है तथा स्त्रीनामों के अंत में 'ओ' की छोड़कर शेष तीन (ग्रा, ई, ऊ) वर्ण होते हैं / / 19 / / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [153 जिन शब्दों के अन्त में अं, इं या उं वर्ण हो, उनको नपुंसकलिंग वाला समझना चाहिये / अब इन तीनों के उदाहरण कहते हैं ! // 20 // आकारान्त पुरुप नाम का उदाहरण राया (राजा) है। ईकारान्त का उदाहरण गिरी (गिरि) तथा सिहरी (शिखरी) हैं / ऊकारान्त का उदाहरण विण्हू (विष्णु) और ओकारान्त का दुमो (द्रुमो-वृक्ष) है / / 21 / / स्त्रीनाम में 'माला' यह पद प्राकारान्त का, सिरी (श्री) और लच्छी (लक्ष्मी) पद ईकारान्त, जम्बू (जामुन वृक्ष), वह (वधू ) ऊकारान्त नारी जाति के (नामों के) उदाहरण हैं / / 22 / / धन्न (धान्य) यह प्राकृनपद अंकारान्त नपुंसक नाम का उदाहरण है / अच्छि (अक्षि) यह इंकारान्त नपुसकनाम का नया पीलु (पोलु-वक्ष विशेष) महं (मधु) ये उंकारान्त नपुंसकनाम के पद इस प्रकार यह त्रिनाम का स्वरूप है। विवेचन--सूत्र में प्रकारान्तर से त्रिनाम का स्वरूप स्पष्ट किया है / द्रव्यादि सम्बन्धी नाम स्त्री, पुरुष और नपंसकलिंग के भेद से तीन प्रकार के हैं और इन तीनों लिंगों का बोध उन-उन नामों के अन्त में प्रागत प्राकारादि वर्णों द्वारा होता है। प्राकृत भाषा की तरह संस्कृत में भी लिंगापेक्षया शब्दों के तीन प्रकार हैं, लेकिन हिन्दी में पुरुष और स्त्री लिंग शब्द ही माने गये हैं / अतः हिन्दी में त्रिनामता नहीं है। इस प्रकार व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से लिंगानुसार यह त्रिनाम का स्वरूप जानना चाहिये। चतुर्नाम 227. से कि तं चतुणामे ? चतुणामे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा—आगमेणं 1 लोवेणं 2 पयईए 3 विगारेणं 4 / | 227 प्र. भगवन् ! चतुर्नाम का क्या स्वरूप है ? [227 उ.] आयुष्मन् ! चतुर्नाम के चार प्रकार हैं / यथा--१. प्रागमनिष्पन्ननाम 2. लोपनिष्पन्न नाम 3. प्रतिनिष्पन्न नाम 4. विकारनिष्पन्न नाम / 228. से कि तं आगमेणं ? | आगमेणं पमानि पयां सि कुण्डानि / से तं आगमेणं / [228 प्र.] भगवन् ! आगमनि पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [228 उ.] अायुष्मन् ! पद्मानि, पयासि, कुण्डानि प्रादि ये सब प्रागमनिष्पन्ननाम हैं। 229. से कि तं लोवेणं? लोवेणं ते अत्र तेऽत्र, पटो अत्र पटोऽत्र, घटो अत्र घटोऽत्र, रथो अत्र रथोऽत्र / से तं लोवेणं / [229 प्र.] भगवन् ! लोपनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [229 उ.] अायुप्मन् ! ते+अत्र-तेऽत्र, पटो+अत्र---पटोऽत्र, घटो+अत्र घटोऽत्र, रथो+ अत्र---रथोऽत्र, येलोपनापन्ननाम हैं / 230. से कि तं पगतीए ? अग्नी एतौ, पटू इमो, शाले एते, माले इमे / से तं पगतीए / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 [अमुयोगास्सूध [230 प्र.] भगवन् ! प्रकृतिनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [230 उ.] अायुष्मन् ! अग्नी एनौ, पटू इमो, शाले एते, माले इमे इत्यादि प्रयोग प्रकृतिनिष्पन्न नाम हैं। 231. से कि तं विकारेणं ? विकारेणं दण्डस्य अग्रं दण्डानम्, सा आगता साऽऽगता, दधि इदं दधीदम्, नदी ईहते मदोहते, मषु उदकं मधूदकम्, बहु ऊहते बहूहते / से तं विकारेणं / से तं चउणामे / [231 प्र. भगवन् ! विकारनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [231 उ.] अायुष्मन् ! दण्डस्स+ अग्रं---दण्डाग्रम, सा+पागता--साऽऽगता, दधि+ इदंदधीदं, नदी + ईहते नदीहते, मधु + उदकं- मधूदक, बहु+ऊहते-बहूहते, ये सब विकारनिष्पन्ननाम हैं। इस प्रकार से यह चतुर्नाम का स्वरूप है। विवेचन---सूत्र 227 से 231 तक पांच सूत्रों में आपेक्षिक निष्पन्नताओं द्वारा चतुर्नाम का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। पागम, लोप, प्रकृति और विकार इन चार कारणों से निष्पन्न होने से चतुर्नाम के चार प्रकार हैं / इन अागमनिष्पन्न आदि के लक्षण इस प्रकार हैं आगमनिष्पन्न-किसी वर्ण के प्रागम--प्राप्ति से निष्पन्न पद पागमनिष्पन्न कहलाते हैं। जैसे पद्मानि इत्यादि / इनमें 'ध्रुट्स्वराद् घुटि नु: (कातंत्रव्याकरण सूत्र 24) सूत्र द्वारा आगम का विधान होने से पदमानि आदि शब्द प्रागमनिष्पन्न के उदाहरण हैं। इसी प्रकार 'संस्कार इत्यादि शब्दों के लिये जानना चाहिये कि इनमें सुट का आगम होने से 'संस्कार' यह आगमनिष्पन्न नाम हैं। लोपनिष्पन्न-किसी वर्ण के लोप-अपगम से जो शब्द निष्पन्न होते हैं उन्हें लोपनिष्पन्ननाम कहते हैं। जैसे ते+यत्र-तेऽत्र इत्यादि / इन शब्दों में 'एदोत्परः पदान्ते' (कातंत्रव्याकरण सूत्र 115) सूत्र द्वारा प्रकार का लोप होने से यह लोपनिष्पन्न नाम हैं। इसी प्रकार मनस् + ईषा-मनीषा (बुद्धि), भ्रमतीति 5 : इत्यादि शब्द सकार, मकार आदि वर्गों के लोप से निष्पन्न होने के कारण लोपनिष्पत्रनाम हैं। प्रकति निष्पन्न- जो प्रयोग जैसे हैं उनका वैसा ही रूप रहना प्रकृतिभाव है / अतः जिन प्रयोगों में प्रकृतिभाव होने से किसो प्रकार का विकार (परिवर्तन) न होकर मूल रूप में ही रहते हैं, उन्हें प्रकृतिनिष्पत्रनाम कहते हैं। ये प्रयोग व्याकरणिक विभक्ति आदि से संयुक्त होते हैं / जैसे—'अग्नी एतौ' इत्यादि शब्द / यहाँ 'द्विवचनमनो' (का. सू. 62) सूत्र द्वारा प्रकृतिभाव का विधान किये जाने से सन्धि नहीं हुई / यह प्रकृतिनिष्पन्ननाम का उदाहरण है / विकारनिष्पन्न-किसी वर्ण का वर्णान्तर के रूप में होने को विकार कहते हैं / विकार से निष्पन्न होने वाला नाम विकार निष्पन्ननाम कहलाता है। अर्थात् जिस नाम में किसी एक वर्ण के स्थान पर दूसरे वर्ण का प्रयोग होता है वह विकारनिष्पन्ननाम है। जैसे 'द इस्य + अग्रम् --दंडाग्रम्' आदि / इन उदाहरणों में, 'समानः सवर्णे दीर्धीभवति परश्च लोपम् (का. 24) सूत्र द्वारा आकार रूप Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [155 दीर्घ वर्णात्मक विकार किये जाने से ये विकारनिष्पन्ननाम के उदाहरण हैं / इसी प्रकार अन्यान्य विकारनिष्पन्न नामों का विचार स्वयं कर लेना चाहिये / शब्दशास्त्र की दृष्टि से सभी शब्द प्रकृति प्रत्यय प्रागम आदि किसी-न-किसी एक से निष्पन्न होते हैं / डित्थ, डवित्थ आदि अव्युत्पन्न माने गये शब्द भी शाकटायन के मत से व्युत्पन्न हैं और उनका इन पागम प्रादि चार नामों में से किसी न किसी एक में समावेश हो जाता है / यह चतुर्नाम की व्याख्या है। पंचनाम 232. से कि तं पंचनामे? पंचनामे पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा–नामिकं 1 नेपातिक 2 आख्यातिकं 3 औपसगिकं 4 मिथं 5 च / अश्व इति नामिकम्, खल्विति नेपातिकम्, धावतीत्याख्यातिकम्, परि इत्यौपगिकम्, संयत इति मिश्रम् / से तं पंचनामे। [232 प्र. भगवन् ! पंचनाम का क्या स्वरूप है ? [232 उ.] आयुष्मन् ! पंचनाम पांच प्रकार का है / वे पांच प्रकार हैं-१ नामिक, 2 नैपातिक, 3 श्राख्यातिक, 4 औपसगिक और 5 मिश्र / जैसे 'अश्व' यह नामिकनाम का, 'खलु' नैपातिकनाम का, 'धावति' आख्यातिकनाम का, 'परि' औपसगिक और ‘संयत' यह मिश्रनाम का उदाहरण है। यह पंचनाम का स्वरूप है / विवेचन-सूत्र में पंचनाम के पांच प्रकारों का निर्देश किया है। इन नामिक आदि पांचों में समस्त शब्दों का संग्रह हो जाने से ये पंचनाम कहे जाते हैं। क्योंकि शब्द या तो किसी वस्तु का वाचक होता है अथवा निपात से, क्रिया की मुख्यता से, उपसर्गों से, संज्ञा (नाम) के साथ उपसर्ग के संयोग से अपने अभिधेय-वाच्य का बोध कराता है। जैसे-..'अश्व' शब्द वस्तु का वाचक होने से नामिक है / 'खलु' शब्द निपातों में पठित होने से नैपातिक है। क्रिया-प्रधान होने से 'धावति' यह तिनन्त पद आख्यातिक है / 'परि' यह प्र, परा, अप, सम् आदि उपसर्गों में पठित होने से प्रौपसर्गिक है तथा 'संयत' यह सुबन्त पद सम् उपसर्ग और यत् धातु-इन दोनों के संयोग से बना होने के कारण मिश्र है। इस प्रकार से यह पंचनाम का स्वरूप है। छहनाम 233. से कि तं छनामे ? छनामे छविहे पण्णत्ते / तं जहाउदइए 1 उवसमिए 2 खइए 3 खओक्समिए 4 पारिणामिए 5 सन्निवातिए 6 / [233 प्र.) भगवन् ! छहनाम का क्या स्वरूप है ? [233 उ.] प्रायुष्मन् ! छहनाम के छह प्रकार कहे हैं। वे ये हैं-१. प्रौदयिक, 2. प्रोपशमिक, 3. क्षायिक, 4. क्षायोपशमिक, 5. पारिणामिक और 6. सान्निपातिक / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन--यहाँ छहनाम के प्रकरण में नाम और नामवाले अर्थों में अभेदोपचार करके छह भावों की प्ररूपणा की है। सूत्रोक्त उदइए-औदयिक प्रादि से औदयिकभाव, प्रौपशमिकभाव, क्षायिक भाव, क्षायोपशमिकभाव, पारिणामिकभाव और सान्निपातिकभाव इस प्रकार समग्र पद का ग्रहण किया गया है / इन श्रीदयिकभाव आदि के लक्षण इस प्रक 1. औदायिकभाव-ज्ञानावरण आदि पाठ प्रकार के कर्मों के विपाक का अनुभव करने को उदय कहते हैं / इस उदय का अथवा उदय से निष्पन्न भाव (पर्याय) का नाम प्रौदयिकभाव है / 2. औपशमिकभाव- सत्ता में रहते हए भी कर्मों का उदय में नहीं रहना अर्थात् प्रात्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रकट न होना या प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार के कर्मोदय का रुक जाना उपशम है। जैसे भस्मराशि से आच्छादित अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार इस उपशम अवस्था में कर्मो का उदय नहीं होता है, किन्तु वे सत्ता में स्थित रहते हैं। इस उपशम का नाम ही औपशमिकभाव है / अथवा इस उपशम से निष्पन्न भाव को प्रोपरामिकभाव कहते हैं / यह भाव सादिसान्त है। 3. क्षायिकभाव-कर्म के प्रात्यन्तिक विनाश होने को क्षय कहते हैं। यह क्षय ही क्षायिक है / अथवा क्षय से जो भाव उत्पन्न होता है वह क्षायिकभाव है। सारांश यह कि कर्म के प्रात्यन्तिक क्षय से प्रकट होने वाला भाव क्षायिकभाव है / यह भाव सादि-अनन्त है। 4. क्षायोपश मिकभाव-कर्मों का क्षय और उपशम होना क्षयोपशम है। यह क्षयोपशम हो क्षायोपशमिकभाव है / अथवा क्षयोपशम से जो भाव उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिकभाव है। यह भाव कुछ बझी हई और कुछ नहीं बुझी हुई अग्नि के समान जानना चाहिये। तात्पर्य यह हाय इस क्षयोपशम में कितनेक सर्वघातिस्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और कितनेक सर्वघातिस्पर्धकों का सदवस्था रूप उपशम होता है और देशघाति प्रकृति का उदय रहता है। इसीलिये इस भाव को कुछ बुझी हुई और कुछ नहीं बुझी हुई अग्नि की उपमा दी है। क्षयोपशम में कर्म के उदयावलिप्रविष्ट मंद रसस्पर्धकों का क्षय और अनुदीयमान रसस्पर्धकों की सर्वघातिनी विपाकशक्ति का निरोध या देशघाति रूप में परिणमन होता है। यद्यपि क्षयोपशम में कुछ कर्मों का उदय रहता है किन्तु उनकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाने के कारण वे जीव के गुणों को घातने में समर्थ नहीं होते हैं। पूर्णशक्ति के साथ कर्मों का उदय में न प्राकर क्षीणशक्ति होकर उदय में पाना ही यहाँ क्षय या उदयाभावी क्षय और सत्तागत सर्वघाति कर्मों का उदय में न आना ही सदवस्थारूप उपशम कहलाता है। यद्यपि देशपाती कर्मों का उदय होने की अपेक्षा यहाँ प्रौदयिक भाव भी माना जा सकता है किन्तु गुण के प्रकट होने वाले अंश की अपेक्षा इसे क्षायोपशमिकभाव कहा है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरुपण [157 5. पारिणामिकभाव-अमुक-अमुक रूप से वस्तुधों का परिणमन होना परिणाम और यह परिणाम ही पारिणामिकभाव है / अथवा उस परिणाम से जो भाव उत्पन्न होता है वह पारिणामिकभाव है / अथवा जिसके कारण मूल वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो, वस्तु का स्वभाव में ही परिणत होते रहना पारिणामिकभाव है। 6. सान्निपातिकभाव-इन पांचों भावों में से दो-तीन आदि भावों का मिलना सन्निपात है, यह सन्निपात ही सानिपातिकभाव है। अथवा इस सन्निपात से जो भाव उत्पन्न होता है. वह सान्निपातिकभाव कहलाता है। अब इन भावों का विस्तार से स्वरूप निरूपण करते हैं। औदयिकभाव 234. से कि तं उदइए? उदइए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–उदए य 1 उदयनिष्फण्णे य 2 / [234 प्र. भगवन् ! औदयिक भाव का क्या स्वरूप है ? [234 उ. | आयुष्मन् ! औदायिकभाव दो प्रकार का है। जैसे--१. प्रौदयिक और 2. उदयनिष्पन्न / 235. से कि तं उदए ? उदए अढण्हं कम्मपगडीणं उदएणं / से तं उदए। [235 प्र. भगवन् ! प्रौदयिक का क्या स्वरूप है ? [235 उ.] अायुष्मन् ! ज्ञानावरणादिक आठ कर्मप्रकृतियों के उदय से होने वाला औदयिकभाव है। 236. से कि तं उदयनिष्फरणे ? उदयनिष्फण्णे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-जीवोदयनिष्फन्ने य 1 अजीवोदयनिष्फन्ने य 2 / [236 प्र.] भगवन् ! उदयनिष्पन्न प्रौदयिकभाव का क्या स्वरूप है ? [236 उ.] आयुष्मन् ! उदयनिष्पन्न औदयिकभाव के दो प्रकार हैं--१. जीवोदयनिष्पन्न, 2. अजीवोदयनिष्पन्न / विवेचन-ये तीन सूत्र औदयिकभाव निरूपण की भूमिका हैं। ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों का और कर्मों के उदय से होने वाला भाव-पर्याय औदयिकभाव है। इन दोनों भेदों में परस्पर कार्यकारणभाव है। ज्ञानावरण आदि पाठ कर्मों का उदय होने पर तज्जन्य अवस्थायें उत्पन्न होने से कर्मोदय कारण है और तज्जन्य अवस्थायें कार्य हैं एवं उन-उन अवस्थाओं के होने पर विपाकोन्मुखी कर्मों का उदय होता है, इस दृष्टि से अवस्थायें कारण हैं और विपाकोन्मुख कर्मोदय कार्य है। . उदयनिष्पन्न के जीवोदयनिष्पन्न और अजीवोदयनिष्पन्न भेद मानने का कारण यह है कि कर्मोदय के जीव और अजीव यह दो माध्यम हैं / अत: कर्मोदयजन्य जो अवस्थायें साक्षात् जीव को प्रभावित करती हैं अथवा कर्म के उदय से जो पर्याय जीव में निष्पन्न होती हैं, वे जीवोदयनिष्पन्न और अजील के माध्यम से जिन अवस्थाओं का उदय होता है, वे अजीवोदय निष्पन्न औदयिकभाव हैं। .: Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्य अनुयोगहार सूत्र जीवोपयनिष्पन्न औदयिकभाव 237. से कि तं जीवोक्यनिष्फन्ने ? जीवोदयनिष्फन्ने अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा-गेरइए तिस्विखजोणिए मणुस्से वेवे, पुढविकाइए जाव वणस्सइकाइए, तसकाइए, कोहकसायी जाव लोहकसायी, इत्थीवेदए पुरिसवेदए णपुंसमवेदए, कण्हलेसे एवं नील० काउ० तेउ० पम्ह० सुक्कलेसे, मिच्छादिट्ठी अविरए अण्णाणी आहारए छउमत्थे सजोगी संसारत्थे असिद्धे / से तं जीवोदयनिष्फन्ने। |237 प्र.] भगवन् ! जीवोदयनिष्पन्न प्रौदायिकभाव का क्या स्वरूप है ? [237 उ.] अायुष्मन् ! जीवोदयनिष्पन्न प्रौदयिकभाव अनेक प्रकार का कहा गया है। यथा-नैरयिक, निर्यचयोनिक, मनुष्य, देव, पृथ्वीकायिक यावा वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक, क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुसकवेदी, कृष्णलेश्यी, नील-कापोत-तेज-पद्मशुक्ललेश्यी, मिथ्यादृष्टि, अविरत, अज्ञानी, याहारक, छद्मस्थ, सयोगी, संसारस्थ, प्रसिद्ध / यह जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव का स्वरूप है। अजीवोदयनिष्पन्न प्रौदयिकभाव 238. से कि तं अजीवोदय निष्फन्ने ? अजीवोदयनिष्फन्ने चोद्दस विहे पण्णत्ते / तं जहा- ओरालियं वा सरीरं 1 ओरालियसरीरपयोगपरिणामियं वा दब्बं 2 वेउम्वियं वा सरीरं 3 वेउब्वियसरीरपयोगपरिणामियं वा दम्ब 4 एवं आहारगं सरीरं 6 तेयगं सरीरं 8 कम्मग सरोरं च भाणियध्वं 10 पयोगपरिणामिए वणे 11 गंधे 12 रसे 13 फासे 14 / से तं अजीवोदयनिष्फण्ण / से तं उदयनिष्फण्णे / से तं उदए। [238 प्र. भगवन् ! अजीवोदयनिष्पन्न यौदयिकभाव का क्या स्वरूप है ? |238. उ.] अायुष्मन् ! अजीवोदय निष्पन्न प्रौदयिकभाव चौदह प्रकार का कहा है / यथा१. औदारिकशरीर, 2. औदारिकशरीर के व्यापार से परिणामितगहीत द्रव्य, 3. वैक्रियशरीर, 4. वैविक्रशरीर के प्रयोग से परिणामित द्रव्य, इसी प्रकार 5-6 आहारकशरीर और आहारकशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य, 7-8 तैजस शरीर और तैजसशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य, 9-10 कार्मणशरीर और कार्मणशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य तथा 11-14 पांचों शरीरों के व्यापार से परिणामित वर्ण, गंध, रस, स्पर्श द्रव्य / / इस प्रकार से यह अजीवोदयनिष्पन्न यौदयिकभावः तथा उदयनिष्पन्न और औदयिक दोनों प्रकार के प्रौदयिकभावों की प्ररूपणा जानना चाहिये। विवेचन-इन दो सूत्रों में जीवोदयनिष्पन्न और अजीवोदयनिष्पन्न प्रौदयिकभाव' का निरूपण किया है / कर्मों के उदय से जीव में उदित होने वाला भाव जीवोदयनिष्पन्न और अजीव के माध्यम से उदित होने काला भाव अजीवोदयनिष्पन्न प्रौदयिकभाव है। जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव में नारक आदि चार गतियां, क्रोधादि चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, छह लेण्यायें, असंयम, संसारित्व, प्रसिद्धत्व आदि परिगणित किये गये हैं, क्योंकि Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाधिकार निरूपण] 1A59 ये सब भाव कर्म के उदय से जीव में ही निष्पन्न होते हैं / जैसे कि गतिनामकर्म के उदय से मनुष्यगति आदि गतियां उत्पन्न होती हैं और इन गतियों का उदय होने पर जीव मनुष्य, तिर्यंच आदि कहलाता है। इसी प्रकार कोधादि चारों कषायों का उदय कषाय चारित्रमोहनीयकर्मजन्य है तथा नोकषायचारित्रमोहनीय का उदय होने पर स्त्री प्रादि वेदत्रिक, हास्यादि नोकषाय निष्पन्न होते हैं / मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मिथ्यादर्शन और ज्ञानावरण के उदय से अज्ञान होता है। लेश्याएं कषायानुरंजित योगप्रवृत्ति रूप हैं और योग शरीरनामकर्म के उदय के फल हैं। चारित्रमोहनीय के सर्वघातिस्पर्धकों के उदय से असंयतभाव तथा किसी भी कर्म का उदय रहने तक असिद्धत्वभाव एवं संसारस्थत्वभाव होता है। इसी प्रकार कर्मोदय से जीव में जो भी अन्य पर्याय निष्पन्न हों, वे सब जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव रूप हैं / सूत्रकार द्वारा सूत्र में जीवोदयनिष्पन्न के रूप में किये गये कतिपय नामों का उल्लेख उपलक्षण मात्र है / अत: इनके समान ही निद्रा, निद्रानिद्रा प्रादि निद्रापंचक प्रति जो भी जीव के स्वाभाविक गुणों के घातक कर्म हैं, उन सबके उदय से उत्पन्न पर्यायों को जीवोदयनिष्पन्न प्रौदयिकभावरूप समझना चाहिये। ___ अजीबोदयनिष्पन्न औदयिकभाव के भी अनेक प्रकार बताये हैं। जैसे औदारिक आदि शरीर / इन शरीरादि को अजीवोदयनिष्पन्न औदायिकभाव इसलिये कहा है कि यद्यपि नारकत्व आदि पर्यायों की तरह प्रौदारिक आदि शरीर भी जीव के होते हैं, लेकिन औदारिक आदि शरीरनामकर्मों का विपाक मुख्यतया शरीर रूप परिणत पुद्गलों में होने से इन्हें पुद्गलविपाकी प्रकृतियों में परिगणित किया है और पुद्गल अजीव है / अतः इनको अजीवोदयनिष्पन्न प्रौदयिकभाव रूप माना जाता है। औपमिकभाव 239. से कि तं उवसमिए ? उवसमिए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-उवसमे य 1 उवसमनिटफण्णे य 2 / (239 प्र.] भगवन् ! औपशमिकभाव का क्या स्वरूप है ? [239 उ.| आयुष्मन् ! प्रौपशमिकभाव दो प्रकार का है / वह इस प्रकार ---1. उपशम और 2. उपशमनिष्पन्न / 240. से कि तं उवसमे ? उबसमे मोहणिज्जस्स कम्मस्स उवसमेणं / से तं उवसमे / [240 प्र.] भगवन् ! उपशम (ौपशमिक) का क्या स्वरूप है ? [240 उ. आयुष्मन् ! मोहनीयकर्म के उपशम से होने वाले भाव को उपशम (पौषशमिक) भाव कहते हैं। 241. से किं तं उसमनिप्फण्णे? उवसमनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा---उवसंतकोहे जाव उवसंतलोभे उपसंतपेज्जे उपसंतदोसे उवसंतदंसणमोहणिज्जे उवसंतचरितमोहणिज्जे उवसंतमोहणिज्जे उपसभिया सम्मत्तलद्धी उपसमिया चरित्तलद्धी उवसंतकसायछउमत्थवीतरागे / से तं उवसमनिष्फण्णे / से तं उपसमिए / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [अनुयोगद्वारसूत्र [241 प्र.] भगवन् ! उपशमनिष्पन्न औपशमिकभाव का क्या स्वरूप है ? [241 उ.] आयुष्मन् ! उपशमनिष्पन्न प्रौपशमिकभाव के अनेक प्रकार हैं। जैसे कि उपशांतक्रोध यावत् उपशांतलोभ, उपशांतराग, उपशांतद्वेष, उपशांतदर्शनमोहनीय, उपशांतचारित्रमोहनीय, उपशांतमोहनीय, प्रौपशमिक सम्यक्त्वलब्धि, औपशमिक चारित्रलब्धि, उपशांतकषाय छद्मस्थवीतराग ग्रादि उपशमनिष्पन्न प्रोपशमिकभाव हैं। इस प्रकार से औपशमिकभाव का स्वरूप जानना चाहिये / विवेचन----सूत्रकार ने इन तीन सूत्रों में प्रौपशमिकभाव का स्वरूप बतलाया है। उपशम से होने वाला औषशमिक भाव दो प्रकार का है। एक प्रकार का प्रौपशमिक भाव तो वह है जो मोहनीयकर्म के उपशम से होना है। मोहनीयकर्म दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो प्रकार का है / दर्शनमोहनीय के उदय से जीव प्रात्मस्वरूप का दर्शन, श्रद्धान करने में असमर्थ रहता है। उसकी श्रद्धा-प्रतीति यथार्थ नहीं होती है और चारित्रमोहनीय के उदय रहते जीव प्रात्मस्वरूप में स्थिर नहीं हो पाता है / दर्शनमोहनीय के तीन भेदों और चारित्रमोहनीय के 25 भेदों को मिलाने से मोहनीयकर्म के अट्ठाईस भेद हैं / मोहनीयकर्म का पूर्ण उपशम ग्यारहवें गुणस्थान में होता है। __दर्शनमोहनीय के उपशम से सम्यक्त्वलब्धि की और चारित्रमोहनीय के उपशम से चारित्रलब्धि की प्राप्ति होती है। यह बतलाने के लिये सूत्र में उवसमिया सम्मत्तलद्धी, उवसमिया चारित्रलद्धी यह दो पद दिये हैं / - दुसरे उपशमनिस्पन्न औषशमिकभाव के अनेक भेद दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के अनेक प्रभेदों के उपशांत होने की अपेक्षा से जानना चाहिये / इसीलिये उपशांतक्रोध प्रादि का निर्देश किया है। उपशांतकषायछद्मस्थवीतराग—इसमें उपशांतकषाय, छगस्थ और वीतराग, यह तीन शब्द हैं / अर्थात् कषाय के उपशांत हो जाने से राग-द्वेष का सर्वथा उदय नहीं है, किन्तु छद्म (ज्ञानावरण ग्रादि प्रावरणभत घातिकर्म ) अभी शेष हैं। इस प्रकार की स्थिति उपशांतकषायछदमस्थवीतराग कहलाती है। इसमें मोहनीयकर्म की सत्ता नो है, किन्तु उदय नहीं होने से शरद् ऋत में होने वाले सरोवर के जल की तरह मोहनीयकर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले जीव के निर्मल परिणाम होते हैं। क्षायिकभाव 242. से कि तं खइए ? खइए दुविहे पणत्ते / तं जहा - खए य 1 खयनिष्फण्णे य 2 / [242 प्र.] भगवन् ! क्षायिक भाव का क्या स्वरूप है ? [242 उ.] अायुष्मन ! क्षायिक भाव दो प्रकार का कहा गया है / यथा—१. क्षय और 2. क्षयनिष्पन्न / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नामाधिकार निरूपण [161 243. से कि तंखए ? खए अट्ठण्हं कम्मपगडीणं खएणं / से तं खए / [243 प्र.) भगवन् ! क्षय-क्षायिक भाव किसे कहते हैं ? [243 उ.] अायुप्मन् ! पाठ कर्मप्रकृतियों के क्षय से होने वाला भाव क्षायिक है। 244. से कि तं खयनिष्फण्णे ? खनिम्फण्णे अगविहे पण्णत्ते / तं जहा.- उप्पण्णणाणदसणधरे-अरहा जिणे केवली खीणआभिणिबोहियणाणावरणे खोणसुयणाणावरणे खोणओहिणाणावरणे खीणमणपज्जवणाणावरण खोणकेवलणाणावरणे अणावरणे णिरावरणे खीणावरणे णाणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के, केवलदंसी सम्वदंसी खोणनिद्दे खीणनिहानिद्दे खोणपयले खीणपयलापयले खीणथीणगिद्धे खोणचक्खुदसणावरणे खोणअचक्खसणावरणे खोणओहिदसणावरणे खीणकेवलदसणावरणे अणावरणे निरावरणे खीणावरणे दरिसणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के, खीणसायवेय णिज्जे खीणअसायवेयणिज्जे अवेयणे निव्वेयणे खीणवेयणे सुभाऽसुभवेयणिज्जकम्मविप्पमुक्के, खीणकोहे जाव खीणलोभे खीणपेज्जे खीणदोसे खीणदंसणमोहणिज्जे खीणचरित्तमोहणिज्जे अमोहे निम्मोहे खीणमोहे मोहणिज्जकम्मविष्पमुक्के, खोणणेरइयाउए खीणतिरिक्खजोणियाउए खोणमणुस्साउए खीणदेवाउए अगाउए निराउए खीणाउए आउयकम्मविप्पमुक्के, गति-जाति-सरीरंगोवंग-बंधण-संघात-संघतण-अणेगबोंदिविंदसंघाविप्पमुक्के, खोणसुभनामे खोणासुभणामे अणामे निण्णामे खीणनामे सुभाऽसुभणामकम्मविप्पमुक्के, खीणच्चागोए, खोणणीयागोए अगोए निग्गोए खीणगोए सुभाऽसुभगोत्तकम्मबिष्पमुक्के, खीणदाणंतराए खीणलाभंतराए खीणभोगतराए खीणुवभोगतराए खीणविरियंतराए अणंतराए णिरतराए खोणंतराए अंतराइयकम्मविप्पमुक्के, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिणिन्वुए अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे / से तं खयनिप्फण्णे / से तं खइए। [244 प्र.) भगवन् ! क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव का क्या स्वरूप है ? 1244 उ. प्रायुप्मन ! क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव अनेक प्रकार का कहा है। यथा-... उत्पन्नज्ञानदर्शनघोरी, अहंत. जिन, केवली, क्षीणग्राभिनिवोधिक ज्ञानावरण बाला, क्षीणश्रुतज्ञानावरणवाला, क्षीण अवधिज्ञानावरण वाला, क्षीणमनःपर्ययज्ञानावरण वाला, क्षीणकेवलज्ञानावरण वाला, अविद्यमान आवरण वाला, निरावरण वाला, श्रीणावरण वाला, ज्ञानावरणीयकर्मविप्रमुक्त, केवलदर्शी, सर्वदर्शी, क्षीणनिद्र, क्षीणनिद्रानिद्र, क्षीणप्रचल, क्षीणप्रचलाप्रचल, क्षीणस्त्यानगृद्धि, क्षीणचक्षुदर्शनावरण वाला, क्षोण प्रचक्षुदर्शनावरण वाला, क्षीणवधिदर्शनावरण वाला, क्षीणकेवलदर्शनावरण वाला, अनावरण, निरावरण, क्षीणावरण, दर्शनावरणीयकर्मविप्रमुक्त, क्षीणसातावेदनीय, क्षीणअसातावेदनीय, अवेदन, निर्वेदन, क्षीणवेदन, शुभाशुभ-वेदनीयकर्मविप्रमुक्त, क्षीणक्रोध यावत् क्षीणलोभ, क्षीण राग, क्षीणद्वेष, क्षीणदर्शनमोहनीय, क्षीणचारित्रमोहनीय, अमोह, निर्मोह, क्षीगमोह, मोहनीयकर्मविप्रमुक्त, क्षीणनरकायुष्क, क्षीणतिर्यंचायुष्क, क्षीणमनुष्यायुष्क, क्षीणदेवायुष्क, अनायुष्क, निरायुक, क्षीणायुष्क, प्रायुकर्मविप्रमुक्त, गति-जाति-शरीर-अंगोपांग-बंधन-संघात-संहनन-अनेकशरीरवृन्दसंघातविप्रमुक्त, क्षीण-शुभनाम, क्षीण-सुभगनाम, अनाम, निर्नाम, क्षीणनाम, शुभाशुभ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [अनुयोगद्वार सूत्र नामकर्मविप्रमुक्त, क्षीण-उच्चगोत्र, क्षीण-नीचगोत्र, अगोत्र, निर्गोत्र, क्षीणगोत्र, शुभाशुभगोत्रकर्मविप्रमुक्त, क्षीण-दानान्तराय, क्षीण-लाभान्तराय, क्षीण-भोगान्तराय, क्षीण-उपभोगान्तराय, क्षीणवीर्यान्तराय, अनन्तराय, निरंतराय, क्षीणान्तराय, अंतरायकर्मविप्रमुक्त, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत्त, अंतकृत, सर्वदुःखप्रहीण / यह क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव का स्वरूप है / इस प्रकार से क्षायिकभाव की वक्तव्यता जानना चाहिये। विवेचन--यहाँ क्षय और क्षयनिष्पन्न भावों का स्वरूप निरूपण किया है। क्षायिकभाव अपने-अपने उत्तरभेदों सहित ज्ञानावरण आदि पाठ कर्मों के सर्वथा अपगम रूप है और क्षयनिष्पन्न क्षायिक भावों के रूप में जो नाम गिनाये हैं, वे क्षय से उत्पन्न हुई प्रात्मा की निज स्वाभाविक अवस्थाएँ हैं। कर्मों के नष्ट होने पर प्रात्मा का जो मौलिक रूप प्रकट होता है, उसी के ये वाचक हैं। जैसे केवलज्ञानावरण के नष्ट होने पर प्रात्मा में केवलज्ञानगुण प्रकट हो जाता है और मतिज्ञान प्रादि चार क्षायोपशमिक ज्ञान क्षायिक रूप हो जाते हैं-केवलज्ञान अन्तहित हो जाते हैं, तब क्षीणकेवलज्ञानाकरण ऐसा जो नाम होता है वह नाम, स्थापना या द्रव्यनिक्षेप रूप नहीं होता किन्तु भावनिक्षेप रूप होता है / इसी प्रकार शेष नामों के लिये भी जानना चाहिये। यद्यपि सूत्रोक्त नामों का वर्गीकरण आवश्यक नहीं है, सभी नाम निष्कर्मा आत्मा के बोधक हैं / तथापि सुगमबोध के लिये उन नामों के तीन वर्ग इस प्रकार हो सकते हैं 1. प्रथम वर्ग उन नामों का है जिनसे कर्मों के सर्वथा क्षीण होने पर प्रात्मा को संबोधित किया जाता है / ये नाम हैं उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारी, अर्हत्, जिन, केवली। 2. दूसरे वर्ग में वे नाम हैं जो पांच प्रकार के ज्ञानावरणकर्म, नौ प्रकार के दर्शनावरणकर्म, दो प्रकार के वेदनीयकर्म, अटाईस प्रकार के मोहनीयकर्म, चार प्रकार के प्रायष्यकर्म, बयालीस प्रकार के नामकर्म, दो प्रकार के गोत्रकर्म और पांच प्रकार के अंतरायकर्म के क्षय से निष्पन्न हैं। इन नामों का उल्लेख क्षीण-प्राभिनिबोधिकज्ञानावरण से अन्तरायकर्मविप्रमुक्त पद तक किया है तथा सर्वथा कर्मप्रकृतियों के क्षय से सिद्धावस्था प्राप्त होने से यह कथन सिद्ध भगवान् की अपेक्षा जानना चाहिये। 3. तीसरे वर्ग के नामों में सर्वथा कर्मक्षय होने पर सम्भव प्रात्मा की अवस्था का निरूपण किया है / इसके द्योतक शब्द सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त, अंतकृत और सर्वदुःखप्रहीण हैं / पदसार्थक्य - सूत्रगत सभी पद पारिभाषिक हैं। इनमें से अधिकांश के लक्षण पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति प्रादि कर्मग्रन्थों से जानकर और उनके साथ क्षीण शब्द जोड़ने पर ज्ञात हो सकते हैं। किन्तु कुछ पद ऐसे हैं कि पर्यायवाची होने से उनमें शब्दनय की अपेक्षा भेद नहीं है किन्तु समभिरूढनय की अपेक्षा उनके वाच्यार्थ में भेद हो जाता है / ऐसे पदों का यहाँ उल्लेख किया जाता है अणावरणे निरावरणे खीणावरणे-वर्तमान में प्रात्मा अविद्यमान आवरणवाला होने से अनावरण रूप है, किन्तु भविष्य में पुनः कर्मसंयोग होने की सम्भावना का निराकरण करने के लिए Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण निरावरण पद दिया है और कर्मसंयोग न होना तभी मम्भव है जब कर्म निःसत्ताक हो जाएं। यह बताने के लिये क्षीणावरण पद दिया है। ___ अवेयणे निव्वेयणे खीणवेयणे --अवेदन का अर्थ है वेदना (अनुभूति) रहित किन्तु 'अ' उपसर्ग अल्प, ईषद् अर्थ में भी प्रयुक्त होने से अवेदन का अर्थ अल्पवेदन भी हो सकता है / अतः इस असंगत अर्थ का निराकरण करने के लिये निवेदन' पद प्रयुक्त किया है। प्राशय यह कि सर्वथा वेदनारहित को निवेदन समझना चाहिये और वर्तमान की यह निवेदन रूप अवस्था कालान्तरस्थायी भी है, इसका बोधक 'क्षीणवेदन' पद है। अमोहे निम्मोहे खीणमोहे-अमोह अर्थात् अपगत मोहनीयकर्म वाला। परन्तु अमोह का एक अर्थ अल्प मोह वाला भी संभव होने से उसका निराकरण करने के लिये 'निर्मोह' पद दिया है। नि:शेष रूप से मोहकर्म रहित ऐसा निर्मोही अमोह पद का वाच्य है। ऐसा निर्मोही भी कालान्तर में मोहोदययुक्त बन सकता है, जैसे उपशांतमोहवाला / इस आशंका को निर्मूल करने के लिये क्षीणमोह पद दिया है कि अपुनर्भव रूप मोहोदयवाला जीव अमोह, निमोह नाम से यहाँ ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार अणामे, निण्णामे, खीणनामे, अगोए, निग्गोए, खीणगोए, अणंतराए, गिरतराए, खीणंतराए पदों की सार्थकता का विचार नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की अपेक्षा कर लेना चाहिये। अणाउए निराउए खीणाउए-तद्भवसंबन्धी आयु के क्षय होने पर भी जीव अनायुष्क कहलाता है। अत: ऐसे अनायूष्क का निराकरण करने के लिये---जिसका प्रायूकर्म नि:शेष रूप से समाप्त हो चका है ऐसे अनायष्क का ग्रहण करने के लिये निरायष्क पद दिया है। ऐसी निरायष्क अवस्था जीव की शैलेशी दशा में हो जाती है। वहाँ संपूर्ण रूप से निरायुष्कता तो नहीं है किन्तु किंचिन्मात्र प्रायु अवशिष्ट होने पर भी उपचार से उसे निरायुष्क कहते हैं। अतः इस आशंका को दूर करने के लिये क्षीणायुष्क' पद रखा है, अर्थात् संपूर्ण रूप से जिसका आयुकर्म क्षीण हो चुकता है वही अनायुष्क, निरायुष्क नाम वाला कहलाता है। उपर्युक्त पदों की सार्थकता तो ज्ञानावरण आदि पृथक्-पृथक कर्म के क्षय की अपेक्षा जानना चाहिये और पाठों कर्मों के सर्वथा नष्ट होने पर निष्पन्न पदों की सार्थकता इस प्रकार है सिद्ध-समस्त प्रयोजन सिद्ध हो जाने से सिद्ध यह नाम निष्पन्न होता है। बुद्ध--बोध स्वरूप हो जाने से बुद्ध, मुक्त बाह्य और ग्राभ्यन्तर परिग्रहबंधन से छूट जाने पर मुक्त, परिनिर्वृत्तसर्व प्रकार से, सब तरफ से शीतीभूत हो जाने से परिनिर्वृत्त, अन्तकृत्— संसार के अंतकारी होने से अन्तकृत् और सर्वदुःखप्रहीण-- शारीरिक एवं मानसिक समस्त दुःखों का प्रात्यन्तिक क्षय हो जाने से सर्वदुःखप्रहीण नाम निष्पन्न होता है। ___ इस प्रकार से क्षायिक और क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव की वक्तव्यता का प्राशय जानना चाहिये। क्षायोपमिकभाव 245. से कि तं खोवसमिए ? खओवसमिए दुविहे पन्नत्ते / तं जहा–खओवसमे य 1 खओवसमनिष्फन्ने व 2 / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] अनुयोगद्वारसूत्र . [245 प्र.] भगवन् ! क्षायोपशमिकभाव का क्या स्वरूप है ? [245 उ.] आयुष्मन् ! क्षायोपशामिकभाव दो प्रकार का है / बह इस प्रकार-१. क्षयोपशम और 2. क्षयोपशमनिष्पन्न / 246. से कि तं खओवसमे ? खओवसमे चउण्हं घाइकम्माणं खओक्समेणं / तं जहा नाणावरणिज्जस्स 1 सणावरणिज्जस्स 2 मोहणिज्जस्स 3 अंतराइयस्स 4 / से तं खओवसमे। |246 प्र.] भगवन् ! क्षयोपशम का क्या स्वरूप है ? [246 उ.] अायुष्मन् ! 1. ज्ञानावरणीय, . दर्शनावरणीय, 3. मोहनीय अं 8. अन्तराय, इन चार घातिकर्मों के क्षयोपशम को क्षयोपशमभाव कहते है। 247. से कि तं खओवसमनिप्फन्ने ? खओवसमनिष्फन्ने अणेगविहे पण्णते। तं जहा—खोवसमिया आभिणिबोहियणाणलद्धी जाव खओवसमिया मणपज्जवणाणलद्धी, खओवसमिया मतिअण्णाणलद्धी खओक्समिया सुयअण्णाणलद्धी खओवसमिया विभंगणाणलद्धी, खओवस मिया चक्खुदसणलद्धी एवमचक्खुदंसणलद्धी ओहिदसणलद्धी, एवं सम्मईसणलद्धी मिच्छादसणलद्धी सम्मामिच्छादसणलद्धी, खओवसमिया सामाइयचरित्तलद्धी एवं छेदोवट्ठावणलद्धी परिहार विसुद्धियलद्धी सुहमसंपराइयलद्धी एवं चरित्ताचरित्तलद्धी, खग्रोवसमिया दाणलद्धी एवं लाभ० भोग० उवभोग० खओवसमिया बीरियलद्धी एवं पंडियवीरियलद्धी बालवीरियलद्धी बालपंडियवीरियलद्धी, खओवसमिया सोइंदियलद्धी जाव खोवसमिया फासिदियलद्धी, खओवसमिए आयारधरे एवं सूयगडधरे ठाणधरे समवायधरे विवाहपणतिधरे एवं नायाधम्मकहा० उवासगदसा० अंतगडदसा० अणुत्तरोववाइयदसा०पण्हावागरण खओवसमिए विवागसुपधरे खओवसमिए दिट्टिवायधरे, खओवसमिए णवपुथ्वी जाव चोद्दसपुग्वी, खओवसमिए गणी खओवसमिए वायए। से तं खओवसमनिप्फण्णे / से तं खओवसमिए / [247 प्र. भगवन् ! क्षयोपशमनिष्पन्न क्षायोपशामिकभाव का क्या स्वरूप है ? [247 उ.] आयुष्मन् ! क्षयोपशमनिष्पन्न क्षायोपशमिकभाव अनेक प्रकार का है। यथाक्षायोपशमिकी प्राभिनिबोधिकज्ञानलब्धि यावत् क्षायोपशमिकी मनःपर्यायनानलब्धि, क्षायोपशमिकी मति-अज्ञानलब्धि, बायोपशमिकी श्रुत-अज्ञानलब्धि, क्षायोपशामिकी विभंगज्ञानलब्धि, क्षायोपशमिकी त्रक्षुदर्शनलब्धि, इसी प्रकार अचक्षुदर्शनलब्धि, अवधिदर्शनलब्धि, सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि. सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धि, क्षायोपशमिकी सामायिक चारित्रलब्धि, छेदोपस्थापनालब्धि, परिहारविशुद्धिलब्धि, सूक्ष्मसंपरायिकल ब्धि, चारित्राचारित्रलब्धि, क्षायोपशमिकी दान-लाभ-भोग-उपभोगलब्धि, क्षायोगशमिकी वीर्यलब्धि, पंडितवीर्यलब्धि, बालवीर्यलब्धि, बालपंडितवीर्यलब्धि, क्षायोपगमिकी योन्द्रियल ब्धि यावत् क्षायोपशमिकी स्पर्ण नेन्द्रियलब्धि. क्षायोपशामिक प्राचारांगधारी. स्त्रकृतांगधारी, स्थानांगधारी, समवायांगधारी, ब्याख्याप्रज्ञप्तिधारी, नाताधर्मकथांगधारी, उपासकदशांगधारी, अन्तकृदशांगधारी, अनुत्तरोपपातिकदशांगधारी, प्रश्नव्याकरणधारी, क्षायोपशमिक Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण 1165 विपाकश्रुतधारी, क्षायोगश मिक दृष्टिवादधारी, क्षायोपशमिक नवपूर्वधारी यावत् चौदहपुर्वधारी, क्षायोपशमिक गणी, शायोपशामिक बाचक / ये सब क्षयोपशमनिष्पन्नभाव हैं। यह क्षायोपरागिकभाव का स्वरूप है। विवेचन ---यहाँ मप्रभेद क्षायोपशामिकभाव का स्वरूप स्पष्ट किया है / एक तो ततत् .....अमुकअमुक कर्म का क्षयोपशम ही क्षायोपशामिक है और दूसरा क्षयोपशम निष्पन्नभाव क्षायोपशामिक है। विवश्चित ज्ञानादि गुणों का बात करने वाले उदयप्राप्त कर्म का क्षय - सर्वथा अपगम और अनुदीर्ण उन्हीं कर्मों का उपशम -विपाक की अपेक्षा उदयाभाव, इस प्रकार के क्षय से उपलक्षित उपशम को क्षयोपशम कहते हैं और इस क्षयोपशम से निष्पन्न पर्याय क्षयोपशमनिष्पन्नभाव है। जिस कर्म में सर्वघाती और देशघाती ये दोनों प्रकार के स्पर्धक (अंश) पाये जाते हैं, उनका क्षयोपशम होता है / किन्तु जिनमें केवल देशधातीस्पर्धक ही पाये जाते हैं ऐसे हास्यादि नवनोकषाय और जिनमें मात्र सर्वधातीम्पर्धक ही पाये जाते हैं. ऐसे केवलज्ञानावरण प्रादि कर्मों का क्षयोपशम नहीं होता है। यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाती ही हैं किन्तु इन्हें अपेक्षाकृत देशघाती मान लिये जाने से अनन्तानुबंधी आदि कषायों का क्षयोपशम माना जाता है तथा अघाति कर्मों में देशघाति और सर्वघाति रूप विकल्प न होने से उनका क्षयोपशम संभव नहीं है / इस प्रकार से यह क्षयोपशम की सामान्य भूमिका जानना चाहिये। किस-किस कर्म के क्षयोपशम से कौन-कौन से भाव प्रकट होते हैं, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- प्राभिनिबोधिकज्ञान अर्थात् मतिज्ञान / इस ज्ञान की प्राप्ति का नाम आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि है / यह मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने के कारण क्षायोपशमिकी है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानलब्धि, अवविज्ञानलब्धि और मनःपर्यायज्ञानलब्धि तत्तत् ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न हैं / केवलज्ञान और केवलदर्शन भी लब्धिरूप हैं। किन्तु केवलज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के क्षय से प्राप्त होने के कारण यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया है / वे क्षयनिष्पन्नलब्धि हैं। मति-अज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मति-अज्ञान, श्रुत-ज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रुतप्रज्ञान, विभंग-ज्ञानावरण के क्षयोपशम से विभंगज्ञान की प्राप्ति होने से इन्हें क्षायोपशमिकी मत्यज्ञानश्रुताज्ञान-विभंगजानलब्धि कहा है। यहाँ अज्ञान का अर्थ ज्ञान का प्रभाव नहीं किन्तु मिथ्याज्ञान समझना चाहिए। .. भायोपशामिकी चक्षुदर्शनलब्धि, प्रचक्षुदर्शनलब्धि, अवधिदर्शनलब्धि क्रमशः चक्षदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न हैं। सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि, सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि की प्राप्ति मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न हैं। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय नामक चार चारित्रलब्धियां Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166) / अनुयोगवारसूत्र चारित्रमोहनीयकर्म के क्षयोपशम से तथा चारित्राचारित्रलब्धि (देशचारित्रलब्धि) अनन्तानुबंधी एवं अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से प्राप्त होती है / दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धि दानान्तराय आदि पांच अन्तरायकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न हैं। पंडितवीर्यलब्धि, बालवीर्यलब्धि एवं बालपंडितवीर्यलब्धि की प्राप्ति वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होती है / श्रोत्रेन्द्रिय से लेकर स्पर्शनेन्द्रिय तक की पांच इन्द्रियलब्धियां भावेन्द्रिय की अपेक्षा जानना चाहिये / वे मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षदर्शनावरण के क्षयोपशम से होती हैं / इसी प्रकार प्राचारांग प्रादि बारह अंगों को धारण करने और वाचक रूप लब्धियां श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती हैं / अतः ये क्षायोपशमिक हैं। क्षायोपशमिक और उपशमभाव में अन्तर-क्षय और उपशम का संयोगज रूप क्षयोपशम है। उदयप्राप्त कर्म का क्षय और अनुदीर्ण उसी कर्म का विपाक की अपेक्षा से उदयाभाव इस प्रकार के क्षय से उपलक्षित उपशम क्षयोपशम कहलाता है। यही स्थिति औपशमिकभाव की भी है / वहाँ भी उदयप्राप्त कर्म का सर्वथा क्षय और अनुदयप्राप्त कर्म का न क्षय और न उदय किन्तु उपशम है / इस प्रकार सामान्य से दोनों में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता है। फिर भी दोनों में अन्तर है। वह यह कि क्षयोपशमभाव में कम का जो उपशम है वह विपाक को अपेक्षा से है, प्रदेश को अपेक्षा से नही। क्योंकि प्रदेश की अपेक्षा से तो वहाँ कर्म का उदय रहता है। परन्त गोपशमिकभाव में विपाक और प्रदेश दोनों की अपेक्षा उपशम जानना चाहिये। औपशमिकभाव में कर्म का न विपाकोदय होता है और न प्रदेशोदय ही होता है। इसीलिये क्षायोपशमिक और औपशमिक ये दोनों पृथक्-पृथक् भाव माने गये हैं। पशम ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार धाति कर्मों का ही होता है, अन्य कर्मों का नहीं, जब कि करणसाध्य उपशम सिर्फ मोहनीयकर्म का ही होता है / इस प्रकार से क्षायोपशमिकभाव की वक्तव्यता जानना चाहिये / पारिणामिकभाव 248. से कि तं पारिणामिए ? पारिणामिए बुबिहे पण्णत्ते / तं जहा-सादिपारिणामिए य 1 अणादिपारिभामिए य 2 / | 248 प्र] भगवन् ! पारिणामिकभाव किसे कहते हैं ? [248 उ.] आयुष्मन् ! पारिणामिकभाव के दो प्रकार हैं। यथा- 1. सादिपारिणामिक, 2. अनादिपारिणामिक / 249. से कि तं सादिपारिणामिए ? सादिपारिणामिए अणेगविहे पण्णसे / तं जहा जुण्णसुरा जुग्णगुलो जुण्णधयं जुण्णतंदुला चेव / अम्मा य अउभरुक्खा संझा गंधवणगरा य // 24 // Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणाधिकार निरुपण उपकावाया विसावाघा गज्जियं विज्ज णिग्घाया जवया जक्खाबित्ता मिया महिया रयुग्धाओ चंदोवरागा सूरोयरागा चंदपरिवेसा सूरपरिवेसा पहिचंदया पडिसूरया इंदधण उदगमच्छा कविहसिया अमोहा वासा वासधरा गामा णगरा घरा पठवता पायाला भवणा निरया रयणप्पमा सक्करप्पभा वालयप्पमा पंकप्पभा धमप्पभा तमा तमतमा सोहम्मे ईसाणे जाव आणए पाणए आरणे अच्चए गेवेज्जे अणुत्तरोववाइया ईसीपम्भारा परमाणुपोग्गले दुपदेसिए जाव अणंतपदेसिए / से तं साविपारिणामिए [241 प्र.] भगवन् ! सादिपारिणामिकभाव का क्या स्वरूप है ? [249 उ.] आयुष्मन् ! सादिपारिणामिकभाव के अनेक प्रकार हैं / जैसे-- जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़, जीर्ण घी, जीर्ण तंदुल, अभ्र, अभ्रवृक्ष, संध्या, गंधर्वनगर / 124 तथा ___ उल्कापात, दिग्दाह, मेघगर्जना, विद्युत, निर्धात्, यूपक, यक्षादिप्त, धूमिका, महिका, रजोद्धात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य, कपिहसित, अमोध, वर्ष (भरतादि क्षेत्र), वर्षधर (हिमवानादि पर्वत), ग्राम, नगर, घर, पर्वत, पातालकलश, भवन, नरक, रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, तमस्तमःप्रभा, सौधर्म, ईशान, यावत् प्रानत, प्राणत, पारण, अच्युत, ग्रैवेयक, अनुत्तरोपपातिक देवविमान, ईषत्प्रागभारा पृथ्वी, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध सादिपारिणामिकभाव रूप हैं / 250. से कि अणादिपारिणामिए ? अणादिपारिणामिए धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए जीवस्थिकाए पोग्गल स्थिकाए अद्धासमए लोए अलोए भवसिद्धिया अभवसिद्धिया / से तं अणादिपारिणामिए / से तं पारिणामिए / [250 प्र. भगवन् ! अनादिपारिणामिकभाव का क्या स्वरूप है ? [250 उ. आयुष्मन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय, लोक, अलोक, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, ये अनादि पारिणामिक हैं / यह पारिणामिकभाव का स्वरूप है / विवेचन--सूत्र में पारिणामिक भाव का निरूपण किया है। वह सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का है। पारिणामिकभाव का लक्षण व विशेषता- द्रव्य के मूल स्वभाव का परित्याग न होना और पूर्व अवस्था का विनाश तथा उत्तर अवस्था की उत्पत्ति होती रहना परिणमन-परिणाम है। अर्थात् स्वरूप में स्थित रहकर उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है। ऐसे परिणाम को अथवा इस परिणाम से जो निष्पन्न हो उसे पारिणामिक कहते हैं। पारिणामिकभाव के कारण ही जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, उसी रूप में उसका परिणमनपरिवर्तन होता है / अर्थात् प्रत्येक द्रव्य में स्वभावस्थ रहते हुए ही परिवर्तन होता है। वह न तो सर्वथा तदवस्थ नित्य है और न सर्वथा क्षणिक ही। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [अनुयोगद्वारसूत्र परिणाम के इस लक्षण द्वारा द्रव्य और गुण में एकान्त भेद एवं द्रव्य को मर्वथा अविकृत और गुणों को उत्पन्न-विनष्ट मानने वाले नैयायिक प्रादि दर्शनों का तथा वस्तुमात्र को क्षणस्थायीनिरन्वय विनाशी मानने वाले वौद्धदर्शन के मंतव्यों का निराकरण किया गया है। यह पारिणामिकभाव सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का है। सादिपारिणामिक संबन्धी स्पष्टीकरण---सादिपारिणामिक के अनेक प्रकारों की मादिता का कारण यह है सुरा, गुड़, पत और तदुलों की नव्य और जीर्ण, इन दोनों अवस्थानों में अनुगत होने पर भी उनमें नवीनता पर्याय के निवत्त होने पर जीर्णता रूप पर्याय उत्पन्न होता है। इसलिये सादिपारिणामिक के उदाहरण रूप में जीर्ण विशेषण से विशिष्ट सुरा आदि पदों को रखा है। जीर्णता उपलक्षण है, अतः इसी प्रकार से नव्य विशेषण के लिये भी समझना चाहिये। भरतादि क्षेत्र सादिपारिणामिक कैसे ?--भरनादि क्षेत्र, हिमवान् प्रादि वर्षधर पर्वत, नरकभूमियां एवं देवविमान अपने प्राकार मात्र से अवस्थित रहने के कारण शाश्वत अवश्य है किन्तु वे पौद्गलिक हैं और पुद्गल द्रव्य परिणमनशील होने से जपन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यान काल बाद उसमें अवश्य परिणमन होता है। सब विलग हुए उन पुद्गलस्कन्धों के स्थान में दूसरे-दूसरे स्कन्ध मिलकर उस-उस रूप परिणत हो जाते हैं। इसलिये वर्षधरादिकों को सादिपारिणामिकता के रूप में उदाहन किया है। मेघ आदि में तो कुछ काल पर्यन्त ही रहने से सादिरूपता स्वयंसिद्ध है। धर्मास्तिकाय आदि पङ् द्रव्य, लोक, अलोक, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक अनादिपारिणामिकभाव इसलिये है कि वे स्वभावत: अनादि काल से उस-उस रूप से परिणत हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। सूत्रगत कठिन शब्दों के अर्थ-~~~-अब्भा...अभ्र, मेघ / अन्भरुक्खा --अम्रवृक्ष -वृक्षाकार में परिणत हुए मेघ / संझा--संध्या---दिनरात्रि का संधिकाल / गंधवणगरा-गंधर्वनगर- उत्तम प्रासाद से शोभित नगर की आकृति जैसे आकाश में बने हा पूदगलों का परिणमन / उक्कावाया--उल्कापातआकाशप्रदेश से गिरता हुआ तेजपुज। दिसादाघा- दिग्दाह---किसी एक दिशा की ओर आकाश में जलती हुई अग्नि का आभास होना---दिखाई देना / गज्जिय-गाजत-मेघ की गर्जना / विज्ज-- विद्युत--- बिजली। णिग्घाया - निर्घात.. -गाज (बिजली) गिरना / जवया -यूपक .. शुक्लपक्ष सम्बन्धी प्रथम तीन दिन का बाल चन्द्र / जक्खादित्ता ---यक्षादीप्त प्रकाश में दिखाई देती हई पियाचाकृति अग्नि / धूमिया—धूमिका---ग्राकाश में रूक्ष और विरल दिखाई पड़ती हुई धुएं जैसी एक प्रकार की धूमस / महिया--महिका-जलकणयुक्त धूमस, कुहरा। रयुग्घाओं रजोद्घात -याकाश में धूलि का उड़ना, प्रांधी। चंदोवरागा सूरोवरापा--चन्दोपराग. मूर्योपराग चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण / चदपरिवेसा सूरपरिवेसा–चन्द्रपरिवेश, सूर्यपरिवेश.....चन्द्र और सूर्य के चारों ओर गोलाकार में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का मण्डल / पडिचंदया, पडिसूरया---प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य उत्पात यादि का सूचक द्वितीय चन्द्र और द्वितीय मूर्य का दिखाई पड़ना। इंदधणु--इन्द्रधनुष-- आकाश में नील-पील यादि वर्ण विशिष्ट धनुषाकार प्राकृति / उदगमच्छ उदकमत्स्य- इन्द्रधनुप के खण्ड, टुकड़े। कविहसियाकपिहसिता--..कभी-कभी आकाश में सुनाई पड़ने वाली अति कर्णकट ध्वनि / अमोहा---अमोघ--उदय और अस्त के समय मूर्य की किरणों द्वारा उत्पन्न रेखा-विशेष / वासा .. वर्ष... भरतादि क्षेत्र, वासधरावर्षधर –हिमवान् आदि पर्वत / शेप शब्दों के अर्थ सुगम हैं / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [169 सान्निपातिकभाव 251. से कि तं सण्णिवाइए ? सण्णिवाइए एतेसि चेव उदइय-उवसमिय-खइय-खओवसमिय-पारिमामियाणं भावाणं दुयसंजोएणं तियसंजोएणं चउक्कसंजोएणं पंचगसंजोएणं जे निप्पज्जति सव्वे से सनिवाइए नामे। तत्थ णं दस दुगसंजोगा, दस तिगसंजोगा, पंच चउक्कसंजोगा, एक्के पंचगसंजोगे / [251 प्र. भगवन् ! मानिपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [251 उ.] अायुप्मन् ! औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक, इन पांचों भावों के द्वि कसंयोग, त्रिकसंयोग, चतु:संयोग और पंचसंयोग से जो भाव निम्पन्न होते हैं वे मन मान्निपातिकभाव नाम है / / उनमें से द्विकसंयोगज दस, त्रिकसंयोगज दस, चतु संयोगज पांच और पंचसंयोगज एक भाव हैं / इस प्रकार सब मिलाकर ये छब्बीस सान्निपातिकभाव हैं। विवेचन-सूत्र में सान्निपातिकभाव का स्वरूप बतलाया है। पूर्वोक्त प्रौदयिक आदि पांच भावों में से दो प्रादि भावों के मिलने से जो-जो भाव निष्पन्न होते हैं, वे सब सान्निपातिकभाव हैं। ___ इन औदयिक आदि पांच भावों के द्विक, त्रिक, चतुष्क और पंच संयोगज छब्बीस भंगों में से जीवों में कुल छह भंग पाये जाते हैं। शेष बीस प्ररूपणा मात्र के लिये ही हैं। सान्निपातिकभाव दो आदि भावों के संयोगजरूप हैं। अतः अब यथाक्रम उन द्विकसंयोगज आदि सान्निपातिकभावों का निरूपण करते हैं। द्विकसंयोगज सान्निपातिकभाव 252. तत्थ णं जे से दस दुगसंजोगा ते णं इमे–अस्थि गामे उदइए उवसमनिप्पण्णे' 1 अस्थि णामे उदइए खयनिप्पण्णे 2 अत्थि णामे उदइए खओवसमनिप्पण्णे 3 अस्थि णामे उदइए पारिणामियनिप्पण्णे 4 अस्थि णामे उवसमिए खयनिप्पण्णे 5 अस्थि गामे उवसमिए खओवसमनिप्पण्णे 6 अस्थि णामे उबसभिए पारिणामियनिप्पन्ने 7 अस्थि णामे खइए खओवसमनिप्पन्ने 8 अस्थि णामे खइए पारिणामियनिष्पन्ने 9 अस्थि णामे खयोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने 10 / [252 ] दो-दो के संयोग से निष्पन्न दस भंगों के नाम इस प्रकार हैं २.प्रौदयिक-ग्रौपशामिक के संयोग से निष्पन्न भाव 2. औदयिक-क्षायिक के संयोग से निष्पन्न भाव 3. औदयिक-क्षायोपशामिक के संयोग से निष्पन्न भाव 4. औदयिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव 5. प्रौपशमिक-क्षायिक के संयोग से निष्पन्न भाव 6. प्रौपशमिक-क्षायोपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव 7. प्रौपशामिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव 8. क्षायिक-क्षायोपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव 9. क्षायिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन भाव तथा 10. श्रायोपशमिकपारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव / 253. कतरे से नामे उदइए उवसमनिप्पन्ने ? उदए त्ति मणसे उवसंता कसाया, एस णं से णामे उदइए उवसमनिप्यन्ने 1 / 1. पाठान्तर---निष्फण्ण / Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17.] [अनुयोगद्वारसूत्र कतरे से नामे उदइए खयनिप्पन्ने ? स्वए त्ति मणूसे खतियं सम्मत्तं, एस णं से नामे उदइए खयनिप्पन्ने 2 / कतरे से गामे उवइए खयोवसमनिप्पन्ने ? उदए त्ति मणसे खयोक्स मियाइं इंदियाई, एस णं से णामे उदइए खयोवसमनिप्पन्ने 3 / कतरे से णामे उदइए पारिणामियनिष्पन्ने ? उदए त्ति मणूसे पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उदइए पारिणामियनिप्पन्ने 4 / कयरे से णामे उपसमिए खयनिष्पन्ने ? उपसंता कसाया खइयं सम्मत्तं, एस णं से णामे उपसमिए खयनिप्पन्ने 5 / कयरे से णामे उपसमिए खओवसमनिप्पण्णे ? उवसंता कसाया खओवसमियाइं इंदियाई, एस णं से णामे उपसमिए खओवसमनिप्पन्ने 6 / कयरे से जामे उपसमिए पारिणामियनिप्पन्ने ? उवसंता कसाया पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने 7 / कतरे से गामे खइए खओक्समियनिप्पन्ने ? खइयं सम्मत्तं खयोवसमियाइं इंदियाई, एस पं से णामे खइए खयोवसमनिप्पन्ने 8 / कतरे से जामे खइए पारिणामियनिप्पन्ने ? खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे खइए पारिणामियनिप्पन्ने 9 / कतरे से णामे खयोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने ? / खयोवसमियाइं इंदियाइं पारिणामिए जोवे, एस णं से गामे खयोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने 10 // [253 प्र. भगवन् ! प्रौदयिक-ग्रोयमिकभाव के संयोग से निष्पन्न भंग का स्वरूप क्या उत्तर--पायुष्मन् ! प्रौदयिक-औपशमिकभाव के संयोग से निष्पन्न भंग का यह स्वरूप है--ौदयिकभाव में मनुष्यगति और प्रौपशमिकभाव में उपशांत कषाय को ग्रहण करने रूप औदयिक-औपशमिकभाव है / 1 प्रश्न—भगवन् ! औदयिक-क्षायिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? उत्तर–प्रायुष्मन् ! औदयिकभाव में मनुष्यगति और क्षायिकभाव में क्षायिक सम्यक्त्व का ग्रहण औदयिकक्षायिकभाव है / 2 / / प्रश्न-भगवन् ! औदयिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? उत्तर-आयुष्मन् ! औदयिकभाव में मनुष्यगति और क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रिया जानना चाहिये / यह औदयिक-क्षायोपशामिकभाव का स्वरूप है / 3 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [171 प्रश्न-भगवन् ! प्रौदयिक-पारिणामिकभाव के संयोग से निष्पन्न भंग का क्या स्वरूप है ? उत्तर-आयुष्मन् ! प्रौदयिकभाव में मनुष्यगति और पारिणामिकभाव में जीवत्व को ग्रहण करना प्रौदयिक-पारिणामिकभाव का स्वरूप है / 4 प्रश्न-भगवन् ! औपशमिक-क्षयसंयोगनिम्पन्नभाव का स्वरूप क्या है ? उत्तर–प्रायुष्मन् ! उपशांतकषाय और क्षायिक सम्यक्त्व यह औपशमिक-क्षायिकसंयोगज भाव का स्वरूप है / 5 प्रश्न-भगवन् ! प्रौपशमिक-क्षयोपशमनिष्पन्नभाव के संयोग का क्या स्वरूप है ? उत्तर-पायुष्मन् ! प्रौपशमिकभाव में उपशांतकषाय और क्षयोपशमनिष्पन्न में इन्द्रियां यह औपशमिक-क्षयोपशमनिष्पन्नभाव का स्वरूप है / 6 प्रश्न—भगवन् ! औपशमिक-पारिणामिकसंयोगनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? उत्तर -ग्रायष्मन् ! प्रीपशमिकभाव में उपशांत कषाय और पारिणामिकभाव में जीवत्व यह औपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप है / 7 प्रश्न - भगवन् ! क्षायिक और क्षयोपशमनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? उत्तर - अायुष्मन् ! क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपसमिक इन्द्रियां यह क्षायिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप जानना चाहिये / 8 प्रश्न-भगवन् ! क्षायिक और पारिणामिकनिष्पन्न का क्या स्वरूप है ? उत्तर--प्रायुष्मन् ! क्षायिकभाव में क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिकभाव में जीवत्व का ग्रहण क्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप है। 9 प्रश्न-भगवन् ! क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावसंयोगज का क्या स्वरूप है ? उत्तर --पायुष्मन् ! क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियां और पारिणामिकभाव में जीवत्व को ग्रहण किया जाये तो यह क्षायोपशमिक-पारिणामिकभाव का स्वरूप है / 10 इस प्रकार से यह द्विकसंयोगी सान्निपातिक भाव के दस भंगों का स्वरूप है। विवेचन--इन दो सूत्रों में से पहले में द्विकसंयोगी दस सात्रिपातिकभावों के नाम और दूसरे में 'कतरे से नामे .......' प्रश्न और 'एस णं से णामे......' उत्तर द्वारा उन-उन भावों का उदाहरण सहित स्वरूप स्पष्ट किया है। इन दस संयोगज नामों में औदयिक के साथ उत्तरवर्ती प्रौपशमिक प्रादि चार भावों में से एक-एक को जोड़ने से चार भंग औपशमिक के साथ, क्षायिक प्रादि तीन भावों के संयोग से तीन भंग, क्षायिक के साथ क्षायोपशमिक आदि दो भावों के संयोग से दो भंग और क्षायोपशमिक के साथ अंतिम पारिणामिकभाव को जोड़ने से एक भंग बनता है। कुल मिलाकर इनका जोड़ (4+3+2 +1=10) दस है। इन दस भगों को स्वरूपव्याख्या के प्रसंग में उल्लिखित मनुष्य, उपशांतकषाय भाल Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [अनुयोगद्वारसूत्र सम्यक्त्व आदि नाम उपलक्षण रूप हैं। अत: इनमें अन्य जिन-जिन कर्मप्रकृतियों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम रूप स्थिति बनती हो उन सबका ग्रहण कर लेना चाहिये। यद्यपि द्विकसंयोगी-सान्निपातिकभाव के दस भंग बतलाये हैं, लेकिन इनमें से मात्र क्षायिकपारिणामिक भावनिष्पन्न एक नौवां भंग ही सिद्ध भगवान् की अपेक्षा घटित होता है / सिद्ध भगवान् में क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिकभाव रूप जीवत्व है। इसके अतिरिक्त शेष नौ भंग केवल प्ररूपणामात्र ही हैं। क्योंकि सिद्धों के सिवाय सभी संसारी जीवों में कम से कम यह तीन भाव तो होते ही हैं—ग्रौदयिक-वह गति जिसमें वे हैं, क्षायोपशमिक-यथायोग्य इन्द्रिय और पारिणामिक-.. जीवत्व / इस प्रकार से द्विकसंयोगी दस सान्निपातिक भावों की वक्तव्यता जानना चाहिये। त्रिकसंयोगज सान्निपातिकभाव 254. तत्थ णं जे ते दस तिगसंजोगा ते णं इमे-अस्थि गामे उदइए उपसमिए खयनिष्पन्ने 1, अस्थि णामे उदइए उवसमिए खओवसमनिप्पन्ने 2, अस्थि गामे उदइए उवसमिए पारिणामिनिष्पन्ने 3, अस्थि णामे उदइए खइए खओवसमनिप्पन्ने 4, अस्थि णामे उदइए खइए पारिणामियनिष्पन्ने 5, अत्थि णामे उदइए खयोवसमिए पारिणा मियनिप्पन्ने 6, अस्थि णामे उवसमिए खइए खोवसमनिप्पन्ने 7, अस्थि णामे उवसमिए खइए पारिणामियनिप्पन्ने 8, अस्थि णामे उवसमिए खग्रोवसमिए पारिणामियनिष्यन्ने 6, अस्थि णामे खइए खओवसमिए पारियामियनिप्यन्ने 10 / [254] वहाँ (सान्निपातिकभाव में) त्रिकसंयोगज दस भंग इस प्रकार हैं-१. प्रौदयिकग्रौपशमिक-क्षायिकनिष्पन्नभाव, 2. प्रौदयिक-औपशमिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव, 3. प्रौदयिकऔपशपिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, 4. प्रौदयिक-क्षायिक-क्षायोपशामिकनिष्पन्नभाव, 5. प्रौदयिकक्षायिक-पारिणामिकनिष्पत्नभाव, 6. प्रौदयिक-झायोपशमिक-पारिणामि कनिष्पन्नभाव, 7. औपशमिकनाधिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव, 8. ग्रौपशमिक-क्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, 9. प्रौपशमिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, 10. क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव / 255. कतरे से गामे उदइए उवसमिए खय निष्पन्ने ? उदए त्ति मणसे उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं, एस णं से णामे उदइए उवसमिए खयनिष्पन्ने 1 / [255-1 प्र] भगवन् ! औदयिक-ौपशमिक-क्षायिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? [255-1 उ.] अायुष्मन् ! मनुष्यगति प्रौदयिकभाव, उपशांतकषाय प्रौपशमिकभाव और शायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाब यह औदयिक-औपशमिक-क्षायिकतिष्पन्नभाव का स्वरूप है / 1 कतरे से जामे उदइए उवसमिए खयोवसमिनिप्पने? उदए त्ति मणसे उवसंता कसाया खयोवसमियाई इंदियाई, एस शं से णामे उदइए उवसमिए खओवसमनिष्पन्ने 2 / [255-2 प्र. भगवन् ! प्रौदयिक-ग्रौपशमिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निहाण] [173 [2552 उ.] आयुष्मन् ! मनुष्यगति प्रौदयिकभाव, उपशांतकषाय औपशमिक और इन्द्रियां क्षायोपामिकभाव, इस प्रकार प्रौदयिक-औपशमिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप जानना चाहिये / 2 / कयरे से णामे उदइए उवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने ? उदए त्ति मणसे उवसंता कसाया पारिणामिए जोर, एस णं से णामे उदइए उपसमिए पारिणामियनिष्पन्ने 3 / [255-3 प्र.] भगवन् ! औदयिक-औपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? [255-3 उ.] अायुष्मन् ! मनुष्यगति प्रौदयिक, उपशांतकषाय औपशमिक और जीवत्व पारिशामिक भाव, इस प्रकार से प्रौदयिक-औपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्न भाव का स्वरूप है / 3 कयरे से णामे उदइए खइए खओवसमनिप्पन्ने ? उदए त्ति मणसे खइयं सम्मत्तं खोवसमियाई इंदियाई. एस णं से णामे उदइए खइए खओवसमनिष्पन्ने 4 / [255-4 प्र.] भगवन् ! औदयिक-क्षायिक-क्षायोगशमिकनिष्पन्न सानिपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [255-4 उ.] अायुष्मन् ! मनुष्यगति प्रौदयिक, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव और इन्द्रियां क्षायो शमिकभाव यह औदयिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है। 4 / कतरे से णामे उदइए खइए पारिणामियनिप्पन्ने ? उदए त्ति मणूसे खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस णं से नामे उदइए खइए पारिणामियनिप्पन्ने 5 / [255-5 प्र.] भगवन् ! प्रौदयिक-क्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [255-5 उ.] आयुप्मन् ! मनुष्यगति प्रौदयिकभाव, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव इस प्रकार का प्रौदयिक-क्षायिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है। 5 कतरे से णामे उदइए खोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने ? उदए ति मणसे खयोवस मियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उदइए खओवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने 6 / [255-6 प्र. भगवन् ! प्रौदयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? [255-6 उ.] आयुष्मन् ! मनुष्यगति प्रौदयिक, इन्द्रियां क्षायोपशमिक और जीवत्व पारिणामिक, यह औदयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप जानना चाहिये / 6 कतरे से णामे उपसमिए खइए खओवसमनिप्पन्ने ? उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खोवसमियाइं इंदियाई, एस णं से णामे उवसमिए खइए खोवसमनिप्पन्ने 7 / [255-7 प्र.] भगवन् ! औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? [255-7 उ.] आयुष्मन् ! उपशांतकषाय औपशमिकभाव, क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव, इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव, यह प्रौपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्न सान्निपातिकभाव है / 7 / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [अनुयोगद्वारसूत्र कतरे से णामे उपसमिए खइए पारिणामियनिप्पन्ने ? उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उपसमिए खइए पारिणामियनिप्पन्ने 8 / [255-8 प्र.] भगवन् ! प्रौपशमिक-क्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [255-8 उ. प्रायुष्मन् ! उपशांतकषाय औप शमिकभाव, क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव, जीवत्व पारिणामिकभाव, यह औपशमिक-क्षायिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप जानना चाहिये / 8 कतरे से णामे उवसमिए खओवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने ? उवसंता कसाया खओवसमियाइं इंदियाइं पारिणामिए जोवे, एस णं से णामे उवसमिए खओवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने / [255-9 प्र.] भगवन् ! औपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [255-9 उ.] प्रायष्मन् ! उपशांतकषाय औपशमिकभाव, इन्द्रियां क्षायोपशमिक और जीवत्व पारिणामिक, इस प्रकार से यह प्रौपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणाभिकभावनिष्पन्नमान्निपातिकभाव का स्वरूप जानना चाहिये / 9 कतरे से गामे खइए खोवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने ? खइयं सम्मत्तं खओवसमियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे खइए खयोवसमिए पारिणामिय निप्पन्ने 10 / [255-10 प्र.] भगवन् ! क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप [255-10 उ.] आयुष्मन् ! क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव, इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव, इस प्रकार का क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है। 10 विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों द्वारा तीन भावों के संयोग से निष्पन्न दस सान्निपातिकभावों के भंग और और उनके स्वरूप का निरूपण किया है / त्रिकसंयोगज भावों के प्रौदयिक और प्रौपशमिक इन दो भावों को परिपाटी से निक्षिप्त करके अवशिष्ट क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों में से एक-एक भाव का उनके साथ संयोग करने पर प्रथम तीन भाव निष्पन्न हुए हैं। उनमें भी पहला औदयिक-प्रौपशमिकक्षायिकसान्निपातिकभाव इस प्रकार घटित करना चाहिये कि यह मनुष्य उपशांतक्रोधादि कषाय बाला होकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि है / मनुष्य से मनुष्यगति को ग्रहण किया है और मनुष्यगतिनामकर्म के उदय से मनुष्य होने से गति औदयिकभाव है। उपशांतकोधादि कषाय कहने से औपशमिकभाव तथा क्षायिकसम्यक्त्व से क्षायिकभाव घटित होता है। इसी प्रकार से शेष दो भंगों में पे पहले प्रौदयिक-प्रौपशमिक, क्षायोपशमिक-सान्निपातिकभाव में मनुष्य, उपशांतकषाय, पंचेन्द्रिय तथा दूसरे प्रौदयिक-औपशमिकपारिणामिकसान्निपातिकभाव में मनुष्य, उपशांतकषाय, जीवत्व को घटित कर लेना चाहिये। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [175 तत्पश्चात् श्रीपशमिकभाव को विलग कर प्रौदयिक और क्षायिक भाव को ग्रहण किया जाय तब क्षायोपशामिक एवं पारिणामिक भावों में से एक-एक का ग्रहण करने पर त्रिसंयोगी कभाव के दो भंग इस प्रकार बनते हैं—१. औदायिक-नायिक-क्षायोपशामिक और 2. प्रौदयिक-क्षायिक-पारिणामिक / पहले का दृष्टान्त है-क्षीणकषायी, मनुष्य, इन्द्रिय वाला और दूसरे का दृष्टान्त–क्षायिक सम्यक्त्वी, मनुष्य, जीव है। इन भावों को पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिये / __ केवल औदयिकभाव का ग्रहण और औपशमिक एवं क्षायिक भाव का परित्याग किये जाने पर छठा त्रिसंयोगी--प्रौदयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकसान्निपातिकभंग बनता है / इसका उदाहरण है-मनुष्य मनोयोगी जीव है। यहाँ तक तो औदयिकभाव संयोग में ग्रहण किया गया है / लेकिन औदयिकभाव को छोड़कर शेष प्रीपशमिकादि चार भावों में से एक-एक का परित्याग किये जाने पर इस प्रकार चार भंग बनते हैं- 1. औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकसान्निपातिकभाव 2. ग्रीपशमिक-क्षायिक-परिणामिकसान्निपातिकभाव 3. औपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकसान्निपातिकभाव और 4. क्षायिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकसान्निपातिकभाव / इन चारों के सूत्रोक्त उदाहरण स्वयं घटित कर लेना चाहिये। इन दस संयोगज भंगों में से पांचवां और छठा भंग जीवों में पाया जाता है / यथा--ौदयिकक्षायिक-पारिणामिकभाबों के संयोग से निष्पन्न पांचवां सानिपातिक भाव मनुष्यगति औदयिक, ज्ञानदर्शन-चारित्र क्षायिक और जीवत्व पारिणामिक रूप होने से यह भंग केवलियों में घटित होता है। इन तीन भावों के अतिरिक्त अन्य भाव उनमें नहीं हैं। क्योंकि उपशम मोहनीयकम का होता है और वे मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय कर चुके हैं तथा केवलियों का ज्ञान इन्द्रियातीत-अतीन्द्रिय होने से उनमें क्षायोपशमिकभाव भी नहीं है / प्रौदयिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणाणामिक इन तीन भावों से निष्पन्न छठा भंग नारकादि चारों गति के जीवों में होता है। क्योंकि उनमें नारकादि गतियां औदयिकी हैं, इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव है। इनके अतिरिक्त शेष आठ भंगों की कहीं पर भी संभावना नहीं होने से प्ररूपणामात्र समझना चाहिए। इस प्रकार त्रिकसंयोगी दस सान्निपातिकभावों की वक्तव्यता है / चतुःसंयोगज सान्निपातिकभाव 256. तत्थ णं जे ते पंच चउक्कसंयोगा ते णं इमे--अस्थि णामे उदइए उपसमिए खइए खोवसमनिप्पन्ने 1 अस्थि णामे उदइए उपसमिए खइए पारिणामियनिष्पन्ने 2 अस्थि णामे उदइए उवसभिए खयोवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने 3 अस्थि णामे उदइए खइए खोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने 4 अस्थि णामे उवसमिए खइए खोवसमिए पारिणामियनिप्यन्ते 5 / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [अनुयोगद्वारसूत्र 256] चार भावों के संयोग से निष्पन्न सान्निपातिकभाव के पांच भंगों के नाम इस प्रकार हैं-१ प्रौदयिक-प्रौपशमिक क्षायिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाब, 2 प्रौदयिक-औपशमिक-क्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नभाव, 3 प्रौदयिक-ग्रौपयमिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, 4 प्रौदयिकक्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, 5 औपश मिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव। 257. कतरे से णामे उदइए उवसमिए खइए खग्रोवसमनिप्पन्ने ? उदए त्ति मणसे उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खोवसमियाई इंदियाई, एस णं से णामे उदइए उपसमिए खइए खमोवसमनिष्पन्ने 1 / [257-1 प्र.] भगवन् ! औदयिक-ौपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्न सानिपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? 257-1 उ.] अायुष्मन् ! औदयिकभाव में मनुष्य, प्रौपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायोपमिकभाव में इन्द्रियां, यह प्रौदयिक-ौपशमिकक्षायिक-क्षायोपशमिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है / 1 कतरे से नामे उदइए उवसमिए खइए पारिणामियनिष्यन्ने ? उदए ति मणूसे उपसंता कसाया खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस जं से गामे उदइए उपसमिए खइए पारिणामियनिप्यन्ने 2 / [257-2 प्र.] भगवन् ! प्रौदयिक-ौपशमिक-क्षायिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सानिपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [257-2 उ.] आयुष्मन् ! औदयिकभाव में मनुष्यगति, औपशामिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व और पारिणामिकभाव में जीवत्व, यह औदयिक-ग्रौपशमिक-क्षायिकपारिणामिकभावनिप्पन्न सानिपातिकभाव का स्वरूप है / 2 कतरे से गामे उदइए उवसमिए खोवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने ? उदए त्ति मणसे उवसंता कसाया खग्रोवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उदइए उपसमिए खग्रोवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने 3 / [257-3 प्र.] भगवन् ! औदायिक-प्रौपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [257-3 उ.] अायुरुमन् ! प्रौदयिकभाव में मनुष्यगति, प्रौपशमिकभाव में उपशांतकपाय, क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियां और पारिणामिकभाव में जीवत्व, इस प्रकार से औदयिक-औमिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव के तृतीय भंग का स्वरूप जानना चाहिये / 3 __ कतरे से णामे उदइए खइए खओवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने ? उदए ति मण से खइयं सम्मत्तं खओवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे, एस णं से नामे उदइए खइए खोवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने 4 / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [177 नामाधिकार निरूपण [257-4 प्र.] भगवन् ! प्रौदयिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सानिपातिकभाव किसे कहते हैं ? [257-4 उ.] आयुष्मन् ! प्रौदयिकभाव में मनुष्यगति, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियां और पारिणामिकभाव में जीवत्व, यह प्रौदयिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकपारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है / 4 कतरे से नामे उपसमिए खइए खओयसमिए पारिणामियनिप्पन्ने ? उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खओवस मियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे, एस णं से नामे उवसमिए खइए खओवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने 5 / [257-5 प्र.] भगवन् ! औपशमिक - क्षायिक - क्षायोपशमिक - पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप क्या है ? [257-5 उ.] आयुष्मन् ! औपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियां और पारिणामिकभाव में जीवत्व, यह औपशमिक-क्षायिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है / 5 विवेचन-इन दो सूत्रों में चतुःसंयोगी सान्निपातिकभाव के पांच भंगों के नाम और उनके स्वरूप बतलाये हैं। स्वरूप बताने के प्रसंग में उदाहरणार्थ प्रयुक्त मनुष्यगति, शायिकसम्यक्त्व, इन्द्रियां, जीवत्व अादि उपलक्षण रूप होने से उस-उस भाव रूप में अन्यान्य गतियों आदि का भी ग्रहण समझ लेना चाहिये। इन चतुःसंयोगी पांचों भंगों में पांचवें पारिणामिकभाव को छोड़ने और शेष चार भावों का संयोग करने पर प्रथम भंग, चौथे क्षायोपशमिकभाव को छोड़कर शेष चार भावों के संयोग से दूसरा भंग, तीसरे क्षायिक भाव को छोड़कर बाकी के चार भावों के संयोग से तीसरा भंग, दूसरे औपशमिकभाव को छोड़कर शेष चार भावों के संयोग से चौथा भंग और पहले प्रौदयिकभाव को छोड़कर शेष चार भावों के संयोग से पांचवां भंग निष्पन्न जानना चाहिये। इन पांचों भंगों में से तृतीय और चतुर्थ ये दो भंग ही जीव में घटित होते हैं, शेष तान नहीं / घटित होने वाले भंगों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है औदयिक-प्रौपशमिक-क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न तृतीय भंग नारक आदि चारों गतियों में होता है। क्योंकि विवक्षित गति प्रौदयिकी है तथा प्रथम सम्यक्त्व के लाभकाल में उपशमभाव होने से और मनुष्यगति में उपशमश्रेणी में भी औपशमिक सम्यक्त्व होने से औपशमिकभाव है। इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव रूप हैं / इस प्रकार यह तृतीय भंग सर्व गतियों में पाया जाता है। सूत्र में प्रयुक्त इस तृतीय भंग के उदाहरण रूप में 'उदए त्ति मणूसे उवसंता कसाया' पाठ इस बात को स्पष्ट करने के लिये है कि उपशमश्रेणी में मनुष्यत्व का उदय और कषायों का उपशम होता है / अथवा सूत्रोक्त पाठ उपलक्षण रूप होने से यथायोग्य गति आदि का ग्रहण समझ लेना चाहिये। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [अनुघोगद्वारसूत्र औदायिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक और पारिणामिकभावों का संयोगज रूप चौथा भंग भी तृतीय भंग की तरह नरकादि चारों गतियों में संभव है / परन्तु विशेषता यह है कि तृतीय भंगोक्त उपशमसम्यक्त्व के स्थान पर यहाँ क्षायिक सम्यक्त्व समझना चाहिये। क्षायिक सम्यक्त्व नारक, तियंच और देव इन गतियों में तो पूर्वप्रतिपन्न जीव को और मनुष्यगति में पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यभान को भी होता है / इसी कारण यह चतुर्थ भंग चारों गतियों में संभव है। ___ इस प्रकार चतुःसंयोगी सान्निपातिकभावों की प्ररूपणा जानना चाहिये / अब अंतिम पंचसंयोगी सान्निपातिकभाव का निरूपण करते हैं। पंचसंयोगी सानिपातिकभाव 258. तस्य गंजे से एक्के पंचकसंजोगे से गं इमे-अस्थि नामे उदइए उवसमिए खइए समोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने 1 / [258] पंचसंयोगज सान्निपातिकभाव का एक भंग इस प्रकार है-प्रौदयिक-प्रौपशमिकक्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव। 259. कतरे से नामे उदइए उपसमिए खइए खओवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने? उदए त्ति मणूसे उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खोवसमियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे, एस णं से गामे उदइए उवसमिए खइए खओवसमिए पारिणामिय निष्पन्ने / से तं सन्निवाइए / से तं छण्णामे / (259 प्र.] भगवन् ! प्रोदयिक औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? 259 उ.] आयुष्मन् ! प्रौदयिकभाव में मनुष्यगति, प्रौपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियां और पारिणामिकभाव में जीवत्व, यह प्रौदयिक-ग्रौपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न :सानिपातिकभाव का स्वरूप है। इस प्रकार से सान्निपातिकभाव और साथ ही षड्नाम का वर्णन समाप्त हुआ। विवेचन-इस सूत्र में पांच भावों के संयोग से निष्पन्न सान्निपातिकभाव का कथन करने के साथ षड्नाम की वक्तव्यता की समाप्ति का संकेत किया है। इस पंचसंयोगज सानिपतिकभाव में औदयिक आदि पारिणामिक भाव पर्यन्त पांचों भावों का समावेश हो जाता है। इनके अतिरिक्त अन्य भावों के न होने से यहाँ एक ही भंग बनता है। यह भंग क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर उपरामश्रेणी पर पारोहण करने वाले मनुष्य में पाया जाता है / इसी का संकेत करने के लिये सूत्र में मनुष्य,उपशांतकषाय प्रादि को उदाहृत किया है। जीव में प्राप्त सान्निपातिकमाव-निरूपण का सारांश प्रौदयिक प्रादि पांच मूल भावों के संयोग से निष्पन्न सानिपातिकभाव के द्विकसंयोगी दस, त्रिकसंयोगी दस, चतुष्कसंयोगी पांच और पंचसंयोगी एक कुल छन्वीस भंगों में से जीवों में सिर्फ द्विकसंयोगी एक, त्रिकसंयोगी दो, चतुष्कसंयोगी दो और पंचसंयोगी एक, इस प्रकार छह भंग पाये जाते हैं। शेष भंग प्ररूपणामात्र के लिए ही हैं। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [179 जीवों में प्राप्त भंगों का कारण सहित स्पष्टीकरण इस प्रकार है--- 1. क्षायिक और पारिणामिकभाव से निष्पन्न द्विकसंयोगी भंग सिद्ध जीवों में पाया जाता है। क्योंकि उनमें पारिणामिकभाव जीवत्व और क्षायिकभाव अनन्त ज्ञान-दर्शन प्रादि हैं। 2. औदयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभाव के संयोग से निष्पन्न त्रिसंयोगी भेद चातुर्गतिक संसारी जीवों में पाया जाता है / क्योंकि उनमें गतियां प्रौदयिक रूप, भावेन्द्रियां क्षायोपशमिक रूप और जीवत्व आदि पारिणामिकभाव रूप हैं। 3. औदयिक-नायिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न त्रिसंयोगी भंग भवस्थ केवलियों में पाया जाता है / वह इस प्रकार है-औदयिकभाव मनुष्यगति, क्षायिकभाव केवलज्ञान आदि और पारिणामिकभाव जीवत्व रूप से उनमें है। 4. औदयिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न चतु:संयोगी भंग चतुर्गतिक जीवों में पाया जाता है / इसमें गति प्रोदयिकभाव, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव, भावेन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव रूप है। 5. औदयिक-औषशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक के संयोग वाला चतु:संयोगी भंग भी चारों गतियों में पाया जाता है। इसका प्राशय भी पूर्वोक्त चतुःसंयोगी भंग के अनुरूप है। विशेष इतना है कि क्षायिकभाव के स्थान पर औपशमिकभाव में औपशमिक सम्यक्त्व का ग्रहण करना चाहिये / 6. पंचसंयोगी सान्निपातिकभाव प्रौदयिक प्रादि पंच भावों का संयोग रूप है और वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणी में वर्तमान मनुष्यों में पाया जाता है / वह इस प्रकार मनुष्यगति प्रोदयिकभाव, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव, औपशमिक चारित्र औपशमिकभाव, भावेन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव रूप और जीवत्व पारिणामिकभाव रूप जानना चाहिये। इस प्रकार छह नाम के रूप में छह भावों का निरूपण करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त सप्तनाम की प्ररूपणा करते हैं / सप्तनाम 260. [1] से कि तं सत्तनामे ? सत्तनामे सत्त सरा पण्णत्ता / तं जहा सज्जे 1 रिसमे 2 गंधारे 3 मज्झिमे 4 पंचमे सरे 5 / धेवए 6 चेव णेसाए 7 सरा सत्त वियाहिया // 25 // [260-1 प्र.] भगवन् ! सप्तनाम का क्या स्वरूप है ? [260-1 उ.] आयुष्मन् ! सप्तनाम सात प्रकार के स्वर रूप है / स्वरों के नाम इस प्रकार हैं—१. षड्ज, 2. ऋषभ, 3. गांधार, 4. मध्यम, 5. पंचम, 6. धैवत और 7. निषाद, ये सात स्वर जानना चाहिये / 25 विवेचन--सूत्र में सप्तनाम के रूप में सात स्वरों का वर्णन किया है। वह इसलिये कि पुरुषों की बहत्तर और स्त्रियों की चौसठ कलाओं में शकुनिरुत गीत, संगीत, वाद्यवादन आदि का समावेश किया गया है और वे स्वर ध्वनिविशेषात्मक हैं / सात स्वरों के लक्षण इस प्रकार हैं Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [अनुयोगद्वारसूत्र 1. षड्ज-छह से जन्य / अर्थात् स्वरोत्पत्ति के कारणभूत कंठ, वक्षस्थल, तालु, जिह्वा, दन्त और नासिका इन छह स्थानों के संयोग से उत्पन्न होने वाले स्वर को षड्ज कहते हैं। 2. ऋषभ-ऋषभ का अर्थ बैल है / अतः नाभि से उत्थित और कंठ एवं शिर से समाहत होकर (टकराकर) ऋषभ के समान गर्जना रूप स्वर / 3. गांधार-गंधवाहक स्वर / नाभि से समुत्थित एवं कंठ व हृदय से समाहत तथा नाना प्रकार की गंधों का वाहक स्वर गांधार कहलाता है। 4. मध्यम-शरीर के मध्यभाग से उत्पन्न होने वाला स्वर / अर्थात् शरीर के मध्यभागनाभिप्रदेश में उत्पन्न हुई और उरस् एवं हृदय से समाहत होकर पुन: नाभिस्थान में आई हुई वायु द्वारा जो उचनाद होता है, वह मध्यम स्वर है / 5. पंचम-जिस स्वर में नाभिस्थान से उत्पन्न वायु वक्षस्थल, हृदय, कंट और मस्तक में व्याप्त होकर स्वर रूप में परिणत हो, उसे पंचम स्वर कहते हैं / 6. धैवत–पूर्वोक्त सभी स्वरों का अनुसंधान करने वाला स्वर धैवत कहलाता है / 7. निषाद-सभी स्वरों का अभिभव करने वाला स्वर / यह स्वर समस्त स्वरों का पराभव करने वाला है / प्रादित्य (सूर्य) इसका स्वामी कहलाता है। संगीतशास्त्र में इन स्वरों का बोध कराने के लिये-'सरेगमपधनी' पद दिया है / पदोक्त एकएक अक्षर पृथक्-पृथक् स्वर का बोधक है / जैसे 'स' षड्ज स्वर का बोधक है / इसी प्रकार शेष रे-ग-मप-ध-नीअक्षर ऋषभ आदि स्वरों के बोधक हैं। ये सातों स्वर जीव और अजीव दोनों पर आश्रित हैं। अर्थात् जीव और अजीव के माध्यम से इनका प्रादुर्भाव हो सकता है / स्वर सात ही क्यों यद्यपि स्वरोत्पत्ति के साधन जीभ आदि त्रस-द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में पाये जाते हैं और इन जीवों के असंख्यात होते से स्वरों की संख्या भी असंख्यात है। फिर भी उन सभी स्वरों का सामान्य रूप से इन षड्ज प्रादि सात स्वरों में अन्तर्भाव हो जाने से मौलिक स्वरों की संख्या सात से अधिक नहीं है। सप्त स्वरों के स्वरस्थान [2] एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरहाणा पण्णत्ता / तं जहा सज्जं च अग्गजोहाए 1 उरेण रिसह सरं 2 / कंठुग्गतेण गंधारं 3 मज्मजोहाए मज्झिम 4 // 26 // नासाए पंचमं ब्रूया 5 दंतोट्टेण य घेवतं 6 / भमुहक्लेवेण सायं 7 सरढाणा वियाहिया / / 27 // [260-2] इन सात स्वरों के सात स्वर (उच्चारण) स्थान कहे गये हैं / वे स्थान इस प्रकार गी Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण 181 1. जिह्वा के अग्रभाग से षड्जस्वर का उच्चारण करना चाहिए / 2. वक्षस्थल से ऋषभस्वर उच्चरित होता है / 3. कंठ से गांधारस्वर उच्चरित होता है। 4. जिह्वा के मध्यभाग से मध्यमस्वर का उच्चारण करे / 5. नासिका से पंचमस्वर का उच्चारण करना चाहिए। 6. दंतोष्ठ-संयोग से धैवतस्वर का उच्चारण करना चाहिए। 7. मूर्धा (भ्र कुटि ताने हुए शिर) से निषाद स्वर का उच्चारण करना चाहिए। 26, 27 विवेचन-यहां सूत्रकार ने षड्ज प्रादि सात स्वरों के पृथक्-पृथक् स्वर-उच्चारणस्थानों का कथन किया है। स्वरस्थान का लक्षण व मानने का कारण मूल उद्गमस्थान नाभि से उत्थित अविकारी स्वर में विशेषता के जनक जिह्वा आदि अंग स्वरस्थान हैं। यद्यपि षडज आदि समस्त स्वरों के उच्चारण करने में सामान्यतया जिह्वान, कंठ आदि स्थानों की अपेक्षा होती है तथापि विशेष रूप से एक-एक स्वर जिह्वाग्रभागादिक रूप स्थानों में से एक-एक स्थान को प्राप्त कर ही अभिव्यक्त होता है। इसी अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये षड्ज प्रादि स्वरों का पृथक्-पृथक् एक-एक स्वरस्थान माना गया है। जैसे वक्षस्थल से ऋषभस्वर उच्चरित होता है, इसका यह अर्थ हया कि ऋषभस्वर का उच्चारणस्थान वक्षस्थल है। इस स्वर के उच्चारण में वक्षस्थल का विशेष रूप में उपयोग होता है। इसी प्रकार अन्य स्वरों और उनके स्थानों के लिये भी समझ लेना चाहिये। पूर्व में यह संकेत किया है कि ये षड्ज ग्रादि सप्त स्वर जीव-अजीवनिश्रित हैं। अतः अब क्रम से उनका निर्देश करते हैं। जीवनिभित सप्तस्वर [3] सत्त सरा जीवणिस्सिया पण्णत्ता / तं जहा-- सज्जं रवइ मयूरो 1 कुक्कुडो रिसभं सरं 2 / हंसो रवइ गंधारं 3 मज्झिमं तु गवेलगा 4 // 28 // अह कुसुमसंभवे काले कोइला पंचम सरं 5 / छठं च सारसा कुचा 6 सायं सत्तमं गन्नो 7 // 29 / / [260-3] जीवनिश्रित-जीवों द्वारा उच्चरित होने वाले सप्तस्वरों का स्वरूप इस प्रकार 1. मयूर षड्जस्वर में बोलता है। 2. कुक्कुट (मुर्गा) ऋषभस्वर में बोलता है। 3. हंस गांधारस्वर में बोलता है। 4. गवेलक (भेड़) मध्यमस्वर में बोलता है। 5. कोयल पुष्पोत्पत्तिकाल (वसन्तऋतु-चैत्र वैशाखमास) में पंचमस्वर में बोलता है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] अनुशोगद्वारसूत्र 6. सारस और क्रौंच पक्षी धैवतस्वर में बोलते हैं / तथा--- 7. हाथी निषाद स्वर में बोलता है / 28,29 अजीवनिश्रित सप्तस्वर [4] सत्त सरा अजीवणिस्सिया पण्णत्ता। तं जहा सज्जं रवइ मुयंगो 1 गोमुही रिसहं सरं 2 / संखो रवइ बांधारं 3 मनिममं पुण भल्लरी 4 // 30 // चउचलणपतिढाणा गोहिया पंचमं सरं 5 / आडंबरो धेवइयं 6 महामेरी य सत्तमं 7 // 31 // [260-4] अजीवनिश्रित सप्तस्वर इस प्रकार हैं१. मृदंग से षड़जस्वर निकलता है। 2. गोमुखी वाद्य से ऋषभस्वर निकलता है। 3. शंख से गांधारस्वर निकलता है। 4. झालर से मध्यमस्वर निकलता है। .. 5. चार चरणों पर स्थित गोधिका से पंचमस्वर निकलता है। 6. बाबर (नगाड़ा) से धैवतस्वर निकलता है। 7. महाभेरी से निषादस्वर निकलता है / 3.0, 31 विवेचन-सूत्रकार ने सप्तस्वरों की अभिव्यक्ति के साधनों के रूप में कुछएक जीवों और अजीव पदार्थों के नामों का उल्लेख किया है कि अमुक द्वारा उस-उस प्रकार का स्वर निष्पन्न होता प्राशय को स्पष्ट करने के लिये उदाहृत जीवों और अजीबों के नाम उपलक्षण रूप होने से इन जैसे अन्यों का ग्रहण भी इनसे किया गया समझना चाहिये / फलादि से अभिव्यक्त होने वाले स्वरों में तो जीवनिश्रितता स्वयंसिद्ध है और मदंग आदि अजीब बस्तुओं में जीवव्यापार अपेक्षित है / मृदंग आदि द्वारा जनित स्वरों के नाभि, कंठ आदि से उत्पन्न होने रूप अर्थ घटित नहीं होता है तो भी उन वाद्यों से षड्ज आदि स्वरों जैसे स्वर उत्पन्न होने से उन्हें मृदंग आदि अजीवों से निश्रित कहा जाता है। सप्तस्वरों के स्वरलक्षण-फल [5] एएसि णं सत्ताह सराणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता / तं जहा सज्जेण लहइ वित्ति कयं च न विणस्सई। गावो पुत्ताय मित्ता य नारीणं होति वल्लहो 1 // 32 // रिसहेणं तु एसज्जं सेणावाचं धणाणि य / बत्य गंभमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य 2 // 33 // Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] गंधारे गोतनुत्तिणा कज्जवित्ती कलाहिया। हवंति कणो पण्णा जे अण्णे सत्यपारगा 3 / / 34 // मनिमसरमंता उ हवंति सुहजीविणो। खायती पियतो देती मज्झिमस्सरमस्सिओ४ // 35 // पंचमस्सरमंता उ हवंती पुहवीपती। सूरा संगहकत्तारो अणेगणरणायगा 5 // 36 // धेवयस्सरमंता उ हवंति कलहप्पिया। साउणिया वागुरिया सोयरिया मच्छबंधा य 6 // 37 // ' चंडाला मुढ़िया मेला, जे यऽण्णे पावकारिणो / गोधातगा य चोरा य नेसातं सरमस्सिता 7 // 38 // [260-5] इन सात स्वरों के (तत्तत् फल प्राप्ति के अनुसार) सात स्वरलक्षण कहे गये हैं। यथा 1. षड्जस्वर वालामनुष्य वृत्ति-पाजीविका प्राप्त करता है। उसका प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता है / उसे गोधन, पुत्र-पौत्रादि और सन्मित्रों का संयोग मिलता है / वह स्त्रियों का प्रिय होता है / 32 2. ऋषभस्वर वाला मनुष्य ऐश्वर्यशाली होता है / सेनापतित्व, धन-धान्य, वस्त्र, गंधसुगंधित पदार्थ, आभूषण-अलंकार, स्त्री, शयनासन आदि भोगसाधनों को प्राप्त करता है / 33 3. गांधारस्वर वाला श्रेष्ठ आजीविका प्राप्त करता है / वादित्रवृत्ति वाला होता है / कलाविदों में श्रेष्ठ-शिरोमणि माना जाता है। कवि अथवा कर्तव्यशील होता है। प्राज्ञ-बुद्धिमान्चतुर तथा अनेक शास्त्रों में पारंगत होता है / 34 4. मध्यमस्वरभाषी सुखजीवी होते हैं / रुचि के अनुरूप खाते-पीते और जीते हैं तथा दूसरों को भी खिलाते-पिलाते तथा दान देते हैं / 35 5. पंचमस्वर वाला व्यक्ति भूपति, शूरवीर, संग्राहक और अनेक गुणों का नायक होता होता है / 33 6. धैवतस्वर वाला पुरुष कलहप्रिय, शाकुनिक (पक्षियों को मारने वाला-चिडीमार), वागुरिक (हिरण प्रादि पकड़ने-फंसाने वाला), शौकरिक (सूअरों का शिकार करने वाला) और मत्स्यबंधक (मच्छीमार) होता है / 37 1-2. पाठान्तर रेवयसरमंता उ, वंति दुहजोविणो। कुचेला य कुवित्तीय, चोरा चंडालमुट्टिया / / णिसायसरमंता उ, होति कलह कारगा। जंधाचरा लेहवाहा, हिंडगा भारवाहगा / / --अनुयोगद्वारवृत्ति, पृ. 129 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [अनुयोगद्वारसूत्र 7. निषादस्वर वाला पुरुष चांडाल, वधिक, मुक्केबाज, गोघातक, चोर और इसी प्रकार के दूसरे-दूसरे पाप करने वाला होता है / 38 विवेचन-इन गाथाओं में व्यक्ति के हाव-भाव-विलास, प्राचार-विचार-व्यवहार, कुल-शीलस्वभाव का बोध कराने में स्वर- बागव्यवहार के योगदान का संकेत किया गया है। बोलने मात्र से ही व्यक्ति के गुणावगुण का अनुमान लगाया जा सकता है। शिष्ट सरल जन प्रसादगुणयुक्त कोमलकान्तपदावली का प्रयोग करते हैं, जबकि धूर्त, वंचक व्यक्तियों के बोलचाल में कर्णकटु, अप्रिय और भयोत्पादक शब्दों की बहुलता होती है एवं उनकी प्रवृत्ति भी वाग्व्यवहार के अनुरूप ही होती है / सप्तस्वरों के ग्राम और उनकी मूर्छनाएँ [6] एतेसि णं सत्तण्हं सराणं तयो गामा पण्णत्ता / तं जहा-सज्जग्गामे 1 मज्झिमम्गामे 2 गंधारग्गामे 3 // [260-6] इन सात स्वरों के तीन ग्राम कहे गये हैं / वे इस प्रकार१. षड्जग्राम, 2. मध्यमग्राम, 3. गांधारग्राम / [7] सज्जग्गामस्स णं सत्त मुच्छणाम्रो पणत्तानो / तं जहा-- मंगी कोरन्वीया हरी य रयणी य सारकंता य। छट्ठी य सारसी नाम सुद्धसज्जा य सत्तमा // 39 // [260-7] षड्जग्राम की सात मूर्च्छनाएँ कही गई हैं। उनके नाम हैं 1. मंगी, 2. कौरवीया, 3. हरित्, 4. रजनी, 5. सारकान्ता, 6. सारसी और 7. शुद्धषड्ज। 39 [8] मज्झिमगामस्स गं सत्त मुच्छणामो पण्णत्ताओ। तं जहा-- उत्तरमंदा रयणी उत्तरा उत्तरायसा (ता)। अस्सोकता य सोवीरा अमीरू भवति सत्तमा // 40 // [260-8] मध्यमग्राम की सात मूर्च्छनाएँ कही हैं / जैसे 1. उत्तरमंदा, 2. रजनी, 3. उत्तरा, 4. उत्तरायशा अथवा उत्तरायता, 5. अश्वक्रान्ता, 6. सौवीरा, 7. अभिरुद्गता / 40 [] गंधारग्गामस्स णं सत्त मुच्छणाम्रो पण्णत्ताओ / तं जहा नंदी य खुड्डिमा पूरिमाय चउथी य सुद्धगंधारा। उत्तरगंधारा वि य पंचमिया हवइ मुच्छा उ // 41 // सुठुत्तरमायामा सा छट्ठा नियमसो उ णायब्वा। अहउत्तरायता कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा // 42 // [260-9] गांधारग्राम की सात मूर्च्छनाएँ कही गई हैं। उनके नाम ये हैं--- Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] 1185 1. नन्दी, 2. क्षुद्रिका, 3. पूरिमा, 4. सुद्धगांधारा, 5. उत्तरगांधारा, 6. मुष्ठुतर-मायामा और 7. उत्तरायता–कोटिमा / 41-42 / (इस प्रकार से सात स्वरों के तीन ग्राम और उनकी सात-सात मूर्च्छनाओं के नाम जानने चाहिये / ) विवेचन-सूत्रकार ने सप्तस्वरों के तीन ग्राम और प्रत्येक की मूर्च्छनाओं के नाम गिनाये हैं। मूर्च्छनाओं के समुदाय को ग्राम कहते हैं। वे षड्ज प्रादि के भेद से तीन प्रकार के हैं / प्रत्येक ग्राम की सात-सात मूर्च्छनाएं होने से सब मिलकर इक्कीस हैं। मूर्च्छना अर्थात् गायक का गीत के स्वरों में तल्लीन-~-मूच्छित-सा हो जाना। मंगी प्रादि इक्कीस मुर्छनामों की विशेष जानकारी के लिये भरतमुनि का नाट्यशास्त्र आदि ग्रन्थ देखिये। सप्त स्वरोत्पत्ति प्रादि विषयक जिज्ञासाएँ : समाधान [10] सत्त स्सरा कतो संभवंति ? गीयस्स का हवति जोणी?। कतिसमया ऊसासा ? कति वा गीयस्स आगारा? // 43 // सत्त सरा नाभीनो संभवंति, गीतं च रुनजोणीयं / पायसमा उस्सासा, तिणि य गोयस्स आगारा // 44 // प्रादिमिउ आरभंता, समुन्वहंता य मज्झगारम्मि / अवसाणे य झवेता, तिनि वि गीयस्स आगारा // 45 // [२६०-१०-अ] प्र.- सप्त स्वर कहाँ से--किससे उत्पन्न होते हैं ? गीत की योनि क्या है ? इसके उच्छ्वासकाल का समयप्रमाण कितना है ? गीत के कितने प्रकार होते हैं ? उत्तर–सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। रुदन गीत की योनि–जाति है। पादसमजितने समय में किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है, उतना उसका (गीत का) उच्छ्वासकाल होता है / गीत के तीन प्रकार होते हैं आदि में मृदु, मध्य में तीव्र (तार) और अंत में मंद / इस प्रकार से गीत के तीन प्राकार जानने चाहिए। 43, 44, 45 . विवेचन-इन तीन गाथानों में से पहली गाथा में गीत के स्वरों के उत्पत्तिस्थान आदि संबन्धी चार प्रश्न हैं और अगली दो गाथानों में प्रश्नों के उत्तर दिये हैं। ___ गाथागत विशेष शब्द-रुन्नजोणियं-- रुदितयोनिक-गीत की योनि रुदन है, अथवा रोने की जाति जैसा है / आगारा---ग्राकारा ---स्वरूपविशेष / अवसाणे-अवसाने-अंत में। झर्वता--- क्षपयन्त: समाप्त करते समय। गीतगायक की योग्यता [10 आ] छद्दोसे अट्ठ गुणे तिण्णि य वित्ताणि दोणि भणितीयो। जो गाही सो गाहिति सुसिक्खतो रंगमज्झम्मि / / 46 / / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [अनुमोगद्वार [२६०-१०-आ] संगीत के छह दोषों, आठ गुणों, तीन वृत्तों और दो भणितियों को यथावत् जानने वाला सुशिक्षित-गानकलाकुशल व्यक्ति रंगमंच पर गायेगा। 46 विवेचन--सूत्रकार ने गानकला में प्रवीण व्यक्ति की योग्यता का निर्देश किया है कि वह गीत के दोष-गुण आदि का मर्मज्ञ हो / अतः आगे गीत के दोषों और गुणों आदि का निरूपण करते हैं / गीत के दोष [10 ] भीयं दुयमुप्पिच्छं उत्तालं च कमसो मुणेयव्वं / ___ काकस्सरमणुनासं छ दोसा होति गोयस्स // 47 / / [२६०-१०-इ] गीत के छह दोष इस प्रकार हैं१. भीतदोषडरते हुए गाना / 2. द्रुतदोष-उद्वेगवश शीघ्रता से गाना। 3. उत्पिच्छदोष--श्वास लेते हुए या जल्दी-जल्दी गाना / 4. उत्तालदोष तालविरुद्ध गाना / 5. काकस्वरदोष-कौए के समान कर्णकटु स्वर में गाना। 6. अनुनासदोष नाक से स्वरों का उच्चारण करते हुए गाना / 47 विवेचन-गाथार्थ सुगम है। यह छह दोष गायक को उपसनीय बना देते हैं। पाठान्तर के रूप में 'उप्पिच्छं' के स्थान पर रहस्सं' पद भी प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है अक्षरों को लधु बनाकर गाना। गीत के [10 ई] पुग्णं रतं च अलंकियं च वत्तं तहेवमविधुळे / ____ महुरं समं सुललियं अट्ठ गुणा होति गीयस्स // 48 // [२६०-१०-ई] गीत के आठ गुण इस प्रकार हैं-- 1. पूर्णगुण-स्वर के आरोह-अवरोह आदि समस्त स्वरकलाओं से परिपूर्ण गाना / 2. रक्तगुण—गेय राग से भावित होकर गाना। 3. अलंकृतगुण-विविध विशेष शुभ स्वरों से संपन्न होकर गाना। 4. व्यक्तगुण-गीत के बोलों-स्वर-व्यंजनों का स्पष्ट रूप से उच्चारण करके गाना। 5. अविघुष्टगुण-विकृति और विशृखलता से रहित नियत और नियमित स्वर से गानाचीखते-चिल्लाते हुए न गाना। 6. मधुरगुण-कर्णप्रिय मनोरम स्वर से कोयल की भांति गाना। 7. समगुण-सुर-ताल-लय आदि से समनुगत-संगत स्वर में गाना। 8. सुललितगुण-स्वरघोलनादि के द्वारा ललित-श्रोत्रेन्द्रियप्रिय सुखदायक स्वर में गाना / 48 [10 उ] उर-कंठ-सिरविसुखं च गिज्जते मउय-रिभियपदबद्धं / __ समताल पडुक्खेबं सत्तस्सरसीभरं गीयं // 49 / / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानाधिकार निरूपण [ 17 [260-10 उ] गीत के आठ गुण और भी हैं, जो इस प्रकार हैं१. उरोविशुद्ध-जो स्वर उरस्थल में विशाल होता है। 2. कंठविशुद्ध नाभि से उत्थित जो स्वर कंठस्थल में व्याप्त होकर स्फुट रूप से व्यक्त होता है / अर्थात् जो स्वर कंठ में नहीं फटता। 3. शिरोविशुद्ध--जो स्वर शिर से उत्पन्न होकर भी नासिका के स्वर से मिश्रित नहीं होता। 4. मृदुक—जो गीत मृदु-कोमल स्वर में गाया जाता है। 5. रिभित-घोलनाबहुल आलाप द्वारा गीत में चमत्कार पैदा करना / 6. पदबद्ध-गीत को विशिष्ट पदरचना से निबद्ध करना। 7. समतालप्रत्युत्क्षेप-जिस गीत में (हस्त) ताल, वाद्य-ध्वनि और नर्तक का पादक्षेप सम हो अर्थात् एक दूसरे से मिलते हों। 8. सप्तस्वरसीभर--जिसमें (षड्ज) आदि सातों स्वर तंत्री आदि वाद्यध्वनियों के अनुरूप हों। अथवा वाद्यध्वनियां गीत के स्वरों के समान हों। 49 [10 ऊ] अक्खरसमं पयसमं तालसमं लयसमं गहसमं च / निस्ससिउस्ससियसमं संचारसमं सरा सत्त // 50 // [२६०-१०-ऊ] (प्रकारान्तर से) सप्तस्वरसीभर की व्याख्या इस प्रकार है 1. अक्षरसम-जो गीत ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत और सानुनासिक अक्षरों के अनुरूप ह्रस्वादि स्वरयुक्त हो। 2. पदसम--स्वर के अनुरूप पदों और पदों के अनुरूप स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत / 3. तालसम--- तालवादन के अनुरूप स्वर में गाया जाने वाला गीत / 4. लयसम-वीणा प्रादि वाद्यों की धुनों के अनुसार गाया जाने वाला गीत / 5. ग्रहसम-वीणा आदि द्वारा ग्रहीत स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत / 6. निश्वसितोच्छ्वसितसम-- सांस लेने और छोड़ने के क्रमानुसार गाया जाने वाला गीत / 7. संचारसम-सितार आदि वाद्यों के तारों पर अंगुली के संचार के साथ गाया जाने वाला गीत / इस प्रकार गीत स्वर, तंत्री आदि के साथ संबन्धित होकर सात प्रकार का हो जाता है। 50 विवेचन-यद्यपि षड्ज आदि के भेद से सप्त स्वरों के नाम प्रसिद्ध हैं। लेकिन अक्षरसम प्रादि इस गाथा द्वारा पन: सप्त स्वरों के नाम बताने का कारण यह है कि षडज षड़ज आदि नाम तो कंठोद्गत ध्वनिवाचक हैं और यहाँ लिपि रूप अक्षरों की अपेक्षा है / इसीलिये अनुयोगद्वार मलधारीया वृत्ति में इस गाथा को 'सत्तम्सरसीभरं'– सप्तस्वर सीभरं पद का विशेषण मानते हुए कहा है- ...... सप्तस्वरासीभरंति -- अक्षरादिभिसमायत्र तत्सप्तस्वरसीभरमिति, ते चामी सप्तस्वरः-अक्खरसम....... / ' Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185] [अनुयोगद्वारसूत्र [10 ए] निहोसं सारवंतं च हेउजुत्तमलंकियं / उवणीयं सोवयारं च मियं महुरमेव य / / 51 // [२६०-१०-ए] गेय पदों के आठ गुण इस प्रकार भी हैं१. निर्दोष-अलीक, उपघात आदि बत्तीस दोषों से रहित होना / 2. सारवंत-सारभूत विशिष्ट अर्थ से युक्त होना। 3. हेतुयुक्त-अर्थसाधक हेतु से संयुक्त होना। 4. अलंकृत-काव्यगत उपमा-उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों से युक्त होना / 5. उपनीत--उपसंहार से युक्त होना। इ.सोपचार अविरुद्ध अलज्जनीय अर्थ का प्रतिपादन करना। 7. मित-अल्पपद और अल्पअक्षर वाला होना। 8. मधुर-सुश्राव्य शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की अपेक्षा प्रिय होना / 51 विवेचन-सूत्रकार ने 'छद्दोसे अट्ठ गुणे' इन पदों के अनुसार गीत संबन्धी दोषों और विभिन्न अपेक्षामों से गुणों का वर्णन किया है / वर्णन करने का कारण यह है कि गायक गीतविधाओं को जानता हुअा भी दोषों का निराकरण और गुणों का समायोजन करने का लक्ष्य नहीं रखे तो वह जनप्रिय और संमाननीय नहीं हो पाता है / गीत के वृत्त-छन्द [10 ऐ] समं असमं चेव सम्वत्थ विसमं च जं। तिण्णि वित्तप्पयाराई चउत्थं नोवलगभइ // 52 // [२६०-१०ऐ] गीत के वृत्त-छन्द तीन प्रकार के होते हैं-- 1. सम-जिसमें गीत के चरण और अक्षर सम हों अर्थात् चार चरण हों और उनमें गुरु-लघु अक्षर भी समान हों, अथवा जिसके चारों चरण सरीखे हों। 2. अर्धसम-जिसमें प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण समान हों। 3. सर्वविषम-जिसमें सभी चरणों में अक्षरों की संख्या विषम हो, जिसके चारों चरण विषम हों। इनके अतिरिक्त चौथा प्रकार नहीं पाया जाता है / 52 गीत की भाषा [10 ओ] सक्कया पायया चेव भणिईओ होंति दुण्णि उ। सरमंडलम्मि गिज्जंते पसत्था इसिभासिया // 53 // [२६०-१०-प्रो] भणतियां-गीत की भाषायें दो प्रकार की कही गई हैं—संस्कृत और प्राकृत / ये दोनों प्रशस्त एवं ऋषिभाषित हैं और स्वरमंडल में पाई जाती है / 53 विवेचन---उक्त दो गाथाओं में गीत के छन्दों और भाषायों का विचार किया गया है। अब 'सो गाहिति' पद के अनुसार कौन किस प्रकार से गाता है ? इसका प्रश्नोत्तर विधा द्वारा निरूपण करते हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] गीतगायक के प्रकार [11] केसी गायति महरं ? केसी गायति खरं च रुक्खं च ? / केसी गायति चउर ? केसी य विलंबियं ? दुतं केसी ? विस्सरं पुण केरिसी? // 54 // [पंचपदी] सामा गायति महुरं, काली गायति खरं च रुक्खं च / गोरी गायति चउरं, काणा य विलंबियं, दुतं अंधा, विस्सरं पुण पिंगला // 55 // [पंचपदी] [२६०-११-अ. प्र. कौन स्त्री गधर स्वर में गीत गाती है ? परुष और रूक्ष स्वर में कौन गाती है ? चतुराई से कौन गाती है ? विलंबित स्वर में कौन गाती है ? दुत स्वर में कौन गाती है ? तथा विकृत स्वर में कौन गाती है ? [२६०-११-अ. उ.] श्यामा (षोडशी) स्त्री मधुर स्वर में गीत गाती है, कृष्णवर्णा स्त्री खर (परुष) और रूक्ष स्वर में गाती है, गौरवर्णा स्त्री चतुराई से गीत गाती है, कानी स्त्री विलंबित (मंद) स्वर में गाती है / अंधी स्त्री शीघ्रता से गीत गाती है और पिंगला (कपिला) विकृत स्वर में गीत गाती है। 54, 55 विवेचन--इन दो गाथाओं द्वारा परोक्ष में गीत स्वरों द्वारा गायक की योग्यता, स्थिति आदि का अनुमान लगाने का संकेत किया है / कुछ भिन्नता के साथ अन्य प्रतियों में गाथा 55 इस रूप में अंकित है-- गोरी गायति महुरं सामा गायइ खरं च रूवखं च / काली गायइ चउर काणा य विलंवियं दुतं अंधा / / विस्सरं पुण पिंगला। इस प्रकार से सप्त स्वरमंडल संबन्धी आवश्यक वर्णन करने के अनन्तर अब उपसंहार करते हैं। उपसंहार [11 आ] सत्त सरा तयो गामा मुच्छणा एक्कवीसति / ताणा एपूणपण्णासं सम्मत्तं सरमंडलं // 56 / / सेतं सत्तनामे / [२६०-११-या इस प्रकार सात स्वर, तीन ग्राम और इक्कीस मूर्च्छनायें होती हैं / प्रत्येक स्वर सात तानों से गाया जाता है, इसलिये उनके (74 7 = 49) उनपचास भेद हो जाते हैं / इस प्रकार स्वरमंडल का वर्णन समाप्त हुआ / 56 स्वरमंडल के वर्णन की पूर्णता के साथ सप्तनाम की वक्तव्यता भी समाप्त हुई / विवेचन—यह गाथा सप्तस्वर और सप्तनाम के वर्णन की समाप्ति सूचक है। उनपचास तानें होने का कारण यह है कि षड्ज आदि सात स्वरों में से प्रत्येक स्वर सात तानों में गाया जाता Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 [अनुयोगद्वारसूत्र है तथा सप्ततंत्रिका वीणा में 49 तानें होती हैं और इसी प्रकार एकतंत्रिका अथवा त्रितंत्रिका वीणा के साथ कंठ से गाई जाने वाली तानें भी 49 होती हैं। इस प्रकार सप्तनाम का वर्णन है। अब क्रमप्राप्त अष्टनाम का निरूपण करते हैं..अष्टनाम 261. [1] से किं तं अटुनामे ? अहनामे अट्टविहा गयणविभत्ती पण्णत्ता / तं जहानिइसे पढमा होति 1 बितिया उबदेसणे 2 // तइया करणम्मि कया 3 चउत्थी संपयाषणे 4 / / 57 / / पंचमी य अपायाणे 5 छट्ठी सस्सामिवायणे 6 / ससमी सण्णिधाणत्थे 7 अट्ठमाऽऽमंतणी भवे 8 / / 58 // [261-1 प्र.] भगवन् ! अष्ट नाम का क्या स्वरूप है ? [261-1 उ.] आयुष्मन् ! आठ प्रकार की वचनविभक्तियों को अष्ट नाम कहते है / वचनविभक्ति के वे आठ प्रकार यह हैं 1. निर्देश-प्रतिपादक अर्थ में प्रथमा विभक्ति होती है। 2. उपदेशक्रिया के प्रतिपादन में द्वितीया विभक्ति होती है। 3. क्रिया के प्रति साधकतम कारण के प्रतिपादन में तृतीया विभक्ति होती है / 4. संप्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। 5. अपादान (पृथक्ता) बताने के अर्थ में पंचमी विभक्ति होती है। 6. स्व-स्वामित्वप्रतिपादन करने के अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है। 7. सनिधान (अाधार) का प्रतिपादन करने के अर्थ में सप्तमी विभक्ति होती है। 8. संबोधित, आमंत्रित करने के अर्थ में अष्टमी विभक्ति होती है / 57, 58 विवेचनः-इन दो गाथाओं में अष्टनाम के रूप में पाठ वचनविभक्तियों का निरूपण किया है। बचमविभक्ति-जो कहे जाते हैं वे वचन हैं और विभक्ति अर्थात् कर्ता, कर्म आदि रूप अर्थ जिसके द्वारा प्रगट किया जाता है / अत: वचनों-पदों की विभक्ति को वचनविभक्ति कहते हैं / यहाँ वचनविभक्ति से सुवन्त (संज्ञा, सर्वनाम) रूप प्रथमान्त आदि पदों का ग्रहण जानना चाहिये, तिङ्गन्त रूप आख्यात विभक्तियों का नहीं / यथाक्रम आठ वचनविभक्तियों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है निद्देसे पढमा प्रतिपादक अर्थमात्र के प्रतिपादन करने को निर्देश कहते हैं। प्रतिपादक अर्थ के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। जिनमें जाति, व्यक्ति, लिंग, संख्या, कारक इन पांच को प्रतिपादक के अर्थ में स्वीकार किया है और इनमें भी जाति एवं व्यक्ति रूप अर्थ मुस्प हैं। इसका निर्देश करने में 'सु, ओ, जस्' यह प्रथमा विभक्ति होती हैं। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] 2. बितिया उवदेसणे-उपदेश क्रिया से ब्याप्त कर्म के प्रतिपादन में द्वितीया विभक्ति होती है। क्रिया में प्रवर्तित कराये जाने की इच्छा उत्पन्न करने को उपदेश कहते हैं और जिस पर क्रिया का फल पड़े वह कर्म है। इसकी बोधक 'अम्, प्रौट, शस्' यह विभक्ति हैं / 3. तइया करणम्मि–क्रियाफल की सिद्धि में सबसे अधिक उपकारक, सहायक को करण कहते हैं। इस करण में 'टा, भ्याम्, भिस्' यह तृतीया विभक्ति होती हैं / / 4. चउत्थी संपयावणे-जिसके लिये क्रिया होती है, उसे सम्प्रदान कहते हैं और इस संप्रदान में ‘ड भ्याम्, भ्यस्' विभक्ति होती हैं। 5. पंचमी या अपायाणे-जिससे अलग होने या पृथक्ता का बोध हो, उसे अपादान कहते हैं। इस अपादान को बताने के लिये 'उसि, भ्याम्, भ्यस्' यह पंचमी विभक्ति होती हैं। 6. छट्टी सस्सामिवायणे-स्व-स्वामित्व सम्बन्ध का प्रतिपादन करने में 'उस्, प्रोस्, आम्' यह षष्ठी विभक्ति होती हैं। 7. सत्तमी सणिणधाणत्थे-सन्निधान अर्थात् क्रिया करने के प्राधार या स्थान का बोध कराने में 'डि, प्रोस् , सुप' यह सप्तभी विभक्ति होती हैं। 8. अट्टमाऽऽमतणी भवे---किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के अर्थ में संबोधनरूप आठवीं विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार सामान्य से आठ विभक्तियों का कथन करके अब इनको उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं। 261. [2] तत्व पढमा विमत्ती निद्देसे सो इमो अहं व ति। बितिया पुण उवदेस भण कुणसु इमं व तं व त्ति 2 // 56 // ततिया करणम्मि कया मणियं व कयं व तेण व मए वा 3 // हंदि णमो साहाए हवति चउत्थी पयाणम्मि 4 // 60 // अवणय गिव्ह य एत्तो इतो त्ति वा पंचमी अपायाणे 5 / छट्ठी तस्स इमस्स व गयस्स वा सामिसंबंधे 6 // 61 // हवति पुण सत्तमी तं इमम्मि आधार काल भावे य 7 / आमंतणी भवे अट्टमी उ जह हे जुवाण! ति 8 // 62 // से तं अट्ठणामे। [261-2] 1. निर्देश में प्रथमा विभक्ति होती है / जैसे—वह, यह अथवा मैं / 2. उपदेश में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे इसको कहो, उसको करो आदि / 3. करण में तृतीया विभक्ति होती है / जैसे--उसके और मेरे द्वारा कहा गया अथवा उसके और मेरे द्वारा किया गया / 4. संप्रदान, नमः तथा स्वाहा अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे विप्राय गां ददातिब्राह्मण को (के लिये) गाय देता है / नमो जिनाय-जिनेश्वर के लिये मेरा नमस्कार हो। अग्नये स्वाहा—अग्नि देवता को हवि दिया जाता है / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [अनुयोगद्वारसूत्र 5. अपादान में पंचमी होती है / जैसे—यहां से दूर करो अथवा इससे ले लो। 6. स्वस्वामीसम्बन्ध बतलाने में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-उसकी अथवा इसकी यह वस्तु है। 7. आधार, काल और भाव में सप्तमी विभक्ति होती है / जैसे (वह) इसमें है / 8. ग्रामंत्रण अर्थ में अष्टमी विभक्ति होती है / जैसे-हे युवन् ! / 59-62 / यह पाठ विभक्तिरूप अष्टनाम का वर्णन है। विवेचन-सूत्रकार ने गाथा 59 से 62 तक पूर्वोक्त प्रथमा आदि पाठ विभक्तियों का उदाहरण सहित वर्णन किया है। इन विभक्तियों द्वारा वाक्यगत शब्दों का परस्पर एक दूसरे के साथ ठीक-ठीक संबन्धों का परिज्ञान होता है तथा यह आठों विभक्तियां संज्ञावाचक शब्दों के साथ जुड़ती हैं किन्तु सर्वनाम शब्दों में पाठवीं संबोधन विभक्ति प्रयुक्त नहीं होती है। हिन्दी भाषा में इन विभक्तियों की कारक संज्ञा है और कर्ता प्रादि भेद हैं, जिनके चिह्न इस प्रकार हैं कर्ता-ने / कर्म–को / करण--से, द्वारा। संप्रदान-को, के लिये। अपादान से / संबन्ध-का, की, के / अधिकरण-में, पर / संबोधन- हे, हो, अरे। हिन्दी भाषा में इन प्रत्ययों से संस्कृत जैसा एक, द्वि, बहुवचन की अपेक्षा कोई अंतर नहीं अाता है / समान रूप से एकवचन और बहुवचन रूप संज्ञानामों के साथ संयोजित होते हैं / इस प्रकार से अष्टनाम की प्ररूपणा का प्राशय जानना चाहिये / नवनाम 262. [1] से कि तं नवनामे ? - नवनामे णव कम्वरसा पण्णत्ता / तं जहा वीरो 1 सिंगारो 2 अब्भुनो य 3 रोदो य 4 होइ बोधब्बो / वेलणओ 5 बीभच्छो 6 हासो 7 कलुणो 8 पसंतो य 6 // 63 // [262-1 प्र.] भगवन् ! नवनाम का क्या स्वरूप है ? [262-1 उ.] आयुष्मन् ! काव्य के नौ रस नवनाम कहलाते हैं / जिनके नाम हैं--- 1. वीररस, 2. शृगाररस, 3. अद्भुतरस, 4. रौद्ररस, 5. वीडनक रस, 6. बीभत्स रस, 7. हास्यरस, 8. कारुण्यरस और 9. प्रशांतरस, ये नवरसों के नाम हैं। 63 / विवेचन--सूत्र में नौ काव्यरसों के नाम गिनाये हैं। काव्यरसों की व्याख्या-कवि के कर्म को काव्य और काव्य में उपनिबद्ध रस को काव्यरस कहते हैं। विभिन्न सहकारी कारणों से अन्तरात्मा में उत्पन्न उल्लास या विकार की अनुभूति रस कहलाती है। रससिद्धान्त मानने का कारण---रससिद्धान्त मानव-मन सम्बन्धी गहन अनुशीलन का परिचायक है / सौन्दर्यविषयक धारणाओं का सार-सर्वस्व है / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [193 रस-परिकल्पना काव्यास्वाद से संबद्ध है। प्रास्वादन के क्षणों में आस्वादक जब अनुभूति की गहनता में एक अखंड प्रानन्दोपलब्धि में लीन होता है तब वह उस आस्वाद या आनन्द का कोई न कोई नाम देना चाहता है। बस यही दृष्टि रस नामकरण की हेतु है और इसे काव्यशास्त्र में सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित किया है। रसों की संख्या सामान्यत: अनुभूति के दो प्रकार हैं—सुखात्मक और दुःखात्मक / अत: स्थूल रूप में रस के दो भेद होंगे। लेकिन ये अनुभूतियां इतनी अधिक हैं, इतने प्रकार की हैं कि उन्हें सुख या दुःख में समायोजित नहीं किया जा सकता है। इसीलिये प्राचार्यों ने अनुभूतियों की भिन्नताओं का बोध कराने के लिये रस के भेद करके उनके पृथक-पृथक् नामकरण किये और रस. संख्या के संदर्भ में परंपरित दष्टि का अतिक्रमण करके अनेक नवीन रसों का भी नामोल्लेख किया। लेकिन अंत में रसभेद के रूप में इन नौ नामों को स्वीकार किया गया है.. शृगारहास्यकरुणा रोद्रवीरभयानकाः / बीभत्साऽद्भुतशान्ताश्च नव नाटच रसाः स्मृताः / / इन नौ भेदों में से कुछ विद्वानों ने करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स इन चार रसों को दुःखात्मक तथा शृगार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त इन पांच को सुखात्मक कहा है। लेकिन साहित्यशास्त्रियों ने इस मत को ग्राह्य नहीं माना। उनकी युक्ति है--रस की प्रक्रिया में दुःख का अंश रहने पर भी परिणति में कोई भी रस दुःखात्मक नहीं है। जैनाचार्यों की मान्यता भी नी रसों की है, लेकिन उनके नामों में कुछ अन्तर है। उन्होंने इनमें से भयानक रस को अस्वीकार करके 'वीडनक' नामक रस माना और शांत के स्थान पर प्रशांत' शब्द का प्रयोग किया है / इस प्रकार सामान्य से नवरसों की रूपरेखा बताने के बाद अब विस्तारपूर्वक बीर आदि प्रत्येक रस का वर्णन करते है। वीररस [2] तत्थ परिच्चायम्मि य 1 तव-चरणे 2 सत्तुजणविणासे य३ / अणणुसय-धिति-परक्कमचिण्हो वीरो रसो होइ / / 64 // वीरो रसो जहा सो णाम महावीरो जो रज्जं पयहिऊण पवइओ। काम-क्कोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ / / 65 / / [262-2] इन नब रसों में 1. परित्याग करने में गर्व या पश्चात्ताप न होने, 2. तपश्चरण में धैर्य और 3 शत्रुओं का विनाश करने में पराक्रम होने रूप लक्षण वाला वीररस है / 64 वीररस का बोधक उदाहरण इस प्रकार है राज्य-वैभव का परित्याग करके जो दीक्षित हुआ और दीक्षित होकर काम-क्रोध आदि रूप महाशत्रुपक्ष का जिसने विधात किया, वही निश्चय से महावीर है। 65 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन--सूत्रकार ने इन दो गाथाओं में से पहली में अननुशय, धृति, पराक्रम प्रादि वीररस के बोधक चिह्नों का उल्लेख किया है और दूसरी में वीररस के लक्षणों से युक्त व्यक्ति को उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है / शत्रु दो प्रकार के हैं--पान्तरिक (भाव) और बाह्य (द्रव्य) / मोक्ष का प्रतिपादक होने से प्रस्तुत शास्त्र में काम, क्रोध आदि भाव-शत्रुओं को जीतनेवाले महापुरुष को वीर कहा है / यही दृष्टि प्रागे के उदाहरणों के लिये भी जानना चाहिये / शृंगाररस [3] सिंगारो नाम रसो रतिसंजोगाभिलाससंजणणो / मंडण - विलास-विब्बोय-हास-लीला-रमालगो // 66 / / सिंगारो रसो जहा महरं विलासललियं हिययुम्मादणकरं जुवाणाणं / सामा सदुद्दामं दाएती मेहलादाम / / 67 // [262-3] शृंगाररस रति के कारणभूत साधनों के संयोग की अभिलाषा का जनक है तथा मंडन, विलास, विब्बोक, हास्य-लीला और रमण ये सब शृंगाररस के लक्षण हैं / 66 [ का बोधक उदाहरण है-- कामचेष्टाओं से मनोहर कोई श्यामा (सोलह वर्ष की तरुणी) क्षुद्र घटिकाओं से मुखरित होने से मधुर तथा युवकों के हृदय को उन्मत्त करने वाले अपने कोटिसूत्र का प्रदर्शन करती है / 67 विवेचन--पूर्व की तरह इन दो गाथानों में सोदाहरण शृगाररस का वर्णन किया गया है। पहली गाथा में शृगार रस की संभव चेष्टाओं का और दूसरी में उन चेष्टाओं से युक्त व्यक्ति (नायिका) को उदाहारण रूप में प्रस्तुत किया गया है। गाथोक्त कतिपय शब्दों की व्याख्या-रतिसंजोगाभिलाससंजणणो-- रति---सुरतक्रीडा के कारणभूत ललना आदि के साथ संगम की इच्छा को उत्पन्न करने वाला / मंडण--अलंकार-ग्राभूषणों आदि से शरीर को अलंकृत करना--सजाता / विलास-कामोत्तेजक नेत्रादि की चेष्टायें। विब्बोय-- विकारोत्तेजक शारीरिक प्रवृत्ति / लीला---गमनादि रूप रमणीय चेष्टा / रमण-- क्रीडा करना। अद्भुतरस [4] विम्हयकरो अयुब्बो व भूयपुत्वो व जो रसो होइ / सो हास-विसायुप्पत्तिलक्खणो अब्भुतो नाम / / 68 // अब्भुओ रसो जहा अन्नं कि प्रत्थि जीवलोम्मि। जं जिणवयणेणत्या तिकालजुत्ता वि णज्जति ! // 66 // [262-4] पूर्व में कभी अनुभव में नहीं आये अथवा अनुभव में आये किसी विस्मयकारीआश्चर्यकारक पदार्थ को देखकर जो आश्चर्य होता है, वह अद्भुत रस है। हर्ष और विषाद की उत्त्पत्ति अद्भुतरस का लक्षण हैः। जैसे-- Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [195 इस जीवलोक में इससे अधिक अद्भुत और क्या हो सकता है कि जिनवचन द्वारा त्रिकाल संबन्धी समस्त पदार्थ जान लिये जाते हैं। 68,69 विवेचन--अद्भुतरस का लक्षण और उदाहरण इन गाथाओं द्वारा बताया गया है। हर्ष और विषाद की उत्पत्ति को अद्भुतरस के लक्षण बताने का कारण यह है कि आश्चर्यजनक किसी शुभ वस्तु के देखने पर हर्ष और अशुभ वस्तु को देखने पर विषाद की उत्पत्ति होती है। रौद्ररस [5] भयजणणरूव-सइंधकारचिता- कहासमुष्पन्नो। सम्मोह-संभम-विसाय-मरणलिंगो रसो रोहो // 70 // रोद्दो रसो जहाभिउडीविडंबियमुहा ! संदट्ठो?! इय रुहिरमोकिण्ण ! / हणसि पसु असुरणिभा ! भीमरसिय ! अतिरोद्द ! रोद्दोऽसि // 71 // [262-5 भयोत्पादक रूप, शब्द अथवा अंधकार के चिन्तन, कथा, दर्शन आदि से रौद्ररस उत्पन्न होता है और संमोह, संभ्रम, विषाद एवं मरण उसके लक्षण हैं / 70, यथा--- भृकृटियों से तेरा मुख विकराल बन गया है, तेरे दांत होठों को चबा रहे हैं, तेरा शरीर खून से लथपथ हो रहा है, तेरे मुख से भयानक शब्द निकल रहे हैं, जिससे तू राक्षस जैसा हो गया है और पशुओं की हत्या कर रहा है / इसलिये अतिशय रौद्ररूपधारी तू साक्षात रौद्ररस है / 71 विवेचन यहाँ रौद्ररस का लक्षण और उन लक्षणों से युक्त व्यक्ति को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत रूपक से स्पष्ट है कि हिंसा में प्रवृत्त व्यक्ति के परिणाम रौद्र होते हैं और भृकुटि आदि के द्वारा ही उन परिणामों की रौद्ररूपता आदि का बोध होता है। यद्यपि भयजनक पिशाचादि के रूप के दर्शन, स्मरण आदि से संमोहादि लक्षण वाले भयानकरस की उत्पत्ति होती है, तथापि उनके रौद्रपरिणामों का बोध कराने का कारण होने से इसमें रौद्रता की विवक्षा की है। __ शब्दार्थ-संमोह—विवेकशून्यता-विवेकविकलता, संभम-संभ्रम व्याकुलता, भिउडीभ्रकुटि-भौंहों को ऊपर चढ़ाना / विडंबिय-विडम्बित-विकराल, विकृत / रुहिरमोकिण्णरुधिराकीर्ण-खून से लथपथ / असुरणिभा--असुरनिभ-असुर-राक्षस के जैसे (हो रहे हो) / भीमरसिय-भीमरसित-भयोत्पादक शब्द बोलने वाला / अतिरोद्दो- अतिरौद्र---अतिशय रौद्र रूपधारी। बोडनकरस [6] विणयोक्यार-गुज्झ-गुरुदारमेरावतिक्कमुप्पण्णो / वेलणओ नाम रसो लज्जा-संकाकरणलिंगो // 72 // Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [अनुयोगद्वारसूत्र वेलणओ रसो जहा--- कि लोइयकरणीओ लज्जणियतरं ति लज्जिया होमो। वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंदइ जं वहूपोतं // 73 // [262-6] विनय करने योग्य माता-पिता आदि गुरुजनों का विनयन करने से, गुप्त रहस्यों को प्रकट करने से तथा गुरुपत्नी आदि के साथ मर्यादा का उल्लंघन करने से वीडनकरस उत्पन्न होता है / लज्जा और शंका उत्पन्न होना, इस रस के लक्षण हैं / 72, यथा-(कोई वधू कहती है--) इस लौकिक व्यवहार से अधिक लज्जास्पद अन्य बात क्या हो सकती है-मैं तो इससे बहुत लजाती हूँ---मुझे तो इससे बहुत लज्जा-शर्म आती है कि वर-वधू का प्रथम समागम होने पर गुरुजन-सास आदि वधू द्वारा पहने वस्त्र की प्रशंसा करते हैं / 73 विवेचन-व्रीडनकरस का सोदाहरण लक्षण बताया है कि लोकमर्यादा और प्राचारमर्यादा के उल्लंघन से वीडनकरस की उत्पत्ति होती है और लज्जा ग्राना एवं प्राशंकित होना उसके ज्ञापक चिह्न हैं / लज्जा अर्थात कार्य करने के बाद मस्तक का नमित हो जाना, शरीर का संकुचित हो जाना और दोष प्रकट न हो जाए, इस विचार से मन का दोलायमान बना रहना। उदाहरण अपने-आप में स्पष्ट है। किसी क्षेत्र या किसी काल में ऐसी रूढि---लोकपरंपरा रही होगी कि नववधू को अलतयोनि प्रदर्शित करने के लिए सुहागरात के बाद उसके रक्तरंजित वस्त्रों का प्रदर्शन किया जाता था। परन्तु है वह अतिशय लज्जाजनक / बीभत्सरस [7] असुइ-कुणव-दुईसणसंजोगमासगंधनिष्फण्णो। निब्वेयऽविहिंसालक्खणो रसो होइ बीभत्सो।। 74 / / बीभत्सो रसो जहा--- असुइमलभरियनिज्झर सभावदुग्गंधि सव्वकालं पि। धण्णा उ सरीरकलि बहुमलकलुसं विमुचंति // 75 / / [262-7] अशुचि-मल मूत्रादि, कुणप-शव, मृत शरीर, दुर्दर्शन -- लार आदि से व्याप्त घृणित शरीर को बारंबार देखने रूप अभ्यास से या उसकी गंध से बीभत्सरस उत्पन्न होता है / निर्वेद और अविहिंसा बीभत्सरस के लक्षण हैं / 74 बीभत्स रस का उदाहरण इस प्रकार है-- अपवित्र मल से भरे हुए झरनों (शरीर के छिद्रों) से व्याप्त और सदा सर्वकाल स्वभावतः दुर्गन्धयुक्त यह शरीर सर्व कलहों का मूल है। ऐसा जानकर जो व्यक्ति उसकी भूर्णी का त्याग करते हैं, वे धन्य हैं। विवेचन-सूत्रकार ने बीभत्स रस का स्वरूप बतलाया है और उदाहरण में रूप के शरीर का उल्लेख किया है। शरीर की बीभत्सता को सभी जानते हैं पल-रुधिर-राध-मल थैली कीकस वसादि तें मैली। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [197 अतएव इससे अधिक और दूसरी घणित वस्तु क्या हो सकती है ? निर्वेद और अविहिंसा बीभत्सरस के लक्षण बताये हैं। निर्वेद अर्थात् उद्वेग, मन में ग्लानिभाव, संकल्प-विकल्प उत्पन्न होना। शरीर आदि की असारता को जानकर हिंसादि पापों का त्याग करना अविहिंसा है। इन दोनों को उदाहरण में घटित किया है कि यह शरीर यथार्थ में उद्वेगकारी होने से भाग्यशाली जन उसके ममत्व को त्याग कर, हिंसादि पापों से विरत होकर आत्मरमणता की ओर अग्रसर होते हैं। हास्यरस [] रूव - वय - वेस-भासाविवरीयविलंबणासमुप्पन्नो। हासो मणप्पहासो पकालिगो रसो होति // 76 // हासो रसो जहा पासुत्तमसीमंडियपडिबुद्धं देयरं पलोयंती। ही! जह थणभरकंपणपणमियमज्झा हसति सामा // 77 // 262-8] रूप, वय, वेष और भाषा को विपरीतता से हास्य रस उत्पन्न होता है। हास्यरस मन को हर्षित करने वाला है और प्रकाश–मुख, नेत्र आदि का विकसित होना, अट्टहास आदि उसके लक्षण हैं / 76 हास्य रस इस प्रकार जाना जाता है----- प्रात: सोकर उठे, कालिमा से काजल की रेखाओं से मंडित देवर के मुख को देखकर स्तनयुगल के भार से नमित मध्यभाग वाली कोई युवती (भाभी) ही-ही करती हंसती है / 77 विवेचन-यहाँ हास्यरस का स्वरूप बताया है। हास्य रस रूप, वय, वेश और भाषा की विपरीतता रूप विडंबना से उत्पन्न होता है। पुरुष द्वारा स्त्री का या स्त्री द्वारा पुरुष का रूप धारण करना रूप की विपरीतता है। इसी प्रकार वय आदि की विपरीतता-विडम्बना के विषय में जान लेना चाहिये / जैसे कोई तरुण वृद्ध का रूप बनाए, राजपुत्र वणिक् का रूप धारण करे, आदि / इस प्रकार की विपरीतताओं से हास्यरस की उत्पत्ति होती है / हँसते समय मुख का खिल जाना, खिल-खिलाना आदि हास्यरस के चिह्नों को तो सभी जानते हैं। करुणरस [6] पियविप्पयोग-बंध-वह-वाहि-विणिवाय-संभमुष्पन्नो। सोचिय-विलविय-पव्वाय-हलिगो रसो कलुणो॥७८ // कलुणो रसो जहा-. पज्झातकिलामिययं बाहागयपप्पुयच्छियं बहुसो / तस्स वियोगे पुत्तिय ! दुब्बलयं ते मुहं जायं // 79 // [262-9] प्रिय के वियोग, बंध, बध, व्याधि, विनिपात, पुत्रादि-मरण एवं संभ्रम-परचक्रादि के भय प्रादि से करुण रस उत्पन्न होता है / शोक, विलाप, अतिशय म्लानता, रुदन आदि करुणरस के लक्षण हैं। 78 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [अनुयोगद्वारसूत्र करुणरस इस प्रकार जाना जा सकता है हे पुत्रिके ! प्रियतम के वियोग में उसकी वारंवार अतिशय चिन्ता से वलान्त-मुर्भाया हुआ और प्रांसुओं से व्याप्त नेत्रों वाला तेरा मुख दुर्बल हो गया है / 79 विवेचन-करुणरस के स्वरूपवर्णन के प्रसंग में उसके शोक, विलाप, मुखशुष्कता, रोना आदि चिह्न बताये गये हैं, जिन्हें उदाहरण में कारण सहित स्पष्ट किया है / प्रशान्तरस [10] निहोसमणसमाहाणसंभवो जो पसंतभावेणं / अविकारलक्षणो सो रसो पसंतो त्ति णायव्यो / / 80 / / पसंतो रसो जहा सम्भावनिस्विकारं उवसंत-पसंत-सोमदिट्ठीयं / ही! जह मुणिणो सोहति मुहकमलं पीवरसिरीयं / / 81 // [262-10 ] निर्दोष (हिंसादि दोषों से रहित), मन की समाधि (स्वस्थता) से और प्रशान्त भाव से जो उत्पन्न होता है तथा अविकार जिसका लक्षण है, उसे प्रशान्तरस जानना चाहिये / 80 / प्रशान्तरस सूचक उदाहरण इस प्रकार है-सद्भाव के कारण निविकार, रूपादि विषयों के अवलोकन की उत्सुकता के परित्याग से उपशान्त एवं क्रोधादि दोषों के परिहार से प्रशान्त, सौम्य दृष्टि से युक्त मुनि का मुखकमल वास्तव में अतीव श्रीसम्पन्न होकर सुशोभित हो रहा है। 81 विवेचन--यहां सूत्रकार ने नव रसों के अंतिम भेद प्रशान्तरस का स्वरूप बताया है। क्रोधादि कषायों रूप वैभाविक भावों को रहितता से जो अंतर में शांति की अनुभूति एवं बाहर में मुख पर लावण्यमय प्रोज-तेज दिखाई देता है, वह सब प्रशान्तरस रूप है। इसी बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। इस प्रकार नवरसों के रूप में नवनाम का वर्णन करके अब ग्रन्थकार उपसंहार करते हैं[११] एए णव कन्वरसा बत्तीसादोस विहिसमुप्पण्णा / गाहाहि मुणेयव्वा, हवंति सुद्धा व मीसा वा // 2 // से तं नवनामे। [262-11] गाथाओं द्वारा कहे गये ये नव काव्यरस अलीकता आदि सूत्र के बत्तीस दोपों से उत्पन्न होते हैं और ये रस कहीं शुद्ध (अमिश्रित) भी होते हैं और कहीं मिश्रित भी होते हैं। इस प्रकार से नवरसों का वर्णन पूर्ण हुआ और नवरसों के साथ ही नवनाम का निरूपण भी पूर्ण हुआ। विवेचन--यह गाथा नवरसों और साथ ही नवनाम के वर्णन की समाप्ति की सूचक है। ये नवरस आगे कहे जाने वाले अलीक, उपधात आदि सूत्र के बत्तीस दोषों के द्वारा उत्पन्न होते हैं। जैसे Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण]] [199 तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदविन्दुभिः / प्रावर्तत नदी घोरा हस्त्यश्वरथवाहिनी / / अर्थात् उन हाथियों के कट-तट से झरते हुए मदविन्दुओं से एक घोर (विशाल) नदी बह निकली कि जिसमें हाथी, घोड़ा, रथ और सेना बहने लगी। यह कथन अलीकता दोष से दुषित है, क्योंकि मदजल से नदी का निकलना न तो किसी ने देखा है, न सुना है और न संभव है। यह तो एक कल्पनामात्र है। इस अलीक दोष से अद्भुतरस उत्पन्न हुआ है। इसी प्रकार से अन्यत्र भी यथासंभव सूत्रदोषों से उन-उन रसों की उत्पत्ति जानना चाहिये। परन्तु यह एकान्त नियम नहीं है कि सभी रस अलीकादि दोषों की विरचना से ही उत्पन्न होते है / जैसे-तपश्चरण विषयक वीररस तथा प्रशान्त आदि रसों की उत्पत्ति अलीकादि सूत्रदोषों के बिना भी होती है। 'सुद्धा वा मिस्सा वा हवंति' अर्थात् किसी काव्य में शुद्ध-एक ही रस और किसी में दो और दो से अधिक रसों का समावेश होता है / अब नाम अधिकार के अंतिम भेद दसनाम का वर्णन करते हैं -- दसनाम 263. से कि तं दसनामे ? दसनामे दसविहे पण्णत्ते / तं जहा–गोणे 1 नोगोण्णे 2 आयाणपदेणं 3 पडिबक्खपदेणं 4 पाहण्णयाए 5 अणादियसिद्धतेणं 6 नामेणं 7 अवयवेणं 8 संजोगेणं 6 पमाणेणं 10 / [263 प्र.] भगवन् ! दसनाम का क्या स्वरूप है ? [263 उ.] आयुष्मन् ! दस प्रकार के नाम दस नाम कहलाते हैं / वे इस प्रकार हैं 1. गौणनाम, 2. नोगौणनाम, 3. प्रादानपदनिष्पन्ननाम, 4. प्रतिपक्षपदनिष्पलनाम, 5. प्रधानपदनिष्पन्ननाम, 6. अनादिसिद्धान्तनिष्पत्ननाम, 7. नामनिष्पन्ननाम, 8. अवयवनिष्पन्ननाम, 9. संयोगनिष्पन्ननाम, 10. प्रमाणनिष्पन्ननाम / विवेचन—प्रस्तुत सूत्र दसनाम की व्याख्या की भूमिका रूप है। यहाँ बतलाया है कि विभिन्न आधारों को लेकर वस्तु का नामकरण किया जा सकता है। प्रस्तुत में दस आधार कहे गए हैं / उनका आशय यह हैगौणनाम 264. से कि तं गोणे? गोण्णे खभतीति खमणो, तपतीति तपणो, जलतीति जलणो, पवतीति पवणो / से तं गोण्णे / [264 प्र.] भगवन् ! गौण---गुणनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [264 उ.] आयुष्मन् ! गौण-गुणनिष्पन्ननाम का स्वरूप इस प्रकार है जो क्षमागुण से युक्त हो उसका 'क्षमण' नाम होना, जो तपे उसे तपन (सूर्य), प्रज्वलित हो उसे ज्वलन (अग्नि), जो पवे अर्थात् बहे उसे पवन कहना / यह गौणनाम का स्वरूप है / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 [अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन-सूत्र में कतिपय उदाहरणों के द्वारा गौणनाम का स्वरूप बतलाया है। गुणों के प्राधार से जो संज्ञायें निर्धारित होती हैं, उन्हें गौणनाम कहते हैं / यह यथार्थनाम भी कहलाता है / उदाहरण के रूप में जिन नामों का उल्लेख किया है, वे क्षमा, तपन, ज्वलन, पवन रूप नाम के अनुसार गुणों वाले हैं / इसलिये उनके नाम गुणनिष्पन्न होने से गौण-यथार्थ नाम हैं। नोगौणनाम 265. से कि तं नोगोण्णे ? नोगोण्णे अकुतो सकुतो, अमुग्गो समुग्गो, अमुद्दो समुद्दो, अलालं पलालं, अकुलिया सकुलिया, नो पलं असतोति पलासो, अमातिवाहए मातिवाहए, अबीयवावए बीयवावए, नो इंदं गोवयतीति इंदगोवए / से तं नोगोण्णे। [265 प्र.] भगवन् ! नोगौणनाम का क्या स्वरूप है ? [265 उ.] आयुष्मन् ! नोगौणनाम का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहियेकुन्त-शस्त्र-विशेष (भाला) से रहित होने पर भी पक्षी को 'सकुन्त' कहना / मुद्ग---मूंग धान्य से रहित होने पर भी डिबिया को 'समुद्ग' कहना / मुद्रा-अंगठी से रहित होने पर भी सागर को 'समुद्र' कहना।। लाल-लार से रहित होने पर भी विशेष प्रकार के घास को 'पलाल' कहना / कुलिका भित्ति (दीवार) से रहित होने पर भी पक्षिणी को 'सकुलिका' कहना / पल-मांस का आहार न करने पर भी वृक्ष-विशेष को 'पलाश' कहना। माता को कन्धों पर वहन न करने पर भी विकलेन्द्रिय जीवविशेष को 'मातृवाहक' नाम से कहना। बीज को नहीं बोने वाले जीवविशेष को 'बीजवापक' कहना / इन्द्र की गाय का पालन न करने पर भी कीटविशेष का ‘इन्द्रगोप' नाम होना। इस प्रकार से नोगौणनाम का स्वरूप है। विवेचन सूत्र में नोगौणनाम का स्वरूप कतिपय उदाहरणों द्वारा बतलाया गया है / यह नाम गुण-धर्म-स्वभाव आदि की अपेक्षा किये बिना मात्र लोकरूढि से निष्पन्न होता है / इस प्रकार के नाम अयथार्थ होने पर भी लोक में प्रचलित हैं। सूत्रगत उदाहरण स्पष्ट हैं / जैसे 'सकुन्त' यह नाम अयथार्थ है / क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार जो कुन्त-~-शस्त्र-विशेष-भाला से युक्त हो वही सकुन्त है। किन्तु पक्षी को भी सकुन्त (शकुन्त) कहा जाता है / इसी प्रकार अन्य उदाहरणों के लिये जानना चाहिये। प्रादानपदनिष्पन्ननाम 266. से कि तं आयाणपदेणं ? आयाणपदेणं आवंती चातुरंगिज्जं अहातस्थिज्ज अद्दइज्ज असंखयं जण्णइज्जं पुरिसइज्जं (उसुकारिजं) एलइज्ज वीरियं धम्मो मग्गो समोसरणं जमईयं / से तं आयाणपदेणं / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [201 [266 प्र.] भगवन् ! आदानपदनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [266 उ.] आयुष्मन् ! प्रावंती, चातुरंगिज्जं, असंखयं, अहातथिज्ज अद्दइज्ज, जण्णइज्ज, पुरिसइज्ज (उसुकारिज), एलइज्जं, वीरियं, धम्म, मग, समोसरणं, जमईयं आदि आदानपदनिष्पन्ननाम हैं। विवेचन--सूत्र में आदानपदनिष्पननाम का स्वरूप बताने के लिये संबन्धित उदाहरणों का उल्लेख किया है। किसी शास्त्र के अध्ययन प्रादि के प्रारंभ में उच्चरित पद आदान पद कहलाता है। उस के आधार से निष्पन्न-रखे जाने वाले नाम को प्रादानपदनिष्पन्ननाम कहते हैं / जैसे पावंती--इस प्राचारांगसूत्र के पांचवें अध्ययन के नाम का कारण उसके प्रारंभ में उच्चरित 'पावंती केयावंती' पद है। 'चाउरंगिज्ज' यह उत्तराध्ययनसूत्र के तीसरे अध्ययन का नाम है, जो उस अध्ययन के प्रारंभ में प्रागत चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो' गाथा के आधार से रखा है। 'असंखयं जीविय मा पमायए' इस वाक्य में प्रयुक्त 'असंखयं' शब्द उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ अध्ययन के नाम का कारण है। ___ 'जह सुत्तं तह अत्थो' गाथोक्त जह तह इन दो पदों के आधार से सूत्रकृतांगसूत्र के तेरहवें अध्ययन का 'जहतह' नामकरण किया गया है। इसी प्रकार 'पुराकडं अद्दइयं सुणेह' इस सूत्रकृतांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन की पहली गाथा के 'अद्दइयं' पद के आधार से इस अध्ययन का नाम 'अद्दइज्ज' है। उत्तराध्ययनसूत्र के पच्चीसवें अध्ययन के प्रारंभ में यह गाथा है-- माहणकुलसंभूत्रो आसि विप्पो महायसो। जायई जम जन्ममि जयघोसो ति नामयो / / इस गाथा में प्रागन 'जन्न' पद के प्राधार से इस अध्ययन का नाम 'जन्नइज्ज' रखा है / इसी वें अध्ययन की पहली गाथा में प्रागत उसूयार पद के आधार से उस अध्ययन का नाम "उसकारिज' है तथा सानवे अध्ययन के प्रारंभ में 'एलयं पद होने से उस अध्ययन का नाम 'एलइज्ज' है। _सूत्रकृतांगसूत्र के पाठवें अध्ययन की पहली गाथा में 'वीरियं' पद होने से उस अध्ययन का नाम 'वीरियं रखा तथा नौवें अध्ययन की पहली गाथा में 'धम्म' पद होने से वह अध्ययन 'धम्मज्मयण' नाम वाला है और ग्यारहवें अध्ययन की प्रस्तावना की प्रथम गाथा में 'मग्ग' शब्द होने से उस अध्ययन का नाम 'मग्गज्य णं' है। सूत्रकृतांगसूत्र के बारहवें अध्ययन के प्रारंभ की गाथा में 'समोस रणाणिमाणि' पद है। इसी के प्राधार से उस अध्ययन का नाम 'समोसरणज्झयणं' रख लिया गया तथा पन्द्रहवें अध्ययन की पहली गाथा में 'जमईय' पद होने से अध्ययन का नाम 'जमईयं' है। इसी प्रकार अन्य नामों की आदानपदनिष्पन्नता समझ लेना चाहिये / Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [अनुयोगद्वारसूत्र प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम 267. से कि तं पडिवक्खपदेणं? पडिवक्खवदेणं णवेसु गामाऽऽगर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणाऽऽसम-संवाह-सन्निवेसेसु नियिस्समाणेसु असिवा सिवा, अग्गी सीयलो, विसं महुरं, कल्लालघरेसु अंबिलं साउयं, जे लत्तए से अलत्तए, जे लाउए से अलाउए, जे सुभए से कुसु भए, आलवंते विवलीयभासए। से तं पडिपक्खपदेणं। [267 प्र.] भगवन् ! प्रतिपक्षपद से निष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [267 उ.] आयुष्मन् ! प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम का स्वरूप इस प्रकार है नवीन ग्राम, प्राकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम, संबाह और सन्निवेश आदि में निवास करने अथवा बसाये जाने पर अशिवा (शृगाली, सियारनी) को 'शिवा' शब्द से उच्चारित करना / (कारणवशात्) अग्नि को शीतल और विष को मधुर, कलाल के घर में 'श्राम्ल के स्थान पर 'स्वादु' शब्द का व्यवहार होना। इसी प्रकार रक्त वर्ण का हो उसे अलक्तक, लाबु (पात्र-विशेष) को अलाबु, सुंभक (शुभ वर्ण वाले) को कुसुभक और विपरीतभाषक-भाषक से विपरीत अर्थात् असम्बद्ध प्रलापी को 'अभाषक' कहना। यह सब प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम जानना चाहिये / विवेचन--सूत्र में प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम का स्वरूप उदाहरण देकर समझाया है। प्रतिपक्ष-विवक्षित वस्तु के धर्म से विपरीत धर्म / इस प्रतिपक्ष के वाचक पद से निष्पन्न होने वाले नाम को प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम कहते हैं। उदाहरणार्थ -मंगल के निमित्त शृगाली के लिये 'प्रशिवा' के स्थान पर 'शिवा' शब्द का प्रयोग करना / इसका कारण यह है कि शब्दकोश में 'शिवा' शृगाली वाचक नाम तो है किन्तु उसका देखना या बोलना अशिव-अमंगल-अशुभ रूप होने से मांगलिक प्रसंगों पर अशिवा के स्थान पर शिवा शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार मंगल-अमंगल विषयक लोकमान्यता के अनुसार अग्नि के लिये शीतल, विष के लिये मधुर और अम्ल के लिये स्वादु शब्दप्रयोगों के विषय में जानना चाहिये। शीतल आदि शब्द वस्तुगत गुण-धर्मो से विपरीत गुणधर्म के बोधक होने पर भी अग्नि आदि के लिये प्रयोग किये जाते अलक्तत, अलाबु, कुसुम्भक, अभाषक आदि शब्दगत 'अः' 'कु' प्रत्यय प्रतिपक्ष का बोध कराने वाले होने से इनके संयोग से बनने वाले पदों की प्रतिपक्षनिष्पन्नता सुगम है / नोगौणपदनिष्पन्न से इसे पृथक मानने का कारण यह कि नोगौणपद में तो नामकरण का कारण कुन्तादि के प्रवृत्तिनिमित्त का प्रभाव है / जबकि उसमें प्रतिपक्षधर्मवाचक शब्द मुख्य है / ग्राम आदि पदों की व्याख्या-ग्राम-जहाँ पर बुद्धि प्रादि गुण असे जाते हैं अर्थात् गुणों में हीनता आती है, गुणों का विकास नहीं होता अथवा जिसके चारों ओर कांटों आदि की बाड़ हो / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] आकर-स्वर्ण आदि धातुओं, रत्तों और खनिज पदार्थों की खाने हों। नगर-अठारह प्रकार के राजकर (टैक्स) से जो मुक्त हो। खेड-जिसके चारों ओर मिट्टी का कोट बनाया गया हो। कर्बट-कुत्सित नगर -जहाँ जीवनोपयोगी साधनों का अभाव हो / मडम्ब - जिसके अासपास ढाई कोस तक कोई गांव न हो। द्रोणमुख-जो जल और स्थल रूप पावागमन के मार्गों से जुड़ा हुआ हो / पट्टन (पत्तन) जहाँ सभी प्रकार की वस्तुएँ मिलती हों / आश्रम-तापसों का आवासस्थान / संवाह- अनेक प्रकार के लोगों से व्याप्त स्थान अथवा पथिकों का विश्वामस्थान / सन्निवेशसार्थवाहों का निवासस्थान / प्रधानपदनिष्पन्ननाम 268. से कि तं पाहण्णयाए ? पाहण्णयाए असोगवणे सत्तवण्णवणे चंपकवणे चूयवणे नागवणे पुन्नागवणे उच्छवणे दक्खवणे सालवणे / से तं पाहण्णयाए। [268 प्र.] भगवन् ! प्रधानपदनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? |268 उ. आयुष्मन् ! प्रधानपदनिष्पन्ननाम का स्वरूप इस प्रकार है, जैसे-- अशोकवन, सप्तपर्णवन, चंपकवन, आम्रवन, नागवन, पुन्नागवन, इक्षुवन, द्राक्षावन, शालवन, ये सब प्रधानपदनिष्पन्ननाम हैं / विवेचन यह सूत्र प्रधानपदनिष्पन्ननाम का सूचक है। जिसकी प्रचुरता-बहुलता हो वह यहाँ प्रधान कहा गया है और उस प्रधान की अपेक्षा निष्पन्ननाम प्रधानपदनिष्पन्ननाम कहलाता है। अशोकवन आदि उदाहरणों में जैसे अशोकवन में अन्य वृक्षों का सद्भाव तो है, किन्तु अशोक वक्षों की प्रचुरता होने से उस वन को 'अशोकवन' इस नाम से सम्बोधित किया जाता है / सप्तपर्णवन आदि नामों के लिये भी यही कारण जानना चाहिये। ___ गौणनाम से प्रधानपदनिष्पन्ननाम में यह अन्तर है कि गौणनाम में तो क्षमादि गुण से क्षमण आदि शब्दों का वाच्यार्थ सम्पूर्ण रूप से उस नाम वाले में घटित होता है, जबकि प्रधानपदनिष्पन्नताम में उस-उस नाम के वाच्यार्थ की मुख्यता और शेष की गोणता रहती है। किन्तु गौणता के कारण उनका प्रभाव नहीं होता है। जैसे अशोक वृक्षों की प्रचुरता होने पर भी वृक्षों का अभाव नहीं है। अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम 269. से कि तं अणादियसिद्धतेणं? अणादियसिद्धतेणं धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए जीवस्थिकाए पोग्गलस्थिकाए अद्धासमए / से तं अणादियसिद्धतेणं / [269 प्र.] भगवन् ! अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [अनुयोगद्वारसूत्र [269 उ.] आयुष्मन् ! अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम का स्वरूप इस प्रकार है--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, युद्गलास्तिकाय, अद्धासमय / यह अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम का स्वरूप है। विवेचन---सूत्र में अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम का स्वरूप बतलाया है / इसमें अनादिसिद्धान्त पद मुख्य है। जिसका अर्थ यह है कि अमुक शब्द अमुक अर्थ का वाचक है और अमुक अर्थ अमुक शब्द का वाच्य है। इस प्रकार के अनादि वाच्य-वाचकभाव के ज्ञान को सिद्धान्त कहते हैं। अतएव इम अनादिसिद्धान्त से जो नाम निष्पन्न हो वह अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम कहलाता है। उदाहरण के रूप में जो धर्मास्तिकाय आदि नामों का उल्लेख किया है, उनमें वाच्य-बाचकभाव सम्बन्ध अनादिकाल से सिद्ध है / उन्होंने कभी भी अपने स्वरूप का त्याग नहीं किया है और भविष्य में कभी त्याग नहीं करेंगे। गौणनाम से इस अनादिसिद्धान्तनाम में यह अन्तर है कि गौणनाम का अभिधेय तो अपने स्वरूप का परित्याग भी कर देता है। जबकि अनादिसिद्धान्तनाम न कभी बदला है, न वदलेगा / वह सदैव रहता है, इसलिये सूत्रकार ने इसका पृथक् निर्देश किया है। नामनिष्पन्ननाम 270. से कि तं नामेण? नामेणं पिउपियामहस्स नामेणं उन्नामियए / से तं णामेणं / [270 प्र.] भगवन् ! नामनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [270 उ.] प्रायुष्मन् ! जो नाम नाम से निष्पन्न होता है, उसका स्वरूप इस प्रकार हैपिता या पितामह अथवा पिता के पितामह के नाम से निष्पन्न नाम नामनिष्पन्न नाम कहलाता है / विवेचन----सूत्र में नाम से निष्पन्न नाम का स्वरूप बताया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व में लोक-व्यवहार की मुख्यता से किसी का कोई नामकरण किया गया / उसी नाम में पुनः नये नाम की स्थापना करना नामनिष्पन्ननाम कहलाता है। जैसे किसी के पिता, पितामह आदि बन्धुदत्त नाम से प्रख्यात हुए थे। उन्हीं के नाम से उनके पौत्र आदि का नाम होना नामनिष्पन्ननाम है / इतिहास में ऐसे अनेक राजाओं के नाम मिलते हैं। अवयवनिष्पन्ननाम 271. से कि तं अवयवेणं? अवयवेणं सिंगी सिही विसाणी दाढी पक्खी खरी णही वाली। दुपय चउप्पय बहुपय गंगूली केसरी ककुही // 83 // परियरबंधेण भडं जाणेज्जा, महिलियं निवसणेणं / सित्थेण दोणपागं, कवि च एगाइ गाहाए // 84 // Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [205 सेतं अवयवेणं। [271 प्र.] भगवन् ! अवयवनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है? [271 उ.] आयुष्मन् ! अवयव निष्पन्ननाम का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये श्रृंगी, शिखी, विषाणी, दंष्ट्री, पक्षी, खुरी, नखी, बाली, द्विपद, चतुष्पद, बहुपद, लांगूली, केशरी, ककुदी आदि / 83 इसके अतिरिक्त परिकरबंधन-विशिष्ट रचना युक्त वस्त्रों के पहनने से---कमर कसने से योद्धा पहिचाना जाता है, विशिष्ट प्रकार के वस्त्रों को पहनने से महिला पहिचानी जाती है, एक कण पकने से द्रोणपरिमित अन्न का पकना और (प्रासादादि गुणों से युक्त) एक ही गाथा के सुनने से कवि को पहिचाना जाता है / यह सब अवयवनिष्पन्ननाम कहलाते हैं। 84 विवेचन---सूत्र में अवयवनिष्पन्ननाम की व्याख्या की है। अवयवनिष्पन्न अर्थात् अवयवी के एक देश रूप अवयव का समस्त अवयवी पर आरोप करके अवयव और अवयवी को अभिन्न मानकर जो नाम रक्खा जाता है उसे अवयवनिष्पन्ननाम कहते हैं, जो श्रृंगी, शिखी आदि उदाहरणों से स्पष्ट है / श्रृंगी नाम श्रृग (सींग) रूप अवयव के सम्बन्ध से, शिखी नाम शिखा रूप अवयव के सम्बन्ध से निष्पन्न हुआ है / इसी प्रकार विषाणी, दंष्ट्री, पक्षी आदि नामों के विषय में जानना चाहिये। योद्धा, महिला, द्रोणपाक, कवि आदि शब्दों का प्रयोग परिकरबंधन प्रादि-आदि अवस्थानों को प्रत्यक्ष देखने, सुनने से होता है और ये परिकरबंधन आदि योद्धा आदि अवयवी के अवयव रूप एकदेश हैं / इसलिये ये शब्द भी अवयव की प्रधानता से निष्पन्न होने के कारण अवयवनिष्पन्तनाम के रूप में उदाहृत हुए हैं / अवयवनिष्पन्न और गौणनिष्पन्न नाम में अन्तर-इन दोनों की नामनिष्पन्नता के प्राधार भिन्न-भिन्न हैं ! अवयवनिष्पन्ननाम में श्रृंग आदि शरीरावयव या अंग-प्रत्यंग विशेष नाम के आधार हैं, जबकि गौण निष्पन्ननाम में गुणों की प्रधानता होती है / इसलिये अवय बनाम और गौणनाम पृथक्पृथक् माने गये है। संयोगनिष्पन्ननाम 272. से कि तं संजोगेणं? संजोंगे चउबिहे पण्णत्ते / तं जहा दध्वसंजोगे 1 खेत्तसंजोगे 2 कालसंजोगे 3 भावसंजोगे 4 // [272 प्र.] भगवन् ! संयोगनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [272 उ.] आयुष्मन् ! (संयोग की प्रधानता से निष्पन्न होने वाला नाम संयोगनिष्पन्ननाम है।) संयोग चार प्रकार का है--१. द्रव्यसंयोग, 2. क्षेत्रसंयोग, 3. कालसंयोग, 4. भावसंयोग / विवेचन—यह सूत्र संयोगनिष्पन्ननाम को प्ररूपणा करने की भूमिका रूप है। संयोग Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [अनुयोगद्वारसूत्र अर्थात् दो पदार्थों का आपस में जुड़ना / संयोग की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यह चार अपेक्षाएं हो सकती हैं। इसलिये संयोगज नाम के चार भेद कहे गये हैं। इन चतुर्विध संयोगनिष्पन्ननामों की व्याख्या आगे की जा रही है / द्रव्यसंयोगजनाम 273. से कि तं दव्यसंजोगे ? दव्वसंजोगे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सचित्ते 1 अचित्ते 2 मीसए 3 / [273 प्र.] भगवन् ! द्रव्यसंयोग से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [273 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्यसंयोग तीन प्रकार का कहा गया है, यथा--१. सचित्तद्रव्यसंयोग, 2. अचित्तद्रव्यसंयोग, 3. मिश्रद्रव्यसंयोग / 274. से कि तं सचित्ते ? सचित्ते गोहि गोमिए, महिसीहिं माहिसिए, ऊरणीहिं ऊरणिए, उट्टीहि उट्टीवाले / से तं सचित्ते। / 274 प्र.] भगवन् ! सचित्तद्रव्यसंयोग से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [274 उ. आयुष्मन् ! सचित्तद्रव्य के संयोग से निष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार है गाय के संयोग से गोमान् (ग्वाला), महिषी (भैंस) के संयोग से महिषीमान्, मेषियों (भेड़ों) के संयोग से मेषीमान् और ऊंटनियों के संयोग से उष्ट्रीपाल नाम होना आदि सचित्तद्रव्यसंयोग से निष्पन्न नाम हैं। 275. से कि तं अचित्ते ? अचित्ते छत्तेण छत्ती, दंडेण दंडी, पडेण पडी, घडेण घडी, कडेण कडी / से तं अचित्ते / [275 प्र.] भगवन ! अचित्तद्रव्यसंयोगनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [275 उ.] आयुष्मन् ! अचित्त द्रव्य के संयोग से निष्पन्न नाम का यह स्वरूप है-छत्र के संयोग से छवी, दंड के संयोग से दंडी, पट (कपड़ा) के संयोग से पटी, घट के संयोग से घटी, कट (चटाई) के संयोग से कटी आदि नाम अचित्तद्रव्यसंयोगनिष्पन्न नाम हैं। 276. से कि तं मीसए ? मोसए हलेणं हालिए, सकडेणं साकडिए, रहेणं रहिए, नावाए नाविए। से तं मीसए। से तं दव्वसंजोगे। [276 प्र.] भगवन् / मिश्रद्रव्यसंयोगजनाम का क्या स्वरूप है ? [276 उ.] आयुष्मन् ! मिश्रद्रव्यसंयोगनिष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहियेइल के संयोग से हालिक, शकट (गाडी) के संयोग से शाकटिक, रथ के संयोग से र संयोग से नाविक आदि नाम मिश्रद्रव्यसंयोगनिष्पन्ननाम हैं / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [207 विवेचन--सूत्रकारने संयोगनिष्पन्न के प्रथम भेद द्रव्यसंयोगजनाम का स्वरूप बतलाया है। द्रव्य तीन प्रकार के हैं—सचित्त (सजीव), अचित्त (अजीव) और दोनों का मिश्ररूप। इस प्रकार द्रव्य के तीन भेद करके उनके पृथक्-पृथक् उदाहरण दिये हैं / __ गोमान (ग्वाला) आदि सचित्तद्रव्यसंयोगजनाम की निष्पत्ति में गायें सचित्त (सचेतन) पदार्थ कारण हैं। अचित्तद्रव्यसंयोगजनाम के लिये उदाहृत छत्री आदि नामों की निष्पत्ति छत्र प्रादि अचित्तद्रव्यसंयोगसापेक्ष है। इसलिये छत्र जिसके पास है वह छत्री, दंड जिसके पास है वह दंडी इत्यादि कहा जाता है। मिश्रद्रव्यसंयोगजनाम के हालिक, शाकटिक प्रादि उदाहरणों में हल, शकट (गाड़ी) आदि पदार्थ अचित्त और उनके साथ संयुक्त बैल प्रादि पदार्थ सचित हैं / इस प्रकार सचित्त-अचित्त दोनों प्रकार के पदार्थों की मिश्रता इन नामों की निष्पत्ति की प्राधार होने से ये सचित्ताचित्त (मिश्र) द्रव्यसंयोगनिष्पन्न नाम के रूप में बताये गये हैं। इसी प्रकार अन्य नामों की द्रव्यसंयोगिता का विचार करके उस-उस प्रकार के द्रव्यसंयोगनिष्पन्त नाम समझ लेना चाहिये। क्षेत्रसंयोगजनाम 277. से कितं खेत्तसंजोगे? खेत्तसंजोगे भारहे एरवए हेमवए एरण्णवए हरिवस्सए रम्मयवस्सए पुवविदेहए अवरविदेहए, देवकुरुए उत्तरकुरुए अहवा मागहए मालवए सोरटुए मरहट्ठए कोंकणए कोसलए / से तं खेत्तसंजोगे। [277 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रसंयोग से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [277 उ.] प्रायुष्मन् ! क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार है यह भारतीय-भरतक्षेत्रीय है, यह ऐरावतक्षेत्रीय है, यह हेमवतक्षेत्रीय है, यह ऐरण्यवतक्षेत्रीय है, यह हरिवर्षक्षेत्रीय है, यह रम्यकवर्षीय है, यह पूर्वविदेहक्षेत्र का है, यह उत्तरविदेहक्षेत्रीय है, यह देवकुरुक्षेत्रीय है, यह उत्तरकुरुक्षेत्रीय है / अथवा यह मागधीय है, मालवीय है, सौराष्ट्रीय है, महाराष्ट्रीय है, कौंकणदेशीय है, यह कोशलदेशीय है आदि नाम क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम हैं। विवेचन--सूत्र में क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम का स्वरूप स्पष्ट किया है। क्षेत्र को आधारमाध्यम बनाकर और क्षेत्र की मुख्यता से जो नामकरण किया जाता है, वह क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम कहलाता है। भरत, ऐरवत, मगध आदि क्षेत्र रूप में प्रसिद्ध हैं। अत: लोकव्यवहार चलाने के लिये जो मागधीय-मगध देश का रहने वाला आदि नाम रख लिए जाते हैं, वे क्षेत्र के संयोग से बनने के कारण क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम कहे जाते हैं / Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [अनुयोगद्वारसूत्र कालसंयोगनिष्पन्ननाम 278. से कि तं कालसंजोगे ? कालसंजोगे सुसमसुसमए सुसमए सुसमसमए दूसमसुसमाए दूसमए दूसमदूसमए अहवा पाउसए वासारत्तए सरदए हेमंतए वसंतए गिम्हए / से तं कालसंजोगे। [278 प्र. भगवन् ! कालसंयोग से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [278 उ.] आयुष्मन् ! काल के संयोग से निष्पन्न होने वाले नाम का स्वरूप इस प्रकार है सुषमसुषम काल में उत्पन्न होने से यह सुषम-सुषमज' है, यह सुषमकाल में उत्पन्न होने से 'सुषमज' है। इसी प्रकार से सुषमदुषमज, दुषमसुषमज, दुषमज, दुषमदुषमज नाम भी जानना चाहिये / अथवा यह प्रावृषिक (वर्षा के प्रारंभ काल में उत्पन्न हुआ) है, यह वर्षारात्रिक (वर्षाऋतु में उत्पन्न) है, यह शारद (शरदऋतु में उत्पन्न) है, यह हेमन्तक है, यह वासन्तक है, यह ग्रीष्मक है आदि सभी नाम कालसंयोग से निष्पन्न नाम हैं। विवेचन--सूत्र में काल के संयोग से निष्पन्न नाम का स्वरूप बताया है। विवक्षाभेद से सुषमसुषम आदि की तरह वर्षा, शरद् आदि ऋतुयें भी काल शब्द की वाच्य होती हैं। अतएव इन सब कालों के आधार से निष्पन्न होने वाले नाम कालसंयोगनिष्पन्न नाम हैं। सुषमसुषम आदि कालों का स्वरूप-जैनदर्शन में अनन्त समय वाले काल की व्यवहारदृष्टि से अनेक रूपों में व्याख्या की है। उनमें अवसर्पिणी और उत्सपिणी यह काल के दो मुख्य भेद है। ये दोनों भेद भी पुनः सुषमसुषम आदि छह भेदों (पारे) के रूप में विभाजित हैं। नामकरण के कारण सहित उनका स्वरूप इस प्रकार है 1. सुषमसुषम---इस काल में भूमि प्राकृतिक उपरागों से रहित होती है। कल्पवृक्षों से परिपूर्ण पर्वत, रत्नों से भरी पृथ्वी, सुन्दर नदियां होती हैं / वृक्ष फल-फूलों से लदे रहते हैं / दिन-रात का भेद नहीं होता है, शीत, उष्ण वेदना का प्रभाव होता है। मनुष्य युगल (नर-नारी) के रूप में उत्पन्न होते हैं / ये अकालमरण से नहीं मरते और इनको तीन-तीन दिन के अंतर से आहार की इच्छा होती है / कल्पवृक्ष के फल आदि का आहार करते हैं। मनुष्यों की शरीर अवगाहना तीन कोस की होती है। शरीर में 256 पसलियां होती हैं तथा वज्रऋषभनाराचसहनन और समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं / आयु तीन पल्य की होती है। सुषमसुषमकाल का कालमान बार कोडाकोडी सागरोपम का है / सुषम--उक्त प्रकार के प्रथम पारे की समाप्ति होने पर तीन कोडाकोडी सागरोपम का यह दूसरा सुषम पारा प्रारंभ होता है। इसमें पूर्व पारे की अपेक्षा वर्ण-गंध-रस-स्पर्श की उत्तमता में अनन्तगुणी हीनता आ जाती है। क्रम से घटती शरीर अवगाहना दो कोस और आयु दो पल्योपम की हो जाती है। शरीर में पसलियां 128 रह जाती हैं। दो दिन के अंतर से आहार की इच्छा होती है / पृथ्वी का स्वाद मिश्री के बदले शक्कर जैसा रह जाता है। मृत्यु से पहले युगलिनी Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [209 पुत्र-पुत्री के एक युगल को जन्म देती है, जिनका चौंसठ दिन तक पालन-पोषण करना पड़ता है। तत्पश्चात् वे स्वावलंबी हो जाते हैं और पति-पत्नी के रूप में सुखोपभोग करते विचरते हैं। शेष वर्णन प्रथम प्रारक के समान समझना चाहिये / सुषमदुषम-दूसरा पारा समाप्त होने पर दो कोडाकोड़ी सागरोपम का तीसरा आरा प्रारंभ होता है / इस बारे में पूर्व की अपेक्षा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की उत्तमता अनन्त गुणहीन हो जाती है। घटते-घटते देहमान एक कोस, एक पल्योपम आयुष्य और शरीर के चौंसठ करंडक (पसलियां) रह जाते हैं / एक दिन के अंतर से प्राहार की इच्छा होती है / पृथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा रह जाता है / मृत्यु के छह माह पूर्व युगलिनी पुत्र-पुत्री के जोड़े को जन्म देती है। उन्यासी दिन तक पालन-पोषण करने के बाद वह जोड़ा स्वावलंबी हो जाता है / शेष कथन पहले के समान जानना चाहिये / इन नीन आरों के लियंच भी युगलिया होते हैं। इस बारे के कालमान में दो विभागों के बीतने पर कालस्वभाव से, कल्पवृक्षों की फलदायिनी शक्ति हीन होते जाने से यगल मनुष्यों में परस्पर कल होने लगता है। इस कलह का अं अंत करने के लिये क्रम से पन्द्रह कुलकरों की उत्पत्ति होती है / वे लोकव्यवस्था करते हैं। कल्पवक्षों की फलदायिनी शक्ति के क्रमशः क्षीण होते जाने पर भी जैसे-तैसे उन्हीं के आधार से जीवननिर्वाह होते रहने से असि-ममि आदि के द्वारा आजीविका अजित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है / इसलिये पहले और दूसरे पारे के समान इस बारे में अकर्मभूमिक स्थिति बनी रहती है और युगल रूप में उत्पन्न होने से मनुष्य युगलिया कहलाते हैं / / ___ इस तीसरे नारे के समाप्त होने में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े पाठ मास शेष रह जाते हैं तब (अयोध्या नगरी में पन्द्रहवें कुलकर के यहाँ) प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है / वे लोकव्यवस्था स्थापित करने के लिये असि, मसि आदि द्वारा आजीविका अजित करने के उपाय बताते हैं। पुरुषों को बहत्तर और स्त्रियों को चौंसठ कलायें सिखाते हैं। राज्यव्यवस्था करते हैं। फिर राज्यवैभव को छोड़कर संयम ग्रहण करते हैं और केवलज्ञान प्राप्त होने पर तीर्थ की स्थापना करते हैं। दुषमसुषम- तीसरा पारा समाप्त होने पर बियालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागरोपम का चौथा पारा प्रारंभ होता है। इसमें दुःख अधिक और सुख थोड़ा होता है। पहले की अपेक्षा वर्णादि की, शुभ पुद्गलों की अनन्तगुण हानि हो जाती है / घटते-घटते देहमान पांच सौ धनुष और आयुष्य एक करोड़ पूर्व का रह जाता है। शरीर में बत्तीस पसलियां रह जाती हैं। दिन में एक बार भोजन की इच्छा होती है / छहों संहननों, छहों भंस्थानों वाले और पांचों गतियों (संसार की चार गति, एक मुक्ति गति) में जाने वाले मनुष्य होते हैं। तेईस तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव भी इसी पारे में होते हैं। दुषम--चौथे आरे के समाप्त होने पर इक्कीस हजार वर्ष कालमान वाला पांचवां पारा प्रारंभ होता है / चौथे आरे को अपेक्षा वर्णादि और शुभ पुद्गलों में अनन्तगुणी हीनता हो जाती है / प्रायु घटते-घटते 125 वर्ष की, शरीर-अवगाहना सात हाथ की और शरीर में पसलियां सोलह रह जाती हैं / दिन में दो बार आहार करने की इच्छा होती है / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [अनुयोगद्वारसूत्र पांचवें पारे में केवलज्ञान, जिनकल्पी मुनि प्रादि दस बातों का अभाव हो जाता है / पापाचार की वृद्धि होती जाती है / पाखंडियों की पूजा होती है, धर्म के प्रति रुचि का प्रभाव बढ़ता जाता है आदि। इन सब कारणों से इस पारे को दुषम कहते हैं / दुषमदुषम-पांचवें पारे के पूर्ण होने पर इक्कीस हजार वर्ष का यह छठा पारा प्रारंभ होता है। इस बारे में पहले की अपेक्षा वर्ण आदि में शुभ पुद्गलों की अनन्तगुणी हानि हो जाती है। पायु घटते-घटते बीस वर्ष की और शरीर की ऊँचाई एक हाथ की रह जाती है। शरीर में पाठ पसलियां होती हैं / अपरिमित पाहार की इच्छा होती है। रात्रि में शीत और दिन में ताप अत्यन्त प्रबल होता है। मनुष्य बिलों में रहते हैं। गंगा-सिन्धु नदियां सांप के समान बांकी गति से बहती हैं। गाड़ी का प्राधा पह्यिा डूबे, इतनी उनकी गहराई होती है। मछली आदि जलचर जीव बहुत होते हैं। जिन्हें मनुष्य पकड़कर नदी की रेत में गाड़ देते हैं और शीत व गरमी के योग से पक जाने पर लूटकर खा जाते हैं / मृतक मनुष्य की खोपड़ी में पानी पीते हैं / जानवर मरी हुई मछलियों आदि को हड्डियां खाकर जीवनयापन करते हैं। मनुष्य दीन, हीन, दुर्जन, रुग्ण, अपवित्र, आचार-विचार से हीन होते हैं / धर्म से हीन वे दुःख ही दुःख में अपनी आयु व्यतीत करते हैं। छह वर्ष की आयु वाली स्त्री संतान का प्रसव करती है। इन सब कारणों से इस बारे का नाम दुषमदुषम है। धाराओं का यह क्रम अवपिणीकाल की अपेक्षा से है। अक्सपिणीकाल के समाप्त होने पर उत्सपिणीकाल प्रारंभ होता है / वह भी इन्हीं छह बारों में विभक्त है, किन्तु प्रारों का क्रम विपरीत होता है। अर्थात् उत्सर्पिणी का प्रथम पारा दुषमदुषम है और छठा सुषम-सुषम। इनका स्वरूप पूर्वोक्त ही है। भावसंयोगनिष्पन्ननाम 279. से कि तं भावसंजोगे ? भावसंजोगे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा—पसत्थे य 1 अपसत्थे य 2 // [279 प्र.] भगवन् ! भावसंयोगनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [279 उ.] आयुष्मन् ! भावसंयोगजनाम के दो प्रकार हैं / यथा-१. प्रशस्तभावसंयोगज, 2. अप्रशस्तभावसंयोगज / 280. से कि तं पसत्थे ? पसत्थे नाणेणं नाणी, दंसणेणं दसणी, चरित्तेणं चरिती / से तं पसत्थे / [280 प्र.] भगवन् ! प्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [280 उ.] आयुष्मन् ! (ज्ञान, दर्शन आदि प्रशस्त (शुभ) भाव रूप होने से) ज्ञान के संयोग से ज्ञानी, दर्शन के संयोग से दर्शनी, चारित्र के संयोग से चारित्री नाम होना प्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [211 281. से कि तं अपसत्थे ? __ अपसत्थे कोहेणं कोही, माणेणं माणी, मायाए मायी, लोमेणं लोभी / सेतं अपसत्थे / से तं भावसंजोगे। से तं संजोगेणं / [281 प्र.] भगवन् ! अप्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [281 उ.] अायुष्मन् ! (क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अप्रशस्त (अशुभ)भाव हैं। अतः इन भावों के संयोग से) जैसे क्रोध के संयोग से क्रोधी, मान के संयोग से मानी, माया के संयोग से मायी और लोभ के संयोग से लोभी नाम होना अप्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम हैं। इसी प्रकार से भावसंयोगजनाम का स्वरूप और साथ ही संयोगनिष्पन्न नाम की वक्तव्यता जानना चाहिये। विवेचन--सूत्र में भावसंयोगजनाम का प्रशस्त और अप्रशस्त भेद की अपेक्षा वर्णन करके संयोगनाम की वक्तव्यता की समाप्ति का संकेत किया है। प्रशस्त और अप्रशस्त भाव का आशय-धों को भाब कहते हैं / यह सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं। अजीव द्रव्यों में तो अपने-अपने स्वभाव का परित्याग न करने के कारण प्रशस्त, अप्रशस्त जैसा कोई भेद नहीं है / यह भेद संसारस्थ जीवद्रव्य की अपेक्षा से है / ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि स्वाभाविक गुण शुभ और पवित्रता के हेतु होने से प्रशस्त और क्रोधादि परसंयोगज, विकारजनक एवं पतन के कारण होने से अप्रशस्त हैं / इन्हीं दोनों दृष्टियों और अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर भावसंयोगजनाम के प्रशस्त और अप्रशस्त भेद किये हैं और सुगमता से बोध के लिये क्रमशः ज्ञानी, दर्शनी, कोधी, लोभी आदि उदाहरणों द्वारा उन्हें बतलाया है / प्रमाणनिष्पन्ननाम 282. से कि तं पमाणेणं ? पमाणेणं चउम्विहे पण्णत्ते / तं जहा-णामप्पमाणे 1 ठवणयमाणे 2 दव्यप्पमाणे 3 भावप्पमाणे 4 // [282 प्र.] भगवन् ! प्रमाण से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [282 उ.] अायुष्मन् ! प्रमाणनिष्पन्न नाम के चार प्रकार हैं। यथा-१. नामप्रमाण से निष्पन्न नाम, 2. स्थापनाप्रमाण से निष्पन्न नाम, 3. द्रव्यप्रमाण से निष्पन्न नाम, 4. भावप्रमाण से निष्पन्न नाम / विवेचन-इस सूत्र में प्रमाणनिष्पन्न नाम का भेदों द्वारा निरूपण किया गया है। जिसके द्वारा वस्तु का निर्णय किया जाता है अर्थात् जो वस्तुस्वरूप के सम्यग् निर्णय का कारण हो उसे प्रमाण कहते हैं। इससे निष्पन्न नाम को प्रमाणनिष्पन्ननाम कहते हैं / ज्ञेय वस्तु नाम आदि चार प्रकारों द्वारा प्रमाण की विषय बनने से प्रमाणनाम के नाम, स्थापना आदि चार प्रकार हो जाते हैं / उनका क्रमानुसार आगे वर्णन किया जा रहा है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [अनुयोगद्वारसूत्र नामप्रमाणनिष्पन्न नाम 283. से कि तं नामप्पमाणे ? नामप्पमाणे जस्स णं जीवस्स वा अजीवरस वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स बा तदुभयाण वा पमाणे ति णामं कज्जति / से तं णामप्पमाणे / [283 प्र.] भगवन् ! नामप्रमाणनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [283 उ.] आयुष्मन् ! नामप्रमाणनिष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार है -किसी जीव या अजीव का अथवा जीवों या अजीवों का, तदुभय (जीवाजीव) का अथवा तदुभयों (जीवाजीवों) का 'प्रमाण' ऐसा जो नाम रख लिया जाता है, वह नामप्रमाण और उससे निष्पन्न नाम नामप्रमाणनिष्पन्ननाम कहलाता है। विवेचन--सूत्र में नामप्रमाण निष्पन्ननाम का स्वरूप स्पष्ट किया है। वस्तु का परिच्छेद-पृथक्-पृथक् रूप में वस्तु का बोध कराने का कारण नाम है। लोकव्यवहार चलाने और प्रत्येक वस्तु की कोई न कोई संज्ञा निर्धारित करने का मुख्य आधार नाम है। इसका क्षेत्र इतना व्यापक है कि सभी जीव, अजीव पदार्थ इसके वाच्य हैं। 'प्रमाण' ऐसा नाम केवल नामसंज्ञा के कारण ही होता है / इसमें वस्तु के गुण-धर्म आदि की अपेक्षा नहीं होती। स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम 284. से कि तं ठेवणप्पमाणे ? ठवणप्पमाणे सत्तविहे पण्णत्ते / तं जहा णक्खत्त-देवय-कुले पासंड-गणे य जीवियाहेउं / आभिप्पाउयणामे ठवणानामं तु सत्तविहं / / 85 // [284 प्र.] भगवन् ! स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [284 उ.] आयुष्मन् ! स्थापनाप्रमाण से निष्पन्न नाम सात प्रकार का है। उन प्रकारों के नाम हैं 1. नक्षत्रनाम, 2. देवनाम, 3. कुलनाम, 4. पाषंडनाम, 5. गणनाम, 6. जीवितनाम और 7. आभिप्रायिकनाम / 85 विवेचन---सूत्र में स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम का वर्णन करने के लिये सात भेदों के नाम गिनाये हैं / इसका कारण यह है कि लोक में यह वस्तुएँ स्थापना का आधार बनाई जाती हैं। ___ स्थापनाप्रमाणनिष्पन्ननाम का लक्षण--नाम की तरह लोकव्यवहार चलाने में स्थापना का भी प्रमुख स्थान है। यद्यपि प्रयोजन या अभिप्रायवश तदर्थशून्य वस्तु में तदाकार अथवा / में की जाने वाली स्थापना को स्थापना कहते हैं, यहाँ उसकी अपेक्षा नहीं है। किन्त नक्षत्र, देवता, कुल आदि के आधार से किया जाने वाला नामकरण स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम है। अब गाथोक्त क्रम से स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम के सातों भेदों का वर्णन करते हैं। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [213 नक्षत्रनाम 285. से कि तं नक्खत्तणामे ? नक्खत्तणामे कत्तियाहि जाए कत्तिए कत्तिदिणे कत्तिधम्म कत्तिसम्म कत्तिदेवे कत्तिदासे कत्तिसेणे कत्तिरक्खिए / रोहिणीहिं जाए रोहिणिए रोहिणिदिन्ने रोहिणिधम्मे रोहिणिसम्मे रोहिणिदेवे रोहिणिदासे रोहिणिसेणे रोहिणिरक्खिए / एवं सब्वणक्खत्तेसु णामा भाणियव्वा / एत्थ संगणिगाहाओ कत्तिय 1 रोहिणि 2 मिगसिर 3 अद्दा 4 य पुणवसू 5 य पुस्से 6 य। तत्तो य अस्सिलेसा 7 मघाओ 8 दो फग्गुणीओ य 9-10 / / 66 / / हत्थो 11 चित्ता 12 सादी १३[य] विसाहा 14 तह य होइ अणुराहा 15 / / जेट्ठा 16 मूलो 17 पुन्बासाढा 18 तह उत्तरा 19 चेव // 7 // अभिई 20 सवण 21 धणिट्ठा 22 सतिभिसदा 23 दो य होंति भवया 24-25 / / रेवति 26 अस्सिणि 27 भरणी 28 एसा नवखत्तपरिवाडी / / 88 // से तं नक्खत्तनामे। [285 प्र.] भगवन् ! नक्षत्रनाम-नक्षत्र के आधार से स्थापित नाम का-क्या स्वरूप है ? [285 उ.] आयुष्मन् ! नक्षत्रनाम का स्वरूप इस प्रकार है कृतिका नक्षत्र में जन्मे (बालक) का कृत्तिक (कात्तिक), कृत्तिकादत्त, कृत्तिकाधर्म, कृत्तिकाशर्म, कृत्तिकादेव, कृत्तिकादास, कृतिकासेन, कृत्तिकारक्षित आदि नाम रखना / रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए का रोहिणेय, रोहिणीदत्त, रोहिणीधर्म, रोहिणीशर्म, रोहिणीदेव, रोहिणीदास, रोहिणीसेन, रोहिणीरक्षित नाम रखना / इसी प्रकार अन्य सव नक्षत्रों में जन्मे हुओं के उन-उन नक्षत्रों के आधार से रक्खे नामों के विषय में जानना चाहिये / नक्षत्रनामों की संग्राहक गाथायें इस प्रकार हैं 1. कृत्तिका, 2. रोहिणी, 3. मृगशिरा, 4. आर्द्रा, 5. पुनर्वसु, 6. पुष्य, 7. अश्लेषा, 8. मघा, 9-10 पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी रूप दो फाल्गुनी, 11. हस्त, 12. चित्रा, 13. स्वाति, 14. विशाखा, 15. अनुराधा, 16. ज्येष्ठा, 17. मूला, 18. पूर्वाषाढा, 19. उत्तराषाढा, 20. अभिजित, 21. श्रवण, 22. धनिष्ठा, 23. शतभिष, 24-25 पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा नामक दो भाद्रपदा, 26. रेवती, 27 अश्विनी, 28. भरिणी, यह नक्षत्रों के नामों की परिपाटी है / 86, 87, 88 इस प्रकार नक्षत्रनाम का स्वरूप है / विवेचन--सूत्र में नक्षत्रनाम का स्वरूप बतलाया है / व्यक्ति की उस-उस नक्षत्र में उत्पत्ति का बोध कराने के साथ लोकव्यवहार चलाने के लिये नक्षत्रों के आधार से नाम रख लिये जाते हैं / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [अनुयोगद्वारसूत्र ज्योतिषशास्त्र के अनुसार तो नक्षत्रों के नामों का क्रम अश्विनी, भरणी आदि रूप है, लेकिन अभिजित् नक्षत्र के साथ पढ़े जाने पर सूत्रोक्त कृत्तिका, रोहिणी आदि क्रमविन्यास ही देखा जाता है। नक्षत्रनाम की व्याख्या तो उक्त प्रकार है, किन्तु ये कृत्तिका आदि प्रत्येक नक्षत्र अग्नि आदि एक-एक देवता द्वारा अधिष्ठित हैं / इसलिये कभी-कभी नक्षत्र के अधिष्ठायक देवों के नाम पर भी व्यक्ति का नाम रख लिया जाता है / अत: अब देवताम का वर्णन करते हैं। देवनाम 286. से किं तं देवयणामे ? देवयणामे अग्गिदेवयाहि जाते अग्गिए अग्गिदिपणे अग्गिधम्मे अग्गिसम्मे अस्गिदेवे अग्गिदासे अग्गिलेणे अगिरक्खिए / एवं पि सम्वनक्खत्तदेवतनामा भाणियव्वा / एत्थं पि य संगहणिगाहाओ, तं जहा--- अग्गि 1 पयावइ 2 सोमे 3 रहे 4 अदिती 5 वहस्सई 6 सप्पे 7 / पिति 8 भग 9 अज्जम 10 सविया 11 तट्ठा 12 वायू 13 य इंदग्गी 14 // 6 // मित्तो 15 इंदो 16 णिरिती 17 आऊ 18 विस्सो 19 य बंभ 20 विण्हू य 21 / वसु 20 वरुण 23 अय 24 विवद्धी 25 से 26 आसे 27 जमे 28 चेव / / 90 // से तं देवयणामे। [286 प्र.] भगवन् ! देवनाम का क्या स्वरूप है ? 286 उ.] आयुष्मन् ! देवनाम का यह स्वरूप है। यथा--अग्नि देवता से अधिष्ठित नक्षत्र में उत्पन्न हुए (बालक) का याग्निक, अग्निदत्त, अग्निधर्म, अग्निशम, अग्निदास, अग्निसेन, अग्निरक्षित प्रादि नाम रखना। इसी प्रकार से अन्य सभी नक्षत्र-देवताओं के नाम पर स्थापित नामों के लिये भी जानना चाहिये / देवताओं के नामों को भी संग्राहक गाथायें हैं, यथा-- 1. अग्नि, 2. प्रजापति, 3. सोम, 4. रुद्र, 5. अदिति, 6. बृहस्पति, 7. सर्प, 8. पिता, 9. भग, 10. अर्यमा, 11. सविता, 12. त्वष्टा, 13. वायु, 14. इन्द्राग्नि, 15. मित्र, 16. इन्द्र, 17. निऋति, 18. अम्भ, 19. विश्व, 20. ब्रह्मा, 21. विष्णु, 22. वसु, 23. वरुण, 24. अज, 25. विवद्धि 26. पूषा, 27. अश्व और 28. यम, यह अट्ठाईस देवताओं के नाम जानना चाहिये / 89, 90 यह देवनाम का स्वरूप है। विवेचन-सूत्र में देवनाम का स्वरूप बताया है। जैसे अग्निदेवता से अधिष्ठित कृत्तिका नक्षत्र में उत्पन्न हुए व्यक्ति के नामस्थापन में नक्षत्र को गौण मानकर देवनाम की मुख्यता से अग्निदत्त, अग्निसेन आदि नाम रखे जाते हैं, उसी प्रकार प्राजापतिक आदि नामों के लिये प्रजापति आदि देवनामों की मुख्यता समझ लेना चाहिये। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [215 संग्रहणी गाथोक्त क्रम से अग्नि आदि अट्ठाईस देवताओं के नाम क्रमशः कृत्तिका ग्रादि नक्षत्रों के अधिष्ठातृ देवों के हैं। कुलनाम 287. से किं तं कुलनामे ? कुलनामे उग्गे भोगे राइण्णे खत्तिए इक्खागे जाते कोरवे / से तं कुलनामे / [287. प्र.] भगवन् ! कुलनाम किसे कहते हैं ? [287 उ.] श्रायुष्मन् ! (जिस नाम का अाधार कुल हो, उसे कुलनाम कहते हैं 1) जैसे उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, ज्ञात, कौरव्य इत्यादि / यह कुलनाम का स्वरूप है / विवेचन--पिता के वंश को कुल कहते हैं। कुल के नाम का कारण कोई प्रमुख व्यक्ति या प्रसंग-विशेष होता है। अतएव पितृवंश की परम्परा के आधार से किया जाने वाला नाम कुलनाम कहलाता है / जैसे उग्र कुल में जन्म लेने से उग्न नाम रखा जाना। इसी प्रकार भोग, राजन्य ग्रादि नामों के विषय में जानना चाहिये / पाषण्डनाम 288, से कि तं पासंडनामे ? पासंडनामे समणए पंडुरंगए भिक्ख कावालियए तावसए परिब्वायगे / से तं पासंडनामे। [288 प्र.] भगवन् ! पाषण्डनाम का क्या स्वरूप है ? [288 उ.] आयुष्मन् ! श्रमण, पाण्डुरांग, भिक्षु, कापालिक, तापस, परिव्राजक यह पाषण्डनाम का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन—सूत्र में उदाहरणों के माध्यम से पाषण्डनाम का स्वरूप बतलाया है / मत, संप्रदाय, प्राचार-विचार की पद्धति अथवा व्रत को पाषण्ड कहते हैं। अतएव कारण में कार्य का उपचार करके पाषण्ड (व्रत आदि) के आधार से स्थापित नाम पाषण्डनाम कहलाता है / पाषण्डनाम के उदाहरणों में निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीवक के भेद से श्रमण पांच प्रकार के हैं / भस्म से लिप्त शरीर वाले ऐसे शैव-शिव के भक्तों को पाण्डुरांग कहते हैं / इसी प्रकार बुद्धदर्शन के अनुयायी भिक्षु, चिता की राख से अपने शरीर को लिप्त रखने वाले श्मशानवासी कापालिक, तपसाधना करने वाले तापस और गृहत्यागी संन्यासी परिवाजक कहलाते हैं। गणनाम 289. से कि तं गणनामे ? गणनामे मल्ले मल्लदिन्ने मल्लधम्ने मल्लसम्म मल्लदेवे मल्लदासे मल्लसेणे मल्लरविखए। से तं गणनामे। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [अनुयोगद्वारसूत्र [289 प्र.] भगवन् ! गणनाम का क्या स्वरूप है ? [289 उ.] अायुष्मन् ! गण के आधार से स्थापित नाम को गणनाम कहते हैं / जैसे--मल्ल, मल्लदत्त, मल्लधर्म, मल्लशर्म, मल्लदेव, मल्लदास, मल्लसेन, मल्ल रक्षित प्रादि गण-स्थापनानिष्पन्ननाम हैं। विवेचन--सूत्र में गणनाम का स्वरूप स्पष्ट किया है / प्रायुधजीवियों के संघ-समूह को गण कहते हैं / इसमें पारस्परिक सहमति अथवा सम्मति के आधार से राज्यव्यवस्था का निर्णय किया जाता है / अतएव उसके प्राधार से नामस्थापन गणनाम कहा जाता है / __नौ मल्ली, नी लिच्छवी इन अठारह राजारों के राज्यों का एक गणराज्य था। इन के नाम शास्त्रों में आये हैं / अतः यहाँ उदाहरण के रूप में मल्ल, मल्लदत्त आदि नामों का उल्लेख किया है। जीवितहेतुनाम 290. से कि तं जीवियाहे ? जीवियाहेउं अवकरए उक्कुरुडए उज्झियए कज्जवए सुष्पए। से तं जीवियाहेउं / [290 प्र.] भगवन् ! जीवितहेतुनाम का क्या स्वरूप है ? (290 उ.] आयुष्मन् ! (जिस स्त्री की संतान जन्म लेते ही मर जाती हो उसकी संतान को) दीर्घकाल तक जीवित रखने के निमित्त नाम रखने को जीवितहेतुनाम कहते हैं। जैसे—अबकरक (कचरा), उत्कुष्टक (उकरडा), उज्झितक (त्यागा हुआ), कचवरक (कूड़े-कचरे का ढेर), सूर्पक (सूपड़ा-अन्न में से भूसा आदि निकालने का साधन) आदि / ये सब जीवितहेतुनाम हैं। विवेचन—सूत्र में जीवितहेतुनाम का स्वरूप बताया है। संतान के प्रति ममत्वभाव और किसी न किसी प्रकार से संतान जीवित रहे, यह भावना इस नामकरण में अन्तनिहित है। प्राभिप्रायिकनाम 291. से कि तं आभिष्पाइयनामे ? आभिप्पाइयनामे अंबए निबए बकुलए पलासए सिणए पिलुयए करीरए / सेतं आभिप्पाइयनामे / से तं ठवणप्पमाणे। [291 प्र.] भगवन् ! आभिप्रायिकनाम का क्या स्वरूप है ? [291 उ.] आयुष्मन् ! (गुण की अपेक्षा रक्खे विना अपने अभिप्राय के अनुसार मनचाहा नाम रख लेना आभिप्रायिक नाम कहलाता है) जैसे--. अंबक, निम्बक, बकुलक, पलाशक, स्नेहक, पोलुक, करीरक आदि प्राभिप्रायिक नाम जानना चाहिये / यह स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम की प्ररूपणा है / ___ विवेचन-सूत्र में स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम के अंतिम भेद आभिप्रायिक नाम का स्वरूप बतलाया है। आभिप्रायिकनामनिष्पत्ति का आधार अपना अभिप्राय ही है / उदाहरण के रूप में बताये गये नामों की तरह अन्य नाम स्वयमेव समझ लेना चाहिए। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [217 द्रव्यप्रमाणनिष्पन्ननाम 292. से कि तं दव्वप्पमाणे ? दव्वप्पमाणे छव्धिहे पण्णत्ते / तं जहा-धम्मास्थिकाए जाय अद्धासमए / से तं दव्यप्पमाणे / [292 प्र.] भगवन् ! द्रव्यप्रमाणनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [292 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्यप्रमाणनिष्पन्ननाम छह प्रकार का है। यथा --धर्मास्तिकाय यावत् अद्धासमय / यह द्रव्यप्रमाणनिष्पन्ननाम का स्वरूप है / विवेचन धर्मास्तिकाय अादि षद द्रब्यों के नाम द्रव्य विषयक होने से अथवा द्रव्यों के सिवाय अन्य के नहीं होने से द्रव्यप्रमाणनिष्पन्ननाम हैं / अनादिसिद्धान्तनाम में भी इन्हीं छह द्रव्यों के नामों का उल्लेख किया है किन्तु वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, अत: विवक्षाभेद के कारण दोष नहीं समझना चाहिए। भावप्रमारगनिष्पन्ननाम 263. से कि तं भावपमाणे? भावप्पमाणे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा सामासिए 1 तद्धितए 2 धातुए 3 निरुत्तिए 4 / [293 प्र. भगवन् ! भावप्रमाण किसे कहते हैं ? [293 उ.] आयुष्मन् ! भावप्रमाण 1. मामासिक 2. तद्धितज 3. धातुज और 4. निरुक्तिज के भेद से चार प्रकार का है। विवेचन-भावप्रमाणनिष्पन्ननाम की प्ररूपणा प्रारंभ करने के लिये सूत्र में उसके चार भेदों के नाम गिनाये हैं। भाव अर्थात् वस्तुगत गुण / अतएव भाव एव प्रमाण-भाव ही प्रमाण है-इस व्युत्पत्ति के अनुसार भाव रुग प्रमाण को भावप्रमाण कहते हैं और उसके द्वारा निष्पन्न नाम भावप्रमाणनिष्पन्ननाम कहलाता है / वह सामासिक आदि के भेद से चार प्रकार का है। आगे क्रम से उनका वर्णन करते हैं। सामासिकभावप्रमाणनिष्पन्ननाम 294. से कि तं सामासिए ? सामासिए सत्त समासा भवंति / तं जहा दंदे 1 य बहुव्वीही 2 कम्मधारए 3 दिग्गु 4 य / तप्पुरिस 5 अव्वईभावे 6 एक्कसेसे 7 य सत्तमे // 1 // [294 प्र.] भगवन् ! सामासिकभावप्रमाण किसे कहते है ? Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [अनुयोगद्वारसूत्र [294 उ.] आयुष्मन् ! सामासिकनामनिष्पन्नता के हेतुभूत समास सात हैं। वे इस प्रकार 1. द्वन्द्व, 2. बहुव्रीहि, 3. कर्मधारय, 4. द्विगु, 5. तत्पुरुष, 5. अव्ययीभाव और 7. एकशेष / 91 विवेचन-सूत्र में सामासिक नाम की प्ररूपणा के लिये सात समासों के नाम बताये हैं। दो या दो से अधिक पदों में विभक्ति आदि का लोप करके उन्हें संक्षिप्त करना--इकट्ठा करना समास कहलाता है। समासयुक्त शब्द जिन शब्दों के मेल से बनता है, उन्हें खंड कहते हैं। जिन शब्दों में समास होता है उनका बल एकसा नहीं होता, किन्तु उनमें से किसी का अर्थ मुख्य हो जाता है और शेष शब्द उस अर्थ को पुष्ट करते हैं / अपेक्षाभेद से समास के द्वन्द्व प्रादि सात भेद हैं / द्वन्द्वसमास 265. से कि तं दंवे समासे ? दंदे समासे दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तोष्ठम्, स्तनौ च उदरं च स्तनोदरम्, वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्, अश्वश्च महिषश्च अश्वमहिषम्, अहिश्च नकुलश्च अहिनकुलम् / से तं दंदे समासे। [295 प्र.] भगवन् ! द्वन्द्वसमास का क्या स्वरूप है ? [295 उ.] आयुष्मन् ! 'दंताश्च प्रोष्ठौ च इति दंतोष्ठम्, 'स्तनौ च उदरं च इति स्तनोदरम्,' 'वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्,' 'अश्वश्च महिषश्च इति अश्वमहिषम्', 'अहिश्च नकुलश्च इति अहिनकूलम', ये सभी शब्द द्वन्द्वसमास रूप हैं। विवेचन-सूत्र में उदाहरणों के द्वारा द्वन्द्वसमास का प्राशय स्पष्ट किया है। तत्संबन्धी विशेष वक्तव्य इस प्रकार है जिस समास में सभी पद समान रूप से प्रधान होते हैं तथा जिनके बीच के 'और' अथवा 'च' शब्द का लोप हो जाता है, किन्तु विग्रह करने पर संबन्ध के लिये पुनः 'च' अथवा 'और' शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसे द्वन्द्वसमास कहते हैं / द्वन्द्वसमास के शब्दों से यदि एक मिश्रित वस्तु का बोध होता है तो वे एकवचन में प्रयुक्त होते हैं। यथा-~-मैंने दाल-रोटी खा ली है, उनमें ऊंच-नीच नहीं है। किन्तु जिन शब्दों से मिश्रित वस्तु का बोध नहीं होता, वे बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं / जैसे सीता-राम वन को गये। यह समास समाहार द्वन्द्व और इतरेतर द्वन्द्व के भेद से दो प्रकार का है / समाहार द्वन्द्व में प्रत्येक पद की प्रधानता नहीं होती, प्रत्युत सामूहिक अर्थ का बोध होता है। इसमें सदा नपुंसकलिंग तथा किसी एक विभक्ति का एकवचन ही रहता है / / सूत्रोक्त उदाहरणों में से 'दन्तोष्ठम्' और 'स्तनोदरम्' में प्राणी के अंग होने से एकवद्भाव हुआ है। 'वस्त्रपात्रम्' में अप्राणी जाति होने से तथा 'अश्वमहिषम्' और 'अहिनकुलम्' पदों में शाश्वत विरोध होने के कारण एकवचन का प्रयोग हुआ जानना चाहिये। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [219 माता और पिता-मातापिता, पुण्य और पाप-पुण्यपाप इत्यादि शब्द हिन्दी भाषा संबन्धी द्वन्द्वसमास के उदाहरण हैं। बहुव्रीहिसमास 266. से कि तं बहुब्बीहीसमासे ? बहुन्बोहिसमासे फुल्ला जम्मि गिरिम्मि कुडय-कलंबा सो इमो गिरी फुल्लियकुडय-कलंबो। से तं बहुब्बीहीसमासे। [296 प्र.] भगवन् ! बहुब्रीहिसमास किसे कहते हैं ? [296 उ.] प्रायुध्मन् ! बहुव्रीहिसमास का लक्षण यह है-इस पर्वत पर पुष्पित (प्रफुल्लित) कुटज और कदंब वृक्ष होने से यह पर्वत फुल्लकुटजकदंब है। यहाँ 'फुल्लकुटजकदंब' पद बहुब्रीहिसमास है। विवेचन बहुव्रीहिसमास--समासगत पद जब अपने से भिन्न किसी अन्य पदार्थ का बोध कराये अर्थात् जिस समास में अन्यपद प्रधान हो, उसे बहुब्रीहिसमास कहते हैं। बहुव्रीहिसमास में शब्द के दोनों ही पद गौण होते हैं / जो सूत्रोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि कुटज और कदंब शब्द प्रधान नहीं हैं, किन्तु इनसे युक्त पर्वत रूप अन्य पद प्रधान है। बहुब्रीहिसमास में अन्तिम पद में विभक्ति का लोप नहीं भी होता है। विभक्ति का लोप प्रथम पद में और यदि दो से अधिक पदों का समास हो तो अन्तिम पद के अतिरिक्त अन्य पदों में होता है। कर्मधारय समास 267. से कि तं कम्मधारयसमास ? कम्मधारयसमासे धवलो बसहो धवलवसहो, किण्हो मिगो किण्हमिगो, सेतो पटो सेतपटो, रत्तो पटो रत्तपटो। से तं कम्मधारयसमासे / [297 प्र.] भगवन् ! कर्मधारयसमास का क्या स्वरूप है ? [297 उ.] आयुष्मन् ! 'धवलो वृषभः धवलवृषभः', 'कृष्णो मृगः कृष्णमृग', 'श्वेतः पटः श्वेतपट:' 'रक्तः पट: रक्तपट:' यह कर्मधारयसमास है। विवेचन--सूत्र में उदाहरणों द्वारा कर्मधारयसमास की व्याख्या की है। जिसका प्राशय यह है जिसमें उपमान-उपमेय, विशेषण-विशेष्य का सम्बन्ध होता है वह कर्मधारयसमास है अथवा समान अधिकरण वाला तत्पुरुषसमास ही कर्मधारयसमास कहलाता है। यदि विशेषण प्रथम हो तो विशेषणपूर्वपदकर्मधारय, उपमान प्रथम हो तो उपमानपूर्वपदकर्मधारय, उपमान बाद में हो तो उपमानोत्तरपदकर्मधारय कहलाता है। सूत्र में जितने भी उदाहरण दिये हैं वे सब विशेषणपूर्वपदकर्मधारय के हैं / उपमानपूर्वपद के उदाहरण 'घन इव.श्याम:धनश्याम:' और उपमानोत्तर के उदाहरण पुरुषसिंहः जैसे शब्द जानना चाहिये / Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] अनुयोगद्वारसूत्र द्विगुसमास 268. से कि तं दिगुसमासे ? दिगुसमासे तिण्णि कडुगा तिकडुगं, तिणि महुराणि तिमहरं, तिण्णि गुणा तिगुणं, तिण्णि पुरा तिपुरं, तिणि सरा तिसरं, तिण्णि पुक्खरा तिपुक्खरं, तिण्णि बिंदुया तिबिंदुयं, तिण्णि पहा तिपह, पंच पदोओ पंचणदं, सत्त गया सत्तगयं, नव तुरगा नवतुरगं, दस गामा दसगाम, दस पुरा दसपुरं / से तं दिगुसमासे। [298 प्र. भगवन् ! द्विगुसमास किसे कहते हैं ? [298 उ. अायुष्मन् ! द्विगुसमास का रूप इस प्रकार का है-तीन कटक वस्तुओं का समूह-त्रिकटुक, तीन मधुरों का समूह-त्रिमधुर, तीन गुणों का समूह --त्रिगुण, नीन पुरों.-- नगरों का समूह-त्रिपुर, तीन स्वरों का समुह--त्रिस्वर, तीन पुष्करों-कमलों का समूह-त्रिपुष्कर, तीन बिन्दुओं का समुह-त्रिबिन्दु, तीन पथ–रास्तों का समूह---त्रिपथ, पांच नदियों का समूह- पंचनद, सात गजों का समूह–सप्तगज, नौ तुरगों-अश्वों का समुह-नवतुरग, दस ग्रामों का समूह--दसग्राम, दस पुरों का समूह-दसपुर, यह द्विगुसमास है। विवेचन–सूत्र में द्विगुस मास के उदाहरण दिये हैं। जिनसे यह प्राशय फलित होता है जिस समास में प्रथम पद संख्यावाचक हो और जिससे समाहार-समूह का बोध होता हो, उसे द्विगुसमास कहते हैं / इसमें दूसरा पद प्रधान होता है, जिससे बहुधा यह जाना जाता है कि इतनी वस्तुओं का समाहार हुआ है / सूत्रोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है। द्विगुसमास की यह विशेषता है कि इसमें नपुंसकलिंग और एकवचन ही आता है, जैसे त्रिकटुकम् / रयसमास में पहला पद सामान्य विशेषण रूप और द्विगुसमास में पहला पद संख्यावाचक विशेषण होता है / इसलिये ये दोनों समास पृथक्-पृथक् कहे गए हैं। तत्पुरुषसमास 266. से कि तं तप्पुरिसे समासे ? तपुरिसे समासे तित्थे कागो तित्थकागो, वणे हत्थी वणहत्थो, वणे वराहो वणवराहो, वणे महिसो वणमहिसो, वणे मयूरो वणमयूरो / से तं तप्पुरिसे समासे / [299 प्र.] भगवन् ! तत्पुरुषसमास का क्या स्वरूप है ? [299 उ.] अायुष्मन् ! तत्पुरुषसमास का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-तीर्थ में काक (कौग्रा) तीर्थकाक, वन में हस्ती वनहस्ती, वन में वराह वनवराह, वन में महिष वनमहिष, बन में मयूर वनमयूर / यह तत्पुरुषसमास है। विवेचन---उदाहरणों के द्वारा तत्पुरुषसमास का स्वरूप बताया है। जिसका फलितार्थ यह है Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण (221 इसमें अन्तिम पद प्रधान होता है और प्रथम पद प्रथमा विभक्ति से भिन्न किसी दूसरी विभक्ति का होता है। इसके प्रथम पद में द्वितीया से लेकर सप्तमी पर्यन्त छह विभक्तियों के रहने के कारण इसके छह भेद होते हैं। सूत्रोक्त उदाहरण सप्तमीविभक्तिपरक हैं। तत्पुरुषसमास के और भी उपभेद हैं, जिनमें नन्, अलुक और उपपद प्रधान हैं। नन् तत्पुरुाा में प्रभाव, निषेध अर्थसूचक अ, अन्, न उपसर्ग शब्द के पूर्व में लगाकर समस्त पद बनाया जाता है / जैसे अनाथ, अनन्त, असत्य / इसमें व्यंजन से पहले अऔर स्वर से पहले अन् लगता है / अलुक् समास में पूर्वपद की विभक्ति का लोप नहीं होता है / जैसे अन्तेवासी, खेचर प्रादि / उपपदसमास में दूसरा पद ऐसा कृदन्त होता है कि असंबद्ध रहने पर जिसका कोई प्रयोग या उपयोग नहीं होता। जैसे—कभ-कार, चर्मकार इत्यादि / अव्ययीभावसमास 300. से कि तं अव्वईभावे समासे ? अव्वईभावे समासे अगुगामं अणुणदीयं अणुफरिहं अणुचरियं / से तं अन्वईभावे समासे / [300 प्र.] भगवन् ! अव्ययीभावसमास का स्वरूप क्या है ? [300 उ.] आयुष्मन् ! अव्ययीभावसमास इस प्रकार जानना चाहिये—ग्राम के समीप-.. 'अनुग्राम', नदी के समीप --'अनुनदिकम्', इसी प्रकार अनुस्पर्शम्, अनुचरितम् प्रादि अव्ययीभावसमास के उदाहरण हैं। विवेचन--अव्ययीभावसमास में पूर्व पद अव्यय रूप और उत्तर पद नाम होता है तथा अन्त में सदा नपंसलिंग और प्रथमा विभक्ति का एकवचन रहता है। यह उदाहरणों से स्पष्ट है। एकशेषसमास 301. से कि तं एगसेसे समासे ? एगसेसे समासे जहा एगो पुरिसो तहा बहबे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो, जहा एगो साली तहा बहवे सालिणो जहा बहबे सालिणो तहा एगो साली / से तं एगसेसे समासे / से तं सामासिए / [301 प्र.| भगवन् ! एकशेषसमास किसे कहते हैं ? [301 उ.] आयुष्मन् ! जिसमें एक शेष रहे, वह एकशेषसमास है। वह इस प्रकार जैसा एक पुरुष वैसे अनेक पुरुष और जैसे अनेक पुरुष वैसा एक पुरुष, जैसा एक कार्षापण (स्वर्ण मुद्रा) वैसे अनेक कार्षापण और जैसे अनेक कार्षापण वैसा एक कार्षापण, जैसे एक शालि वैसे अनेक शालि और जैसे अनेक शालि वैसा एक शालि इत्यादि एकशेषसमास के उदाहरण हैं। इस प्रकार से सामासिकभावप्रमाणनाम का प्राशय जानना चाहिये। विवेचन-एकशेषसमास विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 [अनुयोगद्वारसूत्र समान रूप वाले दो या दो से अधिक पदों के समास में एक पद शेष रहे और दूसरे पदों का लोप हो जाये तो उसे एकशेषसमास कहते हैं। इसमें स्वरूपाणामेकशेषएकविभक्तौ' इस सूत्र के अनुसार एक ही पद शेष रहता है और जो एक पद शेष रहता है वह भी द्विवचन में द्वित्व का और बहुवचन में बहुत्व का वाचक होता है / जैसे—'पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषो', 'पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषाः'। समानार्थक विरूप पदों में भी एकशेषसमास होता है। जैसे वक्रदण्डश्च कुटिलदण्डश्चेति वक्रदण्डौ अथवा कुटिलदण्डौ / एक व्यक्ति की विवक्षा में 'एकः पुरुषः' और बहुत व्यक्तियों की विवक्षा होने पर 'बहवः पुरुषाः' प्रयोग होता है / इस बहुवचन की विवक्षा में एक ही 'पुरुष' पद अवशिष्ट रहता है और शेष पद लुप्त हो जाते हैं। बहुत व्यक्तियों की विवक्षा में पुरुषा: ऐसा बहुवचनात्मक प्रयोग होता है, किन्तु जाति की विवक्षा में एकवचन रूप एक: पुरुषः प्रयोग होता है / क्योंकि जाति के एक होने से बहुवचन का प्रयोग नहीं होता है / इसी प्रकार एकः कर्षापणः, बह्वः कार्षापणा: आदि पदों में भी जानना चाहिये। यह एकशेषसमास का आशय है। मुख्य समासभेदों के बोधक सूत्र-व्याकरणशास्त्र के अनुसार संक्षेप में इस प्रकार हैं--प्रायः पूर्वपदार्थप्रधान अव्ययीभाव, उत्तरपदार्थप्रधान तत्पुरुष, अन्यपदार्थप्रधान बहुव्रीहि, उभयपदार्थप्रधान द्वन्द्व और संख्याप्रधान द्विगु समास होता है। कर्मधारय तत्पुरुष का और द्विगु कर्मधारय समास का भेद है। अब भावप्रमाण के दूसरे भेद तद्धितज नाम की प्ररूपणा करते हैं। तद्धितजभावप्रमाणनाम 302. से किं तं तद्धियए ? तद्धियए--- कम्मे 1 सिप्प 2 सिलोए 3 संजोग 4 समीवओ 5 य संज हे 6 / इस्सरिया 7 ऽवच्चेण 8 य तद्धितणामं तु अट्टविहं / / 12 // [302 प्र.] भगवन् ! तद्धित से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? |302 उ.] आयुष्मन् ! 1. कर्म, 2. शिल्प, 3. श्लोक, 4. संयोग, 5. समीप, 6. संयूथ, 7. ऐश्वर्य, 8. अपत्य, इस प्रकार तद्धितनिष्पन्ननाम आठ प्रकार का है। 92 विवेचन-गाथोक्त क्रमानुसार अब तद्धितज नामों का प्राशय स्पष्ट करते हैं। कर्मनाम ___303. से कि तं कम्मणामे? कम्मणामे दोस्सिए सोत्तिए कप्पासिए सुत्तवेतालिए भंडवेतालिए कोलालिए / से तं कम्मनामे। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण [223 [303 प्र.] भगवन् ! कर्मनाम का क्या स्वरूप है ? __ [303 उ.] आयुष्मन् ! दौष्यिक, सौत्रिक, काासिक, सूबवैचारिक, भांडवैचारिक, कौलालिक, ये सब कर्मनिमित्तज नाम हैं। विवेचन--सूत्र में कर्म तद्धितज नाम के उदाहरण दिये हैं / कर्म शब्द का प्रयोग यहाँ पण्य– बेचने योग्य पदार्थ अर्थ में हुआ है। यथा-दुष्यं पण्यमस्येति दौष्यिक:--वस्त्र को बेचने वाला / इसी प्रकार सूत बेचने वाला सौत्रिक आदि का प्राशय जानना चाहिये / ये दौष्यिक आदि शब्द 'तदस्य पण्यं' सूत्र से ठक् प्रत्यय होकर 'ठस्येकः' ठ के स्थान पर इक् और आदि में वृद्धि होने से बने हैं। पाठभेद-प्रस्तुत सूत्र में किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में पाठभेद भी पाया जाता है, जो इस प्रकार है--- 'तणहारए कट्ठहारए पत्तहारए दोसिए सोत्तिए कप्पासिए भंडवेपालिए कोलालिए.......'' विशिष्ट शब्दों का अर्थ-दोस्सिए-दौष्यिक-वस्त्र का व्यापारी, सोत्तिए सौत्रिक--- सूत का व्यापारी, कपासिए-कासिक-कपास का व्यवसायी, सुत्तवेतालिए-सूत्रवैचारिक-- सूत बेचने वाला, भंडवेतालिए-भांडवैचारिक-बर्तन बेचने वाला, कोलालिए-कौलालिकमिट्टी के पात्र बेचने वाला। शिल्पनाम 304. से कि तं सिघ्पनामे ? सिप्पनामे तुण्णिए तंतुवाइए पट्टकारिए उवट्टिए वरुटिए भुजकारिए कटुकारिए छत्तकारिए बज्मकारिए पोत्यकारिए चित्तकारिए दंतकारिए लेप्पकारिए सेलकारिए कोट्टिमकारिए। से तं सिप्पनामे। [304 प्र.] भगवन् ! शिल्पनाम का क्या स्वरूप है ? [304 उ.] आयुष्मन् ! तौनिक तान्तुवायिक, पाटुकारिक, प्रौढत्तिक वारु टिक मौजकारिक, काष्ठकारिक छात्रकारिक वाह्यकारिक पौस्तकारिक चैत्रकारिक दान्तकारिक लैप्यकारिक शैलकारिक कौट्टिमकारिक / यह शिल्पनाम हैं। विवेचन-सत्र में शिल्प-कला के आधार से स्थापित कुछ नामों का संकेत किया है। इसमें 'शिल्पम्' सूत्र से तद्धित प्रत्यय ठक् हुआ है और ठक् को इक् आदि होने का विधान पूर्ववत् जानना चाहिये। सूत्रगत कतिपय शब्दों के अर्थ-तुण्णिए–तौन्निक-रफू करने वाला शिल्पी, तंतुवाए--- तान्तुवायिक-जुलाहा, पट्टकारिए-पट्ट बनाने वाला शिल्पी, उव्वट्टिए-ौवृत्तिक—पीठी आदि से शरीर के मैल को दूर करने वाला शिल्पी नाई, वरुटिए--वारुटिक-एक शिल्प विशेष जीवी, मुजकारिए----मौञ्जकारिक ----मंज की रस्सी बनाने वाला शिल्पी, कटुकारिए---काष्ठकारिकबढ़ई, छत्तकारिए -छात्रकारिक--छाता बनाने वाला शिल्पी, बज्झकारिए बाह्यकारिक-रथ प्रादि बनाने वाला शिल्पी, पोत्थकारिए--पौस्तकारिक--जिल्दसाज, चित्तकारिए–चैत्रकारिक-~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [अनुयोगहारसूत्र चित्र बनाने वाला शिल्पी, दंतकारिए-दान्तकारिक-दांत वनाने वाला शिल्पी, लेप्पकारिएलैप्यकारिक-मकान बनाने वाला शिल्पी, सेलकारिए-शैलकारिक-पत्थर घड़ने वाला शिल्पी, कोट्टिमकारिए-कौट्टिमकारिक-खान खोदने वाला शिल्पी / श्लोकनाम 305. से किं तं सिलोयनामे ? सिलोयनामे समणे माहणे सन्चातिही। से तं सिलोयनामे / [305 प्र.] भगवन् ! श्लोकनाम किसे कहते हैं ? [305 उ.] प्रायुष्मन् ! सभी के अतिथि श्रमण, ब्राह्मण श्लोकनाम के उदाहरण हैं / विवेचन-सूत्र में उदाहरण द्वारा इलोकनाम की व्याख्या की है / जिसका आशय यह है-- श्लोक अर्थात् यश के अर्थ में तद्धित प्रत्यय होने पर निष्पन्न होने वाला नाम श्लोकनाम है / उदाहरण रूप श्रमण और ब्राह्मण शब्दों में 'अर्शादिभ्योऽच' सूत्र द्वारा प्रशस्तार्थ में मत्वर्थीय 'अच्' प्रत्यय हुया है और तपश्चर्यादि श्रम से युक्त होने से श्रमण और ब्रह्म (आत्मा) के पाराधक होने से ब्राह्मण प्रशस्त सभी के अतिथि-~-संमाननीय माने जाने से श्लोकनाम के उदाहरण हैं। संयोगनाम 306. से किं तं संजोगनामे ? संजोगनामे रणो ससुरए, रणो सालए, रणो सड्ढुए, रणो जामाउए, रन्नो भगिणीवतो। से तं संजोगनामे। [306 प्र.] भगवन् ! संयोगनाम किसे कहते हैं ? [306 उ.] आयुष्मन् ! संयोगनाम का रूप इस प्रकार समझना चाहिये-राजा का ससुर-राजकीय ससुर, राजा का साला-राजकीय साला, राजा का साढू-राजकीय साटू, राजा का जमाई राजकीय जमाई (जामाता), राजा का बहनोई-- राजकीय बहनोई इत्यादि संयोगनाम हैं। विवेचन--सूत्र में संबन्धार्थ में तद्धित प्रत्यय लगाने से निष्पन्न संयोगनामों का उल्लेख है। सूत्र में तो 'रण्णो ससुरए' इत्यादि विग्रह मात्र दिखलाया है। जिनका अर्थ यह हुआ---राज्ञः अयं राजकीयः श्वसुरः इत्यादि / इन प्रयोगों में 'राज्ञः कच्' इस मूत्र से राजन् शब्द में 'छ' प्रत्यय होकर 'छ' को 'इय्' प्रत्यय हुअा है / इसलिये ये और इसी प्रकार के अन्य नाम संयोगनिष्पन्न तद्धितज नाम जानना चाहिये। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाधिकार निरूपण] [222 समोपनाम 307. से कितं समीवनामे ? समोबनामे गिरिस्स समीवे णगरं गिरिणगरं, विदिसाए समीवे णगरं बेदिसं, देनाए समीवे णगरं बेनायडं, तगराए समीवे जगरं तगरायडं / से तं समीवनामे / [307 प्र.] भगवन् ! समीपनाम किसे कहते हैं ? [307 उ.] आयुष्मन् ! समीप अर्थक तद्धित प्रत्यय-निष्पन्ननाम-गिरि के समीप का नगर गिरिनगर, विदिशा के समीप का नगर वैदिश, वेन्ना के समीप का नगर वेन्नातट (वैन्न), तगरा के समीप का नगर तगरातट (तागर) आदि रूप जानना चाहिये। विवेचन--सूत्रोक्त नाम समीप-निकट-पास अर्थ में तद्धित 'अण्' प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होने के कारण समीपार्थबोधक तद्धितज नाम हैं / संयथनाम 308. से किं तं संजूहनामे ? संजहनामे तरंगवतिक्कारे मलयवतिकारे अत्ताणुसद्विकारे बिदुकारे। से तं संजूहनामे / [308 प्र. भगवन् ! संयुथनाम किसे कहते हैं ? [308 उ.] आयुष्मन् ! तरंगवतीकार, मलयवतीकार, आत्मानुषष्ठिकार, बिन्दुकार आदि नाम संयूथनाम के उदाहरण है। विवेचन -- सूत्र में संयूथनाम का स्वरूप बतलाने के उदाहरणों का उल्लेख किया है। जिसका प्राशय इस प्रकार है---- ग्रंथरचना को संयूथ कहते हैं / यह ग्रंथरचना रूप संयूथ जिस तद्धित प्रत्यय से सूचित किया जाता है, वह संयूथार्थ तद्धित प्रत्यय से निष्पन्ननाम संयूथनाम कहलाता है। मूल में तरंगवतीकार, मलयवतीकार जो निर्देश किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि तरंगवती नामक कथा ग्रन्थ का करनेवाला (लेखक) तरंगवतीकार, मलयवती ग्रंथ का कर्ता मलयवतीकार कहलाता है / इसी प्रकार प्रात्मानुषष्ठि, बिन्दुक आदि ग्रन्थों के लिये भी समझ लेना चाहिये। ऐश्वर्यनाम 306. से किं तं ईसरियनामे ? ईसरियनामे राईसरे तलवरे माडंबिए कोडुबिए इन्भे सेट्ठी सत्यवाहे सेणावई। से तं ईसरियनामे। [309 प्र.] भगवन् ! ऐश्वर्यनाम का क्या रूप है ? [309 उ.] आयुष्मन् ! ऐश्वर्य द्योतक शब्दों से तद्धित प्रत्यय करने पर निष्पन्न ऐश्वर्यनाम Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र राजेश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सार्थवाह, सेनापति आदि रूप हैं। यह ऐश्वर्यनाम का स्वरूप है / विवेचन-सूत्र में उल्लिखित ऐश्वर्यद्योतक नाम स्वार्थ में 'कष्' प्रत्यय लगाने से निष्पन्न हुए हैं / इसीलिये ये सभी नाम ऐश्वर्यबोधक तद्धितज नाम माने गये हैं। अपत्यनाम 310. से किं तं अवच्चनामे ? . अवञ्चनामे तित्थयरमाया चक्कट्टिमाया बलदेवमाया वासुदेवमाया रायमाया गणिमाया वायगमाया / से तं अवच्चनामे / से तं तद्धिते। [310 प्र.] भगवन् ! अपत्यनाम किसे कहते हैं ? [310 उ.] आयुष्मन् ! अपत्य-पुत्र से विशेषित होने अर्थ में तद्धित प्रत्यय लगाने से निष्पन्ननाम इस प्रकार हैं-तीर्थंकरमाता, चक्रवर्तीमाता, बलदेवमाता, वासुदेवमाता, राजमाता, गणिमाता, वाचकमाता आदि ये सब अपत्यनाम हैं। इस प्रकार से तद्धितप्रत्यय से जन्य नाम की वक्तव्यता है / विवेचन--सूत्रोक्त तीर्थकरमाता आदि नाम अपत्यार्थबोधक तद्धितप्रत्यय निष्पन्न हैं। तित्थयरमाया अर्थात् तीर्थंकरोऽपत्यं यस्याः सा तीर्थंकरमाता-तीर्थकर जिनका पुत्र है, वह तीर्थकरमाता, यहाँ तीर्थकर रूप सुप्रसिद्ध से अप्रसिद्ध माता को विशेषित किया गया है अर्थात तीर्थकरादि के कारण माता विशेषित-- संमानार्ह हुई है / इसी प्रकार चक्रवर्तीमाता आदि नामों का अर्थ समझ लेना चाहिये। उपर्युक्त तद्धितप्रत्ययनिष्पन्ननाम की व्याख्या है / अब धातुज नाम का स्वरूप बतलाते हैं। धातुजनाम 311. से कि तं धाउए ? धाउए भू सत्तायां परस्मैभाषा, एध वृद्धौ, स्पर्द्ध संहर्षे, गाध प्रतिष्ठा-लिप्सयोपॅन्थे च, बाध लोउने / से तं धाउए। [311 प्र.] भगवन् ! धातुजनाम का क्या स्वरूप है ? [311 उ.] आयुष्मन् ! परस्मैपदी सत्तार्थक भू धातु, वृद्धयर्थक एध् धातु, संघर्षार्थक पद्धं धातु, प्रतिष्ठा, लिप्सा या संचय अर्थक गाधू और विलोडनार्थक बाधृ धातु आदि से निष्पन्न भव, एधमान आदि नाम धातुजनाम हैं। विवेचन–सूत्र में धातुजनाम का वर्णन किया है कि जो नाम धातु से निष्पन्न होते हैं वे धातुजनाम हैं। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] 227 निरुक्तिजनाम 312. से कि तं निरुत्तिए ? निरुत्तिए मह्यां शेते महिषः, समति च रौति च समरः, मुहर्मुहुर्लसति मुसलं, कपिरिव लम्बते त्थच्च करोति कपित्थं, चिदिति करोति खल्लं च भवति चिक्खल्लं, ऊर्ध्वकर्णः उलका, मेखस्य माला भेखला / से तं निरत्तिए / से तं भावप्पमाणे / से तं पमाणनामे / से तं बसनामे / से तं नामे। / नामे त्ति पयं सम्मत्तं / / [312 प्र.] भगवन् ! निरुक्तिजनाम का क्या प्राशय है ? [312 उ.] प्रायमन ! (निरुक्ति से निष्पन्ननाम निरुक्तिजनाम हैं / ) जैसे-मह्यां शेते महिषः-- पृथ्वी पर जो शयन करे वह महिष-भैंसा, भ्रमति रौति इति भ्रमरः--भ्रमण करते हुए जो शब्द करे वह भ्रमर, मुहर्मुहुर्लसति इति मुसलं-जो बारंबार ऊंचा-नीचा हो वह मूसल, कपिरिव लम्बते स्थच्चं (चेष्टा) करोति इति कपित्थं-कपि-बदर के समान वृक्ष की शाखा पर चेष्टा करता है वह कपित्थ, चिदिति करोति खल्लं च भवति इति चिवखल्लं-पैरों के साथ जो चिपके वह चिक्खल (कीचड़), ऊवकर्णः इति उलक:-जिसके कान ऊपर उठे हों वह उलूक (उल्लू), मेखस्य माला मेखला---मेघों की माला मेखला इत्यादि निरुक्तिजतद्धित यह समग्न भावप्रमाणनाम का कथन है। इस प्रकार से प्रमाणनाम, दस नाम और नामाधिकार की वक्तव्यता समाप्त हुई। विवेचन--सूत्र में निरुक्तिजनाम की उदाहरण द्वारा व्याख्या करके भावप्रमाण आदि नामाधिकार की समाप्ति का सूचत किया है / क्रिया, कारक, भेद और पर्यायवाची शब्दों द्वारा शब्दार्थ के कथन करने को निरुक्ति कहते हैं। इस निरुक्ति से निष्पन्न नाम निरुक्तिजनाम कहलाता है। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत महिष आदि नाम पृषोदरादिगण से सिद्ध हैं। सूत्रोक्त से तं भावप्पमाणे प्रादि पद उपसंहारार्थक हैं। अब उपक्रम के तीसरे भेद प्रमाणाधिकार का वर्णन करते हैं। प्रमाण के भेद 313. से कि तं पमाणे? पमाणे चन्विहे पण्णत्ते। तं जहा--दन्वप्पमाणे 1 खेत्तप्पमाणे 2 कालपमाणे 3 भावप्पमाणे 4 / [313 प्र.] भगवन् ! प्रमाण का स्वरूप क्या है ? [313 उ.] आयुष्मन् ! प्रमाण चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है। वे चार प्रकार ये हैं-१. द्रव्यप्रमाण, 2. क्षेत्रप्रमाण, 3. कालप्रमाण और 4. भावप्रमाण / Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन-प्रमाण शब्द के अर्थ-प्रसंगानुसार प्रमाण शब्द का प्रयोग हमारे दैनिक कार्यकलापों में होता है और वह प्रयोग किस-किस आशय को स्पष्ट करने के लिये किया जाता है, इसका कुछ संकेत शब्दकोष में इस प्रकार से किया है-यथार्थज्ञान, यथार्थज्ञान का साधन, नाप, माप, परिमाण, संख्या, सत्यरूप से जिसको स्वीकार किया जाये, निश्चय, प्रतीति, मर्यादा, मात्रा, साक्षी आदि। प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति—प्रमाण शब्द 'प्र' और 'माण' इन दो शब्दों से निष्पन्न है / 'प्र' उपसर्ग है और 'माण' माङ, धातु का रूप है / व्याकरण में माऊ धातू अवबोध और मान अर्थ के लिये प्रयुक्त होती है / 'प्र' का प्रयोग अधिक स्पष्ट अर्थ का बोध कराने के लिये किया जाता है तथा मान का अर्थ होता है ज्ञान या माप, नाग आदि / शब्दशास्त्रियों ने प्रमाण शब्द की तीन प्रकार से व्युत्पत्ति की है-प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन, प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्-जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा मान किया जाता है या प्रमितिमात्र-मान करना प्रमाण है। अर्थात् वस्तुत्रों के स्वरूप का जानना या मापना प्रमाण है। यहाँ यह जानना चाहिये कि प्रमिति प्रमाण का फल है / अतएव जब फल रूप प्रमिति को प्रमाण कहा जाता है तब उस प्रमिति के कारण-भूत अन्य साधनों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रमाण शब्द के अतिविस्तृत अर्थ को लेकर उसके चार भेद किये हैं। इसमें दूसरे दार्शनिकों की तरह केवल प्रमेयसाधक तीन, चार या छह श्रादि प्रमाणों का समावेश नहीं है। स्थानांगसूत्र में भी इन्हीं चार भेदों का नामोल्लेख है' और वहाँ इन भेदों की गणना के अतिरिक्त विशेष कुछ नहीं कहा गया है / किन्तु जैन व्याख्यापद्धति का विस्तार से वर्णन करने वाला यह अनुयोगद्वारसूत्र है / जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन व्याख्यापद्धति का क्या दृष्टिकोण है ? जैन शास्त्रों में प्रत्येक शब्द की लाक्षणिक व्याख्या ही नहीं की है, अपितु उस शब्द का किन-किन संभावित अर्थों में और किस रूप में प्रयोग किया जाता है और उस समय उसका क्या अभिधेय होता है, यह भी स्पष्ट किया गया है / जो आगे किये जाने वाले वर्णन से स्पष्ट है। प्रमाण शब्द के नियुक्तिमूलक अर्थ के समान होने पर भी भारतीय मनीषियों ने प्रमाण के भिन्न-भिन्न लक्षण निरूपित किये हैं। फिर भी भारतीय ही नहीं अपितु विश्व मनीषा का इस बिन्दु पर मतैक्य है कि यथार्थ ज्ञान प्रमाण है / ज्ञान और प्रमाण का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है / ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य / ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है। सम्यक निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है और इससे विपरीत निर्णायक ज्ञान अयथार्थ, किन्तु प्रमाण सिर्फ यथार्थ ज्ञान होता है / प्रमाण की चतुर्विधता का कारण-जैन वाङ्मय में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का बड़ा महत्त्व है। किसी भी विषय की चर्चा तब तक पूर्ण नहीं समझी जाती जब तक उस विषय का वर्णन द्रव्यादि चार अपेक्षाओं से न किया जाये। क्योंकि जगत् की प्रत्येक वस्तु प्रदेश वाली है, वह उन प्रदेशों में सत रूप से रहती हुई उत्पाद-व्यय (उत्पत्ति-विनाश) रूप परिणति के द्वारा एक अवस्था से दसरी अवस्था में परिणत होती रहती है। इसीलिये लोक के पदार्थों का वर्णन द्रव्यदृष्टि से किया 1. चउबिहे पमाणे पन्नत्ते तं जहा-दब्वपमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे। -स्थानांग, स्थान 4 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण 229 जाता है। जब प्रत्येक द्रव्य प्रदेशवान् है तो उसका अवस्थान-प्राधार बताने के लिये क्षेत्र का और उस द्रव्य का उसी पर्याय रूप में अवस्थित रहने के समय का निर्धारण करने के लिये काल का एवं वस्तु के असाधारण भाव--स्वभाव-स्वरूप को जानने के लिये भाव का परिज्ञान होना आवश्यक है / इन चारों प्रकारों से ही पदार्थ का अस्तित्व पूर्ण या विशद रूप से जाना जा सकता है या समझाया जा सकता है / इसी कारण जैनदर्शन में प्रत्येक विषय के वर्णन की ये चार मुख्य अपेक्षाएं हैं। साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि प्रमाण शब्द यहाँ न्यायशास्त्रप्रसिद्ध अर्थ का वाचक नहीं किन्तु व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। जिसके द्वारा कोई वस्तु मापी जाए, नापी जाए, तोली जाए या अन्य प्रकार से जानी जाए वह भी प्रमाण है / यह बात मूलपाठोक्त प्रमाण के चार भेदों से स्पष्ट है। इस प्रकार सामान्य रूप से प्रमाण के भेदों का निर्देश करने के पश्चात् अब उनका विस्तार से वर्णन प्रारम्भ किया जाता है / द्रव्यप्रमाण प्रथम है, अतएव पहले उसी का विचार करते हैं / द्रव्यप्रमाणनिरूपण 314. से कि तं दध्वपमाणे? दव्वपमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पदेसनिष्फण्णे य 1 विभागनिष्फण्णे य 2 / [314 प्र.] भगवन् ! द्रव्यप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [314 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्यप्रमाण दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, यथा-प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न / विवेचन-शिष्य ने प्रश्न किया है कि भगवन् ! प्रमाण के चार भेदों में से प्रथम द्रव्यप्रमाण का क्या स्वरूप है ? और उत्तर में आगमिक शैली के अनुसार बताया कि द्रव्य विषयक प्रमाण दो प्रकार का है—१. प्रदेश निष्पन्न और 2. विभागनिष्पन्न / __ इस प्रकार से द्रव्यप्रमाण के दो भेदों को जानकर शिष्य पुनः उन दोनों के स्वरूपविशेष को जानने के लिये पहले प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण बिषयक जिज्ञासा प्रस्तुत करता है / प्रदेशनिष्यन्नद्रव्यप्रमाण 315. से कि तं पदेसनिष्फण्णे? पदेसनिप्फण्णे परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव दसपएसिए संखिज्जपएसिए अखिन्जपएसिए अणंतपदेसिए / से तं पदेसनिष्फण्णे / [315 प्र.] भगवन् ! प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [315 उ.] आयुष्मन् परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशों यावत् दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों, असंख्यात प्रदेशों और अनन्त प्रदेशों से जो निष्पन्न-सिद्ध होता है, उसे प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहते हैं। विवेचन द्रव्य विषयक प्रमाण को द्रव्यप्रमाण कहते हैं, अर्थात् द्रव्य के विषय में जो प्रमाण किया जाए अथवा द्रव्यों का जिसके द्वारा प्रमाण किया जाये या जिन द्रव्यों का प्रमाण किया जाए, Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] अनुयोगद्वारसूत्र उसे द्रव्यप्रमाण कहते हैं और उसमें जो एक, दो, तीन आदि प्रदेशों से निष्पन्न-सिद्ध हो उसे प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहते हैं / इस प्रदेश निष्पन्न द्रव्यप्रमाण में परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध तक के सभी द्रव्यों का समावेश है। परमाणु एक प्रदेश वाला है, उससे लेकर दो, तीन, चार आदि यावत् अनन्त परमाणु प्रों के संयोग से निष्पन्न स्कन्ध प्रमाण द्वारा ग्राह्य होने के कारण प्रमेय हैं, तथापि उनको भी रूढिवशात प्रमाण इसलिये कहते हैं कि लोक में ऐसा व्यवहार देखा जाता है। यथा-जो द्रव्य धान्यादि द्रोणप्रमाण से परिमित होता है, उसे यह 'धान्य द्रोण' है ऐसा कहते हैं / क्योंकि 'प्रमीयते यत्तत् प्रमाणम्जो मापा जाये, वह प्रमाण' इस प्रकार की कर्मसाधन रूप प्रमाण शब्द की वाच्यता इन परमाणु आदि द्रव्यों में संगत हो जाती है / इसीलिये वे भी प्रमाण कहे जाते हैं / इसके अतिरिक्त जब 'प्रमीयतेऽनेन इति प्रमाणम्' इस प्रकार से प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति करणसाधन में की जाती है तब परमाणु आदि द्रव्यों का एक, दो, तीन आदि परमाणुओं से निष्पन्न स्वरूप मुख्य रूप से प्रमाण होता है। क्योंकि वे उसके द्वारा ही जाने जाते हैं तथा इस स्वरूप के साथ सम्बन्धित होने के कारण परमाणु आदि द्रव्य भी उपचार से प्रमाणभूत कहे जाते हैं। जब प्रमाण शब्द की 'प्रमितिः प्रमाणम्' इस प्रकार से भावसाधन में व्युत्पत्ति की जाती है तब प्रमिति प्रमाण शब्द की वाच्य होती है और प्रमिति, प्रमाण एवं प्रमेय के अधीन होने से प्रमाण और प्रमेय उपचार से प्रमाण शब्द के वाच्य सिद्ध होते हैं / इस प्रकार कर्मसाधन पक्ष में परमाणु आदि द्रव्य मुख्य रूप से एवं करण और भाव साधन पक्ष में वे उपचार से प्रमाण हैं / इसीलिये परमाणु आदि को प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहा है। परमाणु आदि में प्रदेशनिष्पन्नता स्वगत प्रदेशों से ही जाननी चाहिये / क्योंकि स्वगत प्रदेशों के द्वारा ही प्रदेशनिष्पन्नता का विचार किया जाना सम्भव है। प्रदेश का लक्षण-आकाश के अविभागी अंश को प्रदेश कहते हैं / अर्थात् आकाश के जितने भाग को एक अविभागी पुद्गल परमाणु धेरता है, उसे प्रदेश' तथा जो स्वयं आदि, मध्य और अन्तरूप है, ऐसे निविभाग (पुद्गल) द्रव्य को परमाणु कहते हैं / ऐसे एक से अधिक दो आदि यावत् अनन्त परमाणुओं के स्कन्धन-संघटन से निष्पन्न होने वाला पिंड स्कन्ध कहलाता है। यहाँ प्रदेशनिष्पन्न के रूप में मूर्त---रूपी पुद्गल द्रव्य को ग्रहण किया गया है / क्योंकि उसी में स्थूल रूप से पकड़ने, रखने आदि का व्यापार प्रत्यक्ष दिखलाई देता है। जैनागमों में मूर्त और अमूर्त सभी द्रव्यों के प्रदेशों का प्रमाण इस प्रकार बतलाया हैधर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेश अधर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेश (एक) जीवास्तिकाय - असंख्यात प्रदेश 1. द्रव्यसंग्रह गा. 27 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण | [231 आकाशास्तिकाय - अनन्त प्रदेश __काल द्रव्य - अप्रदेशी (एक प्रदेशमात्र) पुद्गलास्तिकाय-संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश / ' विभागनिष्पन्नद्रव्यप्रमारण 316. से कि तं विभागनिष्फणे? विभागनिष्फग्णे पंचविहे पण्णते। तं जहा—माणे 1 उम्माणे 2 ओमाणे 3 गणिमे 4 पडिमाणे 5 / [316 प्र.] भगवन् ! विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण क्या है ? [316 उ.] आयुष्मन् ! विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण पाँच प्रकार का है। वह इस प्रकार१. मानप्रमाण 2. उन्मानप्रमाण 3. अवमानप्रमाण 4. गणिमप्रमाण और 5. प्रतिमानप्रमाण / विवेचन--सूत्र में भेदों के माध्यम से विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण का वर्णन प्रारम्भ करने का निर्देश किया है। विशिष्ट अथवा विविध भाग-भंग-विकल्प-प्रकार को विभाग कहते हैं। अतएव जिस द्रव्यप्रमाण की निष्पत्ति-सिद्धि स्वगत प्रदेशों से नहीं किन्तु विभाग के द्वारा होती है, वह विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि धान्यादि द्रव्यों के मान आदि का स्वरूप निर्धारण स्वगत प्रदेशों से नहीं किन्तु 'दो असई की एक पसई' इत्यादि विभाग से होती है, तब उसको विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहते हैं / मान आदि के अर्थ इस विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के पांचों प्रकारों के अर्थ इस प्रकार हैं-- मान--द्रव्य-तरल तेल आदि तथा ठोस धान्य आदि को मापने का पात्रविशेष / उन्मान--- तोलने की तराज आदि / अवमान-क्षेत्र को मापने के दण्ड, गज आदि / गणिम–एक, दो, तीन आदि गणना (गिनती)। प्रतिमान-जिसके द्वारा स्वर्ण आदि पदार्थों का वजन किया जाये अथवा आगे के मानों की व्यवस्था की आद्य इकाई। तत्त्वार्थराजवार्तिक में गणना प्रमाण की अपेक्षा उक्त पांच भेदों के अतिरिक्त तत्प्रमाण' नामक एक छठा भेद और बताया है और उसकी व्याख्या की है—मणि आदि की दीप्ति, अश्वादि की ऊंचाई आदि गुणों के द्वारा मूल्यनिर्धारण करने के लिये तत्प्रमाण का उपयोग होता है / जैसे मणि की प्रभा ऊंचाई में जहाँ तक जाये, उतनी ऊंचाई तक का स्वर्ण का ढेर उसका मूल्य है, इत्यादि / मानप्रमाण 317. से कि तंमाणे? माणे दुविहे पणते / तं जहा-धन्नमाणप्पमाणे य 1 रसमाणप्पमाणे य 2 / 1. तत्त्वार्थ सूत्र 5/7-11 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [अनुयोगद्वारसूत्र [317 प्र.] हे भगवन् ! मानप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [317 उ.] अायुष्मन् ! मानप्रमाण दो प्रकार का है-१. धान्यमानप्रमाण और 2. रसमानप्रमाण। विवेचन-विवेचन करने की विधा के अनुसार यहाँ मानप्रमाण का विस्तार से वर्णन करने के लिये उसके दो भेद किये हैं। इन दोनों भेदों में से पहले धान्यमानप्रमाण का निरूपण किया जाता है। धाग्यमानप्रमाण 318. से कि तंधण्णमाणप्पमाणे? धण्णमाणप्पमाणे दो असतोओ पसती, दो पसतीओ सेतिया, चत्तारि सेतियाओ कुलओ, चत्तारि कुलया पत्थो, चत्तारि पत्थया आढयं, चत्तारि आढयाई दोणो, सढेि आढयाइं जहन्नए कुभे, असीतिआढयाई मज्झिमए कुने, आडयसतं उक्कोसए कुमे, अट्ठाढयसतिए वाहे / [318 प्र.] भगवन् ! धान्यमानप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [318 उ.] आयुष्मन् ! (वह असति, प्रसृति आदि रूप है, अतएव) दो असति की एक प्रसति होती है, दो प्रसति की एक सेतिका. चार सेतिका का एक कडब, चार कडब का एक प्र प्रस्थों का एक प्राढक, चार पाठक का एक द्रोण, साठ आढक का एक जघन्य कुंभ, अस्सी पाठक का एक मध्यम कुंभ, सौ आढक का एक उत्कृष्ट कुंभ और आठ सौ आढकों का एक बाह होता है। 316. एएणं धण्णमाणप्पमाणेणं कि पयोयणं ? एतेणं धण्णमाणप्पमाणेणं मुत्तोली-मुरव-इड्डर-अलिंद-अपवारिसंसियाणं धण्णाणं धण्णमाणप्पमाणनिवित्तिलक्खणं भवति / से तं धण्णमाणप्पमाणे। [319 प्र.] भगवन् ! इस धान्यमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? [319 उ.] आयुष्मन् ! इस धान्यमानप्रमाण के द्वारा मुक्तोली (ऐसी कोठी जो खड़े मदंग के प्राकार जैसी ऊपर-नीचे संकडी और मध्य में कछ विस्तृत, चौड़ी होती है), मुरव (सुत का बना हुआ बड़ा बोरा, जिसे कहीं कहीं 'फट्ट' भी कहते हैं और उसमें अनाज भरकर बेचने के लिये मंडियों, बाजारों में लाया जाता है),इड्डर (खास--यह बकरी ग्रादि के बालों, सूत या सूतली की बनी हुई होती है और इसमें अनाज भरकर पीठ पर लाद कर लाते है, कहीं-कहीं इसे गुण, गोन, कोथला या बोरा भी कहते हैं), अलिंद (अनाज को भरकर लाने का बर्तन, पात्र, डलिया आदि) और अपचारि (बंडा, खंती, धान्य को सुरक्षित रखने के लिये जमीन के अन्दर या बाहर बनायी गयी कोठी, अाज की भाषा में 'सायलो' ) में रखे धान्य के प्रमाण का परिज्ञान होता है। इसे ही धान्यमानप्रमाण कहते हैं। विवेचन धान्यविषयक मान (माप) धान्यमानप्रमाण कहलाता है। वह असति, प्रसृति आदि रूप है / असति यह धान्यादि ठोस वस्तुओं के मापने की आद्य इकाई है। टीकाकार ने इसे अवाङ मुख हथेली रूप कहा है। आगे के प्रसृति आदि मापों की उत्पत्ति का मूल यह असति है, इसी से उन सब मापों की उत्पत्ति हुई है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [233 यद्यपि अधोमुख रूप से व्यवस्थापित हथेली का नाम असति है, लेकिन यहाँ मानप्रमाण के प्रसंग में यह अर्थ लिया जायेगा कि हथेली को अधोमुख स्थापित करके मुट्ठी में जितना धान्य समा जाये, तत्परिमित धान्य असति है। असति के अनन्तर प्रसूति का क्रम है। इसका प्राकार नाव की प्राकृति जैसा होता है। अर्थात परस्पर जड़ी हुई नाव के आकार में फैली हुई हथेलियां (खोवा) एक प्रसृति है। इसके बाद के मानों का स्वरूप सूत्र में ही स्पष्ट कर दिया गया है / धान्यमानप्रमाण के लिये उल्लिखित संज्ञाय मागधमान- मगधदेश में प्रसिद्ध मापों की बोधक हैं। प्राचीन काल में मागधमान और कलिंगमान, यह दो तरह के माप-तौल प्रचलित थे / यह दोनों नाम प्रभावशाली राज्यशासन के कारण प्रचलित हुए थे। इनमें भी शताब्दियों तक मगध प्रशासनिक दृष्टि से समस्त भारत देश का और मुख्य रूप से उत्तरांचल भारत का केन्द्र होने से मगध के अतिरिक्त भारत के अन्यान्य प्रदेशों में भी मागधमान का अधिक प्रचलन और मान्यता थी। आयुर्वेदीय ग्रन्थों में माय-तौल के लिये मागधमान को आधार बनाकर मान-परिमाण की चर्चा इस प्रकार की है तीस परमाणुओं का एक त्रसरेणु होता है। छह सरेणुओं की एक मरीचि, छह मरीचि की एक राई, तीन राई का एक सरसों, आठ सरसों का एक यव (जो), चार जौ की एक रत्ती, छह रत्ती का एक माशा, चार माशे का एक शाण, दो शाण का एक कोल, दो कोल का एक कर्ष, दो कर्ष का एक अर्धपल, दो अर्धपल का एक पल, दो पल की एक प्रसृति, दो प्रसृतियों की एक अंजलि, दो अंजलि की एक मानिका, दो मानिका का एक प्रस्थ, चार प्रस्थ का एक प्राढक, चार आढक का एक द्रोण, दो द्रोणों का एक सूर्य, दो सूर्य की एक द्रोणी, चार द्रोणी की एक खारी होती है तथा दो हजार पल का एक भार और सौ पल की एक तुला होती है।' 1. त्रसरेणुर्बुधः प्रोक्तस्त्रिगता परमाणभिः / प्रकुचः षोडशी बिल्व पलमेवात्र कीर्त्यते / असरेणुस्तु पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते / / पलाभ्यां प्रतिज्ञेया प्रसतश्च निगद्यते / / जालान्तर्गते भानी यत्सूक्ष्म दृश्यते रजः / प्रसृतिभ्यामजलि: स्यात् कुडवो अर्द्ध शराबकः / तस्य विशत्तमो भागः परमाणः स उच्यते / / अष्टमानं च संज्ञेयं कुडवाभ्यां च मानिका / / षडवंशीभिर्मरीची स्यात्ताभिः षडभिस्तु राजिका / शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थः चतु:प्रस्थस्तथाढकम् / तिसभी राजकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधः // भाजन कांस्यपात्रं च चतुः षष्टिपलं च तत् / / यवोऽष्ट सर्षपै. प्रोक्तो गुजा स्याच्च चतुष्टयम् / चतुभिराढोण: कलशोनल्बणोन्मनो / षड़भिस्तु रक्तिकाभिस्स्यान्माषको हेमधान्यको / / उन्मानञ्च बटो राशिद्रोणपर्यायसंज्ञकाः / / माषश्चतुभि: शाणः स्यातहरणः स निगद्यते / द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुः षष्टिशरावकाः। टंकः स एव कथितस्तदद्वय कोल उच्यते / / शूपभ्यिां च भवेद द्रोणी वाहो गोणीच सास्मृता / / क्षद्रको बटकश्चैव द्रंक्षण: स निगद्यते / द्रोणीचतुष्टयं खारी कथिता सूक्ष्मबुद्धिभिः / कोलक्यं च कर्षः स्यात् स प्रोक्त: पाणिमानिका / / चतु:सहस्रपलिका षण्णवधिका च सा / / अक्षः पिच: पाणितलं किंचित पाणिश्च तिन्दुकम् / पलानां द्विसहस्र च भार एकः प्रकीर्तितः / विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता // तुला पलशतं ज्ञेया सर्वत्र वैष निश्चयः / / माषटंकाक्षविल्वानि कुडवः प्रस्थमाढकम् / करमध्यो हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः / राशिगोणी खारिकेति यथोत्तरचतुगुणा / / उदुवरं च पर्याय; कर्ष एक निगद्यते / / कुडव के लिये संकेत किया हैस्यात् कर्षाभ्यामद्ध पलं शूक्तिरष्टमिका तथा / मृदुस्तु वेणुलोहादेर्भाण्डं यच्चतुरंगुलम् / शुक्तिभ्यां च पलं ज्ञेयं मुष्टि राम्र चतुथिका / / बिस्तीणं च तथोच्चं च तन्मानं कुडवं वदेत् // Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र चार अंगुल लंबे और चार अंगूल चौड़े तथा चार अंगुल गहरे बांस अथवा लोहे आदि के पात्र को कुडव कहते हैं। (कुडव द्वारा दुध, जल, आदि द्रव पदार्थ मापे जाते हैं / ) इनको और इनके द्वारा मापे गये धान्य प्रादि को असति आदि कहने का कारण मान शब्द की करण और कर्म साधन निरुक्ति है। जन करणसाधन में “मीयते अनेन इति मानम्' अर्थात् जिसके द्वारा मापा जाये वह मान, यह निरुक्ति करते हैं तब असति आदि मान शब्द की बाच्य हैं और 'मीयते यत् तत् मानम्' अर्थात् जो मापा जाये वह मान, इस प्रकार की कर्मसाधन व्युत्पत्ति करने पर धान्य आदि वस्तुओं ही मान शब्द को वाच्य होती हैं। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये / धान्यमानप्रमाण का प्रयोजन स्पष्ट है कि इससे मुक्तोली आदि में भरे हुए धान्य, अनाज ग्रादि के प्रमाण का ज्ञान होता है / इस प्रकार से धान्यमान प्रमाण का प्राशय और उपयोग जानना चाहिये। अब रसमानप्रमाण का स्वरूप स्पष्ट करते हैंरसमानप्रमाण 320. से कि तं रसमाणप्पमाणे? रसमाणप्पमाणे घण्णभाणप्पमाणाओ चउभागविहिए अभितरसिहाजुत्ते रसमाणप्पमाणे विहिज्जति / तं जहा --च उस ट्ठिया 4, बत्तीसिया 8, सोलसिया 16, अटुभाइया 32, चउभाइया 64, अद्धाणी 128, माणी 256 / दो चउट्टियाओ बत्तीसिया, दो बत्तीसियाओ सोलसिया, दो सोलसियाओ अट्ठमातिया, दो अद्वभाइयाओ चउभाइया, दो चउभाइयाओ अद्धमाणी, दो अद्धमाणीओ माणी। [320 प्र.] भगवन् ! रसमानप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [320 उ.] आयुष्मन् ! (तरल पदार्थ विषय होने से) रसमानप्रमाण धान्यमानप्रमाण से चतुर्भाग अधिक और अभ्यन्तर शिखायुक्त होता है / वह इस प्रकार चार पल की एक चतुःषष्ठिका होती है। इसी प्रकार पाठ पलप्रमाण द्वाबिशिका, सालह पलप्रमाण पोशिका, बत्तीस पलप्रमाण अष्टभागिका, चौसठ पलप्रमाण चतुर्भागिका, एक सौ अट्ठाईस पलप्रमाण अर्धमानी और दो सौ छप्पन पलप्रमाण मानी होती है। अतः (इसका अर्थ यह हा कि) दो -चतुःपष्ठिका की एक द्वाविशिका, दो द्वात्रिशिका की एक पोडशिका, दो पोडशिकानों की एक अष्टभागिका, दो अष्टभागिकाओं की एक चतुर्भागिका, दो चतुर्भागिकाओं की एक अर्धमानी और दो अर्धमानियों की एक मानी होती है / 321. एतेणं रसमाणपमाणेणं कि पओयणं ? एएणं रसमाणपमाणेणं बारग-घडग-करग-किक्किरि-दइय-करोडि-कुडियसंसियाणं रसाणं रसमाणप्पमानिन्वित्तिलक्खणं भवइ / से तं रसमाणप्पमाणे / से तं माणे। [321 प्र.] 'भगवन् ! इस रसमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? [321 उ.] अायुष्मन् ! इस रसभानप्रमाण से वारक (छोटा घड़ा), घट् --कलश, करक (घट विशेष), किक्किरि (भांडविशेष), दृति (चमड़े से बना पात्र- कुष्पा), करोटिका (नाद जिसका मुख Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण || 235 चौड़ा होता है ऐसा बर्गन), कुंडिका (कुंडी) श्रादि में भरे हुए रसों (प्रवाही पदार्थों) के परिमाण का ज्ञान होता है / यह रसमानप्रमाण है। इस प्रकार मानप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये / विवेचन इन दा सूत्रों में रगमानप्रमाण का स्वरूप, धान्यमानप्रमाण से उसका पार्थक्य, प्रवाही पदार्थों के मापने के पात्रों के नाम एवं परिमाण का उल्लेख किया है। धान्यमान और रसमान... इन दोनों प्रकार के मानप्रमाणों द्वारा वस्तु के परिमाण (मापवजन) का परिझान किया जाता है। किन्तु इन दोनों में अंतर यह है कि धान्यमानप्रमाण के द्वारा ठोस पदार्थों का माप ज्ञात किया जाता है और मारे जाने वाले ठोस पदार्थ का शिरोभाग----शिखा - ऊपरी भाग -ऊपर की ओर होता है / लेकिन रमभानामा के द्वारा तरल - द्रव---ययायों के परिमाण का परिज्ञान किये जाने और तरल पदार्थों की शिखा अंतरमुखी--- अंदर की ओर होने से वह सेतिका प्रादि रूप धान्यमान प्रमाण ___ रसमानप्रमाण की प्राद्य इकाई 'चतुःषष्ठिका' और अंतिम मानी' है। चतुःषष्ठिका से लेकर मानी पर्यन्त मापने के पात्रों के नाम क्रमम: पूर्व-पूर्व से दुगुने-दुगुने हैं / जैसे कि चतुःषष्ठिका का प्रमाण चार पल है तो चार पल से दुगना अर्थात पाठ पल द्वात्रिशिका का प्रमाण है ग है। इसी प्रकार शेष षोडशिका आदि के लिये समझना चाहिये। इसी बात को विशेष सुगमता से समझाने के लिये पुनः इन चतुःषष्ठिका आदि पात्रों के माप का प्रमाण बताया है। पश्चानुपूर्वी अथवा प्रतिलोमक्रम से मानी से लेकर चतुःपष्ठिका पर्यन्त के पात्रों का प्रमाण मानी से लेकर पूर्व-पूर्व में प्राधा-आधा कर देना चाहिये। जैसे दो सौ छप्पन पल की मानी को बराबर दो भागों--एक सौ अट्ठाईस, एक सौ अट्ठाईस पलों में विभाजित कर दिया जाये तो वह आधा भाग अर्धमानी कहलायेगा। इसी प्रकार शेष मापों के विषय में समझ लेना चाहिये। रसमानप्रमाण के प्रयोजन के प्रसंग में जिन पात्रों का उल्लेख किया गया है, वे तत्कालीन मगध देश में तरल पदार्थों को भरने के उपयोग में पाने वाले पात्र हैं / ये पात्र मिट्टी, नमड़े एवं धातुओं से बने होते थे / उन्मानप्रमाण 322. से कितं उम्माणे? उम्माणे जगणं उम्मिणिज्जइ। तं जहा---अद्धकरिसो करिसो अद्धपलं पलं अद्धतुला तुला अद्धभारो भारो। दो अद्धकरिसा करिसो, दो करिसा अद्धपलं, दो अद्धपलाइं पलं, पंचुत्तरपलसतिया पंचपलसइया तुला, दस तुलाओ अद्धभारो, वीसं तुलाओ भारो। [322 प्र.] भगवन् ! उन्मानप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [322 उ. प्रामन् ! निसका उन्मान किया जाये अथवा जिसके द्वारा उन्मान किया जाता है (जो बस्तु तुलती है और जिम तराज. कांटा ग्रादि साधनों से तोली जाती है), उन्हें उन्मानप्रमाण कहते हैं / उसका प्रमाण निम्न प्रकार है-- Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] [अनुयोगद्वारसूत्र 1. अर्धकर्ष, 2. कर्ष, 3. अर्धपल, 4. पल, 5. अर्धतुला, 6. तुला, 7. अर्धभार और 8, भार / इन प्रमाणों की निष्पत्ति इस प्रकार होती है--दो अर्धकर्षों का एक कर्ष, दो कर्षों का एक अर्धपल, दो अर्धपलों का एक पल, एक सौ पांच अथवा पांच सौ पलों की एक तुला, दस तुला का एक अर्धभार और बीस तुला दो अर्धभारों का एक भार होता है। 323. एएणं उम्माणपमाणेणं किं पयोयणं ? एतेणं उम्लाणपमाणेणं पत्त-अगलु-तगर-चोयय-कुकुम-खंड-गुल-मच्छंडियादीणं दवाणं उम्माणपमाणणिन्वत्तिलक्खणं भवति / से तं उम्माणपमाणे / [323 प्र.] भगवन् ! इस उन्मानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? [323 उ.] आयुष्मन् ! इस उन्मानप्रमाण से पत्र, अगर, तगर (गंध द्रव्य विशेष) 4 चोयक-- (चोक औषधि विशेष) 5. कुंकुम, 6. खाड (शक्कर), 7. गुड़, 8. मिश्री आदि द्रव्यों के परिमाण का परिज्ञान होता है। इस प्रकार उन्मानप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये / विवेचन-इन दो सूत्रों में विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के दूसरे भेद का वर्णन किया है। धान्यमान और रसमान इन दो प्रमाणों के द्वारा प्रायः सभी स्थूल पदार्थों का परिमाण जाना जा सकता है। फिर भी कुछ ऐसे स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मस्थूल पदार्थ हैं, जिनका निश्चित प्रमाण उक्त दो मानों से निर्धारित नहीं हो पाता है / इसीलिये उन पदार्थों के सही परिमाण को जानने के लिये उन्मानप्रमाण का उपयोग होता है। उन्मान शब्द की व्युत्पत्ति भी कर्मसाधन और करणसाधन-दोनों पक्षों की अपेक्षा से की जा सकती है / इसीलिये सूत्र में तेजपत्र आदि एवं अर्धकर्ष आदि भारों का उल्लेख किया है / तराजू में रखकर जो वस्तु तोली जाती है—'यत् उन्मीयते तत् उन्मानम्' इस प्रकार से कर्मसाधनपक्ष में जब उन्मान की व्युत्पत्ति करते हैं तब तेजपत्र प्रादि उन्मान रूप होते हैं और 'उन्मीयते अनेन इति उन्मानम्' जिसके द्वारा उन्मान किया जाता है-~-तोला जाता है, वह उन्मान है, इस करणमूलक व्युत्पत्ति से अर्धकर्ष आदि उन्मान रूप हो जाते हैं। अर्धकर्ष तोलने का सबसे कम भार का बांट है। अाजकल व्यवहार में कर्ष को तोला भी कहा जाता है ? क्योंकि मन, सेर, छटांक आदि तोलने के बांट बनाने का आधार यही है। अर्धकर्ष, कर्ष आदि प्राचीन मागधमान में तोलने के बांटों के नाम हैं। तत्त्वार्थ राजवातिक' में तोलने के बांटों और उनके प्रमाण का निर्देश इस प्रकार किया गया है चार मेंहदी के फलों का एक श्वेत सर्षप फल, सोलह सर्षप फल का एक धान्यमाष फल, दो धान्यमाष फल का एक गुंजाफल, दो गुंजाफल का एक रूप्यमाषफल, सोलह रूप्यमाषफल का एक 1. तत्वार्थराजवार्तिक 3138 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] (237 धरण, अढ़ाई धरण का एक सुवर्ण या कंस, चार सुवर्ण या चार कंस का एक पल, सौ पल की एक तुला, तीन तुला का एक कुडव, चार कुडव का एक प्रस्थ (सेर ), चार प्रस्थ का एक प्राढक, चार पाढक का एक द्रोण, सोलह द्रोण की एक खारी और बीस खारी की एक बाह होती है। श्रवमानप्रमाण 324. से कि तं ओमाणे? ओमाणे जण्णं ओमिणिज्जति / तं जहा-हत्थेण वा दंडेण वा धणुएण का जुगेण वा णालियाए वा अक्खेण वा मुसलेण वा। दंडं धण जुगं णालिया य अक्ख मुसलं च चउहत्यं / दसनालियं च रज्जु वियाण ओमाणसण्णाए / / 93 // वत्थुम्मि हत्थमिज्ज खित्ते दंडं धणु च पंथस्मि / / खायं च नालियाए वियाण ओमाणसण्णाए // 94 / / [324 प्र.] भगवन् ! अवमान ( प्रमाण ) क्या है ? [324 उ.] आयुष्मन् ! जिसके द्वारा अवमान ( नाप) किया जाये अथवा जिसका अवमान (नाप) किया जाये, उसे अवमानप्रमाण कहते हैं / वह इस प्रकार-हाथ से, दंड से, धनुष से, युग से, नालिका से, अक्ष से अथवा मूसल से नापा जाता है / दंड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मूसल चार हाथ प्रमाण होते हैं / दस नालिका की एक रज्जू होती है। ये सभी अवमान कहलाते हैं / 93 / वास्तु-गृहभूमि को हाथ द्वारा, क्षेत्र खेत को दंड द्वारा, मार्ग-रास्ते को धनुष द्वारा और खाई-कुआ आदि को नालिका द्वारा नापा जाता है। इन सबको 'अवमान' इस नाम से जानना चाहिये / 95 // 325. एतेणं ओमाणप्पमाणणं किं पनोयणं ? एतेणं ओमाणप्पमाणेणं खाय-चिय-करगचित-कड-पड-भित्ति-परिक्वेवसंसियाणं वन्वाण ओमाणप्पमाण निव्वत्तिलक्खणं भवति / से तं ओमाण / [325 प्र.] भगवन् ! इस अवमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? [325 उ.] इस अवमानप्रमाण से खात (खाई ), कुआ आदि, ईंट, पत्थर आदि से निर्मित प्रासाद-भवन, पीठ (चबूतरा) आदि, क्रकचित (करवत—पारी आदि से विदारित, खंडित काष्ठ ) आदि, कट ( चटाई ), पट ( वस्त्र ), भींत (दीवाल), परिक्षेप ( दीवाल की परिधि-धेर) अथवा नगर की परिया आदि में संश्रित द्रव्यों की लंबाई-चौड़ाई, गहराई और ऊँचाई के प्रमाण का परिज्ञान होता है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारमूत्र इस प्रकार से अवमानप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन—यहाँ अवमानप्रमाण की व्याख्या की गई है। वित रहने के लिये मनुष्य गेहं ग्रादि धान्य, जल आदि तरल पदार्य और स्वास्थ्यरक्षा के लिये औषध आदि वस्तुएँ उपयोग में लाता है / उनके परिमाण को जानने के लिये तो धान्यमान आदि प्रमाण काम में लाये जाते हैं। किन्तु सुरक्षा के लिये वह मकान यादि का, नगर की रक्षा के लिये खात, परिखा आदि का निर्माण करता है। उनकी लंबाई, चौड़ाई आदि का परिज्ञान करने के लिये प्रवमानप्रमाण का उपयोग किया जाता है। अागे कहे जाने वाले क्षेत्रप्रमाण के द्वारा भी क्षेत्र की लंबाई-चौडाई का नाप किया जाता है और इस अवमानप्रमाण का भी यही प्रयोजन है। लेकिन दोनों में यह अंतर है कि क्षेत्र प्रमाण के द्वारा शाश्वत, अकृत्रिम, प्राकृतिक क्षेत्र का और अत्रमानप्रमाण द्वारा मनुष्य द्वारा निर्मित घर, खेत आदि की सीमा का निर्धारण किया जाता है। यहाँ अवमान शब्द कर्म और करण इन दोनों रूपों में व्यवहृत हुआ है / जब 'अवमीयते यत् तत् अवमानम्' इस प्रकार की कर्मसाधन रूप व्युत्पत्ति करते हैं तब उसके वाच्य गृहभुमि, खेत आदि और 'अवमीयते अनेन इति अवमानम्' ऐसी करणासाधन व्युत्पत्ति करने पर नापने के माध्यम दंड आदि अवमान शब्द के वाच्य होते हैं। यद्यपि दंड, धनुष आदि मूसल पर्यन्त नामों का प्रमाण चार हाथ है, फिर भी सूत्र में इनका पृथक-पृथक निर्देश कारणविशेष से किया है। वास्तु गृहभूमि को नागने में हाथ काम में लाया जाता है, जैसे यह धर इतने हाथ लंबा-चौड़ा है / क्षेत्र -खेत दंड (चार हाथ लंबे बांस) द्वारा नापा जाता है / मार्ग को नापने के लिये धनुष प्रमाणभूत गिना जाता है। अर्थात मार्ग की लंबाई अादि के प्रमाण का बोध धनुष से होता है / खात, कुत्रा आदि की गहराई का प्रमाण चार हाथ जितनी लंबी नालिका ( लाठी ) से जाना जाता है। उक्त वस्तुओं को नापने के लिये लोक में इसी प्रकार की रूढ़ि है। इसीलिये वास्तु-गृहभूमि आदि नाये जाने वाले पदार्थों में भेद होने से उनके नाम के लिये दंड ग्रादि का पृथक्-पृथक निर्देश किया गया है। तिलोयपणत्ति ( 11302-106 ) में भी क्षेत्र नापने के प्रमाणों का इसी प्रकार से कथन किया गया है / किन्तु इतना विशेष है कि वहाँ 'किकु' नाम अधिक है तथा उसका प्रमाण दो हाथ का बताया गया है / तत्रस्थ वर्णन का क्रम इस प्रकार है-छह अंगुल का एक पाद, दो पाद की एक बितस्ति (वालिश्त), दो वितस्ति का एक हाथ, दो हाथ का एक किक, दो किष्कु का एक दंडयुग-धनुष, मूसल-नाली, दो हजार धनुष का एक कोस पीर चार कोस का एक योजन होता है। इस प्रकार अन्न, वस्त्र, ग्रावास आदि के परिमाण के बोधक प्रमाणों का वर्णन करने के पश्चात् अब अर्थशास्त्र से सम्बन्धित प्रमाण का निरूपण किया जाता है। गणिमप्रमाण 326. से कि तं गणमे? गणिमे जण्णं गणिज्जति / तं जहा-एक्को दसगं सतं सहस्सं दससहस्साई सतसहस्सं ससतसहस्साई कोडी। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [239 [326 प्र. भगवन् ! गणिमप्रमाण क्या है ? [326 उ.] आयुष्मन् ! जो गिना जाए अथवा जिसके द्वारा गणना की जाए, उसे गणिमप्रमाण कहते हैं / वह इस प्रकार है - एक, दस, सौ, हजार, दस हजार, लाख, दस लाख, करोड़ इत्यादि / 327. एतेणं गणिमप्पमाणेणं कि पओयणं ? एतेणं गणिमप्पमाणेणं भितग-भिति-भत्त-वेयण-आय-व्वयनिस्विसंसियाणं दवाणं गणिमप्पमाणनिवित्तिलक्खणं भवति / से तं गणिमे / [327 प्र.] भगवन् ! इस गणिमप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? [327 उ.] अायुष्मन् ! इस गणिमप्रमाण से भत्य--नौकर, कर्मचारी ग्रादि की वृत्ति, भोजन, वेतन के आय-व्यय से सम्बन्धित ( रुपया, पैसा आदि ) द्रव्यों के प्रमाण की निष्पत्ति होती है। यह गणिमप्रमाण का स्वरूप है। विवेचन...-भाप, नील और नापने से जिन वस्तुओं के परिमाण का निश्चय नहीं किया जा सकता, उनको जानने के लिये गणिम ( गणना ) प्रमाण का उपयोग होता है। जैसे ग्राम के वृक्ष को और आम के फल को आम कहते हैं, वैसे ही गणिमप्रमाण के द्वारा जिस वस्तु की गणना होती है और जिस साधन द्वार। उस वस्तु की गणना की जाती है, दोनों गणिम कहलाते हैं / इस अपेक्षा से गणिस शब्द की भी व्युत्पत्ति के दो रूप हैं . कर्ममाधन और करणसाधन / 'गण्यते संख्यायते यत् तत् गणिमम्' जिसकी गणना की जाती है, वह गणिम है, इस प्रकार से कर्मसाधन में गणिम की व्युत्पत्ति की जाती है तव रुपया आदि गणनीय वस्तुएँ गणिम शब्द की वाच्यार्थ होती हैं और 'गण्यते संख्यायये वस्त्वनेनेति गणिमम्' जिसके द्वारा वस्तु गिनी जाती है वह गणिम है, इस प्रकार करणसाधन व्युत्पत्ति करने पर रुपया आदि जिस संख्या के द्वारा गिने जाते हैं, वह एक, दो, तीन, दस, सौ आदि संख्या गणिम शब्द की वाच्यार्थ होती है। इस प्रकार से गणिम शब्द को कर्म और करण साधन में व्युत्पत्ति संभव होने पर भी सूत्र में गणिम शब्द मुख्य रूप से कर्मसाधन में ग्रहण किया है और गणनीय वस्तुएं जिनके द्वारा गिनी जाती है, उसके लिये एक, दस, सौ, हजार, दस हजार, लाख, दस लाख, करोड़ आदि संख्या का सकेत किया है। सूत्र में गणना के लिये जिन क्रम से संख्याओं का उल्लेख किया है, वे सब पूर्व-पूर्व से दस गुनी हैं। इससे यह ज्ञान हो जाता है कि विश्व में आज तो दसमलवप्रणाली प्रचलित है, उसका प्रयोग भारत में प्राचीन समय से होता चला पा रहा था / प्राचीन भारत इस प्रणाली का प्रस्तावक रहा और आर्थिक क्षेत्र की उपलब्दियों का मानदंड यही प्रणाली थी। यहाँ गणना के लिये करोड़ पर्यन्त की संख्या का संकेत किया है / इससे आगे की संख्याओं के नाम इस प्रकार है- दस करोड़, अग्य, दस अरव, खरब, दस खरब, नील, दस नील, शंख, दस Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 [अनुयोगद्वारसूत्र शंख, पद्म, दस पद्म इत्यादि और यह सर्वगणनीय संख्या गणनाप्रमाण का विषय 194 अंक प्रमाण है। जिसका संकेत काल प्रमाण के वर्णन के प्रसंग में किया जाएगा। षट्खंडागम, धवला टीका आदि में गणनीय संख्याओं के नामों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है एक, दस, शत, सहस्र, दस सहस्र, दस शतसहस्र, कोटि, पकोटि, कोटिप्पकोटि, नहुत्त, निन्नहुत्त, अखोभिनी, बिन्दु, अब्बुद, निरब्बुद, अहह, अव्व, अटट, सोगन्धिक उप्पल, कुमुद, पुंडरीक, पदुम, कथान, महाकथान, असंख्येय, पणट्ठी, बादाल, एकट्टी / क्रम के अनुसार ये सभी संख्यायें उत्तर उत्तर में दस गुनी हैं।' गणिमप्रमाण का प्रयोजन बताने के प्रसंग में 'भितग-भिति' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इनका अर्थ यह है कि प्राचीनकाल में भृत्य, कर्मचारी और पदाति सेना आदि को कुछ-न-कुछ धनमुद्रायें भी दी जाती थीं / दैनिक मजदूरी नकद दो जाती थी। जिसका संकेत 'वेयण' शब्द से मिलता है। शासनव्यवस्था और व्यापार-व्यवसाय का प्राय-व्यय, हानि-लाभ का तलपट मुद्राओं के रूप में निर्धारित किया जाता था / आर्थिकक्षेत्र के जो सिद्धान्त आज पश्चिम की देन माने जाते हैं, वे सब हमारे देश में प्राचीन समय से चले आ रहे थे, ऐसा 'आयव्वयानम्बिसंसियाण' पद से स्पष्ट है। प्रतिमानप्रमाण 328. से कि त पडिमाणे? पडिमाणे जण्णं पडिमिणिज्जइ / तं जहा-गुंजा कागणी निप्फावो कम्ममासओ मंडलमो सुवष्णो। पंच गुंजाओ कम्ममासनो, कागण्यपेक्षया चत्तारि कागणीओ कम्ममासओ। तिणि निष्फावा कम्ममासओ, एवं चउक्को कम्ममासओ। बारस कम्ममासया मंडलओ, एवं अडयालोसाए [कागणीए] मंडलओ / सोलस कम्ममासया सुवण्णो, एवं चउसट्ठीए [कागणीए] सुवण्णो / [328 प्र.] भगवन् ! प्रतिमान (प्रमाण) क्या है ? [328 उ.] आयुष्मन् ! जिसके द्वारा अथवा जिसका प्रतिमान किया जाता है, उसे प्रतिमान कहते हैं / वह इस प्रकार है-१ गुंजा-रत्ती, 2 काकणी, 3 निष्पाव, 4 कर्ममाषक, 5 मंडलक, 6 सुवर्ण / पांच गंजामों--रत्तियों का, काकणी की अपेक्षा चार काकणियों का अथवा तीन निष्पाव का एक कर्ममाषक होता है / इस प्रकार कर्ममाषक चार प्रकार से निष्पन्न (चतुष्क) होता है / बारह कर्ममाषकों का एक मंडलक होता है / इसी प्रकार अड़तालीस कागियों के बराबर एक मंडलक होता है। 1. (क) धवला ५/प्र./२२ (ख) ति. पण्णत्ति 4/309-311 (ग) तत्त्वार्थराजवार्तिक 3/35 (घ) त्रिलोकसार 28-51 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण सोलह कर्ममाषक अथवा चौसठ काकणियों का एक स्वर्ण (मोहर) होता है। 329. एतेणं पडिमाणप्पमाणेणं कि पओयणं? एतेणं पडिमाणप्पमाणेणं सुवण्ण-रजत-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवालावीणं दवाणं पडिमाणप्पमाणनित्तिलक्षणं भवति / से तं पडिमाणे / से तं विभागनिष्फण्णे / से तं दध्यपमाणे / 329 प्र.] भगवन् ! इस प्रतिमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? (329 उ.] अायुष्मन् ! इस प्रतिमानप्रमाण के द्वारा सूवर्ण, रजत (चांदी), मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल (मंगा) आदि द्रव्यों का परिमाण जाना जाता है। इसे ही प्रतिमानप्रमाण कहते हैं / यही विभागनिष्पन्नप्रमाण और द्रव्यप्रमाण की वक्तव्यता है / विवेचन--सूत्र में प्रतिमानप्रमाण एवं उसके प्रयोजन के साथ द्रव्यप्रमाण के वर्णन की समाप्ति का प्रतिपादन किया है / तोलने योग्य स्वर्ण आदि को एवं तोलने वाले गंजा आदि के माप को प्रतिमान कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जब प्रतिमान शब्द की करणसाधन में व्युत्पत्ति करते हैं—प्रतिमीयते अनेन इति प्रतिमानम् तब प्रतिमान शब्द के वाच्य प्रतिमानक-वजन करने वाले गुजादि होते है। क्योंकि सुवर्ण प्रादि द्रव्यों का वजन गुंजादि से तोल कर जाना जाता है 1 जब 'प्रतिमीयते यत्तत् प्रतिमानम्'-- जिसका प्रतिमान-बजन किया जाये, वह प्रतिमान, इस प्रकार कर्मसाधन व्युत्पत्ति की जाती है तब सुवर्ण आदि द्रव्य प्रतिमान कहलाते हैं। करणसाधन और कर्मसाधन दोनों प्रकार की व्युत्पत्तियों के अनुसार गुंजा आदि और सुवर्ण आदि प्रतिमानक एवं प्रतिमेय दोनों को प्रतिमान कहा है, फिर भी यहाँ मुख्य रूप से प्रतिमान शब्द का कर्मसाधन रूप व्युत्पत्तिमूलक अर्थ लिया गया है / इसीलिये उन-उन सुवर्ण आदि को तौलने के लिये गुंजा आदि रूप बांटों का उल्लेख किया है / तराजू के पलड़े में रखकर सुवर्ण आदि को तोले जाने से यह जिज्ञासा हो सकती है कि उन्मान एवं प्रतिमान प्रमाण के प्राशय में कोई अन्तर नहीं है / क्योंकि चाहे तराजू से शक्कर, मिश्री प्रादि को तोला जाये या सुवर्ण आदि तोला जाये, तराज के उपयोग और तोलने की क्रिया दोनों में एक जैसी है। फिर दोनों का पृथक्-पृथक निर्देश करने का क्या कारण है ? इसका समाधान यह है कि लोक-व्यवहार में शक्कर आदि मन, सेर, छटांक आदि के द्वारा तौले जाते हैं। उनकी तोल के लिये तोला, माशा, रत्ती प्रयोग में नहीं पाते हैं, जबकि सारभूत धन के रूप में माने गये स्वर्ण, चांदी, मणि-माणक आदि को तोलने के लिये तोला, माशा आदि का उपयोग किया जाता है। यदि सोना सेर से भी तोला जाये तो उस सोने को अस्सी तोला है, ऐसा कहेंगे / दूसरी बात यह है कि वस्तु के मूल्य के कारण भी उनके मान के लिये अलग-अलग मानक निर्धारित किये जाते हैं / इसलिये उन्मान और प्रतिमान के मूल अर्थ में अंतर नहीं है, लेकिन उनके द्वारा मापे-तोले जाने वाले पदार्थों के मूल्य में अन्तर है। इसी कारण उन्मान और प्रतिमान का पथक-पृथक निर्देश किया है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [अनुयोगद्वारसूत्र सूत्र में कर्ममाषक से पूर्व के गुंजा आदि के वजन को नहीं बताया है। उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- गुंजा, रत्ती, घोंगची मौर चणोटी ये चारों समानार्थक नाम हैं। मुंजा एक लता का फल है / इसका प्राधा भाग काला और आधा भाग लाल रंग का होता है / इसके भार के लिये पूर्व में कहा जा चुका है / सवा गुंजाफल (रत्ती) की एक काकणी होती है। त्रिभागन्यून दो गुंजा अर्थात् पौने दो गुंजा का एक निष्पाव होता है / इसके बाद के कर्ममाषक आदि का प्रमाण सूत्र में उल्लिखित है। कर्ममाषक, मंडलक और सुवर्ण के भारप्रमाण का विवरण भिन्न-भिन्न रीति से बताने का कारण यह है कि वक्ता और श्रोता, केता और विक्रेता को अपने अभीष्ट प्रमाण में सुवर्ण आदि लेनेदेने में एकरूपता रहे। जैसे जो व्यक्ति सौ की संख्या को न जानता हो, मात्र बीस तक की गिनना जानता हो, उसे संतुष्ट और आश्वस्त करने के लिये बीस-बीस को पांच बार अलग-अलग गिनकर समझाया कर्ममाषक आदि का अलग-अलग रूप से प्रमाण बताने का भी यही प्राशय है। कथनभेद के सिवाय अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। सुवर्ण, चांदी को तो सभी जानते हैं / शास्त्रों में रत्नों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं 1 कर्केतनरत्न, 2 वज्ररत्न, 3 वैडूर्य रत्न, 4 लोहिताक्षरत्न, 5 मसारगल्लरत्न, 6 हंसगर्भरस्न, 7 पुलकरत्न, 8 सौगन्धिकरत्न, 9 ज्योतिरत्त, 10 अञ्जनरल, 11 अंजनपुलकरत्न, 12 रजतरत्न, 13 जातरूपरत्न, 14 अंकरल, 15 स्फटिकरत्न, 16 रिष्टरत्न / से तं विभागनिप्फणे' पद द्वारा सूचित किया है कि मान से लेकर प्रतिमान तक विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के पांच भेद हैं और उनका वर्णन उपर्युक्त प्रकार से जानना चाहिये तथा 'से तं दव्वप्पमाणे' यह पद द्रव्यप्रमाण के वर्णन का उपसंहारबोधक है कि प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न के भेदों का वर्णन करने के साथ द्रव्यप्रमाण समग्ररूपेण निरूपित हो गया। अब क्रमप्राप्त प्रमाण के दूसरे भेद क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा करते हैं। क्षेत्रप्रमाणप्ररूपण 330. से कि तं खेत्तप्पमाणे? खेतप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पदेसनिष्फण्णे य 1 विभागणिप्फण्णे य 2 / [330 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [330 उ.] आयुष्मन् ! क्षेत्रप्रमाण दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है ! वह इस प्रकार--- 1 प्रदेश निष्पन्न और 2 विभागनिष्पन्न / विवेचन--द्रव्यप्रमाण के मुख्य भेदों की तरह इस क्षेत्रप्रमाण के भी दो भेद हैं और उन भेदों के नाम भी वही हैं जो द्रव्यप्रमाण के भेदों के हैं। स्वगुणों की अपेक्षा प्रमेय होने से द्रव्य का निरूपण द्रव्यप्रमाण के द्वारा किया जाता है। किन्तु क्षेत्रप्रमाण के द्वारा पुनः उसी द्रव्य का वर्णन इसलिये किया जाता है कि क्षेत्र एक, दो, तीन, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [243 संख्यात, असंख्यात प्रादि रूप अपने निविभाग भागात्मक अंशों-प्रदेशों से निष्पन्न है। प्रदेशों से निष्पन्न होना ही इसका निजस्वरूप है और इसी रूप से यह जाना जाता है। अतएव प्रदेशों से निष्पन्न होने वाले प्रमाण का नाम प्रदेशनिष्पन्न है तथा विभाग-भंग-विकल्प से निष्पन्न होने वाले अर्थात् स्वगत प्रदेशों को छोड़कर दूसरे विशिष्ट भाग, भंग या विकल्प द्वारा निष्पन्न होने वाले को विभागनिष्पन्न कहते हैं। उक्त दोनों प्रकार के क्षेत्रप्रमाणों का विशेष वर्णन इस प्रकार है-- प्रदेशनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण 331. से कि तं पदेसणिप्फण्णे ? पदेसणिप्फण्णे एगपदेसोगाढे दुपदेसोगाढे जाव संखेज्जपदेसोगा असंखिज्जपदेसोगा। से तं पएसणिप्फण्णे। [331 प्र.] भगवन् ! प्रदेशनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [331 उ.] आयुष्मन् ! एक प्रदेशावगाढ, दो प्रदेशावगाढ यावत् संख्यात प्रदेशावगाढ, असंख्यात प्रदेशावगाढ क्षेत्ररूप प्रमाण को प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहते हैं। विवेचन--सूत्र में क्षेत्रप्रमाण के प्रथम भेद प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण का स्वरूप बतलाया है / क्षेत्र का अविभागी अंश (जिसका विभाग न किया जा सके और न हो सके ऐसे) भाग को प्रदेश कहते हैं / ऐसे प्रदेश से जो क्षेत्रप्रमाण निष्पन्न हो, वह प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहलाता है / यहाँ क्षेत्र शब्द.ग्राकाश के अर्थ में प्रयुक्त हया है। प्राकाश के दो भेद हैं—लोकाकाश और अलोकाकाश / धर्मास्तिकाय आदि षड द्रव्य जितने अाकाश रूप क्षेत्र में अवगाढ होकर स्थित हैं, उसे लोकाकाश और इसके अतिरिक्त कोरे आकाश को अलोकाकाश कहते हैं। यद्यपि अलोकाकाश में आकाशास्तिकाय द्रव्य का सद्भाव है, फिर भी उसे अलोकाकाश इसलिये कहते हैं कि लोक और अलोक के नियामक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य वहाँ नहीं हैं। इनका सद्भाव और असद्भाव ही आकाश के लोकाकाश, अलोकाकाश विभाग का कारण है। प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण एकप्रदेशावगाठादि रूप है। क्योंकि वह एक प्रदेशादि अवगाढरूप क्षेत्र एक प्रादि क्षेत्रप्रदेशों से निष्पन्न हुआ है और ये एकादि प्रदेश अपने निजस्वरूप से ही प्रतीति में आते हैं, अतएव इनमें प्रमाणता जानना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि क्षेत्र स्वप्रदेशों की अपेक्षा जब स्वस्वरूप से जाना जाता है तब 'प्रमीयते यत् तत् प्रमाणम्'—जो जाना जाये वह प्रमाण है, इस प्रकार के कर्मसाधन रूप प्रमाण शब्द की वाच्यता से वह एकादि प्रदेश रूप क्षेत्र प्रमाण होता है, परन्तु जब 'प्रमीयतेऽनेन यत्तत् प्रमाणम्' इस प्रकार प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति करणसाधन में की जाती है तब क्षेत्र स्वयं प्रमाण रूप न होकर एक प्रदेशादि उसका स्वरूप प्रमाण होता है। यद्यपि आकाश रूप क्षेत्र तो एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेशात्मक है। लेकिन सूत्र में 'एगपदेसोगाढे, दूपदेसोगाढे जाव संखेज्जपदेसोगाढे असंखिज्जपदेसोगाढे' पद देने का कारण यह है कि Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] [अनुयोगद्वारसूत्र यहाँ लोकाकाश रूप क्षेत्र को ग्रहण किया है और लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश होते हैं और उन्ही में जीव, पुद्गल आदि द्रव्य अवगाढ होते हैं। द्रव्य की अपेक्षा आकाश एक है और उसमें प्रदेशों की कल्पना का आधार है पुद्गलद्रव्य / पुद्गलद्रव्य के दो रूप हैं--परमाणु और स्कन्ध / परमाणु और स्कन्ध का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। एक परमाणु जितने क्षेत्र को अवगाढ करके रहता है, उतने क्षेत्र को एक प्रदेश कहते हैं / आकाश का स्वभाव अवगाहना देने के कारण उसके एक प्रदेश में परमाणु से लेकर अनन्त परमाणुओं के पिंड रूप स्कन्ध का भी अवगाह हो सकता है / इसी बात की ओर संकेत करने के लिये सूत्र में एकप्रदेशावगाढ से लेकर असंख्यातप्रदेशावगाढ तक पद दिये हैं। यही प्रदेशनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण है। अब विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का विचार करते हैं विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण 332. से कि तं विभागणिफण्णे ? विभागणिफण्णे अंगुल विहत्थि रयणी कुच्छो घणु गाउयं च बोद्धव्वं / __ जोयणसेढी पयरं लोगमलोगे वि य तहेव // 95 // [332 प्र.] भगवन् ! विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का क्या स्वरूप है ? 6332 उ.] आयुष्मन् ! अंगुल, वितस्ति (बेंत, बालिश्त), रत्ति (हाथ) कुक्षि, धनुष, गाऊ (गव्यूति), योजन, श्रेणि, प्रतर, लोक और अलोक को विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण जानना चाहिये / 95 विवेचन—सूत्र में विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का वर्णन किया है। इसका पृथक् रूप से निरूपण करने का कारण यह है कि क्षेत्र यद्यपि स्वगत प्रदेशों की अपेक्षा प्रदेशनिष्पन्न ही है, परन्तु जब स्वरूप से उसका वर्णन न किया जाकर सुगम बोध के लिये उन प्रदेशों का कथन अंगुल अादि विभागों के द्वारा किया जाता है, तब उसे विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहते हैं / अर्थात् क्षेत्रनिष्पन्नता से इस विभागनिष्पन्नता में यह अन्तर है कि क्षेत्रनिष्पन्नता में क्षेत्र अपने प्रदेशों द्वारा जाना जाता है, लेकिन विभागनिष्पन्नता में उसी क्षेत्र को विविध अंगुल, वितरित आदि से जानते हैं। यह अंतर प्रमाण शब्द की करणसाधन रूप व्युत्पत्ति को अपेक्षा से जानना चाहिये / विभागनिष्पन्न की प्राद्य इकाई अंगुल है / अतएव अब अंगुल का विस्तार से विवेचन करते हैं। अंगुलस्वरूपनिरूपण 333. से कि तं अंगुले ? अंगुले तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-आयंगुले 1 उस्सेहंगुले 2 पमाणंगुले 3 / [333 प्र.] भगवन् ! अंगुल का क्या स्वरूप है ? Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [245 [333 उ.] आयुष्मन् ! अंगुल तीन प्रकार का है, यथा-१. प्रात्मांगुल, 2. उत्सेधांगुल और 3. प्रमाणांगुल / विवेचन---अंगुल के मुख्य तीन प्रकार हैं / अब क्रम से उनका विस्तृत वर्णन किया जा रहा है। आत्मांगुल 334. से किं तं प्रायंगुले ? आयंगुले जे णं जया मणुस्सा भवंति तेसि गं तया अपणो अंगुलेणं दुवालस अंगुलाई मुहं, नवमुहाई पुरिसे पमाणजुत्ते भवति, दोणिए पुरिसे माणजुत्ते भवति, अद्धभारं तुलमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवति / माणुम्माण-पमाणे जुता लक्खण-बंजण-गुहि उववेया। उत्तमकुलप्पसूया उत्तमपुरिसा मुणेयच्वा // 96 / / होंति पुण अहियपुरिसा अट्ठसतं अंगुलाण उधिद्धा। छण्णउति अहमपुरिसा चउरुत्तर मज्झिमिल्ला उ // 97 // होणा वा अहिया वा जे खल सर-सत्त सारपरिहीणा / ते उत्तमपुरिसाणं अवसा पेसत्तणमुर्वेति // 98 // [334 प्र.] भगवन् ! आत्मागुल किसे कहते हैं ? [334 उ.] जिस काल में जो मनुष्य होते हैं (उस काल की अपेक्षा) उनके अंगुल को आत्मांगुल कहते हैं। उनके अपने-अपने अंगुल से बारह अंगुल का एक मुख होता है। नौ मुख प्रमाण वाला (अर्थात् एक सौ पाठ प्रात्मांगुल की ऊंचाई वाला) पुरुष प्रमाणयुक्त माना जाता है, द्रोणिक पुरुष मानयुक्त माना जाता है और अर्धभारप्रमाण तौल वाला पुरुष उन्मानयुक्त होता है। जो पूरुष मान-उन्मान और प्रमाण से संपन्न होते हैं तथा (शंख आदि शारीरिक शभ) लक्षणों एवं (तिल मसा आदि) व्यंजनों से और (उदारता, करुणा आदि) मानवीय गुणों से युक्त होते हैं एवं (उग्र, भोग आदि) उत्तम कुलों में उत्पन्न होते हैं, ऐसे (चक्रवर्ती ग्रादि) पुरुषों को उत्तम पुरुष समझना चाहिते / 96 ये उत्तम पुरुष अपने अंगुल से एक सौ पाठ अंगुल प्रमाण ऊंचे होते हैं। अधम पुरुष छियानवै अंगुल और मध्यम पुरुष एक सौ चार अंगुल ऊंचे होते हैं / 67 ये हीन (छियानवै अंगुल की ऊंचाई वाले) अथवा उससे अधिक ऊंचाई वाले (मध्यम पुरुष) जनोपादेय एवं प्रशंसनीय स्वर से, सत्त्व से-आत्मिक-मानसिक शक्ति से तथा सार से अर्थात् शारीरिक क्षमता, सहनशीलता, पुरुषार्थ आदि से हीन और उत्तम पुरुषों के दास होते हैं / 98 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246] अनुयोगद्वारमूव __335. एतेणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दो पाया विहत्थी, दो विहत्थोप्रो रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीनो दंडं धण जुगे नालिया अक्ख-मुसले, दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाइं जोयणं / [335] इस आत्मांगुल से छह अंगुल का एक पाद होता है / दो पाद की एक वितस्ति, दो वितस्ति की एक रत्ति और दो रत्नि की एक कुक्षि होती है। दो कुक्षि का एक दंड, धनुष, युग, नालिका अक्ष और मूसल जानना चाहिये / दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है / विवेचन-इन दो सूत्रों में अंगुल के तीन प्रकारों में से प्रथम प्रात्मांगुल के स्वरूप आदि का वर्णन किया है। अात्मांगुल में 'यात्मा' शब्द 'स्व' अर्थ का सूचक है / अतएव अपना जो अंगुल उसे आत्मांगुल कहते हैं / यह कालादि के भेद से अनवस्थित प्रमाण वाला है / इसका कारण यह है कि उत्सपिणी और अवपिणी काल के भेद से मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई आदि बढ़ती-घटती रहती है / अतएव जिस काल में जो पुरुष होते हैं, उस काल में उनका अंगुल आत्मागुल कहलाता है / इसी अपेक्षा से अात्मांगुल को अनियत प्रमाण वाला कहा है। ___ प्रात्मांगुल से नापने पर बारह अंगुल का जितना प्रमाण हो उसकी 'मुख' यह संज्ञा है / ऐसे नौ मुखों अर्थात् एक सौ आठ अंगुल ऊंचाई वाला पुरुष प्रमाणपुरुष कहलाता है। दूसरे प्रकार से भी प्रमाणयुक्त पुरुष की परीक्षा करने के कुछ नियम बताये हैं-एक बड़ी जलकुंडिका को जल से परिपूर्ण भरकर उसमें किसी पुरुष को बैठाने पर जब द्रोणप्रमाण जल उससे छलक कर बाहर निकल जाये तो वह पुरुष मानयुक्त माना जाता है और उस पुरुष की द्रोणिकपुरुष यह संज्ञा होती है। अथवा द्रोणपरिमाण न्यून जल से कुंडिका में पुरुष के प्रवेश करने पर यदि वह कंडिका पूर्ण रूप से किनारों तक भर जाती है तो ऐसा पुरुष भी मानयुक्त माना जाता है। तीसरी परीक्षा यह है कि तराज से तौलने पर जो पुरुष अर्धभारप्रमाण वजनवाला हो, वह पुरुष उन्मान से प्रमाणयुक्त माना जाता है / ऐसे पुरुष लोक में उत्तम माने जाते हैं। ये उत्तम पुरुष प्रमाण, मान और उन्मान से संपन्न होने के साथ ही शरीर में पाये जाने वाले स्वस्तिक, श्रीवत्स ग्रादि शुभ लक्षणों तथा तिल, मसा प्रादि व्यंजनों से युक्त होते हैं। इनका जन्म लोकमान्य कुलों में होता है। वे उच्चगोत्रकर्म के विपाकोदय के कारण लोक में आदर-समान के पात्र माने जाते हैं, प्राज्ञा, ऐश्वर्य, संपत्ति से संपन्न-समृद्ध होते हैं / उपर्युक्त माप-तौल से हीन पुरुषों की गणना मध्यम अथवा जघन्य पुरुषों में की जाती है / सूत्रोक्त उत्तम पुरुष के मानदंड को हम प्रत्यक्ष भी देखते हैं / सेना और सेना के अधिकारियों का चयन करते समय व्यक्ति को ऊंचाई, शारीरिक क्षमता, साहस अादि की परीक्षा करने पर निर्धारित मान में उत्तीर्ण व्यक्ति का चयन कर लिया जाता है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [247 इस प्रकार से आत्मांगुल की व्याख्या करने के पश्चात् उसका उपयोग कहाँ और किस के नापने में किया जाता है, इसे स्पष्ट करते हैं / आत्मांगुल का प्रयोजन 336. एएणं पायंगुलप्पमाणेणं किं पओयणं? एतेणं आयंगुलप्पमाणे जे णं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं अगड-दहनदी-तलाग-वावो-पुरिणि-दोहिया-गुजालियाओ सरा सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलपंतियाओ आरामुज्जाण-काणण-वण-वणसंड-वणराईओ देवकुल-सभा-पवा-थूभ-खाइय-परिहाओ पागारअट्टालग-चरिय-दार-गोपुर-तोरण-पासाद-घर-सरण-लेण-आवण-सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर- चउमुहमहापह-पहा सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीय-संदमाणिय-लोही-लोहकडाह-कडुच्छ्य-आसण. सतण-खम-भंड-मत्तोवगरणमादीणि अज्जकालिगाइं च जोयणाई मविज्जति / [336 प्र.] भगवन् ! इस आत्मांगुलप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? [336 उ.] आयुष्मन् ! इस आत्मांगुलप्रमाण से कुया, तडाग (तालाब), द्रह (जलाशय), वापी (चतुष्कोण बाली बावड़ी), पुष्करिणी (कमलयुक्त जलाशय), दीपिका (लम्बी-चौड़ी बावड़ी), गुजालिका (वक्राकार बावड़ी), सर (अपने-आप बना जलाशय---झील), सरपंक्ति (श्रेणी--पंक्ति रूप में स्थित जलाशय), सर-सरपंक्ति (नालियों द्वारा संवन्धित जलाशयों की पंक्ति), विलपंक्ति (छोटे मुख वाले कूपों की पंक्ति----कुंडियां), पाराम (बगीचा), उद्यान (अनेक प्रकार के पुष्प-फलों वाले वृक्षों से युक्त बाग), कानन (अनेक वृक्षों से युक्त नगर का निकटवर्ती प्रदेश), वन (जिसमें एक ही जाति के वृक्ष हों), वनखंड (जिसमें अनेक जाति के उत्तम वृक्ष हों), वनराजि (जिसमें एक या अनेक जाति के वृक्षों की श्रेणियां हों), देवकुल (यक्षायतन प्रादि), सभा, प्रपा (प्याऊ), स्तूप, खातिका (खाई), परिखा (नीचे संकड़ी और ऊपर विस्तीर्ण खाई), प्राकार (परकोटा), अट्टालक (परकोटे पर बना आश्रय-विशेष—अटारी), चरिका(खाई और प्राकार के बीच बना आठ हाथ चौड़ा मार्ग), द्वार, गोपुर (नगर में प्रवेश करने का मुख्य द्वार), तोरण, प्रासाद (राजभवन), घर (सामान्य जनों के निवास स्थान), शरण (घास-फस से बनी झोपडी), लयन (पर्वत में बनाया गया निवासस्थान), आपण (वाजार), श्रृगाटक (सिंघाड़े के आकार का त्रिकोण मार्ग), त्रिक (तिराहा), चतुष्क (चौराहा), चत्वर (चौगान, चौक, मैदान), चतुर्मुख (चार द्वार वाला देवालय आदि), महापथ (राजमार्ग), पथ (गलियां), शकट (गाड़ी, बैलगाड़ी), रथ, यान (साधारण गाड़ी), युग्य (डोली–पालखी),,गिल्लि (हाथी पर रखने का हौदा), थिल्लि (यान-विशेष, बहली), शिविका (पालखी), स्यंदमानिका (इक्का), लोही (लोहे की छोटी कड़ाही), लोहकटाह (लोहे की बड़ी कड़ाही--कड़ाहा), कुडछी (चमचा), ग्रासन (बैठने के पाट आदि), शायन(शय्या), स्तम्भ, भांड (पात्र प्रादि) मिट्टी, कांसे आदि से बने भाजन गृहोपयोगी वर्तन, उपकरण आदि वस्तुओं एवं योजन आदि का माप किया जाता है। विवेचन—सूत्रोक्त भवनादि का निर्माण मनुष्य अपने समय को ध्यान में रखकर करते हैं। इसीलिये सत्र में मनुष्यों द्वारा बनाई गई एवं प्रशाश्वत बस्तुओं की लम्बाई चौड़ाई-ऊंचाई प्रादि का माप आत्मांगुल से किये जाने का उल्लेख किया गया है / Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [अनुयोगद्वारसूत्र 'अज्जकालिगाई' अर्थात् आज-कल शब्द वर्तमान का बोधक है। अर्थात् जिस काल में जितनी ऊंचाई, चौड़ाई आदि बाले मनुष्य हों, उनकी अपेक्षा ही आत्मांगुल का प्रमाण निर्धारित होता है। प्रात्मांगुल का प्रयोजन बतलाने के अनन्तर अब उसके अवान्तर भेदों का निर्देश करते हैं / प्रात्मांगुल के भेद 337. से समासओ तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--सूतिअंगुले 1 पयरंगुले 2 घणंगुले 3 / अंगुलायता एगपदे सिया सेढी सूइअंगुले 1 सूयी सूयीए गुणिया पयरंगुले 2 पयरं सूईए गुणितं घणंगुले 3 / [337] आत्मांगुल सामान्य से तीन प्रकार का है- 1. सूच्यंगुल, 2. प्रतरांगुल, 3. धनांगुल / 1. एक अंगुल लम्बी और एक प्रदेश चौड़ी आकाश-प्रदेशों की श्रेणि-पंक्ति का नाम सूच्यंगुल है। 2. सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर प्रतरांगुल बनता है / 3. प्रतरांगुल को सूच्यंगुल से गुणित करने पर घनांगुल होता है / विवेचन-सूत्र में प्रात्मांगुल के भेदत्रिक का वर्णन किया है। सुच्यंगुल की निष्पन्नता में श्रेणी शब्द पाया है। इस शब्द के अनेक अर्थ होते हैं / यहाँ क्षेत्रप्रमाण के निरूपण का प्रसंग होने से श्रेणि शब्द का अर्थ 'ग्राकाशप्रदेशों की पंक्ति' ग्रहण किया गया है। शास्त्र में श्रेणि के सात प्रकार कहे गये हैं-१. ऋजुअायता, 2. एकतोवक्रा, 3. द्वितोवक्रा, 4. एकतःखहा, 5. द्वितःखहा, 6. चकवाला, 7. अर्धचक्रवाला।' इन सात भेदों में से प्रस्तुत में ऋजुपायता श्रेणि प्रयोजनीय है। अतएव सूच्यंगुल का अर्थ यह हुआ कि सूची-सूई के आकार में दीर्घता को अपेक्षा एक अंगुल लंबी तथा बाहल्य की अपेक्षा एक प्रदेश ऋजुअायता प्राकाशप्रदेशों की पंक्ति सूच्यंगुल कहलाती है। यद्यपि सिद्धान्त की दृष्टि से सूज्यंगुलप्रमाण आकाश में असंख्य प्रदेश होते हैं, लेकिन कल्पना से इनका प्रमाण तीन मान लिया जाए और इन तीन प्रदेशों को समान पंक्ति में 000 इस प्रकार स्थापित किया जाए तो इसका आकार सूई के समान एक अंगुल लम्बा होने से इसे सूच्यंगुल कहते हैं। - प्रतरांगुल--प्रतर वर्ग को कहते हैं और किसी राशि को दो बार लिखकर परस्पर गुणा करने पर जो प्रमाण आए वह वर्ग है / जैसे दो की संख्या को दो बार लिखकर उनका परस्पर गुणा करने पर 2 x 2 =4 हुए / यह चार की संख्या दो की वर्गराशि हुई। इसीलिये सूत्र में प्रतरांगुल 1. ठाणांग पद 7 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [249 का लक्षण बताया है.---'सूयी सूयीए गुणिया पथरंगुले' अर्थात् सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह प्रतरांगुल है / यद्यपि यह प्रतरांगुल भी असंख्यात प्रदेशात्मक होता है, लेकिन असत्कल्पना से पूर्व में सूच्यंगुल के रूप में स्थापित तीन प्रदेशों को तीन प्रदेशों से गुणा करने पर जो नौ प्रदेश हुए, उन नौ प्रदेशों को प्रतरांगुल के रूप में जानना चाहिये / असत्कल्पना से इसको स्थापना का प्रारूप इस प्रकार होगा- :: सूच्यंगुल और प्रतरांगुल में यह अंतर है कि सूच्यंगुल में दीर्घता तो होती है किन्तु बाहल्यविष्कंभ एक प्रदेशात्मक ही होता है और प्रतरांगुल में दीर्घता एवं विष्कम्भ-चौड़ाई समान होती है। घनांगुल-गणितशास्त्र के नियमानुसार तीन संख्याओं का परस्पर गुणा करने को घन कहते हैं / ऐसा करने से उस वस्तु की दीर्घता-लम्बाई, विष्कम्म---चौड़ाई और पिंडत्व-मोटाई का ज्ञान होता है / घनांमुल के द्वारा यही कार्य निष्पन्न किया जाता है। इसीलिये सूत्र में घनांगुल का लक्षण बताया है कि प्रतरांनुल को सूच्यं गुल से गुणा करने पर घनांगुल निष्पन्न होता है-'पयरं सूईए गुणितं वणंगुले / ' प्रकारान्तर से इस प्रकार भी कहा जा सकता है-सूच्यंगुल की राशि का परस्पर तीन बार गुणा करने पर प्राप्त राशि-गुणनफल घनांगुल है। यद्यपि यह घनांगुल भी असंख्यात प्रदेशात्मक होता है, लेकिन असत्कल्पना हो उसे यों समझना चाहिये कि पूर्व में बताये गये नौ प्रदेशात्मक प्रतरांगुल में सूच्यंगुल सूचक तीन का गुणा करने पर प्राप्त सत्ताईस संख्या धनांगुल की बोधक है। इनकी स्थापना पूर्वोक्त नवप्रदेशात्मक प्रतर के नीचे और ऊपर नौ-नौ प्रदेशों को देकर करनी चाहिये। यह स्थापना पायाम-विष्कम्भ-पिंउ (लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई) की ओधक है और इन सबमें तुल्यता होती है। उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि सूच्यंगुल द्वारा वस्तु को दीर्घता, प्रतरांगुल द्वारा दीर्घता और विष्कंभ एवं घनांगुल द्वारा दीर्घता, विष्कंभ और पिंड को जाना जाता है। अंगुलत्रिक का अल्पबहुत्व 338. एतेसि णं भंते ! सूतिअंगुल-पयरंगुल-घणंगुलाण य कतरे कतरेहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ? सव्वत्थोवे सूतिअंगुले, पतरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंखेज्जगुणे / से तं आयंगुले / [338 प्र.] भगवन् ! इन सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में से कौन किससे अल्प, कौन किससे अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [338 उ.] आयुष्मन् ! इनमें सूच्यं गुल सबसे अल्प है, उससे प्रतरांगुल असंख्यातगुणा है और उससे घनांगुल असंख्यातगुणा है / 000 000 000 000000000 000000000 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] [अनुयोगद्वारसूत्र इस प्रकार आत्मांगुल का स्वरूप जानना चाहिए। विवेचन—सूच्यंगुल आदि अंगुलत्रिक का अल्पवहत्त्व उनके स्वरूप से स्पष्ट है। क्योंकि सूच्यंगुल में केवल दीर्घता ही होती है, अतएव वह अपने उत्तरवर्ती दो अंगुलों की अपेक्षा अल्प परिमाण वाला है। प्रतरांगुल में दीर्घता के साथ विष्कंभ भी होने से सूच्यंगुल की अपेक्षा उसका असंख्यात गुणाधिक प्रदेशपरिमाण होना स्वाभाविक है / घनांगुल में लम्बाई और चौड़ाई के साथ मोटाई का भी समावेश होने से उसमें प्रतरांगुल से असंख्यातगुणाधिकता स्पष्ट है / इसी कारण सूच्यंगूल आदि अंगूलनिक में पूर्व की अपेक्षा उत्तर अंगूल को असंख्यात-असंख्यात गुणा अधिक कहा है / ‘से तं प्रायंगले' पद पात्मांगुल के वर्णन की समाप्ति का सूचक है / उत्सेधांगुल 339. से कि तं उस्सेहंगुले ? उस्सेहंगुले अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा परमाणू तसरेण रहरेणू अग्गयं च वालस्स / लिक्खा जूया य जवो अट्टगुणविवड्डिया कमसो // 99 // [339 प्र.] भगवन् ! उत्सेधांगुल का क्या स्वरूप है ? [339 उ.] आयुष्मन् ! उत्सेधांगुल अनेक प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार परमाणु, सरेणु, रथरेणु, बालाग्र (बाल का अग्र भाग), लिक्षा (लीख), यूका (जं) और यव (जौ) ये सभी क्रमश: उत्तरोत्तर पाठ गुणे जानना चाहिए / 59 विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में उत्सेधांमुल का स्वरूप बताया है। उत्सेध कहते हैं बढ़ने को। अतएव जो अनन्त सूक्ष्म परमाणु, सरेणु........इत्यादि के क्रम से बढ़ता है, वह उत्सेधांगुल कहलाता है / अथवा नारकादि चतुर्गति के जीवों के शरीर की उच्चता-ऊंचाई का निर्धारण करने के लिये जिस अंगुल का उपयोग किया जाता है, उसे उत्सेधांगुल कहते हैं। उत्सेघांगुल तो एक है किन्तु उसकी अनेक प्रकारता परमाणु, बसरेणु आदि की विविधता की अपेक्षा से जानना चाहिए। किन्तु परमाण, सरेणु यादि स्वयं उत्सेधांगुल नहीं हैं। उनसे निष्पन्न होने वाला अंगुल उत्सेघांगुल कहलाता है / उत्सेधांगुल की निष्पत्ति की प्राद्य इकाई परमाणु है, अत: अब परमाणु आदि के क्रम से उत्सेधांगुल का सविस्तार वर्णन करते हैं। परमाणुनिरूपण 340. से कि तं परमाणू ? परमाणू दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुहुमे य 1 वावहारिए य 2 / [340 प्र.] भगवन् ! परमाणु क्या है ? Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [251 [340 उ.] आयुष्मन् ! परमाणु दो प्रकार का कहा है, यथा-१ सूक्ष्म परमाणु और 2 व्यवहार परमाणु / 341. तत्थ णं जे से सुहुने से ठप्पे / [341] इनमें से सूक्ष्म परमाणु स्थापनीय है अर्थात् यहाँ वह अधिकृत नहीं है। 342. से कि तं बावहारिए ? वावहारिए अणंताणं सुहुमपरमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं से एगे वावहारिए परमाणुपोग्गले निप्पज्जति / [342 प्र.] भगवन् ! व्यवहार परमाणु किसे कहते हैं ? [342 उ.] आयुष्मन् ! अनन्तानंत सूक्ष्म परमाणु ग्रों के समुदाय-समागम (एकीभाव रूप मिलन) सं एक व्यावहारिक परमाणु निष्पन्न होता है / विवेचन--सूत्र में उत्सेधांगुल को प्राद्य इकाई परमाणु का स्वरूप बतलाया है / परम+अणु = परमाणु, अर्थात् सब द्रव्यों में जिसकी अपेक्षा अन्य कोई अणुत्तर (अधिक छोटा) न हो, जिसमें चरमतम अणुत्व हो या जिसका पुनः विभाग न हो सके, ऐसे अविभागी अंश को परमाणु कहते हैं। परमाणु सामान्यतया पुद्गलद्रव्य की अविभागी पर्याय है, किन्तु कहीं-कहीं अन्य द्रव्यों के भी सूक्ष्मतम बुद्धिकल्पित भाग को परमाणु कहा जाता है। इस दृष्टि से परमाणु के चार प्रकार हैं-१ द्रव्यपरमाणु, 2 क्षेत्रपरमाणु, 3 कालपरमाणु, 4 भावपरमाणु / परमाणु से जो ब्राशय ग्रहण किया जाता है, उसके लिए कर्म साहित्य में अविभागप्रतिच्छेद शब्द का प्रयोग किया जाता है / परमाणु, पुद्गलद्रव्य की पर्याय होने से रूपी-मूर्त है। उसमें पौद्गलिक गुण-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पाये जाते हैं / तथापि अपनी सूक्ष्मता के कारण वह सामान्य ज्ञानियों द्वारा इन्द्रियग्राह्य नहीं है-दृष्टिगोचर नहीं होता है / लेकिन पारमार्थिक प्रत्यक्ष वाले केवलज्ञानी और क्षायोपशमिक ज्ञानी (परम अवधिज्ञानी) उसे जानते-देखते हैं। सामान्यतया तो एक प्राकाशप्रदेश में एक परमाणु रहता है. लेकिन इसके साथ ही परमाणु में सूक्ष्म परिणाम व अवगाहन रूप ऐसी विलक्षण शक्ति रही हुई है कि जिस प्रकाशप्रदेश को एक परमाणु ने व्याप्त कर लिया है, उसी आकाशप्रदेश में दूसरा परमाणु भी पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ रह सकता है। इतना ही नहीं, उसी प्राकाशप्रदेश में सूक्ष्म रूप से परिणत अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी रह सकता है / जैसे एक कमरे में एक दीपक का प्रकाश पर्याप्त है, किन्तु उसमें अन्य सैकड़ों दीपकों का प्रकाश भी समा जाता है। इसी प्रकार उस एक दीपक के अथवा सैकड़ों दीपकों के प्रकाश को एक लधु वर्तन से आच्छादित कर दिया जाए तो उसी में वह प्रकाश सिमट जाता है। इससे स्पष्ट है कि उन प्रकाशपरमाणुओं की तरह पुद्गल में संकोच-विस्तार Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [अतुयोनद्वारसूत्र रूप में परिणत होने की शक्ति है, अतएव परमाणु या परमाणुनों का पिंड-स्कन्ध जिस स्थान में अवस्थित होता है, उसी स्थान में अन्य परमाणु और स्कन्ध भी रह सकते हैं / आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से भी परमाणु की सूक्ष्मता का कुछ अनुमान लग सकता है / पचास शंख परमाणुओं का भार ढाई तोले के लगभग और व्यास एक इंच का दस करोड़वां भाग होता है। धूल के एक लघुतम कण में दस पद्म से भी अधिक परमाणु होते हैं / सिगरेट को लपेटने के पतले कागज की मोटाई में एक से एक को सटाकर रखने पर एक लाख परमाणु आ जायेंगे। सोड़ावाटर को गिलास में डालने पर उसमें जो नन्हीं-नन्हीं बंद उत्पन्न होती हैं, उनमें से एक बूंद के परमाणुओं की गणना करने के लिये तीन अरब व्यक्तियों को बैठा दें और वे निरन्तर विना खाये, पीये और सोये प्रतिमिनट यदि तीन सौ की गति से परिगणना करें तो उस बूद के परमाणुओं की समस्त संख्या को गिनने में चार माह का समय लग जायेगा। बारीक केश को उखाड़ते समय उसकी जड़ पर जो रक्त की सूक्ष्म वृंद लगी रहेगी, उसे अणुवीक्षण यंत्र के माध्यम से इतना बड़ा रूप दिया जा सकता है कि वह बूंद छह या सात फीट के व्यास वृत्त में दिखलाई दे तो भी उसके भीतर के परमाणु का व्यास 9 इंच ही होगा।' उपर्युक्त कथन का यह प्राशय हया कि जो परम अण रूप है, उसी को परमाणु कहते हैं / जैनदर्शन में इस परमाणु की विभिन्न अपेक्षाओं से व्याख्या इस प्रकार की गई है--- कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसगंधवर्णो द्विस्पर्शः कालिंगश्च // अर्थात् परमाणु किसी से उत्पन्न नहीं होता अत: वह कारण ही है / उससे छोटी दूसरी कोई वस्तु नहीं है अतः वह अन्त्य है, सूक्ष्म है और नित्य है / एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श वाला है तथा कार्य देखकर ही उसका अनुमान किया जा सकता है-प्रत्यक्ष नहीं होता है। __ अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं व इंदियगेज्झं / जं दवं अविभागो तं परमाणु विप्राणाहि / / अर्थात् जिसका आदि, मध्य और अन्त स्वयं वही है और जिसे इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकतीं, ऐसे विभागरहित द्रव्य को परमाणु समझना चाहिये। परमाणु के उपर्युक्त स्वरूप-निर्देश से यह स्पष्ट है कि परमाणु परम-अणु रूप है। उसके भेद नहीं हैं, लेकिन सामान्य जनों को समझाने के लिये वीतराग विज्ञानियों ने परमाणु के उपाधिकृत भेदों की कल्पना इस प्रकार की है-१. सूक्ष्म-व्यावहारिक, 2. कारणरूप-कार्यरूप / 1. जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान पृ. 47 2. तत्वार्थभाष्य, तत्वार्थराजवार्तिक, अनुयोगद्वारसूत्र टीका पत्र 161 3. सर्वार्थ सिद्धि पृ. 221 में उद्धत Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [253 सूक्ष्म और व्यावहारिक परमाण के विषय में विस्तार से आगे विचार किया जा रहा है / अतः यहाँ शेष भेदों के लक्षणों का ही निर्देश करते हैं कारणरूप-कार्यरूप परमाण-जो पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार धातुओं का हेतु है, वह कारणपरमाणु और स्कन्ध से पृथक् हुए अविभागी अन्तिम अंश को कार्यपरमाणु कहते हैं / अथवा स्कन्ध के विघटन से उत्पन्न होने वाला कार्यपरमाणु है और जिन परमाणुओं के मिलने से कोई स्कन्ध बने वह कारणपरमाणु है।' परमाणु के उपर्यत औपाधिक भेदों में से अब सूक्ष्म और व्यावहारिक परमाणु के विषय में विचार करते हैं कारण के बिना कार्य नहीं होता और परमाणुजन्य कार्य--स्कन्ध प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने से सूक्ष्म परमाणु है तो अवश्य किन्तु वह प्रकृत में अनुपयोगी है। अतएव उसके अस्तित्व को स्वीकार करके भी उसे स्थापनीय मानकर अनन्तानन्त सूक्ष्म पुद्गल-परमाणुनों के एकीभाव रूप संयोग से उत्पन्न होने वाले व्यावहारिक परमाणु का विवेचन करते हैं। व्यावहारिक परमाणु 343. [1] से णं भते ! असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा / हंता ओगाहेज्जा। से णं तस्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा ? नो इणठे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमति / [343-1 प्र.] भगवन् ! ध्यावहारिक परमाणु तलवार की धार या छुरे की धार को अवगाहित कर सकता है ? [343-1 उ.] हाँ, कर सकता है। [प्रश्न तो क्या वह उस (तलवार या छुरे से) छिन्न-भिन्न हो सकता है ? [उत्तर] यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ऐसा नहीं होता। शस्त्र इसका छेदन-भेदन नहीं कर सकता। विवेचन--पुद्गल द्रव्य के परमाणु और स्कन्ध ये दो मुख्य भेद हैं / प्रकारान्तर से छह भेद भी होते हैं 1. स्थूल-स्थूल-मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि ठोस पदार्थ / 2. स्थूल-दूध-दही, पानी, तेल आदि तरल पदार्थ / 3. स्थूल-सूक्ष्म-प्रकाश, उष्णता आदि / 1. नियमसार तात्पर्यवृत्ति 25 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254] [अनुयोगद्वारसूत्र 4. सूक्ष्म-स्थूल वायु-वाष्प आदि / 5. सूक्ष्म-कर्मवर्गणा आदि / 6. सूक्ष्म-सूक्ष्म अन्तिम निरंश पुद्गल परमाणु / ' पुद्गल के उक्त छह भेदों में से व्यवहार परमाणु का समावेश पांचवें सूक्ष्मवर्ग में होता है। [2] से णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीतोवदेज्जा ? हंता वितीवदेज्जा / से णं तत्थ डहेज्जा ? नो तिगठे समठे, गो खलु तत्थ सत्थं कमति / [343-2 प्र.] भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाणु अग्निकाय के मध्य भाग से होकर निकल जाता है ? [343-2 उ.] आयुष्मन् ! हाँ, निकल जाता है। [प्र.] तब क्या वह उससे जल जाता है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि अग्निरूप शस्त्र का उस पर असर नहीं होता। विवेचन-अग्नि के द्वारा भस्म नहीं होने पर शिष्य सोचता है कि जल तो उसे अवश्य ही नष्ट कर देता होगा / अतः पुनः प्रश्न पूछता है-- [3] से णं भंते ! पुक्खलसंवट्टयस्स महामेहस्स मज्झमझेणं वीतीवदेज्जा ? हता बोतोवदेज्जा / से णं तस्थ उदउल्ले सिया ? नो तिणठे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमति / [343-3 प्र.] भगवन् ! क्या व्यावहारिक परमाणु पुष्करसंवर्तक नामक महामेध के मध्य में से होकर निकल सकता है ? [343-3 उ.] अायुष्मन् ! हाँ, निकल सकता है / प्र.] तो क्या वह वहाँ पानी से गीला हो जाता है ? [उ.] नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है, वह पानी से भीगता नहीं, गीला नही होता है। क्योंकि अप्कायरूप शस्त्र का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। विवेचन-पुष्करसंवर्तक एक महामेघ का नाम है, जो उत्सर्पिणीकाल के 21 हजार वर्ष प्रमाण वाले दुपम-दुषम नामक प्रथम यारे की समाप्ति के अनन्तर दूसरे अरे के प्रारम्भ में सर्वप्रथम वरमता है। जैन मान्यता के अनुसार व्यवहार काल के दो भेद हैं--उत्सपिणीकाल पोर अवसर्पिणीकाल / उत्सपिणीकाल में मनुष्यादिक के बल, वैभव, श्री अादि की उत्तरोत्तर वृद्धि और अवपिणी में 1. बादरबादर-वादर बादरमुहुमं च सुहमथूलं च / सुहमं च सुहमसुहम धरादियं होदि छनभयं / / -गो. जीवकांड 603 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषम प्रमाणाधिकार निरूपण [255 उत्तरोत्तर ह्रास होता है। ये दोनों प्रत्येक दस-दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण के होते हैं और प्रत्येक छह-छह विभागों में विभाजित हैं। जिनको पारा या प्रारक कहते हैं / उत्सर्पिणी के अनन्तर अवपिणी और अवसर्पिणी के अनन्तर उत्सर्पिणी का क्रम भी निरन्तर परिवर्तित होता रहता है एवं इन दोनों के कुल मिलाकर बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कालमान को एक कालचक्र कहते हैं। ऐसे कालचक्र अतीत में अनन्त हो चुके है और अनागत में अनन्त होंगे। क्योंकि काल अनन्त है। पिणोद्वय काल के छह भेद और कालप्रमाण-~-१. दुषमादुषमा (2100 वर्ष), 2. दुषमा (21000 वर्ष), 3. दुधमासुषमा (4200 वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम), 4. सुषमादुषमा (दो कोडाकोडी सागरोपम), 5. सुषमा (तीन कोडाकोडी सागरोपम), 6. सुषमासुषमा (चार कोडाकोडी सागरोपम)। ये उर्षिणी काल के छह आरों के नाम हैं। इनके नाम क्रम से यह स्पष्ट हो जाता है कि पहले पारे से लगाकर उत्तरोत्तर सुख के साधनों की वृद्धि होती जाती है / इसके विपरीत अवरापिणी काल के भेदों के नाम इस प्रकार हैं-~१. सुषमासुषमा (4 कोडाकोडी सागरोपम), 2. सुषमा (तीन कोडाकोडी सागरोपम), 3. सुषमादुषमा (दो कोडाकोडी सागरोपम), 4. दुषम (42000 वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरापम), 5. दुषमा (21000 वर्ष), 6. दूपमादूपमा (21000 वर्ष)। इन कालभेदों में क्रमशः उत्तरोत्तर जीवों की आयु, श्री आदि में ह्रास होता जाता है। अवसर्पिणी कालगत चरम ह्रास के पश्चात् तथा उत्सर्पिणी काल का जब प्रथम पारा दुषमदुषम समाप्त हो जाता है और द्वितीय प्रारक दुषमा के लगते ही सकल जनों के अभ्युदय के निमित्त पुष्करसंवर्तक आदि महामेघ प्रकट होते हैं / पुष्करसंवर्तक नामक मेध भूमिगत समस्त रूक्षता, पादप आदि अशुभ प्रभाव को शांल-प्रशांत करके धान्यादि का अभ्युदय करता है / इस मेध में जल व हत होता है। इसीलिये शिष्य ने जिज्ञासा ब्यक्त की थी कि क्या व्यवहारपरमाण पृष्करसंवर्तक मेघ से प्रभावित होता है ? [4] से णं भंते ! गगाए महाणईए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा ? हंता हवमागच्छेज्जा। से णं तत्थ विणिधायमावज्जेज्जा ? नो तिणठे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमति / 6343-4 प्र.] भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाणु गंगा महानदी के प्रतिस्रोत (विपरीत प्रवाह) में शीघ्रता से गति कर सकता है ? [343-4 उ.] आयुष्मन् ! हाँ, वह प्रतिकूल प्रवाह में शीघ्र गति कर सकता है / [प्र. तो क्या वह उसमें प्रतिस्खलना (रुकावट) प्राप्त करता है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि (किसी भी) शस्त्र का उस पर असर नहीं होता है / विवेचन–प्रतिकूल प्रवाह में भी उस व्यावहारिक परमाणु के प्रतिस्खलित न होने के उत्तर को सुनकर शिष्य ने पुनः अपनी जिज्ञासा व्यक्त की [5] से णं भंते ! उदगावतं वा उदबदु वा ओगाहेज्जा? हंता प्रोगाहेज्जा / से गं तत्थ कुच्छेज्ज वा परियावज्जेज्ज वा? णो इणठे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमति / 1. अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति पृ. 161 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256] [अनुयोगद्वारसूत्र सत्येण सुतिखेण वि छेत्तु भेत्तव जं किर न सका / तं परमाणू सिद्धा वयंति प्रादी पमाणाणं // 10 // [343-5 प्र.] भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाणु उदकावर्त (जलभंवर) और जलबिन्दु में अवगाहन कर सकता है ? 343-5 उ.] अायुष्मन् ! हाँ, वह उसमें अवगाहन कर सकता है / [प्र.] तो क्या वह उसमें पूतिभाव को प्राप्त हो जाता है--सड़ जाता है ? [उ. यह यथार्थ नहीं है / उस परमाणु को जलरूपी शस्त्र आक्रांत नहीं कर सकता है / अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र से भी कोई जिसका छेदन-भेदन करने में समर्थ नहीं है, उसको ज्ञानसिद्ध केवली भगवान् परमाणु कहते हैं / वह सर्व प्रमाणों का प्रादि प्रमाण है अर्थात् व्यावहारिक परमाणु प्रमाणों की आद्य इकाई है / 100 विवेचन--परमाणु पुद्गलद्रव्य की पर्याय है / अतएव प्रस्तुत सूत्र में शिष्य ने पुद्गल के सड़नगलन धर्म को ध्यान में रखकर अपनी जिज्ञासा व्यक्त की है। उत्तर में प्राचार्य ने बतलाया कि ऐसा कहना, मानना, सोचना यथार्थ नहीं है। क्योंकि शस्त्र का प्रभाव तो स्थल स्कन्धों-पदार्थों पर ही पड़ता है, सूक्ष्म रूप में परिणत पदार्थों पर नहीं। यद्यपि यह व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्म (निश्चय) परमाणुगों का पिंड होने से स्कन्ध रूप है, किन्तु स्वभावतः सूक्ष्म रूप में परिणत होने के कारण उस स्कन्ध (व्यवहारपरमाणु) पर अग्नि, जल आदि किसी भी प्रतिपक्षी का प्रभाव नहीं पड़ता है। गाथोक्त सिद्धा' पद से सिद्धगति को प्राप्त हुए सिद्ध भगवन्त गृहीत नहीं हुए हैं। मुक्ति में विराजमान सिद्ध भगवान् वचन-योग से रहित हैं / इसलिये यहाँ पर सिद्ध शब्द का अर्थ ज्ञानसिद्धभवस्थकेवली भगवान् जानना चाहिए।' परमाणु की विशेषता बतलाने के बाद अब उसके द्वारा नियन्न होने वाले कार्यों का वर्णन करते हैं। व्यावहारिक परमाणु का कार्य 344. अणंताणं वावहारियपरमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिप्तमागमेणं सा एगा उस्साहसहिया ति वा सहसण्यिा ति वा उड्ढरेणू ति वा तसरेणू ति वा रहरे गूति वा / अट्ठ उस्साहसण्हियाओ सा एगा साहसहिया / अट्ठ सहसण्हियाओ सा एगा उड्ढरेणू / अट्ठ उट्टरेणूओ सा एगा तसरेणू / अट्ट तसरेणूओ सा एगा रहरेणू / अट्ट रहणूओ देवकुरु-उत्तरकुरुयाणं मणुयाणं से एगे वालग्गे / अट्ठ देवकुरु-उत्तरकुरुयाणं मणुयाणं बालग्गा हरिवास-रम्मगवासाणं मणुयाणं से एगे वालग्गे / अट्ठ हरिवस्स-रम्मयवासाणं मणुस्साणं वालग्गा हेमवय-हेरगणवयवासाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे। अट्ट हेमवय-हेरण्णवयवासाणं मणुस्साणं वालग्गा पुब्वविदेह-अवरविदेहाणं मणुस्साणं ते एगे वालग्गे। 1. सिद्धत्ति-ज्ञानसिद्धाः केबलिनो, न तु सिद्धाः सिद्धि गताः, तेषां वदनस्यासम्भवादिति ।-----अनुयोगद्वारवत्ति पत्र 161 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [257 अट्ट पुटवविदेह-अवरविदेहाणं मणूसाणं वालग्गा भरहेरखयाणं मणस्साणं से एगे वालग्गे / प्रह भरहेरक्याणं मसाणं वालग्गर साएगा लिक्खा / अट लिक्खाओ सा एगा जया। अट्ट यातो से एगे जयमज्झे / अट्ठ जवमने से एगे उस्सेहंगुले / [344] उन अनन्तानन्त व्यावहारिक परमाणुनों के समुदयसमितिसमागम (समुदाय के एकत्र होने) से एक उत्पलक्ष्णप्लक्षिाका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊर्ध्वरेणु, बसरेणु और रथरेणु उत्पन्न होता है। आठ उत्श्लक्ष्ण श्लक्षिणका की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है। पाठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका का एक ऊर्ध्वरेणु होता है / पाठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक बस रेणु, पाठ त्रसरेणुनों का एक रथरेणु, पाठ रथरेणुओं का एक देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों का बालान, पाठ देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों के बालानों का एक हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष के मनुष्यों का बालाग्र होता है / पाठ हरिवर्ष-रम्यवर्ष के मनुष्यों के बालानों के बराबर हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों के पाठ बालानों के बराबर पूर्व महाविदेह और अपर महाविदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है / पाठ पूर्व विदेह-अपर विदेह के मनुष्यों के बालानों के बराबर भरत-एरावत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालान होता है। भरत और एरावत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालारों की एक लिक्षा (लीख) होती है / पाठ लिक्षाओं की एक जूं, आठ जुओं का एक यवमध्य और पाठ यवमध्यों का एक उत्सेधांगुल होता है। 345. एएणं अंगुलपमाणे छ अंगुलाई पादो, बारस अंगुलाई बिहत्थी, चउच्चीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छो, छन्नउती अंगुलाई से एगे दंडे इ वा धणू इ वा जुगे इ वा नालिया इ वा अक्ले इ वा मुसले इ था, एएणं धणुप्पमाणेणं दो घणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाई जोयणं। [345] इस अंगुलप्रमाण से छह अंगुल का एक पाद होता है। बारह अंगुल की एक वितस्ति, चौबीस अंगुल की एक रनि, अड़तालीस अंगुल की एक कुक्षि और छियानवै अंगुल का एक दंड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल होता है / इस धनुषप्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है / विवेचन इन दो सूत्रों में बताया गया है कि उत्सेधांगुल की निष्पत्ति कैसे होती है ? पहले तो सामान्य रूप से कथन किया है कि अनन्त व्यावहारिक परमाणुओं के संयोग से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका आदि की निष्पत्ति होती है और उसके बाद उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका आदि को पूर्व-पूर्व की अपेक्षा आठ-पाठ गुणा बतलाया गया है। इन दोनों में से पहले कथन द्वारा यह प्रकट किया गया है कि ये सब अनन्त परमाणुओं द्वारा निष्पन्न होने की दृष्टि से समान हैं और दुसरे प्रकार द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अनन्त परमाणु प्रों से निष्पन्न होने की समानता होने पर भी पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर में अष्टगुणाधिकता रूप विशेषता है। इस प्रकार प्रथम कथन सामान्य रूप एवं द्वितीय कथन विशेष रूप समझना चाहिये / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258] [अनुयोगद्वारसूत्र उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका और श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ये दोनों भी अनन्त परमाणुओं की सूक्ष्म परिणामपरिणत स्कन्ध अवस्थायें हैं और व्यवहारपरमाणु की अपेक्षा कुछ स्थूल होती हैं। अतः व्यवहारपरमाणु से भिन्नता बताने के लिये इनका पृथक-पृथक नामकरण किया है। स्वतः या पर के निमित्त से ऊपर, नीचे और तिरछे रूप में उड़ने वाली रेणु-धलि का नाम ऊर्ध्वरेणु है। हवा आदि के निमित्त से इधर-उधर उड़ने वाले धूलिकण त्रसरेणु और रथ के चलने पर चक्र के जोर से उखड़ कर उड़ने वाली धूलि रथरेणु कहलाती है / बालान, लिक्षा आदि शब्दों के अर्थ प्रसिद्ध हैं। __ रथरेणु के पश्चात् देवकुरु-उत्तरकुरु, हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष आदि क्षेत्रों के क्रमोल्लेख से उसउस क्षेत्र संबन्धी शुभ अनुभाब की न्यूनता बताई गई है / प्रस्तुत सूत्र में मगध देश में व्यवहृत योजन का माप बताया है---‘चत्तारि गाउयाइं जोयणं'चार गव्यूतों का एक योजन होता है। गव्यूत का शब्दार्थ है-वह दूरी जिसमें गाय का रंभाना सुना मान्यतः गाय का रंभाना एक फाग तक सूना जा सकता है। अतः संभव है कि उस समय चार फलाँग का एक योजन होता हो। इससे यह भी फलित होता है कि अन्यान्य देशों में योजन के भिन्न-भिन्न माप प्रचलित थे। जिस देश में सोलह सौ धनुषों का एक गव्यूत होता है, वहाँ छह हजार चार सौ धनुषों का एक योजन होगा।' दिगंबर परंपरा में अंगुल का प्रमाण इस प्रकार बतलाया है-अनन्तानन्त सूक्ष्म परमाणुओं की एक प्रवसन्नासन्न, आठ अवसन्नासन्न की एक सन्त्रासन, पाठ सन्नासन का एक श्रुटरेणु (व्यवहाराणु), आठ त्रुटरेणु का एक सरेणु (त्रसजीव के पांव से उड़ने वाला अणु), आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु, पाठ रथरेणु का उत्तम भोगभूमिज का बालाग्र, आठ उत्तम भोगभूमिज के बालाग्र का एक मध्यम भोगभूमिज का बालाग्र, पाठ मध्यम भोगभूमिज के बालान का एक जघन्य भोगभूमिज का बालाग्र, आठ जघन्य भोगभूमिज के वालाग्न का एक कर्मभूमिज का बालाग्र, आठ कर्मभूमिज के बालाग्र की एक लिक्षा (लीख), पाठ लीख की एक जू, आठ जू का एक यव और पाठ यव का एक अंगुल, इसके आगे का वर्णन एक-सा है। उत्सेधांगुल का प्रयोजन 346. एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पओयणं ? एएणं उस्सेहंगुलेणं णेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणूसदेवाणं सरीरोगाहणाओ मविज्जति / {346 प्र.] भगवन् ! इस उत्सेधांगुल से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? [346 उ.] आयुष्मन् ! इस उत्सेधांगुल से नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों के शरीर की अवगाहना मापी जाती है। 1. बुद्धिस्ट इण्डिया, पृष्ठ 41 2. मागधग्रहणात क्वचिदन्यदपि योजनं स्यादिति प्रतिपादितं, तत्र यस्मिन देशे षोडशभिर्धन:शतर्गव्यूतं स्यात्तत्र षडभिः सहस्रं श्चतुभिः शतैर्धनुषां योजनं भवतीति / --स्थानांग पद 7. वत्ति पत्र 412 3. तिलोयपण्णत्ति 15102 / 116, तत्त्वार्थराजवार्तिक, हरिवंशपुराण, गो. जीवकांड आदि / Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [259 विवेचन--सूत्र में उत्सेधांगुल के उपयोग का प्रयोजन बताया है कि उससे नारकादिकों के शरीर की अवगाहना मापी जाती है। जीव दो प्रकार के हैं—मुक्त और संसारी। मुक्त जीवों की अटल अवगाहना होती है, अर्थात् सिद्ध तो जिस मनुष्यशरीर से मुक्ति प्राप्त की उससे त्रिभागन्यून अवगाहना वाले होते हैं / इनकी यह अवगाहना सादि अपर्यवसित है। किन्तु संसारी जीव जन्म-मरण रूप रण एक गति से गत्यन्तर में गमन करते हैं और वहाँ अपने कर्मोदयवशात जितनी ना वाला जैसा शरीर प्राप्त होता है, तदनुरूप भवयर्यन्त रहते हैं। उनकी यह अवगाहना अनियत होती है / इसलिये उनकी अवगाहना का प्रमाण जानना आवश्यक है और यह कार्य उत्सेधांगुल द्वारा संपन्न होता है / अतएव अब प्रश्नोत्तरों के द्वारा नारकादि जीवों की अवगाहना का वर्णन करते हैं। नारक-अवगाहना निरूपण 347. [1] गैरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेउब्विया य 2 / तस्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउम्विया सा जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं घणुसहस्सं / [347-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के शरीर की कितनी अवगाहना कही गई है ? [347-1 उ.] गौतम ! नारक जीवों की शरीर-अवगाहना दो प्रकार से प्ररूपित की गई है,-१. भवधारणीय (शरीर-अवगाहना) और 2. उत्तरवैक्रिय (शरीर-अवगाहना)। उनमें से भवधारणीय (शरीर) की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट पांच सौ धनुषप्रमाण है। उत्तरवैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक हजार धनुषप्रमाण है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नारक जीवों की अवगाहना का प्रमाण बताया है। वर्णन करने की दो शैलियां हैं सामान्य और विशेष / यहाँ सामान्य से समस्त नारक जीवों की भवधारणीय शरीरापेक्षया और उत्तरवैक्रियशरीरापेक्षया अवगाहना का निरूपण किया है। नारक आदि के शरीर द्वारा अवगाढ आकाश रूप क्षेत्र अथवा नारक अादि जीवों का शरीर अवगाहना शब्द का वाच्यार्थ है / गतिनामकर्म के उदय से नर-नारकादि भव में जिस शरीर की उपलब्धि होती है और उसकी जो ऊंचाई हो, वह भवधारणीय अवगाहना है। उस प्राप्त शरीर से प्रयोजनविशेष से अन्य शरीर की जो विकुर्वणा की जाती है, वह उत्तरवैक्रिय-अवगाहना कहलाती है।' 1. भवे-नारकादिपर्यायभवनलक्षणे प्राय:समाप्ति यावत्सततं ध्रियते या सा भवधारणीया, सहजशरीरगतेत्यर्थः या तु तद्ग्रहणोत्तरकालं कार्यमाश्रित्य क्रियते सा उत्तरवैक्रिया / अनुयोगद्वारवृत्ति, पत्र 164 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 अनुयोगद्वारसूत्र नारकों और देवों का भवधारणीय शरीर वैक्रिय होता है। तिर्यंचों एवं मनुष्यों का भवधारणीय शरीर तो औदारिक है, किन्तु किन्हीं-किन्हीं मनुष्यों और तिर्यंचयोनिक जीवों में लब्धिवशात् वैक्रियशरीर भी पाया जाता है / __ यद्यपि प्रकृत में सामान्यतः नारकों के शरीर की अवगाहना की जिज्ञासा की गई है लेकिन उत्तर में भेदपूर्वक उस अवगाहना का निर्देश इसलिये किया है कि भेद किये बिना शरीर की अवगाहना के प्रमाण को स्पष्ट रूप से बताना संभव नहीं है / / इस प्रकार सामान्य से नारकों की अवगाहना का प्रमाण कथन करने के पश्चात् अब विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पृथ्वियों के नारकों की अवगाहना बतलाते हैं। [2] रयणप्पभापुढवीए नेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता ! तं जहा-भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेउव्विया य 2 // तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग, उक्कोसेणं सत्त धणूई तिणि रयणीयो छच्च अंगुलाई।। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउविया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइज्जायो रयणीओ य / [347-2 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की कितनी शरीरावगाहना कही है ? [347-2 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार की कही गई है-१. भवधारणीय और 2. उत्तरवैक्रिय / उनमें से भवधारणीय शरीरावगाहना तो जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन रत्ति तथा छह अंगुलप्रमाण है। दूसरी उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष, अढ़ाई रत्नि-दो रत्नि और बारह अंगुल है। [3] सक्करप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेउव्विया य 2 / तस्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइज्जाओ रयणीओ य। तत्व णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं एक्कत्तीसं धणूई रयणी य। [347-3 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना कितनी कहीं है ? [347-3 उ.] गौतम ! उनकी अवगाहना का प्रतिपादन दो प्रकार से किया है / यथा 1. भवधारणीय और 2. उत्तरवैक्रिय / उनमें से भवधारणीय अवगाहना तो जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष दो रत्नि और बारह अंगुल प्रमाण है / Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [261 उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट इकतीस धनुष और एक रत्नि है। [4] वालुयपभापुढवीए णेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? . गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेविया य 2 / तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं एक्कतोसं धणूई रयणी य। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउन्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं बार्टि धणूई दो रयणीयो य / [347-4 प्र.] भगवन् ! बालुकाप्रभापृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना कितनी बड़ी प्रतिपादन की गई है ? [347-4 उ.] गौतम ! उनकी शरीरावगाहना दो प्रकार से प्रतिपादन की गई हैं। यथा१. भवधारणीय और 2. उत्तरवैक्रिय / इन दोनों में से प्रथम भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट इकतीस धनुष तथा एक रत्ति प्रमाण है। उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बासठ धनुष और दो रनि प्रमाण है। [5] एवं सवासि पुढवीणं पुच्छा भाणियवा-पंकप्पभाए भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं बासट्टि धणई दो रयणीओ य, उत्तरवेउन्विया जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पणुवीसं धणुसयं / धमप्पभाए भवधारगिज्जा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पणुवीसं धणुसयं, उत्तरवेउब्विया जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं अड्डाइम्जाई धणुसयाई। तमाए भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं अड्डाइज्जाई घणुसपाई, उत्तरवेउन्चिया जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंच धणुसयाई। {347-5] इसी प्रकार समस्त पृथ्वियों के विषय में अवगाहना सम्बन्धी प्रश्न करना चाहिये। उत्तर इस प्रकार है पंकप्रभापृथ्वी में भवधारणीय जघन्य अवमाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट बासठ धनुष और दो रत्ति प्रमाण है। उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक सौ पच्चीस धनुष प्रमाण है। धूमप्रभापृथ्वी में भवधारणीय जघन्य (शरीरावगाहना) अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट एक सौ पच्चीस धनुष प्रमाण है। उत्तरवैक्रिया शरीरावगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट ढाई सौ (दो सौ पचास) धनुष प्रमाण है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] अनुयोगद्वार सूत्र तमःप्रभापृथ्वी में भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट ढाई सौ धनुष प्रमाण है / उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष है। [6] तमतमापुढविनेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा! दुविहा पन्नता / तं जहा-भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेउम्विया य 2 / तत्थ गं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंच धणसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउन्विया सा जहन्नेणं अंगलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं धणुसहस्स। [347.6 प्र.] भगवन् ! तमस्तम पृथ्वी के नैरयिकों की शरीरावगाहना कितनी बड़ी निरूपित की गई है ? [347-6 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार की कही है.--१. भवधारणीय और 2. उत्तरवैक्रिय रूप / उनमें से भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है तथा उत्तरवैक्रिय शरीर की जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार धनुष प्रमाण है। विवेचन---प्रस्तुत सूत्र में विशेषापेक्षया सातों नरकपृथ्वियों के नैरयिकों की भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना की प्ररूपणा की गई है। सातों पृथ्वियों में बताई गई उत्कृष्ट भवधारणीय अवगाहना उन-उन पृथ्वियों के अन्तिम प्रस्तरों में होती है / भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना से उत्तरवैक्रिय अवगाहना का प्रमाण सर्वत्र दूना जानना चाहिये। दिगम्बर साहित्य में भी नारकों की उत्कृष्ट भवधारणीय शरीरावगाहना का प्रमाण यहाँ बतलाए गए प्रमाण के समान ही है / पृथक्-पृथक् प्रस्तरों की अपेक्षा किया गया पृथक्-पृथक् निर्देश इस प्रकार है---- प्रस्तर प्रथम पृ. द्वि. पृथ्वी तृ. पृथ्वी चतु. पृथ्वी पंचम पृथ्वी षष्ठ पृथ्वी सप्तम पृथ्वी संख्या ध. र. अं.* ध. र. अं. ध. र. अं. ध. र. अं. ध. र. अं. ध. र. अं. ध, र. अं. 1. 0,3, 0 8,2,210 17,1,103 35,2,200 75,0,0 166,2,16 500,0,0' 2. 1,1,83 9,0,224 19,0,93 40,0,17, 87,2,0 208,1,8 3. 1,3,17 9,3,1819 20,3, 8 4 4,2,134 100,0, 250,1, 4. 2,2,13 10,2,142 22,2,63 49,0,103 112,2,0 5. 3,0,10 11,1.1021 24,1,57 53,2,66 125,0,0 1. प्राधार -तिलोयपण्णत्ति 2/217-270, राजवार्तिक 3/3 * संकेत-ध. धनुष, र- रत्ति (हाथ), अं. अंगुल (गणना-१ धनुष == 4 हाथ, 24 अंगुल) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [263 6. 3,2,183 12,0,716 26,0,4 58,0,30 7. 4,1,3 12,3,3 27,3,246 2,2,0 8. 4,3,113 13,1,231 29,2,13 9. 5,1,20 14,7,1915 31,1,0 10, 6,0,43 14,3,151 11. 6,2,13 15,2,12 12. 7,0,213 भवनपति देवों की शरीरावगाहना 348. [1] असुरकुमाराणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता ! तं०-भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेउब्धिया य 2 / तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सत्त रयणोओ। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउल्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग उक्कोसेणं जोयणसत्तसहस्सं. [348-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों की कितनी शरीरावगाहना है ? [348-1 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार की है, यथा-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय अवगाहना / उनमें से भवधारणीय शरीरावगाहना तो जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सात रत्ति प्रमाण है। उत्तरवैक्रिय जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन प्रमाण है। [2] एवं असुरकुमारगमेणं जाव थणितकुमाराणं ताव भाणियन्वं / [348-2] असुरकुमारों की अवगाहना के अनुरूप ही नागकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों पर्यन्त समस्त भवनवासी देवों की दोनों प्रकार की अवगाहना का प्रमाण जानना चाहिये। पंच स्थावरों की शरीरावगाहना 349. [1] पुढ विकाइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं / एवं सुहमाणं ओहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाणं बादराणं ओहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाणं च भाणियब्वं / एवं जाव बावरचाउक्काइयाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाण भाणियव्वं / [349-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की शरीरावगाहना कितनी कही है ? [349-1 उ.] गौतम ! (पृथ्वीकायिक जीवों की शरीरावगाहना) जघन्य भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार सामान्य 1. असंख्यात के असंख्यात भेद होने से जघन्य की अपेक्षा उत्कृष्ट प्रवगाहना अधिक है। यही अपेक्षा सर्वत्र जानना चाहिये। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264) [अनुयोगद्वारसूत्र रूप से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की और (विशेष रूप से) सूक्ष्म अपर्याप्त और पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवों की तथा सामान्यतः बादर पृथ्वीकायिकों एवं विशेषतः अपर्याप्त और पर्याप्त पृथ्वीकायिकों की यावत् पर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों की शरीरावगाहना जानना चाहिये। [2] वणस्सइकाइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं। सुहुमवणस्सइकाइयाणं ओहियाणं 1 अपज्जत्तयाणं 2 पज्जत्तगाणं 3 तिण्ह वि जहन्ने] अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं। बादरवणस्ततिकाइयाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं सातिरेग नोयणसहस्स; अपज्जत्तयाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंलेज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग; पज्जत्तयाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उनकोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं / [349-2 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों की शरीरावगाहना कितनी है ? [349-2 उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक हजार योजन की है। सामान्य रूप में सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और (विशेष रूप में) अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है / प्रौधिक रूप से बादर वनस्पतिकायिक जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट साधिक एक हजार योजन प्रमाण है। विशेष-अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। पर्याप्त (बादर वनस्पतिकायिक जीवों) की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट साधिक एक हजार योजन प्रमाण होती है। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में तिर्यंचगति के उस और स्थावर रूप दो भेदों में से पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावर जीवों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है / द्वीन्द्रिय जीवों को अवगाहना ___ 350. [1] एवं बेइंदियाणं पुच्छा भाणियव्वा-बेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाई; अपज्जत्तयाणंजहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभाग; पज्जत्तयाणं ज० अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाई। [350-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की अवगाहना कितनी है ? [350-1 उ.] गौतम ! (सामान्य रूप से) द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन प्रमाण है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [265 अपर्याप्त (द्वीन्द्रिय जीवों) को जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है। पर्याप्त (द्वीन्द्रिय जीवों) की जघन्य शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन प्रमाण है। विवेचन द्वीन्द्रिय जीवों की अवगाहनावर्णन के प्रसंग में पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन प्रमाण बतलाई है, वह स्वयंभूरमणसमुद्र में उत्पन्न शंखों आदि की अपेक्षा से जानना चाहिये। किसी-किसी प्रति में द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग की लिखी है, यह चिन्तनीय है / त्रीन्द्रिय जीवों की शरीरावगाहना [2] तेइंदियाणं पुच्छा गो० ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, उक्कोसेणं तिष्णि गाउयाई; अपज्जत्तयाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जहभाग; पज्जत्तयाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं तिग्णि गाउयाई। [350-2 प्र.] भगवन् ! श्रीन्द्रिय जीवों की अवगाहना का मान कितना है ? [350-2 उ. गौतम ! सामान्यतः त्रीन्द्रिय जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस की है। अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों को जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना तीन गव्यूत प्रमाण है। विवेचन–पर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों की बताई गई तीन गव्यूत प्रमाण उत्कृष्ट अवगाहना अढ़ाई द्वीप (जम्बूद्वीप, धातकीखंड और अधंपुष्कर द्वीप) के बाहर के द्वीपों में रहने वाले कर्णशृगाली आदि त्रीन्द्रिय जीवों की अपेक्षा जानना चाहिये / चतुरिन्द्रिय जीवों को शरीरावगाहना [3] चारदियाण पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं; अपज्जत्तयाणं जहन्नेणं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेन्जइभागं; पज्जत्तयाणं पुच्छा, जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई / [350-3 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों को अवगाहना कितनी है ? [350-3 उ.] गौतम ! औधिक रूप से चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार गव्युत प्रमाण है। अपर्याप्त (चतुरिन्द्रिय जीवों) की जघन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र है / पर्याप्तकों की जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग एवं उत्कृष्टतः चार गव्यूत प्रमाण है / Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] [अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन-चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना का चार गव्यूत प्रमाण अढाई द्वीप से बाहर के भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से बताया गया है / पंचेन्द्रिय तियंच जीवों को शरीरावगाहना 351. [1] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / [351-1 प्र.] भगवन् ! तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की अवगाहना कितनी है ? [351-1 उ.] गौतम ! (सामान्य रूप में तिथंच पंचेन्द्रिय जीवों की) जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण है। [2] जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! एवं चेव / सम्मुच्छिमजलयरपंचेंबियाणं एवं चेव / अपज्जत्तगसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियाणं पुच्छा, जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, उक्कोसेण वि अंगलस्स असं० / पज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियाणं पुच्छा, जहन्नेणं अंगु० असंले० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / गम्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियाणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। अपज्जत्तयाणं पुच्छा, गो० ! जह० अंगु० असं० उक्कोसेणं अंगु० असं० / पज्जत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगु० असंख०, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / [351-2 प्र.] भगवन् ! जलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिकों की अवगाहना के विषय में पृच्छा है ? [351-2 उ.] गौतम ! इसी प्रकार है। अर्थात् जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की है / [प्र.] संमूच्छिम जलचरतियंचयोनिकों की अवगाहना के लिये जिज्ञासा है ? [उ.] गौतम ! संमूच्छिम जलचरतिर्यंचयोनिकों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की जानना चाहिये। [प्र.] अपर्याप्त समूच्छिम जलचरतियंचयोनिकों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी (अपर्याप्त समूच्छिम जलचरतिर्यंचयोनिकों की) जघन्य शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट अवगाहना भी अंगुल के असंख्यातवें भाग है / [प्र.] भगवन् ! पर्याप्त समूच्छिम जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [267 [प्र.] भगवन् ! गर्भव्युत्क्रांतजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनको शरीरावगाहना जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः योजनसहस्र की है। [प्र.] अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रांतजलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों को अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। [प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक गर्भजजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य शरीरावगाहना अगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजनप्रमाण है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में प्रथम सामान्य रूप से पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है, तत्पश्चात् उनके जलचर, स्थलचर और खेचर, इन तीन प्रकारों में से जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है / उनके सात अवगाहनास्थान हैं-१. सामान्य जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, 2. सामान्य संमूच्छिम जलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक, 3. अपर्याप्त संमूच्छिम जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, 4. पर्याप्त संमूच्छिम जलचरपंचेद्रियतियंचयोनिक 5, सामान्य गर्भज जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, 6. अपर्याप्त गर्भज जलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिक, 7. पर्याप्त गर्भज जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक / इसी प्रकार के अवगाहनास्थान स्थलचर और खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के भी जानना चाहिये। किन्तु इतना विशेष है कि स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यच चतुष्पद, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प इन तीन भेदों वाले होने से और प्रत्येक के सात-सात अवगाहनास्थान होने से कुल मिलाकर स्थलचर के इक्कीस अवगाहनास्थान हो जाते हैं तथा एक अवगाहनास्थान सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों के कुल मिलाकर अवगाहनास्थान छत्तीस होते हैं / जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के उक्त सात अवगाहनास्थानों में से जो उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन प्रमाण की बताई है, वह स्वयंभूरमणसमुद्र के मत्स्यों की अपेक्षा जानना चाहिये। स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक तीन प्रकार के हैं-१. चतुष्पद, 2. उरपरिसर्प, 3. भुजपरिसर्प / इन तीन प्रकारों में से अब चतुष्पदों को अवगाहना का प्रमाण बतलाते हैं [3] चउप्पयथलयराणं पुच्छा, गो० ! जह• अंगलस्स असं०, उक्कोसेणं छ गाउयाई। सम्मुच्छिमचउप्पयथलयराणं पुच्छा, गो० ! जह० अंगु० असं०, उक्कोसेणं गाउयपुहतं / अपज्जतगसम्मुच्छिमचउप्पयथलयराणं पुच्छा, गो० ! जह• अंगु० असं० उक्को० अंगु० असं०। पज्जत्तगसम्मुच्छिमचउप्पयथलयराणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंगु० असंले०, उक्को. गाउयपुहत्तं / Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268) [अनुयोगद्वारसूत्र गम्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपर्चेदियाणं पुच्छा, गोयमा ! जह० अंगु० असं०, उक्को० छ गाउयाई। अपज्जत्तयगम्भवतियचउप्पयथलयरपंचेंदियाणं पुच्छा, गो० ! जह० अंगु० असं० उक्कोसेणं अंग० असं० / पज्जत्तयाणं जहन्नेणं अंगु० असंखे०, उक्कोसेणं छ गाउयाई। उरपरिसप्पथलयरपंचिदियाणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंग० असं० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियाणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंगु० असंखे० उक्कोसेणं जोयणपुहत्तं। अपज्जत्तयाणं जह० अंगु० असं०, उक्कोसेणं अंगुल० असं० / पज्जत्तयाणं जह० अंग० असंखे०, उक्कोसेणं जोयणपुहत्तं / गम्भवक्कं तियरपरिसप्पथलयर० जह• अंगु० असं० उक्कोसेणं जोयणसहस्स; अपज्जत्तयाणं जह० अंगु० असं०, उक्कोसेणं अंगु० असं / पज्जत्तयाणं जह० अंगु० असंखे०, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / भुयपरिसप्पथलयराणं पुच्छा, गो० ! जह० अंगु० असंखे० उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं / सम्मुच्छिमभुय० जाव जह० अंगु० असं० उक्को० घणुपुहत्तं / अपज्जत्तगसम्मुच्छिमभुय० जाब पुच्छा, गो ! जह० अंगु० असं०, उक्को० अंगु० असं० / पज्जत्तयाणं जह० अअंग० संखे०, उक्कोसेणं धणहत्तं / गम्भवक्कैतियभुय० जाच पुच्छा, गो० ! जहः अंगु० असं०, उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं / अपज्जत्तयाणं जह० अंगु० असं०, उक्कोसेणं अंगु० असं० / पज्जत्तयगमवक्कं तिय० जाव पुच्छा, गो० ! जह० अंगु० असंखे०, उक्को० गाउयपुहत्तं / [351-3 प्र.] भगवन् ! चतुष्पदस्थलबरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना के विषय में जिज्ञासा है ? [351-3 उ.] गौतम ! सामान्य रूप में (चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यचों की) जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट छह गन्यूति की है।। [प्र.] समूच्छिम चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों को अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट गन्यूतिपृथक्त्व (दो से नौ गन्यूति) प्रमाण है। [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त समूच्छिम चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यचों को अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की है। [प्र.] भगवन् ! पर्याप्त समूच्छिम चतुप्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों की कितनी शरीरावगाहना है ? Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [उ.] गोतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट गन्यूतिपृथक्त्व की है। [प्र.] भगवन् ! गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की कितनी अवगाहना है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट छह गव्यूति प्रमाण शरीरावगाहना है / [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्त चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की कितनी शरीरावगाहना है ? उ.] गौतम ! उनकी जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है / [प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक गर्भन चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? [उ. गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट छह गव्यूति प्रमाण है। विवेचन यहाँ चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यच जीवों की सात अवगाहनास्थानों की अपेक्षा प्रत्येक की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण बतलाया है। गर्भज चतुष्पदों की छह मन्यूतिप्रमाण उत्कृष्ट अवगाहना देवकुरु आदि उत्तम भोगभूमिगत गर्भज हाथियों की अपेक्षा जानना चाहिये। अब स्थलचर के दूसरे भेद उरपरिसॉं की अवगाहना का प्रमाण बतलाते हैं[प्र.] भगवन् ! उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम! उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतियंत्रयोनिकों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट योजनसहस्र (एक हजार योजन) की है। [प्र. भगवन् ! संमूच्छिम उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट योजनपृथक्त्व है। [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त समूच्छिम उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की है। प्र.] पर्याप्त संमूर्छिम उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यचों की कितनी अवगाहना है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट योजनपृथक्त्व की है। कान्त उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना का प्रमाण कितना है ? Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270) [अनुयोगद्वारसूत्र [उ.] गौतम ! जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्ट अवगाहना एक सहस्र योजन की है। [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त गर्भजउरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। [प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है। विवेचन-प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में स्थलचर के दूसरे भेद उरपरिसर्पपंचेन्द्रिय तिर्यंचों के सात अवगाहनास्थानों में जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है। इनमें गर्भज पर्याप्त उरपरिसों की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन मनुष्यक्षेत्रबहिर्वीपवर्ती गर्भज सों की अपेक्षा जानना चाहिए। [प्र.] भगवन् ! अब भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना जानने की जिज्ञासा है ? _ [उ.] गौतम ! सामान्य से भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूतिपृथक्त्व की है। [प्र.] भगवन् ! संमूच्छिम भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों को अवगाहना का प्रमाण क्या है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व को अवगाहना है। [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त समूच्छिम भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिकों की अवगाहना का प्रमाण क्या है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवां भाग है। [प्र.] भगवन् ! पर्याप्त समूच्छिम भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना का प्रमाण कितना है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व की [प्र.] भगवन् ! गर्भव्युत्क्रान्त भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना का प्रमाण क्या है ? Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [271 [उ.] गौतम ! उनकी शरीरावगाहना का प्रमाण जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट गव्यूतपृथक्त्व है। [प्र.] भगवन् ! गर्भव्युत्क्रान्त अपर्याप्त भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल का असंख्यातवें भाग है। [प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट गव्यूतपृथक्त्व प्रमाण है। विवेचन--प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्य चयोनिकों की शरीरावगाहना का जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अपेक्षायों से सात अवगाहनास्थानों में प्रमाण बतलाया है। प्रागे खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाते हैं / [4] खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं०, गो० ! जह० अंगु० असं० उक्को० धणुपुहत्तं / सम्मुच्छिमखयराणं जहा भुयपरिसप्पसम्मुच्छिमाणं तिसु वि गमेसु तहा भाणियस्वं / गम्भवक्कंतियाणं जह• अंगु० असं०, उक्कोसेणं धणुपुहत्तं / अपज्जत्तयाणं जहन्नेणं अंगु० असं०, उक्को अंग० असं० / पज्जत्तयाणं जह० अंगु० असंखे०, उक्को० घणुपुहत्तं / [351-4 प्र.] भगवन् ! खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? [351-4 उ. गौतम ! उनकी जघन्य अवगाहना अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व प्रमाण है तथा सामान्य संमूच्छिम खेचरपंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना संमूर्छिम जन्म वाले भुजपरिसर्प पंचेन्द्रिय तिर्यचों के तीन अवगाहनास्थानों के बराबर समझ लेना चाहिये। [प्र.] भगवन् ! गर्भव्युत्क्रान्त खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की शरीरावगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व प्रमाण है। ___ [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्त खेचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिकों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है / [प्र.] भगवन् ! पर्याप्त गर्भज खेचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] [अनुयोगवारसूत्र [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य शरीरावगाहना का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व है। [5] एत्थ संगहणिगाहाओ भवंति / तं जहा जोयणसहस्स गाउयपुहत्त तत्तोय ओयणपुहत्तं / दोण्हं तु धणुपुहत्तं सम्मुच्छिम होइ उच्चत्तं // 101 / / जोयणसहस्स छग्गाउयाई तत्तो य जोयणसहस्सं / गाउयपुहत्त भुयगे पक्खोसु भवे धणुपुहत्तं // 102 // [351-5] उक्त समग्र कथन की संग्राहक गाथाएं इस प्रकार हैं संमूच्छिम जलचरतिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन, चतुष्पदस्थलचर की गव्यूतिपथक्त्व, उरपरिसर्पस्थलचर की योजनपथक्त्व, भुजपरिसर्पस्थलचर की एवं खेचरतियंचपंचेन्द्रिय की धनुषपृथक्त्व प्रमाण है। 101 गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में से जलचरों की एक हजार योजन, चतुष्पदस्थलचरों की छह गव्यूति उरपरिसर्पस्थलचरों को एक हजार योजन, भुजपरिसर्पस्थलचरों की गव्यूतिपृथक्त्व और पक्षियों (खेचरों) की धनुषपृथक्त्व प्रमाण उत्कृष्ट शरीरावगाहना जानना चाहिये / 102 विवेचन-उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में खेचरपंचेन्द्रिय तिर्यचों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है। इसके साथ ही एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के समस्त तिर्यंचगति के जीवों की अवगाहना का वर्णन समाप्त हुआ। उपर्युक्त कथन को निम्नलिखित प्रारूप द्वारा सुगमता से समझा जा सकता हैअवगा- नाम जघन्य अवगाहना उत्कृष्ट अवगाहना हना क्रम 1. सामान्य पंचेन्द्रिय अंगु. के असंख्यातवें भाग एक हजार योजन प्रमाण जलचर 1. सामान्य जलचर अंगु. के असं. भाग एक हजार योजन 2. समूच्छिम जलचर अंगु के असंख्या. भाग एक हजार योजन 3. अपर्या , अंगुल के असंख्यातवें भाग 4. पर्याप्त एक हजार योजन 5. सामान्य गर्भज 6. अपर्याप्त , अंगुल के असंख्यातवें भाम 7. पर्याप्त , एक हजार योजन प्रमाण स्थलचर (क) चतुष्पद 1. सामान्य चतुष्पद अंगुल के असंख्या. भाग छह गव्यूति प्रमाण 2. संमू. , गव्यूतिपृथक्त्व Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [273 अवगाहना क्रम नाम जघन्य अवगाहना उत्कृष्ट अवगाहना --- - - . .---..--. अंगुल के असंख्यातवें भाग गव्यूतपृथक्त्व छह गव्यूति प्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग छह गव्यूति प्रमाण अंगुल एक हजार योजन प्रमाण योजनपथक्त्व अंगुल के असंख्यातवें भाग योजनपृथक्त्व एक हजार योजन प्रमाण अंगुल का असंख्यातवां भाग एक हजार योजन प्रमाण 3. अप. संमू. , अंगुल के असंख्यातवें भाग 4. पर्या., , 5. सामान्य गर्भज 6. अप. , 7. पर्या. , (ख) उरपरिसर्प 1. सामान्य उरपरिसर्प / - के असं. भाग 2. संभू. , 3. अप. 4. पर्या. 5. सामान्य गर्भज अप. ग. 7. पर्या. ग. (ग) भुजपरिस 1. सामान्य भुजपरिसर्प अंगु. का असंख्यातवें भा. 2. सामान्य भुज. समू. // 3. संभू. , अपर्याप्त , , 4. " " पर्याप्त , 5. सामान्य भुज. गर्भज " 6. गर्भ. भूज. अप. 7. " " पर्याप्त खेचर 1. सामान्य खेचर 2. समू. खेचर 3. संमू. खेचर अप. 4. , , पर्याप्त / सामान्य गर्भज खेचर 6. गर्भज खेचर अप. 7. , पर्याप्त गव्यूतिपृथक्त्व धनुषपृथक्त्व अंगुल का असं. भाग धनुषपृथक्त्व गव्यूतिपृथक्त्व अंगुल का असंख्या. भाग गव्यूतिपृथक्त्व धनुषपृथक्त्व अंगुल का असं. भाग धनुषपृथक्त्व x w अंगुल का असं. भाग धनुषपृथक्त्व इस प्रकार तिर्यच पंचेन्द्रियों के छत्तीस अवगाहनास्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण जानना चाहिए। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] .. [अनुयोगद्वारसूत्र मनुष्यगति-अवगाहनानिरूपण 352. [1] मणुस्साणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई / [352-1 प्र. भगवन् ! मनुष्यों की शरीरावगाहना कितनी कही गई है ? [352-1 उ.] गौतम (सामान्य रूप में) मनुष्यों की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट तीन गन्यूति है। [2] सम्मुच्छिममणुस्साणं जाव गोयमा ! जहन्नेणं अंगु० असं०, उक्को० अंगु० असं० / [352-2 प्र.] भगवन् ! संमूच्छिम मनुष्यों की अवगाहना कितनी है ? [252-2 उ.] गौतम ! संमूच्छिम मनुष्यों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। [3] गम्भवक्कंतियमस्साणं जाव गोयमा ! जह० अंगु० असं०, उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई। अपज्जतगगम्भवक्कंतियमणुस्साणं पुच्छा, गो० ! जह• अंगु० असं० उपकोसेण वि अंगु० असं०। पज्जत्तयग० पुच्छा गो० ! जह० अंगु० असंखे०, उक्कोसेणं तिनि गाउआई। [352-3 प्र.] भगवन् ! गर्भव्युत्क्रान्त मनुष्यों की अवगाहना की पृच्छा है ? [352-3 उ.] गौतम ! सामान्य रूप में गर्भज मनुष्यों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट तीन गव्यूति प्रमाण है। [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्त मनुष्यों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] उनकी जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। [प्रभगवन् ! पर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों की अवगाहना का प्रमाण कितना है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट अवगाहना तीन गव्यूति प्रमाण है। विवेचन--प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में मनुष्यों कीशरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है। मनुष्यों के पांच अवगाहनास्थान हैं..१. सामान्य मनुष्य, 2. संमूच्छिम मनुष्य, 3. गर्भज मनुष्य, 4. पर्याप्त गर्भज मनुष्य और 5. अपर्याप्त गर्भज मनुष्य / संमूच्छिम तिर्यचों की तरह समूच्छिम मनुष्यों में अपर्याप्त और पर्याप्त थे दो विकल्प नहीं होते। समूच्छिम मनुष्य गर्भज मनुष्यों के शुक्र, शोणित ग्रादि में ही उत्पन्न होते हैं और वे अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं। अत: उनमें पर्याप्त, अपर्याप्त विकल्प संभव न होने से तज्जन्य अवगाहनास्थान भी नहीं बताये हैं। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्त प्रमाणाधिकार निरूपण] [275 सामान्य पद में मनुष्यों की जो उत्कृष्ट अवगाहना तीन गव्यूति प्रमाण कही गई है, वह देवकुरु आदि के मनुष्यों की अपेक्षा जानना चाहिए। दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में मनुष्यगति सम्बन्धी शरीरावगाहना का प्रमाण क्षेत्रापेक्षा और सुषमासुषमा आदि कालों की अपेक्षा से भी पृथक्-पृथक् बतलाया है। ज्ञातव्य होने से उसको यहाँ उद्धृत करते हैं। भरतादि क्षेत्रों तथा भूमि की अपेक्षा अवगाहना का प्रमाण इस प्रकार है गणना--२००० धनुष का एक कोस अधिकरण अवगाहना क्षेत्रनिर्देश मिनिर्देश जघन्य उत्कष्ट 1. भरत, ऐरबत कर्मभूमि 33 हाथ 525 धनुष हैमवत, हैरण्यवत जघन्य भोगभूमि 525,500 धनुष 2000 धनुष हरि, रम्यक मध्यम भोगभूमि 2000 धनुष 4000 धनुष विदेह 500 धनुष 500 धनुष देवकुरु, उत्तरकुरु उत्तम 4000 धनुष 6000 धनुष अन्तर्वीप कुभोगभूमि 500 धनुष 2000 धनुष छह आरों की अपेक्षा मनुष्यों की अवगाहनाअवपिणी कालनिर्देश उत्सपिणी जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सुषमासुषमा 4000 ध. 6000 ध. दुषमादुषमा 1 हाथ 3 या 33 हाथ सुषमा २०००व. 4000,, दुषमा 3 या 33 हाथ 7 हाथ सुषमासुषमा 525 ध. 2000 ,, दुषमासुषमा 7 हाथ 525 धनुष दुषमासुषमा 7 हाथ 525 , सुषमादुषमा 525 धनुष 2000 धनुष 3 या 33 7 हाथ सुषमा 2000 धनुष 4000 धनुष हाथ दुषमादुषमा 1 हाथ 3 या 33 हाथ सुषमासुषमा 4000 धनुष 6000 धनुष इस प्रकार से मनुष्यों की अवगाहना बतलाने के बाद भवनपति देवों का वर्णन पूर्व में कर दिये जाने से अब देवगति के वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक निकाय के देवों की अवगाहना का निरूपण किया जाता है। 1. प्राधार—मूलाचार 1063,1087, सर्वार्थसिद्धि 3/29-31, तत्त्वार्थराजवार्तिक 3/29-31, धवला 4/1,3,2/45, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 11/54, तत्त्वार्थसार 2/137 2.. आधार----तिलोयपण्णात्ति 4 / 335, 396, 404, 1277, 1475, 1536, 1564, 1568, 1576, 1595 1597, 1598, 1600, 1601, 1602, 1604 माथायें / कालनिर्देश दुषमा --- -- - -- Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276] [अनुयोगद्वारसूत्र वाण-व्यंतर और ज्योतिष्क देवों को अवगाहना 353. वाणमंतराणं भवधारणिज्जा उत्तरवेउन्विया य जहा असुरकुमाराणं तहा भाणियव्यं / [353 / वाणव्यंतरों की भवधारणीय एवं उत्तर वैक्रियशरीर की अवगाहना असुरकुमारों जितनी जानना चाहिये। 354. जहा वाणमंतराणं तहा जोतिसियाणं / [354 | जितनी (भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय रूप) अवगाहना वाणव्यतरों की है, उतनी ही ज्योतिष्क देवों की भी है। विवेचन-इन दो सूत्रों में वाणव्यंतर और ज्योतिष्क देवनिकायों की शरीरावगाहना का प्रमाण पूर्व में कथित असुरकुमारों की अवगाहना के अतिदेश द्वारा बतलाया है। जिसका तात्पर्य यह हुआ कि असुरकुमारों की जो भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट सात रत्नि और उत्तरवैक्रिय की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की कही है, इतनी ही अवगाहना इन व्यंतरों एवं ज्योतिष्क देवों की भी है। लब्धि की अपेक्षा देव पर्याप्तक ही होते हैं। अतएव पर्याप्त, अपर्याप्त विकल्प संभव नहीं होने से इनकी पृथक्-पृथक् अवगाहना का प्रमाण नहीं बताया है, किन्तु वैक्रियशरीरी होने से विविध प्रकार के उत्तरवैक्रिय रूप निष्पन्न करने की क्षमता वाले होने से तत्संबन्धी जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है / वैमानिक देवों को अवगाहना 355. [1] सोहम्मयदेवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा प० / तं०-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउम्विया य। तत्थ गंजा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त रयणीओ। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजहभाग, उक्कोसेणं मोयणसत सहस्सं। [355-1 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प के देवों की शरीरावगाहना कितनी है ? [355-1 उ.] गौतम ! (सौधर्मकल्प के देवों की अवगाहना) दो प्रकार की कही गई हैभवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। इनमें से भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात रत्नि है। उत्तरवैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन प्रमाण है। [2] जहा सोहम्मे तहा ईसाणे कप्पे वि भाणियन्वं / [355-2] ईशानकल्प में भी देवों की अवगाहना का प्रमाण सौधर्मकल्प जितना ही जानना चाहिये। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [3] जहा सोहम्मयदेवाणं पुच्छा तहा सेसकप्पाणं देवाणं पुच्छा भाणियवा जाव अच्चुयकप्पो सणकुमारे भवधारणिज्जा जह० अंगु० असं० उषकोसेणं छ रयणीओ; उत्तरवेउब्धिया जहा सोहम्मे। जहा सणंकुमारे तहा माहिदे / बंभलोग-लंतएसु भवधारणिज्जा जह० अंगुल० असं०, उक्को० पंच रयणीओ; उत्तरवेउव्विया जहा सोहम्मे। महासुक्क-सहस्सारेसु भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगु० असं०, उक्कोसेणं चत्तारि रयणीओ; उत्तरवेउन्विया जहा सोहम्मे / आणत-पाणत-आरण-अच्चुतेसु चउसु वि भवधारणिज्जा जह• अंगु० असं०, उक्कोसेणं तिण्णि रयणीओ; उत्तरवेउन्धिया जहा सोहम्मे / [355-3] सौधर्मकल्प के देवों की शरीरावगाहना विषयक प्रश्न की तरह ईशानकल्प को छोड़कर शेष अच्युतकल्प तक के देवों को अवगाहना संबन्धी प्रश्न पूर्ववत् जानना चाहिये। उत्तर इस प्रकार हैं सनत्कुमारकल्प में भवधारणीय जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट छह रत्नि प्रमाण है, उत्तरवैक्रिय अवगाहना सौधर्मकल्प के बराबर है। सनत्कुमारकल्प जितनी अवगाहना माहेन्द्रकल्प में जानना। ब्रह्मलोक और लांतक-इन दो कल्पों में भवधारणीय शरीर की अधन्य अवगाहना अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना पांच रत्ति प्रमाण है तथा उत्तरवैक्रिय अवगाहना का प्रमाण सौधर्मकल्पवत् है। महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार रत्ति प्रमाण है तथा उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना सौधर्मकल्प के समान है। अानत, प्राणत, प्रारण और अच्युत-इन चार कल्पों में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट तीन रत्नि की है। इनकी उत्तरक्रिय अवगाहना सौधर्मकल्प के ही समान है। विवेचन-देवों के चार निकाय हैं-भवनपति, वाण-व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक / इनमें से आदि के तीन निकाय इन्द्र प्रादि कृत भेदकल्पना पाये जाने से निश्चितरूपेण कल्पोपपन्न ही हैं। फिर भी रूढि से 'कल्प' शब्द का व्यवहार वैमानिकों के लिये ही किया जाता है। सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त के देव इन्द्रादि भेद वाले होने से कल्पोपपन्न हैं और इनसे ऊपर ग्रैवेयक आदि सर्वार्थसिद्ध तक के विमानों में इन्द्रादि की कल्पना नहीं होने से वहाँ के देव कल्पातीत कहलाते हैं। उपर्युक्त सूत्र में कल्पोपपन्न वैमानिक देवों के सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त के देवों की Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 [अनुयोगद्वारसूत्र भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रिय अवगाहना का प्रमाण जघन्य तथा उत्कृष्ट इन दोनों अपेक्षाओं से बतलाया है। - इन सभी कल्पवासी देवों को उत्तरवैक्रिय जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना समान अर्थात् जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। यह उत्तरवैक्रिय उत्कृष्ट शरीरावगाहना का प्रमाण उनकी योग्यता--क्षमता की अपेक्षा से ही जानना चाहिए। लेकिन भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना में अन्तर है / इसका कारण यह है कि ऊपर-ऊपर के प्रत्येक कल्प में वैमानिक देवों की आयुस्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति-कांति, लेश्याप्रों की विशुद्धि, विषयों को ग्रहण करने की ऐन्द्रियक शक्ति एवं अवधिज्ञान की विशदता अधिक है।' किन्तु एक देश से दूसरे देश में गमन करने रूप गति, शरीरावगाहना, परिग्रह-ममत्वभाव और अभिमान भावना उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर के देवों में होन-हीन होती है / 2 इसी कारण सौधर्मकल्प में देवों की शरीरावगाहना सात रत्नि प्रमाण है तो वह बारहवें अच्युतकल्प में जाकर तीन रत्नि प्रमाण रह जाती है / इसी प्रकार उत्तरोत्तर शरीरावगाहना की हीनता का क्रम |वेयक से लेकर सर्वार्थसिद्ध विमान तक के कल्पातीत देवों के लिये भी जानना चाहिये। 'जहा सोहम्मयदेवाणं पुच्छा तहा सेसकप्पाणं देवाणं पुच्छा भाणियव्वा जाव अच्चुयकप्पो' इस वाक्य में इस प्रकार के प्राश्निक पदों का समावेश किया गया है-'सणकुमारे कप्पे देवाणं भंते! केमहालिया सरीरोगाणा पग्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य / तत्थ णं जा सा...।' इसी प्रकार से शेष कल्पों के नामों का उल्लेख करके उनउनके प्रश्न की उद्भावना कर लेना चाहिये। इस प्रकार से कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाने के अनन्तर "अब कल्पातीत वैमानिकों की शरीरावगाहना का निरूपण करते हैं। [4] गेवेज्जयदेवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नता? गो० ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जए सरीरए, से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं दो रयणीओ। [355-4 प्र.] भगवन् ! अवेयकदेवों की शरीरावगाहना कितनी है ? 355-4 उ.] गौतम ! |वेयकदेवों के एकमात्र भवधारणीय शरीर ही होता है / उस शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना दो हाथ की होती है। [5] अणुत्तरोववाइयदेवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोयमा ! अणुत्तरोक्वाइयदेवाणं एगे भवधारणिज्जए सरीरए, से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं एक्का रयणी। 1. स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्या विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः / 2. गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः / -तत्त्वार्थसूत्र 4 / 20,21 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hos: प्रमाणाधिकार निरूपण] [279 [355-5 प्र.] भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक देवों के शरीर की कितनी अवगाहना होती है ? [355-5 उ.] गौतम ! अनुत्तरविमानवासी देवों के एकमात्र भवधारणीय शरीर ही कहा गया है / उसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हाथ की होती है। विवेचन--यहाँ ग्रेवेयक और अनुत्तर विमानवासी देवों की अवगाहना का प्रमाण बतलाया है / ये देव उत्तरविक्रिया नहीं करते हैं, अतएव इनकी भवधारणीय शरीर की अवगाहना का ही प्रमाण बतलाया है। ___चतुर्विध देवनिकायों की शरीरावगाहना के प्रमाण का सुगमता से बोध कराने वाला प्रारूप इस प्रकार है-- क्रम देवनाम भवधारणीय उत्तरवैक्रिय जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट 1. भवनपति अंग.असं.भाग सात हाथ अंगु.सं. भाग एक लाख यो. 2. वाण-व्यंतर 3. ज्योतिष्क 4. सौधर्म-ईशान 5. सनत्कुमार-माहेन्द्र छह हाथ 6. ब्रह्मलोक-लान्तक पांच हाथ 7. महाशुक्र-सहस्रार चार हाथ 8. पानत-प्राणत तीन हाथ 9. पारण-अच्युत तीन हाथ 10. वे क दो हाथ 11. अनुत्तर एक हाथ यह सर्व अवगाहना उत्सेधांगुल से मापी जाती है। उत्सेधांगुल के भेद और भेदों का अल्पबहुत्व 356. से समासओ तिविहे पण्णत्ते / तं जहा---सूईअंगुले पयरंगुले घणंगुले / अंगुलायता एगपदेसिया सेढी सूईअंगुले, सूई सूईए गणिया पयरंगुले, पयरं सूईए गुणियं धणंगुले। [356] वह उत्सेधांगुल संक्षेप से तीन प्रकार का कहा गया है / यथा-सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और धनांगुल। एक अंगुल लम्बी तथा एक प्रदेश चौड़ी प्राकाशप्रदेशों की श्रेणी (पंक्ति --रेखा) को सूच्यंगुल कहते हैं / सूची से सूची को गुणित करने पर प्रतरांमुल निष्पन्न होता है, सूच्युंगल से गुणित प्रतरांगुल धनांगुल कहलाता है।' 1. सूच्यंगुल में केवल लम्बाई का, प्रतरांगुल में लम्बाई और चौड़ाई का तथा धनांगुल में लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई --तीनों का ग्रहण होता है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 [अनुयोगद्वारसूत्र 357. एएसि णं सूचीअंगुल-पयरंगुल-धणंगलाणं कतरे कतरेहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा? __ सम्वत्थोवे सूईअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, धणंगुले असंखेज्जगुणे। से तं उस्सेहंगुले / [357 प्र.] भगवन् ! इन सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [357 उ.] इनमें सर्वस्तोक (सबसे छोटा) सूच्यंगुल है, उससे प्रतरांगुल असंख्यातगुणा और प्रतरांगुल से घनांगुल असंख्यातगुणा है / इस प्रकार यह उत्सेधांगुल का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-पात्मांगुल की तरह यह उत्सेधांगुल भी सूची, प्रतर और धन के भेद से तीन प्रकार का है। इनका स्वरूप तथा अल्पबहुत्व एवं अल्पबहुत्व के कारण को प्रात्मांगुलवत् समझ लेना चाहिए। प्रमाणांगुलनिरूपण 358. से कि तं पमाणंगुले? पमाणंगुले एगमेगस्स णं रणो चाउरंतचक्कट्टिस्स अट्ठ सोवण्णिए कागणिरयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्ठकण्णिए अहिगरणिसंठाणसंठिए पण्णत्ते, तस्स णं एगमेगा कोडो उस्सेहंगुलविक्खंभा, तं समणस्स भगवनो महावीरस्स अद्धंगुलं, तं सहस्सगुणं पमाणंगुलं भवति / [358 प्र.) भगवन् ! प्रमाणांगुल का क्या स्वरूप है ? [358 उ.] प्रायुष्मन् ! (परम प्रकर्ष रूप परिमाण को प्राप्त--सबसे बड़े अंगुल को प्रमाणांगुल कहते हैं / ) भरतक्षेत्र पर अखण्ड शासन करने वाले चक्रवर्ती राजा के अष्ट स्वर्णप्रमाण, छह तल बाले, बारह कोटियों और पाठ कणिकाओं से युक्त अधिकरण संस्थान (सुनार के एरण जैसे आकार वाले) काकणीरत्न की एक-एक कोटि उत्सेधांगुल प्रमाण विष्कभ (चौड़ाई) वाली है, उसकी वह एक कोटि श्रमण भगवान् महावीर के अर्धागुल प्रमाण है / उस अर्धांगुल से हजार गुणा (अर्थात् उत्सेधांगुल से हजार गुणा) एक प्रमाणांगुल होता है। 359. एतेणं अंगुलष्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दो पाया-दुवालस अंगुलाई विहत्थो, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छो, दो कुच्छीमो धण, दो घणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाई जोयणं / 359] इस अंगुल से छह अंगुल का एक पाद, दो पाद अथवा बारह अंगुल की एक वितस्ति, दो वितस्तियों की रत्लि (हाथ), दो रत्नि की एक कुक्षि होती है। दो कुक्षियों का एक धनुष, दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है। विवेचन-इन दो सूत्रों में से पहले में प्रमाणांगुल का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ बतला कर उसके यथार्थ मान का निर्देश किया है। इसी प्रसंग में चक्रवर्ती राजा का स्वरूप, उसके प्रमुख रत्न काकणी Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [281 का प्रमाण और श्रमण भगवान् महावीर के आत्मांगुल का मान बता दिया है। इस तरह एक ही प्रसंग में अनेक वस्तुओं का निर्देश करके जिज्ञासुनों को सुगमता से बोध कराया है। प्रमाणांगुल' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ सुगम है। चक्रवर्ती राजा का लक्षण बताने से लिये 'एगमेगस्स' और 'चाउरंतचक्कवट्टिस्स' यह षष्ठी विभक्त्यन्त दो विशेषण दिये हैं। इनमें से एगमेगस्स विशेषण का अर्थ यह है कि एक समय में एक क्षेत्र में एक ही चक्रवर्ती राजा होता है, अधिक नहीं / जम्बूद्वीप में कर्मभूमिक क्षेत्र भरत और ऐरवत ये दो हैं / इनके सिवाय शेष क्षेत्र अकर्मभूमिक (भोगभूमिक) हैं। उनमें शासक, शासित प्रादि व्यवस्था नहीं होती है। अतएव भरतक्षेत्रापेक्षा दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन तीन दिशाओं में फैले हुए लवणसमुद्र और उत्तर में हिमवन्पर्वत पर्यन्त तक पांच म्लेच्छ और एक आर्यखंड इस प्रकार छह खण्डों से मंडित सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को विजित कर एकच्छत्र शासन करने वाले राजा चातुरंतचक्रवर्ती कहलाते हैं।' तीर्थकरों की तरह चक्रवर्ती राजा भी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के तीसरे, चौथे पारे में होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती सात एकेन्द्रिय और सात पंचेन्द्रिय, कुल चौदह रत्नों का स्वामी होता है / अपनी-अपनी जाति में सर्वोत्कृष्ट होने के कारण इन्हें रत्न कहा जाता है। प्रस्तुत में उल्लिखित काकणीरत्न पार्थिव है और वह पाठ सुवर्ण जितना भारी (वजन वाला) होता है। सुवर्ण उस समय का एक तोल था। इसका विवरण पूर्व में बताया जा चुका है। साथ ही उसके आकार-संस्थान आदि का उल्लेख करते हुए बताया है कि वह चारों ओर से सम होता है। उसकी आठ कणिकायें और बारह कोटियां होती हैं। प्रत्येक कोटि एक उत्सेधांगुल विष्कंभ प्रमाण होती है। काकणीरत्न विष को नष्ट करने वाला होता है। यह सदा चक्रवर्ती के स्कन्धाबार में स्थापित रहता है। इसकी किरणे बारह योजन तक फैलती हैं / जहाँ चंद्र, सूर्य, अग्नि आदि अंधकार को नष्ट करने में समर्थ नहीं होते, ऐसी तमिस्रा गुफा में यह काकणी रत्न अंधकार को समूल नष्ट कर देता है। 'चउरंगूलप्पमाणा सूवण्णवरकागणी तेये ति' अर्थात चतुरंगुल प्रमाण काकणीरत्न जानना चाहिये, ऐमा किसी-किसी ग्रन्थ में कहा गया है। लेकिन तथाविध संप्रदाय की उपलब्धि न 1. ऐश्वत क्षेत्र की अपेक्षा पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में फैले लवणसमुद्र और दक्षिण दिशा में शिखरी पर्वत पर्यन्त के ऐरवत क्षेत्र को विजित करने वाले समझना चाहिये। 2. विष्कंभ शब्द का प्रयोग काकिणीरत्न की समचतुरस्रता का बोध कराने के लिये किया है कि इसका मायाम-लम्बाई और विष्कंभ---चौड़ाई समान है और प्रत्येक उत्सेधांगुल प्रमाण है। क्योंकि ऊंची करने पर जो कोटि अभी आयाम वाली-लम्बी है, वही तिरछी करने पर विष्कभ वाली-चौड़ी हो जाती है। अतएव पायाम और विष्कंभ इन में से किसी एक का निर्णय हो जाने पर दूसरा स्वयं निर्णीत हो जाता है। 3. अनुयोगद्वारसूत्रवत्ति, पत्र 171 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] [अनुयोगद्वारसूत्र होने से विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता परन्तु प्रत्येक उत्सेधांगुल भगवान् महावीर के अर्धांगुल के बराबर होता है, यह निश्चित है और उससे हजार गुणा एक प्रमाणांगुल होता है / प्रमारणांगुल का प्रयोजन 360. एतेणं पमाणंगुलेणं कि पओयणं ? एएणं पमाणंगुलेणं पुढवीणं कंडाणं पायालाणं भवणाणं भवणपत्थडाणं निरयाणं निरयावलियाणं निरयपत्थडाणं कप्पाणं विमाणाणं विमाणावलियाणं विमाणपत्थडाणं टंकाणं कडाणं सेलाणं सिहरीणं पन्भाराणं विजयाणं वक्खाराणं वासाणं वासहराणं वासहरपन्क्याणं वेलाणं वेइयाणं दाराणं तोरणागं दीवाणं समुद्दाणं आयाम-विक्संभ-उच्चत्तोबेह-परिक्खेवा मविन्जति / [360 प्र.] भगवन् ! इस प्रमाणांगुल से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है ? [360 उ.] अायुष्मन् ! इस प्रमाणांगुल से (रत्नप्रभा आदि नरक) पृथ्वियों की, (रत्नकांड आदि) कांडों की, पातालकलशों की, (भवनवासियों के) भवनों की, भवनों के प्रस्तरों की, नरकावासों की, नरकपंक्तियों की, नरक के प्रस्तरों की, कल्पों की, विमानों की, विमानपंक्तियों की, विमानप्रस्तरों की, टंकों की, कूटों की, पर्वतों की, शिखर वाले पर्वतों की, प्राग्भारों (नमित पर्वतों) की, बिजयों की, वक्षारों की, (भरत आदि) क्षेत्रों को, (हिमवन आदि) वर्षधर पर्वतों की, समुद्रों की, वेलाओं की, वेदिकाओं की, द्वारों की, तोरणों की, द्वीपों को तथा समुद्रों को लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई और परिधि नापी जाती है। विवेचन-लोक में तीन प्रकार के रूपी पदार्थ हैं-१. मनुष्यकृत, 2. उपाधिजन्य और 3. शाश्वत / मनुष्यकृत पदार्थों की लंबाई, चौड़ाई आदि का माप आत्मागुल के द्वारा जाना जाता है / उपाधिजन्य पदार्थ से यहाँ शरीर अभिप्रेत है / इसका माप उत्सेधांगुल द्वारा किया जाता है। शाश्वत पदार्थों की लम्बाई-चौड़ाई आदि प्रमाणांगुल के द्वारा मापी जाती है। जैसे नरकभूमियां शाश्वत हैं, उनकी लम्बाई-चौड़ाई में किंचिन्मात्र भो अन्तर नहीं पाता, अत: प्रमाणांगुल का परिमाण भी सदैव एक जैसा रहता है। प्रमारणांगुल के भेद, अल्पबहुत्व ___ 361. से समासओ तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--सेढीअंगुले पयरंगुले घणंगुले। असंलेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ सेढी, सेढी सेढोए गुणिया पतरं, पतरं सेढीए गणितं लोगो, संखेज्जएणं लोगो गुणितो संखेज्जा लोगा, असंखेज्जएणं लोगो गुणिओ असंखेज्जा लोगा। 6361] वह (प्रमाणांगुल) संक्षेप में तीन प्रकार का कहा गया है—१. श्रेण्यंगुल, 2. प्रतरांगुल, 3. घनांगुल। (प्रमाणांगुल से निष्पन्न) असंख्यात कोडाकोडी योजनों की एक श्रेणी होती है। श्रेणी को श्रेणी से गणित करने पर प्रतरांगुल और प्रतरांगुल को श्रेणी के साथ गुणा करने से (एक) लोक होता Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण 1283 है / संख्यात राशि से गुणित लोक 'संख्यातलोक', असंख्यात राशि से गुणित लोक 'असंख्यातलोक' और अनन्त राशि से गुणित लोक 'अनन्तलोक' कहलाता है। 362. एतेसि गं सेढीअंगुल-पयरंगुल-घणंगुलाणं कतरे कतरेहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ? ___सव्वत्थोवे सेढिअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंखेज्जगुणे / से तं पमाणंगुले / से तं विभागनिष्फण्णे / से तं खेतप्पमाणे। [362 प्र.] भगवन् ! इन श्रेण्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [362 उ.] आयुष्मन् ! श्रेण्यंगुल सर्वस्तोक (सबसे छोटा-अल्प) है, उससे प्रतरांगुल असंख्यात गुणा है और प्रतरांगुल से घनांगुल असंख्यात गुणा है / इस प्रकार में प्रमाणांगुल की, साथ ही विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण और क्षेत्रप्रमाण की वक्तव्यता पूर्ण हुई। विवेचन-प्रस्तुत में 'असंखेज्जायो जोयणकोडाकोडीओ सेढी' पद का यह आशय है कि जो योजन प्रमाणांगल से निष्पन्न हो वही योजन यहाँ ग्रहण करना चाहिये और ऐसे प्रमाणांगुल से निष्पन्न योजन की असंख्यात कोडाकोडी संवर्तित चतुरस्त्रीकृत लोक की एक श्रेणी होती है। एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर प्राप्त संख्या को कोडाकोडी कहते हैं / ___ यद्यपि सूत्र में घनागुल के स्वरूप का संकेत नहीं किया है लेकिन, यह पहले बताया जा चुका है कि घनांगल से किसी भी वस्तु की लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई का परिमाण जाना जाता है। अतएव यहाँ घनीकृत लोक के उदाहरण द्वारा धनांगुल का स्वरूप स्पष्ट किया है। लोक को घनाकार समचतुरस्र रूप करने की विधि इस प्रकार है-समग्र लोक ऊपर से नीचे तक चौदह राजू प्रमाण है। उसका विस्तार नीचे सात राजू, मध्य में एक राजू, ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक तक के मध्यभाग में पांच राजू और शिरोभाग में एक राजू है। यही शिरोभाग लोक का अन्त है। इस प्रकार की लम्बाई, चौडाई प्रमाण वाले लोक की प्राकृति दोनों हाथ कमर पर रखकर नाचते हुए पुरुष के समान है। इसीलिये लोक को पुरुषाकार संस्थान से संस्थित कहा है / इस लोक के ठीक मध्यभाग में एक राजू चौड़ा और चौदह राजू ऊंचा क्षेत्र त्रसनाड़ी कहलाता है। इसे त्रसनाड़ी कहने का कारण यह है कि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के ससंज्ञक जीवों का यही वास स्थान है। अब इस चौदह राज प्रमाण वाले ऊंचे लोक के कल्पना से अधोदिशावर्ती लोकखंड का पूर्व दिशा वाला भाग जो कि अधस्तनभाग में साढ़े तीन राजू प्रमाण विस्तृत है और फिर क्रम से ऊपर 1. मध्यलोकवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्रों में सबसे अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र की पूर्व तटवर्ती वेदिका के अन्त से लेकर उसकी पश्चिम तटवर्ती वेदिका के अन्त तक को राजू का प्रमाण समझना चाहिये / Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] अनुयोगद्वारसूत्र की ओर हीयमान विस्तार वाला होता हा अर्धराज प्रमाण एवं सात राज ऊंचा है, को लेकर पश्चिम दिशा वाले पार्श्व में ऊपर का भाग नीचे की ओर और नीचे का भाग ऊपर की ओर करके इकट्ठा रख दिया जाये, फिर ऊर्ध्वलोक में भी समभाग करके पूर्व दिशावर्ती दो त्रिकोण रूप दो खण्ड हैं, जो कि प्रत्येक साढ़े तीन राजू ऊंचे होते हैं, उन्हें भी कल्पना में लेकर विपरीत रूप में अर्थात् दक्षिण भाग को उल्टा और उत्तर भाग को सीधा करके इकट्ठा रख दिया जाए। इसी प्रकार पश्चिम दिशावर्ती दोनों त्रिकोणों को भी इकट्ठा किया जाए, ऐसा करने पर लोक का वह अर्धभाग भी साढ़े तीन राजू का विस्तार वाला और सात राजू की ऊंचाई वाला होगा। तत्पश्चात् उस ऊपर के अर्धभाग को नीचे के अर्धभाग के साथ जोड़ दिया जाये। ऐसा करने पर लोक सात राजू ऊंचा और सात राजू चौड़ा घनरूप बन जाता है / इस लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई का परस्पर गुणा करने पर (sx 747= 343) तीन सौ तेतालीस राजू धन फल लोक का होता है। सिद्धान्त में जहाँ कहीं भी बिना किसी विशेषता के सामान्य रूप से श्रेणी अथवा प्रतर का उल्लेख हो वहाँ सर्वत्र इस घनाकार लोक की सात राजू प्रमाण श्रेणी अथवा प्रतर समझना चाहिये। इसी प्रकार जहाँ कहीं भी सामान्य रूप से लोक शब्द ग्राए, वहाँ इस घनरूप लोक का ग्रहण करना चाहिये / संख्यात राशि से गुणित लोक की संख्यातलोक, असंख्यात राशि से गुणित लोक की असंख्यातलोक तथा अनन्त राशि से गुणित लोक की अनन्तलोक संज्ञा है। यद्यपि अनन्तलोक के बराबर अलोक है और उसके द्वारा जीवादि पदार्थ नहीं जाने जाते हैं, तथापि वह प्रमाण इसलिये है कि उसके द्वारा अपना----अलोक का स्वरूप तो जाना ही जाता है। अन्यथा अलोकविषयक बुद्धि ही उत्पन्न नहीं हो सकती है। इस प्रकार से विभागनिष्पन्न एवं समस्त क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा जानना चाहिये। कालप्रमाण प्ररूपण 363. से कि तं कालप्पमाणे? कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पदेसनिष्फण्णे य विभागनिष्फण्णे य / [363 प्र.] भगवन् ! कालप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [363 उ.] आयुष्मन् ! कालप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है- 1. प्रदेशनिष्पन्न, 2. विभागनिष्पन्न / 364. से किं तं पदेसनिष्फण्णे ? पदेसनिष्फण्णे एगसमयद्वितीए दुसमयद्वितीए तिसमय द्वितीए जाब दससमयद्वितीए संखेज्जसमयद्वितीए असंखेन्जसमयदिईए / से तं पदेसनिष्फण्णे / |364 प्र.] भगवन् ! प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [364 उ.] आयुष्मन् ! एक समय की स्थिति बाला, दो समय की स्थिति वाला, तीन समय की स्थिति वाला, यावत् दस समय की स्थिति वाला, संख्यात समय की स्थिति वाला, असंख्यात Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [205 समय की स्थिति वाला (परमाणु या स्कन्ध) प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण है। इस प्रकार से प्रदेशनिष्पन्न (अर्थात् काल के निविभाग अंश से निष्पन्न) कालप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये। 365. से कि तं विभागनिष्फण्णे ? विभागनिष्फण्णे-- समयाऽऽवलिय-मुहुत्ता दिवस-अहोरत्त-पक्ख मासा य / संवच्छर-जुग-पलिया सागर-ओस प्पि-परिअट्टा // 103 // [365 प्र.] भगवन् ! विभागनिष्पन्न कालप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [365 उ.] आयुष्मन् ! समय, पावलिका, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्योपम, सागर, अवसर्पिणी (उत्सर्पिणी) और (पुद्गल) परावर्तन रूप काल को विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहते हैं / 103 विवेचन–प्रस्तुत सूत्रों में कालप्रमाण के मुख्य दो भेदों का उल्लेख किया है / काल के निविभाग अंश (समय) को यहाँ 'प्रदेश' कहा गया है। अतएव इन निविभाग अंशों--- प्रदेशों से निष्पन्न होने वाला कालप्रमाण प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण है। एक समय की स्थिति वाला परमाणु या स्कन्ध एक कालप्रदेश से, दो समय की स्थिति वाला परमाणु या स्कन्ध दो कालप्रदेशों से निष्पन्न होता है / इसी प्रकार तीन आदि समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले परमाणु या स्कन्ध आदि सब काल के उतने-उतने ही अविभागी अंशों (प्रदेशों) से निष्पन्न होते हैं। असंख्यात अंशों (प्रदेशों) से असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल निष्पन्न होते हैं। इससे आगे पुद्गलों की एक रूप से स्थिति ही नहीं होती है, अर्थात् पुद्गल पर्याय की अधिक से अधिक स्थिति असंख्यात काल की ही होती है। समय, पावलिका आदि रूप काल विभागात्मक होने से वे विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहलाते हैं। विभागनिष्पन्न कालप्रमाण की प्राद्य इकाई 'समय' है। अतः अब उसी का विस्तार से वर्णन किया जाता है। समयनिरूपण 366. से कि तं समए ? समयस्स णं परूवणं करिस्सामि-से जहाणामए तुण्णागदारए सिया तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पातके थिरगहत्थे दढपाणिपायपासपिठेतरोरुपरिणते तलजमलजुयलपरिघणिभवाहू चम्मेदृग-दुहण-मट्टियसमाहय निचियगत्तकाये लंघण-पवण-जइणवायामसमत्थे उरस्सबलसमण्णागए छए दक्खे पत्तो कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए एगं महति पडसाडियं वा पट्टसाडियं वा गहाय सयराहं हत्थमेत्तं ओसारेज्जा। तत्य चोयए पण्णवयं एवं वयासो__ जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडियाए वा सयराहं हत्थमेते ओसारिए से समए भवइ ? Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] [अनुयोगद्वारसूत्र नो इणमठे समठे? जम्हा संखेज्जाणं तंतूणं समुदयसमितिसमागमेणं पडसाडिया निष्पज्जइ, उवरिल्लम्भि तंतुम्मि अच्छिण्णे हे दिल्ले तंतू ण छिज्जइ, अण्णम्मि काले उरिल्ले तंतू छिज्जइ अण्णम्मि काले हिडिल्ले तंतू छिज्जइ, तम्हा से समए न भवति / एवं वयंतं पण्णवर्ग चोयए एवं क्यासि-जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडियाए वा उवरिल्ले तंतू छिण्णे से समए ? ण भवति / जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे तंतू निष्फज्जइ, उवरिल्ले पम्हम्मि अच्छिण्णे हेडिल्ले पम्हे न छिज्जति, अण्णम्मि काले उवरिल्ले पम्हे छिज्जति अण्णम्मि काले हेडिल्ले पम्हे छिज्जति, तम्हा से समए ण भवति / एवं वदंतं पण्णवगं चोयए एवं वदासि-जेणं कालेणं तेणं तुग्णागदारएणं तस्स तंतुस्स उवरिल्ले पम्हे छिण्णे से समए ? ण भवति / कम्हा ? जम्हा अणताणं संघाताणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे पम्हे णिष्फज्जइ, उरिल्ले संघाते अविसंघातिए हेडिल्ले संघाते ण विसंघाडिज्जति, अग्णमिम काले उवरिल्ले संघाए विसंघातिज्जइ अग्णम्मि काले हेडिल्ले संघाए विसंघादिज्जइ, तम्हा से समए ण भवति / एतो वि णं सुहुमतराए समए पण्णत्ते समणाउसो! [366 प्र.] भगवन् ! समय किसे कहते हैं ? [366 उ.] आयुष्मन् ! समय की (विस्तार से) प्ररूपणा करूंगा / वह इस प्रकार--जैसे कोई एक तरुण, बलवान्, युगोत्पन्न (सुषमदुषम आदि तीसरे-चौथे बारे में उत्पन्न) नीरोग, स्थिरहस्ताग्र (मजबूत पहुंचा) बाला, सुदृढ़-विशाल हाथ-पैर, पृष्ठभाग (पीठ), पृष्ठान्त (पसली) और उरु (जंघा) वाला, दीर्घता, सरलता एवं पीनत्व की दृष्टि से समान, समश्रेणी में स्थित तालवृक्षयुगल अथवा कपाट-अर्गला तुल्य दो भुजाओं का धारक, चर्मेष्टक (प्रहरणविशेष), मुद्गर मुष्टिकामुष्टिबन्ध आदि के व्यायामों के अभ्यास, प्राघात-प्रतिघातों से सुदृढ़-सघन शारीरिक अवयव वाला, सहज आत्मिक-मानसिक बलसम्पन्न, कूदना, तैरना, दौड़ना आदि व्यायामों से अजित सामर्थ्य-शक्ति से सम्पन्न, छेक (कार्यसिद्धि के उपाय का ज्ञाता), दक्ष, प्रतिष्ठप्रवीण, कुशल (विचारपूर्वक कार्य करने वाला), मेधावी (बुद्धिमान्), निपुण (चतुर), अपनी शिल्पकला में निष्णात, तुन्नवायदारक (दर्जी का पुत्र) एक बड़ी सूती अथवा रेशमी शाटिका (साड़ी) को लेकर अतिशीघ्रता से एक हाथ प्रमाण फाड़ देता है। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [287 [प्र.] भगवन् ! तो जितने काल में उस दर्जी के पुत्र ने शीघ्रता से उस सूती अथवा रेशमी शाटिका को एक हाथ प्रमाण फाड़ दिया है, क्या उतने काल को 'समय' कहते हैं ? [उ.] अायुष्मन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् वह समय का प्रमाण नहीं है / [प्र.] क्यों नहीं है ? [उ. क्योंकि संख्यात तंतुओं के समुदाय रूप समिति के संयोग से एक सूती शाटिका अथवा रेशमी शाटिका निष्पन्न होती है बनती है। अतएव जब तक ऊपर का तन्तु छिन्न न हो तब तक नीचे का तन्तु छिन्न नहीं हो सकता / अतः ऊपर के तन्तु के छिदने का काल दूसरा है और नीचे के तन्तु के छिदने का काल दूसरा है / इसलिये वह एक हाथ प्रमाण शाटिका के फटने का काल समय नहीं है। इस प्रकार से प्ररूपणा करने पर शिष्य ने पुनः प्रश्न पूछा--- प्र. भदन्त ! जितने काल में दर्जी के पुत्र ने उस सूती शाटिका अथबा रेशमी शाटिका के ऊपर के तन्त का छेदन किया, क्या उतना काल समय है ? [उ.] उतना काल समय नहीं है। [प्र.] क्यों नहीं है ? [उ.] क्योंकि संख्यात पक्ष्मों (सूक्ष्म अवयवों--रेशानों) के समुदाय रूप समिति के सम्यक समागम से एक तन्तु निष्पन्न होता है-निर्मित होता है / इसलिये ऊपर के पक्ष्म के छिन्न न होने तक नीचे का पक्ष्म छिन्न नहीं हो सकता है / अन्य काल में ऊपर का पक्ष्म और अन्य काल में नीचे का पक्ष्म छिन्न होता है / इसलिये उसे समय नहीं कहते हैं। इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले गुरु से शिष्य ने पुनः निवेदन किया [प्र.] जिस काल में उस दर्जी के पुत्र ने उस तन्तु के उपरिवर्ती पक्ष्म का छेदन किया तो क्या उतने काल को समय कहा जाए ? / [उ., उतना काल भी समय नहीं है / [प्र. क्यों नहीं है ? [उ.] इसका कारण यह है कि अनन्त संघातों के समुदाय रूप समिति के संयोग से पक्ष्म निर्मित होता है, अतः जब तक उपरिवर्ती संघात पृथक् न हो, तब तक अधोवती संघात पृथक् नहीं होता है / उपरिवर्ती संघात के पृथक् होने का काल अन्य है और अधोवर्ती संघात के पृथक् होने का काल अन्य है / इसलिये उपरितन पक्ष्म के छेदन का काल समय नहीं है / आयुष्मन् ! समय इससे भी अतीव सूक्ष्मतर कहा गया है / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में समय का स्वरूप स्पष्ट किया है। जिस प्रकार पुद्गल द्रव्य के अविभाज्य चरम अंश को परमाण कहते हैं, उसी प्रकार काल द्रव्य के निविभाग अंश की 'समय' संज्ञा है / समय कितना सूक्ष्म है ? इसका निर्देश करने के लिये कतिपय उदाहरणों का उल्लेख किया है। लेकिन वे सब अांशिक हैं और समय उनसे भी सूक्ष्म अंश है / Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] [अनुयोगद्वारसूत्र यद्यपि लोक में घंटा, दिन, वर्ष प्रादि को ही काल कहने का व्यवहार प्रचलित है पर यह काल वस्तुभूत-पारमार्थिक नहीं है / वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म अंश है जिसके निमित्त से सर्व द्रव्य परिणमन करते रहते हैं। यदि वह न हो तो उपर्युक्त प्रकार से प्रारोपित काल का व्यवहार ही न हो। समय से छोटा कालांश सम्भव नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म से सूक्ष्म पर्याय भी उस एक समय से पूर्व नहीं बदलता है / इसलिये शास्त्रों में समय की परिभाषा इस प्रकार की है--- __जघन्य गति से एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने काल में जाता है, उसे समय कहते हैं / अथवा तत्प्रायोग्य वेग से एक के ऊपर की ओर जाने वाले और दूसरे के नीचे की ओर आने वाले दो परमाणुओं के स्पर्श होने में लगने वाला काल समय कहलाता है। यद्यपि आत्मा, पदार्थसमूह और सिद्धांत के अर्थ में भी समय शब्द प्रयुक्त होता है, किन्तु यहाँ कालद्रव्य और उसकी पर्याय का बोध कराने के लिये समय शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में 'समयस्स णं परूवणं करिस्सामि' से लेकर 'एत्तोऽवि .......पण्णत्ते समणाउसो' पद तक का कथन विशिष्ट प्राशय को अभिव्यक्त करने के लिये किया गया है कि समय काल का सबसे अधिक सूक्ष्म अंश है / उसका स्वरूप सामान्य रूप से कथन करने पर बुद्धिग्राह्य नहीं हो सकता है / उसके स्वरूप को समझने के लिये विस्तृत व्याख्या अपेक्षित है। जब अनन्त परमाणों के संघात (समुदाय) से एक पक्ष्म (रेशा) निष्पन्न होता है और वे संघात क्रमशः ही छिन्न होते हैं, तब उस पक्ष्म के विदारण में अनन्त समय लगना चाहिये / लेकिन सिद्धान्त में जो असंख्यात समय लगना कहा है, उसका कारण यह है कि पक्ष्म फाड़ने में प्रवृत्त पुरुष का प्रयत्न अचिन्त्य शक्ति वाला होने से असंख्यात समयों में अनन्त संघातों का छेदन हो जाता है। उन संघातों से बना हुआ एक स्थूल पक्षम यहाँ विवक्षित है और ऐसे स्थूल पक्ष्म असंख्यात ही होते हैं, अनन्त नहीं। अतः उनका क्रम से छेदन होने में अनन्त नहीं किन्तु असंख्यात समय लगेगा। यद्यपि असंख्यात समय लगने का संकेत सत्र में नहीं किया है, किन्त प्रकरणानसार उसे यहाँ समझ लेना चाहिये / सूत्र में संकेत न करने का कारण यह है कि छद्मस्थ जनों के ज्ञान का विषयभूत हो सके और उससे समय की चरम सूक्ष्मता का बोध हो जाए ऐसा दृष्टान्त दिया जाना सम्भव नहीं है। इसीलिये समय की सूक्ष्मता बताने के लिये सामान्य रूप में सूत्रकार ने संकेत किया है-'एत्तोऽवि णं सुहुमतराए समए -- समय इससे भी अधिक सूक्ष्मतर होता है।' अर्थात् उपरितन पक्ष्म के छेदनकाल का असंख्यातवां अंश समय है। पुरुष का प्रयत्न अचिन्त्य शक्ति वाला होना प्रत्यक्ष सिद्ध है। जैसे कोई पुरुष दूसरे किसी स्थान पर जाने के लिये प्रस्थान करे और यदि गमन रूप प्रयत्न में प्रवृत्ति करता रहता है तो वह अपने गन्तव्य स्थान पर बहुत जल्दी पहुंच जाता है। उसी प्रकार फाड़ने की क्रिया में प्रवृत्त पुरुष भी अपने प्रयत्न से अनन्त परमाणों के समुदाय से बने पक्ष्म (रेशे) को असंख्यात समय में छेदन कर दे, यह स्वाभाविक है। इस प्रकार से समय का स्वरूपनिर्देश करने के बाद अब उसके समह रूप कालविभागों का वर्णन करते हैं। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [289 समयसमूहनिष्पन्न कालविभाग 367. असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलिय ति पवुच्चइ / संखेज्जाओ आवलियाओ ऊसासो / संखेज्जाओ आवलियाओ नोसासो। हटुस्स अणवगल्लस्स निरुवकिटुस्स जंतुणो। एगे ऊसास-नीसासे एस पाणु ति बुच्चति / / 104 / / सत्त पाणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहुत्ते वियाहिए // 105 // तिणि सहस्सा सत्त यःसयाणि तेहरिं च उस्सासा / एस मुहुत्तो भणियो सहिं अगंतनाणोहिं / / 106 // एतेणं मुहत्तपमाणेणं तीसं मुहत्ता अहोरत्ते, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो, दो मासा उऊ, तिष्णि उऊ अयणं, दो अयणाई संवच्छरे, पंचसंवच्छरिए जुगे, वीसं जुगाई वाससयं, दस वाससताई वाससहस्सं, सयं वाससहस्साणं वाससतसहस्सं, चउरासोई वाससयसहस्साई से एगे पुवंगे, चउरासीति पुव्वंगसतसहस्साइं से एगे पुग्वे, चउरासीई पुबससयहस्साई से एगे तुडियंगे, चउरासीइं तुडियंगसयसहस्साई से एगे तुडिए, चउरासीइं तुडियसयसहस्साई से एगे अडडगे, चउरासोई अडडंगयससहस्साई से एगे अडडे, चउरासीई अडडसयसहस्साइं से एगे अववंगे, चउरासीई प्रववंगसयसहस्साइं से एगे प्रबवे, चउरासोति अबक्सतसहस्साइं से एगे हूहुयंगे, चउरासीई हहुयंगसतसहस्साइं से एगे हहए, एवं उप्पलंगे उपले पउमंगे पउमे नलिणंगे नलिणे अत्यनिउरंगे अथनिउरे अउयंगे अउए उयंगे णउए पउयंगे पउए चूलियंगे चूलिया, चउरासीति चूलियासत सहस्साई से एगे सोसरहेलियंगे, चउरासोति सीसपहेलियंगसतसहस्साई सा एगा सोसपहेलिया। एताव ताव गणिए, एयावए चेव गणियस्स विसए, अतो परं ओवमिए / [367] असंख्यात समयों के समुदाय समिति के संयोग से (असंख्यात समयों के समुदाय रूप संयोग से) एक प्रावलिका निष्पन्न होती है / संख्यात पावलिकाओं का एक उच्छ्वास और संख्यात आवलिकाओं का एक निःश्वास' होता है / हृष्ट (प्रसन्न), वृद्धावस्था से रहित, (भूतकालिक एवं वर्तमानकालिक) व्याधि से रहित मनुष्य आदि के एक उच्छ्वास और नि:श्वास के 'काल' को प्राण कहते हैं / 104 ऐसे सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव और सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त जानना चाहिये / 105 अथवा-- 1. कोष्ठगत वायु को बाहर निकालने को उच्छ्वास और बाहर की वायु को अन्दर कोष्ठ (कोठे) में ले जाने की निःश्वास कहते हैं / एक उच्छ्वास में स्थूलगणना से 35 सेकेण्ड होते हैं, इतने ही निःश्वास में भी। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290] [अनुयोगद्वारसूत्र सर्वज्ञ-अनन्तज्ञानियों ने तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वास-निश्वासों का एक मुहूर्त कहा है / 106 इस मुहूर्त प्रमाण से तीस मुहूतों का एक अहोरात्र (दिनरात) होता है, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक संवत्सर (वर्ष), पांच संवत्सर का एक युग और बीस युग का वर्षशत (एक सौ वर्ष) होता है / दस सौ वर्षों का एक सहस्र वर्ष, सौ सहस्र वर्षों का एक लक्ष (लाख) वर्ष होता है, चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग, चौरासी लाख पूर्वांगों का पूर्व, चौरासी लाख पूर्वो का त्रुटितांग, चौरासी लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित, चौरासी लाख त्रुटितों का एक अडडांग, चौरासी लाख अडडांगों का एक अडड, चौरासी लाख अडडों का एक अववांग, चौरासी लाख अववांगों का एक अवव, चौरासी लाख अववों का एक हुहुअंग चौरासी लाख हुअंगों का एक हुहु, इसी प्रकार उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अच्छनिकुरांग, अच्छनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चलिकांग, चलिका, चौरासी लाख चलिकाओं की एक शीषेप्रहेलिकांग होता है एवं चौरासी लाख शीर्षप्रहेलिकांगों की एक शीर्षप्रहेलिका होती है। एतावन्मात्र ही गणित (गणना) है। इतना ही गणित का विषय है, इसके आगे उपमा काल की प्रवृत्ति होती है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में गणनीय काल का वर्णन किया है। इसकी प्रारम्भिक इकाई प्रावलिका है और अन्तिम संख्या का नाम शीर्षप्रहेलिका है / प्रावलिका का कालमान निश्चित अमुक मणनीय संख्या के द्वारा निर्धारण किया जाना शक्य नहीं होने से उसके मान के लिये बताया कि असंख्यात समयों के समुदाय की एक आवलिका होती है। लेकिन इसके बाद के उच्छवास, निःश्वास आदि से लेकर शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त का मान निश्चित गणनीय संख्या में बतलाया है। इसमें भी जहाँ तक के कालमान को सामान्य निर्धारित संज्ञाओं द्वारा कहा जाना शक्य है, उन-उनके लिये दिन, रात, पक्ष, अयन आदि के द्वारा बताया है / लेकिन उसके बाद के कालमान को बताने के लिये पूर्वांग, पूर्व प्रादि संज्ञायें निर्धारित की और प्रत्येक को पूर्व-पूर्व से चौरासी लाख-चौरासी लाख वर्ष अधिक-अधिक बताया है। इसके लिये निर्धारित संज्ञाओं के नाम सूत्र में बताए गए हैं। लेकिन ग्रन्थान्तरों में इन संज्ञायों के क्रम और नामों में अन्तर है / जैसेजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में अयुत, नयुत और प्रयुत पाठ है और ज्योतिष्करण्डक के अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है पूर्वांग, पूर्व, लतांग, लता, महालतांग, महालता, नलिनांग, नलिन, महान लिनांग, महानलिन, पद्मांग, पद्म, महापद्मांग, महापद्म, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रुटितांग, महात्रुटित, अडडांग, अडड, महाअडडांग, महाअडड, अहांग, अह, महाग्रहांग, महायह, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। इस प्रकार की विभिन्नता के कारण के विषय में काललोकप्रकाशकार का मंतव्य है कि अनुयोगद्वारसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि माथुरवाचना से अनुगत हैं और ज्योतिष्करण्डक आदि बलभीवाचता से अनुगत हैं / इसी से दोनों नामों में अन्तर है / Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [291 दिगम्बर साहित्य में भी कालगणना के प्रमाण का निरूपण किया गया है / यहाँ किये गये वर्णन से उस वर्णन में समानता अधिक है, विभिन्नता कतिपय अंशों में ही है। साथ ही वहाँ भी संज्ञानों के क्रम एवं नामों में अन्तर पाया जाता है। अतएव परस्पर तुलना करने की दृष्टि से दिगम्बर साहित्यगत वर्णन का सारांश परिशिष्टं में देखिए / इस प्रकार व्यवहार में जितनी राशि की गणना की जा सकती है, उतना ही गणित का विषय है / इसके बाद गणना करने के लिये उपमा का आश्रय लिया जाता है / औपमिक कालप्रमारणनिरूपण 368. से कि तं ओवमिए ? ओवमिए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–पलिओक्मे य सागरोवमे य। [368 प्र.] भगवन् ! औपमिक (काल) प्रमाण क्या है ? अर्थात् औपमिक (काल) किसे कहते हैं ? 368 उ.] आयुष्मन् ! औपमिक (काल) प्रमाण दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-१. पल्योपम और 2. सागरोपम / विवेचन---औपमिक काल उसे कहते हैं जो गणित का विषय न हो, केवल उपमा के द्वारा जिसका वर्णन किया जाए। वह दो प्रकार का हैपल्योपम और सागरोपम / पल्य (धान्य को भरने का गड्ढा) की उपमा के द्वारा जिस कालमान का वर्णन किया जाए उसे पल्योपम और सागर (समुद्र) की उपमा द्वारा जिसका स्वरूप समझाया जाए उसे सागरोपम काल कहते हैं / पल्योपम-सागरोपमप्ररूपण 366. से कि तं पलिओवमे ? पलिओक्मे तिविहे पणत्ते / तं जहा- उद्धारपलिओवमे य अद्धापलिओबमे य खेत्तपलिओवमेय। [369 प्र.] भगवन् ! पल्योपम किसे कहते हैं ? [369 उ.] आयुष्मन् ! पल्योपम के तीन प्रकार हैं-१. उद्धारपल्योपम, 2. अद्धापल्योपम और 3. क्षेत्रपल्योपम / 370. से कि तं उद्धारपलिओवमे? उद्धारपलिओवमे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा-सुहुमे य वावहारिए य / [370 प्र.] भगवन् ! उद्धारपल्योयम किसे कहते हैं ? [370 उ.] आयुष्मन् ! उद्धारपल्योपम दो प्रकार से वर्णित किया गया है, यथा-सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और व्यावहारिक उद्धारपल्योपम / 371. तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे / [371] इन दोनों में सूक्ष्म उद्धारपल्योपम अभी स्थापनीय है। अर्थात् उसकी यहाँ व्याख्या न करके आगे करेंगे। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] [अनुयोगद्वारसूत्र 372. तत्थ पंजे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया–जोयणं आयाम-विक्खंमेणं जोयणं उड्डं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं / से णं एगाहिय-बेहिय-तेहिय जाव उक्कोसेणं सत्तरत्तारूढाणं सम्मठे सन्निचिते भरिए वालग्गकोडोणं / ते णं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलि विद्धंसिज्जा णो पूइत्ताए हत्वमागच्छेज्जा / तओ णं समए समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खोणे नोरए निल्लेवे (ट्टिते भवति, से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे। एसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिता। तं वावहारियस्स उद्धारसागरोबमस्स एगस्स भवे परीमाणं // 107 // [372] व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है- उत्सेधांगुल से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन ऊंचा एवं कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला एक पल्य हो / उस पल्य को (सिर का मुंडन कराने के बाद) एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक सात दिन के उगे हुए बालानों से इस प्रकार ठसाठस भरा जाए कि फिर उन बालानों को अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके, न वे सड़-गल सके, न उनका विध्वंस हो, न उनमें दुर्गन्ध उत्पन्न हो-सड़ें नहीं। तत्पश्चात् एक-एक समय में एक-एक बालाग्र का अपहरण किया जाए---उन्हें बाहर निकाला जाए तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज निर्लेप और निष्ठित (खाली) हो जाए, उतने काल को व्यावहारिक उदधारपल्योपम कहते हैं। ऐसे दस कोडाकोडी पल्योपमों का एक व्यावहारिक उद्धार सागरोपम होता है / 107 विवेचन----यहाँ पल्योपम और सागरोपम के प्रथम भेद उद्धार पल्योपम और उद्धार सागरोपम के सूक्ष्म एवं व्यावहारिक इन दो भेदों में से व्यावहारिक भेद का वर्णन किया है / यहाँ पल्य की उपमा से वर्णन करने का कारण यह है कि धान्य के मापपात्र को सभी जानते हैं / प्रस्तुत में उत्सेधांगुल से निष्पन्न एक योजन प्रमाण की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई वाले पल्य को स्वीकार किया है। इससे अल्पाधिक परिमाण वाला पल्य उपयोगी नहीं है। जिसकी चौड़ाई समान होती है, उसका व्यास (परिधि) कुछ अधिक तिगुनी होती है। इसलिये यहाँ पल्य का व्यास बताने के लिये पद दिया है 'तं तिगणं सविसेस परिरएणं / ' यहाँ किंचित् अधिक का तात्पर्य किचित् न्यून षड्भागाधिक एक योजन तथा तीन योजन पूरे ग्रहण करने चाहिये / अर्थात् उस पल्य की परिधि किंचित् न्यून षड्भागाधिक तीन योजन प्रमाण होती है / उस पल्य को जिन बालानों से भरे जाने का कथन किया है, उनके लिये प्रयुक्त एगाहिय, बेह्यि आदि विशेषणों का यह प्राशय है कि शिर को मंडन कराने के पश्चात एक दिन में बाल उग सकते हैं, बढ़ सकते हैं, उनके अग्रभागों की एकाहिक बालान संज्ञा है। इसी प्रकार द्वयाहिक, त्र्याहिक आदि विशेषणों का अर्थ समझ लेना चाहिये और 'जाव....सत्तरत्तपरूढाण" पद द्वारा यह स्पष्ट किया है कि सात से अधिक दिनों के बालागों से पल्य को न भरा जाए। वे बालान पल्य में किस प्रकार से भरे जाए? इसके लिये दो विशेषण दिये है--- 'सम्म? सन्निचिते।' इनका आशय यह है कि वह पल्य इस प्रकार पूरित किया जाये कि उसका ऊपरी भाग Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [293 का चरम प्रदेश भी बालानों से रहित न हो, वह खचाखच भरा हुआ हो और साथ ही इस प्रकार से भरा जाए कि रंचमात्र भी स्थान खाली न रहे किन्तु निविड़ता से भरा जाए। वे बालाग्र ऐसी निविड़ता से भरे हुए हों कि आग उन्हें जला न सके, पवन उड़ा न सके, वे सड़-गल न सके / द्रव्यलोकप्रकाश में कहा है वे केशाग्र इतनी सघनता से भरे हों कि यदि चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाए तो भी वे जरा भी दब न सके। उन बालानों को प्रतिसमय एक-एक करके निकालने पर जितने समय में वह पल्य पूरी तरह खाली हो जाए, उतने कालमान को एक व्यवहार उद्धारपल्योपम कहते हैं और ऐसे दस कोटि व्यवहार उद्धारपल्योपमों का एक उद्धारसागरोपम काल कहलाता है। द्रव्यलोकप्रकाश में लिखा है कि उत्तरकुरु के मनुष्यों का सिर मुंडा देने पर एक से सात दिन तक के अन्दर जो केशाग्र राशि उत्पन्न हो, यह समझना चाहिये / क्षेत्रविचार की सोपज्ञटीक में लिखा है कि देवकुरु, उत्तरकुरु में जन्मे सात दिन के मेष (भेड़) के उत्सेधांगुल प्रमाण रोम लेकर उनके सात बार पाठ-आठ खण्ड करना चाहिये / इस प्रकार के खण्डों से उस पल्य को भरना चाहिये। दिगम्बर साहित्य में एक दिन से सात दिन तक जन्मे हुए मेष बालानों का ही उल्लेख मिलता है। इस प्रकार से विभिन्न ग्रन्थों में बालाग्न विषयक पृथक्-पृथक् निर्देश हैं, तथापि उन सबके मूल प्राशय में कोई मौलिक अन्तर प्रतीत नहीं होता। 373. एतेहिं वावहारियउद्धारपलिओवम-सागरोवमेहि कि पयोयणं? एतेहि बावहारियउद्धारपलिनोक्म-सागरोवमेहि गस्थि किंचि पओयणं, केवलं पप्णवणा पणविज्जति / से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे।। 373 प्र. भगवन् ! इन व्यावहारिक उद्धार पल्योषम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? अथवा इनसे किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? [373 उ.] आयुष्मन् ! इन व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है / ये दोनों केवल प्ररूपणामात्र के लिये हैं। यह व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का स्वरूप है / विवेचन—इस सूत्र में व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम के प्रयोजन के विषय में प्रश्नोत्तर है। यहाँ जिज्ञासा होती है कि जब कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता तो फिर इनकी प्ररूपणा ही क्यों की गई ? उत्तर यह है कि प्रयोजन के दो प्रकार हैं--साक्षात् और परम्परा / परम्परा रूप से तो प्रयोजन यह है कि व्यावहारिक-बादर पल्योपम आदि का स्वरूप समझ लेने पर ही सूक्ष्म पल्योपमादि की प्ररूपणा सरलता से समझ में आती है। इस प्रकार से सूक्ष्म की प्ररूपणा में उपयोगी होने से व्यावहारिक की प्ररूपणा निरर्थक नहीं है। किन्तु साक्षात रूप से इसके द्वारा किसी वस्तु का कालमान ज्ञात नहीं किया जाता। अतः सूत्रकार ने उसकी विवक्षा न करके मात्र प्ररूपणायोग्य बतलाया है / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294] [अनुयोगद्वारसूत्र 374. से कि तं सुहमे उद्धारपलिओवमे ? सुहमे उद्धारपलिओवमे से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उडढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिय-हिय-तेहिय० उक्कोसेणं सत्तरतपरूढाणं सम्मठे सन्निचिते भरिते वालग्गकोडोणं / तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाइं खंडाई कज्जति / ते णं वालग्गा दिट्ठीप्रोगाहणाओ असंखेज्जतिभागमेत्ता सुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा / ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा, जो वाऊ हरेज्जा, णो कुच्छेज्जा, णो पलिविद्धंसेज्जा, जो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। तओ णं समए समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावतितेणं कालेणं से पल्ले खोणे नोरए निल्लेवे णिट्ठिए भवति, से तं सुहमे उद्धारपलिओक्मे। एतेसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। तं सुहुनस्स उद्धारसागरोवमस्स उ एगस्स भवे परीमाणं // 108 // [374 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का क्या स्वरूप है ? [374 उ.] आयुमन् ! सूक्ष्म उद्धारपत्योपम का स्वरूप इस प्रकार है-धान्य के पल्य के समान कोई एक योजन लंबा, एक योजन चौडा और एक योजन गहरा एवं कुछ अधिक तीन योजन की परिधि वाला पल्य हो। इस पल्य को एक, दो, तीन यावत् उत्कृष्ट सात दिन तक के उगे हुए बालानों से खूब ठसाठस भरा जाये और उन एक-एक बालान के (कल्पना से) ऐसे असंख्यात---असंख्यात खंड किये जाए जो निर्मल चक्षु से देखने योग्य पदार्थ की अपेक्षा भी असंख्यातवें भाग प्रमाण हों और सूक्ष्म पनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यातगुणे हों,' जिन्हें अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके, जो सड़-गल न सकें, नष्ट न हो सकें और न दुर्गधित हो सकें। फिर समय-समय में उन बालाग्रखंडों निकालते-निकालते जितने काल में वह पत्य वालाग्रों की रज से रहित, बालानों के संश्लेष से रहित ओर पूरी तरह खाली हो जाए, उतने काल को सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहते हैं। इस पल्पोपम की दस गुणित कोटाकोटि का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम का परिमाण होता है / (अर्थात् दस कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धारपल्योपमों का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम होता है)। 108 375. एएहि सुहमे हि उद्धारपलिओवम-सागरोवमेहि कि पओयणं ? एतेहि सुहुमेहि उद्धारपलिओबम-सागरोवमेहिं दीव-समुद्दाणं उद्धारे घेष्यति / [375 प्र.] भगवन् ! इस मूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारसागरोपम से किस प्रयोजन को सिद्धि होती है ? [375 उ.] सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारसागरोपम से द्वीप-समुद्रों का उद्धार किया जाता है-द्वीप-समुद्रों का प्रमाण जाना जाता है / 1. पर्याप्त वादर पृथिवीकायिक के शरीर के बराबर चादरपृथिवीकायिकपर्याप्तशरी रतुल्यानीति वृद्धवादः / -अनुयोगद्वाराटीका पत्र 182 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] ___376. केवतिया णं भंते ! दीव-समुद्दा उद्धारेणं पन्नत्ता ? गो० ! जावइया णं अडाइज्जाणं उद्धारसागरोक्माणं उद्धारसमया एवतिया णं दीव-समुद्दा उद्धारेणं पण्णत्ता / से तं सुहमे उद्धारपलिओवमे / से तं उद्धारपलिओवमे / [376 प्र.] भगवन् ! कियत्प्रमाण द्वीप-समुद्र उद्धार प्रमाण से प्रतिपादन किये गये हैं ? [३७६.उ] गौतम ! अढ़ाई उद्धार सूक्ष्म सागरोपम के उद्धार समयों के बराबर द्वीप समुद्र हैं। यही सूक्ष्म उद्धारपल्योपम का और साथ ही उद्धारपल्योपम का स्वरूप है / विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में सूक्ष्म उद्धार पल्योपम और सागरोपम का कालमान एवं उसका प्रयोजन बतलाया है। यद्यपि व्यावहरिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम के वर्णन से यह कतिपय अंशों में मिलता-जुलता है, लेकिन नाशिक भिन्नता भी है और वह इस प्रकार कि सूक्ष्म पल्योपम का प्रमाण निर्देश करने के लिये जो एक से सात दिन तक के बालान लिये गये हैं, उनके ऐसे खंड किये जाएँ जो निर्मल चक्षु से देखने योग्य वस्तु की अपेक्षा भी असंख्यातवें भाग हों और सूक्ष्म पनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यात गुण प्रमाण हों। उनको प्रत्येक समय निकालने पर जितना काल व्यतीत हो वह कालप्रमाण एक सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहलाता है और जब दस कोटाकोटी प्रमाण पल्य खाली हो जाएं तब एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम काल होता है। इसके प्रतिपादन करने का मुख्य प्रयोजन यह बतलाना है कि अढाई उद्धारसागरोपमों अर्थात् पच्चीस सूक्ष्म उद्धारपल्योपमों में से बालाग्न खंडों को उद्धृत करने निकालने में जितने समय लगते हैं, उतने द्वीप-समुद्र हैं / प्रद्धापल्योपम-सागरोपमनिरूपरण 377. से कि तं अद्धापलिओवमे? अद्धापलिओवमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुहमे य वावहारिए य / [377 प्र.] भगवन् (पल्योपम प्रमाण के द्वितीय भेद) अद्धापल्योपम का क्या स्वरूप है ? [377 उ.] अाधुग्मन् ! अद्धापल्योपम के दो भेद हैं—१. सूक्ष्म अद्धापल्योपम और 2. व्यावहारिक प्रद्धापल्योपम / / 378. तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे / 379. तत्थ णं जे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया जोयणं विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिवखेदेणं, से णं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय जाव भरिये वालग्गकोडोणं / ते णं वालागा नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हबमागच्छेज्जा / ततो णं वाससते वाससते गते एगमेगं वालम्ग अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खोणे नोरए निल्लेवे निट्टिए भवति, से तं वावहारिए अद्धापलिओबने। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296] [अमुयोगबारसूत्र एएसि पल्लाणं कोडाकोडी हविज्ज दसगुणिया। तं वावहारियस्स अद्धासागरोषमस्स एगस्स भवे परीमाणं // 109 // [378, 379.] उनमें से सूक्ष्म अद्धापल्योपम अभी स्थापनीय है (अर्थात् वह बाद में प्ररूपित किया जायेगा) 1 व्यावहारिक का वर्णन निम्न प्रकार है धान्य के पल्य के समान एक योजन प्रमाण दोर्घ, एक योजन प्रमाण विस्तार और एक योजन प्रमाण ऊर्वता से युक्त तथा साधिक तीन योजन की परिधि वाला कोई पत्य हो / उस पल्य को एक, यावत सात दिवस के उगे हए बालानों से इस प्रकार से पारित कर दिया जाए कि वे बालाग्र अग्नि से जल न सके, वायु उन्हें उड़ा न सके, वे सड़-गल न सकें, उनका विध्वंस भी न हो सके और उनमें दुर्गन्ध भी उत्पन्न न हो सके / तदनन्तर उस पल्य में से सौ-सौ वर्ष के पश्चात् एक-एक बालान निकालने पर जितने काल में वह पत्य उन बालाग्नों से रहित, रजरहित और निर्लेप एवं निष्ठित—पूर्ण रूप से खाली हो जाए, उतने काल को व्यावहारिक अद्धापल्योपम कहते हैं। दस कोटाकोटि व्यावहारिक अद्धापल्योपमों का एक व्यावहारिक सागरोपम होता है / 105 380. एएहिं वावहारिएहि अद्धापलिओवम-सागरोवमेहिं कि पओयणं? एएहिं जाव नत्थि किंचिप्पओयणं, केवलं तु पण्णवणा पण्णविज्जति / से तं वावहारिए अद्धापलिओवमे / [380 प्र.] भगवन् ! व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? 380 उ.आयुष्मन् ! व्यावहारिक श्रद्धा पल्योपम एवं सागरोपम से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है / ये केवल प्ररूपणा के लिये हैं। इस प्रकार से व्यावहारिक अद्धापल्योपम का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम के स्वरूप का निरूपण करते हुए इन दोनों के प्रयोजन का कथन किया है। इन दोनों के स्वरूप का निरूपण पूर्वोक्त व्यावहारिक उद्धार पल्यापम एवं सागरोपम के तुल्य हो है, किन्तु इतना अन्तर है कि व्याव प्रद्धा पल्योपम और सागरोपम में एक-एक बालान को प्रत्येक समय न निकाल कर सौ-सौ वर्ष के बाद निकालने पर जितना समय लगता है उतना काल व्यावहारिक अद्धापल्योपम का है और दस कोटाकोटि व्यावहारिक अद्धापल्योपमों का एक व्यावहारिक प्रद्धासागरोपम होता है। __इस व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम का साक्षात् प्रयोजन तो कुछ नहीं है, लेकिन परम्परा रूप में सूक्ष्म प्रद्धा पल्योपम और सागरोपम का ज्ञान कराने में सहायक हैं। इसलिये इनकी प्ररूपणा की गई है। 381. से कि तं सुहुमे अद्धापलिओवमे ? सुहमे अद्धापलिओवमे से जहानामते पल्ले सिया---जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं, तंतिगुणं सविसेसं परिक्खेवणं; से गं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय जाव भरिए वालगकोडीणं / तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेन्जाइं खंडाई कज्जति। ते णं वालगा दिट्ठोओगाहणाओ असंखेज्जति. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [297 भागमेता सुहुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा। ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्मा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा / ततो गं वातसते वाससते गते एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निटिए भवति, से तं सुहमे अद्धापलिओवमे। एएसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। तं सुहमस्स प्रद्धासागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं / / 110 / / [381 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म प्रद्धापल्योपम का क्या स्वरूप है ? [381 उ.] आयुष्मन् ! सूक्ष्म प्रद्धापल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है- एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा, एक योजन ऊंचा एवं साधिक (कुछ न्यून षष्ठ भाग अधिक) तीन योजन की परिधि वाला एक पल्य हो / उस पल्य को एक-दो-तीन दिन के यावत् बालान कोटियों से पूरी तरह भर दिया जाए। फिर उनमें से एक-एक बालाग्र के ऐसे असंख्यात असंख्यात खण्ड किये जाएँ कि वे खण्ड दृष्टि के विषयभूत होने वाले पदार्थों की अपेक्षा असंख्यात भाग हों और सूक्ष्म पनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यात गणे अधिक हों / उन खण्डों में से सौ-सौ वर्ष के पश्चात् एक-एक खण्ड को अपहृत करने–निकालने पर जितने समय में वह पल्य बालाग्रखण्डों से विहीन, नीरज, संश्लेषहित और संपूर्ण रूप से निष्ठित- खाली हो जाए, उतने काल को सूक्ष्म श्रद्धापल्योपम कहते हैं। इस अद्धापल्योपम को दस कोटाकोटि से गुणा करने से अर्थात् दस कोटाकोटि सूक्ष्म अद्धापल्योपमों का एक सूक्ष्म अद्धासागरोपम होता है / 110 382. एएहि सुमेहि अद्धापलिओवम-सागरोवमेहि किं पयोयणं ? एतेहिं सुहुमेहिं अद्धापलिओवम-सागरोवमेहि रतिय-तिरियजोणिय-मस-देवाणं आउयाई मविज्जति / [382 प्र.] भगवन् ! इस सूक्ष्म प्रद्धापल्योपम और सूक्ष्म प्रद्धासागरोपम से किस प्रयोजन को सिद्धि होती है ? [382 उ.] अायुष्मन् ! इस सूक्ष्म प्रद्धापल्योपम और सूक्ष्म अद्धासागरोपम से नारक, तियंच, मनुष्य और देवों के आयुष्य का प्रमाण जाना जाता है / विवेचन--यहाँ सूक्ष्म अद्धापल्योपम और सूक्ष्म श्रद्धासागरोपम का स्वरूप बताया है। व्यावहारिक अद्धापल्योपम से इस सूक्ष्म अद्धापल्योपम के वर्णन में यह अन्तर है कि पल्य में भरे बालागों के असंख्यात-असंख्यात खण्ड बुद्धि से कल्पित करके उन खण्डों को सौ-सौ वर्ष बाद पत्य में से निकाला जाता है / जितने काल में वे बालाग्रखण्ड निकल जाते हैं उतने काल को एक सूक्ष्म प्रद्धापल्योपम कहते हैं / व्यावहारिक अद्धापल्योपम में संख्यात करोड़ वर्ष और सूक्ष्म अद्धापल्योपम में असंख्यात करोड़ वर्ष होते हैं। इसके द्वारा नारक आदि चातुर्गतिक जीवों की भवस्थिति और साथ में कायस्थिति, कर्मस्थिति Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290] [अनुयोगद्वारसूत्र आदि का मान ज्ञात किया जाता है / अतएव अब चतुर्गति के जीवों की भपस्थिति--आयुष्य का प्रमाणनिरूपण करते हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चार गतियां हैं / अत: इसी क्रम से उनकी स्थिति का निर्देश करने के लिए जिज्ञासु प्रश्न करता है--- नारकों की स्थिति 383. [1] रइयाणं भंते ! के वत्तियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गो० ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं / [383-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों की स्थिति (आयु) कितने काल की कही गई है ? [383-1 उ.] गौतम ! सामान्य रूप में (नारक जीवों की स्थिति) जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की कही है। विवेचन-सूत्र में सामान्य रूप में नैरयिक जीवों की स्थिति बताई है किन्तु रत्नप्रभा प्रादि नाम वाली नरकपृथ्वियां सात हैं ! अतः अब पृथक्-पृथक पृथ्वी के नारकों की स्थिति का निरूपण करते हैं। [2] रयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पं० ? गो! जहन्नेणं वसवाससहस्साई उक्कोसेणं एक्कं सागरोवमं, अपज्जत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पं०? गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्को० अंतो०, पज्जत्तग जाव जह० दसवाससहस्साइं अंतोमुहुतूणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं अंतोमुहत्तूणं / [383-2 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? [383-2 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम की होती है / [प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के अपर्याप्तक नारकों की स्थिति कितने काल की है ? [उ.] गौतम ! इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की होती है। [प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के पर्याप्तक नारकों की स्थिति कितने काल की कही है ? [उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त न्यून दस हजार वर्ष को और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून एक सागरोपम की होती है। [3] सक्करपभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पं० ? गो० ! जहन्नेणं सागरोवमं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई। [383-3 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों की स्थिति कितनी है ? Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [383-3 उ.] गौतम (सामान्य रूप में) शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों की जघन्य स्थिति एक सागरोपम और उत्कृष्ट तीन सागरोपम प्रमाण कही गई है। [4] एवं सेसपहासु वि पुच्छा भाणियन्वा-वालयफ्भापुढविणेरइयाणं जह० तिणि सागरोवमाइं, उपकोसेणं सत सागरोवमाई। पंकपभापुढविनेरइयाणं जह० सत्त सागरोवमाई, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई। धूमप्पभापुढ विनेरइयाणं जह० बस सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई। तमपुढविनेरइयाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पन्नता ? गो० ! जहन्नेणं सत्तरस सागरोवमाइं, उक्कोसेणं बावीसं सागरोक्माई। तमतमापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पन्नत्ता? गो० ! जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। [383-4] इसी प्रकार के प्रश्न शेष पृथ्वियों के विषय में भी पूछना चाहिये / जिनके उत्तर क्रमश: इस प्रकार हैं---- बालुकाप्रभा नामक तीसरी पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है। (चतुर्थ) पंकप्रभा पृथ्वी के नारकों की जघन्य स्थिति सात सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की कही है। धूमप्रभा (नामक पंचम) पृथ्वी के नारकों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति सत्रह सागरोपम प्रमाण जानना चाहिये। {प्र.] भगवन ! तमःप्रभा पृथ्वी के नारकों की स्थिति कितने काल की है ? उ.] गौतम ! तमःप्रभा नामक षष्ठ पृथ्वी के नारकों की जघन्य स्थिति सत्रह सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की होती है / [प्र.] भगवन् ! तमस्तम:प्रभा पृथ्वी के नारकों की प्रायु-स्थिति कितने काल की बताई है ? [उ.] आयुष्मन् ! तमस्तम :प्रभा (नामक सप्तम) पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है।' 1. सातों नरकवियों के नारकों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति दर्शक संग्रहणी गाथाएँ इस प्रकार हैं--- सागरमेयं तिय सत्त दस य सत्तरस तह य बावीसा / सेतीसं जाब ठिई सत्तसु वि कमेण पुढवीसु / / जा पढमाए जेट्रा सा बीयाए कणिट्रिया भणिया। प्रथम नरकपृथ्वी से लेकर मप्तम पृथ्बी तक अनुक्रम से एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेतीस सागरोपम को उत्कृष्ट स्थिति है तथा जो पूर्व पृथ्वी की उत्कृष्ट स्थिति है, वह उसकी उत्तरवर्ती पृथ्वी की जघन्य स्थिति जानना चाहिये। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30.] [अनुयोगद्वारमात्र विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में नरकगति के जीवों की सामान्य एवं प्रत्येक भूमि के नारकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बतलाया है। जीव को जो नारकादि भवों में रोक कर रखती है, उसे स्थिति कहते हैं। कर्मपुद्गलों का बंधकाल से लेकर निर्जरणकाल तक प्रात्मा में अवस्थान रहने के काल का बोध करने के लिये भी कर्मशास्त्र में स्थिति शब्द का प्रयोग होता है लेकिन यहाँ आयुकर्म के निषेकों का अनुभवन-भोगने के अर्थ में स्थिति शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसलिये जब तक विवक्षित भव का आयुकर्म उदयावस्था में रहता है, तब तक जीव उस पर्याय में रहता है। विवक्षित पर्याय में आयुकर्म के सद्भाव तक रहना इसी का नाम जीवित या जीवन है और यहाँ इस जीवन के अर्थ में स्थिति शब्द रूढ है / इसीलिये नारकों की दस हजार वर्ष आदि की जो स्थिति कही है, उसका तात्पर्य यह है कि जीव इतने काल तक विवक्षित नारक अवस्था में रहेगा। ज्ञानावरण आदि अन्य कर्मों की स्थिति की तरह प्रायुकर्म की स्थिति के भी दो प्रकार हैं१. कर्मरूपतावस्थानलक्षणा और 2. अनुभवयोग्या। भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच तथा देव और नारक अपनी-अपनी प्रायु के छह मास शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं तथा कर्मभूमिज मनुष्यों और तिर्यंचों के प्राय: अपनी आयु के त्रिभाग में परभव की आयु का बंध होता है। इस प्रकार से प्रायुकर्म के बंध की विशेष स्थिति होने के कारण एवं बंध की अनिश्चितता के कारण प्रायुकर्म की स्थिति में उसका अबाधाकाल संमिलित नहीं किया जाता है, जिससे उसकी कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति का निश्चित प्रमाण बताया जा सके, इसीलिये उसकी जो भी स्थिति कही जाती है वह शुद्ध स्थिति (भुज्यमान स्थिति) होती है। उसमें अबाधाकाल सम्मिलित नहीं रहता है / अतएव यहाँ जो नारक जीवों की आयुरूप स्थिति कही गई है तथा प्रागे के सूत्रों में तिर्यंच आदि जीवों की स्थिति कही जाएगी, वह अनुभवयोग्या-भुज्यमान प्रायु की अपेक्षा कही गई जानना चाहिये / अपर्याप्त अवस्था की आयुस्थिति का काल सर्वत्र अन्तर्महुर्त ही है। सामान्य स्थिति में से अपर्याप्त काल को कम कर देने पर जो स्थिति शेष रहती है, वह पर्याप्तकों की स्थिति जानना चाहिये / देव, नारक और असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य, तिर्यच करण की अपेक्षा ही अपर्याप्तक माने गये हैं, लब्धि की अपेक्षा नहीं / लब्धि की अपेक्षा तो ये सब पर्याप्तक ही होते हैं। इनके अतिरिक्त शेष जीव लब्धि से पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के होते हैं। यहाँ नारकों की भवधारणीय स्थिति का मान निरूपित किया गया है। अब भवनपति देवों की स्थिति का कथन किया जाता है 1. यपि कर्मपुदगलानां बंधकालादारभ्यनिर्जरणकालं यावत्सामान्येनास्थितिः कर्मशास्त्रेषु स्थितिः प्रतीता, तथाऽप्यायु:कर्मपुदगलानुभवन मेव जीवित रूढम् / -मनुयोगद्वारटीका, पत्र 184 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरुपण] भवनपति देवों की स्थिति 384. असुरकमाराणं भंते ! देवाणं केवतिकालं ठिती पं०? गो० ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं / असुरकुमारीणं भंते ! देवीणं केवतिकालं ठिती पं० ? गो० ! जहन्नेणं वसवाससहस्साई, उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई / _ [384.1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों की कितने काल की स्थिति प्रतिपादन की गई है ? [384-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरोपम प्रमाण है। [प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवियों की स्थिति कितने काल की कही है ? [उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट साढे चार पल्योपम की कही है। [2] नागकुमाराणं जाय गो० ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं देसूणाई दोणि पलिओवमाई। नागकुमारीणं जाव गो० ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूर्ण पलिओवमं / [3] एवं जहा गागकुमाराणं देवाणं देवीण य तहा जाव थणियकुमाराणं देवाणं देवीण य भाणियग्वं / [384-2, 3 प्र.] भगवन् ! नागकुमार देवों की स्थिति कितनी है। [384-2, 3 उ.] गौतम ! जघन्य दरा हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की है। [प्र.] भगवन् ! नागकुमारदेवियों की स्थिति कितने काल प्रमाण है ? [उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन एक पल्योपम की होती है एवं जितनी नागकुमार देव, देवियों की स्थिति कही गई है, उतनी ही शेष-सुपर्णकुमार से स्तनितकुमार तक के देवों और देवियों की स्थिति जानना चाहिये। विवेचन-उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में चार देवनिकायों में से पहले भवनपति देवनिकाय के असुरकुमार आदि स्तनितकुमार पर्यन्त सभी दस भेदों के देव और देवियों की आयुस्थिति का प्रमाण बतलाया है। इन सभी देवों और देवियों की सामान्य से जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है किन्तु उत्कृष्ट स्थिति में अन्तर है, जो मूल पाठ से स्पष्ट है। पंच स्थावरों की स्थिति 385. [1] पुढवीकाइयाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पन्नता? गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्सा / सुहुमपुढविकाइयाणं श्रोहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाण य तिरह वि पुच्छा। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302) अनुयोगद्वारसूत्र गो० ! जह• अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / बादरपुढविकाइयाणं पुच्छा। गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। अपज्जत्तयवादरपुढविकाइयाणं पुच्छा। गो० ! जहण्णण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं, पज्जत्तयबादरपुढविकाइयाणं जाव गो० ! जह० अंतोमुहुतं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई / [385-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक होती है ? [385-1 उ.] गौतम ! (पृथ्वीकायिक जीवों की) जघन्य स्थिति अन्तर्महूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है। [प्र.] भगवन् ! सामान्य सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की तथा सूक्ष्म पृथ्वी कायिक अपर्याप्त और पर्याप्तों की स्थिति कितनी है ? [उ. गौतम ! इन तीनों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। [प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति के लिये पृच्छा है ? [उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष की होती है। [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? [उ.] मौतम ! (अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों की) जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महुर्त की होती है तथा पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून बाईस हजार वर्ष की है। [2] एवं सेसकाइयाणं पि पुच्छावयणं भाणियध्वं आउकाइयाणं जाव गो० ! जह अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साई।। सुहमआउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तयाणं तिण्ह वि जहण्णण वि अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / बादरआउकाइयाणं जाव गो० ! जहा ओहियाणं / अपज्जत्तयबादरआउकाइयाणं जाव गो० ! जह० अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयवादरआउ० जाव गो० ! जह० अंतोमुत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साई अंतोमुहुतणाई। [385-2] इसी प्रकार से शेष कायिकों (अपकायिक से वनस्पतिकायिक पर्यन्त) जीवों की स्थिति के विषय में भी प्रश्न कहना चाहिये। अर्थात् जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति जानने के लिये प्रश्न किये हैं, उसी प्रकार से शेष कायिक जीवों के विषय में प्रश्न करना चाहिये। उत्तर इस प्रकार हैं Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [303, गौतम ! अप्कायिक जीवों की प्रौधिक जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति मात हजार वर्ष की है। सामान्य रूप में सूक्ष्म अप्कायिक तथा अपर्याप्त और पर्याप्त प्रकायिक जीवों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है / गौतम ! बादर अप्कायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति सामान्य अकायिक जीयों के तुल्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष है। गौतम ! अपर्याप्त बादर प्रकायिक जीवों को जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। गौतम ! पर्याप्तक बादर अप्कायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून सात हजार वर्ष की है। __ [3] तेउकाइयाणं भंते ! जाव गो० ! जह अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिणि राइंदियाई। सुहमतेउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तयाण पज्जत्तयाण य तिण्ह कि जह० अंतो० उक्को० अंतो० / बादरतेउकाइयाणं भंते ! जाव गो० ! जह• अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिणि राईदियाई। अपज्जत्तयबायरतेउकाइयाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं अंतो ! पज्जत्तयवायरतेउकाइयाण जाव गो० ! जहं० अंतो० उक्कोसेणं तिष्णि राइंदियाइं अतोमुहुतूणाई। [385-3 प्र.] भगवन् ! (सामान्य रूप में) तेजस्कायिक जीवों की कितनी स्थिति कही गई है ? / [385-3 उ.] आयुष्मन् ! सामान्य तेजस्कायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन रात-दिन की बताई है। ___ौधिक सूक्ष्म तेजस्कायिक और पर्याप्त, अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक की जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। [प्र.] भगवन् ! बादर तेजस्कायिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? [उ.] गौतम ! बादर तेजस्कायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति तीन रात्रि-दिन की होती है / प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का कालप्रमाण कितना है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है / [प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीवों की स्थिति कितनी होती है ? Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [अनुयोगद्वारसूत्र [उ.] गौतम ! पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून तीन रात्रि-दिन की होती है। [4] बाउकाइयाणं जाव गो० ! जह• अंतो० उक्को० तिणि वाससहस्साई। सुहमवाउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाण य तिण्ह वि जह अंतो० उपको० अंतोमुहत्तं / बादरवाउकाइयाणं जाव गो० ! जह० अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साई / अपज्जत्तयबादरवाउकाइयाणं जाव गो० ! जह० अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयबादरवाउकातियाणं जाव गो० ! जह० अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साई अंतोमुहत्तणाई। [385-4 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? [385-4 उ.] गौतम ! वायुकायिक जीवों को जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की होती है / किन्तु सामान्य रूप में सूक्ष्म वायुकायिक जीवों की तथा उसके अपर्याप्त और पर्याप्त भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महूर्त प्रमाण होती है। गौतम ! बादर वायुकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्महूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष की होती है। ___ अपर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है / और-- गौतम ! पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून तीन हजार वर्ष की है। [5] वणस्सइकाइयाणं जाव गो ! जह० अंतो० उक्को० दसवाससहस्साई। सुहमाणं ओहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाण य तिहि वि जह० अंतो० उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / बादरवणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पन्नत्ता ? गो० ! जह० अंतो० उक्को० इस बाससहस्साइं, अपज्जत्तयाणं जाव गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयबादरवणस्सइकाइयाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० दसवाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। [385-5 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? [385-5 उ.] गौतम ! सामान्य रूप से वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की होती है / सामान्य सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा उनके अपर्याप्तक और पर्याप्तक भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात " // प्रमाणाधिकार निरूपण] [305 [प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक जीवों की कितनी स्थिति बताई है ? [उ.] गौतम ! बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की कही है यावत् गौतम ! अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महुर्त की होती है। किन्तु गौतम ! पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून दस हजार वर्ष की जानना चाहिए / विवेचन-उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में पहले तो सामान्य से पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावरों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बताया है। किन्तु पृथ्वीकायिक आदि ये पांचों स्थावर सूक्ष्म और बादर के भेद से दो-दो प्रकार के हैं और ये प्रत्येक भेद भी अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक इन दो अवस्थाओं वाले होते हैं। उक्त भेदों में से पांचों सूक्ष्म स्थावरों की औधिक, पर्याप्त और अपर्याप्त भेदों तथा बादर अपर्याप्तकों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त की है, लेकिन पर्याप्त बादरों की उनके अपर्याप्तकाल की स्थिति कम करके शेष स्थिति इस प्रकार जानना चाहिये. नाम ज. स्थि . उ. स्थि . पृथ्वी अन्तर्मुहूर्त बाईस हजार वर्ष ( अन्त० न्यून ) अप तेज तीन दिन-रात वायु तीन हजार वर्ष वनस्पति सूक्ष्म और बादर अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक आदि की सामान्य से तथा जघन्य और उत्कृष्ट एवं इन्हीं के पर्याप्तक भेद की जघन्य स्थिति का ठीक-ठीक परिमाण क्षुद्रभव रूप अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसका कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्त के बहुत भेद हैं और निगोदिया जीव के भव की आयु को क्षुद्रभव कहते हैं। क्योंकि सब भवों की अपेक्षा उसकी स्थिति अति अल्प होती है। इतनी स्थिति मनुष्य तिर्यंचों में संभव होने से मनुष्य और तिर्यंच की जघन्य स्थिति का ठीक-ठीक प्रमाण क्षुद्रभव रूप अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिए। विकलेन्द्रियों की स्थिति 386. [1] बेइंदियाणं जाव गो० जह० अंतो० उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि / अपज्जत्तय जाव गोतमा ! जह० अंतो० उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयाणं जाव गोतमा ! जह० अंतो० उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि अंतोमुहत्तूणाई। [386-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [386-1 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त और उत्कृष्ट स्थिति बारह वर्ष की है। अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महूर्त प्रमाण है / दस , " Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगहारसूत्र पर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तन्यून बारह वर्ष की है। [2] तेइंदियाणं जाव गो० ! जहन्नेणं अंतो० उक्को० एकणपण्णासं राइंदियाई। अपज्जत्तय जाव गोतमा ! जह• अंतो० उक्कोसेणं अंतो० / पज्जत्तय जाव गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं एकूणपण्णासं राइंदियाई अंतोमुत्तूणाई / [386-2 प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीवों को स्थिति कितने काल को कही गई है ? [386-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूतं की और उत्कृष्ट उनपचास (49) दिन-रात्रि की होती है। अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्महुर्त की है। पर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून उनपचास दिन-रात्रि की होती है। [3] चरिदियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को. छम्मासा / अपज्जत्तय जाव गो० ! जह० अंतोमुहुत्तं उक्को० अंतो० / पज्जत्तयाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं छम्मासा अंतोमुहुत्तणा / [386-3 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [386-3 उ.] गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छह मास की होती है। अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून छह मास की होती है। विवेचन-ऊपर औधिक रूप में विकलेन्द्रियत्रिक द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों की और उनके पर्याप्त, अपर्याप्त भेदों की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बतलाया है। सामान्य से तथा अपर्याप्त जीवों की जघन्य स्थिति तो अन्तर्महर्त प्रमाण ही होती है किन्तु पर्याप्त जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति अपर्याप्त अवस्थाभावी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति को कम करके शेष जानना चाहिये, जिसका दर्शक प्रारूप इस प्रकार हैनाम ज. स्थि . उ. स्थि. द्वीन्द्रिय अन्तर्मुहूर्त बारह वर्ष (अन्त. न्यून) . त्रीन्द्रिय उनपचास दिन ( , ) चतुरिन्द्रिय छह मास ( , ) Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [307 पंचेन्द्रियतिर्यंचों को स्थिति 387. [1] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिणि पलिग्रोवमाई। [387.1 प्र. भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की बताई है ? [387-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है / विवेचन-उक्त प्रश्नोत्तर में सामान्य से तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निर्देश किया है, लेकिन जलचर, स्थलचर और खेचर के भेद से पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव तीन प्रकार के हैं और ये तीनों प्रकार भी प्रत्येक समुच्छिम तथा गर्भज के भेद से दो-दो प्रकार के हैं / अतएव अब इन प्रत्येक की स्थिति का पृथक्-पृथक् कथन करते हैं। जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचों की स्थिति [2] जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाब गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं पुन्वकोडी। सम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिकखजोणियाणं जाव गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी। अपज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गोयमा ! जह• अंतो. उक्कोसेणं अंतो०। पज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहत्तणा। गल्भवतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह• अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुश्वकोडी। अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियजलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाण जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को. अंतो० / पज्जत्तयगम्भवक्कतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गोयमा ! जह० अंतो० उक्को० पुश्वकोडी अंतोमुत्तूणा। [387-2 प्र.] भगवन् ! जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितनी कही गई है ? [387-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण की होती है तथा संमूच्छिमजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव की जघन्य स्थिति अन्तर्महूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है। अपर्याप्तक समूर्छिमजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र पर्याप्तक संमूच्छिमजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तन्यून पूर्वकोटि बर्ष प्रमाण जानना चाहिये। सामान्य से गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष जितनी है / ___ अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति भी अन्तमुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। पर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्महर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि वर्ष की है। विवेचन--यहाँ जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों की स्थिति का वर्णन किया है। पानी के अंदर रहने वाले जीवों को जलचर कहते हैं / ये दो प्रकार के हैं—समूच्छिम और गर्भज। दिशा-विदिशा अादि से इधर-उधर से शरीरयोग्य पुद्गलों का ग्रहण होकर शरीराकार रूप परिणत हो जाने को समर्छिम जन्म और स्त्री के उदर में शुक्र-शोणित के परस्पर गरण अर्थात् मिश्रण को गर्भ कहते हैं। इस गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव गर्भज कहलाते हैं। यह जन्मभेद मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचगति के जीवों में पाया जाता है। इनमें कोई पर्याप्तक होते हैं और कोई अपर्याप्तक। इसीलिये तिर्यच पंचेन्द्रिय के भेद जलचर जीवों की स्थिति संमूच्छिम और गर्भज तथा इन दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेदों की अपेक्षा पृथक्-पृथक बतलाई है। पूर्व का प्रमाण पहले बताया जा चुका है कि चौरासी लाख वर्ष को एक पूर्वांग कहते हैं और चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व कहलाता है / अंकों में जिसकी गणना का प्रमाण 70560000000000 स प्रकार के वर्ष प्रमाण वाले एक पूर्व के हिसाब से करोड पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों की होती है / चतुष्पद, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के भेद से स्थलचर जीव तीन प्रकार के हैं / क्रम से उनकी स्थिति इस प्रकार है-... स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचों की स्थिति [3] चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पन्नत्ता ? गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिम्णि पलिओवमाई। सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० चउरासीतिवाससहस्साई। अपज्जत्तयसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण जाव गो० ! जहन्नेणं अंतो. उक्को० अंतो०॥ = / - - - 1. पुवस्स हु परिमाण सत्तरि खल कोडिसदसहरसाई / छप्पण्णं च सहस्सा बोदधन्वा वासकोडीणं // -सर्वार्थसिद्धि प.१६५ से उद्धत Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] पज्जत्तयसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदिय तिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० चउरासीतिवाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई। गम्भवक्कंतियचउप्पयथलयर० जाब गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिष्णि पलिओवमाई / अपज्जत्तयगन्भवतियचउप्पय० जाव गो ! जह० अंतो० उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयगम्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव जह० अंतो० उक्को० तिणि पलिम्रोवमाइं अंतोमुहत्तूणाई। उरपरिसप्पथलयरपंचेंदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पं०? गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुन्चकोडी। सम्मुच्छिमउरपरिसप्प० जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० तेवन्नं वाससहस्साई। अपज्जत्तयसम्मुच्छिमउरपरिसम्प० जाव गो० ! जह• अंतो० उक्कोसेणं अंतो० / पज्जतयसम्मुच्छिम उरपरिसप्प० जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० तेवण्णं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। गमवक्कतियउरपरिसप्पथलयर० जाव गो० ! जह• अंतो० उक्कोसेणं पुन्यकोडी / अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियउरपरिसप्प० जाव गोतमा ! जह० अंतो० उक्को अंतो० // पज्जत्तयगम्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को पुवकोडी अंतोमुत्तूणा / भुयपरिसप्पथलयर० जाव गो० ! जह० अंतो उक्कोसेणं पुवकोडी। सम्मुच्छिमभुयपरिसप्प० जाव गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई / अपज्जत्तयसम्मच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्ख जोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० अंतो। पज्जत्तयसम्मच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदिय० जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० बायालोसं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। गन्भवतियभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० पुथ्वकोडी। अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयर० जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयगब्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयर० जाव गो ! जह० अंतो० उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहत्तणा। [387-3 प्र.] भगवन् ! चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? [387-3 उ. गौतम ! सामान्य रूप में जधन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की होती है। गौतम ! संमूच्छिमचतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति चौरासी हजार वर्ष की है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 अनुयोगहारसूत्र अपर्याप्तक संमूच्छिम चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जानना चाहिये / तथा .. पर्याप्तक समूच्छिमवतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त हीन चौरासी हजार वर्ष की जानना चाहिये। गर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। अपर्यातक गर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। पर्याप्तक गर्भजचतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों को जघन्य स्थिति अन्तर्महूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त हीन तीन पल्योपम की जानना चाहिये / / [प्र.] भगवन् ! उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्ययोनिक जीवों की स्थिति कितनी है ? [उ.] गौतम ! सामान्य रूप में उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है। प्र.] भगवन् ! संमूर्छिमउरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [उ.गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति त्रेपन हजार वर्ष की है / अपर्याप्तक समूच्छिमउरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। पर्याप्तक समूच्छिमउरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून वेपन हजार वर्ष की है / तथा प्र.] भगवन् ! गर्भजउरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही है? [उ.] गौतम ! गर्भजउरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति कोटि पूर्व वर्ष की है। ___ गौतम ! अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिकउरपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। पर्याप्तक गर्भजउरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून पूर्वकोटि वर्ष की है। प्र. भगवन् ! भुजपरिसर्पस्थल चरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की है? उ.] गौतम ! सामान्य से तो भुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति करोड़ पूर्व वर्ष की है। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [311 समूच्छिमभुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति बयालीस हजार वर्ष की होती है / तथा अपर्याप्तक समूच्छिमभुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की जानना चाहिये / और– गौतम ! पर्याप्तक संमच्छिमभुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून बयालीस हजार वर्ष की होती है / गौतम ! गर्भव्युत्क्रान्तिकभुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिक जीवों की औधिक जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है।। अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिकभुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है / __ पर्याप्तक गर्भजभुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून करोड़ पूर्व वर्ष प्रमाण है। विवेचन--यहां पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक के दूसरे भेद स्थल चर के चतुष्पद, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प इन तीन प्रकारों की प्रभेदों सहित जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बतलाया है / सामान्य से सभी की जघन्य स्थिति और अपर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हो है। लेकिन उत्कृष्ट स्थिति के प्रमाण में अंतर है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है गाय, भैंस प्रादि चार पैर वाले तियंच चतुष्पदपंचेन्द्रियतिर्यंच, पेट के सहारे रेंगने वाले चलने वाले सर्प आदि जीव उरपरिसर्प और पैरों के सहारे रेंगने वाले नेवला आदि जीव भुजपरिसर्प कहलाते हैं। ___ सामान्य से तो पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों को उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम है, जो भोगभूमिजों की अपेक्षा समझना चाहिये। ___ समूच्छिम स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचों की उत्कृष्ट स्थिति सामान्य से चौरासी हजार वर्ष और गर्भज चतुष्पदों की तीन पल्योपम की है। पर्याप्तक समूच्छिम स्थलचरों की अन्तर्महुर्त न्युन चौरासी हजार वर्ष तथा गर्भजों की अन्तर्मुहूर्त न्यून तीन पल्योपम प्रमाण है। क्योंकि अपर्याप्तकाल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं हैं / इसीलिये उसको कम करने का संकेत किया है। स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचों के दूसरे भेद उरपरिसॉ की सामान्य से उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है / समूच्छिम की उत्कृष्ट स्थिति त्रेपन हजार वर्ष और गर्भज की पूर्वकोटि वर्ष है। किन्तु पर्याप्त की अपेक्षा संमूच्छिम की अन्तर्मुहूर्तन्यून त्रेपन हजार वर्ष और गर्भज की अन्तर्मुहूर्तन्यून पूर्वकोटि वर्ष जानना चाहिये। स्थलचरपंचेन्द्रियतियंचों के तीसरे भेद भुजपरिसों की सामान्य से उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष तथा संमूच्छिमों की बयालीस हजार वर्ष और गर्भजों की पूर्वकोटि वर्ष है। पर्याप्त की अपेक्षा ममूच्छिमों की अन्तर्महूर्त न्युन बयालीस (42) हजार वर्ष तथा गर्भजों की अन्तर्महूर्त न्यून पूर्वकोटि वर्ष है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] [अनुयोगद्वारसूत्र यहाँ सामान्य से तथा पृथक्-पृथक भेदों की अपेक्षा जो जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बताया है, उसमें जघन्य से ऊपर और उत्कृष्ट काल से न्यून सभी स्थितियां मध्यम स्थितियां कहलाती हैं / जिनके अनेक भेद होते हैं / खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचों की स्थिति [4] खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केतिकालं ठिती पन्नत्ता ? गो० ! जह० अंतो० उक्को० पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं / सम्मुच्छिमखहयर० जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० बावरिं वाससहस्साई। अपज्जत्तयसम्मुच्छिमखह्यर० जाव गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं अंतो० / पज्जतगसम्मुच्छिमखह्यर० जाव गोतमा ! जह० अंतो० उक्कोसेणं बावरि वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। गम्भवक्कंतियखयरपंचेदियतिरिक्ख० जाव गो० ! जह• अंतो० उक्को० पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागं / अपज्जत्तयगम्भवतियखहयर जाव गो० ! जह० अंतोमहत्तं उक्कोसेणं अंतोमहत्तं, पज्जत्तयगम्भवक्कंतियखयरपंचेंदियतिरिक्ख० जाव गोयमा! जहः अंतो० उक्कोसेणं पलिमोवमस्स असंखेज्जइभागं अंतोमुत्तूणं / [387-4 प्र.] भगवन् ! खेचरपंचेन्द्रियतियंचयोतिक जीवों की स्थिति कितने काल की होती है ? [387-4 उ.] गौतम ! सामान्य से खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तमहर्त की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। समूच्छिम खेचरपंचेन्द्रियतियं चयोनिक जीवों की प्राधिक स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बहत्तर हजार वर्ष की है। अपर्याप्तक समूच्छिम खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति जघन्य से भी अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की है। पर्याप्तक संमूच्छिम खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून बहत्तर हजार वर्ष की जानना चाहिये / सामान्य रूप में गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिक जीवों को जघन्य स्थिति अन्तर्महूर्त की है और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अपर्याप्तक गर्भज खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / तथा पर्याप्तक गर्भजखेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है / Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [313 विवेचन--यहाँ खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति का प्रमाण बतलाया है। पूर्वनिर्धारित प्रणाली के अनुसार पहले सामान्य से, फिर उनके समूच्छिम और गर्भज भेद की अपेक्षा और फिर इन दोनों के भी अपर्याप्तक और पर्याप्तक प्रकारों की अपेक्षा स्थिति का निरूपण किया है / जघन्य स्थिति तो सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है लेकिन उत्कृष्ट स्थिति समूच्छिमों की बहत्तर हजार वर्ष और गर्भजों की पल्योगम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त न्यून करने का कारण यह है कि समस्त संसारी जीव अन्तर्मुहुर्त काल में यथायोग्य अपनी-अपनी पर्याप्तियों को पूर्ण कर पर्याप्त हो जाते हैं / अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं रहती। संग्रहणी गाथायें [5] एस्थ एतेसि संगहणिगाहाओ भवंति / तं जहा सम्मुच्छ पुत्वकोडी, चउरासोति भवे सहस्साई / तेवण्णा बायाला, बावत्तरिमेव पक्खीणं // 111 // गब्भम्मि पुग्वकोडी, तिण्णि य पलिनोवमाइं परमाउं / उर-भुयग पुन्चकोडी, पलिउवमासंखभागो य // 112 // [387-5] पूर्वोक्त कथन की संग्रहणी गाथायें इस प्रकार हैं संमूच्छिम तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों में अनुक्रम से जलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष, स्थल त्ररचतुष्पद समूच्छिमों की चौरासी हजार वर्ष, उरपरिसों की त्रेपन हजार वर्ष, भुजपरिसों की बियालीस हजार वर्ष और पक्षी (खेचरों) की बहत्तर हजार वर्ष की है / 111 गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यचों में अनुक्रम से जलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष, स्थलचरों की तीन पल्योपम, उरपरिसों और भुजपरिसर्यों की पूर्वकोटि वर्ष और खेचरों की पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है / 112 विवेचन-पूर्व में सप्रभेद पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बताई गई है / उनमें से इन दो गाथाओं में सामान्य से उन्हीं की उत्कृष्ट स्थिति का उल्लेख किया है। __ इस पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की आयु-स्थिति के कथन के साथ तिर्यंचगति के समस्त जीवों की स्थिति का वर्णन पूर्ण हुआ / मनुष्यों की स्थिति भंते ! केवइकालं ठिई पं? गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं। 388-1 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों की स्थिति कितने काल की बताई है ? [388.1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट तीन फ्ल्योपम की कही है। [2] सम्मुच्छिममणुस्साणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० अंतो० / |388-2] संमूर्छिम मनुष्यों को जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] [अनुयोगद्वारसूत्र [3] गन्भवतियमणुस्साणं जाव जहानेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई। अपज्जत्तयगब्भववतियमणुस्साणं जाव गो० ! जहं० अंतो० उक्कोसेणं अंतो०। पज्जत्तयगम्भवक्कंतियमणुस्साणं जाव गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुत्तूणाई। [388-3] गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यों की जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की ही जानना चाहिए। पर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यों की जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून तीन पल्योपम प्रमाण है / विवेचन-सूत्र में मनुष्यगति के जीवों की प्रायुस्थिति का जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा निरूपण किया है। जम्बूद्वीप, धातकीखंड और अर्धपुष्करवरद्वीप मनुष्यक्षेत्र हैं। इतने क्षेत्र में ही मनुष्यों का निवास है / ये द्वीप अनेक खंडों (भरत आदि क्षेत्रों) में विभक्त हैं। भरत, ऐ रवत तथा देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर विदेह क्षेत्र में कालपरिवर्तन के अनुसार अकर्मभूमि रूप अवस्था भी होती है और कर्मभूमि रूप भी। यहाँ जो मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की बताई है वह उत्तम भोगभूमि क्षेत्र देवकुरु और उत्तरकुरु की अपेक्षा जानना चाहिये। ये दोनों विदेहक्षेत्रान्तर्वर्ती स्थानविशेष हैं। यहाँ सदैव उत्तम भोगभूमि रूप स्थिति रहती है और कालापेक्षया सुषमासुषमा काल प्रवर्तमान रहता है। व्यंतर देवों की स्थिति 386. वाणमंतराणं भंते ! देवाणं केवतिकालं ठिती पण्णत्ता ? गो० ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उवकोसेणं पलिओवमं / वाणमंतरीणं भंते ! देवीणं केवतिकालं ठिती पण्णत्ता ? गो० ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं अद्धपलिनोवमं / / [389 प्र.] भगवन ! वाणव्यंतर देवों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? [उ. 389] गौतम ! जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम की होती है। [प्र.] भगवन् ! वाणध्यंतरों की देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [उ. ] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति अर्धपल्योपम की होती है। विवेचन--उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में व्यंतर देव निकाय के देव-देवियों की जघन्य और उत्कृष्ट Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [315 स्थिति का निरूपण किया है। व्यंतर देवों ओर देवियों को जघन्य स्थिति तो एक समान दस हजार वर्ष की है, किन्तु उत्कृष्ट स्थिति में अन्तर है / देवों की स्थिति एक पल्योपम किन्तु देवियों की अर्धपल्योपम प्रमाण है / ज्योतिष्क देवों की स्थिति 360. [1] जोतिसियाणं भंते ! देवाणं जाव / गोयमा ! जह० सातिरेगं अट्ठमागपलिमोवम उक्कोसेणं पलिओवमं वाससतसहस्समभहियं / जोइसोणं भंते ! देवोणं जाव गो० ! जह० अटुभागपलिग्रोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिप्रोवम पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं / [390-1 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों की स्थिति कितने काल की बताई है ? [390-1 उ.] गौतम ! जघन्य कुछ अधिक पल्योपम के आठवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम की होती है। [प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देवियों की स्थिति कितने काल को बताई है ? / [] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति पल्योपम का पाठवां भाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति पचास हजार वर्ष अधिक अर्थपल्योपम की होती है। [2] चंदविमाणाणं भंते ! देवाणं जाव जहन्नेणं च उभागपलिओवम उक्कोसेणं पलिओवमं वाससतसहस्साहियं / चंदविमाणाणं भंते ! देवीणं जाव जहन्नेणं चउभागपलिओवम उक्को० अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहि अहियं / [390-2 प्र.] भगवन् ! चंद्रविमानों के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [390-2 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है / [प्र.] भगवन् ! चंद्रविमानों को देवियों की स्थिति कितने काल की प्रतिपादन की गई है ? [उ.] गीतम ! जघन्य स्थिति पल्योषम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति पचास हजार वर्ष अधिक अर्धपल्योपम की होती है। [3] सूरविमाणाणं भंते ! देवाणं जाव जह० चउभागपलिओवमं उक्को० पलिग्रोवम वाससहस्साहियं / सूरविमाणाणं भंते ! देवोगं जाव जह० चउभागपलिओवम उक्को० अद्धपलिओवमं पंचहि वाससहिं अधियं / [390-3 प्र.] भगवन् ! सूर्यविमानों के देवों की स्थिति कितने काल को बताई है ? [390-3 उ.] गौतम ! जवन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थांश और उत्कृष्ट स्थिति एक हजार वर्ष अधिक एक पल्पोपम को होती है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] [अनुयोगद्वारसूत्र [प्र.] भगवन् ! सूर्यविमानों की देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [उ] गौतम ! सूर्यविमानों की देवियों की जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति पाँचसौ वर्ष अधिक अर्धपल्योपम की होती है। [4] गह विमाणाणं भंते ! देवाणं जाव जहन्नेणं चउभागपलिओवमं उक्को० पलिओवमं / गह विमाणाणं भंते ! देवीणं जाव जह० चउभागपलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं / [390-4 प्र.] भगवन् ! ग्रहविमानों के देवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [390-4 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम की है। [प्र.] भगवन् ! ग्रहविमानों की देवियों की स्थिति कितने काल की बताई है ? [उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण अर्धपल्योपम का है। [5] णक्खतविमाणाणं भंते ! देवाणं जाव गोयमा! जह० चउभागपलिओवम उक्को० अद्धपलिनोवमं / णक्खतविमाणाणं भंते ! देवीणं जाव गो० ! जहन्नेणं चउभागपलिनोवम उक्को० सातिरेग चउभागपलिओवमं / [390-5 प्र.] भगवन् ! नक्षत्रविमानों के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [390-5 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति अर्धपल्योपम की होती है। [प्र.] भगवन् ! नक्षत्रविमानों की देवियों की स्थिति का प्रमाण क्या है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट स्थिति साधिक पल्योपम का चतुर्थ भाग प्रमाण है / [6] ताराविमाणाणं भंते ! देवाणं जाव गो० ! जह० सातिरेगं अट्ठभागपलिग्रोवम उक्को० चउभागपलिग्रोवमं / ताराविमाणाणं भंते ! देवीणं जाव गो० ! जहन्नेणं अट्ठभागपलिग्रोवम उक्को० सातिरेगं अट्ठभागपलिओवमं। [390-6 प्र.] भगवन् ! ताराविमानों के देवों की स्थिति कितने काल की है ? [390-6 उ.] गौतम ! कुछ अधिक पल्योपम का अष्टमांश भाग जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग है। [प्र.] भगवन् ! ताराविमानों की देवियों की स्थिति का काल कितना कहा है ? [उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट स्थिति साधिक पल्योपम का आठवां भाग है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण विवेचन--उपर्यल्लिखित प्रश्नोत्तरों में ज्योतिष्क देवनिकाय के देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बतलाया है / सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा ये ज्योतिष्क देवों के पांच प्रकार हैं। इन पांचों के समुदाय को सामान्य भाषा में ज्योतिष्कमंडल कहते हैं। इनका अवस्थान हमारे इस समतल भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाकर नौ सौ योजन तक के अन्तराल में है। जिसका क्रम इस प्रकार है–समतल भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर ताराओं के विमान हैं / ये सब ज्योतिटक देवों के विमानों से अधोभाग में स्थित हैं। इससे दस योजन ऊपर सूर्यविमान है, इससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रविमान है, इससे चार योजन ऊपर अश्वनी, भरणी आदि नक्षत्रों के विमान हैं, इनसे चार योजन ऊपर बुध ग्रह का, इससे तीन योजन ऊपर शुक्रग्रह का, इससे तीन योजन ऊपर बृहस्पति ग्रह का, इससे तीन योजन ऊपर मंगलग्रह का और इससे तीन योजन ऊपर शनि ग्रह का विमान है / यह ज्योतिष्क देवों से व्याप्त नभःप्रदेश एक सौ दस योजन मोटा और घनोदधिवातवलय पर्यन्त असंख्यात द्वीप-समुद्र पर्यन्त लंबा है। ये ज्योतिष्क देव मनुष्यलोक में मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले और निरंतर गतिशील हैं। जो मेरुपर्वत से चारों ओर ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर रहकर गोलाई में विचरण करते हैं / इनकी इस निरंतर गमनक्रिया के द्वारा मनुष्यक्षेत्र में दिन-रात्रि आदि का कालविभाग होता है। मनुष्यक्षेत्र से बाहर के ज्योतिष्क देवों के विमान अवस्थित रहते हैं / वे गतिशील नहीं हैं। पुष्करबरद्वीप के मध्यभाग में स्थित मानुषोत्तरपर्वत के भीतर का क्षेत्र मनुष्यक्षेत्र कहलाता है। मानुषोत्तरपर्वत की एक बाजू से लेकर दूसरी बाजू तक कुल मिलाकर विस्तार पैतालीस लाख योजन है / वैमानिक देवों को स्थिति 361. [1] वेमाणियाणं भंते ! देवाणं नाव गो० ! जहणणं पलिओवमं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। वेमाणीणं भंते ! देवीणं जाव गो० ! जह० पलिप्रोवम उक्को० पणपण्णं पलिओवमाई। [391-1 प्र.] भगवन् ! वैमानिक देवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [391-1 उ.] गौतम ! वैमानिक देवों की स्थिति जघन्य एक पल्य की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। [प्र.] भगवन् ! वैमानिक देवियों की स्थिति कितनी होती है ? उ.] गौतम ! वैमानिक देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्य की और उत्कृष्ट स्थिति पचपन (55) पल्योपम की है। विवेचन--ऊपर के प्रश्नोत्तरों में सामान्य से वैमानिक देवों और देवियों की जघन्यतम और उत्कृष्टतम स्थिति का प्रमाण बतलाया है। शास्त्र में देवों की सामान्य से जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष बतलाई है, किन्तु यहाँ वैमानिक देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की बताने पर यह शंका हो सकती है कि देवगति वाले होने पर भी इन वैमानिक देवों की जघन्य स्थिति का पृथक से निर्देश करने का क्या कारण है ? इसका उत्तर यह है कि वैमानिक देव चतुर्विध देवनिकायों में विशुद्धतर Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318] [अनुयोगद्वारसूत्र लेश्या-परिणाम-द्युति आदि से संपन्न हैं। इनकी अपेक्षा भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क देव विशुद्धि आदि में होन हैं / अतएव वैमानिक देवों की पृथक् रूप से जघन्य स्थिति का निर्देश किया है। देवों की जो जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की बताई है, वह भवनपति और व्यंतर देवों की होती है और ये भवनपति व व्यंतर भी देवगति व देवायु वाले हैं। अतएव जब सामूहिक रूप में देवगति की जघन्य स्थिति का कथन करते हैं तो वह दस हजार वर्ष की बताई जाती है। सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त के देव इन्द्र आदि दस भेदों की कल्पना होने से कल्पोपपन्न और इनके ऊपर प्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव उक्त प्रकार की कल्पना न होने से कल्पातीत संज्ञा वाले हैं / यहाँ जो जघन्य स्थिति एक पल्योपम की बताई है, वह पहले सौधर्म देवों की अपेक्षा से है और तेतोस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति सर्वार्थसिद्ध देवों की होती है। अब अनुक्रम से एक-एक कल्प और कल्पातीत देवों की स्थिति का वर्णन करते हैं। सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त कल्पों की स्थिति [2] सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवतिकालं ठिती पं०? गो० ! जह० पलिओवमं उक्कोसेणं दोन्नि सागरोवमाई / सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवीणं जाव गोयमा! जहन्नेगं पलिओवम उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई। सोहम्मे णं भंते ! कप्पे अपरिगहियाणं देवीणं जाव गो० ! जह० पलिप्रोवम उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई। [391-2 प्र. भगवन् ! सौधर्मकल्प के देवों की स्थिति कितने काल की है ? [391-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है। [प्र.] भगवन् ! सोधर्मकल्प में (परिगृहीता) देवियों को स्थिति कितने काल की है ? [उ.] गौतम ! सोधर्मकल्प में (परिगृहीता) देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट सात पल्योपम की है। [प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में अपरिगृहीता देवियों की स्थिति कितनी है ? [उ.] गौतम ! जयन्य स्थिति पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति पचास पल्योपम की होती है। [3] ईसाणे गं भंते ! कप्पे देवाणं केवतिकालं ठिती पन्नत्ता? गो० ! जहन्नेणं सातिरेगं पलिभोवम उक्को० सातिरेगाइं दो सागरोवमाई। ईसाणे णं भंते ! कप्पे देवोणं जाव गो० ! जहः सातिरेगं पलिओवम उक्को० नव पलिओवमाई। ईसाणे णं भंते ! कम्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं जाव गो० ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवर्म उक्कोसेणं पणपण्णं पलिप्रोवमाइं। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [319 [391-3 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [391-3 उ.] गौतम ! ईशानकल्प के देवों की जघन्य स्थिति साधिक पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति साधिक दो सागरोपम की है। [प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प की (परिगृहीता) देवियों की स्थिति कितने काल की कही है ? [उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति साधिक पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति नौ पल्योपम की होती है। [प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में अपरिगृहीता देवियों की स्थिति कितनी है ? [उ.] गौतम ! जघन्य कुछ अधिक पल्योपम की है और उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है। [4] सणंकमारे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवइकालं ठिती पन्नता? गो० ! जह० दो सागरोवमाई उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई। [391-4 प्र.] भगवन् ! सनत्कुमारकल्प के देवों की स्थिति कितनी होती है ? [391-4 उ.] गौतम ! जघन्य दो सागरोपम की और उत्कृष्टतः सात सागरोपम की है। [5] माहिदे णं भंते ! कप्पे देवाणं जाव गोतमा ! जह० साइरेगाई दो सागरोवमाई, उको साइरेगाई सत्त सागरोवमाइं। [391-5 प्र.] भगवन् ! माहेन्द्रकल्प में देवों की स्थिति का प्रमाण कितना है ? [391-5 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति साधिक दो सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम प्रमाण है। [6] बंभलोए णं भंते ! कप्पे देवाणं जाव गोतमा ! जहं० सत्त सागरोवमाई उक्कोसेणं दस सागरोवमाई। [391-6 प्र.] भगवन् ! ब्रह्मलोककल्प के देवों की स्थिति कितनी है? [391-6 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति सात सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है। [7] एवं कप्पे कप्पे केवतिकालं ठिती पन्नत्ता ? गो० ! एवं भाणियवंलंतए जह० दस सागरोवमाई उक्को० चोइस सागरोवमाई। महासुक्के जह० चोद्दस सागरोवमाइ उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई। सहस्सारे जह० सत्तरस सागरोवमाई उक्कोसेणं अद्वारस सागरोवमाई। आणए जह• अट्ठारस सागरोवमाइं उबको एक्कणवीसं सागरोवमाई। पाणए जह• एक्कूणवीसं सागरोवमाई उक्को० बीसं सागरोवमाई। आरणे जह० वीसं सागरोवमाई उक्को० एक्कवीसं सागरोवमाई। अच्चुए जह० एक्कवीसं सागरोवमाइं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] [अनुयोगद्वारसूत्र [391-7 प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार प्रत्येक कल्प की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [391-7 उ.] गौतम ! वह इस प्रकार कहना जानना चाहिये लांतककल्प में देवों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम, उत्कृष्ट स्थिति चौदह सागरोपम की होती है। महाशुक्रकल्प के देवों की जघन्य स्थिति चौदह सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति सत्रह सागरोपम की है। सहस्रारकल्प के देवों की जघन्य स्थिति सत्रह सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागरोपम की है। अानतकल्प में जघन्य स्थिति अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम को है। प्राणतकल्प में जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की है। पारणकल्प के देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम और उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम की स्थिति है। __ अच्युतकल्प के देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम की और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थिति होती है। विवेचन—पूर्व में सामान्य से वैमानिक देवों की स्थिति बताने के बाद यहाँ विशेष रूप से स्थिति का निर्देश किया है / वैमानिक देवों के छब्बीस लोक हैं। उनमें सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त बारह देवलोक कल्पसंज्ञक हैं। इनकी सामान्य से जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की है / देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्य की और उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है। किन्तु दूसरे ईशानकल्प से ऊपर देवियां उत्पन्न नहीं होती हैं, इसलिये दूसरे कल्प तक ही देवियों की स्थिति का कथन किया है। इनके दो भेद हैं—परिगहीता और अपरिग्रहीता / इन दोनों की जघन्य स्थिति प्रथम देवलोक में एक पल्योघम की और दूसरे देवलोक में साधिक एक पल्योपम की है, लेकिन प्रथम देवलोक की परिगृहीता देवियों की उत्कृष्ट स्थिति सात पल्योपम की और अपरिगृहीता की पचास पल्य को होती है / द्वितीय देवलोक को परिगृहीता देवियों की उत्कृष्ट स्थिति नौ पल्योपम की अपरिगृहीताओं की पचपन पल्योपम की होती है। ईशानकल्प में देवों को उत्कृष्ट स्थिति सौधर्मकल्प के देवों से कुछ अधिक दो सागरोपम और सनत्कुमारकल्प की अपेक्षा माहेन्द्रकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति साधिक सात सागरोपम है। लेकिन इसके बाद ब्रह्मलोक से लेकर अच्युत कल्प तक पूर्व को उत्कृष्ट स्थिति उत्तर की जघन्य स्थिति जानना चाहिये। ग्रेवेयक और अनुत्तर देवों को स्थिति [-] हेदिमहे टिमगेवेज्जविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइकालं ठिती पं० ? गो० ! जह० बावीसं सागरोवमाई उक्को० तेवीसं सागरोवमाई / Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [321 हेटिममज्झिमगेवेज्जविमाणेसु णं जाव गो० ! जह० तेवीसं सागरोंकमाई उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई। हेद्विमउवरिमगेवेज्ज० जाव जह० चउदीसं सागरोवमाइं उक्को. पणुवीसं सागरोवमाई। मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जबिमाणेसु णं जाव गोयमा ! जह० पणुवीसं सागरोवमाई उक्को० छवीसं सागरोवमाई। मज्झिममज्झिमगेवेज्ज जाव जह० छन्वीसं सागरोवमाई उक्को० सत्तावोसं सागरोवमाई। मज्झिमउवरिमगेवेज्जविमाणेसु णं जाव गोतमा ! जह० सत्तावीसं सागरोवमाई उक्को० अट्ठावीसं सागरोवमाई। उरिमहेट्ठिमगेवेज जाव जह० अट्ठावीसं सागरोदमाई उक्को० एक्कणतीसं सागरोवमाई। उपरिममज्झिमगेवेज्ज. जाव जह० एक्कूणतीसं सागरोबमाई उक्को० तीसं सागरोवमाइं। उवरिमउरिमगेवेज्ज० जाव जह तीसं सागरोवमाई उक्को० एक्कतोसं सागरोवमाई / [391-8 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-अधस्तन प्रैवेयक विमान में देवों की स्थिति कितनी कही [391-8 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति बाईस सागरोषम की और उत्कृष्ट स्थिति तेईस सागरोपम की है। [प्र.] भगवन् ! अधस्तनमध्यम अवेयक विमान के देवों की स्थिति कितनी कही है ? उ. गौतम ! जघन्य स्थिति तेईस सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति चौबीस सागरोपम की है। अधस्तन-उपरिम बेयक के देवों की जघन्य स्थिति चौबोस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागरोपम की है / तथा गौतम ! मध्यम-अधस्तन अवेयक के देवों की जघन्य स्थिति पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति छब्बीस सागरोपम की होती है / तथा-- मध्यम-मध्यम वेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस सागरोपम की, उत्कृष्ट स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है / तथा गौतम ! मध्यम-उपरिम वेयक विमानों में देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति अट्ठाईस सागरोपम की होती है / तथा उपरिम-अधस्तन अवेयक विमानों के देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोपम की है। उपरिम-मध्यम प्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति उनतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम की है / तथा उपरिम-उपरिम अवेयक विमानों के देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति इकतीस सागरोपम की है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [अनुयोगद्वारसूत्र [6] विजय-जयंत-जयंत-अपराजितबिमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइकालं ठिती पण्णता ? गो० ! जहणणं एक्कतीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई / सम्वसिद्धे णं भंते ! महाविमाणे देवाणं केवइकालं ठिती पण्णता? गो० ! अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाई / से तं सुहमे अदापलिओवमे। से तं अद्धापलिओक्मे / [391-9 प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [391-9 उ.] गौतम ! जघन्य इकतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। [प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [उ.] गौतम ! उनकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है। इस प्रकार से सूक्ष्म अद्धापल्योपम के अभिधेय का वर्णन करने के साथ श्रद्धापल्योपम का निरूपण पूर्ण हुआ। विवेचन—ऊपर कल्पातीत देवलोकों के देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया है। ये देवलोक दो वर्गों में विभक्त हैं--प्रैवेयक और अनुत्तर विमान / 'गैवेयक' नाम का कारण यह है कि पुरुषाकार लोक के ग्रीवा रूप स्थान में ये अवस्थित हैं तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध महाविमान सर्वोत्तम होने के कारण 'अनुत्तर' कहलाते हैं। अनुत्तर विमानों का तो पृथक्-पृथक् नामनिर्देश किया है, वैसा नैवेयक विमानों का नामोल्लेख नहीं किया है / लेकिन शास्त्रों में अधस्तनत्रिक, मध्यमत्रिक और उपरितनत्रिक के नाम इस प्रकार बताये हैं—अधस्तनत्रिक-भद्र, सुभद्र, सुजात, मध्यमत्रिक-सौमनस, प्रियदर्शन, सुदर्शन, उपरितनत्रिक–अमोह, सुमति, यशोधर / सर्वार्थ सिद्ध महाविमान के अतिरिक्त शेष देवलोकों में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है / लेकिन सर्वार्थसिद्ध महाविमान में यह भेद नहीं होने से वहाँ तेतीस साग रोपम की ही स्थिति है / इसी का बोध कराने के लिये सूत्र में 'अजहण्णमणुक्कोस' पद दिया है। यहाँ पर्याप्तकों की अपेक्षा व्यंतरों से लेकर वैमानिक देवों तक की स्थिति का वर्णन किया गया है, लेकिन इन सभी की अपर्याप्त अवस्था भावी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की समझना चाहिये / क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् वे अवश्य पर्याप्तक हो जाते हैं। इस प्रकार से अद्धापल्योपम का वर्णन करने के बाद अब क्षेत्रपल्योपम का कथन करते हैं : क्षेत्रफ्ल्योपम का निरूपण 392. से कि तं खेत्तपलिओवमे ? खेत्तपलियोवमे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा-सुहमे य वावहारिए य / Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [323 [392 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रपल्योपम का क्या स्वरूप है ? [392 उ.] गौतम ! क्षेत्रपल्योपम दो प्रकार का कहा है-सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम / 363. तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे / [393] उनमें से सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम स्थापनीय है। अर्थात् उसका यहाँ वर्णन नहीं किया जाएगा। किन्तु 394. तत्थ णं जे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं आयाम-विक्खंभेणं,जोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय० जाव भरिए वालग्गकोडोणं / ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा, गो वातो हरेज्जा, जाव णो पूइत्ताए हन्वमागच्छेज्जा / जे णं तस्स पल्लस्स आगासपदेसा तेहि वालागेहि अप्फुना ततो गं समए समए गते एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खोणे जाव निट्ठिए भवइ / से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे / एएसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया / तं वावहारियस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं // 113 // [394] उन दोनों में से व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये योजन अायाम-विष्कम्भ पोर एक योजन ऊंचा तथा कुछ अधिक तिगनी परिधि बाला धान्य मापने के पल्य के समान पल्य हो। उस पल्य को दो, तीन यावत् सात दिन के उगे बालानों को कोटियों से इस प्रकार से भरा जाए कि उन बालानों को अग्नि जला त सके, वायु उड़ा न सके आदि यावत् उनमें दुर्गन्ध भी पैदा न हो। तत्पश्चात् उस पल्य के जो ग्राकाशप्रदेश बालारों से व्याप्त हैं, उन प्रदेशों में से समय-समय (प्रत्येक समय) एक-एक आकाशप्रदेश का अपहरण किया जाए-- निकाला जाए तो जितने काल में वह पल्य खाली यावत् विशुद्ध हो जाए, वह एक व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम है। इस व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम की दस गणित कोटाकोटि का एक व्यावहारिक क्षेत्रसागरोपम का परिमाण होता है। अर्थात दस कोटाकोटि व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपमों का एक व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम होता है / 113 विवेचन-यहाँ व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम का प्रमाण बताकर व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम का स्वरूप बताया है। पूर्व में जो व्यावहारिक उद्धारपल्योपम और अद्धापल्योपम का स्वरूप बताया है, उन्हीं के समान बालानकोटियों से पल्य को भरने की प्रक्रिया यहाँ भी ग्रहण की गई है। किन्तु उनसे इसमें अन्तर यह है कि पूर्व के दोनों पल्यों में समय की मुख्यता है, जबकि यहाँ क्षेत्र मुख्य है। इस प्रकार से व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और क्षेत्र सागरोपम का स्वरूप बतलाने के बाद अब उसके प्रयोजन का कथन करते हैं। जैसे कोई एक योजन प्राय Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324] [अनुयोगद्वारसूत्र 395. एएहि वावहारिएहि खेतपलिओवम-सागरोवमेहि किं पयोयणं? एएहि नस्थि किचिप्पओयणं, केवलं तु पण्णवणा पण्णविज्जइ। से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे / [395 प्र.] भगवन् ! इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात् इनका कथन किसलिये किया गया है ? [395 उ.] गौतम ! इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता / मात्र इनके स्वरूप की प्ररूपणा ही की गई है / इस प्रकार से यह व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम एवं सागरोपम का स्वरूपवर्णन समाप्त हुआ। विवेचन-सूत्र में व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम एवं सागरोपम के स्वरूप और प्रयोजन का संकेत करने के बाद अब–'तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे' की सूचनानुसार सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप बतलाते हैं। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम-सागरोपम 396. से कि तं सुहमे खेत्तपलिओवमे ? सुहमे खेत्तपलिओवमे से जहाणामए पल्ले सिया--जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उड्डं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिवखेवेणं; से णं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय० जाव उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं सम्मठे सन्निचिते भरिए वालम्गकोडीणं / तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाइं खंडाई कज्जइ, ते णं वालग्गा विट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाणाओ असंखज्जगुणा / ते णं वालागा जो अगी डहेज्जा, नो वातो हरेज्जा, णो कुच्छेज्जा, णो पलिविद्धंसेज्जा, जो पूइत्ताए हवमागच्छेज्जा। जे गं तस्स पल्लस्स प्रागासपदेसा तेहि वालग्गेहि अप्फुन्ना वा अणप्फुण्णा वा तओ णं समए समए गते एगमेगं मागासपदेसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले वीगे नीरए निल्लेवे गिट्ठिए भवति / से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे / [396 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का क्या स्वरूप है ? [396 उ.] अायुष्मन् ! सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-जैसे धान्य के पल्य के समान एक पल्य हो जो एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला हो / फिर उस पल्य को एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् सात दिन के उगे हुए बालानों से भरा जाए और उन बालागों के असंख्यात-असंख्यात ऐसे खण्ड किये जाएँ, जो दृष्टि के विषयभूत पदार्थ की अपेक्षा असंख्यात भाग-प्रमाण हों एवं सूक्ष्मपनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यात गुणे हों / उन बालाग्रखण्डों को न तो अग्नि जला सके और न वायु उड़ा सके, वे न तो सड़गल सके और न जल से भीग सकें, उनमें दुर्गन्ध भी उत्पन्न न हो सके / उस पल्प के बालानों से जो आकाशप्रदेश स्पृष्ट हुए हों और स्पृष्ट न हुए हों (दोनों प्रकार के प्रदेश यहाँ ग्रहण करना चाहिये) उनमें से प्रति समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहरण किया जाए तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज, निर्लेप एवं सर्वात्मना विशुद्ध हो जाये, उसे सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कहते हैं / Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] 397. तत्थ णं चोयए पण्णवर्ग एवं वदासीअस्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहि अणप्फुण्णा? हंता अत्थि, जहा को दिळंतो? से जहाणामते कोटुए सिया कोहंडाणं भरिए, तत्थ णं माउलुगा पविखत्ता ते वि माया, तत्थ गं बिल्ला पक्खित्ता ते वि माता, तत्थ णं आमलया पविखत्ता ते वि माया, तत्थ णं बयरा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं चणगा पविखत्ता ते वि माया, लस्थ णं मुग्गा पविखता ते वि माया, तस्थ णं सरिसवा पक्खित्ता ते वि माता, तत्थ णं गंगावाल्या पक्खित्ता सा वि माता, एवामेव एएणं दिट्ठतेणं अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहि अणप्फुण्णा। एएसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। तं सुहुमस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं // 114 // [397] इस प्रकार प्ररूपणा करने पर जिज्ञासु शिष्य ने पूछाभगवन् ! क्या उस पल्य के ऐसे भी आकाशप्रदेश हैं जो उन वालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट हों ? आयुष्मन् ! हाँ, (ऐसे आकाशप्रदेश भी रह जाते) हैं। इस विषय में कोई दृष्टान्त है ? हाँ है / जैसे कोई एक कोष्ठ (कोठा) कष्मांड के फलों से भराहना हो और उसमें बिजौराफल डाले गए तो वे भी उसमें समा गए / फिर उसमें विल्बफल डाले तो वे भी समा जाते हैं। इसी प्रकार उसमें आंवला डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं। फिर वहाँ बेर डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं। फिर चने डालें तो वे भी उसमें समा जाते हैं। फिर मंग के दाने डाले जाएँ तो वे भी उसमें समा जाते हैं। फिर सरसों डाले जायें तो वे भी समा जाते हैं। इसके बाद गंगा महानदी की बाल डाली जाए तो वह भी उसमें समा जाती है। इस दृष्टान्त से उस पल्य के ऐसे भी आकाशप्रदेश होते हैं जो उन वालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट रह जाते हैं / इन पल्यों को दस कोटाकोटि से गुणा करने पर एक सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम का परिमाण होता है। 114 विवेचन--सूत्र में सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम का स्वरूप बतलाया है। व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम में तो पत्यान्तर्वर्ती बालानों से स्पृष्ट आकाशप्रदेशों का अपहरण किया जाता है और उन बालागों के अपहरण में ही सस्यात उत्सर्पिणी-प्रवपिणियां समाप्त हो जाती हैं। किन्तु सूक्ष्म क्षेत्रपत्योपम में पल्य स्थित बालानों के असंख्यात खण्ड किये जाते हैं, जिनसे आकाशप्रदेश अस्पृष्ट भी होते हैं और स्पृष्ट भी / कूष्माण्ड फल आदि से युक्त कोठे के दृष्टान्त द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। इसमें स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों प्रकार के आकाशप्रदेशों का अपहरण किये जाने से इसका काल व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम से असंख्यात गुणा अधिक होता है। बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट और स्पृष्ट दोनों प्रकार के आकाशप्रदेशों को ग्रहण करने का कारण Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326] [अनुयोगद्वारसूत्र यह है कि उन बालागों के असंख्यात खण्ड कर दिये जाने पर भी वे बादर-स्थल हैं। अतएव उन बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट प्रदेश सम्भवित हैं और वादरों में अन्तराल होना स्वाभाविक है। जो कूष्मांड से लेकर गंगा की बालुका तक के कोठे में समा जाने के दृष्टान्त से स्पृष्ट है। असंख्यात अाकाशप्रदेशों के अस्पृष्ट रहने को हम एक दूप्तरे दृष्टान्त से भी समझ सकते हैं। जैसे काष्ठस्तम्भ ठोस दिखता है और प्रदेशों को सघनता से हमें उसमें पोल प्रतीत नहीं होती है। फिर भी उसमें कील समा जाती है। इससे यह सिद्ध है कि उस काष्ठ में ऐसे अनेक अस्पृष्ट प्रदेश हैं जिनमें कील ने प्रवेश किया। अत: यह स्पष्ट है कि इस पल्य में भी ऐसे असंख्यात ग्राकाशप्रदेश रह जाते हैं जो उन बादर वालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट हैं। इसीलिये सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम के स्वरूपवर्णन के लिये स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों प्रकार के प्रकाशप्रदेशों का ग्रहण किया है। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन 368. एतेहि सुहमेहि खेत्तपलिओवम-सागरोवमेहि किं पओयणं ? एतेहिं सुहुमेहिं पलिओवम-सागरोवमेहि दिट्ठिवाए दम्बाई म विज्जति / [398 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? [398 उ.] आयुष्मन् ! इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम द्वारा दृष्टिवाद में वर्णित द्रव्यों का मान (गणन) किया जाता है / / विवेचन–सूत्र में सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम के प्रयोजन का कथन किया है / अतएव अब द्रव्यों का वर्णन करते हैं। अजीव द्रव्यों का वर्णन 399. कइविधा णं भंते ! दवा पण्णता ? गो० ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–जोवदव्वा य अजोवदन्वा य / [399 प्र.] भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [399 उ.] गौतम ! द्रव्य दो प्रकार के हैं, वे इस प्रकार-जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य / 400. अजोबदव्या णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गो० ! दुविहा पन्नता / तं जहा–अरूविअजीवदव्वा य रूविअजीवदव्वा य / [400 प्र.! भगवन् ! अजीवद्रव्य कितने प्रकार के हैं ? [400 उ.] गौतम ! अजीवद्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं-अरूपी अजीवद्रव्य और रूपी अजीवद्रव्य / 401. अरूविअजीवदव्वा णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गो० ! दसविहा पण्णत्ता। तं जहा-धम्मस्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसा धम्मस्थिकायस्स पदेसा, अधम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकायस्स देसा अधम्मस्थिकायस्स पदेसा, आगासस्थिकाए आगासस्थिकायस्स देसा आगासस्थिकायस्स पदेसा, अद्धासमए / Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [327 [401 प्र.] भगवन् ! अरूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के हैं ? |401 उ.] गौतम ! अरूपी अजीवद्रव्य दस प्रकार के कहे गये हैं यथा-१. धर्मास्तिकाय, 2. धर्मास्तिकाय के देश, 3. धर्मास्तिकाय के प्रदेश, 4. अधर्मास्तिकाय, 5. अधर्मास्तिकायदेश, 6. अधर्मास्तिकायप्रदेश, 7. अाकाशास्तिकाय, 8. आकाशास्तिकायदेश, 9. आकाशास्तिकायप्रदेश और 10. अद्धासमय। 402. रूधिअजीवदन्वा णं भंते ! कतिविहा पन्नता? गो० ! चउदिवहा पणत्ता / तं जहा-खंधा खंधदेसा खंधप्पदेसा परमाणुपोग्गला / [402 प्र. भगवन् ! रूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के प्रज्ञप्त किये गये हैं ? [402 उ. गौतम ! वे चार प्रकार के हैं, यथा-१. स्कन्ध, 2. स्कन्धदेश, 3. स्कन्धप्रदेश और 4. परमाणु / 403. ते णं भंते ! कि संखेज्जा असंखेज्जा अणंता ? गोतमा! नो संखज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चतिते नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणता ? गो० ! अणता परमाणुपोग्गला अणंता दुपएसिया खंधा जाव अणंता अणंतपदेसिया खंधा, से एतेणं अट्ठणं गोयमा ! एवं वुच्चति--ते णं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। 6403 प्र.] भगवन् ! ये स्कन्ध प्रादि संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? 403 उ.| गौतम ! ये स्कन्ध आदि संख्यात नहीं हैं, असंख्यात भी नहीं हैं किन्तु अनन्त हैं। प्र.] भगवन् ! ऐसा कहने का क्या अर्थ है कि स्कन्ध आदि संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं ? उ.] गौतम ! परमाण युदगल अनन्त हैं, दिप्रदेशिकस्कन्ध अनन्त हैं यावत अनन्तप्रदेशिकस्कन्ध अनन्त हैं / इसीलिये गौतम ! यह कहा है कि वे न संख्यात हैं, न असंख्यात हैं किन्तु अनन्त हैं। विवेचन—सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम सागरोपम से दृष्टिवाद-अंग में वर्णित द्रव्यों का स्वरूप जाना जाता है / द्रव्य दो प्रकार के हैं-ग्रजीवद्रव्य और जीवद्रव्य / इनमें से उपर्युक्त सूत्रों में अल्पवक्तव्य होने से पहले अजीवद्रव्यों का वर्णन किया है। इस विराट विश्व के मूल में दो ही तत्त्व हैं / इन दो तत्त्वों का विस्तार यह जगत् है। इन दोनों में से जीवद्रव्य ज्ञाता, द्रष्टा, भोक्ता है जबकि अजीवद्रव्य अचेतन है, जड है। इनको द्रव्य कहने का कारण यह है कि ये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभाव वाले हैं। उत्पाद-व्यय स्वभाव के कारण पर्याय से पर्यायान्तर होते हुए भी ध्र व स्वभाव के कारण सदैव अपने मौलिक रूप में स्थिर रहते हैं। कितना भी परिवर्तन आ जाए लेकिन अपने मूल गुणधर्म से कभी भी च्युत नहीं होते / जीव चेतना स्वभाव को छोड़कर अचेतन रूप में परिवर्तित नहीं होता है और अजीव अनेक सहकारी कारणों के मिलने पर भी अपने जडरूपत्व का त्याग नहीं करता है। इस स्थिति के कारण इनको द्रव्य कहा जाता है / Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] [अनुयोगद्वारसूत्र इन दोनों प्रकार के द्रव्यों में से पहले अजीवद्रव्य का वर्णन किया है। अजीवद्रव्य के मुख्य पांच भेद हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अद्धासमय और पुद्गलास्तिकाय / इनमें से आदि के चार द्रव्य अरूपी-अमूर्त हैं और पुद्गल रूपी-भूर्त है / पुद्गल को रूपी, मूर्त इसलिये कहते हैं कि रूप, रस, गंध, स्पर्श गुणयुक्त होने से यह द्रव्य विभिन्न आकारों को धारण करके हमें दृष्टिगोचर होता है। उक्त पांच भेदों में से श्रद्धासमय को छोड़कर शेष चारों के साथ 'अस्तिकाय' विशेषण लगाया है। इसका कारण यह है कि ये द्रव्य प्रदेशप्रचय रूप या अनेक प्रदेशों के पिण्ड हैं। अद्धासमय मात्र एक समय रूप होने से उसमें प्रदेशप्रचय नहीं है। उसका अपने रूप में एकप्रदेशात्मक (समयात्मक) अस्तित्व है। इसी कारण सूत्र में काल को छोड़कर शेष अरूपी द्रव्यों के तीन-तीन भेद कहे गए हैं। पुद्गलास्तिकाय रूपी है और इसके चार भेद हैं। इस प्रकार अजीवद्रव्यों के अवान्तर भेद सब मिल कर चौदह होते हैं। ___ अरूपी अजीवद्रव्य के दस प्रकार नयविवक्षाओं से कहे गये हैं। विस्तृत विवेचन इस प्रकार है यद्यपि धर्मास्तिकाय मूलत: एक द्रव्य है किन्तु संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय इन तीनों नयों की विवक्षा के भेद से भेद हो जाता है। इन तीनों नयों का अभिप्राय अलग-अलग है। संग्रहनय धर्मास्तिकाय को एक ही द्रव्य मानता है। व्यवहारनय उस द्रव्य के देश और ऋजुसूत्रनय उसके निविभाग रूप प्रदेश मानता है। संग्रहनय वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करता है। व्यवहारनय वस्तुगत विशेष अंशों को स्वीकार करता है और ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में वर्तमानवर्ती अवस्था ही वस्तु है / व्यवहारनय की मान्यता है कि जिस प्रकार संपूर्ण धर्मास्तिकाय जीव, पुद्गल की गति में सहायक-निमित्त बनता है, उसी प्रकार से उसके देश-प्रदेश भी जीव और पुदगल की गति में निमित्त होते हैं। इसी कारण वे भी पृथक द्रव्य हैं। ऋजुसूत्रनय की मान्यता है कि केवलिप्रज्ञाकल्पित प्रदेश रूप निविभाग भाग ही स्वसामर्थ्य से जीव और पुद्गल की गति में निमित्त होते हैं / अतएव वे स्वतन्त्र द्रव्य हैं। ___ इसी प्रकार से अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय के तीन-तीन प्रकारों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। श्रद्धासमय को एक ही मानने का कारण यह है कि निश्चयनय के मत से वर्तमान काल रूप 'समय' का ही परमार्थतः सत्त्व है, अतोत-अनागत का नहीं। क्योंकि अनागत अनुत्पन्न है और प्रतीत विनष्ट हो चुका है। इसलिये उसमें देश, प्रदेश रूप विशेष नहीं हो सकते। रूपी अजीवद्रव्य पुद्गल के चार भेदों में से स्कन्ध के बुद्धिकल्पित दो भाग, तीन भाग आदि देश हैं / द्वयणुक से लेकर अनंताणुक पर्यन्त सब स्कन्ध हो हैं / स्कन्ध के अवयवभूत निविभाग भाग प्रदेश हैं तथा जो स्कन्धदशा को प्राप्त नहीं हैं-स्वतन्त्र हैं, ऐसे निरंश पुद्गल 'परमाणु' कहलाते हैं / ये सभी स्कन्धादि भी प्रत्येक अनन्त-अनन्त हैं। इस प्रकार अजीवद्रव्य का वर्णन करके अब जीवद्रव्य का वर्णन करते हैं। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [329 जीवद्रव्यप्ररूपणा 404. जोववव्वा गं भंते ! कि संखेज्जा असंखज्जा अमला? गो० ! नो संखज्जा, नो असंखेन्जा, अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चह जीवदध्वा णं नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता? गोयमा! असंखेज्जा रइया, असंखेज्जा असुरकमारा जाव असंखेज्जा थणियकुमारा, असंखेज्जा पुढयोकाइया जाव असंखेज्जा वाउकाइया, अणंता वणस्सइकाइया, असंज्जा बेंदिया आव असंखेज्जा चरिदिया, असंखेज्जा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया असंखेज्जा मणसा, असंखेज्जा वाणमंतरिया, असंखेज्जा जोइसिया, असंखेज्जा वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से एएणं अट्ठणं गोतमा ! एवं बुच्चइ जीवदन्या शं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता / 404 प्र.] भगवन ! क्या जीवद्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? [404 उ.] गौतम ! जीवद्रव्य संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा जाता है कि जीवद्रव्य संख्याल नहीं, असंख्यात नहीं किन्तु अनन्त हैं ? [उ.] गौतम ! अनन्त कहने का कारण यह है-असंख्यात नारक हैं, असंख्यात असुरकुमार यावत् असंख्यात स्तनितकुमार देव हैं, असंख्यात पृथ्वीकायिक जीव हैं यावत् असंख्यात वायुकायिक जीव हैं, अनन्त वनस्पतिकायिक जीव हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं यावत् असंख्यात चतुरिन्द्रिय, असंख्यात पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव हैं, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यंतर देव हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं और अनन्त सिद्ध जीव हैं / इसीलिये गौतम! ऐसा कहा जाता है कि जीवद्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं किन्तु अनन्त हैं। विवेचन यहाँ जीवद्रव्य की अनन्तता का वर्णन किया गया है। जो जीता था, जीता है और जीयेगा, इस प्रकार के कालिक जीवनगुणयुक्त द्रव्य को जीव कहते हैं / अर्थात् जो ज्ञान, दर्शन आदि भावप्राणों से अथवा भावप्राणों के साथ इन्द्रियादि रूप द्रव्यप्राणों से जीता था, जीता है और जियेगा वह जीव है / जीव दो प्रकार के हैं...मुक्त और संसारी। मुक्त जीव ज्ञान, दर्शन प्रादि भावप्राणों से ही युक्त हैं किन्तु संसारी जीव द्रव्यप्राणों की अल्पाधिकता एवं गति, शरीर आदि को विभिन्नता के कारण अनेक प्रकार के हैं। फिर भी सामान्यतः संसारी जीवों के मुख्य दो प्रकार हैं-बस और स्थावर / सनामकर्मोदय से प्राप्त इन्द्रियादि प्राणों से युक्त जीव त्रस और स्थावरनामकर्म के उदय से प्राप्त इन्द्रियादि प्राणों से युक्त जीव स्थावर कहलाते हैं / संसारी जीवों की संख्या अनन्त है, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं और अकेले मुक्त जीव भी अनन्त हैं / इसीलिये सामान्यतः जीवद्रव्यों की संख्या अनन्त बताई है। संसारी जीवों की जो जो संख्या सामान्य रूप से कही गई, बे सभी शरीरधारी हैं अत: अब उनके शरीरों का वर्णन करते हैं / Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330] [अनुयोगद्वारसूत्र शरीरनिरूपण 405. कति णं भंते ! सरीरा पं० ? गो. ! पंच सरीरा पण्णत्ता / तं जहा-ओरालिए वेउम्बिए आहारए तेयए कम्मए / [405 प्र.] भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [405 उ.] गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा-१. प्रौदारिक, 2. वैक्रिय, 3. आहारक, 4. तेजस, 5. कार्मण / विवेचन-उक्त प्रश्नोत्तर में शरीर के पांच भेदों का नामोल्लेख किया गया है। शरीर-जो शीर्ण-जर्जरित होता है अर्थात् उत्पत्तिसमय से लेकर निरंतर जर्जरित होता रहता है उसे शरीर कहते हैं। संसारी जीवों के शरीर की रचना शरीरनामकर्म के उदय से होती है। शरीरनामकर्म कारण है और शरीर कार्य है / औदरिक आदि वर्गणाएँ उनका उपादानकारण हैं और औदारिकशरीरनामकर्म आदि निमित्तकारण हैं / इनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं औदारिकशरीर--इसमें मूल शब्द 'उदार' है। शास्त्रों में 'उदार' के तीन अर्थ बताये हैं---१. जो शरीर उदार अर्थात् प्रधान है। औदारिकशरीर की प्रधानता तीर्थंकरों और गणधरों के शरीर की अपेक्षा समझना चाहिए / अथवा प्रौदारिक शरीर से मुक्ति प्राप्त होती है एवं प्रौदारिक शरीर में रहकर ही जीव मुक्तिगमन में सहायक उत्कृष्ट संयम की आराधना कर सकता है। इस कारण उसे प्रधान माना गया है। 2. उदार अर्थात् विस्तारवान्--विशाल शरीर / औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन की है, जबकि वैक्रियशरीर का इतना प्रमाण नहीं है / उसकी अधिक से अधिक अवगाहना पांच सौ धनुष की है और वह मात्र सातवीं नरकपृथ्वी के नारकों की होती है, अन्य की नहीं। यद्यपि उत्तरवैक्रियशरीर एक लाख योजन तक का होता है, किन्तु वह भवान्त पर्यन्त स्थायी नहीं होता / अथवा शेष शरीरों की वर्गणानों की अपेक्षा प्रौदारिक शरीर की बर्गणामों की अवगाहना अधिक है। इसलिये यह उदारविस्तारवान् है। 3. उदार का अर्थ होता है-मांस, हड्डियों, स्नायु प्रादि से बद्ध शरीर / मांस-मज्जा आदि सप्त धातु-उपधातुएं औदारिकशरीर में ही होती हैं / इस शरीर के स्वामी मनुष्य और तिर्यच वैक्रियशरीर---विविध क्रियाओं को करने में सक्षम शरीर अथवा विशिष्ट (विलक्षण) क्रिया करने वाला शरीर वैक्रिय कहलाता है / प्राकृत में 'वेउविए' शब्द है, जिसका संस्कृत रूप 'वैकुर्विक' होता है / विकुर्वणा के अर्थ में विकु धातु से वैकुविक शब्द बनता है। यह बैंक्रियशरीर दो प्रकार का है-लब्धिप्रत्ययिक और भव प्रत्यायिक / तपोविशेष प्रादि विशिष्ट निमित्तों से जो प्राप्त हो उसे लब्धिप्रत्ययिक और जो भव-जन्म के निमित्त से प्राप्त हो उसे भवप्रत्ययिक वैक्रियशरीर कहते हैं / लब्धिजन्य मनुष्यों और तिर्यंचों को तथा भवजन्य देव-नारकों को होता है। आहारकशरीर-चतुर्दशपूर्वविद् मुनियों के द्वारा विशिष्ट प्रयोजन के होने पर योगबल से जिस शरीर का निर्माण किया जाता है अथवा जिसके द्वारा केवलज्ञानी के सामीप्य से सूक्ष्म पदार्थ संबंधी शंकाओं का समाधान प्राप्त किया जाता है, उसे पाहारकशरीर कहते हैं। आहारक Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] ऋद्धिसंपन्न संयत अपने क्षेत्र में केवलज्ञानी का अभाव होने और दूसरे क्षेत्र में उनके विद्यमान होने किन्तु उस क्षेत्र में औदारिकशरीर से पहुंचना संभव नहीं होने से इस शरीर को निष्पन्न करते हैं। इसका निर्माण प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती मुनि करते हैं / तेजसशरीर-जो शरीर में दीप्ति और प्रभा का कारण हो / तेजोमय होने से भक्षण किये गये भोजनादि के परिपाक का कारण हो अथवा तेज का विकार हो उसे तैजसशरीर कहते हैं / यह सभी संसारी जीवों में पाया जाता है / यह दो प्रकार का है-नि:सरणात्मक और अनिःसरणात्मक / अनि:सरणात्मक मक तजसशरीर भक्त अन्न-पान सादि का पाचक होकर शरोरान्तवती रहता है तथा प्रौदारिक, वैक्रिय और ग्राहारकशरीरों में तेज, प्रभा, कांति का निमित्त है। नि:सरणात्मक तेजस शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है / शुभ तेजस सुभिक्ष, शांति आदि का कारण बनता है और अशुभ इसके विपरीत स्वभाव वाला है / यह शरीर तैजसलब्धिप्रत्ययिक होता है। कार्मणशरीर—अष्टविध कर्मसमुदाय से जो निष्पन्न हो, औदारिक अादि शरीरों का जो कारण हो तथा जो जीव के साथ परभव में जाए वह कार्मणशरीर है। पांच शरीरों का क्रमनिर्देश--ौदारिक अादि शरीरों का क्रमविन्यास करने का कारण उनकी उत्तरोत्तर सक्षमता है। औदारिकशरीर स्वल्प पुदगलों से निष्पन्न होता है और इसका परिणमन शिथिल एवं बादर रूप है / इसके अनन्तर बहुत और बहुतर पुद्गलपरमाणुओं से आगेआगे के शरीर निष्पत्र होते हैं किन्तु उनका परिणमन सूक्ष्म-सूक्ष्मतर होता जाता है। कार्मणशरीर इतना सूक्ष्म है कि उसको चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। परमावधिज्ञानी और केवलज्ञानी ही उसको जानते-देखते हैं। उत्तरोत्तर परमाणुस्कन्धों की बहुलता के साथ इनकी सघनता भी क्रमश: अधिक-अधिक है / तैजस और कार्मणशरीर समस्त संसारी जीवों को प्राप्त होते हैं और इनका संबन्ध अनादिकालिक है / मुक्ति प्राप्त नहीं होने तक ये रहते हैं। ___ इस प्रकार सामान्य रूप से औदारिक आदि शरीरों का निरूपण करके अब चौबीस दंडकवर्ती जीबों में उनका विचार करते हैं। चौबीस दंडकवर्ती जीवों को शरीरप्ररूपरणा 406. रइयाणं भंते ! कति सरीरा पन्नत्ता ? गो० ! तयो सरीरा पं० / तं० - वेउन्विए तेयए कम्मए। [406 प्र.] भगवन् ! नरयिकों के कितने शरीर कहे गये हैं ? [406 उ.] गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गये हैं। वे इस प्रकार--वैक्रिय, तेजस और कार्मण शारीर। 407. असुरकुमाराणं भंते ! कति सरीरा पं०? गो० ! तओ सरीरा पण्णत्ता / तं जहा-वेउविए तेयए कम्मए / एवं तिण्णि तिणि एते चेव सरोरा जाव थणियकुमाराणं भाणियन्वा / [407 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने शरीर होते हैं ? Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 // [अनुयोगद्वारसूत्र [407 उ. गौतम ! उनके तीन शरीर कहे हैं / यथा-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। इसी प्रकार यही तीन-तीन शरीर स्तनितकुमार पर्यन्त सभी भवनपति देवों के जानना चाहिये। 408. [1] पुढवीकाइयाणं भंते ! कति सरोरा पण्णता ? गो० ! तयो सरीरा पणत्ता। तं जहा-ओरालिए तेयए कम्मए / [408-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? [408-1 उ.] गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गये हैं---ौदारिक, तैजस और कार्मण / [2] एवं आउ-तेउ-यणस्सइकाइयाण वि एते चेव तिणि सरीरा भाणियम्वा / [408-2] इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के भी यही तीन-तीन शरीर जानना चाहिए / [3] वाउकाइयाणं जाव गो० ! चत्तारि सरीरा पन्नत्ता। तं०-ओरालिए उम्बिए तेयए कम्मए। [408-3 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? 1408-3 उ. गौतम ! वायुकायिक जीवों के चार शरीर होते हैं प्रौदारिक, वैक्रिय, तंजस और कार्मण शरीर / 409. बंदिय-तेंदिय-चरिदियाणं जहा पुढवीकाइयाणं / [409] पृथ्वीकायिक जीवों के समान द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी (औदारिक, तैजस, कार्मण यह तीन शरीर) जानना चाहिये। 410. पंचेंरियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जहा-बाउकाइया / [410 प्र. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? [410 उ.। गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों के शरीर वायुकायिक जीवों के समान जानना चाहिए। अर्थात् इनके भी प्रौदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं। 411. मणसाणं जाव गो० ! पंच सरीरा पन्नत्ता। तं०---ओरालिए वेउम्विए आहारए तेयए कम्मए। [411 ] गौतम ! मनुष्यों के पांच शरीर कहे गये हैं / उनके नाम इस प्रकार हैं-प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर / 412. वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं, वेउब्विय-तेयग-कम्मगा तिति तिन्नि सरीरा भाणियन्वा / [412] काणध्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के नारकों के समान वैक्रिय, तेजस और कार्मण ये तीन-तीन शरीर होते हैं। विवेचन-ऊपर चौबीस दंडकवर्ती जीवों में पाये जाने वाले शरीरों की प्ररूपणा की है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण 1333 तेजस और कार्मण शरीर तो सभी संसारी जीवों में होते ही हैं। उनके अतिरिक्त मनुष्यों और तिर्यंचों में भवस्वभाव से औदारिक और देव-नारकों में बैक्रियशरीर होते हैं। प्राहारकशरीर मनुष्यों को लब्धिविशेष से प्राप्त होता है और किन्हीं विशिष्ट मनुष्यों के ही होता है / यहाँ सामान्य रूप से ही मनुष्यों में उसके होने का निर्देश किया है। वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों में जो वैक्रियशरीर का सद्भाव कहा है, उसका तात्पर्य यह है कि वैक्रियशरीर जन्मसिद्ध और कृत्रिम दो प्रकार का है / जन्मसिद्ध वैक्रियशरीर देवों और नारकों के ही होता है अन्य के नहीं और कृत्रिम वैक्रिय का कारण लब्धि है। लब्धि एक प्रकार की शक्ति है, जो कतिपय गर्भज मनुष्यों और तिर्यचों में भी संभवित है तथा कुछ बादर वायुकायिक जीवों में भी वैक्रियशरीर पाया जाता है। इसलिये वायुकायिक जीवों में चार शरीरों के होने का विधान किया है / पांच शरीरों का संख्यापरिमाण 413. केवतिया णं भंते ! ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गो० ! दुविहा पण्णता / तं जहा-बखेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बल्लया ते गं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहोरंति कालओ, खेत्ततो असंखेज्जा लोगा / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगाते णं अणंता, अणताहि उस्सप्पिणी-प्रोसप्पिणोहि अवहीरंति कालओ, खेत्ततो अणंता लोगा, दवओ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणं अतभागो।। { 413 प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर कितने प्रकार के प्ररूपित किये हैं ? [413 उ. | गौतम ! प्रौदारिकशरीर दो प्रकार के प्ररूपित किये हैं। वे इस प्रकार१. बद्ध औदारिकशरीर, 2. मुक्त औदारिकशरीर / उनमें जो बद्ध औदारिकशरीर हैं वे असंख्यात हैं / के कालतः असंख्यात उपिणियों-अबसपिणियों द्वारा अपहृत होते हैं और क्षेत्रतः असंख्यात लोकप्रमाण हैं / जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं / कालत: वे अनन्त उत्सपिणियोंअवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं और क्षेत्रतः अनन्त लोकप्रमाण हैं / द्रव्यतः वे मुक्त औदारिकशरीर प्रभवसिद्धिक (अभव्य) जीवों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण हैं ! विवेचन-ऊपर बद्ध और मुक्त प्रकारों से औदारिकशरीरों की संख्या का परिमाण बतलाया बद्ध-बंधे हुए / बद्ध उसे कहते हैं जो पृच्छा के समय जीव के साथ संबद्ध हैं और मुक्त वह है जिसे जीव ने पूर्वभवों में ग्रहण करके त्याग दिया है / यहाँ औदारिकशरीर के प्रकारों के विषय में पूछे जाने पर उत्तर में बद्ध और मुक्त कहने का कारण यह है कि बद्ध और मुक्त शरीरों की पृथक्-पृथक् संख्या कही जाएगी और बद्ध तथा मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या कहीं द्रव्य से, कहीं क्षेत्र से तथा कहीं काल से (समय, पावलिका आदि से) कही जायेगी। भाव की विवक्षा द्रव्य के अंतर्गत कर लेने से उसकी अपेक्षा संख्या का कथन सूत्र में नहीं किया है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334] [अनुयोगद्वारसूत्र बद्ध औदारिकशरीरों की संख्या-बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात हैं / यद्यपि बद्ध औदारिकशरीर के धारक जीव अनन्त हैं। क्योंकि औदारिकशरीर मनुष्यों और पृथ्वीकायिक आदि पांच प्रकार के एकेन्द्रियों से लगाकर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में पाया जाता है। इनमें भी अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं / किन्तु औदारिकशरीरधारी जीव दो प्रकार के हैं--१. प्रत्येकशरीरी, 2. अनन्तकायिक / प्रत्येकशरीरी जीवों का अलग-अलग औदारिकशरीर होता है। उनकी संख्या असंख्यात है और जो अनन्तकायिक हैं, उनका प्रौदारिकशरीर पृथक्-पृथक् नहीं होता किन्तु अनन्त जीवों का एक ही होता है। इसलिए औदारिकशरीरी जीव अनन्तानन्त होते हुए भी उनके शरीरों की संख्या असंख्यात ही है। ___ कालापेक्षया बद्ध प्रौदारिकशरीरों की संख्या असंख्यात उत्सपिणियों और असंख्यात अवसपिणियों' से अपहृत होने योग्य बताई है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि उत्सर्पिणी और अवपिणी काल के एक-एक समय में एक-एक प्रौदारिकशरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त औदारिकशरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवपिणी व्यतीत हो जाएं / असंख्यात के असंख्यात भेद होने से असंख्यात उत्सपिणी और असंख्यात अवपिणी काल के समय असंख्यात हैं, अतएव बद्ध औदारिकशरीर भी असंख्यात ही हैं। क्षेत्रापेक्षया बद्ध औदारिक-शरीरों की संख्या का प्रमाण बताने के लिये सूत्र में कहा है-- बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात लोक-प्रमाण हैं / इसका अर्थ यह हुआ कि यदि समस्त बद्ध औदारिकशरीरों को अपनी-अपनी अवगाहना से परस्पर अपिंड रूप में (पृथक्-पृथक) आकाशप्रदेशों में स्थापित किया जाए तो असंख्यात लोकाकाश उन पृथक्-पृथक् स्थापित शरीरों से व्याप्त हो जाएँ / अर्थात् एकएक लोकाकाशप्रदेश पर एक-एक शरीर रखा जाए तो क्रमशः रखने पर भी वे बद्ध प्रौदारिकशरीर इतने और बचे रहते हैं कि जिन्हें क्रमशः एक-एक प्रदेश पर रखने के लिये प्रसंख्यात लोकों की आवश्यकता होगी। मुक्त औदारिकशरोरों की संख्या-मुक्त औदारिकशरीरों का अनन्तत्व काल, क्षेत्र और द्रव्य की अपेक्षा इस प्रकार समझना चाहिये कालापेक्षया उन मुक्त औदारिकशरीरों का परिमाण अनन्त उत्सपिणियां-अवसपिणियों के अपहरण काल के बराबर है। अर्थात उत्सपिणी और अवसपिणी कालों के एक-एक समय में एकएक मुक्त औदारिकशरीर का अपहरण किया जाए तो अपहरण करने में अनन्त उत्सपिणियां और अनन्त अवसपिणियां व्यतीत हो जाएंगी। क्षेत्रापेक्षया मुक्त प्रौदारिकशरीरों का प्रमाण अनन्त लोक-प्रमाण है / अर्थात एक लोक में असंख्यात प्रदेश हैं / ऐसे-ऐसे अनन्त लोकों के जितने आकाशप्रदेश हों, इतने मुक्त औदारिकशरीर द्रव्यापेक्षया मुक्त औदारिक शरीर अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं / एतद्विषयक शंका-समाधान इस प्रकार है१. दस कोडाकोडी सागरोपम काल का एक उत्सर्पिणी काल और उतने ही सागरोपमों का एक अवपिणी काल हाता है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [335 शंका-जिन जीवों ने पहले सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया और बाद में मिथ्यादृष्टि हो गये ऐसे प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण बतलाई है / ' तो क्या ये मुक्त औदारिकशरीर इन्हीं के बराबर हैं ? समाधान-यदि ये उनकी समान संख्या वाले होते तो उनका सूत्र में निर्देश होता, किन्तु सूत्र में संकेत नहीं है / अतएव यह जानना चाहिये कि ये मुक्त औदारिकशरीर प्रतिपतित सम्यग्दृष्टियों की राशि की अपेक्षा कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक भी होते हैं / 2 ये अनन्तानन्त औदारिकशरीर एक ही लोक में दीपक के प्रकाश के समान अवगाढ़ होकर रहे हुए हैं। जैसे एक दीपक का प्रकाश समग्र भवन में व्याप्त होकर रहता है और अन्य अनेक दीपकों का प्रकाश भी उसी भवन में रह सकता है, वैसे ही अनन्तानन्त मुक्त औदारिकशरीर भी एक लोकाकाश में समाविष्ट होकर रहते हैं। बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों की संख्या 414. केवतिया गं भंते ! वेउब्वियसरीरा पं० ? गोतमा! दुविहा पण्णत्ता / तं०- बद्धल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेन्जाहिं उस्सप्पिणिओस प्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पतरस्स असंखेज्जइभागो। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते गं अणंता, अणंताहि उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहोरंति कालओ, सेसं जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहा एते वि भाणियब्वा / [414 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [414 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा-बद्ध और मुक्त / उनमें से जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं और कालतः असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों द्वारा अपहत हो हैं। क्षेत्रत: वे असंख्यात श्रेणीप्रमाण हैं तथा वे श्रेणियां प्रतर के असंख्यातवें भाग हैं तथा मुक्त वैक्रियशरीर अनन्त हैं / कालतः वे अनन्त उत्सपिणियों-अवसपिणियों द्वारा अपहत होते हैं। शेष कथन मुक्त औदारिकशरीरों के समान जानना चाहिए। विवेचन---यहाँ सामान्य रूप से वैक्रियशरीर के बद्ध-मुक्त प्रकारों की संख्या का परिमाण बतलाया है। वैक्रियशरीर नारकों और देवों के सर्वदा ही बद्ध रहते हैं। परन्तु मनुष्य और तिर्यचों के जो कि वैकियलब्धिशाली हैं, उत्तरवैक्रिय करने के समय ही बद्ध होते हैं। यह वर्णन पूर्वोक्त औदारिकशरीर के कथन से प्राय: मिलता-जुलता है। परन्तु क्षेत्रापेक्षया बद्ध क्रियशरीरों की संख्या का निर्देश करने में कुछ विशेषता है। जो इस प्रकार जानना चाहिये क्षेत्रापेक्षया बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं और उन थेणियों का प्रमाण प्रतर का असंख्यातवां भाग है / जिसका आशय यह हुआ कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियों हैं और उन श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रियशरीर हैं। मुक्त वैक्रियशरीरों का वर्णन मुक्त औदारिकशरीरों के समान है। अत: उनकी अनन्तता भी पूर्वोक्त मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझ लेनी चाहिये। 1-2. अनुयोगहार मलधारीया टीका पत्र 197 त Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336] [अनुयोगद्वारसूत्र बद्ध-मुक्त प्राहारकशरीरों का परिमाण 415. केवइया गं भंते ! आहारगसरीरा पं० ? गोयमा! दुविहा पं० / तं-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ पंजे ते बद्धल्लया ते गं सिया अस्थि सिया नस्थि, जइ अस्थि जहण्णणं एगो वा दो बा तिणि वा, उक्कोसेणं सहसपुहतं / मुक्केल्लया जहा ओरालियसरीरस्स तहा भाणियव्वा / [415 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर कितने कहे गये हैं ? [415 उ.] गौतम ! पाहारकशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध स्यात् - कदाचित् होते है कदाचित् नहीं होते हैं / यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहनपृथक्त्व होते हैं। मुक्त अनन्त हैं, जिनकी प्ररूपणा औदारिकशरीर के समान जानना चाहिए। विवेचन यहाँ बद्ध और मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण बतलाया है। बद्ध आहारकशरीर चतुर्दशपूर्वधारी संयत मनुष्य के होते हैं। बद्ध आहारकशरीर के कदाचित् होने और कदाचित नहीं होने का कारण यह है कि आहारकशरीर का अंतर (विरहकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास का है। यदि अाहारकशरीर होते हैं तो उनकी संख्या जघन्यतः एक, दो या तीन होती है और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) सहस्रपृथक्त्व हो सकती है। दो से नौ तक की संख्या का नाम प्रथक्त्व है और सहस्र कहते हैं, दस सौ (हजार) को। अतएव इसका अर्थ यह हमा कि उनकी उत्कृष्ट संख्या दो हजार से नौ हजार तक हो सकती है। अर्थात् एक समय में (पृच्छा काल में) उत्कृष्टत: एक साथ दो हजार से लेकर नौ हजार तक आहारकशरीरधारक हो सकते हैं। मुक्त पाहारकशरीरों का परिमाण मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिये। बद्ध-मुक्त तेजसशरीरों का परिमाण 416. केवतिया णं भंते ! तेयगसरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पं० / तं-बखेल्लया य मुक्केल्लयाय / तत्थ णं जे ते बद्धल्लया ते गं अगंता, अणंताहि उस्सपिणि-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्ततो अणंता लोगा, दवओ सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वजीवाणं अणंतभागूणा / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणताहि उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरति कालतो, खेततो अणंता लोगा, दवओ सव्वजीवेहि अणंतगणा जीववग्गस्स अणंतभागो। [416 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर कितने कहे गये हैं ? [416 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध अनन्त हैं, जो कालत: प्रनन्त उत्सपिणियों-अवपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्रत: वे अनन्त लोकप्रमाण हैं। द्रव्यत: सिद्धों से अनन्तगुणे और सर्व जीवों से अनन्तभाग न्यून हैं। मुक्त तैजसशरीर अनन्त हैं, जो कालतः अनन्त उत्सपिणियों-अवपिणियों में अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः अनन्त लोकप्रमाण हैं, द्रव्यतः समस्त जीवों से अनन्तगुणे तथा जीववर्ग के अनन्तवें भाग हैं 1 विवेचन--यहाँ तेजसशरीरों का परिमाण बताया है। यह भी बद्ध और मुक्त के भेद से दो प्रकार के हैं। बद्ध तैजसशरीर अनन्त इसलिये हैं कि साधारणशरीरी निगोदिया जीवों के भी Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [337 तैजसशरीर पृथक्-पृथक् होते हैं, औदारिकशरीर की तरह एक नहीं / उसकी अनन्तता का कालतः परिमाण-अनन्त उत्सपिणियों और प्रवपिणियों के समयों के बराबर है। क्षेत्रत: अनन्त लोकप्रमाण है अर्थात् अनन्त लोकाकाशों में जितने प्रदेश हों, इतने प्रदेशप्रमाण वाले हैं। द्रव्य की अपेक्षा बद्ध तैजसशरीर सिद्धों से अनन्तगुणे और सर्वजीवों की अपेक्षा से अनन्तभाग न्यून होते हैं। इसका कारण यह है-तैजसशरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं और संसारी जीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, इसलिये तैजसशरीर भी सिद्धों से अनन्तगुणे हुए। किन्तु सर्वजीवराशि की अपेक्षा विचार करने पर समस्त जीवों से अनन्तवें भाग कम इसलिये हैं कि सिद्धों के तैजसशरीर नहीं होता और सिद्ध सर्वजीवराशि के अनन्तवें भाग हैं। अत: उन्हें कम कर देने से तैजसशरीर सर्वजीवों के मन्तवें भाग न्यून हो जाते है। इस प्रकार बद्ध तैजसशरीर चाहे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, ऐसा कहो, चाहे सर्वजीवराशि के अनन्तवें भाग न्यून हैं, ऐसा कहो, अर्थ समान है। सारांश यह कि बद्ध तैजसशरीर सर्व संसारी जीवों की संख्या के बराबर हैं, समस्त जीवराशि की संख्या के बराबर नहीं हैं / मुक्त तैजसशरीर भी सामान्यतः अनन्त हैं / काल की अपेक्षा अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के समयों के बराबर हैं / क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोकप्रमाण हैं / अर्थात् अनन्त लोकों की प्रदेश राशि के बरावर अनन्त हैं। द्रव्यतः मुक्त तैजसशरीर सर्वजीवों से अनन्तगुणे हैं तथा सर्व जीववर्ग के अनन्नबें भागप्रमाण हैं। मुक्त तैजसशरीरों का परिमाण समस्त जीवों से अनन्तगुणा मानने का कारण यह है कि प्रत्येक जीव भूतकाल में अनन्त-अनन्त तैजसशरीरों का त्याग कर चुके हैं। जीवों के द्वारा जब उनका परित्याग कर दिया जाता है, उन शरीरों का असंख्यात काल पर्यन्त उस पर्याय में अवस्थान रह सकता है / अत: उन सबकी संख्या समस्त जीवों से अनन्तगुणी कही गई है तथा जो जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण कही गई है, उसको इस रीति से समझना चाहिये मुक्त तेजसशरीर जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण है। इसका कारण यह है कि समस्त मुक्त तैजसशरीर जीववर्ग प्रमाण तो तब हो पाते जब कि एक-एक जीव के तैजसगरीर सर्वजीवराशिप्रमाण होते या उससे कुछ अधिक होते और उनके साथ सिद्ध जीवों के अनन्त भाग की पूर्ति होती। परन्तु सिद्ध जीवों के तो तैजसशरीर होता नहीं, अत: उनको मिलाया नहीं जा सकता है तथा एक-एक जीव के मुक्त तैजसशरीर सर्व जीवराशिप्रमाण या उससे कुछ अधिक नहीं अपितु उससे बहुत कम ही होते हैं और वे भी असंख्यात काल तक ही उस पर्याय में रहते है, उसके बाद तैजसशरीर रूप परिणाम---पर्याय का परित्याग करके नियम से दूसरी पर्याय को प्राप्त हो जाते हैं। इसलिये प्रतिनियत काल तक अवस्थित होने के कारण उनकी संख्या उत्कृष्ट से भी अनन्त रूप ही है, इससे अधिक नहीं / उतने काल में जो अन्य मुक्त तैजसशरीर होते है, वे भी थोड़े ही होते हैं, क्योंकि काल थोड़ा है। इस कारण मुक्त तैजसशरीर जीववर्गप्रमाण नहीं होते किन्तु जीववर्ग के अनन्तभाग मात्र ही होते हैं। द्रव्य की अपेक्षा उपर्युक्त मुक्त तेजसशरीर सर्वजीवों से अनन्तगुणे अथवा सर्व जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण होने को असत्कल्पना से स्पष्ट करते हैं--- किसी एक राशि को उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग होता है। जैसे 4 को 4 से गुणा Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] [अनुयोगद्वारसूत्र करने पर 44 4 16 सोलह संख्या वाला वर्ग होता है। इसी प्रकार जीवराशि से जीवराशि को गुणा करने पर प्राप्त राशि जीववर्ग है / सर्व जीवराशि अनन्त है। उसे कल्पना से दस हजार और अनन्त का प्रमाण 100 मान लिया जाए तो दस हजार के साथ 100 का गुणा करने पर दस लाख हुए। यह हुआ मुक्त तैजस शरीरों का सर्वजीवों से अनन्तगुणा परिमाण / जीवबर्ग का अनन्त भाग इस प्रकार होगा कि सर्व जीवराशि कल्पना से 10000 मानकर वर्ग के लिये इस दस हजार को दस हजार से गुणा करें। इस प्रकार गुणा करने से दस करोड़ की राशि आई। वह जीववर्ग का प्रमाण हुा / अब अनन्त के स्थान पर पूर्वोक्त 100 रखकर दस करोड़ में उनका भाग देने पर दस लाख आये / वही जीवराशि के वर्ग का अनन्तवां भाग हुआ / इस प्रकार से मुक्त तैजसशरीर इतने प्रमाण में जीवराशि के वर्ग के अनन्तवें भाग रूप हैं, ऐसा असत्कल्पना से समझ लेना चाहिये। मुक्त तैजसशरीर द्रव्य की अपेक्षा सर्वजीवों से अनन्तगुणे हैं या जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण हैं, इन दोनों कथनों का एक ही तात्पर्य है। केवल कथन की भिन्नता है, अर्थ की नहीं है। बद्ध-मुक्त कार्मणशरीरों की संख्या 417. केवइया णं भंते ! कम्मयसरीरा पन्नता? गो० ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहाबद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / जहा तेयगसरीरा तहा कम्मगसरीरा वि भाणियव्या / / [417 प्र.] भगवन् ! कार्मणशरीर कितने कहे गये हैं ? [417 उ.] गौतम ! बे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-बद्ध और मुक्त। जिस प्रकार से तैजसशरीर की बक्तव्यता पूर्व में कही गई है, उसी प्रकार कार्मणशरीर के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन तेजसशरीरों के समान ही कार्मणशरीरों की वक्तव्यता जान लेने का निर्देश करने का कारण यह है कि तेजस और कार्मण शरीरों की संख्या एवं स्वामी समान है तथा ये दोनों शरीर एक साथ रहते हैं—अतएव इतनी समानता होने से विशेष कथनीय शेष नहीं रह जाता है। ___इस प्रकार पांच शरीरों का सामान्य रूप से कथन करके अब नारकादि चौबीस दंडकों में उनकी प्ररूपणा की जाती है। नारकों में बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा 418. [1] नेरइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पन्नता? गोतमा! दुविहा पण्णत्ता / तं०-बधेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लया ते णं नस्थि / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा / [418-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने प्रौदारिकशरीर कहे गये हैं ? [418-1 उ.] गौतम ! औदारिकशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध औदारिकशरीर उनके नहीं होते हैं और मुक्त प्रौदारिकशरीर पूर्वोक्त सामान्य मुक्त औदारिकशरीर के बराबर जानना चाहिये। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [2] नेरइयाणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पन्नता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बदल्लया प मुक्केल्लया प / तत्थ गंजे ते बद्धेल्लया ते गं असंखेज्जा असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी-ओसप्पिणोहि अवहीरति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेडोओ पयरस्स असंखेज्जहभागो, तासि गं सेढोणं विक्खंभसूयी अंगुलपढमवग्गमूलं वितियवागमूलपडप्पण्णं अहब णं अंगुल बितियवग्गमूलधणपमाणमेत्ताओ सेढीओ। तत्थ गंजे ते मुक्केल्लया ते गं जहा ओहिया ओरालियसरीरातहा माणियग्या / [418-2 प्र.] भगवन् ! नारक जीवों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ? [418-2 उ.] गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध वैक्रियशरीर तो असंख्यात हैं जो कालत: असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समयप्रमाण हैं। क्षेत्रतः वे असंख्यात श्रेणीप्रमाण है। वे श्रेणियां प्रतर का असंख्यात भाग हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भ, सूची' अंगुल के प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणित करने पर निष्पन्न राशि जितनी होती है / अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के धनप्रमाण श्रेणियों जितनी है। मुक्त क्रियशरीर सामान्य से मुक्त औदारिकशरीरों के बराबर जानना चाहिये। [3] गैरइयाणं भंते ! केवइया पाहारगसरीरा पण्णता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा–बबेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बदल्लया ते ण नस्थि / तत्व णं जे ते मुक्केल्लया ते नहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियन्वा / [418-3 प्र.] भगवन् ! नारक जीवों के कितने आहारकशरीर कहे गये हैं ? [418-3 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-बद्ध और मुक्त / बद्ध पाहारकशरीर तो उनके नहीं होते हैं तथा मुक्त जितने सामान्य औदारिक शरीर कहे गये हैं, उतने जानना चाहिये। [4] तेयग-कम्मगससोरा जहा एतेसिं चेव वेउब्वियसरीरा तहा भाणियव्वा / [418-4] तैजस और कार्मण शरीरों के लिये जैसा इनके वैक्रियशरीरों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार समझना चाहिये / विवेचन-उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में नारक जीवों में बद्ध और मुक्त औदारिक आदि पंच शरीरों के परिमाण की प्ररूपणा की गई है। वैक्रियशरीर वाले होने से नारकों में बद्ध औदारिकशरीर नहीं होते हैं / मुक्त औदारिकशरीर सामान्य से बताये गये मुक्त औदारिकशरीरों के समान अनन्त हैं / क्योंकि पूर्वप्रज्ञापननय की अपेक्षा नारक जीवों के औदारिकशरीर होते हैं। नारक जीव जब पूर्व भवों में तिर्यच या मनुष्य पर्याय में था, तब वहाँ प्रौदारिकशरीर था और अब उसे छोड़कर नरकपर्याय में आया है। इसीलिये नारक जीवों के मुक्त प्रौदारिकशरीर सामान्यतः अनन्त कहे हैं। नैरयिक जीवों का भवस्थ शरीर वैक्रिय होता है / अतएव नरयिकों के बद्ध वैक्रियशरीर उतने 1. विस्तार की अपेक्षा--लम्बाई को लिये हुई एक प्रादेशिको श्रेणी / Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34.] [अनुयोगद्वारसूत्र ही हैं जितने नैरयिक हैं। नैरयिकों की संख्या असंख्यात है, अत: एक-एक नारक के एक-एक वैक्रियशरीर होने से उनके क्रियशरीरों की संख्या भी असंख्यात है / इस असंख्यातता की शास्त्रकार ने कालत: और क्षेत्रतः प्ररूपणा की है। कालत: प्ररूपणा का अर्थ यह है कि असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों के जितने समय हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर हैं। क्षेत्रत: बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं। यहाँ श्रेणी की व्याख्या के लिये संकेत किया है.--पयरस्स असंखेज्जइभागो—प्रतर का असंख्यातवां भाग ही श्रेणी कहलाता है। ऐसी असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। ___ अब यहाँ प्रश्न है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में असंख्यात योजन कोटियां भी आ जाती है तो क्या इतने क्षेत्र में जो प्राकाश-श्रेणियां हैं, उनको यहाँ ग्रहण किया गया है ? इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिये शास्त्र में संकेत दिया है-प्रतर के असंख्येय भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों की विस्तारसूची-श्रेणी यहाँ ग्रहण की गई है किन्तु प्रतर के असंख्येय भाग में रही हुई असंख्यात योजन कोटि रूप क्षेत्रवर्ती नभःश्रेणी ग्रहण नहीं की गई है / इस विष्कम्भसूची का प्रमाण द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल जितना ग्रहण किया गया है / इसका प्राशय यह हुआ कि अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जो प्रदेश राशि है, उसमें असंख्यात वर्गमूल हैं, उनमें प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल' से गुणा करने पर जितनी श्रेणियां लभ्य हों, उतनी प्रमाण वाली विष्कम्भसूची यहाँ ग्रहण करना चाहिए / इसे यों समझना चाहिए कि वस्तुतः असंख्येयप्रदेशात्मक प्रतरक्षेत्र में असत्कल्पना से मान लें कि 256 श्रेणियां हैं। इन 256 का प्रथम वर्गमूल सोलह (164 16 = 256) अथवा (24 5+ 6 - 16) हुमा और दूसरा वर्गमूल 4 एवं तीसरा वर्गमूल 2 होता है / प्रथम वर्गमूल 16 के साथ द्वितीय वर्गमूल 4 का गुणा करने पर (16 x 4 - 64) चौसठ हुए / बस इतनी ही (64) उसकी श्रेणियां हुई। ऐसी श्रेणियां यहाँ ग्रहण की गई हैं। __ प्रकारान्तर से इसी बात को सूत्र में इस प्रकार कहा गया है-अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घनप्रमाण श्रेणियां समझना चाहिये। इसका प्राशय हुआ कि अंगुल मात्र क्षेत्र में जितने प्रदेश हैं, उस राशि के द्वितीय वर्गमूल का घन करें, उतने प्रमाण वाली श्रेणियां समझना चाहिये / जिस राशि का जो वर्ग हो उसे उसी राशि से गुणा करने पर धन होता है / यहाँ असत्कल्पना से असंख्यात प्रदेशराशि को 256 माना था / उसका प्रथम वर्गमूल 16 और द्वितीय वर्गमूल 4 हुन।। अतः इस द्वितीय वर्ग की राशि का घन करने से 44 444 = 64 हुआ / सो ये 64 प्रमाण रूप श्रेणियां यहाँ जानना चाहिए / इस प्रकार के कथन में वर्णनशैली की विचित्रता है, अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। यह असत्कल्पना से कल्पित हुई 64 संख्या रूप श्रेणियों की जो प्रदेशराशि है, जिन्हें सैद्धान्तिक दृष्टि से असंख्यात माना है, उस राशिगत प्रदेशों की संख्या के बराबर नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते है। नारकों के बद्ध वैक्रियशरीरों को प्रसंख्यात मानने का कारण यह भी है कि प्रत्येकशरीरी होने से नारकों की संख्या इतनी ही--असंख्यात है / अतएव उनके बद्ध वैक्रियशरीर इतने ही हो सकते 1. प्रथम वर्गमूल के भी वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल कहते हैं, इसी प्रकार तृतीय आदि वर्ग मूलों के विषय में जानना चाहिये। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [341 हैं, अल्पाधिक नहीं / इसी प्रकार अन्यत्र भी जो जीव प्रत्येकशरीरी हों-स्वतन्त्र एक-एक शरीर के स्वामी हों-उनके बद्ध शरीरों की संख्या भी तत्प्रमाण समझ लेना चाहिये / नारकों के मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त औदारिकशरीर के समान जानने के कथन का आशय यह है कि मुक्त प्रौदारिकशरीरों की संख्या सामान्यतः अनन्त कही गई है, उतनी ही संख्या वाले नारक जीवों के मुक्त वैक्रियशरीर हैं। नारकों के बद्ध औदारिकशरीर की तरह बद्ध आहारकशरीर के विषय से भी जानना चाहिये। क्योंकि नारकों के बद्ध आहारकशरीर नहीं होते हैं तथा जैसे पूर्व में मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या सामान्यतः अनन्त कही है, उतनी ही संख्या मुक्त आहारकशरीरों की है / बद्ध और मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों की संख्या बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों के बराबर बताने का कारण यह है कि ये दोनों शरीर सभी नारकों के होते हैं, अतएव इनकी संख्या तत्प्रमाण समझना चाहिये। भवनवासियों के बद्ध-मुक्त शरीर राणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहा नेरइयाणं ओरालियसरीरा तहा भाणियब्वा। [419-1 अ.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने औदारिकशरीर कहे गये हैं ? [419-1 उ.] गौतम ! जैसी नारकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा की, उसी प्रकार इनके विषय भी जानना चाहिए। विवेचन-वैक्रियशरीर वाले होने से जैसे नारकों के बद्ध औदारिकशरीर नहीं हैं, उसी प्रकार असुरकुमारों के भी बद्ध औदारिकशरीर नहीं होते। उनके वैक्रियशरीर होता है। परन्तु मुक्त औदारिकशरीर जैसे नारकों के अनन्त कहे हैं इसी प्रकार इनके भी जानना चाहिये / [2] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया वेउब्वियसरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बखेल्लया ते णं असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढोणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेजतिभागो। मुक्केल्लया जहा प्रोहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियन्वा / [419-2 प्र. भगवन् ! असुरकुमारों के कितने वैक्रियशरीर कहे गये हैं ? [419-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध असंख्यात हैं / जो कालत: असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों में अपहृत होते हैं / क्षेत्र की अपेक्षा वे असंख्यात श्रेणियों जितने हैं और वे श्रेणियां प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है तथा मुक्त वैक्रियशरीरों के लिये जैसे सामान्य से मुक्त औदारिकशरीरों के लिये कहा गया है, उसी तरह कहना चाहिये। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342} [अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन-यहाँ असूकुमारों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों का परिमाण बताया है / सामान्यतः तो असुरकुमारों के बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं किन्तु वे असंख्यात, कालत: असंख्यात उर्पिणी और अवपिणी काल के जितने समय होते हैं, उतने हैं। क्षेत्रत: असंख्यात का परिमाण इस प्रकार बताया है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के जितने प्रदेश होते हैं, उतने हैं। यहाँ उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची ली गई है जो अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवां भाग है। यह विष्कम्भसूची नारकों की विष्कम्भसूची की अपेक्षा उसके भाग प्रमाण वाली है / इस प्रकार असुरकुमार, नारकों की अपेक्षा उनके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। प्रझापनासूत्र के महादण्डक में रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की संख्या की अपेक्षा समस्त भवनवासी देव असंख्यातवें भागप्रमाण कहे गये हैं। अतः समस्त नारकों की अपेक्षा असुरकुमार उनके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, अर्थात् अल्प हैं यह सिद्ध हो जाता है / असुरकुमारों के मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के तुल्य समझने का संकेत किया है, अर्थात् सामान्य रूप से मुक्त औदारिकशरीर के समान अनन्त हैं। [3] असुरकुमाराणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता / तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / जहा एएसि चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियब्बा। [419.3 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने आहारकशरीर कहे गये हैं ? [419-3 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं- बद्ध और मुक्त / ये दोनों प्रकार के आहारकशरीर इन असुरकुमार देवों में औदारिकशरीर के जैसे जानने चाहिये / तथा---- [4] तेयग-कम्मगससरीरा जहा एतेसि चेव वेउब्वियसरीरा तहा भाणियव्वा / [419-4] तेजस और कार्मण शरीर जैसे इनके (असुरकुमारों के) वैक्रियशरीर बताये, उसी प्रकार जानना चाहिये। [5] जहा असुरकुमाराणं तहा जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियव्वं / [419-5] असुरकुमारों में जैसे इन पांच शरीरों का कथन किया है, वैसा ही स्तनितकुमार पर्यन्त के सब भवनवासी देवों के विषय में जानना चाहिये / विवेचन-यहाँ असुरकुमारों के बद्ध और मुक्त आहारकशरीर आदि शरीरत्रय की तथा असुरकुमारों के अतिरिक्त शेष नौ प्रकार के भवनपति देवों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि पांच शरीरों की प्ररूपणा की है। बद्ध और मुक्त प्राहारकशरीर असुरकुमार देवों में औदारिकशरीरवत् जानने के कथन का यह प्राशय है कि जिस प्रकार बद्ध औदारिकशरीर असुरकुमार देवों के नहीं होते उसी प्रकार बद्ध आहारकशरीर भी नहीं होते हैं। मुक्त औदारिकशरीर जिस प्रकार असुरकुमारों के अनन्त होते है, उसी प्रकार मुक्त आहारकशरीर भी अनन्त जानने चाहिये। तैजस-कार्मण शरीर बद्ध असंख्यात और मुक्त अनन्त जानने चाहिए। स्पष्टीकरण पूर्व में किया जा चुका है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [343 असुरकुमारों के बद्ध और मुक्त शरीरों का जो परिमाण वताया है, वही तज्जातीय होने से शेष भवनवासियों के शरीरों का भी समझ लेना चाहिये। पृथ्वी-अप-तेजस्कायिक जीवों के बद्ध-मुक्त शरीर 420. [1] पुढविकाइयाणं भंते ! केवया ओरालियसरीरा पन्नसा ? गोयमा ! दुविहा पं० / तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / एवं जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भागियव्वा / पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया बेउब्वियसरीरा पन्नत्ता? गोयमा! दुविहा पं० / तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्य णं जे ते बद्धेल्लया ते स्थि / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियस्वा। आहारगसरीरा वि एवं चेव भाणियब्धा / तेयग-कम्मगसरीराणं जहा एसि चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियव्या। [420-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने प्रौदारिकशरीर कहे गये हैं ? [420.1 उ.] गौतम ! इनके औदारिकशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। इनके दोनों शरीरों की संख्या सामान्य बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों जितनी जानना चाहिये / [प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ? [उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / इनमें से बद्ध तो इनके नहीं होते है और मुक्त के लिए प्रौदारिकशरीरों के समान जानना चाहिये / आहारकशरीरों की वक्तव्यता भी इसी प्रकार जानना चाहिये / इनके बद्ध और मुक्त तैजसकार्मण शरीरों की प्ररूपणा भी इनके बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझना चाहिए। [2] जहा पुढविकाइयाणं एवं आउकाइयाणं तेउकाइयाण य सम्वसरोरा भाणियव्वा / [420-2] जिस प्रकार की वक्तव्यता पृथ्वीकायिकों के पांच शरीरों की है, वैसी ही वक्तव्यता अर्थात् उतनी ही संख्या अप्कायिक और तेजस्कायिक जीवों के पांच शरीरों को जाननी चाहिए / विवेचन--ऊपर पृथ्वीकायिक, प्रकायिक, तेजस्कायिक जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों का परिमाण बतलाया है। पृथ्वीकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण बताने के लिये प्रोधिक औदारिकशरीरों का संकेत दिया गया है / प्रज्ञापनासूत्र के शरीरपद के अनुसार उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ___ बद्ध शरीर असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा वे असंख्यात उत्सपिणियों और अवपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्रतः वे असंख्यलोक प्रमाण हैं / मुक्त औदारिकशरीर अनन्त हैं / कालतः अनन्त उत्सपिणियों और अवसपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्रत: वे अनन्त लोकप्रमाण है तथा द्रव्यत: वे अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344] [अनुयोगद्वारसूत्र अप्कायिक और तेजस्कायिक जीवों के बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों का परिमाण भी इतना ही जानना चाहिये। पृथ्वीकायिक आदि जीवों के बद्ध और मुक्त प्रौदारिकशरीरों का क्रमशः जो असंख्यात और अनन्त परिमाण बताया है, उसका विशदता के साथ स्पष्टीकरण पूर्व में सामान्य से बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा के प्रसंग में किया जा चुका है, तदनुरूप वह समस्त वर्णन यहाँ भी समझ लेना चाहिए। बद्ध वैक्रिय और ग्राहारक शरीर इनको भवस्वभाव से ही नहीं होते हैं। किन्तु मुक्त शरीर होते हैं / वैक्रियशरीर सामान्य मुक्त प्रौदारिकशरीरों के समान अनन्त और मुक्त प्राहारकशरीर भूतकालिक मनुष्यभवों की अपेक्षा अनन्त होते हैं। पृथ्वीकायिकों आदि के बद्ध और मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों के लिये जो औदारिक शरीरों के परिमाण का संकेत किया है, उसका तात्पर्य यह है कि बद्ध तेजस-कार्मण बद्ध औदारिकवत् असंख्यात और मुक्त तैजस-कार्मण मुक्त औदारिकवत् अनन्त हैं। वायुकायिकों के बद्धमुक्त शरीर [3] वाउकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पन्नत्ता ? गो० ! जहा पुढविकाइयाणं ओरालियसरीरा तहा भाणियन्वा / वाउकाइयाणं भंते ! केवतिया वेउग्वियसरीरा पन्नत्ता? गो० ! दुविहा पं०। तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ गंजे ते बद्धल्लया ते णं असंखेज्जा समए 2 अवहीरमाणा 2 पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमेलेणं कालेणं अवाहीरंति / नो चेव णं अवहिया सिया। मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियमुक्केल्लया / आहारयसरीरा जहा पुढविकाइयाणं बेउब्वियसरीरा तहा भाणियब्वा / तेयग-कम्मयसरीरा जहा पुढ विकाइयाणं तहा भाणियन्वा / [420-3 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों के प्रौदारिकशरीर कितने कहे गये हैं ? [420-3 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिक शरीरों की वक्तव्यता है, वैसी ही यहाँ जानना चाहिये। [प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर कितने हैं ? | उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं--बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध असंख्यात हैं। यदि समय-समय में एक-एक शरीर का अपहरण किया जाये तो (क्षेत्र) पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश हैं, उतने काल में पूर्णतः अपहृत हों। किन्तु उनका किसी ने कभी अपहरण किया नहीं है और मुक्त औधिक औदारिक के बराबर हैं और आहारकशरीर पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर के समान कहना चाहिये। बद्ध, मुक्त तेजस, कार्मण, शरीरों की प्ररूपणा पृथ्वीकायिक जीवों के बद्ध एवं मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों जैसी समझना चाहिये / Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [345 विवेचन–वायुकायिक जीवों के बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों के परिमाण में तो कोई विशेषता नहीं है। वे क्रमशः पृथ्वीकायिक जीवों के समान असंख्यात और अनन्त हैं / लेकिन इनमें वैक्रियशरीर भी संभव होने से तत्सम्बन्धित स्पष्टीकरण इस प्रकार है वायुकायिक जीवों के बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं और उस असंख्यात का परिमाण बताने के लिये कहा है कि यदि ये शरीर एक-एक समय में निकाले जाएँ तो क्षेत्रफल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने समयों में इनको निकाला जा सकता है / तात्पर्य यह है कि क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग के आकाश में जितने प्रदेश है, उतने ये बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। परन्तु यह प्ररूपणा समझने के लिये है / वस्तुतः अाज तक किसी ने इस प्रकार अपहरण करके निकाला नहीं है। __कदाचित् यह कहा जाए कि असंख्यात लोकाकाशों के जितने प्रदेश हैं, उतने वायुकायिक जीव हैं, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है, तो फिर उनमें से वैक्रियशरीरधारी वायुकाधिक जीवों की इतनी अल्प संख्या बताने का क्या कारण है ? इसका समाधान यह है कि वायुकायिक जीव चार प्रकार के हैं१. सूक्ष्म अपर्याप्त वायुकायिक, 2. सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिक, 3. बादर अपर्याप्त वायुकायिक प्रौर 4 बादर पर्याप्त वायुकायिक / इनमें से प्रादि के तीन प्रकार के वायुकायिक जीव तो असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों जितने हैं और उनमें वैक्रियलब्धि नहीं होती है। बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितने प्राकाशप्रदेश होते हैं, उतने हैं, किन्तु वे सभी वैक्रियलब्धिसम्पन्न नहीं होते हैं। इनमें भी प्रसंख्यातवें भागवर्ती जीवों के ही वैक्रियलब्धि होती है। वैक्रियलब्धिसम्पन्नों में भी सब बद्ध वैक्रियशरीरयुक्त नहीं होते, किन्तु असंख्येय भागवर्ती जीव ही बद्धवैक्रिय शरीरधारी होते हैं। इसलिये वायूकायिक जीवों में जो बद्धवैक्रियशरीरधारी जीवों की संख्या कही गई है, वही सम्भव है / इससे अधिक बद्धवैक्रियशरीरधारी वायुकायिक जीव नहीं होते हैं। वायुकायिक जीवों के बद्ध-मुक्त प्राहारकशरीर के विषय में पृथ्वीकायिक जीवों के मुक्त वैकियशरीर के समान जानना चाहिये / अर्थात् वायुकाथिक जीवों के आहारकलब्धि का अभाव होने से बद्धाहारकशरीर तो होते ही नहीं किन्तु अनन्त मुक्त आहारकशरीर हो सकते हैं। बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की संख्या पृथ्वीकायिकों के इन्हीं दो शरीरों के बराबर क्रमशः असंख्यात और अनन्त जानना चाहिये। वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीर [4] वणस्सइकाइयाणं ओरालिय-उब्विय-आहारगसरीरा जहा पुढ विकाइयाणं तहा भाणियव्वा / वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइया तेयग-कम्मगसरीरा पण्णत्ता? गो० ! जहा ओहिया तेयग-कम्मगसरीरा तहा वणस्सइकाइयाण वि तेयग-कम्मगसरीरा भाणियन्ता / 420-4] वनस्पतिकायिक जीवों के प्रौदारिक, वैक्रिय और पाहारक शरीरों को पृथ्वीकायिक जीवों के प्रौदारिकादि शरीरों के समान समझना चाहिये / Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346] [अनुयोगद्वारसूत्र [प्र.] भगवन् ! बनस्पतिकायिक जीवों के तैजस-कार्मण शरीर कितने कहे गए हैं ? [उ. गौतम ! प्रोधिक तैजस-कार्मण शरीरों के प्रमाण के बराबर वनस्पतिकायिक जीवों के तैजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण जानना चाहिये। विवेचन उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि वनस्पतिकायिकों के बद्धौदारिकशरीर पृथ्वीकायिक जीवों के समान जानना चाहिये / अर्थात् असंख्यात होते हैं। इसका कारण यह है कि साधारण वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होने पर भी उनका एक शरीर होने से ग्रौदारिकशरीर असंख्यात ही हो सकते हैं। इनके वक्रियलब्धि और ग्राहारकलब्धि नहीं होने से मुक्त-वक्रिय-ग्राहारकशरीर ही होते हैं। उनका परिमाण अनन्त है। परन्तु इनके बद्ध और मुक्त तैजस-कार्मणशरीरअनन्त हैं। क्योंकि वे प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र होते हैं और साधारण जीवों के अनन्त होने से इन दोनों को अनन्त जानना चाहिये। विकलत्रिकों के बद्ध-मुक्त शरीर 421. [1] बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पसत्ता ? गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी-ओसपिणोहि अवहीरंति कालओ, खेत्ततो असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूयो असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ असंखेज्जाई सेढिवग्गमूलाई; बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लएहिं पयरं अवहीरइ असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि कालओ, खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेज्जइभागपडिभागेणं / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा / वेउब्विय-आहारगसरीरा गं बद्धेल्लया नस्थि, मुक्केल्लया जहा ओरालियसरीरा ओहिया तहा भाणियवा। तेया-कम्मगसरोरा जहा एतेसि चेव पोरालियसरीरा तहा भाणियव्वा / [421-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर कितने कहे गये हैं ? [421-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा--बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्धनौदारिकशरीर असंख्यात हैं। कालत: असंख्यात उत्सपिणियों और अवस पिणियों से अपहृत होते हैं / अर्थात् असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों के समय जितने हैं। क्षेत्रत: प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। उन श्रेणियों की विष्कभसूची असंख्यात कोटाकोटि योजनप्रमाण है / इतने प्रमाण वाली विष्कम्भसूची असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप है। हीन्द्रियों के बद्धौदारिकशरीरों द्वारा प्रतर अपहृत किया जाए तो काल की अपेक्षा असंगात उन्सपिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहृत होता है तथा क्षेत्रत: अंगुल मात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यातव भाग-प्रतिभाग (प्रमाणांश) से अपहृत होता है। जैसा प्रौधिक मुक्त प्रौदारिकशरीरों का परिमाण कहा है, वैसा इनके मुक्तयौदारिकशरीरों के लिये भी जानना चाहिए / द्वीन्द्रियों के बद्धवैक्रिय-पाहारकशरीर नहीं होते हैं और मुक्त के विषय में जैसा प्रौधिक मुक्तौदारिकशरीर के विषय में कहा है, वैसा जानना चाहिये / Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [347 तैजस और कार्मण के बद्ध-मुक्त शरोरों के लिए जैसा इनके औदारिकशरीरों के विषय में कहा है, तदनुरूप कथन करना चाहिए। [2] जहा बेइंदियाणं तहा तेइंदियाणं चरिदियाण वि भाणियन्त्र / [421-2] द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त पांच शरीरों के सम्बन्ध में जो निर्देश किया है, वैसा ही त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन--प्रस्तुत पाठ में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों की प्ररूपणा की है / उसका हीन्द्रिय की अपेक्षा से स्पष्टीकरण इस प्रकार है द्वीन्द्रियों के बद्धौदारिकशरीर असंख्यात हैं और उस असंख्यात का परिमाण काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, तत्प्रमाण है। क्षेत्र की अपेक्षा वे शरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। इन श्रेणियों की विक्रभसूची असंख्यात कोटाकोटि योजनों की जानना चाहिये / इतने प्रमाण वाली विष्कंभ (विस्तार) सूची असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप होती है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राकाशथेणि में रहे हुए समस्त प्रदेश असंख्यात होते हैं, जिनको असत्कल्पना से 65536 समझ ले। ये 65536 असंख्यात के बोधक है। इस संख्या का प्रथम वर्गमूल 256, दूसरा वर्गमूल 16, तीसरा वर्गमूल 4 तथा चौथा वर्गमूल 2 हुआ / कल्पित ये वर्गमूल असंख्यात वर्गमूल रूप हैं / इन वर्गमूलों का जोड़ करने पर (256+16+4+2= 278) दो सौ अठहत्तर हुए। यह 278 प्रदेशों वाली यह विष्कम्भसूची है। अब इसी गरी रप्रमाण को दूसरे प्रकार से बताने के लिये सूत्र में पद दिया है ............ पयरं अवहीर असंखेज्जाहि उस्सपिणि-ग्रोसपिणोहि कालयो' अर्थात दीन्द्रिय जीवों के बद्धऔदारिकशरीरों से यदि सब प्रतर खाली किया जाए तो असंख्यात उत्सपिणीअवपिणी कालों के समयों से वह समस्त प्रतर द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध प्रौदारिक शरीरों से खाली किया जा सकता है और क्षेत्रतः 'अंगलपयरस्स प्रावलियाए यं असंखेज्जइभागं पडिभागेण' अर्थात अंगुल प्रतर के जितने प्रदेश हैं उनको एक-एक द्वीन्द्रिय जीवों से भरा जाए और फिर उन प्रदेशों से आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप समय में एक-एक द्वीन्द्रिय जीव को निकाला जाए तो पावलिका के असंख्यात भाग लगते हैं। इतने प्रदेश अंगुल प्रतर के हैं। उस प्रतर के जितने प्रदेश हैं, उतने द्वीन्द्रिय जीवों के बद्धग्रौदारिकशरीर हैं। इस प्रकार से बताई गई संख्या में पूर्वोक्त कथन से कोई भेद नहीं है, मात्र कथन-शैली की भिन्नता है / द्वीन्द्रियों के मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्तप्रौदारिकशरीरों के समान द्वीन्द्रियों के ववक्रिय-अाहारकशरीर नहीं होते हैं / मुक्तवैक्रिय-ग्राहारकशरीरों को प्ररूपणा औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान है-वे अनन्त हैं। इनके बद्ध, मुक्त तेजस, कार्मण शरीरों को प्ररूपणा इन्हीं के बद्ध, मुक्त औदारिकशरीरों की तरह क्रमश: असंख्यात और अनन्त जानना चाहिए। वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा द्रोन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों के समान है / मात्र 'द्वीन्द्रिय' के स्थान में 'त्रीन्द्रिय' और 'चतुरिन्द्रिय' शब्द का प्रयोग करना चाहिये। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 [अनुयोगद्वारसूत्र पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों के बद्ध-मुक्त शरीर 422. [1] पंचेदियतिरिक्खजोणियाण वि ओरालियसरीरा एवं चेव भाणियब्बा। [422-1] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के भी प्रौदारिकशरीर इसी प्रकार (द्विन्द्रिय जीवों के औदारिकशरीरों के समान ही) जानना चाहिये / [2] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइया वेउविवयसरीरा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पं० / तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ गंजे ते बद्धेल्लया ते जं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि अवहौरंति कालओ, खेत्तओ जाव विखंभसूयो अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जइभागो / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया / आहारयसरीरा जहा बेइंबियाणं / तेयग-कम्मगसरीरा जहा ओरालिया। 422-2 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये [422-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं --बद्ध और मक्त। उनमें से बद्धवक्रियशरीर असंख्यात हैं जिनका कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों से अपहरण होता है और क्षेत्रत: यावत् (श्रेणियों की) विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में वर्तमान श्रेणियों जितनी है / मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य औदारिकशरीरों के प्रमाण तथा इनके आहारकशरीरों का प्रमाण द्वीन्द्रियों के प्राहारकशरीरों के बराबर है / तैजस-कार्मण शरीरों का परिमाण औदारिकशरीरों के प्रमाणवत् है / विवेचन--यहाँ पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि शरीरों की प्ररूपणा की है। बद्ध-मुक्त औदारिक, ग्राहारक, तैजस और कार्मण शरीरों के विषय में विशेष वर्णनीय नहीं है / क्योंकि इनके बद्ध और मुक्त औदारिकशरीर द्वीन्द्रिय जीवों के बराबर हैं। इनके बद्धाहारकशरीर नहीं होते हैं और मुक्ताहारकशरीर द्वीन्द्रियों के समान है। बद्ध तैजस-कार्मण शरीर इनके बद्धऔदारिकशरीरवत् है। किन्तु किन्हीं-किन्हीं के वैक्रियलब्धि संभव होने से वैक्रियशरीर को लेकर जो विशेषता है, इसका संक्षिप्त सारांश इस प्रकार है पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं, अर्थात् काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समयों जितने प्रमाण वाले हैं तथा क्षेत्र की अपेक्षा ये प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणी रूप हैं और उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में वर्तमान श्रेणियों जितनी है। मुक्तवैत्रियशरीर औधिक भुक्तऔदारिकशरीरवत् अनन्त हैं। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि यहाँ त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों के लिये सामान्य से असंख्यात कहा गया है। लेकिन असंख्यात के असंख्यात भेद होने से विशेषापेक्षा उनकी संख्या में अल्पाधिकता है। वह इस प्रकार-पंचेन्द्रिय जीव अल्प हैं, उनसे कुछ अधिक चतुरिन्द्रिय, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक और एकेन्द्रिय अनन्त गुणे हैं। इसलिये उनके शरीरों की असंख्यातता में भी भिन्नता होती है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] मनुष्यों के बद्ध-मुक्त पंच शरीर 423. [1] मणसाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पन्नत्ता? गो० ! दुविहा पणत्ता। तं जहा-बल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते गं सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा, जहष्णपदे संखेज्जा संखेज्जाओ कोडीओ, एगुणतीसं ठाणाई तिजमलपयस्स उरि चउजमलपयस्स हेट्ठा, अहवणं छट्टो वागो पंचमवरगपडुप्पण्णो, अहवर्ण छण्णउतिछयणगदाइरासी, उक्कोसपदे असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्ततो उक्कोसपए स्वविखतेहि मणसेहि सेढी अवहीरति, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि कालओ, खेत्तओ अंगुलपटमवागमूलं ततियवागमूलपडुप्पण्णं / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया। [423-1 प्र.] भदन्त ! मनुष्यों के प्रौदारिकशरीर कितने कहे गये हैं ? [423-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध तो स्यात् संख्यात और स्यात असंख्यात होते हैं / जघन्य पद में संख्यात कोटाकोटि होते हैं अर्थात् उनतीस अंकप्रमाण होते हैं। ये उनतीस अंक तीन यमल पद के ऊपर तथा चार यमल पद से नीचे है, अथवा पंचमवर्ग से गुणित छठे वर्गप्रमाण होते हैं, अथवा छियानवे (96) छेदनकदायी राशि जितनी संख्या प्रमाण हैं / उत्कृष्ट पद में वे शरीर असंख्यात हैं। जो कालत: असंख्यात उत्सपिगियोंअवसपिणियों द्वारा अपहत होते हैं और क्षेत्र की अपेक्षा एक रूप प्रक्षिप्त किये जाने पर मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है / कालत: असत्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालों से अपहार होता है और श्रेत्रत: तीसरे मूलवर्ग से गुणित अंगुल के प्रथम वर्गमूल प्रमाण होते हैं। उनके मुक्त प्रौदारिकशरीर औधिक मुक्तयौदारिकशरीरों के समान जानना चाहिए। [2] मणसाणं भंते ! केवतिया वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता ? गो० दुविहा पं० / तं०-बल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं संखेज्जा समए 2 अवहीरमाणा 2 संखेज्जेणं कालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया। मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया / [423-2 प्र. भगवन् ! मनुष्यों के वैक्रियशरीर कितने कहे हैं ? [423-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध संख्यात हैं जो समय-समय में अपहृत किये जाने पर संख्यात काल में अपहृत होते हैं किन्तु अपहृत नहीं किये गये हैं / मुक्तवैक्रियशरीर मुक्त प्राधिक औदारिकशरीरों के बराबर जानना चाहिये। [3] मसाणं भंते ! केवइया आहारयसरीरा पन्नत्ता? गो० ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तस्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते गं सिय अस्थि सिय नस्थि, जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं / मुक्केलया जहा ओहिया ओरालिया। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350] [अनुयोगद्वारसूत्र [423-3 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के आहारकशरीर कितने कहे गये हैं ? [423-3 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध तो कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं। जब होते हैं तब जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं / मुक्ताहारकशरीर प्राधिक मुक्तप्रौदारिकशरीरों के बराबर जानना चाहिये। [4] तेयग-कम्मगसरोरा जहा एतेसि चेव ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा / [423-4] मनुष्यों के बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मण शरीर का प्रमाण इन्हीं के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों के समान जानना चाहिये / / विवेचन-ऊपर मनुष्यों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि पंच शरीरों का परिमाण बतलाया है / मनुष्य मुख्य रूप से औदारिकशरीरधारी हैं / अतः उनके विषय में विशेष रूप से वक्तव्यता इस प्रकार है मनुष्यों के बद्धऔदारिकशरीर कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात, होते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य दो प्रकार के हैं—गर्भज और संमूच्छिम / इनमें से गर्भज मनुष्य तो सदैव होते हैं किन्तु समुच्छिम मनुष्य कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। उनकी उत्कृष्ट प्रायु भी अंतर्मुहर्त की होती है और उत्पत्ति का विरहकाल उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त प्रमाण कहा गया है। अतएव जव संमूच्छित मनुष्य नहीं होते और केवल गर्भज मनुष्य ही होते हैं, तब वे संख्यात होते हैं। इसी अपेक्षा उस समय वद्ध प्रीदारिकशरीर संख्यात कहे हैं। जब संमूच्छिम मनुष्य होते हैं तब समुच्चय मनुष्य असंख्यात हो जाते हैं। क्योंकि संमूच्छिम मनुष्यों का प्रमाण अधिक से अधिक श्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के तुल्य कहा गया है। ये समूच्छिम मनुष्य प्रत्येकशरीरी होते हैं, इसलिये गर्भज और समूच्छिम-दोनों के बद्धोदारिकशरीर मिलकर असंख्यात होते हैं। यद्यपि जघन्यपद में संख्यात होने से गर्भज मनुष्यों के औदारिकशरीरों का परिमाण निर्दिष्ट हो गया किन्तु संख्यात के भी संख्यात भेद होते हैं / इसलिये संख्यात कहने से नियत संख्या का बोध नहीं होता है / अतएव नियत संख्या बताने के लिये संख्यात कोटाकोटि कहा गया है और इसको विशेष स्पष्टता के लिये तीन यमल पद से ऊपर और चार यमल पद से नीचे कहा है। इसका प्राशय इस प्रकार है-...ये संख्यात कोटाकोटि 22 अंकप्रमाण होती है। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार आठ-पाठ पदों की एक यमलपद संख्या है। अत: चौवीस अंकों के तो तीन यमलपद हो गये और उसके बाद पांच अंक शेष रहते हैं, जिनसे चौथे यमल पद की पूर्ति नहीं होती। इसी कारण यहाँ तीन यमलपदों से ऊपर और चार यमलपदों से नीचे यह पाठ दिया है। __ अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करने के लिये सूत्र में दुसरी विधि बताई है। पंचम वर्ग से छठे वर्ग को गुणित करने पर जो राशि निष्पन्न हो, जघन्य पद में उस राशिप्रमाण मनुष्यों की संख्या है / तात्पर्य इस प्रकार है कि एक का वर्ग नहीं होता / एक को एक से गुणा करने पर गुणनफल एक ही पाता है, संख्या में वृद्धि नहीं होती अत: एक को वर्ग रूप में गणना नहीं होती। वर्ग का प्रारम्भ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [351 दो की संख्या से होता है। अत: दो का दो से गुणा करने पर 4 संख्या हुई / यह प्रथम वर्ग हुआ। चार का चार से गुणा करने पर 16 संख्या हुई, यह दूसरा वर्ग हुआ। फिर 16 को 16 से गुणा करने पर 256 संख्याई, यह तनीय वर्ग हमा। 256 को 256 से गुणा करने पर 65536 संख्या हुई, यह चौथा वर्ग हुप्रा / इस चौथे वर्ग की राशि 65536 को पुन: इसी राशि 65536 से गणित करने पर 4294967296 चार अरब उनीस करोड़ उनचास लाख सड़सठ हजार दो सौ छियानवै राशि पंचम वर्ग की हई।' इस पंचम वर्ग की राशि का उसी से गणा करने पर 18446744073709551616 राशि हुई, यह छठा वर्ग हुअा / इस छठे वर्ग का पूर्वोक्त पंचम वर्ग के साथ गुणा करने पर निष्पन्न राशि जघन्य पद में मनुष्यों की संख्या की बोधक है / यह राशि अंकों में इस प्रकार है-७९२२८१६२ 514264337593543950336 / इन अंकों की संख्या 29 है, अत: 29 अंक प्रमाण राशि से गर्भज मनुष्यों की संख्या कही गई है। ये उनतीस अक कोटाकोटि प्रादि के द्वारा कहा जाना कठिन है, अत: इसका बोध कराने के लिये उक्त संख्या दो गाथाओं द्वारा इस प्रकार कही जा सकती है-- छत्तिन्नि तिनि सुन्न पंचेव य नव य तिन्नि चत्तारि / पंचेव तिणि नव पंच सत्त तिन्नेव तिन्नेव / / चउ छ हो चउ एकको पण दो छक्के क्कगो य अटुव / दो-दो नव सत्तेव य अंकट्ठाणा पराहुत्ता / 2 / उक्त 21 अंकों को इस रीति से बोला जा सकता है सात कोडाकोडी-कोडाकोडी, बानवै लाख कोडाकोडी कोडी, अट्ठाईस हजार कोडाकोडी कोडी, एक सौ कोडाकोडी कोडी, बासठ कोडाकोडी कोडी, इक्यावन लाख कोडाकोडी, बयालीस 1. चत्तारि य कोडिसया अउणतीसं च होंति कोडीओ। अउण्णावन्न लक्खा सत्तट्टो चेव य सहस्सा / 1 दो य सया छण्णउया पंचमदगो समासयो होइ / एयस्स कतो वग्गो छट्टो ओ होई तं बोच्छ 12 // -प्रज्ञापना मलयवृत्ति पत्रांक 28 2. लक्खं कोडाकोडी चउरासी इ भवे सहस्साई। चत्तारि य सत्तट्ठा होंति सया कोडकोडीगं / 3 / चउयाल लक्खाइ कोडीण सत्त चेव य सहस्सा / तिष्णि तया सत्तयरी कोडीण हंति नायच्या / 4 / पंचाणउई लक्खा एकावन्नं भवे सहस्साइं। छसोल सुत्तरसया एसो छ8ो हवइ वग्गो 151 -प्रज्ञापना मलयवृत्ति पत्रांक 28 इन गाथानों में निर्दिष्ट अंकों को 'अंकानां वामतो गति;' के अनुसार विपरीत क्रम से गणना करना तथा प्रागे भी यही नियम जानना चाहिये / / 3. (क) अनुयोगद्वार मलधारीय बत्ति पत्रांक 206 / (ख) छ-ति-ति-सु-पण-नव-ति-च-प-ति--प-स-ति-ति-चउ-छ-दो। च-ए-प-दो-छ-ए-अ-बे-वे-ण-स पढ मक्ख रसंतियाणा।। -प्रज्ञापना मलय वत्ति पत्रांक 281 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352] [अनुयोगद्वारसूत्र हजार कोडाकोडी, छहसौ कोडाकोडी, तेतालीस कोडाकोडी, सैतीस लाख कोडी, उनसठ हजार कोडी, तीनसौ कोडी, चौपन कोडी, उनतालीस लाख पचास हजार तीनसी छत्तीस / इसी संख्या को प्रकारान्तर से समझाया गया है कि मनुष्यों के औदारिकशरोर छियानवै छेदनकदायी प्रमाण हैं। जो आधी-आधी करते-करते छियानवें बार छेदन को प्राप्त हो और अंत में एक बच जाये, उसे छियानवें छेदनकदायीराशि कहते हैं / उसको इस प्रकार समझना चाहियेप्रथम वर्ग (4 संख्या) को छेदने पर दो छेदनक होते हैं, पहला छेदनक दो और दुसरा छेदनक एक / दोनों को मिलाकर दो छेदनक हुए। इसी प्रकार दूसरे वर्ग 16 के चार छेदनक हुए, वह इस प्रकारप्रथम 8, द्वितीय 4, तृतीय 2 और चतुर्थ 1 / तृतीय वर्ग 256 के पाठ छेदनक, चतुर्थ वर्ग के 16 छेदनक, पांचवें वर्ग के 32 और छठे वर्ग 64 छेदनक हुए। इस प्रकार पांचवें और छठे वर्ग के छेदनकों का योग करने पर कुल 96 छेदनक होते हैं। यह छियानवें छेदनकदायी राशि है / अथवा एक के अंक को स्थापित करके उत्तरोत्तर उसे छियानवै बार दुगुना-दुगुना करने पर हो वह राशि छियानवै छेदनकदायीराशि कहलाती है / इस छियानवे छेदनकायी राशि का परिमाण उतना ही होगा, जिसे छठे वर्ग से गुणित पंचम वर्ग की राशि के प्रसंग में बताया गया है। यह जधन्यपद में मनुष्यों की संख्या का प्रमाण है। जघन्यपद में मनुष्यों की संख्या उक्त प्रमाण वाली संख्यात है। अतएव उतने ही मनुष्यों के जघन्य पदवर्ती बद्धऔदारिकशरीर जानना चाहिये। उत्कृष्ट पद में मनुष्यों की संख्या पीर उनके बद्ध औदारिकशरीरों का प्रमाण इस प्रकार है-उत्कृष्ट पद में मनुष्यों की संख्या असंख्यात है। जो संमूच्छिम मनुष्यों की संख्या की अपेक्षा पाई जाती है। जब संमूच्छिम मनुष्य पैदा होते हैं तब वे एक साथ अधिक से अधिक असंख्यात होते हैं। असंख्यात संख्या के असंख्यात भेद हैं / इन भेदों में से जो असंख्यात संख्या मनुष्यों के लिये मानी है, उसका परिचय यहाँ काल और क्षेत्र दोनों प्रकारों से दिया गया है। ___ मनुष्यों के मुक्त औदारिकशरीरों का प्रमाण सामान्य मुक्त औदारिकशरीरों के समान अनन्त है। मनुष्यों के बद्ध वैक्रियशरीर संख्यात हैं, क्योंकि वैक्रिपलब्धि गर्भज मनुष्यों में ही होती है और वह भी किसी किसी में, सब में नहीं / कालत: इस संख्यात का प्रमाण इस प्रकार है-एक-एक समय में एक-एक वैक्रियशरीर का अपहार किया जाए तो संख्यात उत्सर्पिणी-अक्सपिणी काल व्यतीत हो जाए। मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य मुक्तौदारिकशरीरों जितना अनन्त समझना चाहिये। मनुष्यों के बद्ध आहारकशरीर होते भी हैं और नहीं भी होते हैं। हों तो जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व तक हो सकते हैं / मुक्त आहारकशरीर सामान्य मुक्त आहारकशरीरों जितने हैं। 1. बद्ध-मुक्त माहारकशरीरों का प्रमाण सामान्य बद्ध-मुक्त आहारक शरीरों के प्रसंग में कारण सहित स्पष्ट किया जा चुका है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [353 मनुष्यों के बद्ध-मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों का प्रमाण इनके बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरां के प्रमाण जितना है / अर्थात् बद्भ असंख्यात और मुक्त अनन्त हैं / ' वारणव्यंतर देवों के बद्ध-मुक्त शरीर 424. [1] वाणमंतराणं ओरालियसरीरा जहा नेरइयाणं / |424-1 | वाणव्यंतर देवों के प्रौदारिकशरीरों का प्रमाण नारकों के प्रौदारिकशरीरों जैसा जानना चाहिये। [2] वाणमंतराणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पन्नत्ता ? गो० ! दुविहा पं० / तं०-बधेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहि उस्स प्पिणि-ओसप्पिणीहि अवहोरंति कालतो, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखज्जइभागो, तासि णं सेढोणं विक्खं भसूई संखेज्जजोयणसयवग्गलिभागो पतरस्स / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया। [424-2 प्र.| भगवन् ! वाणव्यंतर देवों के कितने वैक्रियशरीर कहे गये हैं ? 424-2 उ.| गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्धवैक्रिय शरीर मामान्य रूप से असंख्यात हैं जो कान की अपेक्षा असंख्यात उत्सपिणी-अवपिणी कालों में अपहृत होते हैं / क्षेत्रतः प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों जितने हैं। उन श्रेणियों की विष्क भसूची प्रतर के संख्येययोजनशतवर्ग प्रतिभाग (अंश) रूप है / मुक्त क्रियशरीरों का प्रमाण औधिक औदारिकगरीरों की तरह जानना चाहिये / [3] आहारगसरीरा दुविहा वि जहा असुरकुमाराणं / 424-3, दोनों प्रकार के आहारकशरीरों का परिमाण असुरकुमारों के दोनों पाहारकशरीरों के प्रमाण जितना जानना चाहिये / [4] वाणमंतराणं भंते ! केवइया तेयग-कम्मगसरीरा पं० ? गो० ! जहा एएसिं चेव वेउब्वियसरीरा तहा तेयग-कम्मगसरोरा वि भाणियम्वा। [424-4 प्र.| भगवन् ! वाणव्यंतरों के कितने तैजस-कार्मण शरीर कहे हैं ? |424-4 उ. | गौतम ! जैसे इनके वैक्रियशरीर कहे हैं, वैसे ही तेजस-कार्मण शरीर भी जानना चाहिये। विवेचन-वाणव्यंतर देवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा का स्पष्टीकरण इस प्रकार वाणव्यंतर देवों के औदारिकशरीरों का प्रमाण नारकों के औदारिकशरीरों के प्रमाण 1. यद्यपि एक मनुष्य के एक साथ चार शरीर तक हो सकते हैं, पाच नहीं। परन्तु यहाँ पांच बद्ध शरीरों की प्ररूपणा की गई है, उसका तात्पर्य यह है कि नाना मनुष्यों की अपेक्षा एक साथ पांच शरीर भी होते हैं। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अयोगदारसूत्र जितना कहने का तात्पर्य यह है कि वाणव्यंतर देवों के बद्धोदारिकशरीर तो होते नहीं हैं। मुक्त औदारिकशरीर पूर्वभवों की अपेक्षा अनन्त हैं। वाणव्यंतर देवों के बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं, क्योंकि इन देवों की संख्या असंख्यात है। इस असंख्यात को स्पष्ट करने के लिये कहा है कि कालतः एक-एक समय में एक-एक बद्धवैक्रियशरीर का अपहार किया जाये तो असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी कालों के समयों में इनका अपहार होता है / क्षेत्र की अपेक्षा प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हई जो असंख्यात श्रेणियाँ हैं, उन श्रेणियों के जितने प्रदेश हों उतने प्रदेश प्रमाण वाणव्यंतरों के बद्धवैक्रियशरीर हैं। उन असंख्यात श्रेणियों की विष्कभसूची तिथंच पंचेन्द्रियों की बद्धनौदारिकशरीर की विष्कंभसूची से असंख्यातगुणहीन जानना चाहिये / वाणव्यंतर देवों के मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण अधिक मुक्तग्रौदारिकशरीरों के समान है, अर्थात् अनन्त है। बद्ध और मुक्त आहारकशरीरों का प्रमाण असुरकुमारों के समान कहने का तात्पर्य यह है कि वाणव्यंतर देवों के बद्धग्राहारकशरीर होते नहीं हैं और मुक्ताहारकशरीर मुक्त औदारिकशरीरों के समान अनन्त हैं / बद्ध तेजस-कार्मण शरीर वाणव्यंतरों के बद्धवैक्रियशरीर के समान प्रसंख्यात हैं और मुक्त तैजस-कार्मण शरीर अनन्त होते हैं / ज्योतिष्क देवों के बद्ध-मुक्त पंच शरीर 425. [1] जोइसियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पं० ? गो० ! जहा नेरइयाणं तहा माणियध्वा / |425-1 प्र. भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के कितने औदारिकशरीर होते है ? |425-1 उ.] गौतम ! ज्योतिष्क देवों के औदारिकशरीर नारकों के प्रौदारिकशरीरों के समान जानना चाहिये। [2] जोइसियाणं भंते ! केवइया उब्वियसरीरा पण्णता? * ! दुविहा पं० / २०-बद्धल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया जाव तासि गं सेढीणं विखंभसूची बेछप्पण्णंगुलसयवग्गलिभागो पयरस्स / मुक्केल्लया जहा ओहियओरालिया। [425-2 प्र. भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के कितने वैक्रियशरीर कहे हैं ? [425-2 उ.] गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं यावत् उनकी श्रेणी की विष्कभसूची दो सौ छप्पन प्रतरांगुल के वर्गमूल रूप अंश प्रमाण समझना चाहिये / मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य मुक्तोदारिकशरीरों जितना जानना चाहिये / [3] आहारयसरीरा जहा नेरइयाणं तहा भाणियम्वा / Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [355 [425-3] ज्योतिष्कदेवों के प्राहारकशरीरों का प्रमाण नारकों के आहारकशरीरों के बराबर है। [4] तेयग-कम्मगसरीरा जहा एएति वेध घेउनिया तहा भाणियव्वा / 25.4| ज्योतिष्कदेवों के बद्ध-मक्त तैजस और कार्मण शरीरों का प्रमाण इनके बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों के बराबर है / विवेचन--प्रस्तुत सूत्रों में ज्योतिष्कदेवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा की गई है / इनके बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा नारकवत् समझने का तात्पर्य यह है कि बद्धऔदारिकगरीर तो ज्योतिष्कदेवों के होते नहीं और मुक्तीदारिकशरीर पूर्वभवों की अपेक्षा अनन्त हैं। ज्योतिष्कदेवों के बद्ध वैक्रियशरीरों का निर्देश अति संक्षेप में किया है। उसका आशय यह है कि वे असंख्यात हैं। कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी और अपिणी कालों के समयों के बराबर हैं। क्षेत्रतः उनका प्रमाण प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों के बराबर है / विशेष यह है कि उन श्रेणियों की विष्कंभसूची व्यंतरों की विष्कभसूची से संख्यात गुणी अधिक होती है। क्योंकि महादंडक में व्यतरो से ज्योतिष्क देव संख्यातगुणा अधिक बताये गये हैं। इसीलिये प्रतिभाग के विषय में विशेष स्पष्ट करते हुए कहा है कि उन श्रेणियों की विष्कभसूची 256 प्रतरांगुलों का वर्गमूल रूप जो प्रतिभाग–अंश है, उस अंशरूप यह विष्कंभसूची जानना चाहिये / प्राशय यह है कि 256 अंगुल वर्गप्रमाण श्रेणीखंड में यदि एक-एक ज्योतिष्क देव की स्थापना की जाये तो वे संपूर्ण प्रतर को पूर्ण कर सकेंगे। प्रथवा यदि एक-एक ज्योतिष्कदेव के अपहार से एक-एक दो सौ छप्पन अंगुल वर्ग प्रमाण श्रेणी खंड का अपहार होता है, तब सब मिलकर ज्योतिष्क देवों की संख्या की पूर्णता हो और दूसरी ओर संपूर्ण प्रतर खाली होगा / मुक्तवैक्रियशरीर सामान्य मुक्तमौदारिकशरीरों के तुल्य अर्थात अनन्त हैं / नारकों के जैसे बद्धपाहारकशरीर नहीं होते, इसी प्रकार ज्योतिष्क देवों के भी नहीं हैं। मुक्ताहारकशरीर नारकों के शरीरों के समान अनन्त हैं। ज्योतिष्कों के बद्ध नैजस-कार्मण शरीर असंख्यात हैं, क्योंकि ये देव असंख्यात हैं। मुक्त तैजस-कार्मण शरीर अनन्त हैं / अनन्त होने का कारण नारकों के मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण बताने के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है। वैमानिक देवों के बद्ध-मूक्त शरीर एवं कालप्रमाण का उपसंहार 426. [1] वेमाणियाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पन्नता? गोयमर ! जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वर / [426-1 प्र. भगवन् ! वैमानिक देवों के कितने प्रौदारिकशरीर कहे गये हैं ? Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356] [अनुयोगद्वारसूत्र [426-1 उ.) गौतम! जिस प्रकार नैरयिकों के औदारिकशरीरों की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार वैमानिक देवों की भी जानना चाहिये / [2] वेमाणियाणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णता? गो० ! दुविहा पं० / तं0--बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बदल्लया ते गं असंखेज्जा, असंखज्जाहि उस्सप्पिणि-ओस प्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेतओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीण विक्खभसूई अंगुलबितियवग्गमूलं ततियवगमूलपडप्पण्णं, अहव णं अंगुलततियवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया। [426-2 प्र. भगवन् ! वैमानिक देवों के कितने बँक्रिय शरीर कहे गये हैं ? {426-2 उ. गौतम ! दे दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं। उनका काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहरण होता है और क्षेत्रत्त: प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों जितने हैं। उन श्रेणियों की विष्कभसूची अंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घनप्रमाण श्रेणियां हैं। मुक्तक्रियशरीर औधिक औदारिक शरीर के तुल्य जानना चाहिये। [3] आहार यसरीरा जहा नेरइयाणं / |426-3] वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त ग्राहारकशरीरों का प्रमाण नारकों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों के बराबर जानना चाहिये / [4] तेयग-कम्मगसरीरा जहा एएस चेय वेउवियसरीरा तहा भाणियस्वा / से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे। से तं खेलपलिओवमे। से तं पलिओवमे / से तं विभागणिफण्णे। से तं कालप्पमाणे / | 426-4] इनके बद्ध और मुक्त तेजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) वैक्रियशरीरों जितना जानना चाहिये। यह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप है। इसके साथ ही क्षेत्रपल्योपम तथा पल्योपम का स्वरूप भी निरूपित हो चुका / साथ ही विभागनिष्पन्न कालप्रमाण एवं समग्न कालप्रमाण का कथन भी पुर्ण हुआ। विवेचन--- सूत्र में वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा करके कालप्रमाण का उपसंहार किया है। वैमानिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों के लिये नैरयिकों के शरीरों की संख्या का निर्देश किया है / इसका तात्पर्य यह है कि नरयिकों की तरह वैमानिक देवों के भी बद्धोदारिका शरीर नहीं होते / मुक्तौदारिकशरीर पूर्व के अनन्त जन्मों की अपेक्षा अनन्त होते हैं। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [357 बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा उनका अपहरण किये जाने पर असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणी कालों के समयों जितने होंगे / क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात का प्रमाण बताने के लिये कहा है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों की जितनी प्रदेशराशि होती है, उतने हैं / इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिये कहा है कि इन श्रेणियों की विष्कभसूची का प्रमाण तृतीय वर्गमूल से गुणित द्वितीय वर्गमूलप्रमाण अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल का धन करने पर प्राप्त संख्याप्रमाण जानना चाहिये / जिसका असत्कल्पना से स्पष्टीकरण इस प्रकार है मान लें कि असंख्यात श्रेणियां 256 हैं / इनका प्रथम वर्गमूल 16, द्वितीय वर्गमूल 4 और तृतीय वर्गमूल 2 हुया / इस द्वितीय वर्गमूल 4 और तृतीय वर्गभूल 2 से गणा करने पर (442 -- 8) पाठ हुए / इन आठ को हम असंख्यात श्रेणियों की विकभसूची मान लें। इन असंख्यात श्रेणियों की जितनी प्रदेश राशि होगी उतने वैमानिक देवों के क्षेत्र की अपेक्षा बद्धवैक्रियशरीर हैं / अथवा अंगुल का प्रमाण 256 है। इसका तृतीय वर्गमूल 2 हुआ / उसका घन करने पर (2x2x2 =8) हुए। इस पाठ को हम कल्पना से असंख्यात श्रेणियों की विष्कंभसूची मान लें। इस प्रकार दोनों प्रकार के कथन में अर्थ का कोई भेद नहीं है। मुक्तवैक्रिय शरीरों का परिमाण सामान्य मुक्तौदारिक शरीरों जितना अनन्त जानना चाहिये। वैमानिक देवों के बद्ध और मुक्त पाहारकशरीरों का प्रमाण नारकों जैसा जानने के संकेत का यह आशय है कि जैसे नारकों के बद्धयाहारकशरीर नहीं होते, इसी प्रकार वैमानिक देवों के भी नहीं होते हैं। मुक्ताहारकशरीर पूर्वभवों की अपेक्षा होते हैं / इनका प्रमाण नारकों के मुक्ताहारकशरीरों जितना अनन्त है। बद्ध-तैजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण इन्हीं के बद्धवैक्रियशरीरों के समान असंख्यात और मुक्त-तैजस-कार्मण शरीर मुक्त वैक्रिय शरीरों के समान अनन्त हैं। . इस प्रकार से चौबीस दंडकवर्ती जीवों के शरीरों की प्ररूपणा जानना चाहिये / इसके पश्चात् 'से तं' आदि पदों द्वारा कालप्रमाण के वर्णन के पूर्ण होने की सूचना दी गई है। अब क्रमप्राप्त भावप्रमाण का वर्णन प्रारंभ करते हैं / भावप्रमाण 427. से कि तं भावप्पमाणे? . भावप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--गुणप्पमाणे णयप्पमाणे संखप्पमाणे। [427 प्र. भगवन् ! भावप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [427 उ.| प्रायुष्मन् ! भावप्रमाण तीन प्रकार का कहा है / यथा-१. गुणप्रमाण, 2. नयप्रमाण और 3. संख्याप्रमाण / " ... . ........ .. .. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358] [मनोजवारसूत्र विवा---यह सूत्र भावप्रमाण का वर्णन करने के लिये भूमिका रूप है / 'भवनं भावः' यह भाष शरूद की व्युत्पत्ति है, अर्थात् होना यह भाव है। भाब वस्तु का परिणाम है। लोक में वस्तुएं दो प्रकार की है-जीव-सचेतन और अजीव. अचेतन / सचेतन वस्तु का परिणाम ज्ञानादि रूप है और अचेतन का परिणाम वर्णादि रूप है। उपर्यक्त कथन का सारांश यह है कि विद्यमान पदार्थों के वर्णादि और ज्ञानादि परिणामों को भाव और जिसके द्वारा उन वर्णादि परिणामों का भलीभांति बोध हो, उसे भावप्रमाण कहते हैं। वह भावप्रमाण तीन प्रकार का है-गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण। गुणों से द्रव्यादि का अथवा गुणों का गुण रूप से ज्ञान होता है अतएव बे गुणप्रमाण कहलाते हैं / अमन्तधर्मात्मक वस्तु का एक अंश द्वारा निर्णय करना नय है / इसी को नयप्रमाण कहते हैं / संस्था का अर्थ है गणना करना / यह गणना रूप प्रमाण संख्याप्रमाण है / भावप्रमाण के उक्त तीन भेदों का प्रागे विस्तृत वर्णन किया जाता है / गुणप्रमाण 428. से कितं गुणपमाणे? गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–जीवगुणप्पमाणे य अजीवगुणप्पमाणे य / [428 प्र. भगवन् ! गुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [428 उ. आयुष्मन् ! गुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है जीवमुणप्रमाण और प्रजीवगुणप्रभाम। विवेचन -गुणप्रमाण के स्वरूपवर्णन को प्रारंभ करते हुए उसके दो भेदों का उल्लेख किया है। इन भेदों में से अल्पवक्तच होने से पहले अजीवगुणप्रमाग का निर्देश करते हैं / अजीवगुणप्रमाणनिरूपण 429. ते कि तं अजीवगुणपमाणे? अजीधणप्पमाणे पंचविहे पण्णसे / तं जहा- वण्णगुणप्पमामे मंषगुणप्पमाणे रसगुणप्पमाणे फासगुणप्पमाणे संठाणगुणप्पमाणे [429 प्र.] भगवन् ! अजीवगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [429 उ.] आयुष्मन् ! अजीवगुणप्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है-१. वर्णगुणप्रमाण, 2. गंधगुणप्रमाण, 3. रसगुणप्रमाण, 4. स्पर्शगुणप्रमाण और 5. संस्थानगुणप्रमाण / 430. से कि तं वणगणप्पमाणे ? वण्णगुणप्पमाणे पंचविहे पणते। तं. कालवयमुणप्पमाले जाव सुकिल्लवण्णगुणप्पमाणे। से तंबण्णगणप्पमाये। [430 प्र.] भगवन् ! वर्णगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ facार निरूपण [430 उ.] प्रायुष्मन् ! वर्ष गुणप्रमाण पांच प्रकार का कहा है / यथा-कृष्णवर्णगुणप्रमाण यावत् शुक्लवर्णयुग्नमाण / यह वर्षगुवाप्रमाण का स्वरूप है / 431. से कि तं गंधगुणप्पमाणे? बंधगुणल्पनाने दुव्हेि पणते / सं० ... मुरभिगंधमुणप्पमाणे वुर भिगवण कमाणे य / से तं गंधमुलकमाणे। [431 प्र. भगवन् ! गंधगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [431 उ. आयुष्मन् ! गंधगुणप्रमाण दो प्रकार का है / यथा--सुरभिगंधगुणप्रमाण, दुरभिगंधगुणप्रमाण / इस प्रकार यह गंधगुणप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिए / 432. से कि तं रसगुणप्पमाणे? रसगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते / तं०-तित्तरसगुणप्पमाणे जाव महररसगुणप्पमाणे / से तं रसगुणप्पमाणे। | 432 प्र. भगवन् ! रसगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [432 उ. आयुष्मन् ! रसगुप्पप्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-तिक्तरसगुणप्रयाण यावत् मधुररसगुणप्रमाण / यह रसगुणप्रमाण का स्वरूप है / / 433. से कि तं फासगुणप्पमाणे ? फासगुणप्पमाणे अट्टविहे पणत्ते / तं0-कक्खडफासगुणप्पमाणे जाव लुक्खफासगुणप्पमाणे। से तं फासगुणप्पमाणे। [433 प्र. भगवन् ! स्पर्शगुणप्रमाण का स्वरूप क्या है ? 433 उ.! आयुष्मन् ! स्पर्शगणप्रमाण पाठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारकर्कशस्पर्शगुणप्रमाण यावत् रूक्षस्पर्शगुणप्रमाण / यह स्पर्शगुणप्रमाण है। 434. से कि तं संठाणगुणप्पमाणे? संठाणगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते / तं०-परिमंडलसंठाणमुणप्पमाणे जाव आययसंठाणगुणप्पमाणे / से तं संठाणगुणप्पमाणे / से तं अजीवगुणप्पमाणे। [434 प्र. भगवन् ! संस्थानगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [434 उ.] अायुष्मन् ! संस्थानगुणप्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है / जैसे--परिमंडलसंस्थानगुणप्रमाण यावत् अायतसंस्थानगुणप्रमाण / यह संस्थानगुणप्रमाण का स्वरूप है / इस प्रकार से अजीवगुणप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन--यहाँ अजीवगुणप्रमाण का कथन किया है। प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति भाक, करुण और कर्म इन तीन साधनों में होती है, यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है। भावसाधन पक्ष में गुणों को जानने रूप प्रमिति प्रमाण है / यद्यपि गुण स्वयं प्रमाणभूत नहीं होते हैं किन्तु जानने रूप क्रिया Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360] - [अनुयोगद्वारसूत्रः गुणों में होती है, इसलिये अभेदोपचार से गुणों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। करणसाधन पक्ष में गुणों के द्वारा द्रव्य जाना जाता है, इसलिये गुण प्रमाणभूत हो जाते हैं। कर्मसाधन पक्ष में गुण गुणरूप से जाने जाते हैं, इसलिये गुण प्रमाण रूप हैं। यहाँ जिन गुणों को प्रमाण रूप से प्रस्तुत किया है, वे मूर्त अजीव द्रव्य पुद्गल के हैं। ये सभी पुद्गलद्रव्य के असाधारण स्वरूप के बोधक हैं / अत्य द्रव्यों में नहीं होते हैं / जिस द्रव्य में रूप होता है, उसी में संस्थान-ग्राकार होता है। प्राकार के माध्यम से बह दृश्य होता है। इसीलिये परिमंडल आदि संस्थानों को भी गुण प्रमाण के रूप में माना है / संस्थानों के नामोल्लेख में 'यावत्' पद से परिमंडल और आयत संस्थान के साथ वृत्त, यस और चतुरस्र संस्थान को ग्रहण किया है / बलय (चूड़ी) के आकार के संस्थान को परिमंडलसंस्थान कहते हैं। लोहगोलक (गोली) के आकार को वृत्तसंस्थान, सिंघाड़े जैसे आकार को त्र्यस (त्रिकोण) संस्थान, समचौरस (चौकौर) आकार को चतुरस्रसंस्थान और लम्बे आकार को आयतसंस्थान कहते हैं। स्थानांगसूत्र में संस्थान सात कहे गए हैं---१. दीर्घ, 2. ह्रस्व, 3. वृत्त (गेंद के समान गोल), 4. त्रिकोण, 5. चतुष्कोण, 6. प्रथल-विस्तीर्ण और 7. परिमंडल-वलय की भांति गोल / ' ये सभी वर्णादि गुण अजीव पदार्थ के हैं / इसलिये इनको अजीवगुणप्रमाण में ग्रहण किया है। जीवगुणप्रमाणनिरूपण . . 435. से कि तं जीवगुणप्पमाणे ? जीवगुणप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-णाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरित्तगुणप्पमाणे य। [435 प्र. भगवन् ! जीवगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [435 उ.) आयुष्मन् ! जीवगुण प्रमाण तीन प्रकार का प्रतिपादन किया गया है। वह इस प्रकार-ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण और चारित्रगुणप्रमाण। विवेचन यहाँ जीव के मूलभूत गुणों का उल्लेख करके जीवगुणप्रमाण के तीन भेद बताये 436. से किं तं गाणगुणप्पमाणे ? णाणगुणप्पमाणे चउठिवहे यण्णत्ते / तं०-पच्चक्खे अणुमाणे प्रोवम्मे आगमे / |436 प्र. भगवन् ! ज्ञानगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [436 उ.] अायुष्मन् ! ज्ञानगुणप्रमाण चार प्रकार का कहा गया है--१. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. उपमान और 4 पागम / 1. स्थानांगसूत्र, स्थान 7 / Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण विवेचन--सूत्र में जीवगुणप्रमाण के प्रथम भेद ज्ञानगुणप्रमाण के चार भेदों का नामोल्लेख किया है / जिनका अब विस्तार से वर्णन करते हैं। प्रत्यक्षप्रमारनिरूपण 437. से कि तं पच्चक्खे ? पच्चक्खे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा-इंदियपच्चरखे य गोइंदियपच्चक्खे य / 1437 प्र.| भगवन् ! प्रत्यक्ष का क्या स्वरूप है ? |437 उ.) आयुष्मन् ! प्रत्यक्ष के दो भेद हैं / यथा—इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष / 438. से कि तं इंदियपच्चक्खे ? इंदियपच्चक्खे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-सोइंदियपच्चक्खे चक्खुरिदियपच्चक्खे घाणिदियपच्चक्खे जिभिदियपच्चक्खे फासिदियपच्चक्खे / से तं इंदियपच्चक्खे / 1.438 प्र.| भगवन् ! इन्द्रियप्रत्यक्ष किसे कहते हैं ? [438 उ.! प्रायुष्मन् ! इन्द्रियप्रत्यक्ष पांच प्रकार का कहा है। यथा--१. श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, 2. चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष, 3. घाणेन्द्रियप्रत्यक्ष, 4. जिह्वेन्द्रियप्रत्यक्ष, 5. स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष / इस प्रकार यह इन्द्रियप्रत्यश्न है। 439. से कि तं णोइंदियपच्चरखे? गोइंदियपच्चक्खे तिविहे पं० / तं०--ओहिणाणपच्चक्खे मणपज्जवणाणपच्चक्खे केवलणाण. पच्चक्खे / से तं णोइंदियपच्चक्खे / से तं पच्चक्खे / [439 प्र. भगवन् ! नोइन्द्रियप्रत्यक्ष का क्या स्वरूप है ? |439 उ.| आयुष्मन् ! नोइन्द्रियप्रत्यक्ष तीन प्रकार का कहा गया है--१. अवधिज्ञानप्रत्यक्ष, 2. मन:पर्यवज्ञानप्रत्यक्ष, 3. केवलज्ञान प्रत्यक्ष / यही प्रत्यक्ष का स्वरूप है। विवेचन उक्त प्रश्नोत्तरों में भेद सहित प्रत्यक्षप्रमाण का स्वरूप बतलाया है। प्रत्यक्ष शब्द में प्रति+अक्ष ऐसे दो शब्द हैं / अक्ष शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- अक्ष्णोति ज्ञानात्मना व्याप्नोति जानातीत्यक्ष प्रात्मा / ' अर्थात् अक्ष जीव—प्रात्मा को कहते हैं, क्योंकि जीव ज्ञान रूप से समस्त पदार्थों को व्याप्त करता है---जानता है / जो ज्ञान साक्षात् प्रात्मा से उत्पन्न हो, जिसमें इन्द्रियादि किसी माध्यम की अपेक्षा न हो, वह प्रत्यक्ष कहलाता है। यद्यपि 'अक्ष-अक्ष प्रतिगतम्' ऐसी भी व्युत्पत्ति प्रत्यक्ष शब्द की हो सकती है, लेकिन वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ऐसी व्युत्पत्ति करने में अव्ययीभाव समास होता है और अव्ययीभाव समास से बना शब्द सदा नपंसलिंग में होता है। तब 'प्रत्यक्षो बोधः, प्रत्यक्षा बुद्धि: प्रत्यक्षं ज्ञानम्' इस प्रकार से त्रिलिंगता प्रत्यक्ष शब्द में नहीं पा सकेगा। अत: प्रत्यक्ष शब्द की पूर्वोक्त व्युत्पत्ति ही निर्दोष है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362) [अनुयोगद्वारसूत्र प्रत्यक्ष के दो भेद हैं—१. इन्द्रियप्रत्यक्ष और 2. नोइन्द्रियप्रत्यक्ष / जिस प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रियाँ सहकारी हों वह इन्द्रियप्रत्यक्ष है और जिस ज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय आदि की सहायता से नहीं होती है, उसे नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहते हैं / 'नो' शब्द यहाँ निषेधवाचक है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस ज्ञान को उत्पत्ति केवल आत्माधीन होती है, वह नोइन्द्रियप्रत्यक्ष है। इन्द्रियजन्य ज्ञान को लौकिक व्यवहार की अपेक्षा से प्रत्यक्ष कहा गया है, क्योंकि लोक में ऐसा व्यवहार देखा जाता है--'मैंने अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष देखा है।' परमार्थ की अपेक्षा तो इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष ही है / नन्दीसूत्र में जो इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है वह भी लोकव्यवहार की अपेक्षा से कहा गया है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के पांच भेद श्रोत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले अपनेअपने विषयों की अपेक्षा जानना चाहिये / जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है, चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, घ्राणेन्द्रिय का विषय गंध, रसनेन्द्रिय का विषय रस एवं स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के भेदों के क्रम-विन्यास से जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि शास्त्रों में जीवों की इन्द्रियवद्धि का क्रम स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्ष और श्रोत्र, इस प्रकार का है। उस क्रम को छोडकर पश्चानपूर्वी से इसका उल्लेख क्यों किया है? इसका उत्तर यह है कि क्षयोपशम और पूण्य की प्रकर्षता अधिक होने पर जीव पंचेन्द्रिय बनता है और उसके बाद उससे न्यून होने पर चतुरिन्द्रिय / त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय के लिये भी यही समझना चाहिये। अतएव पुण्य और क्षयोपशम की प्रकर्षता को ध्यान में रखकर सर्वप्रथम श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष का और फिर पश्चानुपूर्वी के क्रम से चक्षुरिन्द्रिय अादि का विधान किया है। अभिप्राय यह है कि पुण्य और क्षयोपशम की मुख्यता से तो पश्चानुपूर्वी से और जाति की अपेक्षा पूर्वानुपूर्वी से इन्द्रियों का क्रम कहा गया है। इन इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्ष है। नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन भेद हैं-अवधिज्ञातप्रत्यक्ष, मन पर्यायज्ञानप्रत्यक्ष और केवलज्ञानप्रत्यक्ष / इनको नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहने का कारण यह है कि इनकी उत्पत्ति केवल आत्माधीन है। इनमें इन्द्रियव्यापार सर्वथा नहीं होता है किन्तु साक्षात् जीव ही अर्थ को जानता है। अवधिज्ञान आदि तीनों के लक्षण पूर्व में बताये जा चुके हैं। अनुमानप्रमाणप्ररूपणा 440. से किं तं अणुमाणे ? अणुमाणे तिविहे पण्णत्ते / तं-पुव्ववं सेसवं विद्वसाहम्मवं / [440 प्र.] भगवन् ! अनुमान का क्या स्वरूप है ? [440 उ. आयुष्मन् ! अनुमान तीन प्रकार का कहा है--पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् / विवेचन-ग्रनुमान शब्द के 'मनु' और 'मान' ऐसे दो अंश हैं। 'अनु' का अर्थ है पश्चात् और मान का अर्थ है ज्ञान / अर्थात् साधन के ग्रहण (दर्शन) और संबन्ध के स्मरण के पश्चात् होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं / तात्पर्य यह है कि साधन से साध्य का जो ज्ञान हो, वह अनुमान Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] है। साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले हेतु को साधन कहते हैं। अतएव उस हेतु के दर्शन होते ही साध्य-साधन की व्याप्ति का स्मरण होता है, तब जहाँ-जहाँ साध्याविनाभावी साधन होता है, वहाँ-वहाँ साध्य होता है, इस नियम के अनुसार जहाँ अविनाभावी साधन दृष्टिगत हो रहा हो वहाँ अवश्य ही साध्य है, इस प्रकार से परोक्ष अर्थ की सत्ता जानने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं / यह अनुमान प्रत्यक्षज्ञान की तरह प्रमाण है / पूर्ववत्-अनुमाननिरूपण 441. से कि तं पुतबद ? पुव्ववं माता पुत्तं जहा न→ जुवाणं पुणरागत / काई पच्चभिजाणेज्जा पुलिगेण केणइ // 115 // तं जहा-खतेण वा वर्णण वा मसेण वा लंछणेण वा तिलएण वा / से तं पुत्ववं / 1441 प्र. भगवन् ! पूर्ववत्-अनुमान किसे कहते हैं ? 441 उ. आयुष्मन् ! पूर्व में देखे गये लक्षण से जो निश्चय किया जाये उसे पूर्ववत् कहते हैं। यथा - माता बाल्यकाल से गुम हुए और युवा होकर वापस आये हुए पुत्र को किसी पूर्वनिश्चित चिह्न से पहचानती है कि यह मेरा ही पुत्र है। 115 जैसे- देह में हुए क्षत--घाव, व्रण-कुत्ता प्रादि के काटने से हुए घाव, लांछन, डाम अादि से बने चिह्नविशेष, मष, निल आदि से जो अनुमान किया जाता है, वह पूर्ववत्-अनुमान है। विवेचन--यहाँ अनुमान के पूर्ववत् भेद का लक्षण बताया है / तात्पर्य यह है कि पूर्वज्ञात किसी लिंग (चिह्न) के द्वारा पूर्वपरिचित बस्तु का ज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है / ' यहाँ अनुमानप्रयोग इस प्रकार किया जायेगा- यह मेरा पुत्र है, क्योंकि अन्य में नहीं पाए जाने वाले क्षतादि विशिष्ट लिंग वाला है। कदाचित यह कहा जाये कि इस अनुमानप्रयोग में साधर्म्यदृष्टान्त का अभाव होने से यह साध्य की सिद्धि करने में अक्षम है तो इसका उत्तर यह है कि हेतु दृष्टान्त के बल से ही अपने साध्य का निश्चायक हो, यह नियम नहीं है / परन्तु जिस हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व (साध्य के अभाव में हेतु का न होना) है, वह नियम से अपने साध्य का गमक होता है। अर्थात् अन्यथानुपन्नत्व ही हेतु का लक्षण है / दृष्टान्त के अभाव में भी ऐसा हेतु गमक होता है। यदि यह कहा जाये कि जब पुत्र प्रत्यक्षज्ञान का विषय है, तब अनुमानप्रयोग करने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान यह है, पुरुष का पिंडमात्र दिखने पर भी 'यह मेरा पुत्र है या नहीं ऐसा संदेह बना हुआ है। इस संदेह का निराकरण करने के लिये अनुमानप्रयोग किया जाना संगत है कि--यह मेरा पुत्र है, क्योंकि अमुक असाधारण चिह्न से युक्त है / 1. अनुयोगद्वार. मलयवृत्ति. पृ. 212 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364] [अनुयोगदारसूत्र शेषवत्-अनुमाननिरूपण 442. से कि तं सेसवं? सेसवं पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा- कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसएणं / [442 प्र.] भगवन् ! शेषवत्-अनुमान किसे कहते हैं ? [442 उ.] अायुष्मन् ! शेषवत्-अनुमान पांच प्रकार का कहा गया है। यथा---१. कार्येण (कार्य से), 2. कारणेन (कारण द्वारा), 3. गुणेण (गुण से), 4. अवयवेन (अवयव से) और 5. आश्रयेण (ग्राश्रय से) / (इन पांचों द्वारा जो अनुमान किया जाता है. उसे शेषवत्-अनुमान कहते हैं / ) 443. से कि तं कज्जेणं ? कजेणं संखं सद्देणं, भेरि तालिएणं, वसभं ढकिएणं, मोरं केकाइएणं, हयं हेसिएणं, गयं * गुलगुलाइएणं, रहं घणघणाइएणं / से तं कज्जेणं / |443 प्र.] भगवन् ! कार्य से उत्पन्न होने वाले शेषवत्-अनुमान का क्या स्वरूप है ? 1443 उ.] आयुष्मन् ! शंख के शब्द को सुनकर शंख का अनुमान करना, भेरी के शब्द (ध्वनि) से भेरी का, बैल के रंभाने-दलांकने से बैल का, केकारव सुनकर मोर का, हिनहिनाना मुनकर घोड़े का, गुलगुलाहट सुनकर हाथी का और घनघनाट सुनकर रथ का अनुमान करना / यह कार्यलिंग से उत्पन्न शेषवत्-अनुमान है। 444. से कितं कारणणं? कारणेणं तंतवो पडस्स कारणं ण पडो तंतुकारणं, वीरणा कडस्स कारणं ण कडो वोरणाकारणं, मिप्पिडो घडस्स कारणं ण घडो मिप्पिडकारणं / से तं कारणेणं / |444 प्र.| भगवन् ! कारणरूप लिंग से उत्पन्न शेषवत्-अनुमान क्या है ? |444 उ.! आयुष्मन् ! कारणरूप लिंग से उत्पन्न हुआ शेषवत्-अनुमान इस प्रकार हैतत पट के कारण हैं, किन्त पट तत का कारण नहीं है, वीरणा-तण कट चटाई) के कारण हैं, लेकिन कट वीरणा का कारण नहीं है. मिट्टी का पिंड घड़े का कारण है किन्तु घड़ा मिट्टी का कारण नहीं है। यह कारणलिंगजन्य शेषवत्-अनुमान है / 445. से कि तं गणेणं? गुणणं सुवण्णं निकसेणं, पुप्फ गंधणं, लवणं रसेणं, मदिरं आसायिएणं, वत्थं फासेणं / से तं गुणणं / | 445 प्र.| भगवन् ! गुणलिंगजन्य शेषवत्-अनुमान किसे कहते है ? | 445 उ. प्रायुष्मन् ! निकष-- कसौटी से स्वर्ण का, गंध से पुष्प का, रस से नमक का, आस्वाद (चखने) से मदिरा का, स्पर्श से वस्त्र का अनुमान करना गुणनिप्पन्न शेषवत्-अनुमान है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [365 446. से कि तं अवयवेणं ? अवयवेणं महिसं सिंगेणं, कुक्कुडं सिहाए, हत्थि विसाणेणं, वराहं दाढाए, मोरं पिच्छेणं, आसं खुरेणं, वग्घं नहेणं, चमरं वालगंडेणं, दुपयं मणूसमाइ, चउपयं गवमादि, बहुपयं गोम्हियादि, सीहं केसरेणं, वसहं ककुहेणं, महिलं बलयबाहाए / परियरबंधेण भडं, जाणिज्जा महि लियं णिवसणेणं / सित्थेण दोणपागं, कई च एक्काए गाहाए / / 116 / / से तं अवयवेणं। |446 प्र.) भगवन् ! अवयव रूप-लिंग से निष्पन्न शेषवत्-अनुमान किसे कहते हैं ? |446 उ.। आयुष्मन् ! सींग से महिष का, शिखा से कुक्कुट (मुर्गा) का, दांत से हाथी का, दाढ से वराह (सूअर) का, पिच्छ से मयूर का, खुर से घोड़े कर, नखों से व्याघ्र का, बालों के गुच्छे से चमरी माय का, द्विपद से मनुष्य का, चतुष्पद से गाय आदि का, बहु पदों से गोमिका आदि का, केसरसटा से सिंह का, ककुद (कांधले) से वृषभ का, चूड़ी सहित बाहु से महिला का अनुमान करना / तथा बद्धपरिकरता (योद्धा की विशेष प्रकार की पोशाक) से योद्धा का, वेष से महिला का, एक दाने के पकने से द्रोण-पाक का और एक गाथा से कवि का ज्ञान होना / 116 यह अवयवलिंगजन्य शेषवत्-अनुमान है। 447. से कि तं प्रासएणं ? आसएणं अग्गि धूमेणं, सलिलं बलगाहि, वुटुं अन्नविकारेणं, कुलपुत्तं सीलसमायारेणं / इङ्गिताकारितैज्ञेयः क्रियाभिर्भाषितेन च / नेत्र-वक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः // 117 // से तं आसएणं / से तं सेसवं / [447 प्र.) भगवन् ! प्राश्रयजन्य शेषवत्-अनुमान किसे कहते हैं ? [447 उ.} अायुग्मन् ! धूम से अग्नि का, बकपंक्ति से पानी का, अभ्रविकार (मेघविकार) से वृष्टि का और शील सदाचार से कुलपुत्र का तथा शरीर की चेष्टायों से, भाषण करने से और नेत्र तथा मुख के विकार से अन्तर्गत मनआन्तरिक मनोभाव का ज्ञान होना / यह पाश्रयजन्य शेषवत्-अनुमान है / यही शेषवत्-अनुमान है। विवेचन ऊपर शेषवत्-अनुमान का स्वरूप बतलाया है। कार्य से कारण का, कारण से कार्य का, गुण से गुणी का, अवयव से अवयवी का और पाश्रय से तदाश्रयवान् का अनुमान शेषवत्-अनुमान कहलाता है / सूत्र में उदाहरणों द्वारा यह स्पष्ट किया गया है। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 मनुचोगहारसूत्र कार्यानुमान में कार्य के होने पर उसके कारण का ज्ञान होता है। जैसे हिनहिनाहट रूप कार्य के द्वारा उसके कारण घोड़े की प्रतीति होती है / इसीलिये यह कार्यजन्य शेषषत्-अनुमान है। कारणानुमान में कारण के द्वारा कार्य की अनुमिति होती है। जैसे-आकाश में विशिष्ट मेघघटानों को देखने पर वष्टि का अनुमान किया जाता है, क्योंकि विशिष्ट प्रकार के मेघों से वृष्टि अवश्य होती ही है / विशिष्ट मेघ कारण हैं और वृष्टि कार्य है। कारण-कार्यभाव संबंधी मतभिन्नता का निवारण करने के लिए सरकार ने अन्य उदाहरण दिया है-तंतु पट के कारण होते हैं, पट तन्तुओं का कारण नहीं है। क्योंकि प्रातानवितानीभूत बने हुए तंतुम्रों से पहले पट की उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु पातानवितानीभूत बने हुए तंतुओं की सत्ता में ही होती है / परन्तु तन्तुषों के लिये ऐसी बात नहीं है, पट के अभाव में भी तंतुओं की उपलब्धि देखी जाती है। चाहे कोई निपुण पुरुष पट रूप से संयुक्त हुए तंतुनों को उस पद से अलग कर दे तब भी वह पट उन तंतुओं का कारण नहीं है। गुणजन्य शेषवत्-अनुमान से गुणों के द्वारा गुणी-वस्तु का ज्ञान होता है। जैसे कसौटी पर स्वर्ण को कसने से उभरी हुई रेखा से स्वर्ण का, गंध की उपलब्धि से पुष्प की जाति आदि का ज्ञान होता है / इस प्रकार के अनुमान को गुणजन्य शेषवत्-अनुमान कहा है / अवयव से अवयवी के अनुमान की प्रवृत्ति तभी होती है जब ढंके छिपे होने के कारण अवयवी न दिखता हो, मात्र तदविनाभावी अवयव की उपलब्धि हो रही हो / प्राश्रयानुमान में अग्नि का धूम से ज्ञान होना प्रादि जो उदाहरण दिये गये हैं, उनका प्राशय यह है कि धूम आदि अग्नि आदि के आश्रित रहते हैं। इसलिये धूम आदि को देखने से उनके प्राश्रयी का ज्ञान हो जाता है / यद्यपि धूम, अग्नि का कार्य है और ऐसा अनुमान कार्य से कारण के अनुमान में अन्तर्भूत होता है, तथापि उसे यहाँ जो आश्रयानुमान कहा है, उसका कारण यह है कि धूम अग्नि के प्राश्रय रहता है, ऐसी लोक में प्रसिद्धि है। इसे लक्ष्य में रखकर धम को प्राश्रित मानकर तदाश्रयी अग्नि का उसे अनुमापक कहा है / दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान 448. से कि तं दिटुसाहम्मवं ? दिष्टुसाहम्मकं दुविहं पण्णत्तं / तं जहा-सामन्नविठं च विसेसविट्ठ च। |448 प्र.] भगवन् ! दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान का क्या स्वरूप है ? |448 उ. आयुष्मन् ! दृष्टसाधर्म्यवत्-अतुमान दो प्रकार का कहा है / यथा-१. सामान्यदृष्ट, 2. विशेषदृष्ट / 446. से कि तं सामण्णविद्हें ? सामण्णादिळं जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [37 प्रमाणाधिकार निरूपण बहा एगो करिसावणो तहा बहले करिसावणा जहा महके करिसावमा तहा एगो करितामणो से तं सामण्णविळं। / 449 प्र. भगवन् ! सामान्यदृष्ट अनुमान का क्या स्वरूप है ? {449 उ. आयुष्मन् ! सामान्यदृष्ट अनुमान का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-जैसा एक पुरुष होता है, वैसे ही अनेक पुरुष होते हैं / जैसे अनेक पुरुष होते हैं, वैसा ही एक पुरुष होता है / जैसा एक कार्षापण (सिक्काविशेष) होता है वैसे ही अनेक कार्षापण होते हैं, जैसे अनेक कार्षापण होते हैं, वैसा ही एक कार्षापण होता है। यह सामान्यदृष्ट साधर्म्यवत्-अनुमान है / 450. से कि तं विससदिठं? विसेसदिळं से जहाणमाए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं बहूणं पुरिसाणं मज्झे पुस्वादिढें पच्चभिजाणेज्जा-अयं से पुरिसे, बतूर्ण वा करिसावणाणं माझे पुकदिळं करिसावणं पच्चभिजाणिज्जाअयं से करिमावगे। लस्स समासतो तिमिहं गहणं भवति / तं जहा--तोतकालगहणं पडषणकाल गहणं अणागतकालगहणं / |450 प्र. भगवन् ! विशेषदृष्ट अनुमान का क्या स्वरूप है ? 450 उ. आयुष्मन् ! विशेषदष्ट अनुमान का स्वरूप यह है-जैसे कोई एक पुरुष अनेक पुरुषों के बीच में किसी पूर्वदृष्ट पुरुष को पहचान लेता है कि यह वह पुरुष है। इसी प्रकार अनेक कार्षापणों (सिक्कामों) के बीच में से पूर्व में देखे हुए कार्षापण को पहिचान लेता है कि यह वही कार्षापण है। उसका विषय संक्षेप से तीन प्रकार का है। वह इस प्रकार - प्रतीतकालग्रहण, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) कालग्रहण और अनागत (भविष्य) कालग्रहण / (अर्थात् अनुमान द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्य इन नीनों कालों के पदार्थ का अनुमान किया जाता है / ) विवेचन-- यहाँ दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान का विचार किया गया है / पूर्व में दृष्ट-उपलब्ध पदार्थ की समानता के प्राधार पर होने वाले अनुमान को दृष्टसाधर्म्यवत् कहते हैं। पूर्व में कोई पदार्थ सामान्य रूप से दृष्ट होता है और कोई विशेष रूप से / इसीलिये दष्ट पदार्थ के भेद से इस अनुमान के सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट ये दो भेद हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी एक वस्तु को देखकर तत्सदश सभी वस्तुओं का ज्ञान करना या बहुत वस्तुओं को देखकर किसी एक का ज्ञान करना सामान्यदृष्ट है। विशेषदृष्ट में अनेक वस्तुओं में से किसी एक को पृथक् करके उसके कैशिष्ट्य का ज्ञान किया जाता है / शास्त्रकार ने इन दोनों अनुमानों के जो उदाहरण दिये हैं, उनमें से सामान्यदृष्टमाधर्म्यवत् के दृष्टान्त का प्राशय यह है कि एक में दृष्ट सामान्य धर्म की समानता से अन्य अदृष्ट अनेकों में भी Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36) अनुयोगदारसूत्र उस सामान्यधर्म का तथा अनेकों में दष्ट सामान्य से तदनुरूप एक में सामान्य का निर्णय किया जाता है। विशेषदृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान में भी यद्यपि सामान्य अंश तो अनुस्यूत रहता ही है, किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्व-दर्शन से प्राप्त संस्कारों से वर्तमान में उपलब्ध उसी पदार्थ को देखकर अनुमान कर लिया जाता है कि यह वही है जिसे मैंने पूर्व में देखा था / अब अनुकूल विषय की अपेक्षा तीन प्रकारों का वर्णन करते हैं४५१. से कितं तोतकालगहणं ? तोतकालगहणं उत्तिणाणि वणाणि निष्फण्णसस्सं वा मेदिणि पुण्णाणि य कुड-सर-दिशोहिया-तलागाई पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा--सुवट्ठी आसि / से तं तीतकालगहणं / [451 प्र. भगवन् ! अतीतकालग्रहण अनुमान का क्या स्वरूप है ? [451 उ.! आयुष्मन् ! बनों में ऊगी हुई घास, धान्यों से परिपूर्ण पृथ्वी, कुंड, सरोवर, नदी और बड़े-बड़े तालाबों को जल से संपूरित देखकर यह अनुमान करना कि यहाँ अच्छी वृष्टि हुई है। यह अतीतकालग्रहणसाधर्म्यवन्-अनुमान है। 452. से कि तं पडुप्पण्णकालगहणं ? पडुप्पण्णकालगहणं साहुं गोयरग्गगयं विच्छड्डियपउरभत्त-पाणं पासित्ता तेणं साहिज्जा जहा–मुभिक्खे वट्टइ / से तं पडुप्पण्णकालगहणं / |452 प्र. भगवन् ! प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) कालग्रहण अनुमान का क्या स्वरूप है ? [452 उ.] आयुष्मन् ! गोचरी गये हुए साधु को गृहस्थों से विशेष प्रचुर पाहार-पानी प्राप्त करते हुए देखकर अनुमान किया जाता है कि यहाँ सुभिक्ष है। यह प्रत्युत्पन्न कालग्रहण अनुमान है। 453. से कि तं अणागयकालगहणं ? अणागयकालगहणं अब्भस्स निम्मलत्तं कसिणा य गिरी सविज्जुया मेहा। थणियं वाउभामो संझा रत्ता य णिद्धा य // 118 // वारुणं वा माहिदं वा अण्णयरं वा पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा --सुवुट्ठी भविस्सइ / से तं अणागतकालगहणं / [453 प्र.] भगवन् ! अनागतकालग्रहण का क्या स्वरूप है ? 453 उ.! आयुष्मन् ! आकाश की निर्मलता, पर्वतों का काला दिखाई देना, विजली सहित मेघों की गर्जना, अनुकूल पवन और संध्या की गाढ लालिमा / 118 वारुण-आर्द्रा आदि नक्षत्रों में एवं माहेन्द्र-रोहिणी प्रादि नक्षत्रों में होने वाले अथवा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] किसी अन्य प्रशस्त उत्पात-उल्कापात या दिग्दाहादि को देखकर अनुमान करना कि अच्छी वृष्टि होगी। इसे अनागतकालग्रहणविशेषदृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान कहते हैं / विवेचन-यहाँ ग्रहणकाल की अपेक्षा अनुकूल विशेषदृष्ट-दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान का विवेचन किया गया है। विशेषता का विचार किसी न किसी आधारनिमित्त से किया जाता है / यहाँ काल के निमित्त से अनुकूल विशेष दृष्ट के तीन प्रकार बताये हैं। यद्यपि काल का कोई भेद नहीं है, वह अनन्तसमयात्मक है, किन्तु जब घड़ी, घंटा, मिनिट प्रादि व्यवहार से काल के खंड करते हैं तब स्थूल रूप से भूत, वर्तमान और भविष्य, ऐसा नामकरण करते हैं / जो ऊपर दिये गये कालविषयक उदाहरणों से स्पष्ट है / कालत्रयविषयक अनुमानों की व्याख्या इस प्रकार है---- 1. अतीतकाल से संबन्धित ग्राह्य वस्तु का जिसके द्वारा ज्ञान किया जाता है, उसे अतीतकालग्रहण-अनुमान कहते हैं। उसका अनुमानप्रयोग इस प्रकार है-'इह देशे सुवृष्टि : आसीत् समुत्पन्नतुणवनसस्यपूर्णमेदनीजलपूर्णकुण्डादिदर्शनात् तद्देशवत् / ' इसमें ग्राह्य वस्तु सुवृष्टि है, जिसका अतीतकाल में होना अनुमान द्वारा ग्रहण किया गया है। यहाँ सुवृष्टि हुई है, यह पक्ष है, तृण, धान्य, जलाशयादि ये उसके कार्य होने से हेतु और अन्यदेशवत् यह अन्वयदृष्टान्त है / इसी प्रकार ये तीन-तीन (पक्ष, हेतु और दृष्टान्त) सर्वत्र जानना चाहिये। 2. वर्तमानकालसंबन्धी वस्तु को ग्रहण करने वाले अनुमान को प्रत्युत्पन्नकालग्रहणअनुमान कहते हैं। जैसे—'इस प्रदेश में सुभिक्ष है' क्योंकि साधुओं को प्रचुर भोजनादि की प्राप्ति देखने में आती है / इसमें सुभिक्ष साध्य है और भोजनादि की प्राप्ति हेतु है / 3. भविष्यत्कालसंबन्धी. विषय जिसका ग्राह्य-साध्य हो, उसे अनागतकालग्रहण अनुमान कहते हैं / यथा--इस देश में सुष्टि होगी क्योंकि वृष्टिनिमित्तक आकाश की निर्मलता आदि लक्षण दिख रहे हैं, उस देश की तरह / इस अनुमानप्रयोग में सुवृष्टि साध्य है, अाकाश की निर्मलता दिखना हेतु और उस देश की तरह दृष्टान्त है / सुवृष्टि होने के अनुमापक नक्षत्र इस प्रकार हैं वरुण के नक्षत्र–१. पूर्वाषाढा, 2. उत्तराभाद्रपद, 3. आश्लेषा, 4. आर्द्रा, 5. मूल, 6. रेवती और 7. शतभिष / महेन्द्र के नक्षत्र-१. अनुराधा, 2. अभिजित, 3. ज्येष्ठा, 4. उत्तराषाढ़ा, 5. धनिष्ठा, 6. रोहिणी और 7. श्रवण / प्रतिकूलविशेषदृष्ट-साधर्म्यवत्-अनुमान के उदाहरण 454. एएसि चेव विवच्चासे तिविहं गहणं भवति / तं जहा--- तीतकालगहणं पडुप्पण्णकालगहणं अणागयकालगहणं / [454] इनकी विपरीतता में भी तीन प्रकार से ग्रहण होता है---अतीतकालग्रहण, प्रत्युत्पन्नकालग्रहण और अनागतकालग्रहण / Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 [अनुयोगबारसूत्र 455. से किं तं तीतकालगहणं ? नित्तणाई बणाई अनिष्फण्णसस्सं च मेतिणि सुक्काणि य कुड-सर-गदि-दह-तलागाई पासित्ता तेणं साहिज्जति जहा--कुवुट्ठी आसी / से तं तीतकालगहणं / [455 प्र.] भगवन् ! अतीतकालग्रहण का क्या स्वरूप है ? [455 उ.] आयुष्मन् ! तृणरहित वन, अनिष्पन्न धान्ययुक्त भूमि और सूखे कुंड, सरोवर, नदी, द्रह और तालाबों को देखकर अनुमान किया जाता है कि यहाँ कुवृष्टि हुई है-~-वृष्टि हुई नहीं है, यह अतीतकालग्रहण है। 456. से कि तं पडुप्पण्णकालगहणं ? पडुप्पण्णकालगहणं साहुं गोयरगमयं भिक्खं अलभमाणं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहादुभिक्खं वइ / से तं पडुप्पण्णकालगहणं / [456 प्र.] भगवन् ! प्रत्युत्पन्न-वर्तमानकालग्रहण का क्या स्वरूप है ? [456 उ.] आयुष्मन् ! गोचरी गये हुए साधु को भिक्षा नहीं मिलते देखकर अनुमान किया जाना कि यहाँ दुर्भिक्ष है / यह प्रत्युत्पनकालग्रहण-अनुमान है। 457. से कि तं प्रणागयकालगहणं? प्रणागयकालगहणं अग्गेयं वा वायव्वं वा अण्णयरं वा अप्पसत्थं उपायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा-कुट्ठी भविस्सइ / से तं अणागतकालगहणं / से तं विसेसदिट्ठ। से तं दिट्ठसाहम्मवं / से तं अणुमाणे / [457 प्र.] भगवन् ! अनागतकालग्रहण का क्या स्वरूप है ? [457 उ.] आयुष्मन् ! (जैसे)-आग्नेय मंडल के नक्षत्र, वायव्य मंडल के नक्षत्र या अन्य कोई उत्पात देखकर अनुमान किया जाना कि कुवृष्टि होगी, ठीक वर्षा नहीं होगी / यह अनागतकालग्रहण-अनुमान है। यही विशेषदृष्ट है / यही दृष्टसाधर्म्यवत् है। इस प्रकार से अनुमानप्रमाण का विवेचन जानना चाहिये। विवेचन-जैसे पूर्व में अनुकूलता की अपेक्षा विशेषदृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान के कालविषयक तीन उदाहरण दिये हैं, उसी प्रकार यहाँ प्रतिकूलग्रहण संबंधी तीन उदाहरणों का उल्लेख किया है / विपरीत हेतुओं-निमित्तों को देखकर तत्तत्कालभावी ग्राह्य वस्तुओं की सिद्धि का भी अनुमान किया जाता है / जैसे 1. तृणरहित वनों, सूखे खेतों और सूखे सरोवरों आदि को देखकर यह अनुमान किया जाता है कि इस देश में ठीक वर्षा नहीं हुई / यह अतीतकालग्रहण का अनुमान है। 2. वर्तमानकाल का ग्राहक अनुमान इस प्रकार से जानना चाहिए यहाँ दुभिक्ष है, क्योंकि साधुओं को भिक्षा नहीं मिलती। इसमें भिक्षुत्रों को भिक्षा प्राप्त नहीं होते देखकर अनुमान किया कि यहाँ दुर्भिक्ष है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] 3. भविष्यत्काल सम्बन्धी अनुमान, यथा-सभी दिशाओं में धुंग्रा हो रहा है, आकाश में भी प्रशभ उत्पात हो रहे हैं, इत्यादि से यह अनुमान कर लिया जाता है कि यहाँ कूवष्टि होगी, क्योंकि वृष्टि के अभाव के सूचक चिह्न दृष्टिगोचर हो रहे हैं / भविष्य में कुवृष्टिसूचक नक्षत्र इस प्रकार हैं आग्नेय मंडल के नक्षत्र--१. विशाखा 2. भरणी 3. पुष्य 4. पूर्वाफाल्गुनी 5. पूर्वाभाद्रपदा 6. मघा और 7. कृत्तिका / ___ वायव्य मंडल के नक्षत्र--१. चित्रा, 2. हस्त, 3. अश्वनी, 4. स्वाति, 5. मार्गशीर्ष, 6. पुनर्वसु और 7. उत्तराफाल्गुनी। ___ इन सबको अनुमान प्रमाण कहने का कारण यह है कि इनमें अनु-लिंगग्रहण और अविनाभावसंबन्ध के स्मरण के पश्चात् बोध होता है / ___ अनुमानप्रयोग के अवयव-प्रासंगिक होने से यहाँ अनुमानप्रयोग के अवयवों का कुछ विचार करते हैं / अनुमानप्रयोग के अवयवों के विषय में आगमों में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा गया है / लेकिन प्राचीन वादशास्त्र को देखने से यह पता चलता है कि प्रारंभ में किसी साध्य की सिद्धि में अधिकांशतः दृष्टान्त की सहायता अधिक ली जाती थी, जो अनुयोगद्वारसूत्रगत अनुमानप्रयोगों के उदाहरणों से स्पष्ट है। परन्तु जब हेतु का स्वरूप व्याप्ति के कारण निश्चित हुप्रा और हेतु से ही मुख्य रूप से साध्य की सिद्धि मानी जाने लगी तब हेतु और उदाहरण इन दोनों को साध्य के साथ मिलाकर प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण ये तीन अनुमान के अंग बन गये। फिर दर्शनान्तरों के शास्त्रों के दूसरे-दूसरे अवयवों का भी समावेश होने से इनकी संख्या दस तक पहुंच गई। आचार्य भद्रवाह ने दशवकालिकनियुक्ति में अतुमानप्रयोग के अवयवों की चर्चा की है। यद्यपि संख्या गिनाते हुए उन्होंने पांच' और दस अवयव होने की बात कही है किन्तु अन्यत्र उन्होंने मात्र उदाहरण या हेतु और उदाहरण से भी अर्थसिद्धि होने की सूचना दी है। दस अवयवों को भी उन्होंने दो प्रकार से गिनाया है। इस प्रकार भद्रबाहु के मत में अनुमानवाक्य के दो, तीन, पांच या दस अवयव होते हैं / अवयव इस प्रकार हैं-- 2. प्रतिज्ञा, उदाहरण; 3. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण; 5. प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपसंहार, निगमन / 10. (क) प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविशुद्धि, हेतु, हेतुविशुद्धि, दृष्टान्त, दृष्टान्तविशुद्धि, उपसंहार, उपसंहारविशुद्धि, निगमन, निगमनविशुद्धि / 1. दशवकालिक नियुक्ति 2. वही गाथा 50 3. वही गाथा 49 4. वही गाथा 137 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372] अनुयोगद्वारसूत्र 10 (ख) प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविभक्ति, हेतु, हेतुविभक्ति, विपक्ष, विषक्ष-प्रतिषेध, दृष्टान्त, आशंका, आशंकाप्रतिषेध, निगमन / लेकिन अनुमानप्रयोग में कितने अवयव होने चाहिये इस विषय में जैनदर्शन का कोई प्राग्रह नहीं है / सर्वत्र यह स्वीकार किया है कि जितने अवयवों से जिज्ञासु को तद्विषयक ज्ञान हो जाये उतने ही अवयवों का प्रयोग करना चाहिये। ___इस प्रकार से भावप्रमाण के दूसरे भेद अनुमान की चर्चा करने के बाद अब तीसरे भेद उपमान का वर्णन करते हैं / उपमानप्रमाण 458. से कि तं ओवम्मे ? ओवम्मे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा-साहम्मोवणीते य वेहम्मोवणीते य / [458 प्र.] भगवन् ! उपमान प्रमाण का क्या स्वरूप है ? [458 उ.] उपमान प्रमाण दो प्रकार का कहा है, जैसे -माधोपनीत और वैधोपनीत / विवेचन यहाँ भेदमुखेन उपमान प्रमाण का वर्णन किया गया है। सदृशता के आधार पर वस्तु को ग्रहण करना उपमान है। उपमा दो प्रकार से दी जा सकती है--समान-सदृश गुणधर्म वाले तुल्य पदार्थ को देखकर अथवा विसदश गुणधर्म वाले पदार्थ को देखकर / इसीलिये उपमान प्रमाण के दो भेद बताये 1. साधोपनीत और 2. वैधोपनीत / समानता के आधार से जो उपमा दी जाती है उसे साधोपनीत कहते हैं तथा दो अथवा अधिक पदार्थों में जिसके द्वारा विलक्षणता बतलाई जाती हैं उसे वैधोपनीत कहते हैं। यह साधर्म्य और वैधर्म्य किंचित, प्राय: और सर्वत: इन प्रकारों द्वारा व्यक्त होता है। इसी अपेक्षा से इनके तीन-तीन अवान्तर भेद हो जाते हैं, जिनका स्पष्टीकरण करते हैं--- साधोपनीत उपमान 456. से कि तं साहम्मोवणीए ? साहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते / तं० ----किचिसाहम्मे पायसाहम्मे सवसाहम्मे य / [459 प्र. भगवन् ! साधोपनीत-उपमान किसे कहते हैं / [459 उ.| आयुष्मन् ! जिन पदार्थों की सदृशत उपमा द्वारा सिद्ध की जाये उसे साधोपनीत कहते हैं। उसके तीन प्रकार हैं-१. किंचित्साधोपनीत, 2. प्रायःसाधम्योपनीत और 3. सर्वसाधोपनीत / 460. से कि तं किंचिसाहम्मे ? किचिसाहम्मे जहा मंदरो तहा सरिसवो जहा सरिसवो तहा मंदरो, जहा समुद्दो तहा गोप्पयं जहा गोप्पयं तहा समुद्दो, जहा प्राइच्चो तहा खज्जोतो, जहा खज्जोतो तहा आइच्चो, जहा चंदो तहा कुंदो जहा कुदो तहा चंदो / से तं किंचिसाहम्मे / Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूयण] [373 [460 प्र.] भगवन् ! किंचित्साधोपनीत किसे कहते हैं ? [460 उ.] आयुष्मन् ! जैसा मंदर (मेरु) पर्वत है वैसा ही सर्षप (सरसों) है और जैसा सर्षप है वैसा ही मन्दर है। जैसा समुद्र है, उसी प्रकार गोष्पद-(जल से भरा गाय के खुर का निशान) है और जैसा गोष्पद है, वैसा ही समुद्र है तथा जैसा आदित्य--सूर्य है, वैसा खद्योत-जुगुन है / जैसा खद्योत है, वैसा आदित्य है। जैसा चन्द्रमा है, वैसा कुंद पुष्प है, और जैसा कुंद है, बेसा चन्द्रमा है। यह किंचित्साधोपनीत है। 461. से कि तं पायसाहम्मे ? पायसाहम्मे जहा गो तहा गवयो, जहा गवयो तहा गो। से तं पायसाहम्मे / [461 प्र.भगवन् ! प्रायःसाधोपनीत किसे कहते हैं ? [461 उ.] आयुष्मन् ! जैसी गाय है वैसा गवय (रोझ) होना है और जैसा गत्रय है, वैसी गाय है / यह प्रायःसाधोपनीत है / 462. से कि तं सन्धसाहम्मे ? सव्वसाहम्मे ओवम्म पत्थि, तहा वि तेणेव तस्स प्रोवम्मं कीरइ, जहा–अरहंतेहिं अरहंतसरिसं कयं, एवं चक्कट्टिणा चक्कवट्टिसरिसं कयं, बलदेवेण बलदेवसरिसं कयं, वासुदेवेण वासुदेवसरिसं कयं, साहुणा साहुसरिसं कथं / से तं सव्वसाहम्मे / से तं साहम्मोबणीए / [462 प्र.] सर्वसाधोपनीत किसे कहते हैं ? [462 उ.] अायुष्मन् ! सर्वसाधर्म्य में उपमा नहीं होती, तथापि उसी से उसको उपमित किया जाता है। वह इस प्रकार-अरिहंत ने अरिहंत के सदृश, चक्रवर्ती ने चक्रवर्ती के जैसा, बलदेव ने बलदेव के सदृश, वासुदेव ने वासुदेव के समान, साधु ने साधु सदश किया / यही सर्वसाधोपनीत thor यह साधोपनीत उपमानप्रमाण है। विवेचन---प्रस्तुत में उपमानप्रमाण के प्रथम भेद साधोपनीत के अवान्तर भेदों का वर्णन किया है। दो भिन्न पदार्थों में आंशिक गुण-धर्मों की समानता देखकर एक को दूसरे की उपमा देना साधोपनीत उपमान है। यह उपमान एकदेशिक भी हो सकती है-कतिपय वर्ण-गंध-रस-स्पर्श की अपेक्षा भी और कुछ उससे भी अधिक एक जैसी रूप तथा अत्यल्प भिन्नता वाली हो सकती है और कुछ ऐसी भी जो सर्वात्मना सदृश हो। इसी अपेक्षा साधोपनीत के तीन भेद होते हैं। किंचित्साधोपनीत में कुछ-कुछ समानता को लेकर उपमा दी जाती है। इसके लिए सूत्रकार ने जो उदाहरण दिये हैं उनमें सर्षप और मेरुपर्वत के बीच प्राकार-संस्थान आदि की अपेक्षा भेद हैं, तथापि दोनों मूर्तिमान हैं और रूप-रस-गंध-स्पर्शवान होने से पौद्गलिक हैं / इसी प्रकार से सूर्य और खद्योत में मात्र प्रकाशकत्व की अपेक्षा, समुद्र एवं गोष्पद में जलवत्ता तथा चन्द्र तथा कुंद Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374] [अनुयोगद्वारसूत्र में शुक्लता की अपेक्षा समानता है। अन्यथा उन सबमें महान् अंतर स्पष्ट है / इसीलिये ऐसी उपमा किंचित्साधोपनीत कहलाती है। किंचित्साधम्र्योपनीत से प्रायःसाधोपनीत उपमा का क्षेत्र व्यापक है। इसमें उपमेय और उपमान पदार्थगत समानता अधिक होती है और असमानता अल्प-नगण्य जैसी। जिससे श्रोता उपमेय वस्तु को तत्काल जान लेता है। किंचित्साधोपनीत वस्तु का ज्ञान करना तत्काल सम्भव नहीं है। इसको समझने के लिये अधिक स्पष्टीकरण अपेक्षित होता है / यही दोनों में अन्तर है। प्राय साधोपनीत के लिये गो और गवय का उदाहरण दिया है। इसमें गो सास्नादि युक्त है और गवय (नीलगाय) वर्तुलाकार कंठ वाला है। लेकिन खुर, ककुद, सींग आदि में समानता है। इसीलिये यह प्रायःसाधोपनीत का उदाहरण है। सर्वसाधोपनीत में सर्व प्रकारों से समानता बताने के लिये उसी से उसको उपमित किया जाता है / अतएव कदाचित् यह कहा जाये कि उपमा तो दो पृथक् पदार्थों में दी जाती है। सर्व प्रकारों से समानता तो किसी में भी किसी के साथ घटित नहीं होती है। यदि इस प्रकार से समानता घटित होने लगे तो फिर दोनों में एकरूपता होने से उपमान का यह तीसरा भेद नहीं बन सकेगा। तो इसका उत्तर यह है: यह सत्य है कि दो वस्तुओं में सर्वप्रकार से समानता नहीं मिलती है, फिर भी सर्वप्रकार से समानता का तात्पर्य यह है कि उस जैसा कार्य अन्य कोई नहीं कर सकता है। इसीलिये अरिहंत आदि के उदाहरण दिये हैं कि तीर्थ का स्थापन करना इत्यादि कार्य अरिहंत करते हैं, उन्हें अन्य कोई नहीं करता है / लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि किसी के किये हुए अद्भुत कार्य के लिये कहा जाता है- इस कार्य को प्राप ही कर सकते हैं अथवा आपके तुल्य जो होगा, वही कर सकता है, अन्य नहीं। इसी दृष्टि से सर्वसाधोपनीत को उपमानप्रमाण का पृथक् भेद माना है।' अब उपमानप्रमाण के दूसरे भेद वैधोपनीत का कथन करते हैंवैधोपनीत उपमानप्रमाण 463. से कि तं वेहम्मोवणीए ? वेहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-किचिवेहम्मे पायवेहम्मे सव्ववेहम्मे / [463 प्र.] भगवन् ! वैधोपनीत का तात्पर्य क्या है ? [463 उ.] आयुष्मन् ! वैधोपनीत के तीन प्रकार हैं, यथा--१. किंचित्वैधोपनीत, 2. प्राय:वैधोपनीत और 3. सर्ववैधयोपनीत / 464. से कि तं किचिवेहम्मे ? किचिवेहम्मे जहा सामलेरो न तहा बाहुलेरो, जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो / से तं किचिवेहम्मे। 1. सर्वसाधोपनीत के लिये यह संस्कृत लोकोक्ति प्रसिद्ध है-- गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः / रामरावणयोयुद्ध रामरावणोरिव / / Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [375 [464 प्र.] भगवन् ! किंचित्वैधयोपनीत का क्या स्वरूप है ? [464 उ.] आयुष्मन् / किसी धर्मविशेष की विलक्षणता प्रकट करने को किंचितवैधयोपनीत कहते हैं / वह इस प्रकार जैसा शबला गाय (चितकबरी गाय) का बछड़ा होता है वैसा बहुला गाय (एक रंग वाली गाय) का बछड़ा नहीं और जैसा बहुला गाय का बछड़ा वैसा शबला गाय का नहीं होता है / यह किंचितवैधयोपनीत का स्वरूप जानना चाहिये / / 465. से किं तं पायवेहम्मे ? पायवेहम्मे जहा वायसो न तहा पायसो, जहा पायसो न तहा वायसो / से तं पायवेहम्मे / [465 प्र.] भगवन् ! प्राय:वैधोपनीत किसे कहते हैं ? [465 उ.] आयुष्मन् ! अधिकांश रूप में अनेक अवयवगत विसदृशता प्रकट करने को प्राय:वैधोपनीत कहते हैं / यथा--जैसा वायस (कौमा) है वैसा पायस (खीर) नहीं होता और जैसा पायस होता है वैसा वायस नहीं / यही प्राय वैधोपनीत है। 466. से कि तं सव्ववेहम्मे ? सम्ववेहम्मे नस्थि, तहा वि तेणेव तस्स ओवम्म कीरइ, जहा–णीएणं णीयसरिसं कयं, दासेणं वाससरिसं कयं, काकेण काकसरिसं कयं, साणेणं साणसरिसं कयं, पाणणं पाणसरिसं कयं / से तं सन्ववेहम्मे / से तं वेहम्मोवणीए / से तं ओवम्मे। [466 प्र.] भगवन् ! सर्ववैधोपनीत का क्या स्वरूप है ? [466 उ.] आयुष्मन् ! जिसमें किसी भी प्रकार की सजातीयता न हो उसे सर्ववैधोपनीत कहते हैं / यद्यपि सर्ववैधर्म्य में उपमा नहीं होती है, तथापि उसी की उपमा उसी को दी जाती है, जैसे-नीच ने नीच के समान, दास ने दास के सदश, कौए ने कौए जैसा, श्वान (कुत्ता) ने श्वान जैसा और चांडाल ने चांडाल के सदृश किया / यही सर्ववैधर्योपनीत है। यही वैधोपनीत उपमानप्रमाण का प्राशय है। यह उपमान प्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-उक्त प्रश्नोत्तरों में उपमानप्रमाण के दूसरे भेद वैधोपनीत का विचार किया है। यह वैधोपनीत विलक्षणता का बोध कराता है और उसके भी तीन भेद हैं। किंचित वैधोपनीत में सामान्य धर्म की अपेक्षा भेद नहीं है / गोगत धर्मों की अपेक्षा दोनों में तुल्यता है, लेकिन माता पृथक्-पृथक् प्रकार की होने से वर्णभेद अवश्य है / इसी कारण किंचित् विलक्षणता प्रकट की गई है। / प्राय:वैधोपनीत में अनेक अवयवगत विसदृशता पर ध्यान रखा जाता है। वायस और पायस के नाम में दो अक्षरों की समानता है, किन्तु वायस चेतन है और पायस जड़ पदार्थ है / इसलिये दोनों में साम्य नहीं हो सकता है / इस विधर्मता के कारण प्राय:वैधयंता कही गई है। यद्यपि सर्ववैधोपनीत में भी सर्वसाधोपनीत की तरह उसकी उपमा उसी को दी जाती है, फिर भी उसे इसलिये पृथक् माना है कि प्रायः नीच भी जब गुरुघात आदि महापाप नहीं करता Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र तो फिर अनीच करेगा ही कैसे? अतः सकल जगत् के विरुद्ध कर्म में प्रवृत्त होने की विवक्षा से सर्ववैधोपनीतता बताने के लिये सर्ववैधोपनीत उपमानप्रमाण का निर्देश किया है। अब क्रमप्राप्त आगमप्रमाण का विचार करते हैं। प्रागमप्रमाणनिरूपण 467. से कि तं आगमे? आगमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-लोइए य लोगुरिए य / [467 प्र.] भगवन् ! अागमप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [467 उ.] आयुष्मन् ! अागम दो प्रकार का है / यथा-१. लौकिक 2. लोकोत्तर / 468. से कि तं लोइए? लोइए जण्णं इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्ठोएहि सच्छंदबुद्धिमतिविगप्पियं / तं जहा--भारहं रामायणं जाव चत्तारि य वेदा संगोवंगा / से तं लोइए आगमे / [468 प्र.] भगवन् ! लौकिक आगम किसे कहते हैं ? [468 उ.] आयुष्मन् ! जिसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जनों ने अपनी स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचा हो, उसे लौकिक आगम कहते हैं। यथा—महाभारत, रामायण यावत् सांगोपांग चार वेद / ये सब लौकिक पागम हैं / 469. से कि तं लोगुत्तरिए? लोगुत्तरिए जं इमं अरहंतेहि भगवंतेहि उप्पण्णणाण-दसणधरेहि तीय-पच्चुप्पण्ण-मणागयजाणएहि तेलोक्कवहिय-महिय-पूइएहि सवण्णूहि सम्बदरिसीहि पणीयं दुवालसंग गणिपिडगं / तं जहा-आयारो जाव दिहिवाओ / से तं लोगुत्तरिए आगमे / [469 प्र.] भगवन् ! लोकोत्तर आगम का क्या स्वरूप है ? [469 उ.] आयुष्मन् ! उत्पन्नज्ञान-दर्शन के धारक, अतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) और अनागत के ज्ञाता त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा सहर्ष वंदित, पूजित सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहंत भगवन्तों द्वारा प्रणीत आचारांग यावत् दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग रूप गणिपिटक लोकोत्तरिक आगम हैं। 470. अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुत्तागमे य अस्थागमे य तदुभयागमे य / अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते / तं०–अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे य / तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अस्थस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे, तेण परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे जो अणंतरागमे परंपरागमे / से तं लोगुत्तरिए / से तं आगमे / से तं णाणगुणप्पमाणे / [470] अथवा ( प्रकारान्तर से लोकोतरिक ) आगम तीन प्रकार का कहा है / जैसे१. सूत्रागम, 2. अर्थागम और 3. तदुभयागम / Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [377 अथवा (लोकोत्तरिक) श्रागम तीन प्रकार का है। यथा-१. अात्मागम, 2. अनन्तरागम, और 3. परपरागम / अर्थागम तीर्थंकरों के लिये प्रात्मागम है। सूत्र का ज्ञान गणधरों के लिये प्रात्मागम और अर्थ का ज्ञान अनन्तरागम रूप है। गणधरों के शिष्यों के लिये सूत्रज्ञान अनन्तरागम और अर्थ का ज्ञान परम्परागम है। / तत्पश्चात् सूत्र और अर्थ रूप आगम आत्मागम भी नहीं है, अनन्तरागम भी नहीं है, किन्तु परम्परागम है / इस प्रकार से लोकोत्तर आगम का स्वरूप जानना चाहिये। यही पागम और ज्ञानगुणप्रमाण का वर्णन है। विवेचन--प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में ज्ञानगुणप्रमाण के अन्तिम भेद आगम का वर्णन करके अन्त में उसकी समाप्ति का उल्लेख किया है। प्राचीनकाल में जिज्ञासु श्रद्धाशील व्यक्ति धर्मशास्त्र के रूप में माने जाने वाले अपने-अपने साहित्य को कंठोपकंठ प्राप्त करके स्मरण रखते थे। इसीलिये उन धर्मशास्त्रों की श्रुत यह संज्ञा है। जैन परम्परा के शास्त्र भी प्राचीनकाल में श्रुत या सम्यक् श्रुत के नाम से प्रसिद्ध थे / श्रुत शब्द का अर्थ है सुना हुआ। लेकिन इस शब्द से शास्त्रों का विशिष्ट माहात्म्य प्रकट नहीं हो सकने से प्रागम शब्द प्रयुक्त किया जाने लगा। आगम' शब्द को व्याख्या ग्रन्थों में निरुक्तिमूलक से लेकर कर्ता की विशेषताओं आदि का बोध कराते हुए की गई पागम शब्द की व्याख्याओं का सारांश इस प्रकार है-- (गुरुपारम्पर्येण) आगच्छतीत्यगमः-गुरुपरम्परा से जो चला आ रहा है उसे आगम कहते हैं ! इस निरुक्ति से यह स्पष्ट हुअा कि आगम शब्द कंठोपकंठ श्रुतपरम्परा का वाचक है तथा श्रुत और आगम शब्द एकार्थवाची हैं। वर्ण्य विषय का परिज्ञान कराने की दृष्टि से अागम शब्द की लाक्षणिक व्याख्या यह हैआ समन्ताद् गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति आगमः—जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा भलीभांति जाने जायें वह आगम है। अर्थात् जिसके द्वारा अनन्त धर्मों से विशिष्ट जीब-अजीव आदि पदार्थ जाने जाते हैं ऐसी प्राज्ञा आगम है / अथवा वीतराग सर्वज्ञ देव द्वारा कहे गये षड् द्रव्य और सप्त तत्त्व आदि का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा व्रतादि का अनुष्ठान रूप चारित्र इस प्रकार से रत्नत्रय का स्वरूप जिसमें प्रतिपादित किया गया है, उसको प्रागम या शास्त्र कहते हैं। आगम का कर्ता कौन हो सकता है ? इसको स्पष्ट करते हुए आगम की व्याख्या की है--- जिसके सर्वदोष प्रक्षीण हो गये हैं, ऐसे प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा प्रणीत शास्त्र अागम शब्द के वाच्य हैं। अर्थात् जन्म, जरा आदि अठारह दोषों का नाश हो जाने से जो कदापि असत्य वचन नहीं बोलता ऐसे प्राप्त के वचन को पागम कहते हैं और इस प्राप्तोक्त पागम की प्रामाणिकता इसलिये है कि न्यूनाधिकता एवं विपरीतता के विना यथा-तथ्य रूप से वस्तु-स्वरूप का उसमें प्रतिपादन किया जाता है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378] [अनुयोगद्वारसूत्र आगम के भेद-प्रथम आगम के दो भेद किये हैं- लौकिक और लोकोत्तर / इनका भावश्रुत के वर्णन के प्रसंग में विचार किया जा चुका है। अतएव यहाँ प्रकारान्तर से किये गये प्रागम के तीनतीन भेदों का विचार करते हैं / वे इस प्रकार हैं प्रथम प्रकार 1. अर्थागम, 2. सूत्रागम, 3. तदुभयागम / द्वितीय प्रकार-१. अात्मागम, 2. अनन्तरागम, 3. परम्परागम / __जब अर्थ (भाव) और सूत्र की अपेक्षा आगम का विचार किया जाता है, तब अर्थागम आदि उक्त तीन भेद होते हैं। क्योंकि तीर्थंकर अर्थ का उपदेश करते हैं और गणधर उसके आधार से सूत्र की रचना करते हैं।' अत: इस प्रकार अर्थागम और सूत्रागम यह दो भेद हुए / तीसरा भेद इन दोनों का सम्मिलित रूप है। दुसरी अपेक्षा से उक्त तीनों भेदों का नामकरण किया है—यात्मागम आदि रूप में / तीर्थकर अर्थोपदेष्टा हैं और गणधर उस अर्थ को सूत्रबद्ध करते हैं। अतएव तीर्थकर के लिये अर्थरूप आगम और गणधरों के लिये सूत्ररूप प्रागम आत्मागम है / अर्थ का मूल उपदेश तीर्थकर का होने से अर्थागम गणधर के लिये आत्मागम नहीं किन्तु गणधरों को लक्ष्य करके अर्थ का उपदेश दिया है इसलिये अर्थागम गणधरों के लिये अनन्तरागम और गणधरशिष्यों के लिये परम्परागम है / क्योंकि वह तीर्थंकर से गणधरों को प्राप्त हुआ और गणधरों से उनके शिष्यों को। सूत्ररूप आगम गणधरशिष्यों के लिये अनन्तरागम है, क्योंकि गणधरों से सूत्र का उपदेश साक्षात् उनको मिला है और गणधरशिष्यों के बाद होने वाले प्राचार्यों के लिये अर्थ और सूत्र उभय रूप आगम परम्परागम ही है। प्रागम के उपर्युक्त सभी प्रकार विशिष्ट शब्दरूप हैं और विशिष्ट शब्दों की उत्पत्ति पुरुष के ताल्वादि के व्यापार द्वारा होने से पौरुषेय-पुरुषकृत है, अपौरुषेय नहीं / यह संकेत करने के लिये सूत्र में 'पणीअं-प्रणीत' शब्द का प्रयोग किया है। यदि कहा जाये कि अनादि-अनिधन होने से शब्द का कभी विनाश नहीं होता, किन्तु उस पर आवरण पा जाता है। ताल्वादि का व्यापार उस प्रावरण को हटाकर अभिव्यक्त कर देता है, उत्पन्न नहीं करता है। सर्वदा रहने वाले की अभिव्यक्ति होती है, उत्पत्ति नहीं। किन्तु यह कथन अयुक्त है। क्योंकि एकान्तत: ऐसा माना जाये तो फिर संसार के जितने भी वचन हैं, वे सब अपौरुषेय हो जायेंगे, तब अमुक पागम प्रमाण है और अमुक आगम अप्रमाण, इसकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसके अतिरिक्त शब्द मूर्तिक हैं अर्थात् भाषावर्गणा के पुद्गलों से निष्पन्न होने के कारण मूर्त हैं। आकाश की तरह अमूर्त नहीं हैं। शब्दों की पौद्गलिकता प्रसिद्ध भी नहीं है / क्योंकि नगाड़े आदिजन्य महाघोष से कान की झिल्ली तक फट जाती है तथा भीत आदि के कारण अभिघात भी होता है और यह अभिधात प्रादि होना प्रत्यक्षसिद्ध है, अतः शब्द पौद्गलिक है। सारांश यह है कि शब्द एकान्ततः अपौरुषेय नहीं है कथंचित् पौरुषेय और कथंचित् अपौरुषेय है / अर्थात् पौद्गलिक भाषावर्गणाओं का परिणाम होने से अपौरुषेय तथा पुरुष के ताल्वादिक के व्यापार से जन्य होने से पौरुषेय है। 1. अत्थं भास इ अरहा, सुतं गंथति गणहरा निउणं / Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [379 इस प्रकार से ज्ञानगुणप्रमाण का निरूपण करने के बाद अब भावप्रमाण के दूसरे भेद दर्शनगुणप्रमाण का वर्णन करते हैं / दर्शनगुणप्रमाण 471. से कि तं दसणगुणप्पमाणे? दसणगुणप्पमाणे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-चक्खुदसणगुणप्पमाणे अचक्खुदसणगुणप्पमाणे ओहिसणगुणप्पमाणे केवलदंसणगुणप्पमाणे य / चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स घड-पड-कड-रधादिएसु दम्वेसु, अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स आयभावे, ओहिदंसणं ओहिदंसणिस्स सन्वरूविदज्वेहि न पुण सम्बपज्जवेहि, केवलदसणं केवलदंसणिस्स सव्वदग्धेहि सव्वपज्जबेहि य / से तं दसणगुणप्पमाणे / [471 प्र.] भगवन् ! दर्शन गुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [471 उ.] आयुष्मन् ! दर्शनगुणप्रमाण चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारचक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अचक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अवधिदर्शनगुणप्रमाण और केवलदर्शनगुणप्रमाण / चक्षुदर्शनी का चक्षुदर्शन घट, पट, कट, रथ आदि द्रव्यों में होता है। __ अचक्षुदर्शनी का अचक्षुदर्शन प्रात्मभाव में होता है अर्थात् घटादि पदार्थों के साथ संश्लेष-- संयोग होने पर होता है। अवधिदर्शनी का अवधिदर्शन सभी रूपी द्रव्यों में होता है, किन्तु सभी पर्यायों में नहीं होता है। केवलदर्शनी का केवलदर्शन सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायों में होता है / यही दर्शनगुणप्रमाण है। विवेचन-जीव में अनन्त गुण हैं / उनमें से ज्ञानगुण का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। प्रत्येक द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक है / समान रूप से सभी द्रव्यों में पाये जाने वाले गुणधर्मों को सामान्य और असाधारण धर्मों को विशेष धर्म कहते हैं। ये दोनों प्रकार के धर्म प्रत्येक द्रव्य में हैं और इन दोनों को जानने-देखने वाले गुण दर्शन और ज्ञान हैं / ज्ञान द्वारा द्रव्यगत विशेष धर्मों और दर्शन द्वारा सामान्य धर्मों का परिज्ञान किया जाता है। जैसे ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम आदि होने से ज्ञान द्वारा पदार्थों का विशेष रूप में पृथक-पृथक् विकल्प, नाम, संज्ञापूर्वक ग्रहण होता है वैसे ही दर्शनावरणकर्म का क्षयोपशम आदि होने से पदार्थों का जो सामान्य ग्रहण होता है. उसे दर्शन कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कोई किसी पदार्थ को देखता है और जब तक वह देखने वाला विकल्प न करे तब तक जो सत्तामात्र का ग्रहण है, उसे दर्शन और जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूप से विकल्प उत्पन्न होता है तब उसको ज्ञान कहते हैं। दर्शन में सामान्य की मुख्यता है और विशेष गौण, जबकि ज्ञान में सामान्य गौण और विशेष मुख्य होता है। दर्शन यद्यपि सामान्य को विषय करता है परन्तु वक्षदर्शन के उदाहरणों में घटादि विशेषों का उल्लेख यह संकेत करने के लिये किया गया है कि सामान्य और विशेष में कथंचित् अभेद होने Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] [अनुयोगद्वारसूत्र से वह एकान्ततः विशेषव्यतिरिक्त सामान्य को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि विशेषरहित सामान्य खरविषाण जैसा होता ही नहीं / इसलिये विशेषों का सामान्य ग्रहण करना दर्शन कहा है।' दर्शन भी ज्ञान की तरह अात्मा का गण है। इसीलिये प्रमाणविचार के प्रसंग में इसका निरूपण किया है। दर्शन के भेद और लक्षण---दर्शनगुण प्रमाण के चार भेदों के लक्षण इस प्रकार हैं 1. भावचक्षरिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम एवं चक्षु रूप द्रव्येन्द्रिय के अनुपघात से चक्षुदर्शनलब्धि वाले जीव को घट आदि पदार्थों का चक्षु से सामान्यावलोकन होना चक्षुदर्शन है / चक्षुदर्शनसम्पन्न जीव तदावरणकर्म / के क्षयोपशम एवं चक्षुरिन्द्रिय के अवलंबन से मूर्त द्रव्य का विकल रूप से (एक देश से) सामान्यतः अवबोध करता है। 2. चक्षु के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों एवं मन से होने वाले पदार्थों के सामान्य बोध को अचक्षुदर्शन कहते हैं / यह अचक्षुदर्शन भाव-प्रचक्षरिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के अनुपघात से अचक्षुदर्शनलब्धिसंपन्न जीव के घटादि पदार्थों का संश्लेष रूप संबन्ध होने पर होता है / चक्षुरिन्द्रिय और मन अप्राध्यकारी हैं। अर्थात् ये दोनों पदार्थों के साथ संश्लिष्ट होकर पदार्थों का दर्शन नहीं करते हैं। वे उनसे पृथक रहकर ही अपने विषयों को जानते हैं / इसी बात का संकेत करने के लिये अचक्षुदर्शन के प्रसंग में सूत्रकार ने 'प्रायभावे-आत्मभाव पद दिया है। चक्षु और मन के सिबाय शेष श्रोत्रादिक इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं, अर्थात् पदार्थ के साथ संश्लिष्ट होकर ही अपने विषय का अवबोध करती हैं। ___यद्यपि चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन से सामान्यतः विकल रूप से पदार्थ का बोध होता है, तथापि दोनों में यह अंतर है कि चक्षुदर्शन का विषय मूर्तद्रव्य है एवं अचक्षुदर्शन के विषय मूर्त और अमुर्त दोनों प्रकार के द्रव्य हैं। 3. अयधिदर्शनावरणकर्म के क्षयोपशम से जो समस्त रूपी पदार्थों का अवधिदर्शनलब्धिसंपन्न जीव को सामान्यावलोकन होता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं / अर्थात् परमाणु से लेकर सर्वमहान् अंतिम स्कन्ध तक के मूर्त द्रव्य को जो प्रत्यक्ष देख सकता है, वह अवधिदर्शन है / अवधिदर्शन मूर्त द्रव्य की सर्व पर्यायों में नहीं होता है किन्तु विकल रूप से देशत: सामान्य अवबोधन कराता है। इसीलिये सूत्र में पद दिया है 'सवरूविदव्वेहि न पुण सम्बपज्जवेहिं / ' क्योंकि अवधिदर्शन की विषयभुत पर्यायें उत्कृष्ट एक पदार्थ की संख्यात अथवा असंख्यात और जघन्य रूप से रूप, रस, गध और स्पर्श ये चार बताई हैं। -अनुयोगवृत्ति, पृ. 220 1. निविशेष हि सामान्यं भवेत खरबिपाणवत / 2. पुढ सुणे सद्रू वं पुण पासई अपुट्ट तु / 3. दब्बानी असंखेज्जे संखेज्जे प्रावि पज्जवे लहर। दो पज्जवे दुगुणिए लहइ य एगाउ दवाओ / / - अनु. मलधारीया वृत्ति पृ. 230 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण) [381 4. समस्त रूपी और अरूपी पदार्थों को सामान्य रूप से जानने वाले परिपूर्ण दर्शन को केवलदर्शन कहते हैं। यह केवलदर्शनावरणकर्म के क्षय से आविर्भूत लब्धि से संपन्न जीव को मूर्त और अमूर्त समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों में होता है। अवधिदर्शन की तरह मनःपर्यायदर्शन को पृथक् न मानने का कारण यह है कि जिस प्रकार मनःपर्यायज्ञानी भत और भविष्य को जानता तो है पर देखता नहीं तथा वर्तमान में भी मन के विषय को विशेषाकार से ही जानता है / अतः सामान्यावलोकनपूर्वक प्रवृत्ति न होने से मनःपर्यायदर्शन नहीं माना है / यह दर्शनगुणप्रमाण की वक्तव्यता का सारांश है। चारित्रगुरणप्रमाण 472. से कि तं चरित्तगुणप्पमाणे ? चरित्तगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-सामाइयचरित्तगुणप्पमाणे छेदोक्ट्ठावणियचरित्तगुणप्पमाणे परिहारविसुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे सुहमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे। सामाइयचरित्तगुणपमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-इत्तरिए य आवकहिए य / छेदोवट्ठावणियचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सातियारे व निरतियारे य।। परिहार विसुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-णिविसमाणए य णिविटुकायिए य। सुहुमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–संकिलिस्समाणयं च विसुज्झमाणयं च। अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे दुबिहे पणत्ते / तं जहा–पडिवाई य अपडिवाई य-छउमत्थे य केवलिए य / से तं चरित्तगुणप्पमाणे / से तं जीवगुणप्पमाणे / से तं गुणप्पमाणे / [472 प्र.} भगवन् ! चारित्रगुणप्रमाण किसे कहते हैं ? [472 उ.] अायुग्मन् ! चरित्रगुणप्रमाण के पांच भेद हैं। वे इस प्रकार-१ सामायिकचारित्रगुणप्रमाण, 2 छेदोपस्थापनीयचारित्रगुणप्रमाण, 3 परिहारविशुद्धिचारित्रगुणप्रमाण, 4 सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाण, 5 यथाख्यातचारित्रगुणप्रमाण / इनमें से---- सामायिकचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है-१ इत्वरिक और 2 यावत्कथिक / छेदोपस्थापनीय चारित्रगुणप्रमाण के दो भेद हैं, यथा-१ सातिचार और 2 निरतिकार / परिहारविशुद्धिकचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का है-निविश्यमानक, 2 निविष्ट कायिक / सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है-१ संक्लिश्यमानक और 2 विशुद्धयमानक / __ यथाख्यात चारित्रगुणप्रमाण के दो भेद हैं। वे इस प्रकार-१ प्रतिपाती और 2 अप्रतिपाती। अथवा 1 छाद्मस्थिक और 2 कैलिक / Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [अनुयोगद्वारसूत्र इस प्रकार से चारित्रगुणप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये। इसका वर्णन करने पर जीव गुणप्रमाण तथा गुणप्रमाण का कथन समाप्त हुआ। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में भेदों-प्रकारों के माध्यम से चारित्रगुणप्रमाण का निरूपण किया है। ज्ञान, दर्शन, सुख आदि की तरह चारित्र भी जीव का स्वभाव-धर्म है / क्योंकि स्वरूप में रमण करना, स्वभाव में प्रवृत्ति करना चारित्र है। यह सर्वसावद्ययोगविरति रूप है। चारित्र के भेद-- संसार की कारणभूत वाह्य और अंतरंग क्रियाओं से निवत्ति रूप होने से सामान्यापेक्षया चारित्र एक ही है। चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होने वाली विशुद्धि की दृष्टि से भी चारित्र एक है। किन्तु जब विभिन्न दृष्टिकोणों से चारित्र का विचार करते हैं तो उसके विभिन्न प्रकार हो जाते हैं। जैसे-वाह्य व आभ्यन्तर निवृत्ति अथवा व्यवहार और निश्चय को अपेक्षा अथवा प्राणीसंयम व इन्द्रियसंयम की अपेक्षा वह दो प्रकार का है / औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। छद्मस्थों का सराग और वीतराग चारित्र तथा सर्वज्ञों का सयोग और प्रयोग चारित्र, अथवा स्वरूपाचरणचारित्र, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्र के भेद से चार प्रकार का है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात के भेद से पांच प्रकार का है। इसी तरह विविध निवृत्ति रूप परिणामों की दृष्टि से संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्प-भेद हो सकते हैं। परन्तु यहाँ अति संक्षेप और अति विस्तार से भेदों को न बताकर पांच भेद बतलाये हैं। जिनमें सभी अपेक्षाओं से किये जाने वाले प्रकारों का अन्तर्भाव हो जाता है / __सामायिकचारित्र-सम् उपसर्गपूर्वक गत्यर्थक अंय धातु से स्वार्थ में इक् प्रत्यय लगाने से सामायिक शब्द निष्पन्न होता है / सम् अर्थात् एकत्वपने से 'माय' अर्थात् आगमन / अर्थात् परद्रव्यों से निवृत्त होकर उपयोग की आत्मा में प्रवृत्ति होना सामायिक है। अथवा 'सम्' का अर्थ है रागद्वष रहित मध्यस्थ प्रात्मा / उसमें 'पाय' अर्थात् उपयोग की प्रवृत्ति समाय है। यह समाय ही जिसका प्रयोजन है, उसे सामायिक कहते हैं। अथवा सम का अर्थ है--सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इनके प्राय-लाभ अथवा प्राप्ति को समाय कहते हैं। अथवा 'समाय' शब्द साधु की समस्त क्रियाओं का उपलक्षण है / क्योंकि साधु को समस्त क्रियायें राग-द्वेष से रहित होती हैं / इस 'समाय' से जो निष्पन्न हो, संपन्न हो, उसे सामायिक कहते हैं। अथवा समाय में होने वाला सामायिक है। अथवा समाय ही सामायिक है / इसका तात्पर्य यह हुआ कि सर्वसावध कार्यों से निवृत्ति, विरति / महाव्रतधारी साधु-साध्वियों के चारित्र को सामायिकचारित्र कहा गया है। क्योंकि महाव्रतों को अंगीकार करते समय समस्त सावध कार्यों-योगों से निवृत्ति रूप सामायिकचारित्र ग्रहण किया जाता है। यद्यपि सामायिकचारित्र में छेदोपस्थापना आदि उत्तरवर्ती समस्त चारित्रों का अन्तर्भाव हो जाता है, तथापि उन चारित्रों से सामायिक चारित्र में उत्तरोत्तर विशुद्धि और विशेषता पाने के कारण उनका पृथक् निर्देश किया है। सामायिकचारित्र के दो भेद हैं-१ इत्वरिक और यावत्कथिक / ' इत्वरिक का अर्थ है१. दिगम्बर साहित्य में नियतकालिक और अनियतकालिक शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु प्राशय में अंतर नहीं है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण अल्पकालिक और यावत्कथिक यानी आजीवन (जीवन भर, यावज्जीवन के लिये ग्रहण किया जाने वाला।) भरत और ऐरवत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में महाव्रतों का आरोपण नहीं किया गया हो तब तक शैक्ष (नवदीक्षित) का चारित्र इत्वरिक सामायिकचारित्र है। इसको धारण करने वाले वाद में प्रतिक्रमण सहित अहिंसा, सत्य आदि पांच महाव्रत अंगीकार करते हैं तथा इसके स्वामी स्थितकल्पी होते हैं एवं कालमर्यादा उपस्थापन पर्यन्त (बड़ी दीक्षा लेने तक) मानी जाती है / यावत्कथिक सामायिकचारित्र भरत, ऐरवत क्षेत्रों में मध्य के बाईस तीर्थकरों के साधुनों में और महाविदेह के तीर्थंकरों के साधुओं में होता है। क्योंकि उनकी उपस्थापना नहीं होती, अर्थात उन्हें महावतारोपण के लिये दूसरी बार दीक्षा नहीं दी जाती है / इस संयम को धारण करने वालों के महावत चार और कल्प स्थितास्थित होता है।' छेदोपस्थापनिकचारित्र-जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद और पुनः महाव्रतों की उपस्थापना की जाती है, वह छेदोपस्थापनिकचारित है। यह छेदोपस्थापनिकचारित्र सातिचार और निरतिचार के भेद से दो प्रकार का है। सातिचार छेदोपस्थापनिकचारित्र मूलगुणों (महानतों) में से किसी का विधात करने वाले साधु को पुन: महाव्रतोच्चारपूर्वक दिया जाता है / निरतिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र इत्वरिक सामायिक वाले शैक्ष (नवदीक्षित) बड़ी दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने पर अंगीकार किया जाता है / जैसे पार्श्वनाथ के केशी प्रादि श्रमण जब भगवान महावीर के तीर्थ में सम्मिलित हए थे तब पुनर्दीक्षा के रूप में इसी संयम को ग्रहण किया था / यह छेदोपस्थापनिकचारित्र भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में ही होता है / सामायिक में संपूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम रूप में ग्रहण किया जाता है और छेदोपस्थापनिकचारित्र में उसी एक यम-बत को अहिंसामहावत आदि पांच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके ग्रहण किया जाता है / किन्तु इन दोनों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है। परिहारविशद्धिचारित्र-परिहार का अर्थ है तपोविशेष और उस तपोविशेष से जिस चारित्र में विशुद्धि प्राप्त की जाती है, उसे परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। इसके दो भेद हैं१. निविश्यमानक, 2. निविष्टकायिक / / जिस चारित्र में साधक प्रविष्ट होकर तपोविधि के अनुसार तपश्चरण कर रहे हों, उसे निविश्यमानक परिहारविशुद्धिचारित्र और जिस चारित्र में साधक तपोविधि के अनुसार तपाराधना कर चुके हैं, उस चारित्र का नाम निविष्टकायिक परिहारविशुद्धिचारित्र है 1 निविश्यमानक तपाराधना करते हैं और निविष्टकायिक उन तपाराधकों की सेवा करते हैं। परिहारविशुद्धितपाराधना की संक्षेप में विधि इस प्रकार है--- 1. आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातर पिंड; राजपिंड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पर्युषणा-इन दस कल्पों में जो स्थित हैं वे स्थितकरूपी तथा शव्यातर पिड, व्रत, ज्येष्ठ तथा कृतिकर्म इन चार नियमों में स्थित तथा शेष छह कल्पों में जो प्रस्थित होते हैं, वे स्थितास्थित कल्पी कहलाते हैं।---आवश्यक हरिभद्रीयत्ति, पृ. 790 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384] [अनुयोगद्वारसूत्र ____ नौ साधु मिलकर इस परिहारतप की आराधना करते हैं / उनमें से चार साधक निविश्यमानक-तप का आचरण करने वाले होते हैं तथा शेष रहे पांच में से चार उनके अनुपारिहारिक अर्थात् वैयावृत्य करने वाले होते हैं और एक साधु कल्पस्थित बाचनाचार्य होता है।' निविश्यमान साधक ग्रीष्मकाल में जघन्य चतुर्थभक्त (एक उपवास), मध्यम षष्ठभक्त (दो उपवास) और उत्कृष्ट अष्टमभक्त (तीन उपवास) करते हैं / शीतकाल में जघन्य दो, मध्यम तीन और उत्कृष्ट चार उपवास तथा वर्षाकाल में जघन्य तीन, मध्यम चार और उत्कृष्ट पांच उपवास करते हैं / यह क्रम छह मास तक चलता है और पारणा के दिन अभिग्रह सहित आयंबिलवत' करते हैं। भिक्षा में पांच वस्तुओं का ग्रहण और दो का अभिग्रह होता है। कल्पस्थितपरिचारक पद ग्रहण करने वाले, वैयावृत्य करने वाले सदा पायंबिल ही करते हैं। इस प्रकार छह महीने तक तप करने वाले (निविश्यमानक) साधक बाद में अनुपारिहारिक (वैयावत्य करने वाले) बनते हैं और जो अभी अनुपरिहारिक थे, वे छह महीने के लिये परिहारिक (तपाराधक) बन जाते हैं / ये भी पूर्व तपस्वियों की तरह तपाराधना करते हैं। दूसरे छह मास के बाद तीसरे छह मास के लिये वाचनाचार्य ही तपस्वी बनते हैं और शेष आठ साधूत्रों में से सात अनुचारी और एक वाचनाचार्य बनते हैं। इस प्रकार तीसरे छह मास पूर्ण होने के बाद अकारह माह की यह परिहारविशुद्धितपाराधना पूर्ण होती है। कल्प समाप्त हो जाने वे साधक या तो जिनकल्प को अंगीकार कर लेते हैं अथवा अपने गच्छ में पुन: लौट आते हैं या पुनः वैसी ही तपस्या प्रारंभ कर देते हैं / इस परिहारतप के प्रतिपद्यमानक इसे तीर्थकर भगवान के सान्निध्य में अथवा जिसने इस कल्प को तीर्थकर से स्वीकार किया हो उसके पास से अंगीकार करते हैं, अन्य के पास नहीं। ऐसे मनियों का चारित्र परिहारविशुद्धिचारित्र है। यह चारित्र जिन्होंने छेदोषस्थापनाचारित्र अंगीकार किया हुआ होता है, उन्हीं को होता है। इस संयम का अधिकारी बनने के लिये गहस्थपर्याय (उम्र) का जघन्य प्रमाण 29 वर्ष तथा साधूपर्याय (दीक्षाकाल) का जघन्य प्रमाण 20 वर्ष और दोनों का उत्कृष्ट प्रमाण कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष माना है। इस संयम के अधिकारी को साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान होता है / इस संयम के धारक मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा व विहार कर सकते हैं और अन्य समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि / 1. यद्यपि इसके साधक श्रुतातिशयसंपन्न होते हैं तथापि वह एक प्रकार का कल्प होने के कारण उनमें एक कल्पस्थित प्राचार्य स्थापित किया जाता है। 2. प्रायंबिल एक प्रकार का व्रत है, जिसमें विगय-धी, दूध आदि रस छोड़कर केवल दिन में एक बार अन्न खाया जाता है तथा गरम किया हुया (प्राशुक)पानी पिया जाता है। -श्रावश्यकनियुक्ति गा. 1603-5 3. पंचवस्तुक गा. 1494 4. दिगम्बर साहित्य में इसके बारे में थोड़ा-सा मतभेद है। उसमें तीस वर्ष की उम्र वाले को इस संयम का अधिकारी माना है और नी पूर्व का ज्ञान प्रावश्यक बताया है। तीर्थंकर के सिवाय और किसी के पास इस संयम को ग्रहण करने की मनाई है तथा तीन संध्यारों को छोड़कर दिन के किसी भाग में दो कोस जाने की सम्मति दी है। -- गो. जीवकाण्ड गा. 437 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [385 दसव ये परिहारविशुद्धिचारित्राराधक दो प्रकार के होते हैं-१. इत्वरिक ओर 2. यावत्कथिक / इत्वरिक बे हैं जो कल्प को समाप्ति के बाद उसी पूर्व के कल्प या गच्छ में आ जाते हैं तथा जो कल्प समाप्त होते ही बिना व्यवधान के तत्काल जिनकल्प को स्वीकार कर लेते हैं, वे यावत्कथिक चारित्री कहलाते हैं। सूक्षमसंपरायचारित्र-जिसके कारण जीव चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है, उसे संपराय कहते हैं। संसार-परिभ्रमण के मुख्य कारण क्रोधादि कवाय हैं। इसलिये इनकी संपराय यह संज्ञा है / जिस चारित्र में सूक्ष्म अर्थात् संज्वलन के सूक्ष्म लोभरूप संपराय-कषाय का उदय ही शेष रह जाता है, ऐसा चारित्र सूक्ष्मसंपरायचारित्र कहलाता है / यह चारित्र सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती मुनियों को होता है। यह चारित्र संक्लिश्यमानक और विशुद्धचमानक के भेद से दो प्रकार का है। क्षपकआणि या उपशमश्रेणि पर प्रारोहण करने वाले का चारित्र विशुद्धयमानक होता है। जबकि उपशमश्रेणि से उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच कर वहाँ से गिरने पर साधक जब पुनः / गूणस्थान में आता है, उस समय का सुक्ष्मसंपरायचारित्र संक्लिश्यमानक कहलाता है। क्योंकि इस पतनोन्मुखी दशा में संक्लेश को अधिकता है और पतन का कारण संक्लेश है। इसीलिये इसको संक्लिश्यमानक कहते हैं। यथाख्यातचारित्र-प्राकृत में इसको ‘अहक्खाय' चारित्र कहते हैं। उसकी शाब्दिक ब्युसत्ति इस प्रकार जानना चाहिये अह-पा-अक्खाय / यहाँ अह अथ शब्द याथातथ्य अर्थ में, अा-अाङ उपसर्ग अभिविधि अर्थ में प्रयुक्त हुया है और अक्खाय क्रियापद है। जिसको संधि होने पर, अहाक्खाय पद बनता है। फिर 'ह्रस्वः संयोगे' इस सूत्र से प्रकार होने से अहक्खाय पद बन जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि यथार्थ रूप से सर्वात्मना जो चारित्र कषायरहित हो, उसे यथाख्यातचारित्र कहते हैं। प्रात्मा के सर्वथा शुद्ध भाव का प्रादुर्भाव कषायों के नि:शेष रूप से अभाव होने पर होता है। इस चारित्र के दो भेद हैं—प्रतिपाती और अप्रतिपाती। जिस जीव का मोह उपशांत हमा है, उसका प्रतिपाती और जिसका मोह सर्वथा क्षीण हो गया है, उसका चारित्र अप्रतिपाती होता है। अथवा पाश्रय के भेद से इस चारित्र के दो भेद हैं-छाद्मस्थिक (छद्मस्थ अर्थात् ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव का) ओर कैवलिक (तेरहवें और चोदहवें गुणस्थानवी जीव का)। यद्यपि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जोव का मोह सर्वथा उपशान्त और क्षीण हो जाता है परन्तु ज्ञानावरण आदि शेष तीन घातिकर्म (छद्म) रहते हैं। इसीलिये उनको छद्मस्थ कहा जाता है। केवली के मोह के सिवाय शेष तीन घातिकर्म भी एकान्तत: नष्ट हो जाते हैं। ___ इस प्रकार से चारित्रगुणप्रमाण की प्ररूपणा जानना चाहिये और इस चारित्रगुणप्रमाण का कथन समाप्त होने से जीवगुणप्रमाण का वर्णन पूर्ण हुआ / इसके साथ ही गुणप्रमाण का कथन भी समाप्त हो गया। अब क्रमप्राप्त नयप्रमाण का निरूपण करते हैं। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386] [अनुयोगद्वारसूत्र नयप्रमाणतिरूपण 473. से किं तं नयप्पमाणे ? नयप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा–पत्थय दिट्टतेणं वसहिदिट्ठतेणं पएसदिट्ठतेणं / [473 प्र.भगवन् ! नयप्रमाण का स्वरूप क्या है ? 473 उ.] आयुष्मन् ! नयप्रमाण का स्वरूप तीन दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया गया है / जैसे कि..--१. प्रस्थक के दृष्टान्त द्वारा, 2. वसति के दृष्टान्त द्वारा और. 3. प्रदेश के दृष्टान्त द्वारा / विवेचन–प्रस्तुत में तीन दृष्टान्तों द्वारा नयप्रमाण के स्वरूप का कथन किया है। प्रत्येक जीवादिक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक हैं / उन अनन्त धर्मों में विवक्षित धर्म को मुख्य एवं अन्य धर्मों को गौण करके वस्तुप्रतिपादक वक्ता का जो अभिप्राय होता है, वह नयप्रमाण है / यद्यपि नयप्रमाण गुणप्रमाण के अंतर्गत ही है और नैगम, संग्रह आदि के भेद से बहुत से नय हैं, तथापि स्थान-स्थान पर अत्युपयोगी और गहन विषय वाले होने से यहाँ प्रस्थक आदि दृष्टान्तत्रय से नयप्रमाण का वर्णन किया है। प्रस्थकदृष्टान्त द्वारा नयनिरूपण 474. से किं तं पत्थगदिळंतेणं ? पत्थगदिद्रुतेणं से जहानामए केइ पुरिसे परसुगहाय अडविहुत्ते गच्छेज्जा, तं च केइ पासित्ता बदेज्जा-कत्थ भवं गच्छसि ? अविसुद्धो नेगमो भणति-पत्थगस्स गच्छामि / तं च केइ छिदभाणं पासित्ता वइज्जा–कि भवं छिदसि ? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-पत्थयं छिदामि / तं च केइ तच्छेमाणं पासित्ता बदेज्जा–कि भवं तच्छेसि ? विसुद्धतरानो गेगमो भणति–पत्थयं तच्छेमि। तं च केइ उक्किरमाणं पासित्ता वदेज्जा-कि भवं उक्किरसि? विसुद्धतराओ णेगमोभणति पत्थयं उक्किरामि / तं च केइ [वि] लिहमाणं पासेत्ता वदेज्जा—कि भवं [वि] लिहसि ? विसुद्धतराओ गमो भणतिपत्थयं [वि] लिहामि / एवं विसुद्धतरागस्स णेगमस्थ नामाउडितओ पत्थओ। एवमेव ववहारस्स वि। संगहस्स चितो मिओ मिज्जसमारूढो पत्थओ। उजुसुयस्स पत्थयो वि पत्थओ मिज्जं पि से पत्थओ। तिण्हं सद्दणयाणं पत्थयाहिगारजाणओ पत्थओ जस्स वा वसेणं पत्थओ निष्फज्जइ / से तं पत्थयदिळंतेणं। [474 प्र.] भगवन् ! प्रस्थक का दृष्टान्त क्या है ? [474 उ.] आयुष्मन् ! जैसे कोई पुरुष परशु (कुल्हाड़ी) लेकर बन की ओर जाता है ! उसे देखकर किसी ने पूछा-आप कहाँ जा रहे हैं ? Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [387 तब अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उसने कहा-प्रस्थक लेने के लिये जा रहा हूँ। फिर उसे वृक्ष को छेदन करते-काटते हुए देखकर कोई कहे--प्राप क्या काट रहे हैं ? तब उसने विशुद्धतर नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया-मैं प्रस्थक काट रहा हूँ। तदनन्तर कोई उस लकड़ी को छीलते देखकर पूछे-पाप यह क्या छील रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की अपेक्षा उसने कहा--प्रस्थक छील रहा है। तत्पश्चात् कोई काष्ठ के मध्य भाग को उत्कीर्ण करते देखकर पूछे-आप यह क्या उत्कीर्ण कर रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय के अनुसार उसने उत्तर दिया-मैं प्रस्थक उत्कीर्ण कर रहा हूँ। फिर कोई उस उत्कीर्ण काष्ठ पर प्रस्थक का आकार लेखन--अंकन करते देखकर कहे-आप यह क्या लेखन कर रहे हैं ? तो विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया-प्रस्थक अंकित कर इसी प्रकार से जब तक संपूर्ण प्रस्थक निष्पन्न-तैयार न हो जाये, तब तक प्रस्थक संबंधी प्रश्नोत्तर करना चाहिये। इसी प्रकार व्यवहारनय से भी जानना चाहिए / संग्रहनय के मत से धान्यपरिपूरित प्रस्थक को ही प्रस्थक कहते हैं / ऋजुसूत्रनय के मत से प्रस्थक भी प्रस्थक है और मेय वस्तु (उससे मापी गई धान्यादि वस्तु) भी प्रस्थक है। तीनों शब्द नयों (शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत) के मतानुसार प्रस्थक के अर्थाधिकार का जाता (प्रस्थक के स्वरूप के परिज्ञान में उपयुक्त जीव अथवा प्रस्थककर्ता का वह उपयोग जिससे प्रस्थक, निष्पन्न होता है उसमें वर्तमान कर्ता प्रस्थक है। इस प्रकार प्रस्थक के दृष्टान्त द्वारा नयप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये / विवेचन--सूत्र में प्रस्थक के दृष्टान्त द्वारा नयदृष्टियों का संकेत किया है / प्रस्थक-यह मगध देश प्रसिद्ध एक पात्र का नाम है। इसमें धान्यादि भरकर माये जाते हैं। इस प्रकार के प्रस्थक को बनाने का संकल्प लेकर कोई व्यक्ति कुल्हाड़ी लेकर वन की ओर जा रहा हो / पूछने पर उसने जो उत्तर दिया कि प्रस्थक के लिये जा रहा हूँ, यह अविशुद्ध नैगमनय के अभिप्राय से संगत है / क्योंकि वस्तु को जानने के नैगमनय के अभिप्राय अनेक होते हैं। नैगमनय संकल्पित विषय में उस पर्याय का अारोप कर उसे उस पर्याय रूप मानता है। अतएव अभी तो प्रस्थक बनाने का विचार ही उत्पन्न हुअा है किन्तु उत्तर दिया है प्रस्थक को मानकर / काष्ठ को काटते समय उसने जो उत्तर दिया वह भी नैगमनयानुसार ठीक है, परन्तु पूर्व की अपेक्षा वह विशुद्ध है / इसके बाद काष्ठ को छीलते एवं उत्कीर्ण करते आदि प्रसंगों पर जो उत्तर दिये, उनमें भी नैगमनय की दृष्टि है, किन्तु वे सब कथन पूर्व की अपेक्षा विशुद्धतर हैं। इस प्रकार जब तक लोकप्रसिद्ध प्रस्थक नाम की पर्याय प्रकट न हो जाये, उससे पूर्व तक के जितने उत्तर होंगे वे सब नैगमनय के संकल्पमात्रग्राही होने से सत्य हैं और संकल्प के अनेक रूप होने से नैगमनय अनेक प्रकार से वस्तु को मानता है। इसीलिए कारण में कार्य का उपचार करके जो उत्तर दिया जाता है, वह नैगमनय की दृष्टि से है। ऐसा व्यवहार में भी देखा जाता है / सूत्र में बताये गये नैगमनय के अविशुद्ध, विशुद्ध और विशुद्धतर यह तीन रूप पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर में विशेषता के प्रदर्शक हैं। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र व्यवहारनय में लोकव्यवहार की प्रधानता होती है। वह सर्वत्र लोकव्यवहार की प्रधानता को लेकर प्रवृत्त होता है / अतएव जब लोक में नैगमनयोक्त अवस्थाओं में सर्वत्र प्रस्थक व्यवहार होता है तो यह नय भी वैसा ही मानता है / संग्रहनय समस्त वस्तुओं को सामान्य रूप से ग्रहण करता है। यदि किसी विवक्षित प्रस्थक को ही प्रस्थक मानें तो विवक्षित प्रस्थक से भिन्न प्रस्थकों में प्रस्थकत्व का व्यपदेश नहीं हो सकेगा। क्योंकि सामान्य के बिना विशेषों का अस्तित्व ही नहीं है। ___ऋजसूत्रनय के अनुसार प्रस्थक भी और उसके द्वारा मेय वस्तु भी प्रस्थक है / यह नय नष्ट एवं अनुत्पन्न होने से सत्ताविहीन भूत और भविष्यत् कालिक मान और मेय को नहीं मानकर वर्तमानकालिक मान और मेय को ही मानता है / अतएव जिस समय प्रस्थक अपना कार्य कर रहा है और धान्यादिक मापे जा रहे हैं तभी इस नय के अनुसार प्रस्थक माने जाते हैं / यह नय पूर्व नयों की अपेक्षा विशुद्धतर है। __ शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीनों शब्दनय हैं / इनमें शब्द की प्रधानता है। इसीलिये इन्हें शब्दनय कहा जाता है और शब्द के अनुसार ही ये अर्थ का प्रतिपादन करते हैं।' इन तीनों शब्दनयों के मत में प्रस्थक के स्वरूप के परिज्ञान से उपयुक्त हा जीव प्रस्थक है। ये नय भावप्रधान हैं / इसलिये ये भाव प्रस्थक को-प्रस्थक के उपयोग को-प्रस्थक मानते हैं और उपयोग जीव का लक्षण है / इसलिये जीव का लक्षण रूप उपयोग जब प्रस्थक को विषय करता है, तब वह उस रूप में परिणत हो जाता है, जिससे प्रस्थक के उपयोग को प्रस्थक मान लिया जाता है। अथवा प्रस्थक के बनाने वाले व्यक्ति के जिस उपयोग के द्वारा प्रस्थक निष्पन्न होता है, उस उपयोग में वतमान वह को प्रस्थक कहा जाता है। क्योकि कता में जब तक प्रस्थक बनाने का उपयोग नहीं ह प्रस्थक नहीं बना सकेगा। इसलिये वह कर्ता भी उस प्रस्थक को निष्पन्न करने वाले उपयोग से अनन्य होने के कारण प्रस्थक कहा जाता है। वसतिदृष्टान्त द्वारा नयनिरूपण 475. से कि तं वसहिदिठ्ठतेणं ? वसहिदिळेंतेणं से जहानामए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं बदिज्जा, कहिं भवं वससि ? तत्थ अविसुद्धो गमो भणइ–लोगे वसामि / / __ लोगे तिविहे पण्णते, तं जहा-उड्डलोए अधोलोए तिरियलोए, तेसु सत्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ गमो भगइ-तिरियलोए सामि / तिरियलोए जंबुद्दीवादीया सयंभुरमणपज्जवसाणा असंखेज्जा-दीव-समुद्दा पण्णता, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतरानो गमो भणति-जंबुद्दीवे वसामि / जंबुद्दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तं जहा-भरहे एरवए हेमवए एरष्णवए हरिवस्से रम्भगवस्से 1. प्रादि के नैगम आदि ऋजुसूत्रनय पर्यन्त चार नय अर्थनय हैं। क्योंकि इनकी अर्थ में ही मान्यता प्रधान-मुख्य है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण देवकुरा उत्तरकुरा पुव्वविदेहे अवर विदेहे, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणतिभरहे वसामि / ___ भरहे वासे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-दाहिणभरहे य उत्तरभर हे य, तेसु सन्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ गमो भणति-दाहिणड्डभरहे वसामि। दाहिणभरहे अणेगाई गाम-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-ऽऽगर-संवाह-सण्णिवेसाई, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणति--पाडलिपुत्ते क्सामि। पाडलिपुत्ते अणेगाई गिहाई, तेसु सन्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराम्रो गमो भगतिदेवदत्तस्स घरे वसामि। देवदत्तस्स घरे अणेगा कोढगा, तेसु सम्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतरानो णेगमो भणतिगम्भघरे वसामि / एवं विसुद्धस्स गमस्स वसमाणो वसति / एवमेव ववहारस्स वि / संगहस्स संथारसभारूढो वसति / उज्जुसुयस्स जेसु आगासपएसेस ओगाढो तेसु क्सइ।। तिण्हं सहनयाणं आयभावे वसइ / से तं वसहिदिठ्ठतेणं / [475 प्र.] भगवन् ! जिसके द्वारा नयों का स्वरूप जाना जाता है वह वसति-दृष्टान्त क्या है ? [475 उ.] प्रायूप्मन ! वसति के दष्टान्त द्वारा नयों का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-जैसे किसी पुरुष ने किसी अन्य पुरुष से पूछा-आप कहाँ रहते हैं ? तब उसने अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया-मैं लोक में रहता हूँ। प्रश्नकर्ता ने पुन: पूछा-लोक के तो तीन भेद हैं-ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक / तो क्या आप इन सब में रहते हैं ? तब-- विशुद्ध नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा-मैं तिर्यग्लोक में रहता हूँ। इस पर प्रश्नकर्ता ने पुनः प्रश्न किया-तिर्यग्लोक में जम्बूद्वीप आदि स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, तो क्या आप उन सभी में रहते हैं ? प्रत्युत्तर में विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा- मैं जम्बूद्वीप में रहता हूँ। तब प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया-जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र हैं / यथा-भरत, ऐरबत, हैमवत, ऐरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्वविदेह, अपर विदेह / तो क्या आप इन दसों क्षेत्रों में रहते हैं ? उत्तर में विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा-भरतक्षेत्र में रहता हूँ। प्रश्नकर्ता ने पुनः प्रश्न पूछा-भरतक्षेत्र के दो विभाग हैं-दक्षिणार्धभरत और उत्तरार्धभरत / तो क्या आप उन दोनों विभागों में रहते हैं ? Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390] [अनुयोगद्वारसूत्र विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया-दक्षिणार्धभरत में रहता हूँ। प्रश्नकर्ता ने पुनः प्रश्न पूछा-दक्षिणार्धभरत में तो अनेक ग्राम, नगर, खेड, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, प्राकर, संवाह, सन्निवेश हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? इसका विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया-मैं पाटलिपुत्र में रहता हूँ। प्रश्नकर्ता ने पुनः पूछा-पाटलिपुत्र में अनेक घर हैं, तो आप उन सभी में निवास करते हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया-देवदत्त के घर में बसता हूँ। प्रश्नकर्ता ने पुनः पूछा-देवदत्त के घर में अनेक प्रकोष्ठ कोठे हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? उत्तर में उसने विशुद्धतर नेगमनय के अनुसार कहा--(नहीं, मैं उन सबमें तो नहीं रहता, किन्तु) गर्भगृह में रहता हूँ। इस प्रकार विशुद्ध नैगमनय के मत से वसते हुए को वसता हुआ माना जाता है / अर्थात् विशुद्ध नैगमनय के मतानुसार गर्भगृह में रहता हुअा ही 'वसति' इस रूप से व्यपदिष्ट होता है / व्यवहारनय का मंतव्य भी इसी प्रकार का है। संग्रहनय के मतानुसार शैया पर आरूढ़ हो तभी वह वसता हुअा कहा जा सकता है। ऋजुसूत्रनय के मत से जिन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़-अवगाहनयुक्त विद्यमान है, उनमें ही वसता हुआ माना जाता है। तीनों शब्दनयों के अभिप्राय से प्रात्मभाव-स्वभाव में ही निवास होता है। इस प्रकार वसति के दृष्टान्त द्वारा नयों का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-सूत्र में वसति-निवास के दृष्टान्त द्वारा नय-कथनशैली का निरूपण किया है। नैगमनय के अनेक भेद हैं, अत: उसके अनुसार दिये गये उत्तर उत्तरोत्तर विशुद्धतर नैगमनय को दष्टि से हैं। क्योंकि संकपमात्र ग्राहो होने से जब नैगमनय अपेक्षा दष्टि से विशेषोन्मुखी होता है तब चरम विशेष के पूर्व तक विशुद्ध से विशुद्धतर होता जाता है और वे सभी विशुद्धतर नैगमनय के विषय हैं / इसलिये पूर्व-पूर्वापेक्षया बिशुद्धतर नैगमनय के मत से बसते हुए को वसता हुआ माना जाता है / यदि वह अन्यत्र भी चला गया हो तब भी जहाँ निवास करेगा, वहीं उसको वसता हुआ माना जायेगा। __ इसी प्रकार का व्यवहारनय का भी मंतव्य है। क्योंकि जहाँ जिसका निवासस्थान है, वह उसी स्थान में वसता हा माना जाता है तथा जहाँ पर रहे, वही उसका निवासस्थान होता है। जैसे-पाटलिपुत्र का रहने वाला यदि कहीं अन्यत्र जाये तब भी कहा जाता है कि पाटलिपुत्रवासी अमुक व्यक्ति यहाँ पाया हग्रा है और पाटलिपुत्र में कहेंगे'--अब वह यहाँ नहीं है, अन्यत्र वस गया है। अर्थात विशुद्धतर नैगमनय और व्यवहारनय के मत से वसते हए को वसता हया' मानते हैं। इसी का संकेत करने के लिये-'एवमेव ववहारस्स वि' पद दिया है। संग्रहनय की मान्यता है कि 'वसति' शब्द का प्रयोग गर्भगृह आदि में रहने के अर्थ में नहीं हो सकता है। क्योंकि वसति का अर्थ निवास है और यह निवास रूप अर्थ संस्तारक पर आरूढ होने Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [391 पर ही घटित होता है। अत: जब कोई संस्तारक-शय्या पर शयन करे तभी चलने आदि क्रिया से रहित होकर शयन करते समय ही उसे वसता हुआ माना जा सकता है / संग्रहनय सामान्यवादी है, इसलिए इसके मत से सभी शैयायें एक हैं, चाहे वे कहीं भी हों। ऋजुसूत्रनय संग्रहनय की अपेक्षा भी विशुद्ध है / ऋजुसूत्रनय का मंतव्य है संस्तारक पर प्रारूढ हो जाने मात्र से वसति शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है, किन्तु संस्तारक के जितने आकाश प्रदेश वर्तमान में अवगाहन किये गये हैं, उन्हीं पर वसता हुआ मानना चाहिये। शब्द, समभिरूड और एवंभूत इन तीनों नयों की पदार्थ के निज स्वरूप में रहने के विषय में यह दृष्टि है कि आकाशप्रदेश पर द्रव्य होने से उनमें रहना वसति शब्द का अर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी द्रव्य पर द्रव्य में नहीं रहता है / इसलिये प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में निवास करता है। अब प्रदेशदृष्टान्त द्वारा नयों का निरूपण करते हैं / प्रदेशदृष्टान्त द्वारा नयनिरूपण 476. से कि तं पदेसदिट्टतेणं ? पदेस दिळंतेणं गमो भणति---छण्हं पदेसो, तं जहा-धम्मपदेसो अधम्मपदेसो आगासपदेसो जीवपदेसो खंधपदेलो देसपदेसो। एवं वयं गर्म संगहो भणइ-जं भणसि--छाहं पदेसो लण्ण भवइ, कम्हा? जम्हा जो सो देसपदेसो सो तस्सेव दव्वस्स, जहा को दिळंतो? दासेण मे खरो कीमो दासो वि मे खरो वि मे, तं मा भणाहि-छण्हं पएसो, भणाहि पंचण्हं पएसो, तं जहा–धम्मपएसो अहम्मपएसो अागासपदेसो जीवपएसो खंधपदेसो। एवं वयंतं संगहं ववहारो भणइ-जं भणसि-पंचण्हं पएसो तं ण भवइ, कम्हा? जइ जहा पंचण्हं गोट्ठियाण केइ दव्वजाए सामष्णे, तं जहा-हिरण्णे वा सवण्णे वा धणे वा धणे वा, तो जुत्तं वत्तु जहा पंचण्हं पएसो ? तं मा भणाहि-पंचण्हं पएसो, भणाहि-पंचविहो पएसो, तं जहाधम्मपदेसो प्रहम्मपदेसो आगासपदेसो जीवपदेसो खंधपदेसो। एवं वदंतं ववहार उज्जुसुओ भणति--जं भणसि-पंचविही पदेसो तं न भवइ, कम्हा ? जइ ते पंचविहो पएसो एवं ते एक्केक्को पएसो पंचविहो एवं ते पणुवीसतिविही पदेसो भवति, तं मा भणाहि-पंचविहो पएसो, भणाहि-भतियम्बो पदेसो-सिया धम्मपदेसो सिया अधम्मपदेसो सिया पागासपदेसो सिया जीवपदेसो सिया खंधपदेसो। __ एवं वयंतं उज्जुसुयं संपतिसणओ भणति-जं भणसि भइयवो पदेसो तं न भवति, कम्हा ? जइ ते भइयव्यो पदेसो एवं ते धम्मपदेसो वि सिया अधम्मपदेसो सिया आगासपदेसो सिया जीवपदेसो सिया खंघपदेसो 1, अधम्मपदेसो वि सिया घम्मपदेसो सिया आगासपएसो सिया जीवघएसो सिया खंधपएसो 2, आगासप एसो वि सिया धम्मपदेसो सिया अहम्मपएसी सिया जीवपएसो सिया Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392] [अनुयोगद्वारसूत्र खंधपएसो 3, जीवपएसो वि सिया धम्मपएसो सिया अधम्मपएसो सिया आगासपएसो सिया खंधपएसो 4, खंधपएसो वि सिया धम्मपदेसो सिया अधम्मपदेसो सिया आगासपदेसो सिया जीवपदेसो 5, एवं ते अणवस्था भविस्सई, तं मा भणाहि-भइयवो पदेसो, भणाहि-धम्मे पदेसे से पदेसे धम्मे, अहम्मे पदेसे से पदेसे अहम्मे, आगासे पदेसे से पदेसे आगासे, जोव पदेसे से पदेसे णोजीवे, खंधे पदेसे से पदेसे पोखंधे। एवं वयंतं सद्दणयं समभिरूढो भणति—जं भणसि-धम्मे पदेसे से पदेसे धम्मे जाव खंधे पदेसे से पदेसे नोखंधे तं न भवइ, कम्हा? एत्थ दो समासा भवंति, तं जहा-तप्पुरिसे य कम्मधारए य, तं ण णज्जइ कतरेणं समासेणं भणसि-किं तप्पुरिसेणं कि कम्मधारएणं? जइ तपूरिसेणं भणसि तो मा एवं भजाहि, अह कम्मधारएणं भणसि तो घिसेसओ भणाहि-धम्मे य से पसे य से से पदेसे धम्मे, अहम्मे य से पदेसे य से से पदेसे अहम्मे, आगासे य से पदेसे य से से पदेसे आगासे, जीवे य से पदेसे य से से पदेसे नोजोवे, खंबे य से पदेसे य से से पदेसे नोखंधे / एवं वयंतं संपयं समभिरूढं एवंभूओ भणइ-जं जं भणसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेसं एगगहणगहितं देसे वि मे अवत्थू पदेसे वि मे अवत्थू / से तं पदेसदिट्टतेणं / से तं णयापमाणे। [476 प्र.] भगवन् ! प्रदेशदृष्टान्त द्वारा नयों के स्वरूप का प्रतिपादन किस प्रकार होता है ? [476 उ.] अायुष्मन् ! प्रदेशों के दृष्टान्त द्वारा नयों का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए नैगमनय के मत से छह द्रव्यों के प्रदेश होते हैं / जैसे ----1. धर्मास्तिकाय का प्रदेश, 2. अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, 3. आकाशास्तिकाय का प्रदेश, 4. जीवास्तिकाय का प्रदेश, 5. स्कन्ध का प्रदेश और 6. देश का प्रदेश। ऐसा कथन करने वाले नैगमनय से संग्रहनय ने कहा--जो तुम कहते हो कि छहों के प्रदेश हैं, वह उचित नहीं है। क्यों (नहीं है) ? इसलिये कि जो देश का प्रदेश है, वह उसी द्रव्य का है। इसके लिये कोई दृष्टान्त है ? हाँ दृष्टान्त है। जैसे मेरे दास ने गधा खरीदा और दास मेरा है तो गधा भी मेरा है। इसलिये ऐसा मत कहो कि छहों के प्रदेश हैं, यह कहो कि पांच के प्रदेश हैं / यथा-१. धर्मास्तिकाय का प्रदेश, 2. अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, 3. आकाशास्तिकाय का प्रदेश, 4. जीवास्तिकाय का प्रदेश और 5. स्कन्ध का प्रदेश / इस प्रकार कहने बाले संग्रहनय से व्यवहारनय ने कहा-तुम कहते हो कि पांचों के प्रदेश हैं, वह सिद्ध नहीं होता है। क्यों (सिद्ध नहीं होता है) ? Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [393 प्रत्युत्तर में व्यवहारनयवादी ने कहा-जैसे पांच गोष्ठिक पुरुषों (भागोदारों) का कोई दव्य सामान्य होता है / यथा-हिरण्य, स्वर्ण, धन, धान्य ग्रादि (वैसे पांचों के प्रदेश सामान्य होते) तो तुम्हारा कहना युक्त था कि पांचों के प्रदेश हैं। (परन्तु ऐसा है नहीं,) इसलिये ऐसा मत कहो कि पांचों के प्रदेश हैं, किन्तु कहो-प्रदेश पांच प्रकार का है, जैसे-१. धर्मास्तिकाय का प्रदेश, स्तकाय का प्रदेश. 3. नाकाशास्तिकाय का प्रदेश. 4. जीवास्तिकाय का प्रदेश और 5. स्कन्ध का प्रदेश। व्यवहारनय के ऐसा कहने पर ऋजुसूत्रनय ने कहा-तुम भी जो कहते हो कि पांच प्रकार के प्रदेश हैं, वह नहीं बनता है। क्योंकि यदि पांच प्रकार के प्रदेश हैं यह कहो तो एक-एक प्रदेश पांच-पांच प्रकार का हो जाने से तुम्हारे मत से पच्चीस प्रकार का प्रदेश होगा / इसलिए ऐसा मत कहो कि पांच प्रकार का प्रदेश है / यह कहो कि प्रदेश भजनोय है--१. स्यात् धर्मास्तिकाय का प्रदेश, 2. स्यात् अधर्मास्ति काय का प्रदेश, 3. स्यात् आकाशास्तिकाय का प्रदेश, 4. स्यात् जीव का प्रदेश, 5. स्यात् स्कन्ध का प्रदेश है। इस प्रकार कहने वाले ऋजुसूत्रनय से संप्रति शब्दनय ने कहा--तुम कहते हो कि प्रदेश भजनीय है, यह कहना योग्य नहीं है। क्योंकि प्रदेश भजनीय है, ऐसा मानने से तो धर्मास्तिकाय का प्रदेश अधर्मास्तिकाय का भी, याकाशास्तिकाय का भी, जीवास्तिकाय का भी और स्कन्ध का भी प्रदेश हो ___ इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश एवं स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। आकाशास्तिकाय का प्रदेश भी धर्मास्तिकाय का, अधर्मास्तिकाय का, जीवास्तिकाय का, स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। जीवास्तिकाय का प्रदेश भी धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, प्राकाशास्तिकाय का प्रदेश या स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। स्कन्ध का प्रदेश भी धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश अथवा जीवास्तिकाय का प्रदेश हो सकता है / इस प्रकार तुम्हारे मत से अनवस्था हो जायेगी। अत: ऐसा मत कहो-प्रदेश भजनीय है, किन्तु ऐसा कहो-धर्मरूप जो प्रदेश है, वहीं प्रदेश धर्म है-धर्मात्मक है, जो अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है, वही प्रदेश अधर्मास्तिकायात्मक है, जो आकाशास्तिकाय का प्रदेश है, वही प्रदेश प्राकाशात्मक है, एक जीवास्तिकाय का जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोजीव है, इसी प्रकार जो स्कन्ध का प्रदेश है, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है। इस प्रकार कहते हुए शब्दनय से समभिरूढनय ने कहा-तुम कहते हो कि धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वही प्रदेश धर्मास्तिकाय रूप है, यावत् स्कन्ध का जो प्रदेश, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है, किन्तु तुम्हारा यह कथन युक्तिसंगत नहीं है / क्योंकि यहाँ (धम्मे पएसे आदि में) तत्पुरुष और कर्मधारय यह दो समास होते हैं / इसलिये संदेह होता है कि उक्त दोनों समासों में से तुम किस समास की Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394] [अनुयोगद्वारसूत्र दृष्टि से 'धर्मप्रदेश प्रादि कह रहे हो ? यदि तत्पुरुषसमासदृष्टि से कहते होमो तो ऐसा मत कहो और यदि कर्मधारय समास की अपेक्षा कहते हो तब विशेषतया कहना चाहिये-धर्म और उसका जो प्रदेश (उसका समस्त धर्मास्तिकाय के साथ समानाधिकरण हो जाने से) वही प्रदेश धर्मास्तिकाय है। इसी प्रकार अधर्म और उसका जो प्रदेश वही प्रदेश अधर्मास्तिकाय रूप है, आकाश और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश आकाशास्तिकाय है, एक जीव और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोजीवास्तिकाय है तथा स्कन्ध और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है। ऐसा कथन करने पर समभिरूढनय से एवंभूतनय ने कहा-(धर्मास्तिकाय आदि के विषय में) जो कुछ भी तुम कहते हो वह समीचीन नहीं, मेरे मत से वे सब कृत्स्न (देश-प्रदेश की कल्पना से रहित) हैं, प्रतिपूर्ण और निरवशेष (अवयवरहित) हैं, एक ग्रहणग्रहीत हैं-~-एक नाम से ग्रहण किये गये हैं, अतः देश भी अवस्तु रूप है एवं प्रदेश भी अवस्तु रूप हैं। यही प्रदेशदृष्टान्त है और इस प्रकार नयप्रमाण का वर्णन पूर्ण हुप्रा / विवेचन–प्रदेशदृष्टान्त के द्वारा यहाँ नयों के स्वरूप का प्रतिपादन किया है। प्रदेश आदि की व्याख्या---जो अतिसूक्ष्म और जिसका विभाग न हो सके, ऐसे स्कन्ध से सम्बद्ध निविभाग भाग को प्रदेश कहते हैं।' पुद्गलद्रव्य का समग्रपिण्ड स्कन्ध और स्कन्ध का जो प्रदेश वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है / धर्मास्तिकाय आदि पांचों द्रव्यों के दो प्रादि प्रदेशों से जो निष्पन्न होता है उसे देश एवं देश का जो प्रदेश उसे देशप्रदेश कहते हैं। नयों का मन्तव्य-नैगमनय की दृष्टि से छह प्रकार के प्रदेश हैं / इसका कारण यह है कि नैगमनय का विषय सबसे अधिक विशाल है। वह सामान्य और विशेष दोनों को गौण-भूख्य रूप से विषय करता है। अतएव जब धर्मास्तिकायादि द्रव्यों में सामान्य की विवक्षा से प्रदेशव्यवस्था की जाती है तब नैगमनय ‘घटप्रदेश' शब्द का समास 'पण्ण प्रदेशः षट्प्रदेशः' ऐसा एकवचनान्त शब्दप्रयोग और जब प्रदेश विशेष की विवक्षा की जाती है तब 'षण्णां प्रदेशा: षट्प्रदेशा: ऐसा बहुवचनान्त शब्दप्रयोग करता है / इस प्रकार से नैगमनय की अपेक्षा षट्प्रदेश होते हैं। संग्रहनय की युक्ति है कि षण्णां प्रदेशा:' यह कथन संगत नहीं है / क्योंकि देश का भी जो प्रदेश माना है उस देश का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, वह धर्मास्तिकायादिकों के प्रदेशद्वय आदि में ही निष्पन्न है / इसलिये देश का प्रदेश तो वस्तुत: धर्मास्तिकायादि का ही होगा, क्योंकि द्रव्य से अभिन्न देश का प्रदेश वस्तुतः द्रव्य का ही है। लोक में देखा जाता है कि किसी के दास ने यदि गधा खरीदा, तब जैसे दास उसका माना जाता है वैसे ही गधा भी उसी का कहलायेगा। इसी प्रकार देश का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होने से प्रदेश धर्मास्तिकाय आदि पांच द्रव्यों के हैं, छह के नहीं / __ यद्यपि संग्रहनय सामान्य को विषय करता है, लेकिन विशुद्ध और अविशुद्ध की अपेक्षा उसके दो भेद हैं। इनमें से उपर्युक्त कथन अविशुद्ध संग्रहनय का है। अविशुद्ध संग्रहनय अवान्तर सामान्य रूप अपरसत्ता को विषय करता है। यह अवान्तर सामान्य अनेक प्रकार का हो सकता है। इसलिये अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाले अविशुद्ध संग्रहनय की दृष्टि से पांच द्रव्यों के प्रदेश 1. प्रकृष्टो देश: प्रदेशो निविभागो भाग इत्यर्थः / -- अनयोगद्वार, मलधारीया वत्ति , 227 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण कहना संगत है। विशुद्ध संग्रहनय अनेक द्रव्यों को और अनेक प्रदेशों को नहीं मानता है तथा सभी पदार्थों को सामान्य रूप से एक स्वीकार करता है / विशेषवादी व्यवहारनय की दष्टि में सामान्य अवस्तु है, अत: संग्रहनय के मंतव्य के निराकरण के लिये उसने यक्ति दी-पंचानां प्रदेश: यह कथन असंगत है। क्योंकि जैसे पांच गोष्ठिक पुरुषों की चांदी, सोना, धन, धान्य आदि में सामान्य साझेदारी होती है, वैसे यदि धर्मास्तिकाय प्रादि का कोई प्रदेश सामान्य हो तो पांच का प्रदेश कहना उचित है, लेकिन प्रदेश तो प्रत्येक द्रव्य के पृथक्पृथक् अपने-अपने हैं। इसलिये सामान्य प्रदेश के अभाव में 'पंचानां प्रदेशः' ऐसा कहना अयोग्य है / द्रव्य पांच प्रकार के हैं और प्रदेश तदाश्रयभूत हैं, इसलिये पंचविधः प्रदेश:--प्रदेश पांच प्रकार का है, ऐसा कहना चाहिये / ऋजुमूत्रनय तो व्यवहारनय से भी अधिक विशेषवादी है, अत: उसने व्यवहारनय की दृष्टि को भी अयुक्त मानते हुए कहा-यदि पांच प्रकार के प्रदेश माने जायें तो धर्मास्तिकाय आदि का एकएक प्रदेश पांच-पांच प्रकार का होने से प्रदेश पच्चीस प्रकार का हो जायेगा। किन्तु ऐसा कहना सिद्धान्त से बाधित है / अतएव ऐसा न कहकर भजनीयता बतलाने के लिये 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिये। जैसे स्यात् धर्मप्रदेश यावत् स्यात् स्कन्धप्रदेश / तात्पर्य यह है कि अर्थ की उपलब्धि शब्द से ही होती है। अत: जब पंचविधः प्रदेश: ऐसा कहा जायेगा तब इस कथन से प्रत्येक द्रव्यप्रदेश में पंचविधता प्रतिभासित होगी और पंचविशतिविधः प्रदेश: ऐसा 'पंचविध: प्रदेश का वाक्याथ होगा। इसलिये ऐसी भ्रान्त धारणा का निराकरण करने के लिये कहो कि धर्मप्रदेश भजनीय है कथन से अपने-अपने प्रदेश का ही ग्रहण होगा, परसंबन्धी प्रदेश का नहीं। शब्दनय की दृष्टि में ऋजुसूत्रनय की यह धारणा भी भ्रान्त है। उसका परिमार्जन करने के लिये शब्दनय का कथन है-'प्रदेश भजनीय है' ऐसा कहने पर तो जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश है वह कदाचित् धर्मास्तिकाय का भी हो सकता है और अधर्मास्तिकायादिक अन्य द्रव्यों का भी तथा अधर्मास्तिकाय का प्रदेश भी कदाचित् धर्मास्तिकायादिक का प्रदेश हो सकता है इत्यादि / इस प्रकार अनवस्था होने से वास्तविक प्रदेशस्थिति का अभाव हो जायेगा / भजना में अनियतता होने से प्रदेश अपने-अपने अस्तिकाय का होकर भी दूसरे का भी हो जाने से अनवस्था होगी ही। ऐसी स्थिति में यह कैसे समझा जाये कि जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश है वह धर्मास्तिकाय का ही है, इतर द्रव्यों का नहीं। इसलिये ऐसा कहो-जो प्रदेश धर्मास्तिकाय का है वह समस्त धर्मास्तिकाय से अभिन्न होकर ही धर्मात्मक है / इसी तरह अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय इन दोनों के प्रदेशों के विषय में भी जानना चाहिये, क्योंकि ये दोनों भी एक-एक द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय में एक देश नोजीव हैं / यहां 'नो' शब्द एक देशवाचक है। अर्थात् एक जीव सकल जीवास्तिकाय का एक देश है। एक जीवद्रव्यात्मक प्रदेश अनन्त जीवद्रव्यात्मक समस्त जीवास्तिकाय में नहीं रहता है। इसी प्रकार नोस्कन्ध के लिये भी समझना चाहिये। क्योंकि अनन्त स्कन्धात्मक पुद्गलास्तिकाय के एकदेशभूत एक स्कन्ध में रहने वाले प्रदेश की समस्त स्कन्ध रूप पुद्गलास्तिकाय में वृत्ति नहीं है, इसलिये एक स्कन्धात्मक प्रदेश को नोस्कन्ध कहा है। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र समभिरूढनय ने शव्दनय की दृष्टि को भी परिमाजित करने के लिये कहा----तुम्हारा कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि 'धर्मप्रदेश' इस समासयुक्त पद में दो समास हो सकते हैं-तत्पुरुष और कर्मधारय / यदि 'धर्मप्रदेश' पद में तत्पुरुषसमास माना जाए तो वह सप्तमी तत्पुरुष का भारंभक बन जायेगा / जैसे 'वने हस्तीति बनहस्ती' इस पद में भेदवृत्ति है अर्थात् वन और हस्ती भिन्न-भिन्न हैं, वैसे ही धर्मप्रदेश पद से भी यही अर्थ सिद्ध होगा कि धर्म और प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं तथा 'धर्म में प्रदेश हैं' यहाँ धर्म आधार है और प्रदेश प्राधेय / आधार और आधेय में भेद अनुभवसिद्ध है जैसे 'कुण्डे बदराणि' / यदि कहा जाए कि अभेद में भी सप्तमी तत्पुरुष समास देखा जाता है, जैसे 'घटे रूपम्'-घट में रूप, तो संशय होगा कि भेद में सप्तमी समास है या अभेद में ? यदि कर्मधारय समास से कहते हो तो विशेषरूप से कहना चाहिए कि-'धर्मश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशः धर्मः।' अभिप्राय यह कि यह धर्मात्मक प्रदेश समस्त धर्मास्तिकाय से अभिन्न होकर ही धर्मात्मक कहलाता है, / धर्मास्तिकाय के एक देश से अभिन्न होकर नहीं किन्तु जीवप्रदेश के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। जीवास्तिकाय में पृथक-पृथक् अनन्त जीव हैं, अतएव जीवप्रदेश सकल जीवास्तिकाय का एक देश न होकर जीवास्तिकाय के एक देश का अर्थात् किसी एक जीव का देश होकर ही जीवप्रदेश कहलाता है। इस प्रकार विशेषता बतलाकर कहना चाहिये। एवंभूतनय ने समभिरूढनय को इंगित करते हए कहा- यदि तुम धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय. आकाशास्तिकाय, पदगलास्तिकाय और जीवास्तिकाय को स्वतन्त्र जीवास्तिकाय को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हो तो यह भी मानना चाहिये कि ये सभी प्रदेश की कल्पना से रहित हैं, परिपूर्ण हैं, निरव शेष हैं, निरवयव हैं तथा एक है। मेरी दृष्टि में ये देश-प्रदेश अवस्तु ही हैं। विचार करें तो प्रदेश और प्रदेशी में भेद है या अभेद है ? भेद है नहीं, क्योंकि भेद की उपलब्धि नहीं होती है और अभेद कहो तो धर्म और प्रदेश इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ हो जाएगा / ऐसी अवस्था में दो शब्दों का नहीं, किन्तु दो में से एक ही शब्द का उच्चारण करना चाहिए, दूसरे की व्यर्थता स्वयंसिद्ध है। अतः धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल ग्रादि देश-प्रदेश रहित अखंड वस्तु हैं / इस प्रकार से ये सातों नय अपने-अपने मत की सत्यता का प्रतिपादन करने में कटिवद्ध रहते हैं और अपने दुराग्रह के कारण दुर्नय रूप हो जाते हैं। इस प्रकार नयवर्णन के प्रसंग में दुर्नय का स्वरूप भी बतला दिया है। लेकिन जब ये सातों नय अपने मत की स्थापना के साथ दूसरे नय के मत की उपेक्षा रखते हैं अर्थात् उनका तिरस्कार नहीं करते, तब उस सापेक्ष स्थिति में सुनय कहलाते हैं। इन सापेक्ष समुदित नयों में ही संपूर्ण जिनमत प्रतिष्ठित है / पृथक्-पृथक् अवस्था में नहीं है / कहा भी है उदधाविव सर्वसिन्धव: समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टय: / न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरिरिस्ववोदधिः / / हे नाथ ! जैसे सब नदियां समुद्र में एकत्र हो जाती हैं, इसी प्रकार अापके मत में सब नय एक साथ मिल जाते हैं। परन्तु आपके मत का किसी एक नय में समावेश नहीं हो सकता है। जैसे समुद्र किसी एक नदी में नहीं समाता, उसी प्रकार सभी वादियों का सिद्धान्त तो जैनमत है लेकिन संपूर्ण जिनमत किसी वादी का मत नहीं है / Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [397 नयप्रमाण के उक्त तीनों दृष्टान्तों से यह स्पष्ट है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सभी नयप्रमाण के विषय होते हैं। जैसे प्रस्थकदृष्टान्त में काल की मुख्यता है। वसतिदृष्टान्त में क्षेत्र का और प्रदेशदृष्टान्त में द्रव्य, भाव का विचार किया गया है। ये सभी नय ज्ञान रूप हैं और ज्ञान प्रात्मा का गुण है / इसलिये इन नयों का यद्यपि ज्ञानगुण में अन्तर्भाव हो जाता है, फिर भी प्रत्यक्ष प्रादि प्रमाणों से इन्हें भिन्न इस कारण कहा गया है कि प्रथम तो ये वस्तु के एक अंश का मुख्य रूप से कथन करने के कारण प्रमाणांश रूप हैं। दूसरे बहु विचार के विषय हैं। जिनागम में स्थान-स्थान पर इनका उपयोग हुआ है। प्रस्थक, वसति और प्रदेश दृष्टान्तों से यहाँ जो नय का स्वरूप निरूपण किया है वह तो केवल उपलक्षण मात्र है / इसी तरह इन नयों से जीवादि पदाथों के स्वरूप का भी वर्णन किया जा सकता है। अब क्रमप्राप्त संख्याप्रमाण का निरूपण करते हैं / संख्याप्रमारणनिरूपण 477. से किं तं संखप्पमाणे? संखप्पम गते / तं जहा-नामसंखा ठवणसंखा दध्वसंखा ओवम्मसंखा परिमाणसंखा जाणणासंखा गणणासंखा भावसंखा। [477 प्र.] भगवन् ! संख्याप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [477 उ.] आयुष्मन् ! संख्याप्रमाण आठ प्रकार का कहा है। यथा-१. नामसंख्या, 2. स्थापनासंख्या, 3. द्रव्यसंख्या, 4. प्रौपम्यसंख्या, 5. परिमाणसंख्या, 6. ज्ञानसंख्या, 7. गणनासंख्या 8. भावसंख्या। विवेचन-सूत्र में भेदों के द्वारा संख्याप्रमाण का वर्णन प्रारम्भ किया है / जिसके द्वारा संख्या—गणना की जाये उसे अथवा गणना को संख्या कहते हैं / संख्या रूप प्रमाण संख्याप्रमाण कहलाता है / प्राकृत भाषा में 'शषोः सः' सूत्र से शंख के 'श' के स्थान पर 'स' आदेश हो जाता है / अत : यहाँ 'संखा शब्द से संरया और शंख दोनों का ही ग्रहण सम भना चाहिये, जैसे 'गो' शब्द से पशु, भूमि इत्यादि का / संख्या और शंख इन दोनों का संख शब्द से ग्रहण होने के कारण नाम-स्थापना नादि के विचार में जहाँ संख्या अथवा शंख शब्द घटित होता हो वहाँ-वहाँ उस-उस शब्द की योजना कर लेना चाहिये। नाम-स्थापना संख्या 478. से कि तं नामसंखा ? नामसंखा जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयरस वा तदुभयाण वा संखा ति णामं कजति / से तं नामसंखा। [478 प्र.] भगवन् ! नामसंख्या का क्या स्वरूप है ? [478 उ.] आयुष्मन् ! जिस जीव का अथवा अजीव का अथवा जीवों का अथवा अजीवों Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398] [अनुयोगद्वारसूत्र का अथवा तदुभय (एक जोव, एक अजोव दोनों) का अथवा तदुभयों (अनेक जीवों-अजोवों दोनों) का संख्या ऐसा नामकरण कर लिया जाता है, उसे नामसंख्या कहते हैं। 479, से कि तं ठपणासंखा? ठवणासंखा जणं कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंधिकम्मे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा बराडए वा एक्को वा अणेगा वा सम्भावठवणाए वा असबभावठवणाए वा संखा ति ठवणा ठवेज्जति / से तं ठवणासंखा। [479 प्र.] भगवन् ! स्थापनासंख्या का क्या स्वरूप है ? [479 उ.] अायुष्मन् ! जिस काष्ठकर्म में, पुस्तकर्म में या चित्रकर्म में या लेप्यकर्म में अथवा प्रन्थिकर्म में अथवा बेढित में अथवा पूरित में अथवा संघातिम में अथवा अक्ष में अथवा बराटक में अथवा एक या अनेक में सद्भुतस्थापना या असद्भुतस्थापना द्वारा संख्या इस प्रकार का स्थापन (प्रारोप) कर लिया जाता है, वह स्थापनासंख्या है। 480. नाम -ठवणाणं को पतिविसेसो? नामं आवकहियं, ठवणा इत्तिरिया वा होज्जा आवकहिया वा / [480 प्र.] भगवन् ! नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? [480 उ.] प्रायुष्मन् ! नाम यावत्कथिक (वस्तु के रहने पर्यन्त) होता है लेकिन स्थापना इत्वरिक (स्वल्पकालिक) भी होती है और यावत्कर्थिक भी होती है / विवेचन-नाम और स्थापना संख्या का विशेष स्पष्टीकरण नाम-आवश्यक एवं स्थापना-यावश्यक के अनुसार समझ लेना चाहिये / नाम और स्थापना आवश्यक सम्बन्धी वर्णन पूर्व में विस्तार से किया जा चुका है। द्रव्यसंख्या 481. से कि तं दध्वसंखा? दवसंखा दुविहा पं० / तं-प्रागमओ य नोआगमतो य / [481 प्र.] भगवन् ! द्रव्यशंख का क्या तात्पर्य है ? [481 उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यशंख दो प्रकार का कहा है, जैसे—१. आगमद्रव्यशंख, 2. नोग्रागमद्रव्यशंख / 482. से कितं आगमओ दव्वसंखा? दवसंखा जस्स गं संखा ति पदं सिक्खितं ठियं जिपं मियं परिजियं जाव कंगिराह (कंठोट्ट) विष्यमुक्कं (गुरुवायणोवगयं), से गं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, नो अणुप्पेहाए, कम्हा? अणुवओगो दवमिति कटु / [482 प्र.] भगवन् ! प्रागमद्रव्यशंख का क्या स्वरूप है ? Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [482 उ.] आयुष्मन् ! आगमद्रव्यशंख (संख्या) का स्वरूप इस प्रकार है जिसने शंख (संख्या) यह पद सीख लिया, हृदय में स्थिर किया, जित किया-तत्काल स्मरण हो जाये ऐसा याद किया, मित किया--मनन किया, अधिकृत कर लिया अथवा (मानुपूर्वी, अनानुपूर्वी पूर्वक जिसको सर्व प्रकार से बार-बार दुहरा लिया) यावत् निर्दोष स्पष्ट स्वर से शुद्ध उच्चारण किया तथा गुरु से वाचना ससे वाचना, पृच्छना, परावर्तना एवं धर्मकथा से युक्त भी हो गया परन्तु जो अर्थ का अनुचिन्तन करने रूप अनुप्रेक्षा से रहित हो, उपयोग न होने से वह पागम से द्रव्यशंख (संख्या) कहलाता है / क्योंकि सिद्धान्त में 'अनुपयोगो द्रव्यम्'–उपयोग से शून्य को द्रव्य कहा है / विवेचन—प्रस्तुत सूत्रों में द्रव्यसंख्या के भेदों का कथन करके प्रथम भेद प्रागमद्रव्यशंख (संख्या) का स्वरूप बतलाया है। कोई पुरुष शंख (संख्या) पद का भली-भांति सर्व प्रकार से ज्ञाता है, किन्तु जब उसके उपयोग से रहित है अर्थात् उसके चिन्तन, मनन, ध्यान, विचार में स्थित नहीं है, तब उसकी प्रागमद्रव्यशंख संज्ञा है / यद्यपि वर्तमान में उपयोग रहित है फिर भी उस उपयोग के संस्कार सहित होने से (भूतपूर्व प्रज्ञापननय की अपेक्षा) अागम शब्द का प्रयोग किया जाता है / प्रागम द्रव्यशंख (संख्या) विषयक नयदृष्टियां इस प्रकार हैंप्रागमद्रव्यसंख्या : नयदृष्टियां 483. [1] [गमस्स] एक्को अणुवउत्तो आगमतो एका दन्वसंखा, दो अणुवउत्ता आगमतो दो दव्वसंखाओ, तिन्नि अणवउत्ता आगमतो तिग्नि दवसंखाओ, एवं जावतिया अणुवउत्ता तावतियाओ [अंगमस्स आगमतो] दश्वसंखाओ। [483-1] (नैगमनय की अपेक्षा) एक अनुपयुक्त आत्मा एक आगमद्रव्यशंख (संख्या), दो अनुपयुक्त प्रात्मा दो प्रागमद्रव्यशंख, तीन अनुपयुक्त आत्मा तीन भागमद्रव्यशंख हैं। इस प्रकार जितनी अनुपयुक्त प्रात्मायें हैं उतने ही (नैगमनय की अपेक्षा आगम) द्रव्यशंख हैं / [2] एवामेव ववहारस्स वि / [483-2] व्यवहारनय नैगमनय के समान ही आगमद्रव्यशंख को मानता है। [3] संगहस्स एको वा प्रणेगा वा अणुवउत्तो वा अणुबउत्ता वा [आगमओ] दव्वसंखा वा दध्वसंखाओ वा [सा एगा दब्वसंखा] / [483-3] संग्रहनय (सामान्य-मात्र को ग्रहण करने वाला होने से) एक अनुपयुक्त आत्मा (आगम से) एक द्रव्यशंख और अनेक अनुपयुक्त आत्मायें अनेक आगमद्रव्यशंख, ऐसा स्वीकार नहीं करता किन्तु सभी को एक ही आगमद्रव्य शंख मानता है / [4] उज्जुसुयस्स [एगो अणुवउत्तो] आगमओ एका दव्वसंखा, पुहत्तं णेच्छति / [483-4] ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा (एक अनुपयुक्त आत्मा) एक आगमद्रव्यशंख है। वह भेद को स्वीकार नहीं करता है। [5] तिण्हं सद्दणयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू, कम्हा ? जति जाणए अणुवउत्ते ण भवति / सेतं आगमओ दन्यसंखा। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 [अनुयोगद्वारसूत्र [483.5] तीनों शब्द नय (शब्द, समभिरुड और एवंभूत नय) अनुपयुक्त ज्ञायक को अवस्तु---असत् मानते हैं। क्योंकि यदि ज्ञायक है तो अनुपयुक्त (उपयोगरहित) नहीं होता है और यदि अनुपयुक्त हो तो वह ज्ञायक नहीं होता है / इसलिये आगमद्रव्यशंख संभव नहीं है / यह प्रागमद्रव्यशंख का स्वरूप है। विवेचन---भागमद्रव्य-आवश्यक के वर्णन में नयष्टियों का विस्तार से विचार किया जा चुका है। अतः उसी तरह आवश्यक के स्थान पर शंख शब्द रखकर यहाँ भी समझ लेना चाहिये / नोग्रागमद्रव्यसंख्यानिरूपण 484. से कि तं नोआगमतो दव्वसंखा ? नोआगमतो दव्वसंखा तिविहा पं० / तं० -जाणयसरोरदध्वसंखा भवियसरीरदश्वसंखा जाणयसरीरभवियसरीरवतिरित्ता दश्वसंखा / [484 प्र.] भगवन् ! नोपागमद्रव्यसंख्या का क्या स्वरूप है ? 6484 उ.] आयुष्मन् ! नोमागमद्रव्यसंख्या के तोन भेद हैं-१. ज्ञायकशरीरद्रव्यसंख्या 2. भव्यशरीरद्रव्यसंख्या, 3. ज्ञायकशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तद्रव्यसंख्या / 485. से कि तं जाणगसरीरदव्वसंखा ? जाणगसरीरदव्वसंखा संखा ति पयत्याहिकार-जाणगस्त जं सरीरयं ववगय-चुय-चइत-चत्तदेहं जीवविष्पजलं जाव अहो ! णं इमेणं सरोरसमूसएणं संखा ति पयं आघवितं जाव उवदंसियं, जहा को दिळंतो? अयं घयकुमे आसि / से तं नाणगसरीरदन्यसंखा / [485 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्यसंख्या का क्या स्वरूप है ? [485 उ.] आयुष्मन् ! संख्या इस पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का वह शरीर, जो व्यपगतचैतन्य से रहित हो गया हो, च्युत-च्यवित-त्यक्त देह यावत् जीवरहित शरीर को देखकर कहनाअहो! इस शरीर रूप पुद्गलसंघात (समुदाय) ने संख्या पद को (गुरु से) ग्रहण किया था, पड़ा था यावत उपदर्शित किया था-नय और युक्तियों द्वारा शिष्यों को समझाया था, (उसका वह शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्यसंख्या है / ) [प्र.] इसका कोई दृष्टान्त है ? [उ.] (हाँ, दृष्टान्त है---जैसे घड़े में से घी निकालने के बाद भी कहा जाता है कि) यह घी का घड़ा है / यह ज्ञायकशरीरद्रव्यसंख्या का स्वरूप है / विवेचन–प्रस्तुत सूत्रों में निक्षेपदृष्टि से नोागमद्रव्यसंख्या के तीन भेद करके प्रथम नोमागमज्ञायकशरीर भेद का स्वरूप बतलाया है / यहाँ आत्मा का शरीर में प्रारोप करके जीव के त्यक्त शरीर को नोग्रागमद्रव्य कहा गया है। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण]] (401 चय-चइत्त-चत्तदेहं का अर्थ-विपाकवेदन द्वारा आयुकर्म के क्षय से पके हुए फल के समान अपने आप पतित होने वाले शरीर को चुय (च्युत) शरीर, विषादि के द्वारा प्रायु के छिन्न होने पर निर्जीव हुए शरीर को (चइत्त) च्यावितशरीर तथा संलेखना संथारापूर्वक स्वेच्छा से त्यागे गये शरीर को चत्तदेह (त्यक्तशरीर) कहते हैं। भव्यशरीरद्रव्यसंख्या निरूपण 486. से कि तं भवियसरीरदश्वसंखा ? भवियसरीरदश्वसंखा जे जीवे जोणोजम्मणणिक्खंते इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिटेणं भावेणं संखा ति पयं सेकाले सिक्खिस्सति, जहा को दिद्रुतो ? अयं घयफुभे भविस्सति / से तं भवियसरीरदबसंखा। [486 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यसंख्या का क्या स्वरूप है ? [486 उ.] आयुष्मन् ! जन्म समय प्राप्त होने पर जो जीव योनि से बाहर निकला और भविष्य में उसी शरीरपिंड द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार संख्या पद को सीखेगा (वर्तमान में सीख नहीं रहा है) ऐसे उस जीव का वह शरीर भब्यशरीरद्रव्यसंख्या है / [प्र.] इसका कोई दृष्टान्त है ? [उ.] (जैसे घी भरने के लिये कोई घड़ा हो किन्तु अभी उसमें घी नहीं भरा हो तो उसके लिये कहना) यह घृतकुंभ-घी का घड़ा होगा। यह भव्यशरीरद्रव्यसंख्या का स्वरूप है। विवेचन—सूत्र में भव्यशरीरद्रव्यसंख्या (शंख) का स्वरूप बताया है। यह भविष्यकालीन योग्यता की अपेक्षा जानना चाहिये / पर्यायाथिकनय की अपेक्षा भावी पर्याय की मुख्यता से यह भेद बनता है। ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यशंख 487. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दग्वसंखा ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दब्वसंखा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा–एगभविए बद्धाउए अभिमुहणामगोत्ते य। [487 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरी रब्यतिरिक्त द्रव्यशंख का क्या स्वरूप है ? [487 उ. आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यशंख के तीन प्रकार हैं१. एकभविक, 2. बदायुष्क और 3. अभिमुखनामगोत्र / विवेचन इस सूत्र में ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तनोमागमद्रव्यशंख का भेदमुखेन स्वरूप बतलाया है। संक्षेप में इसके लिये 'तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्य' शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। एकभाविक आदि का आशय-जिस जीव ने अभी तक शंखपर्याय की आयु का बंध नहीं किया है, परन्तु मरण के अनन्तर शंखपर्याय प्राप्त करने वाला है उसे एकभविक कहते हैं। जिस जीव ने शंखपर्याय में उत्पन्न होने योग्य प्रायु का बंध कर लिया है, ऐसा जीव बद्धायुष्क कहलाता Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402] [अनुयोगद्वारसूत्र है। निकट भविष्य में जो लीव शंखयोनि में उत्पन्न होने वाला है तथा जिसके द्वीन्द्रिय जाति प्रादि नामकर्म एवं नीच गोत्र रूप गोत्रकर्म जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त के बाद उदयाभिमुख होने वाला है, उस जीव को अभिमुखनामगोत्रशंख कहते हैं। ये तीनों प्रकार के जीव भावशंखता के कारण होने से ज्ञशरीर और भव्यशरीर इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्यशंख रूप हैं। द्विभविक, त्रिभविक, चतुर्भविक प्रादि जीवों को द्रव्यशंख इसलिये नहीं कहते हैं कि ऐसे जीव भावशंखता के अव्यवहित कारण नहीं हैं। वे मरकर प्रथम भव में शंख की पर्याय में उत्पन्न नहीं होकर दूसरी-दूसरी पर्यायों में उत्पन्न होते हैं। जबकि एकभाविक भावशंखता के प्रति अव्यवहित कारण है। वह जीव मरकर निश्चित रूप से शंख की पर्याय में ही उत्पन्न होने वाला है। इसीलिये उसकी द्रव्यशंख यह संज्ञा है।' 488. एगभविए णं भंते ! एगभविए त्ति कालतो केवचिरं होति ? जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुन्चकोडी।। [488 प्र.] भगवन् ! एकभविक जीव 'एकभविक' ऐसा नाम वाला कितने समय तक रहता है ? [488 उ.] आयुष्मन् ! एकभविक जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक पूर्व कोटि पर्यन्त (एकभविक नाम वाला) रहता है। विवेचन-सूत्र में एकभविक द्रव्यशंख की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अन्तमहर्त और एक पूर्वकोटि की इसलिये बताई है कि पृथ्वी आदि किसी एकभव में अन्तर्महर्त तक जीवित रहकर तदनन्तर जो मरण करके शंखपर्याय में उत्पन्न हो जाता है, वह जीव अन्तर्मुहूर्त तक एकभविक शंख कहलाता है। जीवों की कम से कम आयु अन्तर्मुहर्त की होती है, इसीलिये जघन्य पद में अन्तर्मुहर्त का ग्रहण किया है। जो जीव मत्स्य आदि किसी एक भव में उत्कृष्ट रूप से एक पूर्वकोटि तक जीवित रहकर मरते ही शंखपर्याय में उत्पन्न होता है, वह पूर्वकोटि तक एकभविक शंख कहलाता है। क्योंकि जिस जीव की पूर्वकोटि से अधिक आयु होती है वह असंख्यात वर्ष की आयु बाला होने से मरकर देवपर्याय में ही उत्पन्न होता है, शंखपर्याय में नहीं / इस कारण उत्कृष्ट पद में पूर्वकोटि का कथन किया है। 489. बताउए णं भंते ! बताउए त्ति कालतो केवचिरं होति ? जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडीतिभागं / [489 प्र.] भगवन् ! बद्धायुष्क जीव बद्घायुष्क रूप में कितने काल तक रहता है ? [489 उ.] आयुष्मन् ! (बद्धायुष्क जीव बद्धायुष्क रूप में) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक पूर्वकोटि वर्ष के तीसरे भाग तक रहता है / विवेचन-सूत्रगत कथन का प्राशय यह है कि जबसे कोई जीव भुज्यमान प्रायु में रहते 1. अनुयोग. मलधारीयावृत्ति पृ. 231 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] परभव की आयु का बंध कर लेता है, तब से उसे बद्धायुष्क कहते हैं। यहाँ बद्धायुष्क द्रव्यशंख के समय का विचार किया जा रहा है / अतएव भुज्यमान आयु जघन्य से अन्तर्मुहूर्त जब शेष रह जाये, उस समय कोई जीव शंख योनि की प्राय का बंध करे, उसकी अपेक्षा बद्धायष्क का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है और भुज्यमान आयु के पूर्वकोटि के त्रिभाग बाकी रहने पर जो जीव परभव की प्रायु का बंध करता है, उसकी अपेक्षा पूर्वकोटि का त्रिभाग समय कहा है। 490. अभिमुहनामगोते णं भंते ! अभिमुहनामगोत्ते त्ति कालतो केवचिरं होति ? जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुतं / [490 प्र.) भगवन् ! अभिमुखनामगोत्र (शंख) का अभिमुखनामगोत्र नाम कितने काल तक रहता है ? [490 उ.] आयुष्मन् ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रहता है। विवेचन-उक्त प्रश्नोत्तर का तात्पर्य यह है कि जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अभिमुख नामगोत्र वाला रहकर बाद में भावशंख रूप पर्याय को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार एकभविक और बदायुष्क के लिये भी समझना चाहिये कि वे जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थिति के बाद अवश्य ही भावरूपता को प्राप्त हो जाते हैं। एकविक आदि शंखविषयक नयदृष्टि 491. इयाणि को गओ कं संखं इच्छति ? तत्थ णेगम-संगह-ववहारा तिविहं संखं इच्छंति, तं जहा-एक्कभवियं बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च / उजुसुओ दुविहं संखं इच्छति, तं जहा-बद्धाउयं च अभिमुहनामगोत्तं च / तिणि सद्दणया अभिमुहणामगोत्तं संखं इच्छति / से तं जाणयसरीरभवियसरीरवारिता दश्वसंखा / से तं नोआगमओ दव्वसंखा / से तं दध्वसंखा। [491 प्र.] भगवन् ! कौन नय इन तीन शंखों में से किस शंख को मानता है ? [491 उ.] अायुष्मन् ! नंगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र तीनों प्रकार के शंखों को शंख मानते हैं। ऋजुसूत्रनय 1. बद्धायुष्क और 2. अभिमुखनामगोत्र, ये दो प्रकार के शंख स्वीकार करता है। तीनों शब्दनय मात्र अभिमुखनामगोत्र शंख को ही शंख मानते हैं। इस प्रकार ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यशंख का स्वरूप जानना चाहिये / यही नोआगम द्रव्यशंख (संख्या) का स्वरूप है और इसी के साथ द्रव्यसंख्या का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में तद्व्यतिरिक्त शंख (संख्या) के विषय में नयों का मंतव्य स्पष्ट करते हुए द्रव्यसंख्याप्रमाण की समाप्ति का कथन किया है। नैगम आदि प्रथम तीन नय स्थल दष्टि वाले होने से तीनों प्रकार के शंखों को शंख रूप में मानते हैं। क्योंकि वे आगे होने वाले कार्य के कारण में कार्य का उपचार करके बर्तमान में उसे कार्य रूप में मान लेते हैं, जैसे भविष्य में राजा होने वाले राजकुमार को भी राजा कहते हैं। इसी Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404] (अनुयोगद्वारसूत्र प्रकार एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र, ये तीनों प्रकार के द्रव्यशंख अभी तो नहीं किन्तु भविष्य में भावशंख होंगे, इसीलिये ये तीनों नय इनको भावशंख रूप में स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्रनय पूर्व नयत्रय की अपेक्षा विशेष शुद्ध है / अतः यह बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र-इन दो प्रकार के शंखों को मानता है। इसका मत है कि एकभविक जीव को शंख नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वह भावशंख से अतिव्यवहित-बहुत अन्तर पर है। उसे शंख मानने में अतिप्रसंग दोष होगा। शब्द. समभिरूढ और एवंभूत नय ऋजसत्रनय से भी शुद्ध हैं। इस कारण भावशंख के समीप होने से तीसरे अभिमुखनामगोत्र शंख को तो शंख मानते हैं, किन्तु प्रथम दोनों प्रकार के (एकभविक, बद्धायुष्क) शंख भावशंख के प्रति प्रति व्यवहित होने से उन्हें शंख के रूप में मान्य नहीं करते। प्राकृत संखा' शब्द के संख्या और शंख ये दो रूप होने से प्रस्तुत निरूपण में जहाँ जो रूप घटित हो सकता हो, वह घटित कर लेना चाहिए। औपम्यसंख्यानिरूपण 492. [1] से कि तं ओवम्मसंखा ? प्रोवम्मसंखा चउम्विहा पण्णत्ता। तं जहा-अस्थि संतयं संतएणं उवमिज्जइ 1 अस्थि संतयं असंतएणं उवमिज्जइ 2 अत्थि असंतयं संतएणं उवमिज्जइ 3 अस्थि असंतयं असंतएणं उवमिज्जइ 4 / [492-1 प्र.] भगवन् ! प्रौपम्यसंख्या का क्या स्वरूप है ? [492-1 उ.] आयुष्मन् ! (उपमा देकर किसी वस्तु के निर्णय करने को औपम्यसंख्या कहते हैं।) उसके चार प्रकार हैं। जैसे 2.सद वस्तु को सद वस्त की उपमा देना / 2. सद् वस्तु को असद् वस्तु से उपमित करना / 3. असद् वस्तु को सद् वस्तु की उपमा देना / 4. असद् वस्तु को असद् वस्तु की उपमा देना / विवेचन--सूत्रार्थ स्पष्ट है। यहाँ औपम्य संख्या के चार प्रकार बतलाए हैं, जिनका आगे वर्णन करते है। सद्-सद्रूप श्रौपम्यसंख्या __ [2] तत्थ संतयं संतएणं उवभिज्जइ, जहा-संता अरहंता संतएहि पुरवरेहि संतएहि कवाडएहिं संतएहिं वच्छएहिं उवमिति, तं जहा पुरवरकवाडवच्छा फलिह या दुंदुभित्थणियघोसा / सिरिवच्छंकियवच्छा सन्वे वि जिणा चउन्वीसं // 116 // _[492-2] इनमें से जो सद् वस्तु को सद् वस्तु से उपमित किया जाता है, वह इस प्रकार सद्रूप अरिहंत भगवन्तों के प्रशस्त वक्षस्थल को सद्रूप श्रेष्ठ नगरों के सत् कपाटों की उपमा देना, जैसे Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [405 सभी चौबीस जिन-तीर्थकर प्रधान-उत्तम नगर के (तोरणद्वार--फाटक के) कपाटों के समान वक्षस्थल, अर्गला के समान भुजाओं, देवदुन्दुभि या स्तनित (मेघ के निर्घोष) के समान स्वर और श्रीवत्स (स्वस्तिक विशेष) से अंकित वक्षस्थल वाले होते हैं / 119 विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सद्रूप पदार्थ को सद्रूप पदार्थ से उपमित किया गया है। चौबीस जिन भगवान् सद्रूप हैं और नगर के कपाटों का भी अस्तित्व है। सद्रूप कपाटो से अरिहंत भगवन्तों के वक्षःस्थल को जो उपमित किया गया है, उसमें कपाट उपमान है और अरिहंत भगवन्तों का वक्षःस्थल उपमेय है। इसी प्रकार उनकी भुजाओं आदि के विषय में भी समझना चाहिये / तात्पर्य यह है कि यदि कोई, तीर्थकर के वक्षःस्थल आदि कैसे होते हैं ? यह जानना चाहता है तो वह नगर के मुख्य प्रवेशद्वार के कपाट आदि उपमानों के द्वारा उपमेयभूत अरिहंतों के वक्षःस्थल आदि को जान लेता है तथा वक्षःस्थल आदि तीर्थकर के अविनाभावी होने से तीर्थकर भी उपमित हो जाते हैं / सद-प्रसद्रूप औपम्यसंख्या [3] संतयं असंतएणं उवमिज्जइ जहा--संताई नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणूस-देवाणं आउयाइं असंतएहि पलिओवम-सागरोवमेहि उवमिज्जंति / [492-3] विद्यमान पदार्थ को अविद्यमान पदार्थ से उपमित करना / जैसे नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की विद्यमान प्रायु के प्रमाण को अविद्यमान पल्योपम और सागरोपम द्वारा बतलाना / विवेचन-इस कथन में नारक आदि जीवों का आयुष्य सद्रूप है और पल्योपम-सागरोपम असद्रूप कल्पना द्वारा परिकल्पित होने से असद्प हैं / किन्तु इनके द्वारा ही उनकी आयु बताई जा सकती है। इसीलिये इसको सद्रूप उपमेय और असद्रूप उपमान के रूप में प्रस्तुत किया है। नारकादिकों की आयु उपमेय है और पल्योपम एवं सागरोपम उपमान हैं। असत्-सत् प्रौपम्यसंख्या [4] असंतयं संतएणं उवमिन्जति जहा--- परिजूरियपेरंतं चलंतबेट पडत निच्छोरं / पत्तं वसणप्पत्तं कालप्पत्तं भणइ गाहं // 120 // जह तुम्भे तह अम्हे, तुम्हे वि य होहिहा जहा अम्हे / अप्पाहेति पडतं पंडयपत्तं किसलयाणं // 121 // णवि अस्थि णवि य होही उल्लायो किसल-पंडुपत्ताणं / / उवमा खलु एस कया भवियजणविबोहणट्ठाए / / 122 // [492-4] अविद्यमान-असद्वस्तु को विद्यमान सद्वस्तु से उपमित करने को असत्-सत् औपम्यसंख्या कहते हैं / वह इस प्रकार है सर्व प्रकार से जीर्ण, डंठल से टूटे, वृक्ष से नीचे गिरे हुए, निस्सार और (वृक्ष से वियोग हो जाने से) दुःखित ऐसे पत्ते ने वसंत समय प्राप्त नवीन पत्ते (किसलय-कोपल) से कहा Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 [अनुयोगद्वारसूत्र किसी गिरते हुए पुराने–जीर्ण पीले पत्ते ने नवोद्गत किसलयों-कोंपलों से कहा-इस समय जैसे तुम हो, हम भी पहले वैसे ही थे तथा इस समय जैसे हम हो रहे हैं, वैसे ही आगे चलकर तुम भी हो जाओगे। यहाँ जो जीर्ण पत्तों और किसलयों के वार्तालाप का उल्लेख किया गया है, वह न तो कभी हुना है, न होता है और न होगा, किन्तु भव्य जनों के प्रतिबोध के लिये उपमा दी गई है / 120, 121, 122 / विवेचन--प्रस्तुत दृष्टान्त में 'जह तुम्भे तह अम्हे' इस पद में उपमाभूत किसलय अवस्था तत्काल विद्यमान होने से सद्रूप है और उपमेयभूत तथाविध जीर्ण आदि रूप पत्रावस्था अविद्यमान होने से असद्रूप है तथा 'तुम्हे वि य होहिहा जहा अम्हे' यहाँ जीर्ण-शीर्ण आदि पत्रावस्था तत्कालवर्ती होने से सद्रूप है और किसलयों की तथाविध अवस्था भविष्यकालीन होने के कारण वर्तमान में अविद्यमान होने से असद्रूप है / इस प्रकार असत् सत् से उपमित हुआ है। सूत्रोक्त तीन गाथायें भव्य जनों के प्रतिबोधनार्थ हैं, यथा-संसार की सभी वस्तुएं अनित्य होने से कभी भी एक जैसी नहीं रहती हैं। अतः स्वाभ्युदय में अहंकार और पर का अनादर नहीं करना चाहिये। असद्-असद्रूप प्रौपम्यसंख्या [5] असंतयं असंतएण उवमिज्जति–जहा खरविसाणं तहा ससविसाणं / से तं ओवम्मसंखा / [492-5] अविद्यमान पदार्थ को अविद्यमान पदार्थ से उपमित करना असद्-असद्रूप प्रौपम्यसंख्या है / जैसा-खर (गधा) विषाण (सींग) है वैसा ही शश (खरगोश) विषाण है और जैसा शशविषाण है वैसा ही खरविषाण है। इस प्रकार से औपम्यसंख्या का निरूपण जानना चाहिये / विवेचन--इस विकल्प में उपमानभूत खरविषाण का त्रिकाल में भी सत्त्व न होने से वे असद्रूप है, वैसे ही उपमेयभूत शशविषाण भी असद्-रूप हैं। इस प्रकार असत् से असत् उपमित हुआ है। परिमाणसंख्यानिरूपमा 493. से कि तं परिमाणसंखा ? परिमाणसंखा दुविहा पग्णत्ता। तं०-कालियसुयपरिमाणसंखा दिट्टिवायसुयपरिमाणसंखा य / [493 प्र.] भगवन् ! परिमाणसंख्या का क्या स्वरूप है ? [493 उ. आयुष्मन् ! परिमाणसंख्या दो प्रकार की कही गई है / जैसे-१. कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या और 2. दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या। विवेचन प्रस्तुत सूत्र परिमाणसंख्या के निरूपण की भूमिका है। जिसकी गणना की जाये उसे संख्या और जिसमें पर्यव आदि के परिमाण का विचार किया जाये उसे परिमाणसंख्या कहते हैं। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [407 कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या 464. से कि तं कालियसुयपरिमाणसंखा ? कालियसुयपरिमाणसंखा अणेगविहा पण्णता / तं जहा---पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघायसंखा पदसंखा पादसंखा गाहासंखा सिलोगसंखा वेढसंखा निज्जुत्तिसंखा अणुओगदारसंखा उद्देसगसंखा अज्मयणसंखा सुयखंधसंखा अंगसंखा / से तं कालियसुयपरिमाणसंखा। [494 प्र.] भगवन् ! कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या क्या है ? [494 उ.] आयुष्मन् ! कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या अनेक प्रकार की कही गई है / यथा१. पर्यव (पर्याय) संख्या, 2. अक्षरसंख्या, 3. संघातसंख्या, 4. पदसंख्या, 5. पादसंख्या, 6. गाथासंख्या, 7. श्लोकसंख्या, 8. वेढ (वेष्टक) संख्या, 9. नियुक्तिसंख्या, 10. अनुयोगद्वारसंख्या, 11. उद्देशसंख्या, 12. अध्ययनसंख्या, 13. श्रुतस्कन्धसंख्या, 14. अंगसंख्या आदि कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में कालिकश्रुतपरिमाण की संख्या के कतिपय नामों का उल्लेख किया है। जिस श्रुत का रात्रि व दिन के प्रथम और अंतिम प्रहर में स्वाध्याय किया जाये उसे कालिकश्रत कहते हैं। इसके अनेक प्रकार हैं। जैसे-उत्तराध्ययनसूत्र, दशाश्रतस्कन्धकल्प (बहल्कल्प), व्यवहारसूत्र, निशीथसूत्र आदि / ' जिसके द्वारा इनके इलोक आदि के परिमाण का विचार हो उसे कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या कहते हैं / ___ पर्यवसंख्या आदि के अर्थ-१. पर्यव, पर्याय अथवा धर्म और उसकी संख्या को पर्यवसंख्या कहते हैं। 2. अकार आदि अक्षरों की संख्या-गणना को अक्षरसंख्या कहते हैं। अक्षर संख्यात होते हैं, अनन्त नहीं। इसलिये अक्षरसंख्या संख्यात है। 3. दो आदि अक्षरों के संयोग को संघात कहते हैं। इसकी संख्या-गणना संघातसंख्या कहलाती है / यह संघातसंख्या भी संख्यात ही है। 4. सुबन्त और तिङ्गन्त अक्षरसमूह पद कहलाता है / पदों की संख्या को पदसंख्या कहते हैं / 5. श्लोक आदि के चतुर्थाश को पाद कहते हैं। इनकी संख्या को पादसंख्या कहते हैं / 6. प्राकृत भाषा में लिखे गये छन्दविशेष को गाथा कहते हैं / इस गाथा-संख्या-गणना का नाम गाथासंख्या है। 7. श्लोकों की संख्या श्लोकसंख्या है। 8. बेष्टकों (छन्दविशेष) की संख्या वेष्टकसंख्या कहलाती है / 1. कालिकश्रुत के रूप में संकलित सूत्रों के नाम आदि विशेष वर्णन के लिये देखिये नन्दीसूत्र (प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर) सूत्र 81 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 [अनुयोगद्वारसूत्र 9. नियुक्ति की संख्या को नियुक्तिसंख्या कहते हैं / 10. व्याख्या के उपायभूत सत्पदप्ररूपण अथवा उपक्रम आदि अनुयोगद्वार कहलाते हैं / इनकी संख्या को अनुयोगदारसंख्या कहते हैं / 11. अध्ययनों के अंशविशेष को उद्देशक कहते हैं। इनकी संख्या उद्देशकसंख्या कहलाती है। 12. शास्त्र के भागविशेष को अध्ययन कहते हैं / इनकी संख्या अध्ययनसंख्या है। 13. अध्ययनों के समूह रूप शास्त्रांश का नाम श्रुतस्कन्ध है। इनकी संख्या श्रुतस्कन्धसंख्या कहलाती है। 14. अंगों की संख्या को अंगसंख्या कहते हैं। आचारांग आदि आगमों का नाम अंग है। इस प्रकार से कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या का निरूपण जानना चाहिये / दृष्टिवादश्रुतपरिमारगसंख्यानिरूपरण। __ 495. से कि तं दिद्विवायसुयपरिमाणसंखा ? दिट्ठिवायसुयपरिमाणसंखा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा–पज्जवसंखा भाव अणोगदारसंखा पाहुडसंखा पाहुडियासंखा पाहुडपाहुडियासंखा वत्थुसंखा पुन्वसंखा / से तं विट्ठियायसुयपरिमाणसंखा / से तं परिमाणसंखा। [495 प्र.] भगवन् ! दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या क्या है ? [495 उ.] प्रायुष्मन् ! दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या के अनेक प्रकार कहे गये हैं। यथापर्यवसंख्या यावत् अनुयोगद्वारसंख्या, प्राभृतसंख्या, प्रामृतिकासंख्या, प्राभृतप्राभृतिकासंख्या, वस्तुसंख्या और पूर्वसंख्या / इस प्रकार से दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या का स्वरूप जानना चाहिये। __यही परिणामसंख्या का निरूपण है। विवेचन इस सूत्र में दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या का प्रतिपादन किया है। जिसमें पर्यवसंख्या से लेकर अनुयोगद्वारसंख्या तक के नाम तो कालिकथुतपरिमाणसंख्या के अनुरूप हैं और शेष प्रामृत आदि अधिक नामों का उल्लेख सूत्र में किया है। ये प्राभृत आदि सब पूर्वान्तर्गत श्रुताधिकार विशेष हैं।' इस प्रकार से परिमाणसंख्या का निर्देश करने के बाद अब ज्ञानसंख्या के स्वरूप का वर्णन किया जाता है। ज्ञानसंख्यानिरूपण 466. से कि तं जाणणासंखा? जाणणासंखा जो जं जाणइ सो तं जाणति, तं जहा-सह सहिओ, गणियं गणिओ, निमित्तं नेमित्तिओ, कालं कालनाणी, वेज्जो वेज्जियं / से तं जाणणासंखा। 1. प्राभृतादयः पूर्वान्तर्गताः श्रुताधिकारविशेषाः। ---अनुयोगद्वार, टीका पृ. 234 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण 1409 [496 प्र.] भगवन् ! ज्ञानसंख्या का क्या स्वरूप है ? [496 उ.] अायुष्मन् ! जो जिसको जानता है उसे ज्ञानसंख्या कहते हैं / जैसे कि---शब्द को जानने वाला शाब्दिक, गणित को जानने वाला गणितज-गणिक, निमित्त को जानने वाला नैमित्तिक, काल को जानने वाला कालज्ञानी (कालज्ञ) और वैद्यक को जानने वाला वैद्य। यह ज्ञानसंख्या का स्वरूप है। विवेचन -जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाता है-निश्चय किया जाता है, उसे ज्ञान और इस ज्ञान रूप संख्या को ज्ञानसंख्या कहते हैं। जैसे देवदत्त आदि जिस शब्द आदि को जानता है, वह उस शब्दज्ञान बाला आदि कहा जाता है। यह कथन ज्ञान और ज्ञानी में अभेदोपचार की अपेक्षा जानना चाहिये। इसी को ज्ञानसंख्या कहते हैं / अब गणनासंख्या का स्वरूपनिरूपण करते हैं / गणनासंख्यानिरूपरण 467. से कि तं गणणासंखा? गणणासंखा एक्को गणणं न उवेति, दुप्पभितिसंखा। तं जहा—संखेज्जए असंखेन्जए अणंतए। [497 प्र. भगवन् ! गणनासंख्या का क्या स्वरूप है ? 6497 उ.] आयुष्मन् ! (ये इतने हैं, इस रूप में गिनती करने को गणनासंख्या कहते हैं।) 'एक' (1) गणना नहीं कहलाता है इसलिये दो से गणना प्रारंभ होती है। वह गणनासंख्या 1. संख्यात, 2. असंख्यात और 3. अनन्त, इस तरह तीन प्रकार की जानना चाहिये / विवेचन--'ये इतने हैं' इस रूप से गिनती को गणना कहते हैं और यह गणनारूप संख्या गणनासंख्या कहलाती है।' यह गणना दो से प्रारम्भ होती है। एक संख्या तो है किन्तु गणना नहीं है। क्योंकि एक घटादि पदार्थ के दिखने पर घटादिक रखे हैं ऐसा कहा जाता है किन्तु 'एक संख्या विशिष्ट यह घट रखा है' ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अथवा लेन-देन के व्यवहार में एक वस्तु प्राय: गणना की विषयभूत नहीं होती है, इसलिये असंव्यवहार्य अथवा अल्प होने के कारण एक को गणनासंख्या का विषय नहीं कहा जाता है। यह गणनासंख्या संख्येय (संख्यात), असंख्येय (असंख्यात) और अनन्त के भेद से तीन प्रकार की है / जिनका अब अनुक्रम से विस्तृत वर्णन करते है। संख्यात प्रादि के भेद 468. से कि तं संखेज्जए ? संखेज्जए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा—जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए। [498 प्र.] भगवन् ! संख्यात का क्या स्वरूप है ? ___1. 'एतावन्त एते' इति सङ्ग ख्यानं गणना सङख्या। -अनु. मलधारीया वृत्ति पत्र 234 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410] [अनुयोगटारसूत्र [498 उ.] अायुष्मन् ! संख्यात तीन प्रकार का षतिपादन किया गया है। वह इस प्रकार१. जघन्य संख्यात, 2. उत्कृष्ट संख्यात और 3. अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) संख्यात / 499. से कि तं असंखेन्जए ? असंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--परित्तासंखेज्जए जुत्तासंखेज्जए असंखेज्जासंखेज्जए। [499 प्र.] भगवन् ! असंख्यात का क्या स्वरूप है ? [499 उ.] आयुष्मन् ! असंख्यात के तीन प्रकार हैं। जैसे--१. परीतासंख्यात, 2. युक्तासंख्यात और 3 असंख्यातासंख्यात / 500. से कितं परित्तासंखेज्जए ? परित्तासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते / तं०-जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए / {500 प्र.] भगवन् ! परीतासंख्यात का क्या स्वरूप है ? [500 उ.] आयुष्मन् ! परीतासंख्यात तीन प्रकार का कहा है-१. जघन्य परीतासंख्यात, 2. उत्कृष्ट परीतासंख्यात और 3. अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) परीतासंख्यात / 501. से कि तं जुत्तासंखेज्जए ? जुत्तासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते / सं०-जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए / [501 प्र.] भगवन् ! युक्तासंख्यात का क्या स्वरूप है ? [501 उ.] आयुष्मन् ! युक्तासंख्यात तीन प्रकार का निरूपित किया है / यथा--- 1. जघन्य युक्तासंख्यात, 2. उत्कृष्ट युक्तासंख्यात और 3 अजघन्यानुत्कृष्ट (मध्यम) युक्तासंख्यात / 502. से कि तं असंखेज्जासंखेज्जए? असंखेज्जासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते। तं जहा--जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए। {502 प्र.] भगवन् ! असंख्यातासंख्यात का क्या स्वरूप है ? [502 उ.] आयुष्मन् ! असंख्यातासंख्यात तीन प्रकार का है। यथा-१ जघन्य असंख्यातासंख्यात, 2. उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात और 3. अजघन्यानुत्कृष्ट (मध्यम) असंख्यातासंख्यात / 503. से कि तं अणंतए ? अणंतए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा—परित्ताणतए जुत्ताणतए अणताणतए। [503 प्र.] भगवन् ! अनन्त का क्या स्वरूप है ? [503 उ.] आयुष्मन् ! अनन्त के तीन प्रकार हैं। यथा- 1. परीतानन्त, 2. युक्तानन्त और 3. अनन्तानन्त / 504. से कि तं परित्ताणतए ? परित्ताणतए तिबिहे पण्णत्ते / तं०-जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए। [504 प्र.] भगवन् ! परीतानन्त किसे कहते हैं ? Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [411 [504 उ.] आयुष्मन् ! परीतानन्त तीन प्रकार का प्रतिपादन किया गया है। यथा—१. जघन्य परीतानन्त, 2. उत्कृष्ट परीतानन्त और 3 अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) परीतानन्त / 505. से किं तं जुत्ताणतए ? जुत्ताणतए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा–जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए। [505 प्र.] भगवन् ! युक्तानन्त किसे कहते हैं ? [505 उ.] आयुष्मन् ! युक्तानन्त के तीन प्रकार कहे हैं। वे इस प्रकार-१. जघन्य युक्तानन्त, 2. उत्कृष्ट युक्तानन्त 3. अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) युक्तानन्त / 506. से कि तं अर्थताणतए ? अणंताणतए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-जहण्णए य अजहण्णमणुक्कोसए य / [506 प्र.] भगवन् ! अनन्तानन्त का क्या स्वरूप है ? [506 उ.] अायुष्मन् ! अनन्तानत्त के दो प्रकार कहे हैं। यथा--१. जघन्य अनन्तानन्त और 2. अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अनन्तानन्त / विवेचन-उक्त प्रश्नोत्तरों में गणना संख्या के संख्यात, असंख्यात और अनन्त इन तीन मुख्य भेदों के अवान्तर भेद-प्रभेदों का निरूपण किया है। संख्यात के तो जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन अवान्तर भेद हैं। लेकिन असंख्यात और अनन्त के मुख्य तीन अवान्तर भेदों के नामों में परीत पौर युक्त तो समान हैं किन्तु तीसरे भेद का नाम असंख्यातासंख्यात और अनन्तानन्त है / परीतासंख्यात, यूक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होने से असंख्यात के कुल नौ भेद हैं। परोतानन्त और युक्तानन्त भी जघन्य आदि तीन-तीन भेद वाले हैं। किन्तु अनन्तानन्त में उत्कृष्ट अनन्तानन्त असंभव होने से यह भेद नहीं बनता है। अतएव अनन्त के पाठ ही भेद होते हैं। उक्त कथन का संक्षिप्त प्रारूप इस प्रकार है त्रिविध संख्यात 1. जघन्य 3. उत्कृष्ट 2. मध्यम नवविध असंख्यात 1 परीतासंख्याल 2 युक्तासंख्यात 3 असंख्यातासंख्यात 1 जघन्य परीतासं. 2 मध्यम परीतासं. 3 उत्कृष्ट परीतासं. 4 जघन्य युक्तास. 5 मध्यम युक्तासं. 6 उत्कृष्ट युक्तासं. 7 जघन्य असंख्यातासं. 8 मध्यम 2 उत्कृष्ट , , Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412] [अनुयोगहारसूत्र अष्टविध अनन्त 1 परीतानन्त 2 युक्तानन्त 3 अनन्तानन्त 1 जघन्य परीतानन्त 4 जघन्य युक्तानन्त 7 जघन्य अनन्तानन्त 2 मध्यम परीतानन्त 5 मध्यम युक्तानन्त 8 मध्यम अनन्तानन्त 3 उत्कृष्ट परीतानन्त 6 उत्कृष्ट युक्तानन्त असंख्यात प्रादि के भेदों का विस्तार से वर्णन करने के लिये सर्वप्रथम संख्यान की प्ररूपणा की जाती है। संख्यातनिरूपण 507. जहणयं संखेज्जयं केतियं होइ ? दोस्वाई, तेण परं अजहण्जमणुक्कोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसयं संखेज्जयं ण पावइ / [507 प्र. भगवन् ! जघन्य संख्यात कितने प्रमाण में होता है ? (अर्थात् किस संख्या से लेकर किस संख्या पर्यन्त जघन्य संख्यात माना जाता है ?) [507 उ.] आयुष्मन् ! दो रूप प्रमाण जघन्य संख्यात है, उसके पश्चात् (तीन, चार प्रादि) यावत् उत्कृष्ट संख्यात का स्थान प्राप्त न होने तक मध्यम संख्यात जानना चाहिये। 508. उक्कोसयं संखेज्जयं केत्तियं होइ ? उक्कोसयस्स संखेज्जयस्स परूवणं करिस्सामि-से जहानामए पल्ले सिया, एगं जोयणसय. सहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसते तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अखंगुलयं च किनिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते / से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए। ततो णं तेहिं सिद्धत्थरहिं दीव-समुदाणं उद्धारे घेप्पति, एगे दीवे एगे समुद्दे 2 एवं पविखप्पमाणेहि 2 जावइया णं दीव-समुद्दा तेहि सिद्धत्थरहि अप्फुण्णा एस णं एवतिए खेत्ते पल्ले आइछे / से पं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए / ततो गं तेहि सिद्धथएहिं दीव-समुदाणं उद्धारे घेप्पति एगे दीवे एगे समुद्दे 2 एवं पक्खिप्पमाणेहि 2 जावइया गं दीव-समुद्दा तेहि सिद्धत्थरहि अप्फुन्ना एस णं एवतिए खेत्ते पल्ले पढमा सलागा, एवढ्याणं सलागाणं असंलप्पा लोमा भरिया तहा वि उक्कोसयं संखेज्जयं ण पावइ / जहा को दिळंतो? से जहाणामए मंचे सिया आमलगाणं भरिते, तत्थ णं एगे आमलए पक्खित्ते से माते, अण्णे वि पक्खित्ते से वि माते, अन्ने वि पविखत्ते से वि माते, एवं पक्खिप्पमाणे 2 होही से आमलए जम्मि पक्खित्ते से मंचए भरिज्जिहिइ जे वि तत्थ आमलए न माहिति / [508 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट संख्यात कितने प्रमाण में होता है ? Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [41] 508 उ. आयुष्मन् ! उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा इस प्रकार करूंगा-(असत्कल्पना से) एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा और तीन लाख सोलह हजार दी सौ सत्ताईस योजन, तीन कोश, एक सौ अट्ठाईस धनुष एवं साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला कोई एक (अनवस्थित नामक) पल्य हो / (उसकी गहराई रत्नप्रभापृथ्वी के रत्नकाण्ड से भी नीचे स्थित वज्रकाण्ड पर्यन्त 1000 योजन हो और ऊंचाई पयवरवेदिका जितनी साढ़े आठ योजन प्रर्थात तल से शिखा तक 10083 योजन हो। इस पत्य को सर्षपों—सरसों के दानों से भर दिया जाये। उन सर्षपों से द्वीप और समुद्रों का उद्धार-प्रमाण निकाला जाता है अर्थात् उन सर्षपों में से जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि के क्रम से एक को द्वीप में, एक को समुद्र में प्रक्षेप करते-करते उन दानों से जितने द्वीप-समुद्र स्पृष्ट हो जायें--- उतने क्षेत्र का अनवस्थित पल्य कल्पित करके उम पत्य को सरसों के दानों से भर दिया जाये। तदनन्तर उन सरसों के दानों से द्वीप-समुद्रों की संख्या का प्रमाण जाना जाता है। अनुक्रम से एक द्वीप में और एक समुद्र में इस तरह प्रक्षेप करते-करते जितने द्वीप-समुद्र उन सरसों के दानों से भर जाएँ, उनके समाप्त होने पर एक दाना शलाकापल्य में डाल दिया जाए / इस प्रकार के शलाका रूप पल्य में भरे सरसों के दानों से असंलप्य--अकथनीय लोक भरे हुए हों तब भी उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त नहीं होता है। इसके लिये कोई दृष्टान्त दीजिये ? जिज्ञासु ने पूछा / प्राचार्य ने उत्तर दिया-जैसे कोई एक मंत्र हो और वह आंवलों से पूरित हो, तदनन्तर एक प्रांवला डाला तो वह भी समा गया, दूसरा डाला तो वह भी समा गया, तीसरा डाला तो वह भी समा गया, इस प्रकार प्रक्षेप करते-करते अंत में एक आंवला ऐसा होगा कि जिसके प्रक्षेप से मंच परिपूर्ण भर जाता है / उसके बाद प्रांवला डाला जाये तो वह नहीं समाता है। इसी प्रकार बारंबार डाले गये सर्षपों से जब असंलप्य—बहुत से पल्य अंत में आमूलशिख पूरित हो जायें, उनमें एक सर्षप जितना भी स्थान न रहे तब उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त होता है / विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों में संख्यात गणनासंख्या के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-इन तीनों भेदों का स्वरूप स्पष्ट किया है। जघन्य संख्यात-जघन्य और मध्यम संख्यात का स्वरूप सुगम है। दो की संख्या जधन्य संख्यात है / क्योंकि जिसमें भेद-पार्थक्य प्रतीत हो उसे संख्या कहते हैं और भेद की प्रतीति कम से कम दो में होने से दो को ही जघन्य संख्यात माना जाता है / मध्यम संख्यात--जघन्य संख्यात-दो से ऊपर और उत्कृष्ट संख्यात से पूर्व तक की अन्तरालवी सब संख्यायें मध्यम संख्यात हैं। इसके लिये कल्पना से मान लें कि 100 की संख्या उत्कृष्ट और दो की संख्या जघन्य संख्यात है तो 2 और 100 के बीच 3 से लेकर 99 तक की सभी संख्यायें मध्यम संख्यात हैं। उत्कृष्ट संख्यात-दो से लेकर दहाई, सैकड़ा, हजार, लाख, करोड़, शीर्षप्रहेलिका आदि जो संख्यात की राशियां हैं, उनका तो किसी न किसी प्रकार कथन किया जाना शक्य है, लेकिन संख्या इतनी ही नहीं है / अतएव उसके बाद की संख्या का कथन उपमा द्वारा ही संभव है / इसलिये सूत्र में उपमा कल्पना का आधार लेकर उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप स्पष्ट किया है। शास्त्र में सत् और असत् दो प्रकार की कल्पना होती है। कार्य में परिणत हो सकने वाली Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414] [अनुयोगद्वारसूत्र कल्पना को सत्कल्पना और जो किसी वस्तु का स्वरूप समझाने में उपयोगी तो हो, किन्तु कार्य में परिणत न की जा सके उसे असत्कल्पना कहते हैं / सूत्रोक्त पल्य का विचार असत्कल्पना है और उसका प्रयोजन उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप समझाना मात्र है। सूत्र में जो एक लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई, तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोश, एक सौ अट्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढे तेरह अंगुल की परिधि वाले एक पल्य का उल्लेख किया है, वह जम्बूद्वीप की लम्बाई-चौड़ाई और परिधि के बराबर है और इसकी गहराई एक हजार योजन प्रमाण और ऊंचाई साढे पाठ योजन प्रमाण ऊंची पनवरवेदिका प्रमाण बताई है / यह ऊंचाई और गहराई मेरु पर्वत की समतल भूमि से समझना चाहिये। सारांश यह है कि वह पल्य तल से शिखा पर्यन्त 10083 योजन होगा। इसी प्रकार की लंबाई-चौड़ाई, गहराई-ऊंचाई और परिधि वाले तीन और पल्यों की कल्पना करें। इन चारों पल्यों के नाम क्रमशः 1. अनवस्थित, 2. शलाका, 3. प्रतिशलाका और 4. महाशलाका हैं। जिनके नामकरण का कारण इस प्रकार है अनवस्थितपल्य-आगे बढ़ते जाने पर नियत स्वरूप के अभाव वाले पल्य को अनवस्थितपल्य कहते हैं / यह दो प्रकार का है-१. मूल अनवस्थितपल्य और 2. उत्तर अनवस्थितपल्य / यद्यपि पहला मूल अनवस्थितपल्य नियत माप वाला होने से अनवस्थित नहीं, किन्तु आगे के पल्यों की अनवस्थितता का कारण होने से इसे भी अनवस्थित कहते हैं। उसके बाद के उत्तरवर्ती पल्य क्रमश: बढ़ते-बढते जाने के कारण अनियत परिमाण वाले होने से अनवस्थित कहलाते हैं। ये अनवस्थितपल्य अनेक बनते हैं, जिनकी ऊंचाई 10083 योजनमान नियत है लेकिन मूल अनवस्थितपल्य के सिवाय मागे के पल्यों की लम्बाई, चौड़ाई एक-सी नहीं है, उत्तरोत्त त्तरोत्तर अधिकाधिक है। जैसे जम्बूद्वीप प्रमाण मुल अनवस्थितपल्य को सरसों के दानों से भरकर जम्बूद्वीप से लेकर आगे के प्रत्येक समुद्र, द्वीप में एक-एक दाना डालते जाने के बाद जिस द्वीप या समुद्र में मूल अनवस्थितपल्य खाली हो जाये तब जम्बूद्वीप (मूल स्थान) से उस द्वीप या समुद्र तक की लम्बाई-चौड़ाई वाला नया पल्य बनाया जाये। यह पहला उत्तर अनवस्थितपल्य है। इसी प्रकार प्रागे-आगे मूल स्थान से लेकर समाप्त होने बाले सरसों के दाने के द्वीप या समुद्र तक के विस्तार वाले अनवस्थितपल्यों का निर्माण किया जाये। ये अनवस्थितपत्य कहाँ तक बनाना, इसका स्पष्टीकरण आगे के वर्णन से हो जाएगा। शलाकापल्य-एक-एक साक्षीभूत सरसों के दाने से भरे जाने के कारण इसको शलाकापल्य कहते हैं / शलाकापल्य में डाले गये सरसों के दानों की संख्या से यह जाना जाता है कि इतनी बार उत्तर अनवस्थितपल्य खाली हुए हैं। प्रतिशलाकापल्य-प्रतिसाक्षीभूत सरसों के दानों से भरे जाने के कारण यह प्रतिशलाकापल्य कहलाता है / हर बार शलाकापल्य के खाली होने पर एक-एक सरसों का दाना प्रतिशलाकापल्य में डाला जाता है। प्रतिशलाकापल्य में डाले गये दानों की संख्या से यह ज्ञात होता है कि इतनी बार शलाकापल्य भरा जा चुका है। महाशलाकापल्य-महासाक्षीभूत सरसों के दानों द्वारा भरे जाने के कारण इसे महाशलाका Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [415 पल्य कहते हैं / प्रतिशलाकापल्य के एक-एक वार भरे जाने और खाली हो जाने पर एक-एक सरसों का दाना महाशलाका पल्य में डाला जाता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इतनी बार प्रतिशलाकापल्य भरा गया और खाली किया गया है। उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण बताने में इन चारों पल्यों के उपयोग करने की विधि इस प्रकार है-- पल्योपयोग विधि - सबसे पहला जो अनवस्थित पल्य है, इसके पहले प्रकार (मूल अनवस्थितपल्प) को सरसों के दानों से शिखापर्यन्त ठांस-ठांस कर परिपूर्ण भर देने के बाद उसमें से एक-एक सरसों का दाना जम्बूद्वीप आदि प्रत्येक द्वीप-समुद्र में डालें। इस प्रकार सरसों के दाने डालने पर जिस द्वीप या समुद्र में यह मूल अनवस्थितपल्य खाली हो जाये तब मूलस्थान-जम्बूद्वीप से लेकर उतने लंबे-चौड़े क्षेत्रप्रमाण और ऊंचाई में मूल अनवस्थितपल्य जितना दुसरा उत्तर अनवस्थित पल्य बनायें और इसको भी पूर्ववत् सरसों के दानों से शिखापर्यन्त परिपूर्ण भरें। इस प्रथम उत्तर अनवस्थितपल्य में से सरसों का एक-एक दाना मूल अनवस्थितपल्य के सरसों के दाने जिस द्वीप या समुद्र में डालने पर समाप्त हुए थे, पुनः उसके आगे के द्वीप-समुद्र में क्रमश: डालें। इस प्रकार एक-एक दाना डालने से जब वह पल्य खाली हो जाये तब एक दाना शलाकापल्य में डाला जाये / / इस प्रकार जब-जब उत्तरोत्तर विशाल अनवस्थितपल्य खाली होता जाये तब-तब एक-एक दाना शलाकापल्य में डालते जाना चाहिये। इस प्रकार करते-करते जब शलाकापल्य पूर्ण भर जाये तब जिस द्वीप या समुद्र में अनवस्थितपल्य खाली हुआ हो, उस द्वीप या समुद्र के बराबर क्षेत्र के अनवस्थितपल्य की कल्पना करके उसे सरसो से भरें / उसको खाली करने पर साक्षीभूत सरसों का दाना शलाकापल्य में ममाते-रखे जाने की स्थिति में न होने के कारण उसे जैसाका तैसा भरा रखना चाहिये और उस शलाकापल्य के दानों को लेकर एक-एक द्वीप-समुद्र में एक-एक सरसों का दाना डालें। इस प्रकार जब शलाकापल्य खाली हो तब एक सरसों का दाना प्रतिशलाकापल्य में डालें। इस समय अनवस्थितपल्य भराहग्रा, शलाकापल्य खाली और प्रतिशलाकापल्य में एक सरसों का दाना होता है। तदनन्तर अनवस्थितपल्य के दानों में से आगे के द्वीप, समुद्र में एक-एक सरसों का दाना डालें और जब खाली हो तब एक सरसों का दाना शलाकापल्य में डालें और उस द्वीप या समुद्र जितने लंबे-चौड़े नये अनवस्थितपल्य की कल्पना करके सरसों से भरें और पुनः एक-एक सरसों का दाना एक-एक द्वीप और समुद्र में डालें। इस प्रकार पुनः दूसरी बार शलाकापल्य को पूरा भरें और जिस द्वीप या समुद्र में अनवस्थितपल्य खाली हुमा हो उस द्वीप या समुद्र के बराबर के अनबस्थितपल्य की कल्पना करें और उसे सरसों से भरें। ___ ऐसा करने पर अनवस्थित और शलाका पल्य भरे होंगे और प्रतिगलाकापत्य में एक सरसों का दाना होगा। ____ अब पुन: शलाकापल्य को लेकर वहाँ से आगे के द्वीप-समद्र में एक-एक दाना डालकर उसे खाली करें और खाली होने पर एक सरसों का दाना प्रतिशलाकापल्य में डालें। ऐसा होने पर Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र प्रतिशलाकापल्य में दो दाने और शलाकापल्य खाली और अनवस्थितपल्य भरा हुआ होगा / अतः इस भरे हुए अनवस्थितपल्य को लेकर वहाँ से आगे के द्वीप-समद्रों में एक-एक दाना डालें और खाली होने पर शलाकापल्य में एक साक्षीभूत सरसों का दाना डालें। इस प्रकार पूर्ववत् विधि से शलाकापल्य को पूरा भरें। तब अनवस्थितपल्य भी भरा हुआ होता है। बाद में शलाकापल्य को लेकर आगे के द्वीप-समुद्रों में खाली करें और खाली होने पर एक सरसों प्रतिशलाकापल्य में डालें। इस प्रकार अनवस्थितपल्य के द्वारा शलाकापल्य और शलाकापल्य के द्वारा प्रतिशालाकापल्य पूर्ण भरना चाहिये। जब प्रतिशलाकापल्य पूरा भरा हुआ होता है तब अनवस्थित, शलाका और प्रतिशलाका यह तीनों पल्य भरे हुए होते हैं। इसके पश्चात् प्रतिशलाकापल्य को लेकर आगे के द्वीप-समुद्रों में खाली करें और जब खाली हो जाये तब महाशलाकापल्य में एक साक्षीभूत सरसों डालें। इस समय महाशलाकापल्य में एक सरसों, प्रतिशलाकापल्य खाली और शलाका व अनवस्थितपल्य भरे हुए होते हैं। इस समय शलाकापल्य को लेकर आगे के द्वीप-समुद्रों में खाली करें और खाली होने पर एक सरसों प्रतिशलाकापल्य में डालें। तब महाशलाका और प्रतिशलाका पल्य में एक-एक सरसों और शलाकापल्य खाली तथा ग्रनवस्थितपल्य भर इसके बाद अनवस्थितपल्य को लेकर आगे के द्वीप-समुद्रों में खाली करें और शलाकापल्य को पुनः भरें। जब शलाकापल्य भर जाये तब अनवस्थितपल्य को भरा हया रखें और शलाकापल्य को खाली करके एक सरसों प्रतिशलाकापल्य में डालें। इस रीति से अनवस्थित द्वारा शलाका और शलाका द्वारा प्रतिशलाकापल्य को पूर्ण भरना चाहिये। जब प्रतिशलाकापल्य खाली हो जाये तब महाशलाकापल्य में एक सरसों और शेष पल्य भरे हुए होते हैं। इसके बाद प्रतिशलाकापल्य को खाली करके महाशलाकापल्य में एक सरसों डालें और शलाका को खाली करके प्रतिशलाकापल्य में एक सरसों डालें तथा अनवस्थितपल्य को खाली करके एक सरसों शलाकापल्य में डालें। इस प्रकार जब महाशलाकापल्य में एक सरसों के दाने की वृद्धि होती है तब प्रतिशलाकापल्य खाली और शलाका तथा अनवस्थित पल्य भरे हुए होते हैं। इस प्रकार पूर्व-पूर्व पल्य खाली हों तब एक-एक साक्षी रूप सरसों आगे-आगे के पल्य में डालते-डालते जब महाशलाकापल्य पुरा भर जाये तब प्रतिशलाकापल्य खाली और शलाका, अनवस्थित पल्य भरे हुए होते हैं। इसी प्रकार शलाका द्वारा प्रतिशलाका और अनवस्थित द्वारा शलाकापल्य को पूर्ण करें। जब महाशलाका और प्रतिशलाका पल्य पूर्ण होते हैं तब शलाकापल्य खाली होता है और अनवस्थितपल्य भरा हुआ। इस समय अनवस्थितपल्य के द्वारा शलाकापल्य को पूर्ण भरें और जब शलाकापल्य पूरा भर जाये तब जो द्वीप, समुद्र हो, उस द्वीप या समद्र के बराबर क्षेत्र जितने अनवस्थितपल्य की कल्पना करके उसे भी सरसों द्वारा भर लें / इस प्रकार चारों पल्य पूर्ण भरें। इस प्रकार करने पर जितने द्वीपों और समुद्रों में सरसों का एक-एक दाना पड़ा उन सब द्वीपों की और समुद्रों की जो संख्या हुई उसमें चारों पल्यों में भरे हुए सरसों के दानों की संख्या को मिलाने Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [417 से जो संख्या हो, उसमें एक को कम कर देने पर उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण निकलता है / अर्थात् प्रत्येक द्वीप, समुद्र में डाले गये सरसों के दाने और चारों पल्यों के दानों को एकत्रित करके उसमें एक को कम करने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट संख्यात है।' सिद्धान्त में जहाँ कहीं भी संख्यात शब्द का व्यवहार हुआ है वहाँ सर्बत्र मध्यम संख्यात ग्रहण हुप्रा जानना चाहिये। इस प्रकार से त्रिविध संख्यात का स्वरूप बतलाने के पश्चात् प्रब नवविध असंख्यात का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। परीतासंख्यातनिरूपण 509. एवामेव उक्कोसए संखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं भवति, तेण परं अजहण्णमणुक्कोलयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं ण पावइ / [509] इसी प्रकार उत्कृष्ट संख्यात संख्या में रूप (एक) का प्रक्षेप करने से जघन्य परीतासंख्यात होता है। तदनन्तर (परीतासंख्यात के) अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थान हैं, जहाँ तक उत्कृष्ट परीतासंख्यात स्थान प्राप्त नहीं होता है। 510. उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं केत्तियं होति ? उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं जहणणयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासोणं अण्णमण्णाभासो रूवणो उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होति, अहला महन्तयं जुत्तासंखेज्जयं रूवर्ण उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होइ। [510 प्र. भगवन् ! उत्कृष्ट परीतासंख्यात का क्या प्रमाण है ? [510 उ.] आयुष्मन् / जघन्य परीतासंख्यात राशि को जघन्य परीतासंख्यात राशि से परस्पर अभ्यास गुणित करके रूप (एक) न्यून करने पर उत्कृष्ट परीतासरन्यात का प्रमाण होता है। अथवा एक न्यून जघन्य युक्तासंख्यात उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण है / विवेचन... उक्त दो सूत्रों में असंख्यात के प्रथम भेद परीतासंख्यात के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इन तीनों भेदों का स्वरूप स्पष्ट किया है / जघन्य और मध्यम का स्वरूप सुगम है / उत्कृष्ट संख्यात में एक के मिलाने से जघन्य परीतासंख्यात गशि होती है / जैसे उत्कृष्ट संख्यात की राशि 100 है, इस राशि में एक (1) मिलाने 1. यह कामंग्रन्थि क मत है / चिन्तु अनयोगद्वार मलधारीया बत्ति में सकेत है - "यदा तु चत्वारोऽपि परिपूर्णा भवन्ति तदोत्कृष्ट सङ ख्येक रूपाधिकम भवति / ' अर्थात अनवस्थित प्रादि पल्यों के खाली करने और भरने के क्रम से जितने द्वीप, समुद्र व्याप्त हए उन दोनों की संख्या मिलाने पर जो संख्या माती है वह संख्या एक मर्षप अधिक 'उत्कृष्ट संख्येय संख्या जानना चाहिये। -'-अनुयोग. मलधारोयावत्ति प्र.२३७ 2. सिद्धते जत्थ जत्थ संखिज्जगगहणं कतं तत्थ तत्थ सध्द अजहन्नमगुक्कोसयं दन्वं / –अनुयोगद्वारणि Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] [अनुयोगद्वारसूत्र पर प्राप्त राशि जघन्य परीतासंख्यात होगी अर्थात् 100 उत्कृष्ट संख्यात सौर 100+-1-101 जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण हुआ तथा जघन्य से ऊपर और उत्कृष्ट से नीचे तक की संख्याएँ मध्यम परीतासंख्यात है / जघन्य परीतासंख्याल राशि को उतने ही प्रमाण वाली राशि से अभ्यास करने से प्राप्त राशि में से एक कम कर देने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट परीतासंख्यात संख्या का प्रमाण है / जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जिस संख्या का अभ्यास करना है उसके अंकों को उतनी बार लिखकर आपस में गुणा करना / अर्थात् पहले अंक को दूसरे अंक से गुणा करना और जो गुणनफल पाए उसका तीसरे अंक से गुणा करना और उसके गुणनफल का चौथे अंक से गुणा करना / इस प्रकार पूर्व-पूर्व के गुणनफल का अगले अक से गणा करना और अत में जो गणनफल प्राप्त हो वही विवक्षित है। अतएव कल्पना से मान लें कि जघन्य परीतासंख्या का प्रमाण 5 है। इस पांच को पांच बार (5----5-5-5-5) स्थापित कर परस्पर गुणा करने पर इस प्रकार संख्या होगी 545=25, 254 5 = 125, 125 x 5 = 625, 625 x 5= 3125 / यह संख्या वास्तविक रूप में असंख्यात के स्थान में जानना चाहिये / इसमें से एक न्यून संख्या (3125-183124) उत्कृष्ट परीतासंख्यात है और यदि एक कम न किया जाए तो जघन्य युक्तासंख्यात रूप मानी जाएगी / इसीलिये प्रकारान्तर से उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण बताने के लिये कहा है कि जघन्य युक्तासंख्यात में से एक कम करने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण होता है / अब युक्तासंख्यात के तीन भेदों का स्वरूप कहते हैं / युक्तासंख्यातनिरूपण 511. जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं केत्तियं होति ? जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं जहन्नयं परित्तासंखेज्जयं जहण्णयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो पडिपुग्णो जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं हवति, अहवा उक्कोसए परित्तासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं होति, आवलिया वितत्तिया चेव, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं ण पावइ / [511 प्र. भगवन् ! जघन्य युक्तासंख्यात का कितना प्रमाण है ? [511 उ. आयुष्मन् ! जघन्य परीतासंख्यात राशि का जघन्य परीतासंख्यात राशि से अन्योन्य अभ्यास करने पर (उनका उन्हीं के साथ गुणा करने से) प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तासंख्यात का प्रमाण होता है / अथवा उत्कृष्ट परीतासंख्यात के प्रमाण में एक का प्रक्षेप करने से (जोड़ने से) जघन्य युक्तासंख्यात होता है / प्रावलिका भी जघन्य युक्तासंख्यात तुल्य समय-प्रमाण वाली जानना चाहिये / तत्पश्चात् जघन्य युक्तासंख्यात से आगे जहाँ तक उत्कृष्ट युक्तासंख्यात प्राप्त न हो, तत्प्रमाण मध्यम युक्तासंख्यात है। 512. उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं केत्तियं होति ? उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं जहण्णएणं जुत्तासंखेज्जएणं आवलिया गुणिया अण्णमण्णब्भासो Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [419 रूवूणो उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं होइ, अहवा जहन्नयं असंखेज्जासंखेज्जयं रूवणं उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं होति / [512 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट युक्तासंख्यात कितने प्रमाण का होता है ? [512 उ.] अायुष्मन् ! जघन्य युक्तासंख्यात राशि को प्रावलिका से (जघन्य युक्तासंख्यात से) परस्पर अभ्यास रूप गुणा करने से प्राप्त प्रमाण में से एक न्यून उत्कृष्ट युक्तासंख्यात है / अथवा जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि प्रमाण में से एक कम करने से उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है। विवेचन-प्रस्तुत दो सूत्रों में युक्तासंख्यात के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदों का स्वरूप बतलाया है। प्राशय सुगम है / यहाँ इतना ज्ञातव्य है कि प्रावलिका के असंख्यात समय जघन्य युक्तासंख्यात में जितने सर्षप होते हैं, उतने समय-प्रमाण हैं / अर्थात् प्रावलिका जघन्य युक्तासंख्यात के तुल्य समयप्रमाण वाली जानना चाहिये / असंख्यातासंख्यात का निरूपण 513. जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं केत्तियं होइ ? जहन्नएणं जुत्तासंखेज्जएणं आवलिया गुणिया अण्णमण्णभासो पडिपुण्णो जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ, अहवा उक्कोसए जुत्तासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णय असंखेज्जासंखेज्जयं होति, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाब उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं ण पावति / [513 प्र.] भगवन् ! जघन्य असंख्यातासंख्यात का क्या प्रमाण है ? [513 उ.] आयुष्मन् ! जघन्य युक्तासंख्यात के साथ प्रावलिका की राशि का परस्पर अभ्यास करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य असंख्यातासंख्यात है। अथवा उत्कृष्ट युक्तासंख्यात में एक का प्रक्षेप करने से जघन्य असंख्यातासंख्यात होता है। तत्पश्चात् मध्यम स्थान होते हैं और वे स्थान उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात प्राप्त होने से पूर्व तक जानना चाहिये। 514. उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं केत्तियं होति ? जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं जहण्णयअसंखेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णमासो रूवणो उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ, अहवा जहण्णयं परित्तागतयं रूवणं उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं होति / [514 प्र. भगवन् ! उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रमाण कितना है ? [514 उ.] आयुष्मन् ! जघन्य असंख्यातासंख्यात मात्र राशि का उसी जवन्य असंख्यातासंख्यात राशि से अन्योन्य (परस्पर एक दूसरे से) अभ्यास-गुणा करने से प्राप्त संख्या में से एक न्यून करने पर प्राप्त संख्या उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात है। अथवा एक न्युन जघन्य परीतानन्त उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रमाण है। विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातों का स्वरूप बताया है / जिनका आशय स्पष्ट और सुगम है। किन्तु अन्य कतिपय आचार्य उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात की अन्य रूप से प्ररूपणा करते हैं। उनका मंतव्य इस प्रकार है-- . Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र जघन्य असंख्यातासंख्यात की राशि का वर्ग करना, फिर उस वर्ग की जो राशि पाए, उसका भी पुन: बर्ग करना, फिर उस वर्ग को जो राशि आये, उसका भी पुन: वर्ग करना। इस तरह तीन बार वर्ग करके फिर उस बर्गराशि में निम्नलिखित दस असख्यात राशियों का प्रक्षेप करना चाहिये... लोगागासपएसा धम्माधम्मेगजीवदेसा य। दबठिया निप्रोग्रा, पत्तेया चेव बोद्धब्बा / / ठिइबंधज्झवसाणा अणुभागा जोगच्छेअपलिभागा। दोण्ह य समाण समया असंखपखेवया दसउ / ' अर्थात् 1. लोकाकाश के प्रदेश, 2 धर्मास्तिकाय के प्रदेश, 3. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, 4. एक जीव के प्रदेश, 5. द्रव्याथिक निगोद, 2 6. अनन्तकाय को छोड़कर शेष प्रत्येककायिक (शरीरी) जातियों के जीव, 7. ज्ञानावरण आदि कर्मों के स्थितिबंध के असंख्यात अध्यवसायस्थान, 8. अनुभागविणेष,५ 9. योगच्छेद-प्रतिभाग 10. दोनों कालों के समय / उक्त दसों के प्रक्षेप के बाद पुनः इस समस्त राशि का तीन बार वर्ग करके प्राप्त संख्या में से एकन्यून करने से उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रमाण होता है / इस प्रकार से नौ प्रकार के असंख्यात का वर्णन जानना चाहिये। अब अनन्त के भेदों का स्वरूपनिर्देश करते हैं। परीतानन्तनिरूपण 515. जहण्णयं परित्ताणतयं केत्तियं होति ? जहण्णयं परित्ताणतयं जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्नयं नहष्णयप्रसंखेज्जासंखेजयमेत्ताणं रासीणं 1. यह दस क्षेपक त्रिलोकमार गाथा 42 से 46 तक में भी निर्दिष्ट है। 2. सक्षम, बाबर अनन्तकायिक वनस्पति जीवों के शरीर-सूक्ष्माणां बादाणां चानन्त कायिकवनस्पति जीवानां शरीराणीत्यर्थः / --अनुयोगद्वार. मलधारीया वत्ति पत्र 240 3. अनन्तकारिकों को छोड़कर प्रत्येकारीरी पृथ्वी, आप, तेज बायु. बनस्पति और स जीव / 4. जघन्य और उस्कृष्ट स्थितिबंध को छोड़कर मध्यम स्थितिबंध के असंख्यात अध्यवसायस्थान / 5. कर्मों की फलदान शक्ति की तरतम प्रादि भिन्नरूपता को अनुभागविशेष कहते हैं। 6. मन-वचन-काय सम्बन्धी बोर्य का नाम योग है। उनका केवलि-प्रज्ञा-छेदनक द्वारा कृत निविभाग अंश को योगप्रतिभाग कहते हैं। 7. उत्मपिणी और अवसर्पिणी काल के समय / - किसी संख्या का तीन बार वर्ग करने की विधि-सर्वप्रथम उस संख्या का प्रापस में वर्ग करना, फिर दूसरी बार वर्गजन्य संख्या का वर्गजन्य संख्या से वर्ग करना, तीसरी बार दूसरी बार की वर्गजन्य संख्या का उसी वर्गजन्य संख्या से वर्ग करना / जैसे कि 5 का तीन बार वर्ग करना हो तो पहला वर्ग 545-25 हुआ / इस 25 का दुसरी बार इसी संख्या के साथ वर्म करना 25425 = 625 यह दूसरा वर्ग हुना। इस 625 का 625 से गुणा करना 6254 625 = 390625 यह तीसरा वर्ग हुना। इस प्रकार यह 5 का तीन बार वर्ग करना कहलाता है / Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [421 अण्णमण्णम्भासो पडिपुण्णो जहणणयं परित्ताणतयं होति, अहवा उक्कोसए असंखेज्जासंखेज्जए हवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्ताणतयं होई। तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ताणतयं ण पावइ। [515 प्र.] भगवन् / जघन्य परीतानन्त का कितना प्रमाण है ? [515 प्र. आयुष्मन् ! जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि को उसी जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि से परस्पर अभ्यास रूप में गुणित करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य परीतानन्त का प्रमाण है / अथवा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में एक रूप का प्रक्षेप करने से भी जघन्य परीतानन्त का प्रमाण होता है। तत्पश्चात् अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) परीतानन्त के स्थान होते हैं और वे भी उत्कृष्ट परीतानन्त का स्थान प्राप्त न होने के पूर्व तक होते हैं / 516. उक्कोसयं परित्ताणतयं केत्तियं होइ ? जहण्णयं परित्ताणतयं जहण्णयपरित्ताणतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णाभासो रूवणो उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ, अहवा जहण्णयं जुत्ताणतयं रूवूर्ण उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ। [516 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट परीतानन्त कितने प्रमाण में होता है ? [516 उ.] अायुष्मन् ! जघन्य परीतानन्त की राशि को उसी जघन्य परीतानन्त राशि से परस्पर अभ्यास रूप गुणित करके उसमें से एक रूप (अंक) न्यून करने से उत्कृष्ट परीतानन्त का प्रमाण होता है। अथवा जघन्य युक्तानन्त की संख्या में से एक न्यून करने से भी उत्कृष्ट परीतानन्त की संख्या बनती है। विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों में अनन्त संख्या के प्रथम भेद परीतानन्त के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इन तीनों प्रकारों का स्वरूप बताया है। जिनका आशय सुगम है। युक्तानन्तनिरूपण 517. जहणणयं जुत्ताणतयं केत्तियं होति ? जहण्णयं परित्ताणतयं जहण्णयपरिसाणंलयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो पडिपुण्णो जहण्णयं जुत्ताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए परित्ताणतए रूवं पक्खित्तं जहन्नयं जुताणतयं होइ, अभयसिद्धिया वि तेत्तिया चेव, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयं ण पावति / [517 प्र.] भगवन् ! जघन्य युक्तानन्त कितने प्रमाण में होता है ? [517 उ.] आयुष्मन् ! जघन्य परीतानन्त मात्र राशि का उसी राशि से अभ्यास करने से प्रतिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तानन्त है। अर्थात् जघन्य परीतानन्त जितनी सर्षप संख्या का परस्पर अभ्यास रूप गुणा करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तानन्त है। अथवा उत्कृष्ट परतानन्त में एक रूप (अंक) प्रक्षिप्त करने से जघन्य युक्तानन्त होता है। अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव भी इतने ही (जघन्य युक्तानन्त जितने) होते हैं। उसके पश्चात् अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम) युक्तानन्त के स्थान हैं और वे उत्कृष्ट युक्तानन्त के स्थान के पूर्व तक हैं। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422) अनुयोगद्वारसूत्र 518. उक्कोसयं जुत्ताणतयं केत्तियं होति ? जहण्णएणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धिया गुणिता अण्णमण्णभासो रूवणो उक्कोसयं जुत्ताणंतपं होइ, अहवा जहण्णय अणंताणतयं रूवूणं उक्कोसयं जुत्ताणतयं होइ। [518 प्र.] भगवन् ! उत्कुष्ट युक्तानन्त कितने प्रमाण में होता है ? [518 उ.] आयुष्मन् ! जघन्य युक्तानन्त राशि के साथ अभवसिद्धिक राशि का परस्पर अभ्यास रूप गुणाकार करके प्राप्त संख्या में से एक रूप को न्यून करने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट युक्तानन्त की संख्या है / अथवा एक रूप न्यून जघन्य अनन्तानन्त उत्कृष्ट युक्तानन्त है। _ विवेचन--यहाँ युक्तानन्त के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदों का स्वरूप बताया है। सूत्रार्थ सुगम है। शास्त्रों में जहाँ भी अभव्य जीव राशि की अनन्तता का उल्लेख है, उसका निश्चित प्रमाण जघन्य युक्तानन्तराशि जितना समझना चाहिये। अनन्तानन्तनिरूपण 519. जहण्णयं अणंताणतयं केत्तियं होति ? जहण्णएणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहण्णयं अणताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए जुत्ताणतए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं प्रणताणतयं होति, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई / से तं गणणासंखा / [519 प्र.] भगवन् ! जघन्य अनन्तानन्त कितने प्रमाण में होता है ? [519 उ.] आयुष्मन् ! जघन्य युक्तानन्त के साथ अभवसिद्धिक जीवों (जघन्य युक्तानन्त) को परस्पर अभ्यास रूप से गुणित करने पर प्राप्त पूर्ण संख्या जघन्य अनन्तानन्त का प्रमाण है। अथवा उत्कृष्ट युक्तानन्त में एक रूप का प्रक्षेप करने से जघन्य अनन्तानन्त होता है / तत्पश्चात् (जघन्य अनन्तानन्त के बाद) सभी स्थान अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम) अनन्तानन्त के होते हैं। (क्योंकि उत्कृष्ट अनन्तानन्त राशि नहीं होती है)। इस प्रकार गणनासंख्या का निरूपण पूर्ण हुग्रा / विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में अनन्तानन्त संख्या के जघन्य और मध्यम इन दो भेदों का प्रमाण बतलाया है, किन्तु उत्कृष्ट अनन्तानन्त संख्या संभव नहीं होने से उसका निरूपण नहीं किया गया है। उक्त कथन सैद्धान्तिक प्राचार्यों का है, लेकिन अन्य प्राचार्यों ने उत्कृष्ट अनन्तानन्त संख्या का भी निरूपण किया है। उनका मत है जघन्य अनन्तानन्त का तीन बार वर्ग करके फिर उसमें निम्नलिखित छह अनन्तों का प्रक्षेप करना चाहिये Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [423 मिया सिद्धा निगोयजीवा वणस्सई काल पुग्गला चेव / सवमलोगागासं छप्पेतेऽणतपक्खेवा // ' अर्थात् --1. सिद्ध जीव, 2. निगोद के जीव, 3. वनस्पतिकायिक, 4. तीनों कालों (भूत, वर्तमान, भविष्यत द्रव्य तथा 6. लोकाकाश और अलोकाकाश प्रदेश 2 इनको मिलाकर फिर सर्व राशि का तीन वार वर्ग करके उस राशि में केवलद्विक-केवलज्ञान, केवलदर्शन--की अनन्त पर्यायों का प्रक्षेप करने पर उत्कृष्ट अनन्तानन्त की संख्या का परिमाण होता है। यही गणनासंख्या की वक्तव्यता है। अब संख्या के अंतिम प्रकार भावसंख्या का निरूपण करते हैं। भावसंख्यानिरूपण 520. से कितं भावसंखा ? भावसंखा जे इमे जीवा संखगइनाम-गोत्ताई कम्माई वेदेति / से तं भावसंखा / से तं संखप्पमाणे / से तं भावप्पमाणे / से तं पमाणे। // पमाणे त्ति पयं सम्मत्तं / / [520 प्र.] भगवन् ! भावसंख्या (शंख) का क्या स्वरूप है ? [520 उ.] आयुष्मन् ! इस लोक में जो जीव शंखगतिनाम-गोत्र कर्मादिकों का वेदन कर रहे हैं वे भावशंख है। यही भाव संख्या है, यही भावप्रमाण का वर्णन है तथा यहीं प्रमाण सम्बन्धी वक्तव्यता पूर्ण हुई। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में भावसंख्या का निरूपण करके प्रमाण पद की वक्तव्यता का उपसंहार किया है। 1. यह छह क्षेपक टीका तथा त्रिलोकसार गाथा 49 में वर्णित है। 2. यद्यपि मुल गाथा में अलोक पद है। लेकिन उपलक्षण से लोक का भी ग्रहण कर लेना चाहिये / अर्थात यहाँ लोक और अलोक दोनों प्राकाश विवक्षित हैं / 3. ज्ञेयपदार्थ अनन्त होने से केवलतिक की पर्याय भी अनन्त हैं। 4. यह उत्कृष्ट अनन्तानन्त का परिमाण बोध के लिये है, लेकिन लोकाकाश में विद्यमान पदार्थों के मध्यम अनन्तानन्त प्रमाण होने से मध्यम अनन्तानन्त ही उपयोग में लिया जाता है। उत्कृष्ट अनन्तानन्त को सिद्धान्त में उपयोग में न जाने के कारण ग्राह्य नहीं माना है। उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में दस क्षेपकों एवं उत्कृष्ट अनन्तानन्त मानने, उसके निर्माण की विधि एवं छह क्षेपकों के मिलने का मत कार्मग्रन्थिक प्राचार्यों का प्रतीत होता है। कार्मग्रन्थिक प्राचार्यों की असंख्यात और अनन्त संख्या के भेदों को बनाने की प्रक्रिया भी सिद्धान्त से भिन्न है। इसका विस्तार से वर्णन पड़शीति (चतुर्थ कर्मग्रन्थ, श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति ब्यावर) में पृ. 364 से 384 में देखिये। 5. यद्यपि संख्या शब्द से गणना का बोध होता है, किन्तु पूर्व में बताया है कि प्राकृत भाषा में संख्या शब्द शंख का भी वाचक है। इसलिये यहाँ 'भावसंखा' शब्द द्वीन्द्रिय जीव 'शंख' के लिये प्रयुक्त हुआ जानना चाहिये। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र जो जीव शंखप्रायोग्य तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, श्रीदारिक-अंगोपांग आदि नामकर्मों एवं नीचगोत्र को विपाकतः वेदन करते हैं अर्थात् तदनुकल कर्मप्रकृतियों के उदय में वर्तमान है, वे भावशंख (संखा) कहलाते हैं / यही भावसंख्या का अर्थ है / इस भावसंख्या के वर्णन के साथ प्रमाणद्वार की वक्तव्यता पूर्ण हो जाती है / // इस प्रकार से प्रमाण पद समाप्त हुआ / / अब क्रमप्राप्त उपक्रम के चतुर्थ भेद वक्तव्यता का निरूपण करते हैं / वक्तव्यता के भेद 521. से कि तं वत्तब्वया ? वत्तब्धया तिविहा पण्णत्ता / तं०-ससमयवत्तव्वया परसमयक्त्तव्वया ससमयपरसमयबत्तन्वया / [521 प्र.] भगवन् ! वक्तव्यता का क्या स्वरूप है ? [521 उ.] आयुष्मन् ! वक्तव्यता तीन प्रकार की कही गई है, यथा---स्वममयवक्तव्यता, 2. परसमयवक्तव्यता और 3. स्वसमय-परसमयवक्तव्यता / वक्तव्यता अध्ययन-पादिगत प्रत्येक अवयव के अर्थ का यथासंभव प्रतिनियत विवेचन वक्तव्यता के तीन भेद क्यों?—प्रस्तुत में समय का अर्थ सिद्धान्त या मत है। अतः स्व-अपने सिद्धान्त का प्रस्तुतीकरण स्वसमयवक्तव्यता, पर--अन्य के सिद्धान्त का निरूपण परसमयवक्तव्यता एवं स्वपर-दोनों के सिद्धान्तों का विवेचन करना स्वपरसमयवक्तव्यता है / इनकी पृथक्-पृथक् व्याख्या आगे की जाती है। स्वसमयवक्तव्यतानिरूपण 522. से कि तं ससमयवत्तवया ? ससमयवत्तब्वया जत्थ णं ससमए आविज्जति पाणविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से तं ससमयवत्तवया / [522 प्र. भगवन् ! स्वसमयवक्तव्यता क्या है ? (522 उ.] श्रायुष्मन ! अविरोधी रूप से स्वसिद्धान्त के कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन करने को स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं / यही स्वसमयवक्तव्यता है / विवेचन--पूर्वापरविरोध न हो, इस प्रकार अपने सिद्धान्त की अविरोधी क्रमबद्ध व्याख्या करने को स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं। यद्यपि प्राघविज्जति आदि उवदंसिज्जति पर्यन्त शब्द सामान्यतः समानार्थक-से प्रतीत होते हैं, लेकिन शब्दभेद से अर्थभेद होने से उनका पृथक्-पृथक् प्राशय इस प्रकार है१. अध्ययनादिषु प्रत्यवधवं यथासंभवं प्रतिनियतार्थकथनं बक्तव्यता। -अनुयोग. मलधारीया वृत्ति, पृ. 243 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक्तव्यता निरूपण] [425 आघविज्जति सामान्य रूप से कथन करना, व्याख्यान करना / जैसे कि धर्मास्तिकाय आदि पांच अस्तिकाय द्रव्य हैं। अर्थात् धर्म, अधर्म, प्राकाश, जीव और पुद्गल, ये बहुप्रदेशी पांचों द्रव्य त्रिकाल अवस्थायी हैं। पण्णविज्जति-अधिकृत विषय की पृथक-पृथक लाक्षणिक व्याख्या करना / जैसे जीव और पुद्गल की गति में जो सहायक हो, वह धर्मास्तिकाय है, इत्यादि / पहविज्जति–अधिकृत विषय की विस्तृत प्ररूपणा करना / जैसे-धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, इत्यादि / दंसिज्जति दृष्टान्त द्वारा सिद्धान्त को स्पष्ट करना / जैसे-यथा मछलियों को चलन में सहायक जल होता है / निदंसिज्जति–उपनय द्वारा अधिकृत विषय का स्वरूप निरूपण करना / जैसे-वैसे ही धर्मद्रव्य भी जीव और पुद्गलों को गति में सहायक है। उवदंसिज्जति–समस्त कथन का उपसंहार करके अपने सिद्धान्त की स्थापना करना / जैसे-- इस प्रकार के स्वरूप वाले द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहते हैं। परसमयवक्तव्यतानिरूपण 523. से कि तं परसमयवत्तव्वया ? परसमयवत्तव्वया जत्थ णं परसमए आविज्जति जाव उवदंसिज्जति / से तं परसमयवत्तवया। [523 प्र.] भगवन् ! परसमय वक्तव्यता क्या है ? [523 उ.] अायुष्मन् ! जिस वक्तव्यता में परसमय-अन्य मत के सिद्धान्त--का कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, उसे परसमयवक्तव्यता कहते हैं। विवेचन जिसमें स्वमत की नहीं किन्तु परसिद्धान्त की उसी रूप में व्याख्या की जाती है, जैसे सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन में लोकायतिकों का सिद्धान्त स्पष्ट किया है-- संति पञ्चमहन्भूया, इहमेगेसि आहिया / पुढवी आऊ तेऊ (य) वाऊ आगास पंचमा / / ए ए पंच महाभूया तेब्भो एगोत्ति आहिया / ग्रह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो। नास्तिकों के मत के अनुसार सर्वलोकव्यापी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पांच महाभूत कहे गये हैं। इन पांच महाभूतों से जीव अव्यतिरिक्त -अभिन्न है। जब ये पंच महाभूत शरीराकार परिणत होते हैं, तब इनसे जीव नामक पदार्थ उत्पन्न हो जाता है और इनके विनष्ट होने पर इनसे जन्य जीव का भी विनाश हो जाता है। उक्त प्रकार का कथन पाहत दर्शन का नहीं किन्तु लोकायतिक मत प्रतिपादक होने से पर Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426] [अनुपोगटारसूत्र सिद्धान्त है। इस तरह जिस वक्तव्यता में परसिद्धान्त को प्ररूपणा की जाती है, वह परसमयवक्तव्यता है। स्वसमय-परसमयवक्तव्यता 524. से कि तं ससमयपरसमथवत्तव्वया? ससमयपरसमयवत्तव्यया जत्थ णं ससमए परसमए आधविज्जइ जाव उवदंसिज्जइ / से तं ससमयपरसमययत्तत्वया। [524 प्र.] भगवन्! स्वसमय-परसमयवक्तव्यता का क्या स्वरूप है ? [524 उ.] आयुष्मन् ! स्वसमय-परसमयवक्तव्यता इस प्रकार है-जिस वक्तव्यता में स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त दोनों का कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, उसे स्वसमय-परसमयवक्तव्यता कहते हैं। विवेचना--जो व्याख्या स्वसमय और परसमय उभय रूप संभव हो वह स्वसमयपरसमयवक्तव्यता कहलाती है / जैसे प्रागारमावसंता वा, प्रारण्णा वावि पव्वया। इमं दरिसणमावन्ना, सव्वदुक्खा विमुच्चई / / अर्थात् जो व्यक्ति घर में रहते हैं - गृहस्थ हैं, अथवा वनवासी हैं, अथवा प्रवजित (शाक्यादि) हैं, वे यदि हमारे सिद्धान्त को स्वीकार, धारण, ग्रहण कर लेते हैं तो सभी (शारीरिक, मानसिक) दुखों से सर्वथा विमुक्त हो जाते हैं / इस कथन की उभयमुखी वृत्ति होने से जैन, बौद्ध, सांख्य प्रादि जो कोई भी इसका अर्थ करेगा वह अपने मतानुसार होने से स्वसमयवक्तव्यता रूप और इतर के लिये परसमयवक्तव्यता रूप है / इसीलिये इसे स्व-परसमयों की वक्तव्यता कहा है / वक्तव्यता के विषय में नयष्टियां 525. [1] इयाणि को णओ कं वत्तन्वयमिच्छति ? तत्थ णेगम-संग्रह-ववहारातिविहं वत्तव्वयं हच्छंति। तं जहा ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं ससमयपरसमयक्त्तव्वयं / [525-1 प्र.] भगवन् ! (इन तीनों वक्तव्यताओं में से) कौन नय किस वक्तव्यता को स्वीकार करता है ? [525-1 उ.] आयुष्मन् ! नेगम, संग्रह और व्यवहार नय तीनों प्रकार की वक्तव्यता को स्वीकार करते हैं। [2] उज्जुसुओ दुविहं वत्तव्वयं इच्छति। तं जहा-ससमयवत्तव्ययं परसमयवत्तव्वयं / तत्थ णं जा सा ससमयवत्तव्वया सा ससमयं पविट्ठा, जा सा परसमयवत्तव्दया सा परसमयं पविट्ठा, तम्हा दुविहा वत्तम्बया, णस्थि ति विहा वत्तम्वया। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्यता निरूपण] [427 [525-2] ऋजुसूत्रनय स्वसमय और परसमय-इन दो वक्तव्यताओं को ही मान्य करता है। क्योंकि (स्वसमय-परसमयवक्तव्यता रूप तीसरी वक्तव्यता में से) स्वसमयवक्तव्यता प्रथम भेद स्वसमयबक्तव्यता में और परसमय की वक्तव्यता द्वितीय भेद परसमयवक्तव्यता में अन्तर्भत हो जाती है। इसलिए वक्तव्यता के दो ही प्रकार हैं, किन्तु त्रिविध वक्तव्यता नहीं है। [3] तिणि सद्दणया [एगं] ससमयवत्तव्वयं इच्छंति, नत्यि परसमयवत्तव्वयं / कम्हा? जम्हा परसमए अणठे अहेऊ असम्भावे अकिरिया उम्मगे अणुवएसे मिच्छादसणमिति कटु, तम्हा सवा ससमयबत्तव्वया, अस्थि परसमयवत्तन्वया पत्थि ससमयपरसमयवतम्वया / से तं वत्तश्चया। [525-3] तीनों शब्दनय (शब्द, समभिरूढ एवंभूत नय) एक स्वसमयवक्तव्यता को ही मान्य करते हैं। उनके मतानुसार परसमयवक्तव्यता नहीं है। क्योंकि परसमय अनर्थ, अहेतु, असद्भाव, अक्रिय (निष्क्रिय), उन्मार्ग, अनुपदेश (कु-उपदेश) और मिथ्यादर्शन रूप है / इसलिए स्वसमय की वक्तव्यता है किन्तु परसमयवक्तव्यता नहीं है और न स्वसमय-परसमयवक्तव्यता ही है। इस प्रकार से वक्तव्यताविषयक निरूपण जानना चाहिये / / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया है कि पूर्वोक्त तीन वक्तव्यताओं में से कौन नय किसको अंगीकार करता है ? ___ नयदष्टियां लोकव्यवहार से लेकर वस्त के स्वकीयस्व रूप तक का विचार करती हैं। इसी अपेक्षा यहाँ वक्तव्यताविषयक नयों का मंतव्य स्पष्ट किया गया है। नैगम आदि सातों नयों में से अनेक प्रकार से वस्तु का प्रतिपादन करने वाले नैगमनय सर्वार्थ के संग्राहक संग्रहनय और लोकव्यवहार के अनुसार व्यवहार करने में तत्पर मान्यता है कि लोक में इसी प्रकार की रूढि-परम्परा प्रचलित होने से तीनों ही-स्व, पर और उभय समय की वक्तव्यताएँ माननी चाहिये। ऋजुसूत्रनय पूर्वोक्त नयों से विशुद्धतर है, अतः उसकी दृष्टि से दो-स्वसमय और परसमय की वक्तव्यता हो सकती है / स्वसमय-परसमय वक्तव्यता में से स्वसमयवक्तव्यता का स्वसमयवक्तव्यता में और परसमयवक्तव्यता का परसमयवक्तव्यता में अन्तर्भाव हो जाने से वक्तव्यता का तोसरा भेद संभव नहीं है। अतएव तीसरी वक्तव्यता युक्तिसंगत नहीं है। जैसे नैगम आदि तीन नयों से ऋजुसूत्रनय विशुद्धतर को विषय करने वाला है, वैसे ही ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा अधिक विशुद्धतर विषय वाले शब्दादि तीनों नयों को एक मात्र स्वसमयवक्तव्यता ही मान्य है / क्योंकि परसमयादि शेष दो मान्यतायें मानने में यह विसंगतियां हैं... 1. परसमय 'नास्त्येवात्मा'- --अात्मा नहीं है, इत्यादि रूप से अनर्थ रूप का प्रतिपादक होने के कारण अनर्थ रूप इसलिये है कि प्रात्मा के अभाव में उसका प्रतिषेध कौन करेगा? जो यह विचार करता है कि मैं नहीं हूँ' वहीं तो जीव-आत्मा है। जीव के सिवाय अन्य पदार्थ संशयकारक नहीं हो सकता है। इसी प्रकार की और भी अनर्थता (विसंगतियां) परसमय में जानना चाहिये। 1. जो चितेइ सरीरे नत्थि प्रहं स एव होइ जीवोत्ति / न ह जीवंमि असंते संसप उप्पायमो अण्णो / अनुयोग. मलधारीबाबत्ति पत्र 244 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428] [अनुयोगद्वारसूत्र 2. हेत्वाभास के बल से प्रवृत्त होने के कारण परसमय अहेतु रूप भी है / जैसे—'नास्त्येवात्मा अत्यन्तानुपलब्धेः'प्रात्मा नहीं है क्योंकि उसकी अत्यन्त अनुपलब्धि है / यहाँ अत्यन्त अनुपलब्धि हेतु हेत्वाभास है / हेत्वाभास होने का कारण यह है कि प्रात्मा के ज्ञानादि गुणों की उपलब्धि होती है। जैसे घटादिकों के गुणों-रूपादि की उपलब्धि होने से घटादि की मत्ता है, उसी प्रकार जीव के ज्ञानादिक गुणों की उपलब्धि होने से उसकी सत्ता है।' 3. परसमयवक्तव्यता असदर्थ का प्रतिपादन करने वाली भी है / क्योंकि परसमय असद्भाव रूप एकान्त क्षणभंग ग्रादि असदर्थ का प्रतिपादन करता है / एकान्ततः क्षणभंग प्रादि सिद्धान्त असद्रूप इसलिए है कि उसमें युक्ति, प्रमाण आदि से विरोध है / जैसे-एकान्ततः पदार्थ को क्षणभंगुर मानने पर धर्म-अधर्म का उपदेश, सुकृत-दुष्कृत, परलोक आदि में गमन तथा इसी प्रकार से अन्य लोकव्यवहार नहीं बन सकते हैं। तथा 4. एकान्त रूप से शून्यता का प्रतिपादन करने वाला होने से परसमय में किसी भी प्रकार की क्रिया करना संभवित नहीं और तब क्रिया करने वाले कर्ता का भी प्रभाव मानना पड़ेगा / क्योंकि सर्वशून्यता में जब समस्त पदार्थ ही शून्य रूप हैं तो यह स्वाभाविक है कि कर्ता और क्रिया आदि सभी शून्यरूप होंगे / यदि ऐसा न माना जाये तो सर्वशून्यता का सिद्धान्त ही नहीं बन सकता है। इसी कारण परसमय असद्भाव रूप का प्रतिपादक होने से उसकी वक्तव्यता नहीं मानी जा सकती है। 5. परसमयबक्तव्यता इसलिए भी नहीं मानी जा सकती है, क्योंकि वह उन्मार्ग--परस्पर विरुद्ध वचनों की प्रतिपादक है। जैसे—परसमय कभी तो कहता है कि स्थावर और अस रूप किसी भी प्राणी की हिंसा न करे तथा समस्त प्राणियों को अपना जैसा ही माने / इस प्रकार की प्रवृत्ति करने वाला धार्मिक है।' किन्तु साथ ही ऐसा भी कहता है कि अश्वमेधयज्ञ करते समय 5097 पशुओं की बलि करना चाहिये / इस प्रकार जब परसमय में स्पष्ट रूप से पूर्वापर उन्मार्गता है तब उसकी वक्तव्यता मान्य कैसे की जा सकती है ? 6. परसमय उपदेश रूप भी नहीं है—अनुपदेश (कुत्सित उपदेश) रूप है / क्योंकि उपदेश जीवों को अहित से छुड़ाकर हित में प्रवृत्ति कराने वाला होता है, परन्तु परसमय के उपदिष्ट सिद्धान्त जीवों को अहित की ओर ले जाते हैं। जैसे-जब सभी कुछ क्षणिक है तो कौन विषयादिकों का ---मनुषोग. मलधारीयावृत्ति पत्र 244 2. नाणाईण गुणाणं अणुभवप्रो होइ जंतुणो सत्ता / जह रूवाइगुणाणं उवलंभागो घडाईण / / 1. धम्माधम्मुवएसो कयाकयं परभवाइगमणं च / ___सव्वावि हु लोयठिई न घडइ एगतखिणयम्मी // 3. न हिस्यात् सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च / वभूतानि यः पश्यति स धार्मिकः / / 4. षट् सहस्राणि युज्यन्ते पशूना मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः // --अनुयोग. मलधारीयावृत्ति पत्र 244 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थाधिकार निरूपण [429 सेवन करने में प्रवृत्ति नहीं करेगा ? अर्थात सभी प्रवृत्ति करेंगे। क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार वे यह तो जान ही लेंगे कि हम क्षणिक है अतः नरकादि के दुःख रूप फल तो हमें भोगना ही नहीं पड़ेंगे, फलभोग के काल तक हम रहने वाले नहीं है।' इसी तरह के अन्यान्य अनर्थादिकों से युक्त होने के कारण परसमय मिथ्यादर्शन रूप है। इसी कारण शब्दादि नयत्रय को स्वसमयवक्तव्यता ही मान्य है। इस प्रकार से वक्तव्यता सम्बन्धी नयदृष्टियां जानना चाहिये। अव अर्थाधिकार का निरूपण करते हैं। अर्थाधिकारनिरूपण 526. से कि तं अत्याहिगारे ? अत्याहिगारे जो जस्स अज्झयणस्स अस्थाहिगारो। तं जहा सावज्जजोगविरती 1 उक्कित्तण 2 गुणवप्रो य पडिवत्ती 3 / खलियस्स निदणा 4 वणतिगिच्छ 5 गुणधारणा 6 चेव / / 123 // से तं अत्याहिगारे। [526 प्र.] भगवन् ! अर्थाधिकार का क्या स्वरूप है ? [526 उ.] आयुष्मन् ! (आवश्यकसूत्र के) जिस अध्ययन का जो अर्थ-वर्ण्य विषय है उसका कथन अर्थाधिकार कहलाता है / यथा 1. सावद्ययोगविरति यानी सावध व्यापार का त्याग प्रथम (सामायिक) अध्ययन का अर्थ है। 2. (चतुविशतिस्तव नामक) दूसरे अध्ययन का अर्थ उत्कीर्तन-स्तुति करना है / 3. (वंदना नामक) तृतीय अध्ययन का अर्थ गुणवान् पुरुषों का सम्मान, वन्दना, नमस्कार करना है। 4. (प्रतिक्रमण अध्ययन में) प्राचार में हुई स्खलनात्रों-पापों आदि की निन्दा करने का अर्थाधिकार है। 5. (कायोत्सर्ग अध्ययन में) व्रणचिकित्सा करने रूप अर्थाधिकार है। 6. (प्रत्याख्यान अध्ययन का) गुण धारण करने रूप अर्थाधिकार है। यही अर्थाधिकार है। विवेचन--जिस अध्ययन का जो अर्थ है वह उसका अर्थाधिकार कहलाता है / जैसे आवश्यकसूत्र के छह अध्यायों के गाथोक्त वय॑विषय हैं। इनका प्राशय पूर्व में बताया जा चुका है / समवतारनिरूपण 527. से कि तं समोयारे ? समोयारे छविहे पण्णत्ते / तं० ---णामसमोयारे ठवणसमोयारे दव्वसमोयारे खेत्तसमोयारे कालसमोयारे भावसमोयारे। [527 प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? 1. सर्वं क्षणिकमित्येतद् ज्ञात्वा को न प्रवर्तते ? विषयादी विपाको मे न भावीति विनिश्चयात / / -अनुयोग. मलधारीयावत्ति पत्र 244 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 अनुयोगद्वारसूत्र [527 उ.] आयुष्मन् ! समवतार के छह प्रकार हैं, जैसे-१. नामसमवतार, 2. स्थापनासमवतार, 3. द्रव्यसमवतार, 4. क्षेत्रसमवतार, 5. कालसमवतार और 6. भावसमवतार / विवेचन—सूत्र में भेदों द्वारा समवतार के स्वरूप का वर्णन प्रारम्भ किया है / समवतार-वस्तुओं के अपने में, पर में और उभय में अन्तर्भूत होने का विचार करने को समवतार कहते हैं। उसके नाम आदि के भेद से छह प्रकार हैं। आगे क्रम से उनका वर्णन करते हैं। नाम-स्थापना-द्रव्यसमवतार 528. से कि तं णामसमोयारे ? नाम-ठवणाओ पुव्ववणियाप्रो / [528 प्र.] भगवन् ! नाम (स्थापना) समवतार का स्वरूप क्या है ? [528 उ.] आयुष्मन् ! नाम और स्थापना (समवतार) का वर्णन पूर्ववत् (आवश्यक के वर्णन जैसा) यहाँ भी जानना चाहिये / 529. से कि तं दबसमोयारे ? दव्वसमोयारे दुविहे पण्णत्ते / तं०-प्रागमतो य णोप्रागमतो य / जाव से तं भवियसरीरदश्वसमोयारे। [529 प्र.] भगवन् ! द्रव्यसमवतार का क्या स्वरूप है ? [529 उ.] आयूष्मन ! द्रव्यसमवतार दो प्रकार का कहा है--१. आगमद्रव्यसमवतार, 2. नोग्रागमद्रव्यसमवतार / यावत् आगमद्रव्यसमवतार का तथा नोग्रागमद्रव्यसमवतार के भेद ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर नोप्रागमद्रव्यसमवतार का स्वरूप पूर्ववत् द्रव्यावश्यक के प्रकरण में कथित भेदों के समान जानना चाहिये / विवेचन--यहाँ नाम, स्थापना समवतार का और द्रव्यसमवतार के दो भेदों का वर्णन किया है / स्पष्टीकरण इस प्रकार है-नामसमवतार और स्थापनासमवतार इन दोनों का वर्णन तो नाम-यावश्यक और स्थापना-प्रावश्यक के अनुरूप जानना चाहिए / परन्तु आवश्यक के स्थान पर समवतार पद का प्रयोग करना चाहिए / आगम और नोपागम को अपेक्षा द्रव्यसमवतार के दो भेद हैं। इनमें से नोआगमद्रव्यसमवतार ज्ञायकशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार का है / आगमद्रव्यसमवतार और नोआगम ज्ञायकशरोद्रव्यसमवतार एवं भव्यशरीरद्रव्यसमवतार का स्वरूप पूर्वोक्त द्रव्यावश्यक के वर्णन जैसा ही जानना चाहिए। शेष रहे ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार का वर्णन प्रकार है 530. [1] से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवारिते दम्वसमोयारे ? जाणयसरीरभवियसरीरवइ रित्ते बव्वसमोयारे तिबिहे पण्णत्ते / तं नहा—आयसमोयारे Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवतार निरूपण [431 परसमोयारे तदुभयसमोयारे / सम्वदव्वा वि य णं आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, परसमोयारेणं जहा कुडे बदराणि, तदुभयसमोयारेणं जहा घरे थंभो आयभावे य, जहा घडे गोवा आयभावे य। [530-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार कितने प्रकार [530-1 उ.] आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार तीन प्रकार का है-यथा--१. प्रात्मसमवतार, 2. परसमवतार, 3. तदुभयसमवतार / आत्मसमवतार की अपेक्षा सभी द्रव्य आत्मभाव-अपने स्वरूप में ही रहते हैं, परसमवतारापेक्षया कुंड में बेर की तरह परभाव में रहते हैं तथा तदुभयसमवतार से (सभी द्रव्य) घर में स्तम्भ अथवा घट में ग्रीवा (गर्दन) की तरह परभाव तथा आत्मभाव-दोनों में रहते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में तद्व्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार का स्वरूप स्पष्ट किया है। प्रत्येक द्रव्य-पदार्थ कहाँ रहता है ? इसका विचार करने का प्राधार है निश्चय और व्यवहार नयदृष्टियों का गौण-मुख्य भाव / स्वस्वरूप के विचार में निश्चयनय की और परभाव का विचार करने में व्यवहारनय की मुख्यता है / इसलिये निश्चयनय से समस्त द्रव्यों के रहने का विचार करने पर उत्तर होता है कि सभी द्रव्य निजस्वरूप में रहते हैं। निजस्वरूप से भिन्न उनका कोई अस्तित्व नहीं है तथा परसमवतार से व्यवहारनय से विचार करने पर उत्तर होता है कि परभाव में भी रहते हैं / उभयरूपता युगपत् निश्चय-व्यवहारनयाश्रित है। अतः तदुभयसमवतार से विचार किये जाने पर आत्मसमवतार की अपेक्षा समस्त द्रव्य प्रात्मभाव में तथा परसमवतार की अपेक्षा परभाव में हैं। उदाहरणार्थ-स्तम्भ जैसे पर घर में भी रहता है और स्वस्वरूप में भी रहता है, ऐसा स्पष्ट दिखता है। यद्यपि परसमवतार के दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत 'कुण्डे बदराणि' उदाहरण उभयसमवतार का है क्योंकि जिस प्रकार बेर अपने से पर-भिन्न कुण्ड में रहते हैं वैसे ही आत्मभाव में भी रहते हैं, इसलिए यह केवल परसमवतार नहीं है। किन्तु केवल परभाव में रहने का कोई उदाहरण सम्भव न होने से प्रात्मभाव की विवक्षा न करके नाममात्र के लिए यहाँ उसका पृथक् निर्देश किया है। वास्तव में समवतार दो हैं--आत्मसमवतार और उयभसमवतार / जिसको स्वयं सूत्रकार स्पष्ट करते हैं [2] प्रहवा जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दव्वसमोयारे दुविहे पण्णत्ते / तं जहाआयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य। चउसट्रिया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं बत्तीसियाए समोयरति आयभावे य। बत्तीसिया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं सोलसियाए समोयरति आयभावे य / सोलसिया आयसमोयारेणं प्रायभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं अट्ठभाइयाए समोयरति आयभावे य / अट्ठभाइया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं चउभाइयाए समोयरति आयभावे य / चउभाइया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभय Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 [अनुयोगद्वारसूत्र समोयारेणं अद्धमाणीए समोयरइ आयभावे य। अद्धमाणी आयसमोयारेणं प्रायभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं माणीए समोयरति आयभावे य। से तं जाणयसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दवसमोयारे / से तं नोप्रागमओ दव्वसमोयारे / से तं दध्वसमोयारे। [530-2] अथवा ज्ञायकशरीरभव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार दो प्रकार का है-- आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार / जैसे प्रात्मसमवतार से चतुष्पष्टिका आत्मभाव में रहती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा द्वात्रिंशिका में भी और अपने निजरूप में भी रहती है / द्वात्रिंशिका प्रात्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में और उभयसमवतार की अपेज्ञा षोडशिका में भी रहती है और प्रात्मभाव में भी रहती है। षोडशिका आत्मसमवतार से प्रात्मभाव में समवतीर्ण होती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा अष्टभागिका में भी तथा अपने निजरूप में भी रहती है। अष्टभागिका अात्मसमवतार की अपेक्षा प्रात्मभाव में तथा तदुभयसमवतार की अपेक्षा चतुर्भागिका में भी समवतरित होती है और अपने निज स्वरूप में भी समवतरित होती है। आत्मसमवतार की अपेक्षा चतुर्भागिका आत्मभाव में और तदुभयसमवतार से अर्धमानिका में समवतीर्ण होती है एवं प्रात्मभाव में भी / आत्मसमवतार से अर्धमानिका पात्मभाव में एवं तदुभयसमवतार की अपेक्षा मानिका में तथा आत्मभाव में भी समवतीर्ण होती है। यह ज्ञाय कशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार का वर्णन है। इस तरह नोश्रागमद्रव्यसमवतार और द्रव्यसमवतार की प्ररूपणा पूर्ण हुई। विवेचन--परसमवतार की असंभविता को यहाँ ध्यान में रखकर प्रकारान्तर से तव्यतिरिक्त नोप्रागमद्रव्य समवतार की द्विविधता का निरूपण किया है। प्रत्येक द्रव्य स्वस्वरूप की अपेक्षा स्वयं में ही रहता है लेकिन व्यवहार की अपेक्षा यह भी माना जाता है कि अपने से विस्तृत में समाविष्ट होता है / लेकिन उस समय भी उसका स्वतन्त्र अस्तित्व होने से वह स्वरूप में भी रहेगा ही। मानी, अर्धमानी, चतुर्भागिका आदि मगध देश के माप हैं। इनका प्रमाण पूर्व में बताया जा चुका है। क्षेत्रसमवतार 531. से कि तं खेत्तसमोयारे ? खेत्तसमोयारे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा--आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य / भरहे वासे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं जंबुद्दीवे समोयरति आयभावे य / जंबुद्दीवे दीवे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं तिरियलोए समोयरति आयभावे य / तिरियलोए प्रायसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं लोए Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवतार निरूपण] [433 समोयरति आयभावे य'। से तं खेत्तसमोयारे। | 531 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रसमवतार का क्या स्वरूप है ? [53 1 उ.] अायुष्मन् ! क्षेत्रसमवतार का दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। यथा१. आत्मसमवतार, 2. तदुभयसमवतार / प्रात्मसमवतार की अपेक्षा भरतक्षेत्र प्रात्मभाव (अपने) में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा जम्बूद्वीप में भी रहता है और प्रात्मभाव में भी रहता है / अात्मसमवतार की अपेक्षा जम्बूद्वीप आत्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा तिर्यकलोक (मध्यलोक) में भी समवतरित होता है और प्रात्मभाव में भी। आत्मसमवतार से तिर्यकलोक प्रात्मभाव में समवतीर्ण होता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा लोक में समवतरित होता है और आत्मभाव-निजरूप में भी / यही क्षेत्रसमवतार का स्वरूप है / विवेचन- यहाँ क्षेत्रसमवतार का स्वरूप स्पष्ट किया है। लघु क्षेत्र के प्रमाण को यथोत्तर बृहत् क्षेत्र में समवतरित किये जाने को क्षेत्रसमवतार कहते हैं / उदाहरणार्थ दिये गये दृष्टान्तों का अर्थ सुगम है। उत्तरोत्तर भरतक्षेत्र, जम्बूद्वीप, तिर्यकलोक आदि क्षेत्र बृहत् प्रमाण वाले क्षेत्र में भी समवतरित होते हैं / कालसमवतार 532. से कि तं कालसमोयारे ? कालसमोयारे दुविहे पण्णते / तं०-आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य। समए आयसमोयारेणं प्रायभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं आवलियाए समोयरति आयभावे य / एवं आणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते अहोरत्ते पक्खे मासे उऊ अयणे संवच्छरे जुगे वाससते वाससहस्से वाससतसहस्से पुध्वंगे पुवे तुडियंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अववे हुहुयंगे हुहुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे लिणंगे पलिणे अस्थिनिउरंगे अथिनिउरे अउयंगे अउए गउयंगे गउए पउयंगे पउए चुलियो चूलिया सोसपहेलियंगे सीसपहेलिया पलिओवमे सागरोवमे आयसमोयारेणं आयभावे समोतरति, तदुभयसमोयारेणं ओसप्पिणि-उस्स प्पिणीसु समोयरति आयभावे य, ओसप्पिणिउस्स प्पिणीनो आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, तदुभयसमोयारेणं पोग्गलपरियट्टे समोयरंति प्रायभावे य / पोग्गलपरियट्टे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं तीतद्धाअणागतद्धासु समोयरति आयभावे य; तीतद्धा-अणागतद्धाओ आयसमोयारेणं प्रायभावे समोयरंति, तदुभयसमोयारेणं सम्वद्धाए समोयरंति प्रायभावे य / से तं कालसमोयारे। 1. लोए पायसमोयारेणं प्रायभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेण अलोए समोयरति प्रायभावे य / Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र [532 प्र.] भगवन् ! कालसमवतार का क्या स्वरूप है ? [532 उ.] अायुष्मन् ! कालसमवतार दो प्रकार का कहा गया है यथा--प्रात्मसमवतार, तदुभयसमवतार / जैसे अात्मसमवतार की अपेक्षा समय प्रात्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा प्रावलिका में भी और आत्मभाव में भी रहता है। इसी प्रकार प्रानप्राणा, स्तोक, लब, मुहूर्त, अहोरात्र, (दिन-रात), पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वाग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अक्षनिकुरांग, अक्षनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शोषंग्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम ये सभी प्रात्मसमवतार से आत्मभाव में और तदुभयसमवतार से अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में भी और आत्मभाव में भी रहते हैं। अवपिणी-उत्सपिणी काल अात्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा पुद्गलपरावर्तन में भी और आत्मभाव में भी रहता है। पुदगलपरावर्तनकाल अात्मसमवतार की अपेक्षा निजरूप में रहता है और तदुभयसमवतार से अतीत और अनागत (भविष्यत् काल में भी एवं प्रात्मभाव में भी रहता है। अतीत-अनागत काल आत्मसमवतार की अपेक्षा प्रात्मभाव में रहता है, तदुभयसमवतार की अपेक्षा सर्वाद्धाकाल में भी रहता है और आत्मभाव में भी रहता है। इस तरह कालसमवतार का विचार है / विवेचन–समयादि रूप से जो जाना जाता है उसे काल कहते हैं / वह अनन्त समय वाला है। काल की न्यूनतम आद्य इकाई समय और तन्निष्पन्न पावलिका आदि रूप कालविभाग का उत्तरोत्तर बड़े कालविभाग में समवतरण करना कालसमवतार है। इसके भी पूर्ववत् दो भेद हैं--प्रात्मसमवतार और तदुभयसमवतार / यात्मसमवतार से सभी काल भेद अपने ही स्वरूप में रहते हैं तथा तदुभयसमवतार से परभाव और आत्मभाव दोनों में रहते हैं / जैसे पानप्राण प्रात्मभाव में भी और पर भाव स्तोक में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार अन्य कालभेदों के लिए जानना चाहिए / किन्तु पुद्गलपरावर्तन का तदुभयसमवतार की अपेक्षा प्रतीत-अनागत काल में समवतार बताने का कारण यह है कि पुद्गलपरावर्तन असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकालप्रमाण है, जिससे समयमात्र प्रमाण वाले वर्तमान काल में उस बृहत्कालविभाग का समवतार संभव नहीं होने से अनन्त समय वाले अतीत-अनागत काल का कथन किया है। इस प्रकार कालसमवतार का स्वरूप जानना चाहिये। भावसमवतार 533. से कि तं भावसमोयारे ? भावसमोयारे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य। कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं माणे समोयरति आयभावे य / एवं माणे Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवतार निरूपण [435 माया लोभे रागे मोहणिज्जे अट्टकम्भवगडीओ आयसमोयारेण आयभावे समोयरंति, तदुभयसमोयारेणं छविहे भावे समोयरंति आयभावे य / एवं छबिहे भावे जीने जीवस्थिकाए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं सम्वदन्वेसु समोयरति आयभावे य / एत्थं संगहणिगाहा कोहे माणे माया लोभे रामे य मोहणिजे य / पगडी भावे जीवे जीव स्थिय सव्वदन्वा य / / 124 // से तं भावसमोयारे / से तं समोयारे / से तं उवक्कमे / [533 प्र.] भगवन् ! भावसमवतार का क्या स्वरूप है ? [533 उ.] अायुष्मन् ! भावसमवतार दो प्रकार का कहा गया है / यथा--आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार / अात्मसमवतार की अपेक्षा क्रोध निजस्वरूप में रहता है और तदुभयसमवतार से मान में और निजस्वरूप में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार मान, माया, लोभ, राग, मोहनीय और अष्टकर्म प्रकृतियाँ प्रात्मसमवतार से प्रात्मभाव में तथा तदुभयसमवतार से छह प्रकार के भावों में और आत्मभाव में भी रहती हैं। इसी प्रकार (प्रौदयिक प्रादि) छह भाव जीव, जीवास्तिकाय, अात्मसमवतार की अपेक्षा निजस्वरूप में रहते हैं और तदुभयसमवतार की अपेक्षा द्रव्यों में और धात्मभाव में भी रहते हैं / इनकी संग्रहणी गाथा इस प्रकार है क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, (कर्म) प्रकृति, भाव, जीव, जीवास्तिकाय और सर्वद्रव्य (आत्मसमवतार से अपने-अपने स्वरूप में और तदुभयसमवतार से पररूप और स्व-स्वरूप में भी रहते हैं) / 124 ___ यही भावसमवतार है / इसका वर्णन होने पर सभेद समवतार और उपक्रम नाम के प्रथम विवेचन.. क्रोध कषाय आदि जीव के वैभाविक भावों के तथा ज्ञानादि स्वाभाविक भावों के समवतार को भावसमवतार कहते हैं / इसके भी आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार ये दो प्रकार हैं। सूत्र में क्रोधादिक के दोनों प्रकार के समवतार का संक्षेप में उल्लेख किया है / उसका आशय यह है-क्रोधादि प्रौदयिकभाव रूप होने से उनका भावसमवतार में ग्रहण किया है, अहंकार के बिना क्रोध उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए उभयसमवतार की अपेक्षा क्रोध का मान में और अपने निजरूप में समवतार कहा है / क्षपकश्रेणी में आरूढ जीव जिस समय मान का क्षय करने के लिए प्रवृत्त होता है उस समय वह मान के दलिकों को माया में प्रक्षिप्त करके क्षय करता है, इस कारण उभयसमवतार माया में और निजरूप में भी और अात्मसमवतार की अपेक्षा अपने निजरूप में ही समवतार बताया है / इसी प्रकार माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, अष्टकर्मप्रकृति प्रादि जीवपर्यन्त का उभयसमवतार एवं आत्मसमवतार समझ लेना चाहिये। यद्यपि उपक्रमद्वार में शास्त्रकार को सामायिक प्रादि षडावश्यक-अध्ययनों का समवतार करना अभीष्ट है, किन्तु सुगम होने के कारण यहाँ उसका सूत्र में वर्णन नहीं किया है। वह इस प्रकार है Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र सामायिक, उत्कीर्तन का विषय होने से सामायिक का उत्कीर्तनातुपूर्वी में समवतार होता है तथा गणनानुपूर्वी में जब पूर्वानुपूर्वी से इसकी गणना की जाती है तब प्रथम स्थान पर और पश्चानुपूर्वी से गणना किये जाने पर छठे स्थान पर आता है तथा अनानुपूर्वी से गणना किये जाने पर यह दूसरे आदि स्थानों पर आता है, अतः इसका स्थान अनियत है। नाम में औदायिक आदि छह भावों का समवतार होता है। इसमें सामायिक अध्ययन श्रुतज्ञान रूप होने से क्षायोपशमिक्रभाव में समवतवित होता है / प्रमाण की अपेक्षा जीव का भाव रूप होने से सामायिक अध्ययन का भावप्रमाण में समवतार होता है। भावप्रमाण गुण, नय और संख्या, इस तरह तीन प्रकार का है। इन भेदों में से सामायिकअध्ययन का समवतार गुणप्रमाण और संख्याप्रमाण में होता है। यद्यपि कहीं-कहीं नयप्रमाण में भी इसका समवतार कहा गया है, तथापि तथाविध नय के विचार को विवक्षा नहीं होने से नयप्रमाण में इसका समवतार नहीं कहा है। जीव और अजीव के गुणों के भेद से गुणप्रमाण दो प्रकार का है / सामायिक जीव का उपयोग रूप होने से इसका समवतार जीवगुणप्रमाण में जानना चाहिये तथा जीवगुणप्रमाण भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है / सामायिक ज्ञान रूप होने से इसका समवतार ज्ञानप्रमाण में होता है। ज्ञानप्रमाण भी प्रत्यक्ष, अनुमान, पागम और उपमान के भेद से चार प्रकार का है। सामायिक प्राप्तोपदेश रूप होने के कारण से इसका आगमप्रमाण में अन्तर्भाव होता है / किन्तु आगम भी लौकिक और लोकोत्तर के भेद से दो प्रकार का है। तीर्थकरप्रणीत होने से सामायिक का लोकोत्तर-पागम में समवतार होता है। लोकोत्तर-पागम भी प्रात्मागम, अनन्तरागम और परंपरागम के भेद से तीन प्रकार का है / इन तीनों प्रकार के आगमों में सामायिक का समवतार जानना चाहिये। संख्याप्रमाण नाम, स्थापना, द्रव्य, प्रौपम्य, परिमाण, ज्ञान, गणना और भाव के भेद से पाठ प्रकार का है / इन आठ प्रकारों में से सामायिक का अन्तर्भाव पांचवें परिमाणसंख्याप्रमाण में हुआ है। वक्तव्यता तीन या दो तरह की कही गयी है। इनमें से सामायिक का समवतार स्वसमयवक्तव्यता में जानना चाहिये / इसी प्रकार चतुर्विशतिस्तव आदि अध्ययनों के समवतार के विषय में जानना चाहिये। समवतार का वर्णन करने के साथ उपक्रमद्वार की वक्तव्यता पूर्ण हुई। अब निक्षेप नामक अनुयोगद्वार का निरूपण करते हैं। निक्षेपनिरूपण 534. से कि तं निक्खेवे ? निक्खेवे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--ओहनिष्फण्णे य नामनिप्फण्णे य सुत्तालावगनिप्फण्णे य / Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाधिकार निरूपण] / 437 [534 प्र.] भगवन् ! निक्षेप किसे कहते हैं ? [534 उ.] आयुष्मन् ! निक्षेप के तीन प्रकार है / यथा--१. अोघनिष्पन्न, 2. नामनिष्पन्न, 3. सूत्रालापकनिष्पन्न / विवेचन--इष्ट वस्तु का निर्णय करने के लिये अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का विधान करना निक्षेप कहलाता है / इसके तीन भेदों का अर्थ इस प्रकार है पोनिष्पन्न-सामान्य रूप में अध्ययन आदि श्रुत नाम से निष्पन्न निक्षेप को अोघनिष्पन्ननिक्षेप कहते हैं। नामनिष्पन्न-श्रुत के ही सामायिक प्रादि विशेष नामों से निष्पन्न निक्षेप नामनिष्पन्न निक्षेप कहलाता है। सूत्रालापकनिष्पन्न-'करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि सूत्रालापकों से निष्पन्न निक्षेप सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप है। प्रोघनिष्पन्न निक्षेप 535. से किं तं ओहनिप्फण्णे ? श्रोहनिप्फण्णे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-अज्झयणे अशोणे आए शवणा / [535 प्र.] भगवन् ! मोघनिष्पन्न निक्षेप का क्या स्वरूप है ? [535 उ.] आयुष्मन् ! अोधनिष्पन्न निक्षेप के चार भेद हैं / उनके नाम हैं--१. अध्ययन, 2. अक्षीण, 3, पाय, 4. क्षपणा। विवेचन-सूत्र में ओघनिष्पन्ननिक्षेप के जिन चार प्रकारों का नामोल्लेख किया है, वे चारों सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि रूप श्रुतविशेष के ही एकार्थवाची सामान्य नाम हैं। क्योंकि जैसे पढ़ने योग्य होने से अध्ययन रूप हैं, वैसे ही शिष्यादि को पढ़ाने से सूत्रज्ञान क्षीण नहीं होने से अक्षीण हैं, मुक्ति रूप लाभ के दाता होने से प्राय हैं और कर्मक्षय करने वाले होने से क्षयणा हैं। इसी कारण ये अध्ययन प्रादि श्रुत के सामान्य नामान्तर होने से अोघनिष्पन्ननिक्षेप हैं। अध्ययननिरूपण 536. से कि तं अज्झयणे ? अज्मयणे चउविहे पण्णत्ते / तं जहाणामायणे ठवणज्झयणे दव्यज्झयणे भावज्मयणे / [536 प्र.] भगवन् ! अध्ययन किसे कहते हैं ? [536 उ.] आयुष्मन् ! अध्ययन के चार प्रकार कहे गये हैं, यथा-१. नाम-अध्ययन, 2. स्थापना-अध्ययन, 3. द्रव्य-अध्ययन, 4. भाव-अध्ययन / विवेचन–प्ररूपणा के लिये अधिक से अधिक प्रकारों में वस्तु का न्यास-निक्षेप न भी किया जाये, तो भी कम-से-कम नाम अादि चार प्रकारों से वर्णन किये जाने का सिद्धान्त होने से सूत्र में अध्ययन को नाम आदि चार प्रकारों में निक्षिप्त किया है। आगे क्रम से उनकी व्याख्या की जाती है। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438] [अनुयोगद्वारसूत्र नाम-स्थापना-अध्ययन 537. गाम-ढवणाओ पुस्ववणियानो। [537] नाम और स्थापना अध्ययन का स्वरूप पूर्ववणित (नाम और स्थापना आवश्यक) जैसा ही जानना चाहिये / / विवेचन-सूत्र में नाम और स्थापना अध्ययन का स्वरूप बताने के लिये नाम और स्थापना आवश्यक का प्रतिदेश किया है और अतिदेश के संकेत के लिये सूत्र में 'पुत्ववणियानो' पद दिया है। द्रव्य-अध्ययन 538. से कि तं दब्वज्झयणे ? दम्वन्सयणे दुबिहे पण्णते / तं जहा-पागमओ य गोमागओ य / [538 प्र.] भगवन् ! द्रव्य-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? [538 उ.] आयुष्मन् ! द्रव्य-अध्ययन के दो प्रकार हैं, यथा----१. पागम से ग्रौर 2. नोआगम से। 539. से कि तं आगमतो दव्यज्झयणे ? आगमतो दग्वज्झयणे जस्स णं अज्शयणे ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं जाव जावया अणुवउत्ता आगमओ तावइयाई दश्वज्झयणाई / एवमेव ववहारस्स वि / संगहस्स णं एगो वा अगेगो वा तं वेव भाणियव्वं जाव से तं आगमतो दन्वज्झयणे। 539 प्र.] भगवन् ! आगम से द्रव्य अध्ययन का क्या स्वरूप है ? (539 उ. आयुष्मन् ! जिसने 'अध्ययन' इस पद को सीख लिया है, अपने (हृदय) में स्थिर कर लिया है, जित, मित और परिजित कर लिया है यावत् जितने भी उपयोग से शून्य हैं, वे आगम से द्रव्य-अध्ययन हैं। इसी प्रकार (नगमनय जैसा ही) व्यवहारनय का मत है, संग्रहनय के मत से एक या अनेक आत्माएँ एक प्रागमद्रव्य-अध्ययन हैं, इत्यादि समग्र वर्णन आगमद्रव्य-आवश्यक जैसा ही यहाँ जानना चाहिये / यह प्रागमद्रव्य-अध्ययन का स्वरूप है। 540. से कि तं णोआगमतो दवज्सयणे? णोप्रागमतो दन्वज्झयणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-जाणयसरीरदब्वज्झयणे भवियसरीरदव्यज्मयणे जाणयसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दव्वज्झयणे / [540 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्य-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? [540 उ.] आयुष्मन् ! नोग्रागमद्रव्य-अध्ययन तीन प्रकार का कहा गया है / यथा१. ज्ञायकशरीरद्रव्य-अध्ययन, 2. भव्यशरीरद्रव्य-अध्ययन 3. ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यअध्ययन / 531. से कि तं जाणगसरीरदध्वज्झयणे? जाणगसरीरदब्बज्झयणे अज्झयणपयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगत-चुत-चइय. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाधिकार निरूपण] चत्तदेह जाव अहो! गं इमेणं सरोरसमुस्सएणं अज्झयणे ति पदं आधवियं जाव उवदंसियं ति, जहा को दिठंतो? अयं घयकुभे आसी, अयं महुकुमे आसी / से तं जाणयसरीरदब्वज्झयणे। [541 प्र.] भगवन् ! जायकशरीरद्रव्य-अध्ययन किसे कहते हैं ? [541 उ.] आयुष्मन् ! अध्ययन पद के अर्थाधिकार के ज्ञायक-जानकार के व्यपगतचैतन्य, च्युत, च्यावित त्यक्तदेह यावत् (जीव रहित शरीर को शय्यागत, संस्तारकगत, स्वाध्यायभूमि या श्मशानगत अथवा सिद्धशिलागत, देखकर कोई कहे) अहो इस शरीर रूप पुद्गलसंघात ने 'अध्ययन' इस पद का व्याख्यान किया था, यावत (प्ररूपित, दर्शित, निदर्शित), उपदर्शित किया था, (बैसा यह शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्य-अध्ययन है।) [प्र.] एतद्विषयक कोई दृष्टान्त है ? [उ.] (इस प्रकार शिष्य के पूछने पर प्राचार्य ने उत्तर दिया) जैसे घड़े में से घी या मधु के निकाल लिये जाने के बाद भी कहा जाता है-यह घी का घड़ा था, यह मधुकुंभ था / यह ज्ञायकशरीरद्रव्य-अध्ययन का स्वरूप है। 542. से कि तं भवियसरीरदग्वज्झयण ? भवियसरीरदवशयणे जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव प्रादत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिठेणं भावेणं अज्झयणे ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सति ण ताव सिक्खति, जहा को दिलैंतो? प्रयं धयकुभे भविस्सति, अयं महुकुमे भविस्सति / से तं भवियसरीरदब्वज्झयणे। [542 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्य-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? 542 उ] आयुष्मन् ! जन्मकाल प्राप्त होने पर जो जीव योनिस्थान से बाहर निकला और इसी प्राप्त शरीरसमुदाय के द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार 'अध्ययन' इस पद को सीखेगा, लेकिन अभी-वर्तमान में नहीं सीख रहा है (ऐसा उस जीव का शरीर भव्यशरीरद्रव्याध्ययन कहा जाता है)। [प्र.] इसका कोई दृष्टान्त है ? |उ.] जैसे किसी घड़े में अभी मधु या घी नहीं भरा गया है, तो भी उसको यह घृतकु भ होगा, मधुकुभ होगा कह्ना / यह भव्यशरीरद्रव्याध्ययन का स्वरूप है। 543. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिले दध्वजायणे ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवज्झयणे पत्तय-पोत्थय लिहियं / से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दव्वज्झयणे / से तं गोमागमओ दग्वज्झणे / से तं दब्यज्झयणे। . 543 प्र. भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तद्रव्याध्ययन का क्या स्वरूप है ? [543 उ.] आयुष्मन् ! पत्र या पुस्तक में लिखे हए अध्ययन को ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्याध्ययन कहते हैं / इस प्रकार से नोनागमद्रव्याध्ययन का और साथ ही द्रव्याध्ययन का वर्णन पूर्ण हुना। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440] [अनुयोगदारसूत्र विवेचन-सूत्र 538 से 543 तक छह सूत्रों में द्रव्याध्ययन का प्राशय स्पष्ट किया है। इन सबकी व्याख्या पूर्वोक्त द्रव्यावश्यक को वक्तव्यता के अनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। किन्तु आवश्यक के स्थान पर अध्ययन पद का प्रयोग किया जाये। इसी प्रकार प्रागे के विवेचन के लिये भी जानना चाहिये। आगमद्रव्य-अध्ययन की नयप्ररूपणा में व्यवहार और संग्रहनय की दृष्टि का उल्लेख किया है, शेष नयदृष्टियों सम्बन्धी स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- नैगमनय की दृष्टि से जितने भी अध्ययन शब्द के ज्ञाता किन्तु अनुपयुक्त जीव हैं, उतने ही आगमद्रव्याध्ययन हैं / व्यवहारनय की मान्यता नैगमनय जैसी है। संग्रहनय की मान्यता एक या अनेक अनुपयुक्त आत्माओं को एक आगमद्रव्य-अध्ययन मानने की है। भेद को नहीं मानने से ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त प्रात्मा एक आगमद्रव्य-अध्ययन है। ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हो तो तीनों शब्दनय उसे अवस्तु-असत् मानते हैं। क्योंकि ज्ञायक होने पर अनुपयुक्तता संभव नहीं है और यदि अनुपयुक्त हो तो वह ज्ञायक नहीं हो सकता है / भाव-अध्ययन 544. सेकं तं भावज्झयणे ? भावज्झयणे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा-बागमतो य णोप्रागमतो य / [544 प्र.] भगवन् ! भाव-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? [544 उ.] आयुष्मन् ! भाव-अध्ययन के दो प्रकार हैं--(१) आगमभाव-अध्ययन (2) नोग्रागमभाव-अध्ययन / 545. से कि तं आगमतो भावज्झयणे? आगसतो भावज्झयणे जाणए उवउत्ते / से तं आगमतो भावज्झयणे। [645 प्र.] भगवन् ! आगमभाव-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? [545 उ.] अायुष्मन् ! जो अध्ययन के अर्थ का ज्ञायक होने के साथ उसमें उपयोगयुक्त भी हो, उसे पागमभाव-अध्ययन कहते हैं / 546. से किं तं नोआगमतो भावज्झयणे ? नोबागमतो भावज्यणे अज्झष्पस्साऽऽणयणं, कम्माणं अवचओ उबचियाणं / ___ अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति // 125 // से तं गोआगमतो भावज्झयणे / से तं भावज्झयणे / से तं अज्झयणे / [546 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमभावाध्ययन का क्या स्वरूप है ? [546 उ. आयुष्मन् ! नोग्रागमभाव-अध्ययन का स्वरूप इस प्रकार हैअध्यात्म में आने-सामायिक आदि अध्ययन में चित्त को लगाने, उपाजित-पूर्वबद्ध कर्मों का Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाधिकार निरूपण] [441 क्षय करने-निर्जरा करने और नवीन कर्मों का बंध नहीं होने देने का कारण होने से (मुमुक्षु महापुरुष) अध्ययन की अभिलाषा करते हैं। 125 यह नोग्रागमभाव-अध्ययन का स्वरूप है / इस प्रकार से भाव-अध्ययन और साथ ही अध्ययन का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में भावाध्ययन का वर्णन किया गया है। पागमभाव-अध्ययन का स्वरूप स्पष्ट है / नोभागमभाव-अध्ययन विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है नोप्रागमभावाध्ययन में प्रयुक्त 'नो' शब्द एकदेशवाची है। क्योंकि ज्ञान और क्रिया के समुदाय रूप होने से सामायिक आदि अध्ययन आगम के एकदेश हैं। इसीलिये सामायिक आदि को नोपागम से अध्ययन कहा है। गाथागत पदों का सार्थक्य—'अज्झप्पस्साऽऽणयण' पद की संस्कृत छाया--अध्यात्ममानयनंअध्यात्मम्-ग्रानयनम् है / इसमें अध्यात्म का अर्थ है चित्त और प्रानयन का अर्थ है लगाना। तात्पर्य यह हुआ कि सामायिक आदि में चित्त का लगाना अध्यात्मानयन कहा जाता है और इसका फल है-कम्माणं अवचो ....... ............."नवाणं / अर्थात् सामायिक आदि में चित्त की निर्मलता होने के कारण कर्मनिर्जरा होती है, नवीन कर्मों का पाश्रव-बंध नहीं होता है। अक्षीणनिरूपण 547. से कि तं अज्झीणे? अज्ञोणे चउन्विहे पण्णत्ते / तं जहा—णामझोणे ठवणझोणे दव्वज्झोणे भावझीणे। [547 प्र. भगवन् ! (प्रोघनिष्पन्ननिक्षेप के द्वितीय भेद) अक्षीण का क्या स्वरूप है ? |547 उ.] आयुष्मन् ! अक्षीण के चार प्रकार हैं। यथा-१. नाम-प्रक्षीण, 2. स्थापनाअक्षीण, 3. द्रव्य-अक्षीण और 4. भाव-अक्षीण / विवेचन--सूत्र में अक्षीण का वर्णन करना प्रारंभ किया है। अक्षीण का अर्थ पूर्व में बतलाया जा चुका है कि शिष्य-प्रशिष्य के क्रम से पठन-पाठन की परंपरा के चालू रहने से जिसका कभी क्षय न हो, उसे अक्षीण कहते हैं / प्रक्षीण के भी अध्ययन की तरह नामादि चार भेद हैं / नाम-स्थापना-अक्षीण 548. नाम-ठवणाओ पुव्ववणियाओ। [548, नाम और स्थापना अक्षीण का स्वरूप पूर्ववत् (नाम और स्थापना आवश्यक के समान] जानना चाहिये। द्रव्य-प्रक्षीण 546. से कि तं दव्यज्झीणे? दव्यझोणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रागमतो य नोआगमतो य / Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] [अनुयोगद्वारसूत्र [549 प्र.] भगवन् ! द्रव्य-प्रक्षीण का क्या स्वरूप है ? [549 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्य-प्रक्षीण के दो प्रकार हैं / यथा-१. प्रागम से, 2. नोग्रागम से। 550. से कि तं प्रागमतो दवझीणे? आगमतो दग्वज्झीणे जस्स गं अज्झोणे त्ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं तं चेव जहा दव्वज्झयणे तहा भाणियन्वं, जाव से तं आगमतो दन्वज्झीणे / [550 प्र. भगवन् ! आगमद्रव्य-प्रक्षीण का क्या स्वरूप है ? [550 उ.] अायुष्मन् ! जिसने अक्षीण इस पद को सीख लिया है, स्थिर, जित, मित, परिजित किया है इत्यादि जैसा द्रव्य-अध्ययन के प्रसंग में कहा है, वैसा ही यहां भी समझना चाहिये, यावत् वह पागम से द्रव्य-अक्षीण है। 551. से कि तं नोआगमतो दन्यज्झीणे ? नोबागमतो दव्वज्झीणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--जाणयसरीरदव्वज्झीणे भवियसरीरदव्वज्झीणे जाणयसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दव्वज्झोणे / [551 प्र.] भगवन् ! नोपागम से द्रव्य-अक्षीण का क्या स्वरूप है ? [551 उ.] आयुष्मन् ! नोप्रागमद्रव्य-अक्षीण के तीन प्रकार हैं। यथा- 1. ज्ञायकशरीरद्रव्य-अक्षीण 2. भव्यशरीरद्रव्य-अक्षीण 3. ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण / 552. से कि तं जाणयसरीरदब्वज्झीणे ? जाणयसरीरदब्वज्सीणे अज्ञीणपयस्थाहिकारजाणयस्स जं सरीरयं बवगय-चुत-चइत-चत्तदेह जहा दबज्झयणे तहा भाणियन्वं, जाव से तं जाणयसरीरदवज्झोणे / [552 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्य-प्रक्षीण किसे कहते हैं ? [552 उ.] आयुष्मन् ! अक्षीण पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यवित, त्यक्तदेह आदि जैसा द्रव्य-अध्ययन के संदर्भ में वर्णन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिये यावत् यही ज्ञायकशरीरद्रव्य-अक्षीण का स्वरूप है। 553. से कि तं भवियसरीरदव्वज्झोणे ? भवियसरीरदविज्झीणे जे जोवे जोणीजम्मणनिक्खंते जहा दध्वजायणे, जाव से तं भवियसरीरदव्वज्झोणे। [553 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्य-अक्षीण किसे कहते हैं ? [553 उ.] आयुष्मन् ! समय पूर्ण होने पर जो जीव योनि से निकलकर उत्पन्न हुआ आदि पूर्वोक्त भव्यशरीरद्रव्य-अध्ययन के जैसा इस भव्यशरीरद्रव्य-अक्षीण का वर्णन जानना चाहिये, यावत् यह भव्यशरीरद्रव्य-प्रक्षीण की वक्तव्यता है। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाधिकार निरूपण] [443 554. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरबइरित्ते दव्वझोणे ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दम्वज्झीणे सव्वागाससेढी। से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दम्बज्झोणे / से तं नोआगमओ दव्वज्झीणे / से तं दध्वज्झोणे / [554 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण का क्या स्वरूप है ? 554 उ.] आयुष्मन् ! सर्वाकाश-श्रेणि जायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण यह नोग्रागम से द्रव्य-अक्षीण का वर्णन है और इसका वर्णन करने से द्रव्य-अक्षीण का कथन पूर्ण हुआ। विवेचन-उपर्युक्त सूत्र 547 से 554 तक अक्षीण के नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीन प्रकारों का वर्णन पूर्वोक्त अध्ययन के अतिदेश के अाधार से किया है। जिसका तात्पर्य यह है कि अध्ययन के प्रसंग में आवश्यक के अतिदेश के द्वारा जो और जैसा वर्णन किया है, वही और वैसा ही वर्णन यह अावश्यक के स्थान पर अक्षीण शब्द को रखकर कर लेना चाहिये, लेकिन इतना विशेष है कि ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण 'सर्वाकाश श्रेणी' रूप है। जिसका प्राशय यह है __ क्रमबद्ध एक-एक प्रदेश की पंक्ति को श्रेणो कहते हैं। अतएव लोक और अलोक रूप अनन्तप्रदेशी सर्व आकाशद्रव्य की श्रेणी में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार किये जाने पर भी अनन्त उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालों में क्षीण नहीं हो सकने से वह सर्वाकाश की श्रेणी उभयव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण है। भाव-प्रक्षीण 555. से कि तं भावज्झोणे ? भावज्झीणे दुविहे पण्णत्ते / तं तहा--आगमतो य नोग्रागमतो य / [555 प्र.] भगवन् ! भाव-प्रक्षीण का क्या स्वरूप है ? [555 उ.] अायुष्मन् ! भाव-प्रक्षीण दो प्रकार का है, यथा--१. पागम से, 2. नोआगम से। 556. से किं तं आगमतो भावज्झीणे ? आगमतो भावज्झोणे जाणए उवउत्ते / से तं आगमतो भावज्झीणे। 1556 प्र.] भगवन् ! आगमभाव-अक्षीण का क्या स्वरूप है ? [556 उ.] आयुष्मन् ! ज्ञायक जो उपयोग से युक्त हो - जो जानता हो और उपयोग सहित हो वह पागम की अपेक्षा भाव-अक्षीण है। 557. से कि तं नोआगमतो भावझीणे / नोआगमतो भावज्झीणे जह दोवा दोवसतं पइप्पए, दिप्पए य सो दोवो। दीवसमा आयरिया दिप्पंति, परं च दोवेति // 126 // Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444] [अनुयोगद्वारसूत्र से तं नोआगमतो भावज्झोणे / से तं भावज्झीणे / से तं अज्झोणे / [557 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमभाव-अक्षीण का क्या स्वरूप है ? [557 उ.] आयुष्मन् ! जैसे दीपक दूसरे सैकड़ों दीपकों को प्रज्वलित करके भी प्रदीप्त रहता है, उसी प्रकार आचार्य स्वयं दीपक के समान देदीप्यमान हैं और दूसरों (शिष्य वर्ग) को देदीप्यमान करते हैं / 126 इस प्रकार से नोग्रागमभाव-अक्षीण का स्वरूप जानना चाहिये। यही भाव-अक्षीण और अक्षीण की वक्तव्यता है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में सप्रभेद भाव-अक्षीण का वर्णन कर अक्षीण की वक्तव्यता की ममाप्ति का सुचन किया है। उपयोग आगमभाव-अक्षीण कैसे ?- श्रुतकेवली के श्रुतोपयोग की अन्तर्मुहर्त्तकालीन अनन्त पर्याय होती हैं। उनमें से प्रतिसमय एक-एक पर्याय का अपहार किये जाने पर नन्त उत्सपिणीअवसपिणी काल में उनका क्षय होना संभव नहीं हो सकने से वह पागमभाव अक्षीण रूप है। नोग्रागमभाव-प्रक्षीणता के निर्दिष्ट उदाहरण का आशय यह है-अध्ययन-अध्यापन द्वारा श्रुत की निरंतरता रहना, श्रुत की परंपरा का क्षीण न होना भाव-अक्षीणता है / इसमें प्राचार्य का उपयोग प्रागम और वाक-कायव्यापार रूप योग अनागम रूप है किन्तु बोधप्राप्ति में सहायक है / यही बताने के लिये आगम के साथ 'नो' शब्द दिया है। प्राय-निरूपण 558. से कि तं पाए ? आए चउठिवहे पण्णत्ते / तं जहानामाए ठवणाए दवाए भावाए। [558 प्र.] भगवन् ! आय का क्या स्वरूप है ? [558 उ.] आयुष्मन् ! आय के चार प्रकार हैं / यथा - 1. नाम-पाय, 2. स्थापना-पाय, 3. द्रव्य-पाय, 4. भाव-प्राय / विवेचन---अप्राप्त की प्राप्ति-लाभ होने को आय कहते हैं / इसके भी अध्ययन, अक्षीण की तरह चार प्रकार हैं। नाम-स्थापना-प्राय 559. नाम-ठवणाओ पुन्वभणियाओ। [559] नाम-प्राय और स्थापना-आय का वर्णन पूर्वोक्त नाम और स्थापना आवश्यक के अनुरूप जानना चाहिए। 560. से कि तं दवाए ? दम्बाए दुविहे पणते / तं जहा---आगमतो य नोआगमतो य / Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय निरूपण [445 [560 प्र.] भगवन् ! द्रव्य-प्राय का क्या स्वरूप है ? [560 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्य-प्राय के दो भेद इस प्रकार हैं-१. आगम से, 2. नोपागम से / प्रागम-द्रव्य-प्राय 561. से कि तं पागमतो दवाए ? जस्स णं पाए ति पयं सिक्खितं ठितं जाव अणुवओगो दवमिति कटु, जाव जावइया अणुवउत्ता आगमओ तावइया ते दवाया, जाव से तं आगमओ दवाए। [561 प्र.] भगवन् ! प्रागम से द्रव्य याय का क्या स्वरूप है ? [561 उ. आयुष्मन् ! जिसने प्राय यह पद सीख लिया है, स्थिर कर लिया है किन्तु उपयोग रहित होने से द्रव्य है यावत् जितने उपयोग रहित हैं, उतने ही पागम से द्रव्य आय हैं, यह आगम से द्रव्य-पाय का स्वरूप जानना चाहिये। नोग्रागमद्रव्य-प्राय 562. से कि तं नोआगमओ दवाए ? नोआगमनो दन्वाए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-जाणयसरीरदवाए भवियसरीरदव्वाए जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दवाए। [562 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्य-बाय का क्या स्वरूप है ? [562 उ.] आयुष्मन् ! नोमागमद्रव्य-पाय के तीन प्रकार हैं / यथा-१. ज्ञायकशरीरद्रव्यआय, 2. भव्यशरीरद्रव्य-आय, 3. ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-पाय / 563. से कि तं जाणयसरीरदवाए ? जाणयसरीरदब्वाए आयपयत्थाहिकारजाणगस्स जं सरीरगं ववगय-चुत-चतिय-चत्तदेहं सेसं जहा दव्वज्झयणे, जाव से तं जाणयसरीरदवाए / [563 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्य-पाय किसे कहते हैं ? |563 उ.] आयुष्मन् ! प्राय पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यवित त्यक्त आदि शरीर द्रव्याध्ययन की वक्तव्यता जैसा ही ज्ञायकशरीरनोग्रागमद्रव्य-पाय का स्वरूप जानना चाहिये। 564. से कि तं भवियसरीरदवाए ? भवियसरीरदवाए जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खंते सेसं जहा दव्वज्शयणे, जाव से तं भवियसरीरदवाए। [564 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्य-प्राय का क्या स्वरूप है ? [564 उ.] आयुष्मन् ! समय पूर्ण होने पर योनि से निकलकर जो जन्म को प्राप्त हुप्रा आदि भव्यशरीरद्रव्य-अध्ययन के वर्णन के समान भव्यशरीरद्रव्य-आय का स्वरूप जानना चाहिये। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446] [अनुयोगद्वारसूत्र 565. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवाये ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवाये तिविहे पण्णत्ते / तं जहा—लोइए कुप्पावयणिए लोगुत्तरिए। 6565 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरभन्यशरीरव्यतिरिक्त-द्रव्य आय किसे कहते हैं ? [565 उ. आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त-द्रव्य-पाय के तीन प्रकार हैं। यथा-१. लौकिक, 2. कुप्रवाचनिक, 3. लोकोत्तर / 566. से कि तं लोइए ? लोइए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा–सचित्ते अचित्ते मोसए य / [566 प्र.] भगवन् ! (उभयव्यतिरिक्त) लौकिक द्रव्य-प्राय का क्या स्वरूप है ? |566 उ. आयुष्मन् ! लौकिकद्रव्य-पाय के तीन प्रकार कहे गये हैं। यथा--१. सचित्त, 2. अचित्त और मिश्र / 567. से किं तं सचित्त ? सचित्ते तिविहे पण्णत्ते / तं जहा --दुपयाणं चउप्पयाणं प्रपयाणं / दुपयाणं दासाणं, दासीण, चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं, अपयाणं अंबाणं अंबाडगाणं आए / से तं सचित्ते। [567 प्र.| भगवन् ! सचित्त लौकिक-प्राय का क्या स्वरूप है ? [567 उ. अायुष्मन् ! सचित्त लौकिक-प्राय के भी तीन प्रकार हैं / यथा-१. द्विपद-प्राय 2. चतुष्पद-पाय, 3. अपद-पाय / इनमें से दास-दासियों की आय (प्राप्ति) द्विपद-पाय रूप है। अश्वों (घोड़ों) हाथियों की प्राप्ति चतुष्पद-ग्राय रूप और प्राम, अामला के वृक्षों आदि अपद-प्राय रूप है। इस प्रकार सचित्त ग्राय का स्वरूप जानना चाहिये / 568. से किं तं अचित्ते ? / अचित्ते सुवण्ण-रयत-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयमाणं [संतसावएज्जस्स] आये। से तं अचित्ते। [568 प्र. भगवन् ! (उभयव्यतिरिक्तलौकिक-बाय के दूसरे भेद) अचित्त-आय का क्या स्वरूप है ? [568 उ.] आयुष्मन् ! सोना-चांदी, मणि-मोती, शंख, शिला, प्रवाल ( मूंगा ) रक्तरत्न (माणिक) आदि (सारवान् द्रव्यों) की प्राप्ति अचित्त-प्राय है / 569. से कि तं मीसए ? मीसए दासाणं दासीणं प्रासाणं हत्थीणं समाभरियाउज्जालंकियाणं आये / से तं मीसए / सेतं लोइए। 1569 प्र.] भगवन् ! मिश्र (सचित्त-अचित्त उभय रूप) आय किसे कहते हैं ? Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय निरूपण [569 उ.] आयुष्मन् ! अलंकारादि से तथा वाद्यों से विभूषित दास-दासियों, घोड़ों, हाथियों आदि की प्राप्ति को मिश्र प्राय कहते हैं / इस प्रकार से लौकिक-आय का स्वरूप जानना चाहिये। 570. से कि तं कुप्पावणिये ? कुप्पावणिये तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--सचित्ते अचित्त मीसए य / तिणि वि जहा लोइए, जाव से तं कुप्पावयणिए / [570 प्र.] भगवन् ! कुप्रवाचनिक-प्राय का क्या स्वरूप है ? [570 उ. आयुष्मन् ! कुप्रवाचनिक आय भी तीन प्रकार की है। यथा--१. सचित्त, 2. अचित्त, 3. मिश्र / इन तीनों का वर्णन लौकिक-पाय के तीनों भेदों के अनुरूप जानना चाहिये यावत् यही कुप्रवाचनिक प्राय है / / 571. से कि तं लोगुत्तरिए ? लोगुत्तरिए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सचित्ते अचित्ते मोसए य / 6571 प्र.] भगवन ! लोकोत्तरिक-प्राय का क्या स्वरूप है ? [571 उ.. आयुस्मन् ! लोकोत्तरिक-प्राय के तीन प्रकार कहे गये हैं / यथा--१. सचित्त, 2. अचित्त और 3. मिश्र / 572. से कि तं सचित्ते ? सचित्ते सीसाणं सिस्सिणियाणं आये / से तं सचित्ते / [572 प्र. भगवन् ! सचित्त-लोकोत्तरिक-प्राय का क्या स्वरूप है ? [572 उ. श्रायुप्मन् ! शिष्य-शिष्याओं की प्राप्ति सचित्त-लोकोतरिक-प्राय है। 573. से कितं अचित्ते ? अचित्ते पडिग्गहाणं वत्थाणं कंबलाणं पायपुछणाणं आए / से तं अचित्ते / [573 प्र. भगवन् ! अचित्त लोकोत्तरिक-प्राय का क्या स्वरूप है ? [573 उ.] आयुष्मन् ! अचित्त पात्र, वस्त्र, पादपोंच्छन (रजोहरण) आदि की प्राप्ति को अचित्त लोकोत्तरिक-पाय कहते हैं। 574. से कितं मीसए ? मोसए सोसाणं सिस्सिणियाणं सभंडोवकरणाणं आये। से तं मीसए / से तं लोगुत्तरिए, से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवाए / से तं नोआगमओ दवाए / से तं दवाए। {574 प्र.] भगवन् ! मिश्र लोकोत्तरिक-प्राय किसे कहते हैं ? [574 उ.] आयुष्मन् ! भांडोपकरणादि सहित शिष्य-शिष्याओं की प्राप्ति-लाभ को मिश्र आय कहते हैं / यही लोकोतरिक-प्राय का स्वरूप है। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44) [अनुयोगद्वारसूत्र इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-आय का वर्णन जानना चाहिये और इसके साथ ही नोग्रागमद्रव्य-प्राय एवं द्रव्य-प्राय की वक्तव्यता भी पूर्ण हुई। विवेचन—सूत्र संख्या 558 से 574 तक ओघनिष्पन्न निक्षेप के तीसरे प्रकार प्राय का नाम, स्थापना और द्रव्य दृष्टि से विचार किया गया है / नाम, स्थापना और ज्ञायकशरीर तथा भव्यशरीर रूप द्रव्य आय का वर्णन तो द्रव्य-यावश्यक तक के इन्हीं भेदों के समान है। लेकिन ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-प्राय के वर्णन का रूप भिन्न है। क्योंकि प्राय: स्थल दृश्य पदार्थों की प्राप्तिलाभ को प्राय माना जाता है और सामान्यत: प्राप्त करने योग्य अथवा प्राप्त होने योग्य पदार्थ सजीव अजीव और मिश्र अवस्था वाले होते हैं। उनके अपेक्षादृष्टि से लौकिक, कुप्रवाचनिक और लोकोत्तरिक यह तीन-तीन भेद होते हैं / लौकिक प्राय आदि का स्वरूप सूत्र में स्पष्ट है। भाव-प्राय 575. से कि तं भावाए ? भावाए दुविहे पण्णते / तं जहा- आगमतो य नोआगमतो य / (575 प्र.] भगवन् ! भाव-प्राय का क्या स्वरूप है ? [575 उ.] आयुष्मन् ! भाव-पाय के दो प्रकार हैं / यथा—१. पागम से 2. नोग्रागम से / 576. से कि तं आगमतो भावाए ? आगमतो भावाए जाणए उवउत्ते / से तं आगमतो भावाए / [576 प्र.] भगवन् ! अागमभाव-प्राय का क्या स्वरूप है ? [586 उ.] अायुष्मन् ! आयपद के ज्ञाता और साथ ही उसके उपयोग से युक्त जीव भागमभाव-पाय हैं। 577. से कि तं नोमागमतो भावाए ? नोआगमतो भावाए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पसत्थे य अप्पसत्थे य / [577 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमभाव-प्राय का क्या स्वरूप है ? [577 उ.] आयुष्मन् ! नोग्रागमभाव-पाय के दो प्रकार हैं, यथा-१. प्रशस्त और अप्रशस्त / 578. से कि तं पसत्थे ? पसत्थे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा–णाणाए दंसणाए चरित्ताए / से तं पसत्थे / [578 प्र.] भगवन् ! प्रशस्त नोग्रागमभाव-पाय किसे कहते हैं ? [578 उ.] अायुष्मन् ! प्रशस्त नोग्रागमभाव-पाय के तीन प्रकार हैं। यथा--१. ज्ञान-पाय, 2. दर्शन-पाय, 3. चारित्र-प्राय / 576. से कि तं अपसत्थे ? अपसत्थे चउविहे पण्णत्ते / तं जहाकोहाए माणाए मायाए लोभाए / से तं अयसत्थे / से तं णोआगमतो भावाए / से तं भावाए / से तं आये। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणा निरूपण [579 प्र.] भगवन् ! अप्रशस्तनोग्रागमभाव-पाय किसे कहते हैं ? [579 उ.] अायुष्मन् ! अप्रशस्तनोग्रागमभाव-पाय के चार प्रकार हैं। यथा---.१. क्रोधप्राय, 2. मान-पाय. 3. माया-पाय और 4. लोभ-पाय / यही अप्रशस्तभाव-प्राय है / इस प्रकार से नोप्रागमभाव-प्राय और भाव-माय एवं ग्राय की वक्तव्यता का वर्णन जानना विवेचन--भाव-प्राय का वर्णन सुगम है / विशेष इतना है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राय मोक्षप्राप्ति का उपाय होने के साथ आत्मिक गुण रूप होने से प्रशस्त है और क्रोधादि की प्राय अप्रशस्त इसलिये है कि वे अात्मा की वैभाविक परिणति एवं संसार के कारण हैं। इनकी प्राप्ति से जीव संसार में परिभ्रमण करता है और संसार में परिभ्रमण करना जीव के लिए अनिष्ट है। क्षपणानिरूपण 580. से कि तं झवणा ? झवणा चविहा पण्णत्ता। तं जहा---नामज्शवणा ठवणज्झवणा दवझवणा भावज्झवणा। [580 प्र.] भगवन् ! क्षपणा का क्या स्वरूप है ? [580 उ. प्रायूष्मन ! क्षपणा के भी चार प्रकार जानना चाहिये। यथा-१. नामक्षपणा 2. स्थापनाक्षपणा 3. द्रव्यक्षपणा 4. भावक्षपणा / विवेचन-कर्मनिर्जरा, क्षय या अपचय को क्षपणा कहते हैं / आगे नाम आदि चारों प्रकार की क्षपणा का वर्णन करते हैं। नामस्थापनाक्षपणा 581. नाम-ठवणाओ पुन्वभणियाओ। {581] नाम और स्थापनाक्षपणा का वर्णन पूर्ववत् (नाम और स्थापना अावश्यक के अनुरूप) जानना चाहिये। द्रव्यक्षपणा 582. से कि त दन्वज्शवणा? दवज्झवणा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-आगमतो य नोआगमतो य / [582 प्र.] भगवन् ! द्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [582 उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यक्षपणा दो प्रकार की है। यथा—१. आगम से और 2. नोग्रागम से। 583. से कितं आगमतो दग्वज्झवणा? आगमतो दग्वज्झवणा जस्स णं झवणेति पदं सिक्खियं ठितं जितं मितं परिजिय, सेसं जहा दव्यज्झयणे तहा भाणियन्व, जाव से तं प्रागमतो दग्वझवणा / [583 प्र.] भगवन् ! आगमद्रव्यक्षपणा किसे कहते हैं ? Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450] [अनुयोगद्वारसूत्र [582 उ.] आयुष्मन् ! जिसने 'क्षपणा' यह पद सीख लिया है, स्थिर, जित, मित और परिजित कर लिया है, इत्यादि वर्णन द्रव्याध्ययन के समान यावत् यह पागम से द्रव्यक्षपणा है तक . जानना चाहिये। 584. से कि तं नोजागमओ दवज्शवणा? नोआगमओ दव्वज्झवणा ति विहा पण्णत्ता / तं जहा-जाणयसरीरदव्यज्झवणा भवियसरीरदव्वज्झवणा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दध्वज्झवणा / [584 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [584 उ.] आयुष्मन् ! नोश्रागमद्रव्यक्षपणा के तीन भेद हैं / यथा--१. ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा 2. भव्यशरिद्रव्यक्षपणा, 3. ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा / 585. से कि तं जाणयसरीरदवझवणा ? जाणयसरीरदव्वज्झवणा झवणापयस्थाहिकार-जाणयस्स जं सरीरयं ववगय-चुय-चइय-चत्तदेह, सेसं जहा दवज्झयणे, जाव य से तं जाणयसरोरदव्यज्शवणा / [585 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [585 उ.] आयुष्मन् ! क्षपणा पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त शरीर इत्यादि सर्व वर्णन द्रव्याध्ययन के समान जानना चाहिये। यह ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा का स्वरूप है। 586. से कि तं भवियसरीरदब्वज्झवणा? भवियसरीरदब्वझवणा जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खते आयत्तएणं० जिणदिवणं भावेणं ज्झवण ति पयं सेवकाले सिक्खिस्सति, ण ताव सिक्खइ, को दिळंतो? जहा अयं धयकु भे भविस्सति, अयं महुकुभे भविस्सति / से तं भवियसरीरदव्वज्शवणा। [586 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा किसे कहते हैं ? [586 उ.] आयुष्मन् ! समय पूर्ण होने पर जो जीव उत्पन्न हुना और प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में क्षपणा पद को सीखेगा, किन्तु अभी नहीं सीख रहा है, ऐसा वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा है / [प्र.] इसके लिये दृष्टान्त क्या है ? [उ.] जैसे किसी घड़े में अभी धी अथवा मधु नहीं भरा गया है, किन्तु भविष्य में भरे जाने की अपेक्षा अभी से यह घी का घड़ा होगा, यह मधुकलश होगा, ऐसा कहना। 587. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्यज्झवणा ? जाणयसरीरभवियसरीरवरित्ता दक्वझवणा जहा जाणयसरीरभवियसरीर वइरित्ते दवाए तहा भाणियव्वा, जाव से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वज्शवणा / से तं नोआगमओ बब्वज्झवणा / से तं दववज्झवणा। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणा निरूपण] [451 [587 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [587 उ.] आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा का स्वरूप ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-पाय के समान जानना चाहिये / इस प्रकार से नोनागमद्रव्यक्षपणा और साथ ही द्रव्यक्षपणा का वर्णन पूर्ण हुना। विवेचन--यहां सूत्र 581 से 587 तक में अध्ययन के अतिदेश द्वारा नाम, स्थापना और द्रव्यक्षपणा का वर्णन किया है / अतः विशेष विवेचन की अपेक्षा नहीं है / भावक्षपणा 588. से कि तं भावझवणा? भावज्झवणा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा -- प्रागमतो य णोआगमतो य / {588 प्र.] भगवन् ! भावक्षपणा का क्या स्वरूप है / | 588 उ.] आयुष्मन् ! भावक्षपणा दो प्रकार की है / यथा---१. आगम से 2. नोग्रागम से / 586. से कि तं आगमओ भावज्शवणा? आगमओ भावज्झवणा झवणापयत्थाहिकारजाणए उवउत्ते / से तं आगमतो भावज्झवणा / [589 प्र.] भगवन् ! आगमभावक्षपणा का क्या स्वरूप है। [589 उ.] आयुष्मन् ! क्षपणा इस पद के अर्थाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञाता आगम से भावक्षपणा रूप है। 560. से कि तं णोआगमतो भावझवणा? णोआगमतो भावज्झवणा दुविहा पण्णता / तं जहा—पसत्था य अप्पसत्था य / [590 प्र.] भगवन् ! नोयागमभावक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [590 उ.| आयुष्मन् ! नोप्रागमभावक्षपणा दो प्रकार की है / यथा--१. प्रशस्तभावक्षपणा 2. अप्रशस्तभावक्षपणा / 561. से कि तं पसस्था ? पसस्था चउन्विहा पण्णत्ता / तं जहा–कोहज्झवणा माणज्झवणा मायज्झवणा लोभज्झवणा। से तं पसत्था / [591 प्र.] भगवन् ! प्रशस्तभावक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [591 उ.] अायुष्मन् ! नोमागमप्रशस्तभावक्षपणा चार प्रकार की है। यथा-१. कोधक्षपणा 2. मानक्षपणा, 3. मायाक्षपणा और लोभक्षपणा / यही प्रशस्तभावक्षपणा का स्वरूप है। 562. से कि त अप्पसत्था ? अप्पसत्था तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-नाणज्शवणा दंसणज्झवणा चरित्तज्झवणा / से तं अप्पसस्था। से तं नोआगमतो भावज्झवणा / से तं भावझवणा / से तं झवणा / से तं ओहनिष्फण्णे। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [अनुयोगद्वारसूत्र [592 प्र.] भगवन् ! अप्रशस्तभावक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [592 उ.] आयुष्मन् ! अप्रशस्तभावक्षपणा तीन प्रकार की कही गई है। यथा--१. ज्ञानक्षपणा, 2. दर्शनक्षपणा, 3. चारित्रक्षपणा / यही अप्रशस्तभावक्षपणा है। इस प्रकार से नोआगम भावक्षपणा, भावक्षपणा, क्षपणा और साथ ही अोधनिष्पन्न निक्षेप का वर्णन पूर्ण हुअा। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में भावक्षपणा का विस्तार से वर्णन करके अोघनिष्पन्ननिक्षेप की वक्तव्यता की समाप्ति का उल्लेख किया है / भावक्षपणा का वर्णन स्पष्ट और सुगम है लेकिन इतना विशेष है कि किसी-किसी प्रति में अनुयोगद्वारसूत्र के मूलपाठ में नोप्रागमभावक्षपणा के प्रशस्त प्रकार में ज्ञानक्षपणा, दर्शनक्षपणा, चारित्रक्षपणा ये तीन भेद एवं अप्रशस्त के रूप में क्रोध, मान, माया, लोभ क्षपणा ये चार भेद बताये हैं / लेकिन यहां उससे विपरीत भेद और नामों का उल्लेख किया है। जो उपर्युक्त सूत्र पाठ से स्पष्ट है। ___ इस प्रकार सामान्य से तो यह मतभिन्नता प्रतीत होती है। लेकिन प्रापेक्षिक दृष्टि से विचार किया जाये तो यह सामासिक दृष्टिकोण का अंतर है, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है यहां क्रोध, मान, माया, लोभ के क्षय को प्रशस्त इसलिये माना गया है कि ये क्रोधादि संसार के कारण हैं, अतएव संसार के कारणभूत इन क्रोधादि का क्षय प्रशस्त. शुभ होने से प्रशस्तभावक्षपणा है आदित्रय का क्षय अप्रशस्त इसलिये है कि प्रात्मगुणों की क्षीणता संसार का कारण है। एक जगह 'प्रशस्त विशेषण को 'भाव' का और दूसरी जगह 'क्षपणा' का विशेषण माना गया है / अतः प्रशस्त ज्ञान आदि गुणों के क्षय को प्रशस्तभावक्षपणा के रूप में एवं अप्रशस्त क्रोधादि के क्षय को अप्रशस्तभावक्षपणा के रूप में ग्रहण किया है। इसी प्रापेक्षिक दष्टि के कारण किसी-किसी प्रति में यहाँ-प्रस्तुत पाठ से अतर प्रतीत होता है। इस प्रकार से निक्षेप के प्रथम भेद अोघनिष्पन्ननिक्षेप का वर्णन करने के अनन्तर अब द्वितीय भेद नामनिष्पन्न निक्षेप की प्ररूपणा प्रारंभ करते हैं / नामनिष्पन्ननिक्षेपप्ररूपणा 593. से कि तं नामनिप्फपणे? नामनिष्फण्णे सामाइए / से समासओ चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-णामसामाइए ठवणासामाइए दव्वसामाइए भावसामाइए। [593 प्र.] भगवन् ! (निक्षेप के द्वितीय भेद) नामनिष्पन्न निक्षेप का क्या स्वरूप है ? [593 उ.] आयुष्मन् ! नामनिष्पन्न सामायिक है। वह सामायिक चार प्रकार का है / यथा-१. नामसामायिक, 2. स्थापनासामायिक, 3. द्रव्यसामायिक 4. भावसामायिक / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र नामनिष्पन्न निक्षेप का वर्णन करने की भूमिका है। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक निरूपण [453 सूत्र में नामनिष्पन्न निक्षेप का लक्षण स्पष्ट करने के लिये 'सामाइए' पद दिया है / इसका अर्थ यह है कि पूर्व में अध्ययन, अक्षीण आदि पदों द्वारा किये गये सामान्य उल्लेख का पृथक्-पृथक् उसउस विशेष नामनिर्देश पूर्वक कथन करने को नामनिष्पन्न निक्षेप कहते हैं। सूत्रगत सामायिक पद उपलक्षण है, अतएव सामायिक की तरह विशेष नाम के रूप में चतुर्विशतिस्तव आदि का भी ग्रहण समझ लेना चाहिये / __ यह नामनिष्पन्न निक्षेप भी पूर्व की तरह नामादि के भेद से चार प्रकार का है। सूत्रकार जैसे विशेष नाम के रूप में सामायिक पद को माध्यम बना कर वर्णन कर रहे हैं, उसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तव आदि नामों का भी वर्णन समझ लेना चाहिये / अब सूत्रोक्त कम से नामादि सामायिक का वर्णन करते हैं। नाम-स्थापना-सामायिक 594. जाम-ठवणाओ पुन्वभणियाओ। [594] नामसामायिक और स्थापनासामायिक का स्वरूप पूर्ववत् जानना चाहिये / विवेचन—सूत्र में नाम और स्थापनासामायिक की व्याख्या करने के लिये 'पुन्वभणियाओ' पद दिया है / अर्थात् पूर्व में नाम-पावश्यक और स्थापना-अावश्यक की जैसी वक्तव्यता है, तदनुरूप यहाँ प्रावश्यक के स्थान पर सामायिक पद का प्रक्षेप करके व्याख्या कर लेनी चाहिए। द्रव्यसामायिक 565. दवसामाइए वि तहेव, जाव से तं भवियसरीरदव्वसामाइए। [592] भव्यशरीरद्रव्यसामायिक तक द्रव्यसामायिक का वर्णन भी तथैव (द्रव्य-प्रावश्यक के वर्णन जैसा) जानना चाहिये / 596. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवसामाइए? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दबसामाइए पत्तय-पोत्थयलिहियं / से तं जाणयसरीरभवियसरीरवरित्ते दव्वसामाइए / से तं गोआगमतो दन्वसामाइए / से तं दव्वसामाइए। [596 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसामायिक का क्या स्वरूप है ? [596 उ.] आयुष्मन् ! पत्र में अथवा पुस्तक में लिखित 'सामायिक' पद ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य सामायिक है। इस प्रकार से नोग्रागमद्रव्यसामायिक एवं द्रव्य सामायिक की वक्तव्यता जानना चाहिये। विवेचन—सूत्र 595, 596 में द्रव्यसामायिक के दो विभाग करके वर्णन किया है। जिसका आशय यह है कि पागम तथा नोनागम रूप दूसरे भेद के ज्ञायकशरीर, भव्यशरीर प्रभेद तक का वर्णन तो पूर्ववर्णित आवश्यक के अनुरूप है। किन्तु उभयव्यतिरिक्त का वर्णन उससे भिन्न होने के कारण सूत्रानुसार जान लेना चाहिये। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454] [अनुयोगद्वारसूत्र भावसामायिक 567. से कि तं भावसामाइए ? भावसामाइए दुविहे पण्णत्ते / तं०.--आगमतो य नोआगमतो य। [597 प्र.] भगवन् ! भावसामायिक का क्या स्वरूप है ? [597 उ.] आयुष्मन् ! भावसामायिक के दो प्रकार हैं। यथा--१. प्रागमभावसामायिक 2. नोग्रागमभावसामायिक / 598. से कि तं आगमतो भावसामाइए? आगमतो भावसामाइए भावसामाइयपयत्थाहिकारजाणए उवउत्ते। से तं आगमतो भावसामाइए। [598 प्र.] भगवन् ! आगमभावसामायिक का क्या स्वरूप है ? [598 उ.] अायुष्मन् ! सामायिक पद के अर्थाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञायक आगम से भावसामायिक है / 566. [अ] से कि तं नोआगमतो भावसामाइए ? नोआगमतो भावसामाइए जस्स सामाणिओ अप्पा संजमे णियमे तवे / तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं // 127 // जो समो सवभूएसु तसेसु थावरेसु य / तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं // 128 // [599 (अ) प्र.] भगवन् ! नोआगमभावसामायिक का क्या स्वरूप है ? [599 (अ) उ.] जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में संनिहित-लीन है, उसी को सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् का कथन है / 127 जो सर्व भूतों-त्रस, स्थावर आदि प्राणियों के प्रति समभाव धारण करता है, उसी को सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है / 128 / / विवेचन-इन दो गाथाओं में सामायिक का लक्षण एवं उसके अधिकारी का संकेत किया है। संयम मूलगुणों, नियम–उत्तरगुणों, तप-अनशन आदि तपों में निरत एवं त्रस, स्थावर, रूप सभी जीवों पर समभाव का धारक सामायिक का अधिकारी है। जिसका फलितार्थ यह हुग्रासंयम, नियम, तप, समभाव का समुदाय सामायिक है। इसीलिये समस्त जिनवाणी का सार बताते हए प्राचार्यों ने इसकी अनेक लाक्षणिक व्याख्यायें की हैं 1. बाह्य परिणतियों से विरत होकर आत्मोन्मुखी होने को सामायिक कहते हैं / 2. सम अर्थात् मध्यस्थभावयुक्त साधक की मोक्षाभिमुखी प्रवृत्ति सामायिक कहलाती है। 3. मोक्ष के साधन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की साधना को सामायिक कहते हैं। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक निरूपण [455 4. साम–सब जीवों पर मैत्री भाव की प्राप्ति सामायिक है। 5. सावद्ययोग से निवृत्ति और निरवद्ययोग में प्रवृत्ति सामायिक है / सामायिक के अधिकारी की संज्ञायें 566. [पा] जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सम्बजोवाणं / न हणइ न हणावेइ य सममणती तेण सो समणो // 129 // णत्थि य से कोइ वेसो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु / एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ // 130 // [599 (प्रा)] जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को भी प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर- अनुभव कर जो न स्वयं किसी प्राणी का हनन करता है, न दूसरों से करवाता है और न हनन की अनुमोदना करता है, किन्तु सभी जीवों को अपने समान मानता है, वही समण (श्रमण) कहलाता है / 129 जिसको किसी जीव के प्रति द्वेष नहीं है और न राग है, इस कारण वह सममन वाला होता है / यह प्रकारान्तर से समन (श्रमण) का दूसरा पर्यायवाची नाम है / 130 विवेचन-- पूर्व गाथाओं में सामायिक के अधिकारी का कथन किया था और इन दोनों गाथाओं द्वारा उनके लिये प्रयुक्त समण आदि संज्ञाओं का निरूपण किया है। जिनकी व्याख्या इस प्रकार है 1. सम्यक् प्रकार से जो मूलगुण रूप संयम, उत्तरगुण रूप नियम और अनशनादि रूप तप में निहित -रत-लीन है, वह समण कहलाता है। 2. जो शत्रुमित्रा का विकल्प न करके सभी को समान मानकर प्रवृत्ति करता है, वह समण कहलाता है। 3. जैसे मुझे दु:ख इष्ट नहीं, उसी प्रकार सभी जीवों को भी हननादि जनित दुःख प्रिय नहीं है / ऐसा अनुभव कर सभी को स्व-समान मानता है, वह सममन-समन---श्रमण है / अब उपमानों द्वारा श्रमण का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। श्रमण को उपमायें 566. [इ] उरग- गिरि-जलण-सागर-नहतल-तरुगणसमो य जो होइ / भमर-मिग-धरणि-जलरुह-रवि-पवणसमो य सो समणो / / 131 // जो सर्प, गिरि (पर्वत), अग्नि, सागर, आकाश-तल, वृक्षसमूह, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान है, वही समण है / 131 / / विवेचन–श्रमण का प्राचार भी विचारों के समान होता है, इस तथ्य का गाथोक्त उपमानों द्वारा कथन किया है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र श्रमण के लिये प्रयुक्त उपमायें--समण (श्रमण) के लिये प्रयुक्त उपमाओं के साथ समानता के अर्थ में सम शब्द जोड़कर उनका भाव इस प्रकार जानना चाहिये 1. उरग (सर्प) सम-जैसे सर्प दूसरों के बनाये हुए बिल में रहता है, इसी प्रकार अपना घर नहीं होने से परकृत गृह में निवास करने के कारण साधु को उरग की उपमा दी है। 2. गिरिसम-परीषहों और उपसर्गों को सहन करने में पर्वत के समान अडोल–अविचल होने से साधु गिरिसम हैं। 3. ज्वलन (अग्नि) सम-तपोजन्य तेज से समन्वित होने के कारण साधु अग्निसम है / अथवा जैसे अग्नि तृण, काष्ठ आदि इंधन से तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार साधु भी ज्ञानाभ्यास से तृप्त नहीं होने के कारण अग्निसम हैं / 4. सागरसम-जैसे सागर अपनी मर्यादा को नहीं लांघता इसी प्रकार साधु भी अपनी प्राचारमर्यादा का उल्लंघन नहीं करने से सागरसम हैं / अथवा समुद्र जैसे रत्नों का आकर होता है वैसे ही साधु भी ज्ञानादि रत्नों का भंडार होने से सागरसम हैं। 5. नभस्तलसम ---जैसे आकाश सर्वत्र अवलंबन से रहित है, उसी प्रकार साधु भी किसी प्रसंग पर दूसरों का प्राश्रय--अवलंबन सहारा नहीं लेने से आकाशसम हैं। 6. तरुगणसम-जैसे वृक्षों को सींचने वाले पर राम और काटने वाले पर द्वेष नहीं होता, वे सर्वदा समान रहते हैं. इसी प्रकार साध भी निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में समवत्ति वाले होने से तरुगण के समान हैं। 7. भ्रमरसम-जैसे भ्रमर अनेक पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपनी उदरपूर्ति करता है, उसी प्रकार साधु भी अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा सा आहार ग्रहण करके उदरपूर्ति करने से भ्रमरसम हैं। 8. मृगसम-जैसे मृग हिंसक पशुओं, शिकारियों आदि से सदा भीतचित्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी संसारभय से सदा उद्विग्न रहने के कारण मृगसम हैं। 9. धरणिसम--पृथ्वी जैसे सब कुछ सहन करती है, इसी प्रकार साधु भी खेद, तिरस्कार, ताड़ना आदि को समभाव से सहन करने वाले होने से पृथ्वीसम हैं / 10. जलरुहसम-जैसे कमल पंक (कीचड़) में पैदा होता है, जल में संबंधित होता है किन्तु उनसे निलिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी कामभोगमयी संसार में रहते हुए भी उससे अलिप्त रहने के कारण जलरुह (कमल) सम हैं। 11. रविसम-जैसे सूर्य अपने प्रकाश से समान रूप में सभी क्षेत्रों को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार साधु अपने ज्ञान रूपी प्रकाश को देशना द्वारा सर्वसाधारण को समान रूप से प्रदान करने वाले होने से रविसम हैं। 12. पवनसम—जिस प्रकार वायु की सर्वत्र अप्रतिहत गति होती है, उसी प्रकार साधु भी सर्वत्र अप्रतिबद्ध विचरणशील होने से पवनसम हैं। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक निरूपण] [457 प्रकारान्तर से श्रमण का निर्वचन 569. [ई] तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो / सयणे य जणे य समो, समो य माणाऽवमाणेसु // 132 // से तं नोआगमतो भावसामाइए / से तं भावसामाइए / से तं सामाइए / सेतं नामनिष्फण्णे / [599 (ई)। (पूर्वोक्त उपमानों से उपमित) श्रमग तभी संभवित है जब वह सुमन हो, और भाव से भी पापी मन वाला न हो। जो माता-पिता आदि स्वजनों में एवं परजनों एव मान-अपमान में समभाव का धारक हो। इस प्रकार से नोप्रागमभावसामायिक, भावसामायिक, सामायिक तथा नामनिष्पन्ननिक्षेप की वक्तव्यता का प्राशय जानन विवेचन---गाथा में प्रकारान्तर से श्रमण का लक्षण बताने के साथ उसकी योग्यता का तथा अंत में नामनिष्पन्ननिक्षेप की वक्तव्यता की समाप्ति का कथन किया है / इन सब विशेषताओं से विभूषित श्रमण समन, सममन, सुमन ही सामायिक है / समन और सामायिक में नोमागमता इसलिये है कि सामायिक ज्ञान के साथ क्रिया रूप है और क्रिया प्रागम रूप नहीं है। तथा सामायिक और सामायिक वाले इन दोनों में अभेदोपचार करने से समन भी नोपागम की अपेक्षा भावसामायिक है / सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप 600. से कि तं सुत्तालावनिष्फण्णे ? सुत्तालावगनिष्फण्णे इदाणि सुत्तालावनिष्फण्णं निक्लेवं इच्छावेइ, से व पत्तलक्खणे विण णिविखप्पड़, कम्हा ? लाघवत्थं / इतो अस्थि ततिये अणुओगद्दारे अणुगमे ति, तहि णं मिक्खित्ते इह णिक्खित्ते भवति इहं वा णिक्खित्ते तहि मिक्खित्ते भवति, तम्हा इहंण णिविखप्पड तहिं चेव णिक्खिप्पिस्सइ / से तं निक्लेवे / [600 प्र] भगवन् ! सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप का क्या स्वरूप है ? (600 उ.] श्रायुष्मन् ! इस समय (नामनिष्पत्रनिक्षेप का कथन करने के अनन्तर) सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप की प्ररूपणा करने की इच्छा है और अवसर भी प्राप्त है / किन्तु आगे अनुगम नामक तीसरे अनुयोगद्वार में इसी का वर्णन किये जाने से लाघव की दृष्टि से अभी निक्षेप नहीं करते हैं। क्योंकि वहां पर निक्षेप करने से यहां निक्षेप हो गया और यहां निक्षेप किये जाने से वहाँ पर निक्षेप हुआ समझ लेना चाहिये / इसीलिये यहाँ निक्षेप नहीं करके बहाँ पर ही इसका निक्षेप किया जायेगा। इस प्रकार से निक्षेपप्ररूपणा का वर्णन समाप्त हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सूत्रालापकों का नाम आदि निक्षेपों में न्यास न करने का कारण स्पाट किया है / सूत्रों का उच्चारण अनुगम के भेद सूत्रानुगम में किया जाता है और उच्चारण किये बिना आलापकों का निक्षेप होता नहीं है। किन्तु वह भी निक्षेप का एक प्रकार है। यह बताने के लिये यहाँ उसका उल्लेख मात्र किया है। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458] [अनुयोगद्वारसूत्र अनुगम निरूपण 500. से कितं अणुगमे ? अणुगमे दुविहे पण्णते / तं जहा-सुत्ताणुगमे य निज्जुत्तिअणुगमे य / [601 प्र.] भगवन् ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? [601 उ.] अायुष्मन् ! अनुगम के दो भेद हैं। वे इस प्रकार-१. सूत्रानुगम और 2. निर्युक्त्यनुगम। विवेचन अनुगम-अधिकार की प्ररूपणा करने के लिये यह सूत्र भूमिका रूप है। अनुगम का लक्षण पूर्व में बताया जा चुका है। उसके दोनों भेदों के लक्षण इस प्रकार हैं सूत्रानुगम-सूत्र के व्याख्यान अर्थात् पदच्छेद आदि करके उसकी व्याख्या करने को सूत्रानुगम कहते हैं। नियुक्त्यनुगम-नियुक्ति अर्थात् सूत्र के साथ एकीभाव से संबद्ध अर्थों को स्पष्ट करना / अतएव नाम, स्थापना आदि प्रकारों द्वारा विभाग करके विस्तार से सूत्र की व्याख्या करने की पद्धति को नियुक्त्यनुगम कहते हैं। अनुगम के इन दोनों भेदों में से सूत्रानुगम का वर्णन आगे सूत्रस्पशिक नियुक्ति के प्रसंग में किये जाने से यहाँ पुनरावृत्ति न करके नियुक्त्यनुगम का निरूपण करते हैं / नियुक्त्यनुगम 602. से कि तं निज्जुत्तिअणुगमे ? निज्जुत्तिअणुगमे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे उबघातनिज्जुत्तिअणुगमे सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिअणुगमे / [602 प्र.] भगवन् ! नियुक्त्यनुगम का क्या स्वरूप है ? [602 उ.] आयुष्मन् ! निर्यक्त्यनुगम के तीन प्रकार है। यथा-१. निक्षेपनियुक्त्यनुगम, 2. उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम / विवेचन-निर्युक्त्यनुगम के तीन भेदों का विस्तार से आगे वर्णन करते हैं / निक्षेपनियुक्त्यनुगम 603. से कि तं निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे ? निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे अणुगए। [603 प्र.] भगवन् ! निक्षेपनियुक्त्यनुगम का क्या स्वरूप है ? [603 उ.] अायुष्मन् ! (नाम स्थापना आदि रूप) निक्षेप की नियुक्ति का अनुगम पूर्ववत् जानना चाहिये। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक निरूपण] [459 विवेचन-सूत्र में निक्षेपनियुक्ति-अनुगम का स्वरूप पूर्ववत् जानने का संकेत किया है। जिसका आशय यह है नाम-स्थापनादि रूप निक्षेप की नियुक्ति के अनुगम को अथवा निक्षेप की विषयभूत बनी हुई नियुक्ति के अनुगम को निक्षेपनियुक्त्यनुगम कहते हैं। तात्पर्य यह है कि पहले आवश्यक और सामायिकादि पदों की नाम, स्थापनादि निक्षेपों द्वारा जो ओर जैसी व्याख्या की गई है, वैसी ही व्याख्या निक्षेपनियुक्त्यनुगम में की जाती है। उपोद्घातनियुक्त्यनुगम 604. से किं तं उघायनिज्जुत्तिअणुगमे ? उवधायनिज्जुत्तिप्रणुगमे इमाहिं दोहिं गाहाहि अणुगंतव्वे / तं जहा उद्देसे 1 निदेसे य 2 निग्गमे 3 खेत्त 4 काल 5 पुरिसे य 6 / कारण 7 पच्चय 8 लक्खण 9 पये 10 समोयारणा 11 ऽणुमए 12 // 133 / / किं 13 कइविहं 14 कस्य 15 कहिं 16 केसु 17 कहं 18 किच्चिरं हवइ कालं 19 कई 20 संतर 21 मविरहितं 22 भवा 23 ऽऽगरिस 24 फासण 25 निरुत्ती 26 // 134 // से तं उवघातनिज्जुत्तिअणुगमे। [604 प्र.] भगवन् ! उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम का क्या स्वरूप है ? [604 उ.] आयुष्मन् ! उपोद्घातनियुक्ति अनुगम का स्वरूप गाथोक्तक्रम से इस प्रकार जानना चाहिये-१. उद्देश, 2. निर्देश, 3. निर्गम, 4. क्षेत्र, 5, काल, 6. पुरुष, 7. कारण, 8. प्रत्यय, 9. लक्षण 10. नय, 11. समवतार, 12. अनुमत, 13. किम-क्या, 14. कितने प्रकार का, 15. किसको, 16. कहाँ पर, 17. किसमें, 18. किस प्रकार---कैसे, 16. कितने काल तक, 20. कितनी, 21. अंतर (विरहकाल), 22. अविरह (निरन्तरकाल), 23. भव, 24. आकर्ष, 25. स्पर्शना और 26. नियुक्ति / अर्थात् इन प्रश्नों का उत्तर उपोद्घातनियुक्त्यनुगम रूप है / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम करने सम्बन्धी प्रश्नों का उल्लेख किया है उपोद्घात नियुक्त्यनुगम-उद्देश प्रादि को व्याख्या करके सूत्र की व्याख्या करने को कहते हैं / गाथोक्त क्रमानुसार सामायिक के माध्यम से इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 1. उद्देश सामान्य रूप से कथन करने को उद्देश कहते हैं। जैसे-'अध्ययन / ' 2. निर्देश-उद्देश का विशेष नामोल्लेखपूर्वक अभिधान-कथन निर्देश कहलाता है। जैसे--- सामायिक / 3. निर्गम-वस्तु के निकलने के आधार-स्रोत का कथन निर्गम है / जैसे-सामायिक कहाँ से निकली? अर्थतः तीर्थकरों से और सूत्रत: गणधरों से सामायिक निकली। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460] [अनुयोगद्वारसूत्र 4. क्षेत्र-किस क्षेत्र में सामायिक की उत्पत्ति हुई ? सामान्य से समयक्षेत्र में और विशेषापेक्षया पावापुरी के महासेनवनोद्यान में / 5. काल-किस काल में सामायिक की उत्पत्ति हुई ? वर्तमान काल की अपेक्षा वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन प्रथम पौरुषीकाल में उत्पत्ति हुई। 6. पुरुष-किस पुरुष से सामायिक निकली ? सर्वज्ञ पुरुषों ने सामायिक का प्रतिपादन किया है, अथवा व्यवहारनय से भरतक्षेत्र की अपेक्षा इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने और वर्तमान में जिनशासन की अपेक्षा श्रमण भगवान् महावीर ने सामायिक का प्रतिपादन किया है। अथवा अर्थ की अपेक्षा सामायिक का प्रतिपादन भगवान महावीर ने और सूत्र की अपेक्षा गौतमादि गणधरों ने प्रतिपादन किया। 7. कारण किस कारण गौतमादि गणधरों ने भगवान् से सामायिक का श्रवण किया ? संयतिभाव की सिद्धि के लिये। 8. प्रत्यय-किस प्रत्यय (निमित्त) से भगवान ने सामायिक का उपदेश दिया और किम प्रत्यय से गणधरों ने उसका श्रवण किया? केवलज्ञानी होने से भगवान् ने सामायिकचारित्र का प्रतिपादन किया और भगवान् केवली हैं, इस प्रत्यय से भव्य जीवों ने श्रवण किया। 6. लक्षण सामायिक का लक्षण कहना / जैसे सम्यक्त्वसामायिक का लक्षण तत्त्वार्थ की श्रद्धा , श्रुतसामायिक का जीवादि तत्त्वों का परिज्ञान, चारित्रसामायिक का सर्वसावद्यविरति और देशचारित्रसामायिक का लक्षण विरत्यविरति (एकदेश विरति) है / 10. नय-नैगमादि नयों के मत से सामायिक कैसे होती है ? जैसे-व्यवहारनय से पाठ रूप सामायिक और तीन शब्दनयों से जीवादि वस्तु का ज्ञानरूप सामायिक होती है। 11. (नय) समवतार नैगमादि नयों का जहाँ समवतार–अन्तर्भाव संभवित हो, वहाँ उसका निर्देश करना / जैसे-कालिकश्रुत में नयों का समवतार नहीं होता है। किन्तु चरणकरणानुयोग प्रादि रूप चतुर्विध अनुयोगात्मक शास्त्रों की अपृथगावस्था में नयों का समवतार प्रत्येक सूत्र में होता है तथा इनकी पृथक अवस्था में नयों का समवतार नहीं है। वर्तमान में प्राचार्यों ने सूत्रों के पृथक-पृथक रूप से चार अनुयोग स्थापित कर दिये हैं। जिनमें नयों का समवतार इस समय विच्छिन्न हो गया है। 12. अनुमत-कौन नय किस सामायिक को मोक्षमार्ग रूप मानता है ? जैसे नैगम, संग्रह और व्यवहारनय तप-संयम रूप चारित्रसामायिक को, निर्ग्रन्थप्रवचन रूप श्रुतसामायिक को और तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्वसामायिक को, इन तीनों सामायिकों को मोक्षमार्ग मानते हैं / सर्वसंवर रूप चारित्र के अनन्तर ही मोक्ष की प्राप्ति होने से ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत, ये चारों नय संयम रूप चारित्रसामायिक को ही मोक्षमार्ग रूप मानते हैं। 13. किम् - सामायिक क्या है ? द्रव्याथिकनय के मत से सामायिक जीवद्रव्य है और पर्यायाथिक नय के मत से सामायिक जीव का गुण है। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक निरूपण] [461 14. कितने प्रकार की-सामायिक कितने प्रकार की है ? सामायिक तीन प्रकार की है१. सम्यक्त्वसामायिक, 2. श्रुतसामायिक और 3. चारित्रसामायिक / पुनः इनके भेद-प्रभेदों का कथन करना। 15. किसको-किस जीव को सामायिक प्राप्त होती है ? जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में सन्निहित होती है तथा जो जीव त्रस और स्थावर ---समस्त प्राणियों पर समताभाव रखता है, उस जीव को सामायिक प्राप्त होती है। 16. कहाँ--सामायिक कहां-कहां होती है ? इसका निर्देश करना / जैसे--१. क्षेत्र, 2. दिशा, 3. काल, 4. गति, 5. भव्य, 6. संजी, 7. उच्छ्वास, 8. दृष्टि और 9. पाहारक इत्यादि का आश्रय लेकर कौनसी सामायिक कहाँ हो सकती है, इसका कथन करना / 17. किसमें -- सामायिक किस किस में होती है ? सम्यक्त्व सामायिक सर्वद्रव्यों और सर्वपर्यायों में होती है किन्तु श्रुत और चारित्र सामायिक सर्वद्रव्यों में तो होती है, किन्तु समस्त पर्यायों में नहीं पाई जाती है / देशविरति सामायिक न तो सर्वद्रव्यों में और न सर्वपर्यायों में होती है। 18. कैसे-जीव सामायिक कैसे प्राप्त करता है ? मनुष्यत्व, प्रार्यक्षेत्र, जाति, कुल, रूप, आरोग्य, ग्रायुष्य, बुद्धि, धर्मश्रवण, धर्मावधारण, श्रद्धा और संयम, इन लोकदुर्लभ बारह स्थानों की प्राप्ति होने पर जीव सामायिक को प्राप्त करता है। 16. कितने काल तक-सामायिक रह सकती है ? अर्थात् सामायिक का कालमान कितना है ? सम्यक्त्व और शुत सामायिक की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक छियासठ सागरोपम और चारित्रसामायिक की देशोन पूर्वकोटि वर्ष की तथा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। 20. कितने-विवक्षित समय में सामायिक के प्रतिपद्यमानक, पूर्वप्रतिपन्न और सामायिक से पतित जीव कितने होते हैं ? क्षेत्रपन्योपम के असंख्यातवें भाग के प्रदेशों प्रमाण सम्यक्त्व और देशविरति सामाविक के प्रतिपद्यमानक जीव किसी एक काल में होते हैं। इनमें भी देशविरति के धारकों की अपेक्षा सम्यक्त्वसामालिक के धारक असंख्यात गुणे हैं। जघन्य एक, दो हो सकते हैं / श्रेणी के असंख्यातवे भाग में जितने प्रकाशप्रदेश होते हैं, उत्कृष्टत: उतने प्रतिपद्यमानक जीव एक काल में सम्यक् --मिथ्याश्रुत भेदों से रहित सामान्य अक्षरश्रुतात्मक श्रुतसामायिक के धारक होते हैं। जघन्य एक दो होते हैं। सर्वविरतिसामाभिक के धारक उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व और जघन्य एक-दो होते हैं। सम्यक्त्व और देशविरति सामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक एक समय में उत्कृष्ट और जघन्य असंख्यात होते हैं / सम्यक् और मिथ्या विशेषण से रहित सामान्य अक्षरात्मक श्रुतसामायिक के एक काल में पूर्वप्रतिपनक घनोकृत लोकप्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों के आकाशप्रदेश जितने होते हैं / चारित्रसामायिक, देशविरतिसामायिक और सम्यक्त्वसामायिक इन तीनों सामायिकों से प्रपतित जीव सम्यक्त्व प्रादि सामायिकों के प्रतिपत्ता (प्राप्त करने वाले) तथा पूर्वप्रतिपन्नक जीवों की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं / Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र 21. अन्तर–सामायिक का अन्तर (विरह) काल कितना होता है ? सम्यक् और मिथ्या इन विशेषणों से विहीन सामान्य श्रुतसामायिक में जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अंतर अनन्त काल का है। एक जीव की अपेक्षा सम्यक् श्रुत, देशविरति, सर्वविरतिरूप सामायिक का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तकाल रूप है। इतना बड़ा अन्तर काल अाशातनाबहुल जीवों की अपेक्षा हुअा करता है। 22. निरन्तर काल-विना अन्तर के लगातार कितने काल तक सामायिक ग्रहण करने वाले होते हैं ? सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक के प्रतिपत्ता अगारी (गहस्थ) निरंतर उत्कृष्टतः प्रावलिका के असंख्यातवें भाग काल तक होते हैं और चारित्रसामायिक वाले आठ समय तक होते हैं / जघन्यतः समस्त सामायिकों के प्रतिपत्ता दो समय तक निरंतर बने रहते हैं। 23. भव-कितने भव तक सामायिक रह सकती है ? पत्य के असंख्यातवें भाग तक सम्यक्त्व और देशविरति सामायिक, पाठ भव पर्यन्त चारित्रसामायिक और अनन्तकाल तक श्रुतसामायिक होती है / 24. आकर्ष—सामायिक के आकर्ष एक भव में या अनेक भवों में कितने होते हैं ? अर्थात् एक भव में या अनेक भवों में सामायिक कितनी बार धारण की जाती है ? तीनों सामायिकों (सम्यक्त्व, श्रुत और देशविरत सामायिक) के अाकर्ष एक भव में उत्कृष्ट से सहस्रपृथक्त्व और सर्वविरति के शतपृथक्त्व होते हैं / जघन्य से समस्त सामायिकों का आकर्ष एक भव में एक ही होता है तथा अनेक भवों की अपेक्षा सम्यक्त्व व देशविरति सामायिकों के उत्कृष्ट असंख्य सहस्रपृथक्त्व और सर्वविरति के सहस्रपृथक्त्व आकर्ष होते हैं। 25. स्पर्श-सामायिक वाले जीव कितने क्षेत्र का स्पर्श करते हैं ? सम्यक्त्व और चारित्र (सर्वविरति) सामायिक वाले (केवलिसमुद्घात की अपेक्षा) समस्त लोक का और जघन्य लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। किततेक श्रुत और देशविरति सामायिक वाले उत्कृष्ट से चौदह राजू प्रमाण लोक के सात राजू , पांच राजू , चार, तीन और दो राजू प्रमाण लोक का स्पर्श करते हैं। 26. निरुक्ति–सामायिक की निरुक्ति क्या है ? निश्चित उक्ति-कथन को निरुक्ति कहते हैं / अतएव सम्यग्दृष्टि अमोह, शोधि, सद्भाव, दर्शन, बोधि, अविपर्यय, सुदृष्टि इत्यादि सामायिक के नाम हैं / अर्थात् सामायिक का पूर्ण वर्णन ही सामायिक की निरुक्ति है। यह उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम की व्याख्या है। अब सूत्र के प्रत्येक अवयव का विशेष व्याख्या करने रूप सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम का कथन करते हैं / सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम 605. से किं तं सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिअणुगमे ? सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिअणुगमे सुत्तं उच्चारेयध्वं अखलियं अमिलियं अविच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोटविप्पमुकं गुरुवायणोवगयं / तो तत्थ णज्जिहिति ससमयपयं वा परसमयपयं वा बंधपयं वा मोक्खपयं वा सामाइयपयं वा णोसामाइयपयं वा / तो तम्मि उच्चारिते समाणे केसिचि Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रस्पशिकनियुक्ति निरूपण] [463 भगवंताणं केइ अत्याहिणारा अहिगया भवंति, केसिंचि य केइ अहिगया भवंति, ततो तेसि अहिगयाणं अत्थाणं अभिगमणत्थाए पदेणं पदं वत्तइस्सामि संहिता य पदं चेव पदत्थो पदविग्गहो। चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं // 135 // से तं सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिअणुगमे / से तं निज्जुत्तिअणुगमे / से तं अणुगमे / [605 प्र.] भगवन् ! सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम का क्या स्वरूप है ? [605 उ.] अायुष्मन् ! (जिस सूत्र की व्याख्या की जा रही है उस सूत्र को स्पर्श करने वाली नियुक्ति के अनुगम को सूत्रस्पर्शिक-निर्युक्त्यनुगम कहते हैं।) इस अनुगम में अस्खलित, अमिलित, अव्यत्यानंडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्णघोप, कंठोष्ठविप्रमुक्त तथा गुरुवाचनोपगत रूप से सूत्र का उच्चारण करना चाहिये। इस प्रकार से सूत्र का उच्चारण करने से ज्ञात होगा कि यह स्वसमयपद है, यह परसमयपद है, यह बंधपद है, यह मोक्षपद है, अथवा यह सामायिकपद है, यह नोसामायिकपद है। सूत्र का निर्दोष विधि से उच्चारण किये जाने पर कितने ही साधु भगवन्तों को कितनेक अर्थाधिकार अधिगत हो जाते हैं और किन्हीं-किन्हीं को (क्षयोपशम की विचित्रता से) कितनेक अर्थाधिकार अनधिगत रहते हैं -- ज्ञात नहीं होते हैं / अतएव उन अनधिगत अर्थों का अधिगम कराने के लिये (ज्ञात हो जाये इसलिये) एक-एक पद की प्ररूपणा (व्याख्या) करूंगा / जिसकी विधि इस प्रकार है 1. संहिता, 2. पदच्छेद, 3. पदों का अर्थ, 4. पदविग्रह, 5. चालना और 6. प्रसिद्धि / यह व्याख्या करने की विधि के छह प्रकार हैं। यही सूत्रस्पशिक नियुक्त्यनुगम का स्वरूप है। इस प्रकार से नियुक्त्यनुगम और अनुगम की वक्तव्यता का वर्णन पूर्ण हुना। विवेचन–सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप में किये गये संकेतानुसार सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम की यहाँ व्याख्या की है / यह निर्युक्त्यनुगम सूत्रस्पशिक है / सूत्र का लक्षण इस प्रकार है अप्पगंथमहत्थं बत्तीसा दोसविरहियं जं च / लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि य गुणेहि उववेयं / / अर्थात् जो अल्पग्रन्थ (अल्प अक्षर वाला) और महार्थयुक्त (अर्थ की अपेक्षा महान्-अधिक विस्तार वाला) हो, (जैसे-उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्) तथा बत्तीस दोषों से रहित, आठ गुणों से सहित और लक्षणयुक्त हो, उसे सूत्र कहते हैं। सूत्र के बत्तीस दोषो के नाम--सूत्रविकृति के कारणभूत बत्तीस दोषों के लक्षण सहित नाम इस प्रकार हैं--- 1. अलीक (अनत) दोष-अविद्यमान पदार्थों का सद्भाव बताना, जैसे जगत् का कर्ता ईश्वर है और विद्यमान पदार्थों का अभाव बताना-अपलाप करना, जैसे आत्मा नहीं है। यह दोनों असत्य-प्ररूपक होने से अलीकदोष हैं / 2. उपघातजनक-जीवों के धात का प्ररूपक, जैसे बेद में वर्णन की गई हिंसा धर्मरूप है। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र 3. निरर्थकवचन-जिन अक्षरों का अनुक्रमपूर्वक उच्चारण तो मालम हो, लेकिन अर्थ कुछ भी सिद्ध नहीं हो। जैसे अ, आ, इ, ई, उ, ऊ इत्यादि अथवा उिन्थ उवित्थ आदि / 4. अपार्थकदोष असंबद्ध अर्थवाचक शब्दों का बोलना / जैसे-दस दाडिम, छह अपूप, कुण्ड में बकरा आदि। 5. छलदोष -ऐसे पद का प्रयोग करना जिसका अनिष्ट अर्थ हो सके और विवक्षितार्य का उपघात हो जाये / जैसे 'नवक्रम्बलोऽयं देवदत्त इति' / यहाँ 'नव' शब्द का प्रर्थ तन है, किन्तु 'नौ' अर्थ भी हो सकता है। 6. द्रहिलदोष-पाप व्यापारपोषक / 7. निस्सारवचनदोष-युक्ति से रहित वचन / 8. अधिकदोष-जिसमें अक्षर-पदादि अधिक हों। जैसे अनित्यः शब्दः कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवत् / यहाँ एक साध्य की सिद्धि के लिये कृतकत्व और प्रयत्नानन्तरीयकत्व यह दो हेतु और घट पट दो दृष्टान्त दिये गये हैं। एक साध्य की सिद्धि में एक ही हेतु और एक ही दृष्टान्त पर्याप्त है / इसलिये अधिक दोष है। 9. ऊनदोष-(न्यूनवचन)--जिसमें अक्षरसदादि होत हों अथवा हेतु या दृष्टान्त की न्यूनता हो / जैसे-अनित्यः शब्द: घटवत् तथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् / 10. पुनरुक्तदोष --- पुनरुक्तदोष के दो भेद हैं--एक शब्द से और द्वितीय अर्थ से / शब्द -जो शब्द एक बार उच्चारण किया गया हो, किर उपी का उच्चारण करना, जैसे-घटो घट: / अर्थ से पुनरुक्त जैसे--घट, कुट, कुंभ / 11. व्याह्तदोष-जहाँ पूर्ववचन से उत्तरवचन का ज्याधात हो। जैसे 'कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता नत्वस्ति कर्मणामित्यादि-कर्म है और उसका फल भी होता है किन्तु कर्मों का कर्ता कोई नहीं है।' 12. प्रयुक्त दोष-जो वचन युक्ति, उपपत्ति को सहन न कर सके। जसे हाथियों के गण्डस्थल से मद का ऐसा प्रवाह बहा कि उसमें चतुरंगी सेना बह गई। 13. कमभिन्नदोष----जिसमें अनुक्रम न हो, जो उलट-पुलट कर बोला जाये, जैसे—स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द के स्थान पर स्पर्श, रूप, शब्द, रस, गंध इस प्रकार क्रमभंग करके बोलना / 14. वचनभिन्नदोष जहाँ वचन की विपरीतता हो / जैसे वृक्षाः ऋतौ पुष्पितः / यहाँ 'वृक्षाः' बहुवचन का पद है और 'पुष्पितः एकवचन है / 15. विभक्तिभिन्नदोष --विभक्ति को विपरीतता-व्यत्यय होना / जैसे 'वक्षं पश्य' के स्थान पर 'वृक्षः पश्य' ऐसा कहना / यहाँ द्वितीया विभक्ति के स्थान पर प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है। 16. लिंगभिन्नदोष-लिंग का विपरीत होना / जैसे-- अयं स्त्री / इसमें 'अय' शब्द पुल्लिग है और 'स्त्री' शब्द स्त्रीलिंग का है। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रस्पशिकनियुक्ति निरूपण [465 17. अनभिहितदोष-स्वसिद्धान्त में जो पदार्थ ग्रहण नहीं किये गये, उनका उपदेश करना / जैसे सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष से अतिरिक्त तीसरा तत्त्व कहना / 18. अपदोष- अन्य छन्द के स्थान पर दूसरे छन्द का उच्चारण करना जैसे—मार्या पद के बदले वैतालीय पद कहना / 19. स्वभावहीनदोष-जिस पदार्थ का जो स्वभाव है, उससे विरुद्ध प्रतिपादन करना / जैसे-अग्नि गीत है, अाकाश मूर्तिमान है, ये दोनों ही स्वभाव से हीन हैं। 20. व्यवहितदोष---जिसका कथन प्रारम्भ किया है, उसे छोड़कर जो प्रारम्भ नहीं किया, उमकी व्याख्या करके फिर पहले प्रारम्भ किये हुए की व्याख्या करना / 21. कालदोष .... भूतकाल के वचन को वर्तमान काल में उच्चारण करना / जैसे—'रामचन्द्र ने वन में प्रवेश किया, ऐमा कहने के बदले 'रामचन्द्र वन में प्रवेश करते हैं' कहना। 22. यतिदोष --अनुचित स्थान पर विराम लेना-रुकना अथवा सर्वथा विराम ही नहीं लेना / 23. छविदोष –छवि अलंकार विशेष से शून्य होना ! 24. समयविरुद्धदोष---स्वसिद्धान्त से विरुद्ध प्रतिपादन करना। 25. वचनमात्रदोष-निर्हेतुक वचन उच्चारण करना / जैसे कोई पुरुष अपनी इच्छा से किसी स्थान पर भूमि का मध्यभाग कहे। 26. अर्थापत्तिदोष-जिम स्थान पर अपत्ति के कारण अनिष्ट अर्थ की प्राप्ति हो जाये / जैसे—घर का मुर्गा नहीं मारना चाहिये, इस कथन से यह अर्थ निकला कि दूसरे मुर्गों को मारना चाहिये। 27. अममासदोष—जिस स्थान पर समास विधि प्राप्त हो वहाँ न करना अथवा जिस समास की प्राप्ति हो, उस स्थान पर उस समास को न करके अन्य समास करना असमासदोष है / 28. उपमादोष-हीन उपमा देना, जैसे-मेरु सरसों जैसा है, अथवा अधिक उपमा देना, जैसे- सरसों मेस जैसा है अथवा विपरीत उपमा देना, जैसे—मेरु समुद्र समान है। यह उपमादोष है। 29. रूपकदोष---निरूपणीय मुल वस्तु को छोड़कर उसके अवयवों का निरूपण करना, जैसेपर्वत के निरूपण को छोड़कर उसके शिखर प्रादि अवयवों का निरूपण करना या समुद्रादि किसी अन्य वस्तु के अवयवों का निरूपण करना / . 30. निर्देशदोप----निदिष्ट पदों की एकवाक्यता न होना / 31. पदार्थदोष-वस्तु के पर्याय को एक पृथक् पदार्थ रूप में मानना जैसे---सत्ता वस्तु की पर्याय है किन्तु वैशेषिक उसे पृथक् पदार्थ कहते हैं / 32. संधिदोष --जहाँ संधि होना चाहिये, वहाँ संधि नहीं करना, अथवा करना तो गलन करना। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466] [अनुयोगदारसूत्र . __ लक्षण युक्त सूत्र इन बत्तीस दोषों से रहित होने के साथ ही पाठ गुणों से युक्त भी होता है। वे आठ गुण ये हैं निहोस सारवंतं च हेउजुत्तमलकियं / उवणीयं सोवयारं च मियं महुरमेव च / / 1. निर्दोष सर्व दोषों से रहित / 2. सारवान् सारयुक्त होना / 3. हेतुयुक्त-अन्वय और व्यतिरेक हेतुओं से युक्त / / 4. अलंकारयुक्त–उपमा, उत्प्रेक्षा ग्रादि अलंकारों से विभूषित / 5. उपनीत-उपनय से युक्त अर्थात् दृष्टान्त को दार्टान्तिक में घटित करना / 6. सोपचार --ग्रामीण भाषाओं से रहित और संस्कृतादि साहित्यिक भाषाओं से युक्त / 7. मित-अक्षरादि के प्रमाण से नियत / / 8. मधुर-सुनने में मनोहर ऐसे मधुर वर्गों से युक्त / अनधिगतार्थ की बोधविधि--सूत्र के समुच्चारित होने पर भी अनधिगत रहे अर्थाधिकारों के परिज्ञान कराने की विधि इस प्रकार है 1. संहिता-अस्खलित रूप से पदों का उच्चारण करना / जैसे—करेमि भंते सामाश्य इत्यादि / 2. पद-सुबन्त और तिङन्त शब्द को पद कहते हैं। जैसे----करेमि यह प्रथम तिङन्त पद है, भंते यह सुबन्त द्वितीय पद है, 'सामाइयं' यह तृतीय पद है इत्यादि / 3. पदार्थ—पद के अर्थ करने को पदार्थ कहते हैं / जैसे करेमि = करता हूं, इस क्रियापद से सामायिक करने की उन्मुखता का बोध होता है, "भंते ! भगवन् ! , यह पद गुरुजनों को आमंत्रित करने के अर्थ का बोधक है, 'सामाइयं-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप सम का जिससे पाय-लाभ हो उस सामायिक को - यह सामायिक पद का अर्थ है। 4. पदविग्रह-संयुक्त पदों का प्रकृतिप्रत्ययात्मक विभाग रूप विस्तार करना / अनेक पदों का एक पद करना समास कहलाता है / जैसे भयस्य अंतो भयान्तः, जिनानाम् इन्द्र: जिनेन्द्र : इत्यादि / 5. चालना-प्रश्नोत्तरों द्वारा सूत्र और अर्थ की पुष्टि करना / 6. प्रसिद्धि---सूत्र और उसके अर्थ का विविध युक्तियों द्वारा जैसा कि वह है उसी प्रकार से स्थापना करना प्रसिद्धि है। अर्थात् प्रथम अन्य युक्ति देकर फिर सूत्रोक्त युक्ति की सिद्धि करना प्रसिद्धि कहलाती है। व्याख्या के इन षड्विध लक्षणों में से सूत्रोच्चारण और पदच्छेद करना सूत्रानुगम का विषय है-कार्य है। सूत्रानगम द्वारा यह कार्य किये जाने के बाद सूत्रालापकनिक्षेप-सूत्रालापकों को नाम, स्थापना आदि निक्षेपों में निक्षिप्त करता है, अर्थात् सूत्रालापकों को नाम स्थापना आदि निक्षेपों में सूत्रालापक निक्षेप विभक्त करता है। शेष पदविग्रह, चालना और प्रसिद्धि यह सब सूत्रस्पशिकनियुक्ति के विषय हैं / अर्थात् इन कार्यों को सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम संपादित करता है तथा Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय निरूपण] [467 नैगमादि नय भी प्रायः पदार्थ प्रादि का विचार करने वाले होने से जब पदार्थ प्रादि को ही विषय करते हैं, तब इस दृष्टि से वे सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम के अन्तर्गत हो जाते हैं / इस प्रकार जब सूत्र, व्याख्या का विषयभूत बनता है, तब सूत्र, सूत्रानुगम, सूत्रालापकनिक्षेप और सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम ये सव युगपत् एक जगह मिल जाते हैं। स्वसमय आदि का अर्थ--सूत्र में आगत स्वममय आदि पदों का भावार्थ इस प्रकार है-- स्वसमयपद - स्वसिद्धान्तसम्मत जोवादिक पदार्थों का प्रतिपादक-बोधक पद / परसमयपद-परसिद्धान्त-सम्मत प्रकृति, ईश्वर आदि का प्रतिपादन करने वाला पद / बंधपद-परसमय-सिद्धान्त के मिथ्यात्व का प्रतिपादक पद। क्योंकि कर्मबंध एवं कुवासना का हेतु होने से वह बंध पद कहलाता है। मोक्षपद-प्राणियों के सद्बोध का कारण होने से तथा समस्त कर्मक्षय रूप मोक्ष का प्रतिपादक होने से स्वसमय मोक्षपद कहलाता है / अथवा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार के बंध का प्रतिपादन करने वाला पद वंधपद तथा कृत्स्नकर्मक्षय रूप मोक्ष का प्रतिपादक पद मोक्षपद कहलाता है। यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार की व्याख्या करने से बंध और मोक्ष ये दोनों पद स्वसमय पद से भिन्न नहीं हैं, अभिन्न हैं, तथापि स्वसमय पद का दूसरा भी अर्थ होता है, यह दिखाने के लिये अथवा शिष्य जनों को सुगमता से बोध कराने और उनकी बुद्धि को विशद—निर्मल बनाने के लिये पृथकपृथक् निर्देश किया है। इसीलिये सामाधिक का प्रतिपादन करने वाले सामायिक पद और सामायिक से व्यतिरिक्त नारक तिर्यचादि के बोधक नोसामायिक पद इन दोनों पदों का अलग-अलग उपन्यास किया है। ___ इस प्रकार से सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगम के अधिकृत विषयों का निरूपण हो जाने से नियुक्त्यनुगम एवं साथ ही अनुगम अधिकार की वक्तव्यता की भी समाप्ति जानना चाहिये। नयनिरूपण की भूमिका 606. [अ] से कि तं गए ? सत्त मूलणया पण्णता। तं जहा ---णेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरुढे एवंभूते। तत्थ णेगेहि माहि मिणइ ति गमस्स य निरुत्ती 1 / सेसाणं पि नयाणं लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं // 136 / / संगहियपिडियत्थं संगहवयणं समासओ बिति 2 / वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सव्वदन्वेसु३॥ 137 // पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयत्वो 4 / इच्छइ विसेसियतरं पच्चप्पण्णं णओ सदो 5 // 138 // Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र वत्थओ संकमणं होइ अवत्थुपये समभिरुढे 7 / वंजण----अस्थ—तदुभयं एवंभूयो विसेसेइ 7 // 139 // [606 प्र.] भगवन् ! नय का क्या स्वरूप है ? [606 उ.] आयुष्मन् ! मूल नय सात हैं / वे इस प्रकार ..-1. नैगमनय, 2. संग्रहनय, 3. व्यवहारनय, 4. ऋजुसूत्रनय, 5. शब्दनय, 6. समभिरूढनय और 7. एवंभूतनय / विवेचन-सूत्र में सात नयों के नाम गिनाये हैं / यद्यपि वचनों के प्रकार जितने ही नय है, लेकिन उन सब का समावेश सात नयों में हो जाता है और यह इसलिये कि उनके द्वारा सभी तरह के जिज्ञासुओं को वस्तुनिरूपण की शैली का सुगमता से बोध हो जाता है। नैगम प्रादि सात नयों के लक्षण जो अनेक मानों (प्रकारों से वस्तु के स्वरूप को जानता है, अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है (वह नैगमनय है) यह नैगमनय की निरुक्ति-व्युत्पत्ति है / शेष नयों के लक्षण कहूँगा, जिनको तुम सुनो / 136 सम्यक् प्रकार से गृहीत–एक जाति को प्राप्त अर्थ जिसका विषय है, यह संग्रहनय का वचन है / इस प्रकार से (तीर्थंकर, गणधर आदि ने संक्षेप में) कहा है / व्यवहारनय सर्व द्रव्यों के विषय में विनिश्चय (विशेष-भेद रूप में निश्चय) करने के निमित्त प्रवृत्त होता है / 137 ऋजुसूत्रनयविधि प्रत्युत्पन्नग्राही (वर्तमानकालभावी पर्याय को ग्रहण करने वाली) जानना चाहिये। शब्दनय (ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा सूक्ष्मतर विषय बाला होने से) पदार्थ को विशेषतर मानता है। 138 समभिरूढनय वस्तु का अन्यत्र संक्रमण अवस्तु (अवास्तविक) मानता है। एवंभूतनय व्यंजन (शब्द) अर्थ एवं तदुभय को विशेष रूप से स्थापित करता है / 139 विवेचन-उल्लिखित चार गाथाओं में नैगमादि सात नयों के लक्षण संक्षेप में बताये हैं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है 1. नैगमनयजो महासत्ता (परसामान्य) अपरसामान्य एवं विशेष के द्वारा वस्तु का परिच्छेद करता है, वह नैगमनय है। अथवा निगम का अर्थ है वसति / अतएव 'लोके वसामि' (लोक में रहता हूं) इत्यादि पूर्वोक्त कथन का नाम निगम है और इन निगमों से सम्बद्ध नय को नैगमनय कहते हैं। अथवा अर्थ के ज्ञान को निगम कहते हैं। अतएव अनेक प्रकार से जो अर्थ के ज्ञान को मान्य करे वह नैगमनय कहलाता है / अथवा जिसके वस्तुविचार के अनेक गम-प्रकार हों उसे नैगमनय कहते हैं / अथवा पूर्वोक्त प्रस्थक ग्रादि दृष्टान्त रूप संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगमनय है। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय निरूपण यह नय भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों संबंधी पदार्थ को ग्रहण करता है / इस नय के मत से भूत आदि तीनों कालों का अस्तित्व है। 2. संग्रहनय / सामान्य रूप से सभी पदार्थों का संग्रह करने वाले नय को संग्रहनय कहते हैं। यह नय सब वस्तुओं को मामान्यधर्मात्मक मान्य करता है, क्योंकि विशेष सामान्य से पृथक् नहीं हैं / 3. व्यवहारनय- इसका दृष्टिकोण संग्रहनय से विपरीत है। अर्थात् यह सामान्य का अभाव सिद्ध करने वाला है / क्योंकि लोकव्यवहार में विशेषों से व्यतिरिक्त सामान्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होने तथा उसके अनुपयोगी होने के कारण व्यवहारनय सामान्य को स्वीकार नहीं करता। 4. ऋजुसूत्रनय----इसमें ऋजु और सूत्र यह दो शब्द हैं। इनमें से ऋजु का अर्थ प्रगुणकुटिलतार हित--सरल है / अतएव ऐसे सरल को जो मूत्रित करता है-स्वीकार करता है उस नय को ऋजुसूत्रनय कहते हैं। अथवा जो नय अतीत और अनागत कालवर्ती पदार्थो को ग्रहण न करके वर्तमानकालिक पदार्थों को ही ग्रहण करता है वह ऋजुनयसूत्र है। उक्त दोनों लक्षणों का समन्वित प्राशय यह हुआ कि अतीत और अनागत ये दोनों अवस्थाएँ क्रमशः विनष्ट और अनुत्पन्न होने के कारण असत् हैं और ऐसे असत् को स्वीकार करना कुटिलता है। इस कुटिलता का परिहार करके केवल सरल वर्तमानकालिक वस्तु को स्वीकार करने वाला नय ऋजुसूत्रनय कहलाता है / इस नय द्वारा वर्तमान कालभावी पदार्थ को ग्रहण करने का कारण यह है कि वर्तमान कालवर्ती पदार्थ ही अर्थक्रिया करने में समर्थ होता है। 'उज्जुसुयो' की संस्कृत छाया 'ऋजुश्रुत' भी होती है / अतएव जिसका श्रुत ऋजु–सरल-- अकुटिल है, वह ऋजुश्रुत है / आशय यह हुआ कि श्रुतज्ञान की तरह इतर ज्ञानों से आदान-प्रदान रूप परोपकार नहीं होता है, इसलिये यह नय श्रुतज्ञान को मानता है / 5. शब्दनय-जो उच्चारण किया जाये, जिसके द्वारा वस्तु कही जाये, उसे शब्द कहते हैं। इसमें शब्द मुख्य और अर्थ गौण है / अतएव उपचार से इस नय को शब्दनय कहते हैं / तात्पर्य यह है कि वस्तु शब्द द्वारा कही जाती है और बुद्धि उसी प्रर्थ को मुख्य रूप से मान लेती है। अत: शब्दजन्य वह बुद्धि भी उपचार से शब्द कह दी जाती है। बुद्धि जब यह विचार करती है कि जैसे तीनों कालों में एक वस्तु नहीं है किन्तु वर्तमानकालस्थित ही वस्तु कहलाती है, वैसे ही भिन्न-भिन्न लिंग, बचन आदि से युक्त शब्दों द्वारा कही जाने वाली वस्तु भी भिन्न-भिन्न ही है, ऐसा विचार कर यह नय लिग, वचनादि के भेद से अर्थ में भेद मानने लग जाता है। इस तरह यह नय ऋजूसूत्रनय की अपेक्षा अपने वाच्यार्थ को विशेषिततर करके मानता है। जैसे ऋजसूत्रनय तट: तटी तटम् इन भिन्न-भिन्न लिंगों वाले शब्दों का तथा गुरु, गुरवः इन भिन्न-भिन्न वचन वाले शब्दों का वाच्यार्थ एक मानता है, जबकि शब्दनय विभिन्न लिंग और वचन वाले शब्दों के लिंग और वचन की भिन्नता की तरह उनके वाच्यार्थ को भी भिन्न-भिन्न मानता है / लेकिन जिन शब्दों का लिंग एक है, वचन एक है, उन शब्दों के वाच्यार्थ में भिन्नता नहीं मानता है / ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा इस नय में यही विशेषता है / शब्दनय नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप में निक्षिप्त वस्तु को नहीं मानता क्योंकि ये कार्य करने में असमर्थ होने से अप्रमाण हैं / भाव से ही कार्य सिद्धि होती है इसलिये भाव ही प्रधान है / * Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470) अनुयोगद्वारसूत्र 6. समभिरूढनय-वाचकभेद से वाच्यार्थ में भिन्नता मानने वाले अथवा शब्दभेद से अर्थभेद मानने वाले नय को समभिरूढ़नय कहते हैं / इसी का प्रकारान्तर से गाथा में संकेत किया है कि यदि शब्दभेद है तो अर्थ में भेद होना चाहिये और यदि एक वस्तु में अन्य शब्द का प्रारोप किया जाये तो वह अवस्तु रूप हो जाती है / इसका तात्पर्य यह हुआ कि शब्दनय लिंग और बचन की समानता होने से इन्द्रः शुक्र: पुरन्दरः इन शब्दों का वाच्यार्थ एक मान लेता है किन्तु इस नय में प्रवृत्ति का निमित्त जब भिन्न-भिन्न है तो मनुष्य आदि शब्दों की तरह इन शब्दों का वाच्यार्थ भी भिन्न-भिन्न है / क्योंकि व्युत्पत्ति की अपेक्षा ऐश्वर्यवान् होने से इन्द्र, शकन समर्थ होने से शक्र और पुरों नगरों का दारण-नाश करने से पुरन्दर कहलाता है। किन्तु जो परम ऐश्वर्य पर्याय है, वही शकन या पुरदारण पर्याय नहीं है / इसलिये ये इन्द्रादि शब्द भिन्न-भिन्न अभिधेय वाले हैं / यदि सभी पर्यायों को एक माना जाये तो सांकर्य दोष होगा / इस नय के मत से इन्द्र शब्द से शक शब्द उतना ही भिन्न है, जितना घट से पट और अश्व से हस्ती। 7. एवंभूतनय-जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है, उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूतनय कहते हैं। यही आशय गाथोक्त पदों का है कि व्यंजन-शब्द से जो वस्तु का अभिधेय अर्थ होता है, उसको प्रकट किया जाये, उसे ही एवंभूतनय कहते हैं / जैसे—जिस समय अाज्ञा और ऐश्वर्यवान् हो, उस समय ही वह इन्द्र है, अन्य समयों में नहीं। समभिरूढ़नय से एवंभूतनय में यह अन्तर है कि यद्यपि ये दोनों नय व्युत्पत्तिभेद से शब्द के अर्थ में भेद मानते हैं, परन्तु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है / परन्तु एवंभूतनय तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जबकि वस्तुतः क्रियापरिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो / सुनय और दुर्नय-पूर्वोक्त सात नयों में से यदि वे अन्य धर्मों का निषेध करके केवल अपने अभीष्ट एक धर्म का ही प्रतिपादन करते हैं, तब दुर्नय रूप हो जाते हैं / दुर्नय अर्थात् जो वस्तु के एक धर्म को सत्य मानकर अन्य धर्मों का निषेध करने वाला हो / जैसे नैगमनय से नैयायिक-वैशेषिक दर्शन उत्पन्न हुए। अद्वैतवादी और सांख्य संग्रहनय को ही मानते हैं। चार्वाक व्यवहारनयवादी ही है। बौद्ध केवल ऋजुसूत्रनय का तथा वैयाकरणी शब्द आदि तीन नयों का ही अनुसरण करते हैं / इस प्रकार ये सभी एकान्त पक्ष के प्राग्रही होने से दुर्नयवादी हैं। सात नयों का वर्गीकरण और अल्पबहत्व-पूर्वोक्त नैगम आदि सात नयों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थ के प्रतिपादक होने से अर्थनय कहे जाते हैं / शब्द समभिरूढ़ और एवंभूतनय शब्द का प्रतिपादन करने से शब्दनय हैं। इनमें पूर्व-पूर्व के नय अधिक विषय और उत्तर-उत्तर के नय परिमित विषय वाले हैं / जैसे संग्रहनय सामान्य मात्र को स्वीकार करता है जबकि नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को। इसलिये संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का विषय अधिक है / व्यवहारनय संग्रहनय के द्वारा गृहीत पदार्थों में से विशेष को जानता है और संग्रहनय समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिये संग्रहनय का विषय व्यवहारनय से अधिक है / व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है, जबकि ऋजुसूत्र केवल वर्तमानकालीन पदार्थों का ज्ञान करता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा व्यवहारनय का विषय Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय निरूपण [471 अधिक है। शब्दनय काल ग्रादि के भेद से वर्तमान पर्याय को जानता है किन्तु ऋजुसूत्र में काल आदि का कोई भेद नहीं है / इसलिये शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का विषय अधिक है / समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्न रूप से जानता है, परन्तु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं है। प्रतएव शब्दनय की अपेक्षा समभिरूढ़नय का विषय अल्प है / एवंभूतनय समभिरूढनय से जाने हुए पदार्थ में क्रिया के भेद से भेद मानता है। अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है। नयविचार का प्रयोजन-प्रस्तुत प्रकरण में यह है कि पूर्व प्रकान्त सामायिक अध्ययन सर्वप्रथम उपक्रम से उपक्रान्त होता है और निक्षेप से यथासंभव निक्षिप्त होता है / तत्पश्चात् अनुगम से वह जानने योग्य बनता है और इसके बाद नयों से उसका विचार किया जाता है। ___ यद्यपि पूर्व में उपोद्धातनियुक्ति में समस्त अध्ययन के विषय वाला नय विचार किया जा चुका है, तथापि यहाँ उसका पृथक् निर्देश इसलिये किया है कि चोथा जो अनुयोगद्वार है, वही नयवक्तव्यता का मूल स्थान है। क्योंकि यहाँ सिद्ध हुए नयों का पूर्व में उपन्याम किया गया है / नयवर्णन के लाभ 606. [आ] णायम्मि गिव्हियत्वे अगिहियवम्मि चेव अथम्मि / जइयत्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नाम / / 140 / / सब्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता। तं सम्वनयविसुद्धं जं चरणगुणढिओ साहू // 141 // से तं नए। सोलससयाणि चउरुत्तराणि गाहाण जाण सव्वग्गं / दुसहस्समणुठ्ठभछंद वित्तपरिमाणमो भणियं // 142 / / नगरमहादारा इव कम्मदाराणुओगवरदारा / अक्खर-बिदू-मत्ता लिहिया दुक्खक्खयट्टाए // 143 // नयवर्णन के लाभ---इन नयों द्वारा हेय और उपादेय अर्थ का ज्ञान प्राप्त करके तदनुकूल प्रवृत्ति करनो ही चाहिये / इस प्रकार का जो उपदेश है वही (ज्ञान) नय कहलाता है / 140 इन सभी नयों की परस्पर विरुद्ध वक्तव्यता को सुनकर समस्त नयों से विशुद्ध सम्यक्त्व, चारित्र (और ज्ञान) गुण में स्थित होने वाला साधु (मोक्षसाधक हो सकता) है / 141 इस प्रकार नय-अधिकार की प्ररूपणा जानना चाहिये / साथ ही अनुयोगद्वारसूत्र का वर्णन समाप्त होता है। विवेचन--उपर्युक्त दो गाथानों में नयवर्णन से प्राप्त लाभ का उल्लेख किया है। 'जितने वचनमार्ग हैं, उतने ही नय हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार नयों के अनेक भेद हैं। नेगम, संग्रह आदि सात भेद और अर्थनय एवं शब्दनय के भेद से दो भेद पूर्व में बताये हैं। इनके अतिरिक्त भी द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक, ज्ञान-क्रिया, निश्चय-व्यवहार प्रादि भेद भी किये जा सकते हैं, तथापि Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472] [अनुयोगद्वारसूत्र यहाँ मोक्ष का कारण होने से मर्व अध्ययन का विचार ज्ञाननय और क्रियानय की अपेक्षा किया गया जानना चाहिये / क्योंकि गाथा में इसी प्रकार का कथन किया गया है पदार्थों में जो उपादेय हों उन्हें ग्रहण करना और जो हेय हों उन्हें त्याग करना चाहिये तथा ज्ञेय (जानने योग्य) हों उन्हें मध्यस्थ भाव से जानना चाहिये / इस लोक सम्बन्धी सुखादिसामग्री ग्रहण योग्य है, विषादि पदार्थ त्यागने योग्य और तृण शादि पदार्थ उपेक्षणीय हैं। यदि परलोक सम्बन्धी विचार किया जाये तो सम्यादर्शनादि ग्रहण करने योग्य हैं, मिथ्यात्वादि त्यागने योग्य हैं और स्वर्गिक सुख उपेक्षणीय है। ज्ञाननय का मंतव्य है कि ज्ञान के बिना किसी कार्य की सिद्धि नहीं होती है / ज्ञानी पुरुष ही मोक्ष के फल का अनुभव करते हैं / अन्धा पुरुष अन्धे के पीछे-पीछे गमन करने से वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है / ज्ञान के बिना पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं होती है / सभी व्रतादि एवं क्षायिक सम्यक्त्व प्रादि अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति ज्ञान से होती है / अतएव सबका मूल कारण ज्ञान है। क्रियानय का मंतव्य है कि सिद्धि प्राप्त करने का मुख्य कारण क्रिया ही है / क्योंकि तीनों प्रकार के अर्थों का ज्ञान करके प्रयत्न करना चाहिये / इस कथन से क्रिया की ही सिद्धि होती है / ज्ञान तो क्रिया का उपकरण है / इसलिये क्रिया मुख्य और ज्ञान गौण है। मात्र ज्ञान से जीव सुख नहीं पाते / तीर्थ कर देव भी अंतिम समय पर्यन्त क्रिया के ही आश्रित रहते हैं / बीज को भी अंकुरोत्पत्ति के लिए बाह्य सामग्री की आवश्यकता होती है। इसलिये सबका मुख्य कारण क्रिया ही है / यह क्रियानय का मंतव्य है / किन्तु किसी भी एकान्त पक्ष में मोक्षप्राप्ति का अभाव है। इसलिये अब मान्य पक्ष प्रस्तुत करते हैं सर्व नयों के नाना प्रकार के वक्तव्यों को सुनकर--नयों के परस्पर विरोधी भावों को सुनकर जो साधु ज्ञान और क्रिया में स्थित है वही मोक्ष का साधक होता है / केवल ज्ञान और केवल क्रिया से कार्यसिद्धि नहीं होती है। अन्नादि का ज्ञान होने पर भी बिना भक्षण क्रिया के उदरपोषणादि नहीं होता है / केवल क्रिया से भी कार्यसिद्धि नहीं होती है / जैसे क्रिया से रहित ज्ञान निष्फल है वैसे ही ज्ञान से रहित क्रिया भी कार्यसाधक नहीं है / यथा--पंगु और अंधे भागते हुए भी सुमार्ग को प्राप्त नहीं होते, एक चक्र (पहिये) से शकट (गाड़ी) नगर को प्राप्त नहीं कर सकती, इसी प्रकार अकेले ज्ञान और अकेली क्रिया से सिद्धि नहीं होती, अपितु दोनों के समुचित समन्वय से सिद्धि प्राप्त होती है / कदाचित् कहा जाए कि जब पृथक-पृथक दोनों में मुक्तिसाधन की शक्ति नहीं तो उभय में वह शक्ति कहां से हो सकती है ? समाधान यह है कि ज्ञान और क्रिया पृथक्-पृथक् रूप में देश उपकारी होते हैं, दोनों मिलने से सर्व उपकारी होते हैं। इस प्रकार से नयद्वार की वक्तव्यता के पूर्ण होने से चतुर्थ अनुयोगद्वार की और साथ ही श्रीमदनुयोगहार सूत्र की भी पूर्ति होती है। अनुयोगद्वार सूत्र के चार मुख्य द्वार हैं, जिनमें यह नयद्वार चौथा है / अत: इसकी पूर्ति होने से अनुयोगद्वार सूत्र की भी पूर्ति हो गई। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] लिपिकार का वक्तव्य अनुयोगद्वार सूत्र की कुल मिलाकर सोलह सौ चार (1604) गाथाएं हैं तथा दो हजार (2000) अनुष्टुप छन्दों का परिमाण है / 142 जैसे महानगर के मुख्य-मुख्य चार द्वार होते हैं, उसी प्रकार इस श्रीमदनुयोगद्वार सूत्र के भी उपक्रम आदि चार द्वार हैं। इस सूत्र में अक्षर, बिन्दु और मात्रायें जो लिखी गई हैं, वे सब सर्व दुखों के क्षय करने के लिये ही हैं / 143 विवेचन--यद्यपि ये गाथायें मूल सूत्र में नहीं है वृत्तिकारों ने भी इनकी वृत्ति नहीं लिखी है। तथापि सारांश अच्छा होने से अनुयोगद्वारसूत्र की पूर्ति के पश्चात् इनको उद्धृत किया गया है / गाथार्थ सुगम और सुबोध है। / / श्रीमद्नुयोगद्वारसूत्र समाप्त // Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 कथानक सूत्रसंख्या 90 1. डोडिणी ब्राह्मणी किसी ग्राम में डोडिणी नाम की ब्राह्मणी रहती थी। उसकी तीन पुत्रियाँ थीं। उनका विवाह करने के बाद उसे विचार हुआ कि जमाइयों के स्वभाव को जानकर मुझे अपनी पुत्रियों को वैसी शिक्षा-सीख देनी चाहिये, जिससे उसी के अनुरूप व्यवहार कर वे अपने जीवन को सुखी बना सकें। ऐसा विचार कर उसने अपनी तीनों पुत्रियों को बुलाकर सलाह दी—'माज जब तुम्हारे पति सोने के लिये शयन कक्ष में प्राएँ तब तुम कोई न कोई कल्पित दोष लगाकर उनके मस्तक पर लात मारना / तब वह जा कुछ तुमसे कहें सुबह मुझे बताना। पुत्रियों ने माता की बात मान ली और रात्रि के समय अपने अपने शयनखंड में बैठकर पति की प्रतीक्षा करने लगीं। जब ज्येष्ठ पुत्री का पति शयनखंड में आया, तब उसने कल्पित दोष का प्रारोपण करके उसके मस्तक पर लात मारी / लात लगते ही पति ने उसका पैर पकड़ कर कहा--'प्रिये ! पत्थर से भी कठोर मेरे शिर पर तुमने जो केतकी पुष्प के समान कोमल पग मारा, उससे तुम्हारा चरण दुखते लगा होगा। इस प्रकार कहकर वह उसके पैर को सहलाने लगा। दूसरे दिन बड़ी पुत्री ने पाकर रातवाली घटना मां को सुनाई / सुन कर ब्राह्मणी बहुत हर्षित हुई / जमाई के इस वर्ताव से वह उसके स्वभाव को समझ गई और पुत्री से बोली-तू अपने घर में जो करना चाहेगी, कर सकेगी। क्योंकि तेरे पति के व्यवहार से लगता है कि वह तेरी आज्ञा के अधीन रहेगा। दूसरी पुत्री ने भी माता की सलाह के अनुरूप अपने पति के मस्तक पर लात मारी। तब उसका पति थोड़ा रुष्ट हुया और उसने अपने रोष को मात्र शब्दों द्वारा प्रकट किया----मेरे साथ तूने जो व्यवहार किया वह कुलवधुओं के योग्य नहीं है / तुझे ऐसा नहीं करना चाहिये। ऐसा कहकर वह शान्त हो गया। प्रात: दूसरी पूत्री ने भी सब प्रसंग माता को कह सुनाया। माता ने संतुष्ट होकर उससे कहा-बेटी ! तू भी अपने घर में इच्छानुरूप प्रवृत्ति कर सकेगी। तेरे पति का स्वभाव ऐसा है कि वह चाहे जितना रुष्ट हो, लेकिन क्षण मात्र में शांत-तुष्ट हो जायेगा। तीसरी पुत्री ने भी किसी दोष के बहाने अपने पति के मस्तक पर लात मारी। इससे पति के क्रोध का पार नहीं रहा और डाट कर बोला-अरी दुष्टा! कुल-कन्या के अयोग्य यह व्यवहार मेरे Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १-कथानक] [475 साथ क्यों किया? फिर मार-पीट कर उसे घर से बाहर निकाल दिया / तब वह रोती-कलपती मां के पास आई और सब घटना कह सुनाई। पुत्री की बात से ब्राह्मणी को उसके पति के स्वभाव का पता लग गया और उसी समय वह उसके पास आई / मीठे-मीठे बोलों से जमाई के क्रोध को शांत करके बोली -- जमाईराज ! हमारे कुल की यह रीति है कि सुहाग रात में प्रथम समागम के समय पति के मस्तक पर चरण-प्रहार किया जाता है, इसी कारण मेरी पुत्री ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया है, किन्तु दुर्भावना या दुष्टता से यह सब नहीं किया है। इसलिये आप शान्त हों और इस वर्ताव के लिये उसे क्षमा करें। सासू की बात से उसका गुस्सा शांत हुआ / उसके बाद डोडिणी ब्राह्मणी ने तीसरी पुत्री को सलाह दी-बेटो! तेरा पति दुराराध्य है, इसलिये उसकी आज्ञा का बराबर पालन करना और सावधानीपूर्वक देवता की तरह उसकी सेवा करना। इस प्रकार पूर्वोक्त युक्ति से ब्राह्मणी ने अपने जमाइयों के स्वभावों को जान लिया। 2. विलासवती गणिका की कथा किसी नगर में एक गणिका रहती थी, जिसका नाम विलासवती था। वह चौंसठ कलाओं में निपुण थी। उसने अपने यहाँ आने वालों का अभिप्राय जानने के लिये अपने रतिभवन में दीवारों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रियायें करते विविध जाति के पुरुषों के चित्र लगवाये थे। जो पुरुष वहाँ प्राता वह उसे अपने जात्युचित चित्र के निरीक्षण में तन्मय देखकर उसकी रुचि, जाति, स्वभाव आदि को समझ जाती थी और उसी के अनुरूप उस पुरुष के साथ वर्ताव कर उसका आदर-सत्कार करके प्रसन्न कर देती थी / परिणामस्वरूप उसके यहाँ पाने वाले व्यक्ति प्रसन्न होकर इनाम में खूब द्रव्य देते थे। 3. सुशील अमात्य को कथा किसी नगर में भद्रबाहु नाम का राजा राज्य करता था। उसके अमात्य का नाम सुशील था / वह परकीय मनोगत भावों को जानने में निपुण था। एक दिन अश्वक्रीडा करने के लिये अमात्य सहित राजा नगर के बाहर गया। चलते-चलते रास्ते के किनारे बंजर भूमि में घोड़े ने लघुशंका (पेशाब) कर दी। वह मूत्र वहाँ जैसा का तैसा भरा रहा, सूखा नहीं। अश्वक्रीड़ा करने के बाद राजा पुनः उसी रास्ते से वापस लौटा / तब भी मूत्र को पहले जैसा भरा देख कर राजा के मन में विचार आया यदि यहाँ तालाब बनवाया जाय तो वह हमेशा जल से भरा रहेगा। इस प्रकार का विचार करता-करता राजा बहुत देर तक उस भूमि-भाग की ओर ताकता रहा और उसके बाद अपने महल में लौट आया / चतुर अमात्य राजा के मनोगत भावों को बराबर समझ रहा था / उसने राजा से पूछे विना 20 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 [अनुयोगद्वारसूत्र ही उस स्थान पर एक विशाल तालाव बनवाया और उसके किनारे षड् ऋतुओं के फल-फूलों वाले वृक्ष लगवा दिये। - इसके बाद किसी समय पुनः राजा अमात्य सहित उसी रारते पर घूमने निकला / वृक्ष-समूह से सुशोभित जलाशय को देखकर राजा ने अमात्य से पूछा-यह रमणीक जलाशय किसने बनवाया है ? अमात्य ने उत्तर दिया-महाराज ! अापने ही तो बनवाया है / अमात्य का उत्तर सुनकर राजा को ग्राश्चर्य हुआ। वह बोला--सचमुच ही यह जलाशय मैंने बनवाया है ? जलाशय बनवाने का कोई प्रादेश मैंने दिया हो, याद नहीं है। अमात्य ने पूर्व समय की घटना की याद दिलाते हुए बताया—महाराज! इस स्थान पर बहुत समय तक मूत्र को विना सूखा देख कर आपने यहाँ जलाशय बनवाने का विचार किया था। आपके मनोभावों को जानकर मैंने यह जलाशय बनवा दिया है। अपने अमात्य की दुसरे के मनोभावों को परखने की प्रतिभा देख कर राजा बहुत प्रसन्न हया और उसकी प्रशंसा करने लगा। (यह तीनों अप्रशस्त भावोपक्रम के दृष्टान्त हैं / ) Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ कालगणना की संज्ञाओं एवं अनुक्रम में विविधता क्रम. तिलोयपण्णत्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति अनुयोगद्वारसूत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (श्वे.) ज्योतिष करण्डक समय समय समय प्रावलिका समय आवली पावली समय प्रावलि उच्छ्वास प्राण (निश्वास) स्तोक प्रान उच्छवाम स्तोक मानप्राण स्तोक उच्छ्वास स्तोक लव नालिका प्राण स्तोक लव लव लव लव मुहूर्त नाली मुहूर्त दिवस मुहूर्त अहोरात्र अहोरात्र नाली मुहूर्त दिवस वक्ष 8. 9. पक्ष मुहूर्त अहोरात्र पक्ष मास माम मास 10. पक्ष ऋतु ऋतु सवत्सर मास माम अयन अयन पूर्वाग पूर्व ऋतु वर्ष संवत्सर अयन युग लतांग वर्ष लता महालतांग ऋतु 13. प्रयन वर्ष 15. युग वर्षदशक 17. वर्षशत 18. वर्षसहस्र दशवर्षसहस्र वर्षलक्ष 21. पूर्वाग 22. पूर्व 23. नियुतांग 24. नियुत युग दसवर्ष वर्षशत वर्षसहस्र दशवर्षसहस्र वर्षशतसहस्र पूर्वांग वर्षशत वर्षसहस्र वर्षणतसहस्र पूर्वा वर्षशत वर्षसहत्र पूर्व वर्षशतसहस्र त्रुटितांग अटित अडडांग महालता नलिनांग नलिन महान लिनाग महानलिन पद्मांग पद्म महापदनांग महापद्म पूर्वाग पूर्व पर्वाग पर्व अडड ऋटितांग नयुतांग अवांग शुटित नयुत प्रवव Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47.] [अनुयोगद्वारसूत्र 25. कुमुदांग अटटांग कुमुदांग हूहू अंग कमलांग अटट कमल अवांग उत्सलांग पद्मांग 28. पद्म 29. नलिनांग अवन कुमुद पदमांग पद्म नलिनांग नलिन उत्पल महाकमलांग महाकमल कुमुदांग हूहूकांग पद्मांग नाल नलिन पदम कुमुद उत्पलांग कमलांग कमल महाकुमुदांग महाकुमुद त्रुटितांग 34. 31. कमलांग 32. कमल 3. त्रुटितांग त्रुटित 35. अटटांग 36. अटट अममांग त्रुटितांग त्रुटित अटटांग त्रुटित Wow moxw For or अटट महाश्रुटितांग महात्रुटित अडडांग ग्रममाग नलिनांग नलिन अस्थिनेपुरांग अत्थिने पुर प्राउअग (अयुतांग) प्राउ (अयुत) नयुतांग नयुत प्रयुतांग प्रयुत चलितांग चलित शीर्षप्रहेलिकांग शीर्ष प्रहेलिका प्रमम अडड 39. उत्पल पद्मांग पद्म नलिनांग नलिन अर्थनिपुरांग अर्थनिपुर प्रयतांग अयुत नयुतांग नयुत प्रयुक्तांग प्रयुत चूलिकांग चूलिका शीर्षप्रहेलिकांग जीर्षप्रहेलिका हाहांग हाहा हूहूअंग 8, अमम हाहांग हाहा हुहुअंग 42. लतांग 44. लता महालतांग महाअडदांग महाअडड ऊहांग 43. लतांग . लता महाऊहांग महाऊह शीर्षप्रहेलिकांग शीर्षप्रहेलिका 45. 47. 48. महालता श्रीकल्प हस्तप्रहेलित अचलात्म महालतान महालता शीर्षप्रकंपित हस्तप्रहेलित अचलात्म x xxx x xxx 9. 30 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ गाथानक्रम सूत्रांक 260 اس لله 286 546 ا ل 09. 0 0ww 9 ا ل م له بهر 262 262 260 226 332 I w w w xxx.rror w n m ir r in 387 गाथांश अक्ख रसम पयसयं अग्गि 1 पयावइ 2 सोमे 3 अज्झप्पस्साऽऽणयणं अब्भस्स निम्मलतं अब्भुयतरमिह एत्तो अभिई 20 सवण 21 धणिट्टा अवणय गिण्ह य एत्तो असुइ कुणवदुईसण असुइमलभरिय निज्मर अह कुसुमसंभवे काले अंकारंत धन्न अंगुल विहत्थि रयणी अंति य इति य उ ति य प्राकारता माला आकारंतो राया प्रादिमउ प्रारभता प्राभरण-वत्थ-गधे प्रावस्सगस्स एसो आवस्सयं अवस्सकरणिज्ज इङ्गिताकारितज्ञेयः इच्छा १–मिच्छा २–तहक्कारो 3 उत्तरमंदा रयणी उद्देसे 1 निसे य२ उर-कंठ-सिरविसुद्ध उरग-गिरि-जलण-सागर एए णव कबरसा एएसि पल्लाणं एएसिं पल्लाणं एएसि पल्लाण 260 एएसि पल्लाणं 397 एएसि पल्लाण एएसि पल्लाणं कत्तिय 1 रोहिणि 2 मिगसिर 3 कम्मे 1 सिप्प 2 सिलोए 3 / किं 13 काविहं 14 कस्स 15 कहि 16 कि लोइयकरणीयो कुरु-मंदर-ग्रावासा केसी गायति महुरं कोहे माणे माया गण काय निकाय खंध गब्भम्मि पुवकोडी गंधारे गीतजुत्तिण्णा चउचलणपतिढाणा 260 चंडाला मुट्टिया मेता 260 छद्दोसे अट्ठ गुणे 260 जत्थ य जं जाणेज्जा जस्स सामाणिनो अप्पा जह तुब्भे तह अम्हे जह दीवा दीवसतं जह मम ण पियं दुक्खं जंबुद्दीवानो खलु जंबुद्दीवे लवणे जुण्णसुरा जुम्णगुलो 249 जोयणसहस्स गाउय पुहुत्त 351 जोयणसहस्स छग्गाउयाई 351 जो समो सव्वभूएसु णक्खत्त-देवय-कुले 284 पत्थि य से कोइ वेसो 599 णवि अस्थि णविय होही 260 74 29 447 206 260 WWWXWWW 599 379 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480] [अनुयोगद्वारसूत्र 441 . UPuror or rary or or urururP 599 0 0 0 0 णामाणि जाणि काणि वि णायम्मि गण्हियन्वे णेगेहिं माणेहि ततिया करणम्मि कया तत्थ पढमा विभत्ती तत्थ परिच्चायम्मि य तत्थ पुरिसस्स अंता तं पुण णाम तिविहं तिणि सहस्सा सत्त य तो समणो जइ सुमणो दंडं धण जुग णालिया दंदे य बहुब्बीही धेवय सरमता उ नगरमहादारा इव नंदी य खुड्डिमा पूरिमा नासाए पंचमं बूया निद्देसे पढमा होति निहोसमण समाहाण निहोसं सारवतं च पच्चुप्पन्नगाही पज्झातकिलामिययं परमाणू तसरेणू परिज़रियपेरंत परियरबंधेण भडं परियरबंधेण भड़ पंचमसरमंता उ पंचमी य अपायाणे पासुत्तमसीमंडिय पिविष्पयोग-बंध-वह पुण्ण रत्तं च प्रलंकियं पुरवरकवाडवच्छा भयजणणरूव-सइंधकार भिउडीविडंबियमुहा भीयं दुयमुप्पिच्छं मज्झिमसरमंता उ महुरं विलासललियं मंगी कोरब्बीया माणम्माण-पमाणे ANW000000000000 माता पुत्तं जहा नट्ठ 606 मित्तो 15 इंदो 16 णिरिती 17 606 रिसहेणं तु ए सज्ज 261 . रूब-वय-वेस-भासा वत्थुम्मि हत्थ मिज्ज 226 वत्थो संकमणं विणयोवधार-गुज्झ-गुरु 367 विम्हयकरो अपुल्वो वीरो सिंगारो अब्भो सक्कया पायया चेव सज्जं च अग्गजीहाए सज्ज रवइ मयूरो सज्जं रवइ मुयंगो सज्जेण लहइ वित्ति सज्जे 1 रिसभे 2 गंधारे सत्त पाणणि से थोवे सत्तसरा नाभीनो सत्तस्सरा कतो संभवंति सत्तस्सरा तयो गामा सत्थेण सूतिक्खेण वि सम्भावनिधिकारं समग सावरण य समयाऽऽवलिय-मुहुत्ता समं श्रद्धसम चेव सम्मुच्छ पुषकोडी 260 सम्बेसि पि नयाणं संगहियपिंडयत्थं संतपयपरूबणया""अप्पाबहुं चेव संतपयपरूवणया"अप्पाबहुं चेव संतपयपरूवणया"अप्पाबहुं चेव संतपयपरूवणया""सप्पाबनस्थि संहिता य पदं चेव सामा गायति महर सावज्जजोगविरती सावज्जजोगविरती 262 सिंगारो नाम रसो सिंगी सिही विसाणो सुळुत्तरमायामा / Yururururo Urry 0 . . 365 260 387 . 105 149 www.rrrrrr 09 rur, WW.WORNO 260 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ : गाथानुक्रम] [481 285 सुय सुत्त गंथ सिद्धत सो णाम महावीरो सोलससयाणि चउरुत्तराणि हस्स अणवगल्लस्स 51 हत्थो 11 चित्ता 12 सादो 13 262 हवति पुण सत्तमी तं 606 हीणा वा अहिया वा 367 होंति पुण अहियपुरिसा Pm 150mm Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ विशिष्ट शब्दसूची 202/2 184 320 अजए प्रकसिणखंधे अकिरिया 367 525/3 265 335 14 345/2 260/2 286 471 अक्ख (क्षेत्रमानविशेष) अक्खलिय अक्खे अगणिकाय अग्गजीहा अग्गि अचवखुदंसण अचक्खुदंसणगुणप्पमाण अचक्खुदंसणलद्धी अचक्खुदंसणावरण अचित्तदम्बखंध प्रचित्तदव्वोवक्कम प्रजहण्णमणुक्कोस अजीवगुणप्पमाण अजीवणिस्सिय अजीबोदयनाफन्न प्रज्ज प्रज्जा अज्झयणछक्कबम्ग प्रज्झयण अज्झीण अट्टालग अट्टाढयसतिय अट्टकग्णिय अट्टकम्मपगडी 90) YMMU v9mm SurANYor Um mm orxx अटुपदपरूवणा अट्टभाइया प्रभागपलिग्रोवम अडड अडढुंग प्रणतय अणतगच्छगयाए अणतगुणकक्खड अणंतगुणकालए अणतगुणतित्त अणंतगुणनील अणंतगुणसुरभिगंध अणंतनाणी अणतपएसिय अणंताणत अणागतद्धा अणाणपूवी प्रणादिपारिणामिय अणादियसिद्धांत अणुप्रोग अणगम अर्णत्तरविमाण अणुमाण अगदवियखंध अणोवणिहिया अणोवणिहिया कालाणु पुष्वी अणोवणिहिया खेत्ताणुपुब्बी अणोवणिहिया दवाणुपुवी अत्तागम अस्थणी उरग WWWWWWWWAN . 0 0 0 WWW WWWii 11 WMKHWAN ALI KWWWG86xxx1GG - 06 604 183 158 XWWWX 202 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ : विशिष्ट शम्वसूची) 202 470 132 322 322 322 389 44 wr m mmmm 334 143 320 127 380 138 391 अत्थणीउर अत्थागम अदिति अधम्मत्थिकाय अद्धकरिस अद्धतुला अद्धपल अद्धपलिनोवम अद्धभार अद्धमाणी अद्धा अद्धापलिग्रोवम अद्धासमय अद्धासागरोवम अन्नमनभास अपराजित अपरिग्गहिया अप्पा (प्रात्मा) अप्पा (अल्प) अप्पातंक अप्पाबहु प्रभवसिद्धिय अभिई अभिमुहणामगोत्त अभीरु अमिलिय अमुग्ग अमुद्द अय (अज, नक्षत्रविशेषदेवता) प्रयण अलत्तय अलिद अलोय प्रवकर अवच्चामेलिय अवव (कालमानविशेष) 1483 अववंग (कालमानविशेष) 367 अविघुट्ठ 260 अविरुद्ध (व्रती विशेष) अन्वाइद्धक्खर असती (असती-धान्यमानविशेष) असब्भावठवणा असंखेज्जय 497 असंखेज्जगच्छगय 171 असंखेज्जपएसोगाढ असंखेज्जासंखज्जय 449 असायवेयणिज्ज 244 असिवा असुरकुमार अस्सिणि अस्सिलेसा अस्सोकता अहउत्तरायता (गांधार ग्राम की मूर्छना) अहक्खाय अहम्मपएस अहम्म अहिगरणिसंठाणसंठिय अहीणक्खर अहोलोय अहोलोयखेत्ताणुपुब्बी अंगपविट्ठ अंगबाहिर अंगुल अंगुलपयर अंगोवंग अंडय अंतगडदसा अंतराय अंतोमुहुत्त प्राइक्खग 80 प्राइच्च 460 प्राउकाइन 114 Murmu" 491 26018 anxx 286 367 267 0 250 290 14 367 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484] [अनुयोगद्वारसूत्र w 286 इंदियपच्चक्ख 286 x or w x PX" mr m mow is or p 2 . 247 244 279 508 प्राऊ (नक्षत्रदेवताविशेष) आए मागासस्थिकाय आगासपएस प्राडंबर (वाचविशेष) ग्राहय प्राण प्राणापाण प्राणुपुब्बि आभरण ग्राभिणिबोहियणाणलद्धी आभिणिबोहियणाण आभिणिबोयिणाणावरण आभिप्याउयनाम प्रामलन आमंतणी अायतसंडाणनान प्रायतसंठाणगुणप्पमाण पायसमोयार प्रायंगुल प्रायंगलप्पमाण प्रायाणपद आयार यारण राहणा प्रावकहिय प्रावलिय प्रावसिया प्रावस्सय पास (नक्षत्रदेवताविशेष) पाहारय (म) इक्खाग इच्छा (कार) इड्डर (गृहविभागविशेष) इत्तरिय इंदगी 224 avow AWN6 K " 0 GI WORGG GaloKGK GKKAKC 0 6 KC UGUA Knt 434 ईसाण ईसिपडभारा उकालिय उक्कित्तगाणुपुत्री उच्चागोय उजुसय उट्टि उड्डरेणू उड़ढलोन उडुढलोगखेत्तागुपुवी उण्णिय उत्तरकुरा उत्तरगधारा उत्तरमदा उत्तरवेउन्विय उदइए उदयनिष्फण्ण उद्धारपलिप्रोवम उद्धारसमय उद्धारसागरोवम उपक्कम उप्पण्णणाणदसणधर उप्पल उप्पल (कालमानविशेष) उम्माणपमाण उरपरिसप्प उवक्कम उवघातनिज्जूत्तियणगम उणिहिया उवभोगंतराय उरिमउवरिमगेवेज्जय उरिमगेवेज्जय उरिममज्झिमगेबेज्जय उवरिमहेट्ठिम गेवेज्जय Y Y x x roovs m" 0 om w or o no rx w or w 9 9 w or w 244 391 216 216 286 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ : विशिष्ट शब्दसूची] [485 253 239 206 267 249 202 11 ا س و ه له ती 6 سه م 225 उवसम उवसमनिष्फण्ण उवसंपया उसभखंध उसिणफासणाम उस्साहसण्हिया उस्सप्पिणी उस्ससियसम उस्सेहंगुल उंदु (मुख) उदुरुक्क ऊर्ध्वकर्ण एगगुणकक्खड़ एगगुणकालय एगगुणत्तित्त एगगुणनीलम एगगुणसुरभिगंध एगिदिय एवंभूत प्रोमाण प्रोमाणप्पमाण पोरालियसरीर प्रोवणिहिया प्रोवमसंखा प्रोसप्पिणी ग्रोहानिष्फण्ण प्रोहिदसणगुणप्पमाण कवखडफासगुणप्पमाण कज्जवय कडुयरसणाम कणगसत्तरी कप्पिंद (द्वीपसमुद्रनाम) कप्पोषग कम्म कम्मयसरीर करिसावण 76 . कल्लाल कविहसिय कसायरसणाम कसिणखध कठोटविष्पमुक्क काउस्सग कागणिरयण कागणी (प्रतिमानविशेष) कालप्पमाण कालवण्णनाम कालसमोयार कालसंजोग कालाणुषुव्वी कालोय कालोवक्कम काविल किण्णर किमिराग किंपुरिस किंपुरिसखंध कोडय कुच्छि कुप्पावणिम कुरु कुलम कुसवर कुसुमसंभव n m p nm 10. Nir ow Y or Y Y or. mirior r r irr w. in my ons is x x x in in Mrm9 332 565 318 169 क Wur or 244 केवलणाण केवलणणावरण केवलदसण केवलदसणगुणप्पमाण खइय खयोवसमनिष्फन्न खग्रोवसमिय 471 471 226 44 417 2 301 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486] [अनुयोगद्वारसूत्र 2 5 11 " 241 169 249 605 of WW 202 247 237 खयर खंद खंध खंधदेस खंधपदेस खाइय खीर (बर) खुड्ड्यिा खेत्तपलिअोवम खेत्तप्पमाण खेत्तसागरोवम खेत्ताणु पुवी खेत्तोवक्कम गणणाणुपुवी गणिपिडग गब्भवक्कंतिय गहाविमाण गंधगुणप्पमाण गंधणाम गंधारग्गाम गिल्लि गुजा गेवेज्जन गोत्तकम्म गोमुही गोव्वतिय गोहिया धय (वर) घाइकम्म घाणिदियपच्चक्ख चउजमलपय चउभाइया चउरंससंठाणणाम चरिदिन चवीसत्थन चउसट्टिमा 216 चक्खुदंसणगुणप्पमाण 21 चक्खुरिदियपच्चक्ख 72 चम्मखंडिय 402 चरित्तगुणप्पमाण 476 चरित्तभवणा 113 चरित्तमोहणिज्ज चरित्तलद्धि चंद 395 चंदपरिवेस चालणा चौरिग चूलियंग चोदन 204 चोद्दसपुवी छउमत्थ 216 छउमत्थवीतराग 90 छगच्छगयाए छंदणा 219 छेदोबट्ठावणिय छयणगदाइ जक्ख 328 जल्ल जव जहण्णयपरित्ताणतय जहण्णयपरित्तासंखेज्जय जहन्नय जुत्तासंखेज्जय जाणगसरीरदव्वखंध जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्त जिभिंदियपच्चक्ख 423 जीवगुणप्पमाण जीवस्थिकाय जीवोदयनिष्फन 216 जुगवं 74 जुत्ताणतय 320 जुत्तासंखेज्जन 154 206 472 423 m Mov9. Mor or ur morror romorrow ( " 0 0 m 0 ". 516 366 503 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ : विशिष्ट शब्दसूची] [487 mm जया जोइसिन झवणा or mmr 535 101 " 491 547 284 ठप्पा ठवणाणुपुन्वी ठवणानाम ठाण डोडिणी णउय णग्गोहमंडल पदीयो णिद्धफासणाम णिरिति 593 198 367 205 169 324 471 247 246 णंगम 286 97 437 286 थणितकुमार थिल्लि थोव दव्वखध दवझवणा दव्वज्झीण दवफ्माण दव्वसामाइय दवाणुगम दव्वाणुपुव्वी दंड दंसणगुणप्पमाण दसणलद्धि दसणावरणिज्ज दाणंतराय दाहिणवभरह दिट्टसाहम्म दिट्टिवाय दिसादाघ दुगुणकक्खड दुगुणकालय दुगुण तित्त दुगुणनील दुगुणसुरभिगंध दुवालसंग दूसमय दूसमदूसमय दूसमसुसमय 475 440 398 mr ur m or mr Nrn mro 249 225 225 225 225 225 गोइंदियपच्चक्ख तट्टा तमतमप्पभा तसकाइ तसरेण तहक्कार तंससंठाणनाम तिकडुग तिगच्छगया तिजमलपय तित्तरसणाम तिपएसिय तिमहर तिरियलोयखेत्ताणुपुत्री तुडिय तुड़ियंग तुला तूणइल्ल तेइंदिय तेउकाइय तेयगसरीर ا ل 278 278 م ل Your Mo0 0 Coor or 304 ل देवकूरा दोणमुह दोण 267 318 285 351 ل धणिट्ठा घण धम्म ه ه 476 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वारसूत्र 488] 503 धम्म धम्मत्यिकाय धम्मपएस ध्रुवणिग्गह 401 476 KAN .. 29 धूमप्पभा 3.67 परिकम्म परित्ताणत परिमंडलसंठाणनाम परिवेस परिवायग परिहारविसुद्धिय पलि उवम पल्ल पसती पंकभापुढत्री पाढलिपुत्त पाण पाण (श्वपच) 0 0 0Ys. لا ل سه पाद ر م. 207 495 We 495 495 .74 नलिणंग नलिण नंदी (द्वीपसमुद्र) नंदी (गान्धारग्राममूर्च्छना) नाप्रो निकाय निष्फाव निमंतणा निरय निसीहिया निहि नोमागम नोखंध पउप्र पच्चक्खाण पडिक्कमण पडिचंदय पडिपक्खपद पडिमाण पडिसूर पढमवग्गमूल पण्णवणा पण्हावागरणाई पत्यगदिद्रुत पत्थय पमाणगुल पयर पयरंगल पयणापयला पयावइ परमाण परमाणुपोग्गल परंपरागम पापय पाय पारिणामिय पाहुड पाहुडपाहुडिया पाहुडिया पुखर पुढविकाइय पूरिस पुत्व पुवविदेह 263 169 216 334 441 344 367 202 351 पुवंग पुब्ध पुहत्त YOm .mmxYY पोमलन्थिकाम पोग्गल परिबट्ट पोत्यकम्म फासणाम फासिदियपच्चक्ख वत्तीसिया बद्धाउय 402 470 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ : विशिष्ट शब्दसूची] [489 बलदेव बहस्सई 462 286 286 355 बंभ 286 G मातिवाहय माहिंद मिच्छादिट्ठी मित्त मियलोमिय मीसदव्वखंध मुच्छणा मुणिसुन्वय मुत्तोली मुरव मुसल / 319 286 285 285 344 250 324 मुहुत्त बंभलो बालपंडियबीरियलद्धी बुद्धवयण बेइंदिय बोंडय भग भइवया भरणी भरह भवसिद्धिय भ गसमुबिकत्तणया भगोवर्दसणया भार भावसामाइय भोग मम्ग मज्झिमउवरिमगेवेज्जय मज्झिमअकुंभ मज्झिमगेज्ज मज्झिमग्गाम मज्झिममज्झिमगेवेज्ज मज्झिमहेटिम गेवेज्ज भणपज्जवणाण मलय मलयतिकार रम्मगवस्स रयणप्पभा रयणी रसगुणप्पमाण रसणाम रहरेणु 475 383 332 431 219 322 598 280 W5 ( 1 Own WoW रंगमझ रामायण रिसभ रुक्क (क्ख) 216 रूवूण mr Y Your brow लहुयफासणाम मल्ली 308 203 262 महावीर महासुक्क महररसगुणप्पमाण मंडलन 432 328 लंतय लासग लक्खफासणाम लेपकाम लेप्पकार लोयायय लोहियवपणनाम बइसेसिय वक्खार 49 220 माड बिय माणो 20 320 169 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490] [अनुयोगद्वारसूत्र 418 458 224 430 वम्गमूल वट्टसंठाणनाम वणातिगिच्छ वणस्सइकाइय वण्णगुणप्पमाण बपणणाम वत्थ वद्धमाण वयण वरुण ववहार वसहिदित 216 203 251 344 0 0 वसु 473 286 404 453 0 0 286 374 347 249 090 0 "osdogrs or 0 वेहम्मोवणीत सक्करप्पभा सचित्तदन्वखंध सचित्तदब्बोवक्कम सज्जग्गाम सद्वितंत सणकुमार सर्गिणवाइय सहसण्ह्यिा सत्थवाह सद्दणय समय समभिरुढ समवाय समुक्कित्तणया समोतार सम्ममिच्छादसणलद्धि सम्मुच्छिम सम्मुच्छिममणुस्स सयंभुरमण सरमइल सविया सव्वट्ठसिद्धय सब्बद्धा सव्ववेहम्म सव्वागाससेढी सहस्सार सखष्पमाण संगह संठाण संतपयपरूवणया संदमाणिय संहिता साइपारिणामिय सागरोवम सामाइय ती वाउकाइय वाउबभाम वाणमंतर वायु वाला वालुपमा पुढवी वासघर वासुदेव वासुपुज्ज विजय विण्ह विभागणिफण्ण विमल विमाणपत्थड वियाहपष्णत्ति विवद्धि विवागसुय विसेसदिट्ठ विस्स वडद वडढसावग वेमाणिय वेयणिज्जकम्म 462 o"o Nmo XxY 463 554 173 10 war00 WWWW 448 606 358 105 336 605 113 216 303 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ : विशिष्ट शब्दसूची] 247 244 260 260 459 421 सूइअंगुल सूरविमाण सेढिवम्गमूल सेतिया सेसवं सोइंदियपच्चक्ख सोम सोलसिया सोवीरा हरिवास 291 262 सामाइयचरित्तलद्धि सायवेयणिज्ज सारकता सारसी साहम्मोवणीय साहा सिंगार सीसपहेलियंग सीसपहेलिया सुठुत्तरमायामा सुत्तालावगनिप्फण्ण सुद्धगंधारा सुद्धसज्जा सुपास सुयक्खंध सुवण्ण सुवण्ण (प्रतिमानविशेष) सुविहि सुसमदूसमय सुहुमग्राउकाइय सुंभम - in m x x x rm n m ir n mor Morror Ymr o rm in हरी 202 260 534 260 260 203 हलिहवण्णनाम हुहुय हुहुयंग 328 203 हेट्ठिमउवरिमगेवेज्ज हेटिमगेवेज्ज हेटिममज्झिमगेवेज्ज हेट्टिमहेट्ठिमगेवेज्ज हेमवय 216 a 385 475 267 ह्रीः 00 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ संज्ञावाचक शब्दानुक्रम 169 3618 355/3 ا 203/2 475 203/2 475 ر سه अच्चुम अच्चुयकप्प अजिय अणंतती अणुप्रोगद्दार अणुत्तरविमाण अणुत्तरोववाइय अणुत्तरोववाइयदसायो अत्ताणुसट्टिकार अद्दइज्ज अपराजित अभिणंदण 50 169 74 266 291/9 203/2 203/2 203/2 अर उप्पल उरिमहेट्टिमगेवेज्ज उवासगदसामो उसभ एरण्णव एरवम एलइज्ज कणगसत्तरी कप्पासिय कास्पद करिसावण काउस्सम्म कालोय किन्नरखंध किंपुरिसखंध कुस कुसवर कुडल कंथ को किरिया कोडिल्लय कोंचबर खंद खीर खोय गंगा गिरिणगर गिहिधम्म गेवेज्ज विमाण गोतम 169 344 263 169 203/2 8 onor 391/7 अरटुणेमी अरुणवर अवरविदेह असंखयं अहातत्थिज्ज अंतगड़दसाम्रो प्राणन (त) आभरण पायार पारण आवस्सगसूयक्खंध आवंती आवास ईसाण ईसिपब्भारा उत्तरडभरह or 21 173 169 266 169 343/4 307 21 173 173 475 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : संज्ञावाचक शब्दानुक्रम] 21 266 381/4 74 21 21 169 203/2 धम्मचितग धम्मो (दशकालिक का अध्ययन) धाय धमप्पभा नक्खत्त नंदी (द्वीप-समुद्र) नाग (देव) नाग (द्वीप-समुद्र) नागसुहुम नायाधम्मकहा निहि पउम पउमप्पभ पण्हावागरण पंकप्पभा पंडरंग पाडलिपुत्त पाणय पाणत 21 169 203/2 266 266 391/9 गोब्बतिय घय घोडमुह चउवीसत्थत्र चम्मखंडिय चरंग चंद चंदप्पह चातुरंगिज्जं चीरिग चीरिय जण्ण इज्ज जमईयं जय त जंबुद्दीव जोइसी जोतिसिय ठाण णमी णागकुमार तगरा तगरायड़ तमतमप्पभा तमतमा तमपुढवी तमप्पभा तमा तरंगवतिकार तिलय थणितकुमार दाहिणड्ढभरह दिढुिवान देव (द्वीप-समुद्र) देवकुरा देवकुरु 390/1 354 475 391/7 173 203/2 पास पुक्खर 203/2 2843 307 307 165 पुक्खलसंवटूय पुरिसइज्ज पुश्वविदेह बंभलोग्र बिंदुकार 683/4 343/3 266 344 173 308 49 307 344 बुद्धक्यण 347/5 308 बेन्नायड भरह 49 348/2 169 475 169 भारह मुयगवर भूय (द्वीप-समुद्र) मग्ग मलयवतिकार मल्ली महावीर महासुबक 475 203/2 358 173 203/2 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494] [अनुयोगद्वारसूत्र वेद 468 307 21 मंदर माटर माहिंद मुगुंद मुणिसुन्वन रम्मगवस्स रयण रयणप्पभा रामायण 49 173 21 203/2 475 169 165 38/3 me 49 173 or 26 रुयग लवण लंतय लोयायय वइसेसिय वक्खार वद्धमाण वेदिस वेसमण वेसिय सक्करभा सद्वितंत सणकुमार समवान समोसरण सयंभरमण सव्वदसिद्ध सहस्सार संती संभव सामाइय सावग सिव सीतल सुपास सुमती सुविही सूयगड सूर 173 203/2 203/2 49 74 203/2 21 203/2 203/2 203/2 389 389 165 169 203/2 203/2 सेज्जंस वाणमंतर वाण मंतरी वालुयप्पभा वासहर वासुपूज्ज विजय विमल वियाहपण्णत्ति विरुद्ध विवागसुय बीरिय बुड्ढ वेजयंत 203/2 173 203/2 M0 . सोहम्म हरिवस्स हरिवास हेटिमहेट्ठिमगेवेज्ज हमव हेमवय हेरण्णवय 375 344 344 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए प्रागमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है।। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है / वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य पार्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी प्रागमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा-उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, विज्जुते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्धाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा-अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो पोरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहि सज्झायं करित्तए, तं जहाप्रासाढपाडिवए. इंदमहपाडिवए, कत्तिपा डिवए सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तंजहा---पढिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरते / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुवण्हे अवरण्हे, पोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा को पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तोस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे---- आकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 2. दिग्दाह- जब तक दिशा रक्तवर्ण को हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में प्राग सी लगो है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित बादलों के गई पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। 4. विद्युत-बिजली चमकने पर. एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए / क्योंकि वह Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496] [अनध्यायकाल गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है / अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्यात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक---शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या को प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है, वह यक्षादीप्त कहलाता है / अतः अाकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है / जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / 10. रज-उद्घात-बायु के कारण प्राकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। प्रौदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13. हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से ये वस्तुएं उठाई न जाएँ, तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार प्रास-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं वालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है / 14. अशुचि--मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है / Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [497 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें / 20. प्रौदारिक शरीर--उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सब और चार महाप्रतिपदा-प्राषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूणिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमानों के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26.32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक धड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 00 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों को शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजो मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी महता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा. 10. श्री एस. बादलचन्दजी चारडिया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, भद्रास 6. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चंदणी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15 श्री पार. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17 श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनादगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16 श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा. 8. श्री बद्ध मान इण्डस्ट्रीज, कानपूर टोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजो बालिया, 6. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपडा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी W/o श्री ताराचन्द जी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, अागरा 24. श्रा जवरालालजा अमरचन्दजा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवर चंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेडतासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जडावमलजी सगनचंदजी. मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45 श्री सुरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री प्रासूमल एण्ड कं०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़ता सिटी सांड, जोधपुर 2 श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 35 श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया जोधपूर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 ] [ सदस्य-नामावली 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा,भिला: 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलाराम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्रो कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणो, करणगुल्ली 76. श्री मारणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 22. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 3. श्री फकोरचदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84, श्री माँगीलालजी मदनलालजी चोरडिया,भैरूदा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 89. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जगराजजी बाफना. बैंगलोर 60. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 64. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलौर राजनादगाँव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 66. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 67. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनादगाँव Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [501 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी मारणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालाल जी 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादू बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराज जी नाहरभलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलाल जी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरू दा 126. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरमोलाव 127 श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128 श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 07 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत 'च्याख्या-प्रज्ञप्ति' जैनों का भगवतीसूत्र है। यह अद्धमागधी प्राकृत में निबद्ध नागमों में पांचवां तथा विशालकाय विशिष्ट रचना है / जैनदर्शन के आधारभूत सिद्धान्त स्याद्वाद का बीज सर्वप्रथम इसी में / मिलता है / इसके अलावा यह जैन इतिहास, संस्कृति एवं विविध विद्यानों, कलाओं तथा अन्यान्य विषयों का अद्भुत विश्वकोश है। मुद्रण एवं छपाई के आकर्षक होने के साथ ही साथ सुवाच्य अनुवाद, प्रत्युत्तम विषय प्रतिपादन शैली एवं अत्यन्त उपयोगी पाद-टिप्पणों का मनोरम त्रिवेणी संगम भजनीय है। वाणीभूषण मुनिश्री अमरजी महाराज बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनकी सम्पादनक्षमता एवं उच्चकोटि / की विद्वत्ता सराहनीय है। निस्संदेह उनका यह सफल प्रयास आध्यात्मिक विकास एवं सांस्कृतिक चेतना के क्षेत्र में शोधमुमुक्षुत्रों को अधिक लाभान्वित करेगा। इस सुश्रुत सेवा के प्रादि प्रेरणास्रोत एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य, बहुश्रुत मुनिश्री मधुकरजी महाराज तथा प्रकाशन संस्था को शतशः साधुवाद / -डॉ.धर्मचन्द जैन, एम. ए. (संस्कृत, पाली), पी. एच. डी. प्राचार्य (संस्कृत, जैनदर्शन) कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम पृष्ठ 426 508 250 640 प्रन्यांक नाम 1. आचारांगसूत्र [प्र. भाग] 2. आचारांगसूत्र [द्वि. भाग] 3. उपासकंदशांगसूत्र 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र 6. अनुत्तरोपपातिकसूत्र 7. स्थानांगसूत्र 8. समवायांगसूत्र 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 10. सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 11 विपाकसूत्र 248 120 124 562 280 208 12 नन्दीसूत्र 252 13. प्रौपपातिकसूत्र 242 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 568 15. राजप्रश्नीयसूत्र 284 16. प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] 568 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र 356 अनुवादक-सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' श्रीचन्द सुराना 'सरस' डॉ. छगनलाल शास्त्री पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल साध्वी दिव्यप्रभा साध्वी मुक्तिप्रभा पं० हीरालाल शास्त्री पं० हीरालाल शास्त्री धीचन्द सुराना 'सरस' धीचन्द सुराना 'सरस' अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अनु. साध्वी उमरावकुवर 'अर्चना' 28) सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. डॉ. छगनलाल शास्त्री अमरमुनि वाणीभूषण रतनमुनि जैनभषण ज्ञानमुनि अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अमरमुनि राजेन्द्रमुनि शास्त्री जैनभूषण ज्ञानमुनि देवकुमार जैन प्रमरमुनि महासती पुष्पवती महासती सुप्रभा एम. ए., शास्त्री अमरमुनि डॉ. छगनलाल शास्त्री जैनभूषण ज्ञानमुनि उपाध्याय श्री केवलमुनि 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि. भाग] 666 19. उत्तराध्ययनसूत्र 842 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 21. निरयावलिकासूत्र 176 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र[तृ. भाग] 836 23. दशवकालिकसूत्र 532 24. आवश्यकसूत्र 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चतुर्थ भाग] 908 26. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 478 27. प्रज्ञापनासूत्र [तृ. भाग] 368 / 28. अनुयोगद्वारसूत्र 550 188 For Private & Personal use only sow.jainelibrary.org