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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण 1409 [496 प्र.] भगवन् ! ज्ञानसंख्या का क्या स्वरूप है ? [496 उ.] अायुष्मन् ! जो जिसको जानता है उसे ज्ञानसंख्या कहते हैं / जैसे कि---शब्द को जानने वाला शाब्दिक, गणित को जानने वाला गणितज-गणिक, निमित्त को जानने वाला नैमित्तिक, काल को जानने वाला कालज्ञानी (कालज्ञ) और वैद्यक को जानने वाला वैद्य। यह ज्ञानसंख्या का स्वरूप है। विवेचन -जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाता है-निश्चय किया जाता है, उसे ज्ञान और इस ज्ञान रूप संख्या को ज्ञानसंख्या कहते हैं। जैसे देवदत्त आदि जिस शब्द आदि को जानता है, वह उस शब्दज्ञान बाला आदि कहा जाता है। यह कथन ज्ञान और ज्ञानी में अभेदोपचार की अपेक्षा जानना चाहिये। इसी को ज्ञानसंख्या कहते हैं / अब गणनासंख्या का स्वरूपनिरूपण करते हैं / गणनासंख्यानिरूपरण 467. से कि तं गणणासंखा? गणणासंखा एक्को गणणं न उवेति, दुप्पभितिसंखा। तं जहा—संखेज्जए असंखेन्जए अणंतए। [497 प्र. भगवन् ! गणनासंख्या का क्या स्वरूप है ? 6497 उ.] आयुष्मन् ! (ये इतने हैं, इस रूप में गिनती करने को गणनासंख्या कहते हैं।) 'एक' (1) गणना नहीं कहलाता है इसलिये दो से गणना प्रारंभ होती है। वह गणनासंख्या 1. संख्यात, 2. असंख्यात और 3. अनन्त, इस तरह तीन प्रकार की जानना चाहिये / विवेचन--'ये इतने हैं' इस रूप से गिनती को गणना कहते हैं और यह गणनारूप संख्या गणनासंख्या कहलाती है।' यह गणना दो से प्रारम्भ होती है। एक संख्या तो है किन्तु गणना नहीं है। क्योंकि एक घटादि पदार्थ के दिखने पर घटादिक रखे हैं ऐसा कहा जाता है किन्तु 'एक संख्या विशिष्ट यह घट रखा है' ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अथवा लेन-देन के व्यवहार में एक वस्तु प्राय: गणना की विषयभूत नहीं होती है, इसलिये असंव्यवहार्य अथवा अल्प होने के कारण एक को गणनासंख्या का विषय नहीं कहा जाता है। यह गणनासंख्या संख्येय (संख्यात), असंख्येय (असंख्यात) और अनन्त के भेद से तीन प्रकार की है / जिनका अब अनुक्रम से विस्तृत वर्णन करते है। संख्यात प्रादि के भेद 468. से कि तं संखेज्जए ? संखेज्जए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा—जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए। [498 प्र.] भगवन् ! संख्यात का क्या स्वरूप है ? ___1. 'एतावन्त एते' इति सङ्ग ख्यानं गणना सङख्या। -अनु. मलधारीया वृत्ति पत्र 234 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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