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________________ 232] [अनुयोगद्वारसूत्र [317 प्र.] हे भगवन् ! मानप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [317 उ.] अायुष्मन् ! मानप्रमाण दो प्रकार का है-१. धान्यमानप्रमाण और 2. रसमानप्रमाण। विवेचन-विवेचन करने की विधा के अनुसार यहाँ मानप्रमाण का विस्तार से वर्णन करने के लिये उसके दो भेद किये हैं। इन दोनों भेदों में से पहले धान्यमानप्रमाण का निरूपण किया जाता है। धाग्यमानप्रमाण 318. से कि तंधण्णमाणप्पमाणे? धण्णमाणप्पमाणे दो असतोओ पसती, दो पसतीओ सेतिया, चत्तारि सेतियाओ कुलओ, चत्तारि कुलया पत्थो, चत्तारि पत्थया आढयं, चत्तारि आढयाई दोणो, सढेि आढयाइं जहन्नए कुभे, असीतिआढयाई मज्झिमए कुने, आडयसतं उक्कोसए कुमे, अट्ठाढयसतिए वाहे / [318 प्र.] भगवन् ! धान्यमानप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [318 उ.] आयुष्मन् ! (वह असति, प्रसृति आदि रूप है, अतएव) दो असति की एक प्रसति होती है, दो प्रसति की एक सेतिका. चार सेतिका का एक कडब, चार कडब का एक प्र प्रस्थों का एक प्राढक, चार पाठक का एक द्रोण, साठ आढक का एक जघन्य कुंभ, अस्सी पाठक का एक मध्यम कुंभ, सौ आढक का एक उत्कृष्ट कुंभ और आठ सौ आढकों का एक बाह होता है। 316. एएणं धण्णमाणप्पमाणेणं कि पयोयणं ? एतेणं धण्णमाणप्पमाणेणं मुत्तोली-मुरव-इड्डर-अलिंद-अपवारिसंसियाणं धण्णाणं धण्णमाणप्पमाणनिवित्तिलक्खणं भवति / से तं धण्णमाणप्पमाणे। [319 प्र.] भगवन् ! इस धान्यमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? [319 उ.] आयुष्मन् ! इस धान्यमानप्रमाण के द्वारा मुक्तोली (ऐसी कोठी जो खड़े मदंग के प्राकार जैसी ऊपर-नीचे संकडी और मध्य में कछ विस्तृत, चौड़ी होती है), मुरव (सुत का बना हुआ बड़ा बोरा, जिसे कहीं कहीं 'फट्ट' भी कहते हैं और उसमें अनाज भरकर बेचने के लिये मंडियों, बाजारों में लाया जाता है),इड्डर (खास--यह बकरी ग्रादि के बालों, सूत या सूतली की बनी हुई होती है और इसमें अनाज भरकर पीठ पर लाद कर लाते है, कहीं-कहीं इसे गुण, गोन, कोथला या बोरा भी कहते हैं), अलिंद (अनाज को भरकर लाने का बर्तन, पात्र, डलिया आदि) और अपचारि (बंडा, खंती, धान्य को सुरक्षित रखने के लिये जमीन के अन्दर या बाहर बनायी गयी कोठी, अाज की भाषा में 'सायलो' ) में रखे धान्य के प्रमाण का परिज्ञान होता है। इसे ही धान्यमानप्रमाण कहते हैं। विवेचन धान्यविषयक मान (माप) धान्यमानप्रमाण कहलाता है। वह असति, प्रसृति आदि रूप है / असति यह धान्यादि ठोस वस्तुओं के मापने की आद्य इकाई है। टीकाकार ने इसे अवाङ मुख हथेली रूप कहा है। आगे के प्रसृति आदि मापों की उत्पत्ति का मूल यह असति है, इसी से उन सब मापों की उत्पत्ति हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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