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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण | [231 आकाशास्तिकाय - अनन्त प्रदेश __काल द्रव्य - अप्रदेशी (एक प्रदेशमात्र) पुद्गलास्तिकाय-संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश / ' विभागनिष्पन्नद्रव्यप्रमारण 316. से कि तं विभागनिष्फणे? विभागनिष्फग्णे पंचविहे पण्णते। तं जहा—माणे 1 उम्माणे 2 ओमाणे 3 गणिमे 4 पडिमाणे 5 / [316 प्र.] भगवन् ! विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण क्या है ? [316 उ.] आयुष्मन् ! विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण पाँच प्रकार का है। वह इस प्रकार१. मानप्रमाण 2. उन्मानप्रमाण 3. अवमानप्रमाण 4. गणिमप्रमाण और 5. प्रतिमानप्रमाण / विवेचन--सूत्र में भेदों के माध्यम से विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण का वर्णन प्रारम्भ करने का निर्देश किया है। विशिष्ट अथवा विविध भाग-भंग-विकल्प-प्रकार को विभाग कहते हैं। अतएव जिस द्रव्यप्रमाण की निष्पत्ति-सिद्धि स्वगत प्रदेशों से नहीं किन्तु विभाग के द्वारा होती है, वह विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि धान्यादि द्रव्यों के मान आदि का स्वरूप निर्धारण स्वगत प्रदेशों से नहीं किन्तु 'दो असई की एक पसई' इत्यादि विभाग से होती है, तब उसको विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहते हैं / मान आदि के अर्थ इस विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के पांचों प्रकारों के अर्थ इस प्रकार हैं-- मान--द्रव्य-तरल तेल आदि तथा ठोस धान्य आदि को मापने का पात्रविशेष / उन्मान--- तोलने की तराज आदि / अवमान-क्षेत्र को मापने के दण्ड, गज आदि / गणिम–एक, दो, तीन आदि गणना (गिनती)। प्रतिमान-जिसके द्वारा स्वर्ण आदि पदार्थों का वजन किया जाये अथवा आगे के मानों की व्यवस्था की आद्य इकाई। तत्त्वार्थराजवार्तिक में गणना प्रमाण की अपेक्षा उक्त पांच भेदों के अतिरिक्त तत्प्रमाण' नामक एक छठा भेद और बताया है और उसकी व्याख्या की है—मणि आदि की दीप्ति, अश्वादि की ऊंचाई आदि गुणों के द्वारा मूल्यनिर्धारण करने के लिये तत्प्रमाण का उपयोग होता है / जैसे मणि की प्रभा ऊंचाई में जहाँ तक जाये, उतनी ऊंचाई तक का स्वर्ण का ढेर उसका मूल्य है, इत्यादि / मानप्रमाण 317. से कि तंमाणे? माणे दुविहे पणते / तं जहा-धन्नमाणप्पमाणे य 1 रसमाणप्पमाणे य 2 / 1. तत्त्वार्थ सूत्र 5/7-11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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