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________________ 230] अनुयोगद्वारसूत्र उसे द्रव्यप्रमाण कहते हैं और उसमें जो एक, दो, तीन आदि प्रदेशों से निष्पन्न-सिद्ध हो उसे प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहते हैं / इस प्रदेश निष्पन्न द्रव्यप्रमाण में परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध तक के सभी द्रव्यों का समावेश है। परमाणु एक प्रदेश वाला है, उससे लेकर दो, तीन, चार आदि यावत् अनन्त परमाणु प्रों के संयोग से निष्पन्न स्कन्ध प्रमाण द्वारा ग्राह्य होने के कारण प्रमेय हैं, तथापि उनको भी रूढिवशात प्रमाण इसलिये कहते हैं कि लोक में ऐसा व्यवहार देखा जाता है। यथा-जो द्रव्य धान्यादि द्रोणप्रमाण से परिमित होता है, उसे यह 'धान्य द्रोण' है ऐसा कहते हैं / क्योंकि 'प्रमीयते यत्तत् प्रमाणम्जो मापा जाये, वह प्रमाण' इस प्रकार की कर्मसाधन रूप प्रमाण शब्द की वाच्यता इन परमाणु आदि द्रव्यों में संगत हो जाती है / इसीलिये वे भी प्रमाण कहे जाते हैं / इसके अतिरिक्त जब 'प्रमीयतेऽनेन इति प्रमाणम्' इस प्रकार से प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति करणसाधन में की जाती है तब परमाणु आदि द्रव्यों का एक, दो, तीन आदि परमाणुओं से निष्पन्न स्वरूप मुख्य रूप से प्रमाण होता है। क्योंकि वे उसके द्वारा ही जाने जाते हैं तथा इस स्वरूप के साथ सम्बन्धित होने के कारण परमाणु आदि द्रव्य भी उपचार से प्रमाणभूत कहे जाते हैं। जब प्रमाण शब्द की 'प्रमितिः प्रमाणम्' इस प्रकार से भावसाधन में व्युत्पत्ति की जाती है तब प्रमिति प्रमाण शब्द की वाच्य होती है और प्रमिति, प्रमाण एवं प्रमेय के अधीन होने से प्रमाण और प्रमेय उपचार से प्रमाण शब्द के वाच्य सिद्ध होते हैं / इस प्रकार कर्मसाधन पक्ष में परमाणु आदि द्रव्य मुख्य रूप से एवं करण और भाव साधन पक्ष में वे उपचार से प्रमाण हैं / इसीलिये परमाणु आदि को प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहा है। परमाणु आदि में प्रदेशनिष्पन्नता स्वगत प्रदेशों से ही जाननी चाहिये / क्योंकि स्वगत प्रदेशों के द्वारा ही प्रदेशनिष्पन्नता का विचार किया जाना सम्भव है। प्रदेश का लक्षण-आकाश के अविभागी अंश को प्रदेश कहते हैं / अर्थात् आकाश के जितने भाग को एक अविभागी पुद्गल परमाणु धेरता है, उसे प्रदेश' तथा जो स्वयं आदि, मध्य और अन्तरूप है, ऐसे निविभाग (पुद्गल) द्रव्य को परमाणु कहते हैं / ऐसे एक से अधिक दो आदि यावत् अनन्त परमाणुओं के स्कन्धन-संघटन से निष्पन्न होने वाला पिंड स्कन्ध कहलाता है। यहाँ प्रदेशनिष्पन्न के रूप में मूर्त---रूपी पुद्गल द्रव्य को ग्रहण किया गया है / क्योंकि उसी में स्थूल रूप से पकड़ने, रखने आदि का व्यापार प्रत्यक्ष दिखलाई देता है। जैनागमों में मूर्त और अमूर्त सभी द्रव्यों के प्रदेशों का प्रमाण इस प्रकार बतलाया हैधर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेश अधर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेश (एक) जीवास्तिकाय - असंख्यात प्रदेश 1. द्रव्यसंग्रह गा. 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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