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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण 229 जाता है। जब प्रत्येक द्रव्य प्रदेशवान् है तो उसका अवस्थान-प्राधार बताने के लिये क्षेत्र का और उस द्रव्य का उसी पर्याय रूप में अवस्थित रहने के समय का निर्धारण करने के लिये काल का एवं वस्तु के असाधारण भाव--स्वभाव-स्वरूप को जानने के लिये भाव का परिज्ञान होना आवश्यक है / इन चारों प्रकारों से ही पदार्थ का अस्तित्व पूर्ण या विशद रूप से जाना जा सकता है या समझाया जा सकता है / इसी कारण जैनदर्शन में प्रत्येक विषय के वर्णन की ये चार मुख्य अपेक्षाएं हैं। साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि प्रमाण शब्द यहाँ न्यायशास्त्रप्रसिद्ध अर्थ का वाचक नहीं किन्तु व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। जिसके द्वारा कोई वस्तु मापी जाए, नापी जाए, तोली जाए या अन्य प्रकार से जानी जाए वह भी प्रमाण है / यह बात मूलपाठोक्त प्रमाण के चार भेदों से स्पष्ट है। इस प्रकार सामान्य रूप से प्रमाण के भेदों का निर्देश करने के पश्चात् अब उनका विस्तार से वर्णन प्रारम्भ किया जाता है / द्रव्यप्रमाण प्रथम है, अतएव पहले उसी का विचार करते हैं / द्रव्यप्रमाणनिरूपण 314. से कि तं दध्वपमाणे? दव्वपमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पदेसनिष्फण्णे य 1 विभागनिष्फण्णे य 2 / [314 प्र.] भगवन् ! द्रव्यप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [314 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्यप्रमाण दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, यथा-प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न / विवेचन-शिष्य ने प्रश्न किया है कि भगवन् ! प्रमाण के चार भेदों में से प्रथम द्रव्यप्रमाण का क्या स्वरूप है ? और उत्तर में आगमिक शैली के अनुसार बताया कि द्रव्य विषयक प्रमाण दो प्रकार का है—१. प्रदेश निष्पन्न और 2. विभागनिष्पन्न / __ इस प्रकार से द्रव्यप्रमाण के दो भेदों को जानकर शिष्य पुनः उन दोनों के स्वरूपविशेष को जानने के लिये पहले प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण बिषयक जिज्ञासा प्रस्तुत करता है / प्रदेशनिष्यन्नद्रव्यप्रमाण 315. से कि तं पदेसनिष्फण्णे? पदेसनिप्फण्णे परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव दसपएसिए संखिज्जपएसिए अखिन्जपएसिए अणंतपदेसिए / से तं पदेसनिष्फण्णे / [315 प्र.] भगवन् ! प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [315 उ.] आयुष्मन् परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशों यावत् दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों, असंख्यात प्रदेशों और अनन्त प्रदेशों से जो निष्पन्न-सिद्ध होता है, उसे प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण कहते हैं। विवेचन द्रव्य विषयक प्रमाण को द्रव्यप्रमाण कहते हैं, अर्थात् द्रव्य के विषय में जो प्रमाण किया जाए अथवा द्रव्यों का जिसके द्वारा प्रमाण किया जाये या जिन द्रव्यों का प्रमाण किया जाए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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