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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [233 यद्यपि अधोमुख रूप से व्यवस्थापित हथेली का नाम असति है, लेकिन यहाँ मानप्रमाण के प्रसंग में यह अर्थ लिया जायेगा कि हथेली को अधोमुख स्थापित करके मुट्ठी में जितना धान्य समा जाये, तत्परिमित धान्य असति है। असति के अनन्तर प्रसूति का क्रम है। इसका प्राकार नाव की प्राकृति जैसा होता है। अर्थात परस्पर जड़ी हुई नाव के आकार में फैली हुई हथेलियां (खोवा) एक प्रसृति है। इसके बाद के मानों का स्वरूप सूत्र में ही स्पष्ट कर दिया गया है / धान्यमानप्रमाण के लिये उल्लिखित संज्ञाय मागधमान- मगधदेश में प्रसिद्ध मापों की बोधक हैं। प्राचीन काल में मागधमान और कलिंगमान, यह दो तरह के माप-तौल प्रचलित थे / यह दोनों नाम प्रभावशाली राज्यशासन के कारण प्रचलित हुए थे। इनमें भी शताब्दियों तक मगध प्रशासनिक दृष्टि से समस्त भारत देश का और मुख्य रूप से उत्तरांचल भारत का केन्द्र होने से मगध के अतिरिक्त भारत के अन्यान्य प्रदेशों में भी मागधमान का अधिक प्रचलन और मान्यता थी। आयुर्वेदीय ग्रन्थों में माय-तौल के लिये मागधमान को आधार बनाकर मान-परिमाण की चर्चा इस प्रकार की है तीस परमाणुओं का एक त्रसरेणु होता है। छह सरेणुओं की एक मरीचि, छह मरीचि की एक राई, तीन राई का एक सरसों, आठ सरसों का एक यव (जो), चार जौ की एक रत्ती, छह रत्ती का एक माशा, चार माशे का एक शाण, दो शाण का एक कोल, दो कोल का एक कर्ष, दो कर्ष का एक अर्धपल, दो अर्धपल का एक पल, दो पल की एक प्रसृति, दो प्रसृतियों की एक अंजलि, दो अंजलि की एक मानिका, दो मानिका का एक प्रस्थ, चार प्रस्थ का एक प्राढक, चार आढक का एक द्रोण, दो द्रोणों का एक सूर्य, दो सूर्य की एक द्रोणी, चार द्रोणी की एक खारी होती है तथा दो हजार पल का एक भार और सौ पल की एक तुला होती है।' 1. त्रसरेणुर्बुधः प्रोक्तस्त्रिगता परमाणभिः / प्रकुचः षोडशी बिल्व पलमेवात्र कीर्त्यते / असरेणुस्तु पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते / / पलाभ्यां प्रतिज्ञेया प्रसतश्च निगद्यते / / जालान्तर्गते भानी यत्सूक्ष्म दृश्यते रजः / प्रसृतिभ्यामजलि: स्यात् कुडवो अर्द्ध शराबकः / तस्य विशत्तमो भागः परमाणः स उच्यते / / अष्टमानं च संज्ञेयं कुडवाभ्यां च मानिका / / षडवंशीभिर्मरीची स्यात्ताभिः षडभिस्तु राजिका / शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थः चतु:प्रस्थस्तथाढकम् / तिसभी राजकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधः // भाजन कांस्यपात्रं च चतुः षष्टिपलं च तत् / / यवोऽष्ट सर्षपै. प्रोक्तो गुजा स्याच्च चतुष्टयम् / चतुभिराढोण: कलशोनल्बणोन्मनो / षड़भिस्तु रक्तिकाभिस्स्यान्माषको हेमधान्यको / / उन्मानञ्च बटो राशिद्रोणपर्यायसंज्ञकाः / / माषश्चतुभि: शाणः स्यातहरणः स निगद्यते / द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुः षष्टिशरावकाः। टंकः स एव कथितस्तदद्वय कोल उच्यते / / शूपभ्यिां च भवेद द्रोणी वाहो गोणीच सास्मृता / / क्षद्रको बटकश्चैव द्रंक्षण: स निगद्यते / द्रोणीचतुष्टयं खारी कथिता सूक्ष्मबुद्धिभिः / कोलक्यं च कर्षः स्यात् स प्रोक्त: पाणिमानिका / / चतु:सहस्रपलिका षण्णवधिका च सा / / अक्षः पिच: पाणितलं किंचित पाणिश्च तिन्दुकम् / पलानां द्विसहस्र च भार एकः प्रकीर्तितः / विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता // तुला पलशतं ज्ञेया सर्वत्र वैष निश्चयः / / माषटंकाक्षविल्वानि कुडवः प्रस्थमाढकम् / करमध्यो हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः / राशिगोणी खारिकेति यथोत्तरचतुगुणा / / उदुवरं च पर्याय; कर्ष एक निगद्यते / / कुडव के लिये संकेत किया हैस्यात् कर्षाभ्यामद्ध पलं शूक्तिरष्टमिका तथा / मृदुस्तु वेणुलोहादेर्भाण्डं यच्चतुरंगुलम् / शुक्तिभ्यां च पलं ज्ञेयं मुष्टि राम्र चतुथिका / / बिस्तीणं च तथोच्चं च तन्मानं कुडवं वदेत् // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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