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________________ 294] [अनुयोगद्वारसूत्र 374. से कि तं सुहमे उद्धारपलिओवमे ? सुहमे उद्धारपलिओवमे से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उडढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिय-हिय-तेहिय० उक्कोसेणं सत्तरतपरूढाणं सम्मठे सन्निचिते भरिते वालग्गकोडोणं / तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाइं खंडाई कज्जति / ते णं वालग्गा दिट्ठीप्रोगाहणाओ असंखेज्जतिभागमेत्ता सुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा / ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा, जो वाऊ हरेज्जा, णो कुच्छेज्जा, णो पलिविद्धंसेज्जा, जो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। तओ णं समए समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावतितेणं कालेणं से पल्ले खोणे नोरए निल्लेवे णिट्ठिए भवति, से तं सुहमे उद्धारपलिओक्मे। एतेसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। तं सुहुनस्स उद्धारसागरोवमस्स उ एगस्स भवे परीमाणं // 108 // [374 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का क्या स्वरूप है ? [374 उ.] आयुमन् ! सूक्ष्म उद्धारपत्योपम का स्वरूप इस प्रकार है-धान्य के पल्य के समान कोई एक योजन लंबा, एक योजन चौडा और एक योजन गहरा एवं कुछ अधिक तीन योजन की परिधि वाला पल्य हो। इस पल्य को एक, दो, तीन यावत् उत्कृष्ट सात दिन तक के उगे हुए बालानों से खूब ठसाठस भरा जाये और उन एक-एक बालान के (कल्पना से) ऐसे असंख्यात---असंख्यात खंड किये जाए जो निर्मल चक्षु से देखने योग्य पदार्थ की अपेक्षा भी असंख्यातवें भाग प्रमाण हों और सूक्ष्म पनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यातगुणे हों,' जिन्हें अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके, जो सड़-गल न सकें, नष्ट न हो सकें और न दुर्गधित हो सकें। फिर समय-समय में उन बालाग्रखंडों निकालते-निकालते जितने काल में वह पत्य वालाग्रों की रज से रहित, बालानों के संश्लेष से रहित ओर पूरी तरह खाली हो जाए, उतने काल को सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहते हैं। इस पल्पोपम की दस गुणित कोटाकोटि का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम का परिमाण होता है / (अर्थात् दस कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धारपल्योपमों का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम होता है)। 108 375. एएहि सुहमे हि उद्धारपलिओवम-सागरोवमेहि कि पओयणं ? एतेहि सुहुमेहि उद्धारपलिओबम-सागरोवमेहिं दीव-समुद्दाणं उद्धारे घेष्यति / [375 प्र.] भगवन् ! इस मूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारसागरोपम से किस प्रयोजन को सिद्धि होती है ? [375 उ.] सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारसागरोपम से द्वीप-समुद्रों का उद्धार किया जाता है-द्वीप-समुद्रों का प्रमाण जाना जाता है / 1. पर्याप्त वादर पृथिवीकायिक के शरीर के बराबर चादरपृथिवीकायिकपर्याप्तशरी रतुल्यानीति वृद्धवादः / -अनुयोगद्वाराटीका पत्र 182 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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