________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [293 का चरम प्रदेश भी बालानों से रहित न हो, वह खचाखच भरा हुआ हो और साथ ही इस प्रकार से भरा जाए कि रंचमात्र भी स्थान खाली न रहे किन्तु निविड़ता से भरा जाए। वे बालाग्र ऐसी निविड़ता से भरे हुए हों कि आग उन्हें जला न सके, पवन उड़ा न सके, वे सड़-गल न सके / द्रव्यलोकप्रकाश में कहा है वे केशाग्र इतनी सघनता से भरे हों कि यदि चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाए तो भी वे जरा भी दब न सके। उन बालानों को प्रतिसमय एक-एक करके निकालने पर जितने समय में वह पल्य पूरी तरह खाली हो जाए, उतने कालमान को एक व्यवहार उद्धारपल्योपम कहते हैं और ऐसे दस कोटि व्यवहार उद्धारपल्योपमों का एक उद्धारसागरोपम काल कहलाता है। द्रव्यलोकप्रकाश में लिखा है कि उत्तरकुरु के मनुष्यों का सिर मुंडा देने पर एक से सात दिन तक के अन्दर जो केशाग्र राशि उत्पन्न हो, यह समझना चाहिये / क्षेत्रविचार की सोपज्ञटीक में लिखा है कि देवकुरु, उत्तरकुरु में जन्मे सात दिन के मेष (भेड़) के उत्सेधांगुल प्रमाण रोम लेकर उनके सात बार पाठ-आठ खण्ड करना चाहिये / इस प्रकार के खण्डों से उस पल्य को भरना चाहिये। दिगम्बर साहित्य में एक दिन से सात दिन तक जन्मे हुए मेष बालानों का ही उल्लेख मिलता है। इस प्रकार से विभिन्न ग्रन्थों में बालाग्न विषयक पृथक्-पृथक् निर्देश हैं, तथापि उन सबके मूल प्राशय में कोई मौलिक अन्तर प्रतीत नहीं होता। 373. एतेहिं वावहारियउद्धारपलिओवम-सागरोवमेहि कि पयोयणं? एतेहि बावहारियउद्धारपलिनोक्म-सागरोवमेहि गस्थि किंचि पओयणं, केवलं पप्णवणा पणविज्जति / से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे।। 373 प्र. भगवन् ! इन व्यावहारिक उद्धार पल्योषम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? अथवा इनसे किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? [373 उ.] आयुष्मन् ! इन व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है / ये दोनों केवल प्ररूपणामात्र के लिये हैं। यह व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का स्वरूप है / विवेचन—इस सूत्र में व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम के प्रयोजन के विषय में प्रश्नोत्तर है। यहाँ जिज्ञासा होती है कि जब कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता तो फिर इनकी प्ररूपणा ही क्यों की गई ? उत्तर यह है कि प्रयोजन के दो प्रकार हैं--साक्षात् और परम्परा / परम्परा रूप से तो प्रयोजन यह है कि व्यावहारिक-बादर पल्योपम आदि का स्वरूप समझ लेने पर ही सूक्ष्म पल्योपमादि की प्ररूपणा सरलता से समझ में आती है। इस प्रकार से सूक्ष्म की प्ररूपणा में उपयोगी होने से व्यावहारिक की प्ररूपणा निरर्थक नहीं है। किन्तु साक्षात रूप से इसके द्वारा किसी वस्तु का कालमान ज्ञात नहीं किया जाता। अतः सूत्रकार ने उसकी विवक्षा न करके मात्र प्ररूपणायोग्य बतलाया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org