________________ 24] [अनुयोववारसूत्र बैठते हैं, खडी होती हैं तब खडे होते हैं, जब चरती हैं, तब कन्दमूल, फल आदि का भोजन करते हैं और जब जल पीती हैं तब जल पीते हैं / ' गिहिधम्म (महिधर्मा)---गृहस्थधर्म ही श्रेयस्कर है, ऐसी जिनकी मान्यता है और ऐसा मानकर उसी का आचरण करने वाले। धम्मचिंतग (धर्मचिन्तक)याज्ञवल्क्य प्रादि ऋषिप्रणीत धर्मसंहिता आदि के अनुसार धर्म के विचारक और तदनुसार दैनिक प्रवृत्ति, प्राचार वाले / अविरुद्ध (अविरुद्ध)-देव, नप, माता, पिता और तिर्यंचादि का विना किसी भेदभाव के समानरूप में—एकसा विनय करने वाले वैनयिक मिथ्यादष्टि / विरुद्ध (विरुद्ध)-पुण्यपाप, परलोक आदि को नहीं मानने वाले अक्रियावादी। इनका प्राचार-विचार सर्व पाखंडियों, सर्व धर्म वालों की अपेक्षा विपरीत होने से ये विरुद्ध कहलाते हैं / बुड्ढ-सावग (वृद्ध श्रावक)-ब्राह्मण / प्राचीन काल की अपेक्षा इनमें वद्धता मानी है। क्योंकि भरतचक्रवर्ती ने अपने शासनकाल में देव, धर्म, गुरु का स्वरूप सुनाने के लिये इनकी स्थापना की थी। अथवा वृद्धावस्था में दीक्षा अंगीकार करके तपस्या करने वाले श्रावक / पासंडत्था (पाषण्डस्थ)—पाषण्ड अर्थात् व्रतों का पालन करने वाले / खंद (स्कन्द)-कार्तिकेय-महेश्वर का पुत्र / रुद्र (रुद्र)-महादेव / सिव (शिव)-व्यंतरदेव विशेष / वेसमण (वैश्रमण)-कुबेर, धनरक्षक यक्षविशेष / नाग (नागकुमार) भवनपतिनिकाय का देवविशेष / जक्ख, भूत (यक्ष, भूत-व्यंतरजातीय देव / मुगुन्द (मकन्द) बलदेव / अज्जा (ग्रा)देवीविशेष / कोट्टकिरिया (कोट्टक्रिया)-महिपासुर की मर्दक देवी। उवलेवण (उपलेपन) तेल, घी प्रादि का लेप करना / सम्मज्जण (सम्मार्जन)-वस्त्रखंड से पोंछना / आवरिसण (ग्रावर्षण)गंधोदक से अभिषेक करना, स्नान कराना। लोकोतरिक द्रव्यावश्यक 22. से कि तं लोगोत्तरियं दवावस्सयं? लोगोत्तरियं दबाबस्सयं जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्कायनिरणुकंपा हया इव उद्दामा गया इव निरंकुसा घट्ठा मट्ठा तुप्पोट्ठा पंडरपडपाउरणा जिणाणं अणाणाए सच्छंदं विहरिऊणं उभओकालं आवस्सगस्स उवठ्ठति / से तं लोगुत्तरियं दवावस्सयं से तं जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्वावस्सयं / से तं नोआगमतो दवावस्तयं / से तं दवावस्सयं / {22 प्र.] भगवन् ! लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? 22 उ.] प्रायःमन ! लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार है---जो (साधु) श्रमण के (मुल और उत्तर) गणों से रहित हों, छह काय के जीवों के प्रति अनुकम्पा न होने न होने के कारण अश्व की तरह उद्दाम (शीघ्रगामी-जल्दी-जल्दी चलने वाले) हों, हस्तिवत् निरंकुश हों, स्निग्ध पदार्थों के लेप से अंग-प्रत्यंगों को कोमल, सलौना बनाते हों, जल आदि से बारंबार शरीर को धोते हों, अथवा तेलादि से केशों का संस्कार करते हों, अोठों को मुलायम रखने के लिये मक्खन लगाते हों, पहनने-अोढने के वस्त्रों को धोने में आसक्त हों और जिनेन्द्र भगवान की प्राज्ञा की उपेक्षा कर स्वच्छंद विचरण करते हों, किन्तु उभयकाल (प्रातः सायंकाल) आवश्यक करने के लिये तत्पर हो तो उनकी बह क्रिया लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक है / 1. इन गोतिका की चर्या का विस्तृत वर्णन रघुबंश प्रथम सर्ग में राजा दिलीप की प्रवृत्ति द्वारा किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org