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________________ आवश्यक निरूपण कुप्रावाचनिक द्रव्यावश्यक 21. से कि तं कुप्पावणियं दवावस्सयं? कुप्पावणियं दवावस्सयं जे इमे चरग-चोरिग-चम्मखंडिय-भिच्छुडग-पंडुरंग-गोतमगोम्वतिय-गिहिधम्म-धम्मचितग-अविरुद्ध-विरुद्ध-वु-सावगप्पभितयो पासंडत्था कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते इंदस्स वा खंदस्स वा रुद्दस्स वा सिवस्स वा वेसमणस्स वा देवस्स वा नागस्स वा जक्खस्स वा भूयस्स वा मुगुदस्स वा अज्जाए वा कोट्टकिरियाए वा उवलेवणसम्मज्जणाऽऽवरिसण-धूव-पुप्फ-गंध-मल्लाइयाई दवावस्सयाई करेंति / से तं कुप्पावयणियं दवाबस्सयं / [21 प्र.] भगवन् ! कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [21 उ.] आयुष्मन् ! जो ये चरक, चीरिक, चर्मखंडिक, भिक्षोण्डक, पांडुरंग, गौतम, गोवतिक, गहीधर्मा, धर्मचिन्तक, अविरुद्ध, विरुद्ध, वृद्धथावक आदि पाषंडस्थ रात्रि के व्यतीत होने के अनन्तर प्रभात काल में यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान तेज से दीप्त होने पर इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण-कुबेर अथवा देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुन्द, आर्यादेवी, कोट्टक्रियादेवी आदि की उपलेपन, संमार्जन, स्नपन (प्रक्षालन), धूप, पुष्प, गंध, माला प्रादि द्वारा पूजा करने रूप द्रव्यावश्यक करते हैं, वह कुप्रावधनिक द्रव्यावश्यक है / विवेचन-सूत्र में कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। मोक्ष के कारणभूत सिद्धांतों से विपरीत सिद्धान्तों की प्ररूपणा एवं प्राचरण करने वाले चरक आदि कुप्रावचनिकों के आवश्यक को कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक कहते हैं। ये चरक आदि इन्द्रादिकों की प्रतिमानों का उपलेपन आदि आवश्यक कृत्य करते है, अतः प्रावश्यक पद दिया है तथा इन उपलेपनादि क्रियायों में मोक्ष के कारणभूत भावावश्यक की अप्रधानता होने से द्रव्यत्व एवं आगम के सर्वथा अभाव की अपेक्षा नोप्रागमता जानना चाहिये। सूत्र में 'प्रभति' शब्द से परिवाजक प्रादि का एवं यावत् शब्द से पूर्वोक्त 20 वें सूत्र में कथित प्रातःकाल की तीन अवस्थानों और सूर्य के सहस्ररश्मि, दिनकर ग्रादि विशेषणों को ग्रहण किया गया सूत्रगत शब्दों का अर्थ--चरग (चरक)—समुदाय रूप में एकत्रित होकर भिक्षा मांगने वाले अथवा खाते-खाते चलने वाले / चोरिग (चीरिक)-मार्ग में पड़े हुए वस्त्रखंडों (चिथड़ों) को पहनने वाले / चम्मखंडिय(चर्मखंडिक)-चमड़े को वस्त्र रूप में पहनने वाले अथवा जिनके चमड़े के ही समस्त उपकरण होते हैं। भिच्छुडग (भिक्षोण्डक)-अपने घर में पालित गाय प्रादि के दूधादि से नहीं किन्तु भिक्षा में प्राप्त अन्न से ही उदरपूर्ति करने वाले अथवा सुगत के शासन को मानने वाले / पंडरंग (पाण्डरांग)--शरीर पर भस्म (राख) का लेप करने वाले। गोतम (गौतम)-बैल को कौडियों की मालाओं से विभूषित करके उसकी विस्मयकारक चाल दिखाकर भिक्षावृत्ति करने वाले / गोलिय (गोव्रतिक)-गोचर्या का अनुकरण करने वाले / गोव्रत का पालन करने वाले ये गायों के मध्य में रहने की इच्छा से गायें जब गांव से निकलती हैं तब उनके साथ ही निकलते हैं, वे जब बैठती हैं तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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