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________________ 326] [अनुयोगद्वारसूत्र यह है कि उन बालागों के असंख्यात खण्ड कर दिये जाने पर भी वे बादर-स्थल हैं। अतएव उन बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट प्रदेश सम्भवित हैं और वादरों में अन्तराल होना स्वाभाविक है। जो कूष्मांड से लेकर गंगा की बालुका तक के कोठे में समा जाने के दृष्टान्त से स्पृष्ट है। असंख्यात अाकाशप्रदेशों के अस्पृष्ट रहने को हम एक दूप्तरे दृष्टान्त से भी समझ सकते हैं। जैसे काष्ठस्तम्भ ठोस दिखता है और प्रदेशों को सघनता से हमें उसमें पोल प्रतीत नहीं होती है। फिर भी उसमें कील समा जाती है। इससे यह सिद्ध है कि उस काष्ठ में ऐसे अनेक अस्पृष्ट प्रदेश हैं जिनमें कील ने प्रवेश किया। अत: यह स्पष्ट है कि इस पल्य में भी ऐसे असंख्यात ग्राकाशप्रदेश रह जाते हैं जो उन बादर वालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट हैं। इसीलिये सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम के स्वरूपवर्णन के लिये स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों प्रकार के प्रकाशप्रदेशों का ग्रहण किया है। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन 368. एतेहि सुहमेहि खेत्तपलिओवम-सागरोवमेहि किं पओयणं ? एतेहिं सुहुमेहिं पलिओवम-सागरोवमेहि दिट्ठिवाए दम्बाई म विज्जति / [398 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? [398 उ.] आयुष्मन् ! इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम द्वारा दृष्टिवाद में वर्णित द्रव्यों का मान (गणन) किया जाता है / / विवेचन–सूत्र में सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम के प्रयोजन का कथन किया है / अतएव अब द्रव्यों का वर्णन करते हैं। अजीव द्रव्यों का वर्णन 399. कइविधा णं भंते ! दवा पण्णता ? गो० ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–जोवदव्वा य अजोवदन्वा य / [399 प्र.] भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [399 उ.] गौतम ! द्रव्य दो प्रकार के हैं, वे इस प्रकार-जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य / 400. अजोबदव्या णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गो० ! दुविहा पन्नता / तं जहा–अरूविअजीवदव्वा य रूविअजीवदव्वा य / [400 प्र.! भगवन् ! अजीवद्रव्य कितने प्रकार के हैं ? [400 उ.] गौतम ! अजीवद्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं-अरूपी अजीवद्रव्य और रूपी अजीवद्रव्य / 401. अरूविअजीवदव्वा णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गो० ! दसविहा पण्णत्ता। तं जहा-धम्मस्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसा धम्मस्थिकायस्स पदेसा, अधम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकायस्स देसा अधम्मस्थिकायस्स पदेसा, आगासस्थिकाए आगासस्थिकायस्स देसा आगासस्थिकायस्स पदेसा, अद्धासमए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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