________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [327 [401 प्र.] भगवन् ! अरूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के हैं ? |401 उ.] गौतम ! अरूपी अजीवद्रव्य दस प्रकार के कहे गये हैं यथा-१. धर्मास्तिकाय, 2. धर्मास्तिकाय के देश, 3. धर्मास्तिकाय के प्रदेश, 4. अधर्मास्तिकाय, 5. अधर्मास्तिकायदेश, 6. अधर्मास्तिकायप्रदेश, 7. अाकाशास्तिकाय, 8. आकाशास्तिकायदेश, 9. आकाशास्तिकायप्रदेश और 10. अद्धासमय। 402. रूधिअजीवदन्वा णं भंते ! कतिविहा पन्नता? गो० ! चउदिवहा पणत्ता / तं जहा-खंधा खंधदेसा खंधप्पदेसा परमाणुपोग्गला / [402 प्र. भगवन् ! रूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के प्रज्ञप्त किये गये हैं ? [402 उ. गौतम ! वे चार प्रकार के हैं, यथा-१. स्कन्ध, 2. स्कन्धदेश, 3. स्कन्धप्रदेश और 4. परमाणु / 403. ते णं भंते ! कि संखेज्जा असंखेज्जा अणंता ? गोतमा! नो संखज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चतिते नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणता ? गो० ! अणता परमाणुपोग्गला अणंता दुपएसिया खंधा जाव अणंता अणंतपदेसिया खंधा, से एतेणं अट्ठणं गोयमा ! एवं वुच्चति--ते णं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। 6403 प्र.] भगवन् ! ये स्कन्ध प्रादि संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? 403 उ.| गौतम ! ये स्कन्ध आदि संख्यात नहीं हैं, असंख्यात भी नहीं हैं किन्तु अनन्त हैं। प्र.] भगवन् ! ऐसा कहने का क्या अर्थ है कि स्कन्ध आदि संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं ? उ.] गौतम ! परमाण युदगल अनन्त हैं, दिप्रदेशिकस्कन्ध अनन्त हैं यावत अनन्तप्रदेशिकस्कन्ध अनन्त हैं / इसीलिये गौतम ! यह कहा है कि वे न संख्यात हैं, न असंख्यात हैं किन्तु अनन्त हैं। विवेचन—सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम सागरोपम से दृष्टिवाद-अंग में वर्णित द्रव्यों का स्वरूप जाना जाता है / द्रव्य दो प्रकार के हैं-ग्रजीवद्रव्य और जीवद्रव्य / इनमें से उपर्युक्त सूत्रों में अल्पवक्तव्य होने से पहले अजीवद्रव्यों का वर्णन किया है। इस विराट विश्व के मूल में दो ही तत्त्व हैं / इन दो तत्त्वों का विस्तार यह जगत् है। इन दोनों में से जीवद्रव्य ज्ञाता, द्रष्टा, भोक्ता है जबकि अजीवद्रव्य अचेतन है, जड है। इनको द्रव्य कहने का कारण यह है कि ये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभाव वाले हैं। उत्पाद-व्यय स्वभाव के कारण पर्याय से पर्यायान्तर होते हुए भी ध्र व स्वभाव के कारण सदैव अपने मौलिक रूप में स्थिर रहते हैं। कितना भी परिवर्तन आ जाए लेकिन अपने मूल गुणधर्म से कभी भी च्युत नहीं होते / जीव चेतना स्वभाव को छोड़कर अचेतन रूप में परिवर्तित नहीं होता है और अजीव अनेक सहकारी कारणों के मिलने पर भी अपने जडरूपत्व का त्याग नहीं करता है। इस स्थिति के कारण इनको द्रव्य कहा जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org