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________________ 328] [अनुयोगद्वारसूत्र इन दोनों प्रकार के द्रव्यों में से पहले अजीवद्रव्य का वर्णन किया है। अजीवद्रव्य के मुख्य पांच भेद हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अद्धासमय और पुद्गलास्तिकाय / इनमें से आदि के चार द्रव्य अरूपी-अमूर्त हैं और पुद्गल रूपी-भूर्त है / पुद्गल को रूपी, मूर्त इसलिये कहते हैं कि रूप, रस, गंध, स्पर्श गुणयुक्त होने से यह द्रव्य विभिन्न आकारों को धारण करके हमें दृष्टिगोचर होता है। उक्त पांच भेदों में से श्रद्धासमय को छोड़कर शेष चारों के साथ 'अस्तिकाय' विशेषण लगाया है। इसका कारण यह है कि ये द्रव्य प्रदेशप्रचय रूप या अनेक प्रदेशों के पिण्ड हैं। अद्धासमय मात्र एक समय रूप होने से उसमें प्रदेशप्रचय नहीं है। उसका अपने रूप में एकप्रदेशात्मक (समयात्मक) अस्तित्व है। इसी कारण सूत्र में काल को छोड़कर शेष अरूपी द्रव्यों के तीन-तीन भेद कहे गए हैं। पुद्गलास्तिकाय रूपी है और इसके चार भेद हैं। इस प्रकार अजीवद्रव्यों के अवान्तर भेद सब मिल कर चौदह होते हैं। ___ अरूपी अजीवद्रव्य के दस प्रकार नयविवक्षाओं से कहे गये हैं। विस्तृत विवेचन इस प्रकार है यद्यपि धर्मास्तिकाय मूलत: एक द्रव्य है किन्तु संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय इन तीनों नयों की विवक्षा के भेद से भेद हो जाता है। इन तीनों नयों का अभिप्राय अलग-अलग है। संग्रहनय धर्मास्तिकाय को एक ही द्रव्य मानता है। व्यवहारनय उस द्रव्य के देश और ऋजुसूत्रनय उसके निविभाग रूप प्रदेश मानता है। संग्रहनय वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करता है। व्यवहारनय वस्तुगत विशेष अंशों को स्वीकार करता है और ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में वर्तमानवर्ती अवस्था ही वस्तु है / व्यवहारनय की मान्यता है कि जिस प्रकार संपूर्ण धर्मास्तिकाय जीव, पुद्गल की गति में सहायक-निमित्त बनता है, उसी प्रकार से उसके देश-प्रदेश भी जीव और पुदगल की गति में निमित्त होते हैं। इसी कारण वे भी पृथक द्रव्य हैं। ऋजुसूत्रनय की मान्यता है कि केवलिप्रज्ञाकल्पित प्रदेश रूप निविभाग भाग ही स्वसामर्थ्य से जीव और पुद्गल की गति में निमित्त होते हैं / अतएव वे स्वतन्त्र द्रव्य हैं। ___ इसी प्रकार से अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय के तीन-तीन प्रकारों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। श्रद्धासमय को एक ही मानने का कारण यह है कि निश्चयनय के मत से वर्तमान काल रूप 'समय' का ही परमार्थतः सत्त्व है, अतोत-अनागत का नहीं। क्योंकि अनागत अनुत्पन्न है और प्रतीत विनष्ट हो चुका है। इसलिये उसमें देश, प्रदेश रूप विशेष नहीं हो सकते। रूपी अजीवद्रव्य पुद्गल के चार भेदों में से स्कन्ध के बुद्धिकल्पित दो भाग, तीन भाग आदि देश हैं / द्वयणुक से लेकर अनंताणुक पर्यन्त सब स्कन्ध हो हैं / स्कन्ध के अवयवभूत निविभाग भाग प्रदेश हैं तथा जो स्कन्धदशा को प्राप्त नहीं हैं-स्वतन्त्र हैं, ऐसे निरंश पुद्गल 'परमाणु' कहलाते हैं / ये सभी स्कन्धादि भी प्रत्येक अनन्त-अनन्त हैं। इस प्रकार अजीवद्रव्य का वर्णन करके अब जीवद्रव्य का वर्णन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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