________________ 472] [अनुयोगद्वारसूत्र यहाँ मोक्ष का कारण होने से मर्व अध्ययन का विचार ज्ञाननय और क्रियानय की अपेक्षा किया गया जानना चाहिये / क्योंकि गाथा में इसी प्रकार का कथन किया गया है पदार्थों में जो उपादेय हों उन्हें ग्रहण करना और जो हेय हों उन्हें त्याग करना चाहिये तथा ज्ञेय (जानने योग्य) हों उन्हें मध्यस्थ भाव से जानना चाहिये / इस लोक सम्बन्धी सुखादिसामग्री ग्रहण योग्य है, विषादि पदार्थ त्यागने योग्य और तृण शादि पदार्थ उपेक्षणीय हैं। यदि परलोक सम्बन्धी विचार किया जाये तो सम्यादर्शनादि ग्रहण करने योग्य हैं, मिथ्यात्वादि त्यागने योग्य हैं और स्वर्गिक सुख उपेक्षणीय है। ज्ञाननय का मंतव्य है कि ज्ञान के बिना किसी कार्य की सिद्धि नहीं होती है / ज्ञानी पुरुष ही मोक्ष के फल का अनुभव करते हैं / अन्धा पुरुष अन्धे के पीछे-पीछे गमन करने से वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है / ज्ञान के बिना पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं होती है / सभी व्रतादि एवं क्षायिक सम्यक्त्व प्रादि अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति ज्ञान से होती है / अतएव सबका मूल कारण ज्ञान है। क्रियानय का मंतव्य है कि सिद्धि प्राप्त करने का मुख्य कारण क्रिया ही है / क्योंकि तीनों प्रकार के अर्थों का ज्ञान करके प्रयत्न करना चाहिये / इस कथन से क्रिया की ही सिद्धि होती है / ज्ञान तो क्रिया का उपकरण है / इसलिये क्रिया मुख्य और ज्ञान गौण है। मात्र ज्ञान से जीव सुख नहीं पाते / तीर्थ कर देव भी अंतिम समय पर्यन्त क्रिया के ही आश्रित रहते हैं / बीज को भी अंकुरोत्पत्ति के लिए बाह्य सामग्री की आवश्यकता होती है। इसलिये सबका मुख्य कारण क्रिया ही है / यह क्रियानय का मंतव्य है / किन्तु किसी भी एकान्त पक्ष में मोक्षप्राप्ति का अभाव है। इसलिये अब मान्य पक्ष प्रस्तुत करते हैं सर्व नयों के नाना प्रकार के वक्तव्यों को सुनकर--नयों के परस्पर विरोधी भावों को सुनकर जो साधु ज्ञान और क्रिया में स्थित है वही मोक्ष का साधक होता है / केवल ज्ञान और केवल क्रिया से कार्यसिद्धि नहीं होती है। अन्नादि का ज्ञान होने पर भी बिना भक्षण क्रिया के उदरपोषणादि नहीं होता है / केवल क्रिया से भी कार्यसिद्धि नहीं होती है / जैसे क्रिया से रहित ज्ञान निष्फल है वैसे ही ज्ञान से रहित क्रिया भी कार्यसाधक नहीं है / यथा--पंगु और अंधे भागते हुए भी सुमार्ग को प्राप्त नहीं होते, एक चक्र (पहिये) से शकट (गाड़ी) नगर को प्राप्त नहीं कर सकती, इसी प्रकार अकेले ज्ञान और अकेली क्रिया से सिद्धि नहीं होती, अपितु दोनों के समुचित समन्वय से सिद्धि प्राप्त होती है / कदाचित् कहा जाए कि जब पृथक-पृथक दोनों में मुक्तिसाधन की शक्ति नहीं तो उभय में वह शक्ति कहां से हो सकती है ? समाधान यह है कि ज्ञान और क्रिया पृथक्-पृथक् रूप में देश उपकारी होते हैं, दोनों मिलने से सर्व उपकारी होते हैं। इस प्रकार से नयद्वार की वक्तव्यता के पूर्ण होने से चतुर्थ अनुयोगद्वार की और साथ ही श्रीमदनुयोगहार सूत्र की भी पूर्ति होती है। अनुयोगद्वार सूत्र के चार मुख्य द्वार हैं, जिनमें यह नयद्वार चौथा है / अत: इसकी पूर्ति होने से अनुयोगद्वार सूत्र की भी पूर्ति हो गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org