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________________ जय निरूपण [471 अधिक है। शब्दनय काल ग्रादि के भेद से वर्तमान पर्याय को जानता है किन्तु ऋजुसूत्र में काल आदि का कोई भेद नहीं है / इसलिये शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का विषय अधिक है / समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्न रूप से जानता है, परन्तु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं है। प्रतएव शब्दनय की अपेक्षा समभिरूढ़नय का विषय अल्प है / एवंभूतनय समभिरूढनय से जाने हुए पदार्थ में क्रिया के भेद से भेद मानता है। अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है। नयविचार का प्रयोजन-प्रस्तुत प्रकरण में यह है कि पूर्व प्रकान्त सामायिक अध्ययन सर्वप्रथम उपक्रम से उपक्रान्त होता है और निक्षेप से यथासंभव निक्षिप्त होता है / तत्पश्चात् अनुगम से वह जानने योग्य बनता है और इसके बाद नयों से उसका विचार किया जाता है। ___ यद्यपि पूर्व में उपोद्धातनियुक्ति में समस्त अध्ययन के विषय वाला नय विचार किया जा चुका है, तथापि यहाँ उसका पृथक् निर्देश इसलिये किया है कि चोथा जो अनुयोगद्वार है, वही नयवक्तव्यता का मूल स्थान है। क्योंकि यहाँ सिद्ध हुए नयों का पूर्व में उपन्याम किया गया है / नयवर्णन के लाभ 606. [आ] णायम्मि गिव्हियत्वे अगिहियवम्मि चेव अथम्मि / जइयत्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नाम / / 140 / / सब्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता। तं सम्वनयविसुद्धं जं चरणगुणढिओ साहू // 141 // से तं नए। सोलससयाणि चउरुत्तराणि गाहाण जाण सव्वग्गं / दुसहस्समणुठ्ठभछंद वित्तपरिमाणमो भणियं // 142 / / नगरमहादारा इव कम्मदाराणुओगवरदारा / अक्खर-बिदू-मत्ता लिहिया दुक्खक्खयट्टाए // 143 // नयवर्णन के लाभ---इन नयों द्वारा हेय और उपादेय अर्थ का ज्ञान प्राप्त करके तदनुकूल प्रवृत्ति करनो ही चाहिये / इस प्रकार का जो उपदेश है वही (ज्ञान) नय कहलाता है / 140 इन सभी नयों की परस्पर विरुद्ध वक्तव्यता को सुनकर समस्त नयों से विशुद्ध सम्यक्त्व, चारित्र (और ज्ञान) गुण में स्थित होने वाला साधु (मोक्षसाधक हो सकता) है / 141 इस प्रकार नय-अधिकार की प्ररूपणा जानना चाहिये / साथ ही अनुयोगद्वारसूत्र का वर्णन समाप्त होता है। विवेचन--उपर्युक्त दो गाथानों में नयवर्णन से प्राप्त लाभ का उल्लेख किया है। 'जितने वचनमार्ग हैं, उतने ही नय हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार नयों के अनेक भेद हैं। नेगम, संग्रह आदि सात भेद और अर्थनय एवं शब्दनय के भेद से दो भेद पूर्व में बताये हैं। इनके अतिरिक्त भी द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक, ज्ञान-क्रिया, निश्चय-व्यवहार प्रादि भेद भी किये जा सकते हैं, तथापि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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