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________________ 470) अनुयोगद्वारसूत्र 6. समभिरूढनय-वाचकभेद से वाच्यार्थ में भिन्नता मानने वाले अथवा शब्दभेद से अर्थभेद मानने वाले नय को समभिरूढ़नय कहते हैं / इसी का प्रकारान्तर से गाथा में संकेत किया है कि यदि शब्दभेद है तो अर्थ में भेद होना चाहिये और यदि एक वस्तु में अन्य शब्द का प्रारोप किया जाये तो वह अवस्तु रूप हो जाती है / इसका तात्पर्य यह हुआ कि शब्दनय लिंग और बचन की समानता होने से इन्द्रः शुक्र: पुरन्दरः इन शब्दों का वाच्यार्थ एक मान लेता है किन्तु इस नय में प्रवृत्ति का निमित्त जब भिन्न-भिन्न है तो मनुष्य आदि शब्दों की तरह इन शब्दों का वाच्यार्थ भी भिन्न-भिन्न है / क्योंकि व्युत्पत्ति की अपेक्षा ऐश्वर्यवान् होने से इन्द्र, शकन समर्थ होने से शक्र और पुरों नगरों का दारण-नाश करने से पुरन्दर कहलाता है। किन्तु जो परम ऐश्वर्य पर्याय है, वही शकन या पुरदारण पर्याय नहीं है / इसलिये ये इन्द्रादि शब्द भिन्न-भिन्न अभिधेय वाले हैं / यदि सभी पर्यायों को एक माना जाये तो सांकर्य दोष होगा / इस नय के मत से इन्द्र शब्द से शक शब्द उतना ही भिन्न है, जितना घट से पट और अश्व से हस्ती। 7. एवंभूतनय-जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है, उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूतनय कहते हैं। यही आशय गाथोक्त पदों का है कि व्यंजन-शब्द से जो वस्तु का अभिधेय अर्थ होता है, उसको प्रकट किया जाये, उसे ही एवंभूतनय कहते हैं / जैसे—जिस समय अाज्ञा और ऐश्वर्यवान् हो, उस समय ही वह इन्द्र है, अन्य समयों में नहीं। समभिरूढ़नय से एवंभूतनय में यह अन्तर है कि यद्यपि ये दोनों नय व्युत्पत्तिभेद से शब्द के अर्थ में भेद मानते हैं, परन्तु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है / परन्तु एवंभूतनय तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जबकि वस्तुतः क्रियापरिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो / सुनय और दुर्नय-पूर्वोक्त सात नयों में से यदि वे अन्य धर्मों का निषेध करके केवल अपने अभीष्ट एक धर्म का ही प्रतिपादन करते हैं, तब दुर्नय रूप हो जाते हैं / दुर्नय अर्थात् जो वस्तु के एक धर्म को सत्य मानकर अन्य धर्मों का निषेध करने वाला हो / जैसे नैगमनय से नैयायिक-वैशेषिक दर्शन उत्पन्न हुए। अद्वैतवादी और सांख्य संग्रहनय को ही मानते हैं। चार्वाक व्यवहारनयवादी ही है। बौद्ध केवल ऋजुसूत्रनय का तथा वैयाकरणी शब्द आदि तीन नयों का ही अनुसरण करते हैं / इस प्रकार ये सभी एकान्त पक्ष के प्राग्रही होने से दुर्नयवादी हैं। सात नयों का वर्गीकरण और अल्पबहत्व-पूर्वोक्त नैगम आदि सात नयों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थ के प्रतिपादक होने से अर्थनय कहे जाते हैं / शब्द समभिरूढ़ और एवंभूतनय शब्द का प्रतिपादन करने से शब्दनय हैं। इनमें पूर्व-पूर्व के नय अधिक विषय और उत्तर-उत्तर के नय परिमित विषय वाले हैं / जैसे संग्रहनय सामान्य मात्र को स्वीकार करता है जबकि नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को। इसलिये संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का विषय अधिक है / व्यवहारनय संग्रहनय के द्वारा गृहीत पदार्थों में से विशेष को जानता है और संग्रहनय समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिये संग्रहनय का विषय व्यवहारनय से अधिक है / व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है, जबकि ऋजुसूत्र केवल वर्तमानकालीन पदार्थों का ज्ञान करता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा व्यवहारनय का विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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