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________________ नय निरूपण यह नय भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों संबंधी पदार्थ को ग्रहण करता है / इस नय के मत से भूत आदि तीनों कालों का अस्तित्व है। 2. संग्रहनय / सामान्य रूप से सभी पदार्थों का संग्रह करने वाले नय को संग्रहनय कहते हैं। यह नय सब वस्तुओं को मामान्यधर्मात्मक मान्य करता है, क्योंकि विशेष सामान्य से पृथक् नहीं हैं / 3. व्यवहारनय- इसका दृष्टिकोण संग्रहनय से विपरीत है। अर्थात् यह सामान्य का अभाव सिद्ध करने वाला है / क्योंकि लोकव्यवहार में विशेषों से व्यतिरिक्त सामान्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होने तथा उसके अनुपयोगी होने के कारण व्यवहारनय सामान्य को स्वीकार नहीं करता। 4. ऋजुसूत्रनय----इसमें ऋजु और सूत्र यह दो शब्द हैं। इनमें से ऋजु का अर्थ प्रगुणकुटिलतार हित--सरल है / अतएव ऐसे सरल को जो मूत्रित करता है-स्वीकार करता है उस नय को ऋजुसूत्रनय कहते हैं। अथवा जो नय अतीत और अनागत कालवर्ती पदार्थो को ग्रहण न करके वर्तमानकालिक पदार्थों को ही ग्रहण करता है वह ऋजुनयसूत्र है। उक्त दोनों लक्षणों का समन्वित प्राशय यह हुआ कि अतीत और अनागत ये दोनों अवस्थाएँ क्रमशः विनष्ट और अनुत्पन्न होने के कारण असत् हैं और ऐसे असत् को स्वीकार करना कुटिलता है। इस कुटिलता का परिहार करके केवल सरल वर्तमानकालिक वस्तु को स्वीकार करने वाला नय ऋजुसूत्रनय कहलाता है / इस नय द्वारा वर्तमान कालभावी पदार्थ को ग्रहण करने का कारण यह है कि वर्तमान कालवर्ती पदार्थ ही अर्थक्रिया करने में समर्थ होता है। 'उज्जुसुयो' की संस्कृत छाया 'ऋजुश्रुत' भी होती है / अतएव जिसका श्रुत ऋजु–सरल-- अकुटिल है, वह ऋजुश्रुत है / आशय यह हुआ कि श्रुतज्ञान की तरह इतर ज्ञानों से आदान-प्रदान रूप परोपकार नहीं होता है, इसलिये यह नय श्रुतज्ञान को मानता है / 5. शब्दनय-जो उच्चारण किया जाये, जिसके द्वारा वस्तु कही जाये, उसे शब्द कहते हैं। इसमें शब्द मुख्य और अर्थ गौण है / अतएव उपचार से इस नय को शब्दनय कहते हैं / तात्पर्य यह है कि वस्तु शब्द द्वारा कही जाती है और बुद्धि उसी प्रर्थ को मुख्य रूप से मान लेती है। अत: शब्दजन्य वह बुद्धि भी उपचार से शब्द कह दी जाती है। बुद्धि जब यह विचार करती है कि जैसे तीनों कालों में एक वस्तु नहीं है किन्तु वर्तमानकालस्थित ही वस्तु कहलाती है, वैसे ही भिन्न-भिन्न लिंग, बचन आदि से युक्त शब्दों द्वारा कही जाने वाली वस्तु भी भिन्न-भिन्न ही है, ऐसा विचार कर यह नय लिग, वचनादि के भेद से अर्थ में भेद मानने लग जाता है। इस तरह यह नय ऋजूसूत्रनय की अपेक्षा अपने वाच्यार्थ को विशेषिततर करके मानता है। जैसे ऋजसूत्रनय तट: तटी तटम् इन भिन्न-भिन्न लिंगों वाले शब्दों का तथा गुरु, गुरवः इन भिन्न-भिन्न वचन वाले शब्दों का वाच्यार्थ एक मानता है, जबकि शब्दनय विभिन्न लिंग और वचन वाले शब्दों के लिंग और वचन की भिन्नता की तरह उनके वाच्यार्थ को भी भिन्न-भिन्न मानता है / लेकिन जिन शब्दों का लिंग एक है, वचन एक है, उन शब्दों के वाच्यार्थ में भिन्नता नहीं मानता है / ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा इस नय में यही विशेषता है / शब्दनय नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप में निक्षिप्त वस्तु को नहीं मानता क्योंकि ये कार्य करने में असमर्थ होने से अप्रमाण हैं / भाव से ही कार्य सिद्धि होती है इसलिये भाव ही प्रधान है / Jain Education International For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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