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________________ [अनुयोगद्वारसूत्र वत्थओ संकमणं होइ अवत्थुपये समभिरुढे 7 / वंजण----अस्थ—तदुभयं एवंभूयो विसेसेइ 7 // 139 // [606 प्र.] भगवन् ! नय का क्या स्वरूप है ? [606 उ.] आयुष्मन् ! मूल नय सात हैं / वे इस प्रकार ..-1. नैगमनय, 2. संग्रहनय, 3. व्यवहारनय, 4. ऋजुसूत्रनय, 5. शब्दनय, 6. समभिरूढनय और 7. एवंभूतनय / विवेचन-सूत्र में सात नयों के नाम गिनाये हैं / यद्यपि वचनों के प्रकार जितने ही नय है, लेकिन उन सब का समावेश सात नयों में हो जाता है और यह इसलिये कि उनके द्वारा सभी तरह के जिज्ञासुओं को वस्तुनिरूपण की शैली का सुगमता से बोध हो जाता है। नैगम प्रादि सात नयों के लक्षण जो अनेक मानों (प्रकारों से वस्तु के स्वरूप को जानता है, अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है (वह नैगमनय है) यह नैगमनय की निरुक्ति-व्युत्पत्ति है / शेष नयों के लक्षण कहूँगा, जिनको तुम सुनो / 136 सम्यक् प्रकार से गृहीत–एक जाति को प्राप्त अर्थ जिसका विषय है, यह संग्रहनय का वचन है / इस प्रकार से (तीर्थंकर, गणधर आदि ने संक्षेप में) कहा है / व्यवहारनय सर्व द्रव्यों के विषय में विनिश्चय (विशेष-भेद रूप में निश्चय) करने के निमित्त प्रवृत्त होता है / 137 ऋजुसूत्रनयविधि प्रत्युत्पन्नग्राही (वर्तमानकालभावी पर्याय को ग्रहण करने वाली) जानना चाहिये। शब्दनय (ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा सूक्ष्मतर विषय बाला होने से) पदार्थ को विशेषतर मानता है। 138 समभिरूढनय वस्तु का अन्यत्र संक्रमण अवस्तु (अवास्तविक) मानता है। एवंभूतनय व्यंजन (शब्द) अर्थ एवं तदुभय को विशेष रूप से स्थापित करता है / 139 विवेचन-उल्लिखित चार गाथाओं में नैगमादि सात नयों के लक्षण संक्षेप में बताये हैं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है 1. नैगमनयजो महासत्ता (परसामान्य) अपरसामान्य एवं विशेष के द्वारा वस्तु का परिच्छेद करता है, वह नैगमनय है। अथवा निगम का अर्थ है वसति / अतएव 'लोके वसामि' (लोक में रहता हूं) इत्यादि पूर्वोक्त कथन का नाम निगम है और इन निगमों से सम्बद्ध नय को नैगमनय कहते हैं। अथवा अर्थ के ज्ञान को निगम कहते हैं। अतएव अनेक प्रकार से जो अर्थ के ज्ञान को मान्य करे वह नैगमनय कहलाता है / अथवा जिसके वस्तुविचार के अनेक गम-प्रकार हों उसे नैगमनय कहते हैं / अथवा पूर्वोक्त प्रस्थक ग्रादि दृष्टान्त रूप संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगमनय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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