________________ उपसंहार स्वकथ्य का अंतिम चरण उपसंहार है। इसमें पूर्वोक्त संक्षिप्त विचारों का संक्षेप में दुहराना योग्य नहीं है। अतः सर्वप्रथम स्व. विद्वद्वर्य युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. का एवं उनकी दूरदर्शी श्लाघनीय प्रतिभा का अभिनंदन करता हूँ कि उनकी प्रेरणा से पागम वाङमय सर्वजनसुलभ हो सका / मुझे हर्ष है कि से माध्यम से प्रस्तुत अनुयोगद्वारसूत्र द्वारा इस प्रकाशन में सहयोग देने की आकांक्षा की पूर्ति का अवसर प्राप्त हा / समिति के प्रबन्धकों को साधुवाद है कि स्वर्गीय युवाचार्यश्री द्वारा निर्धारित प्रणाली के अनुसार वे प्रागम-साहित्य के प्रकाशन में संलग्न हैं। वयोवृद्ध एवं ज्ञानवद्ध पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल के प्रति प्रमोदभाव व्यक्त करता है कि वे अपनी विद्वत्ता को सुनियोजित कर पागमों को जनगम्य बनाने के लिये प्रयत्नशील हैं। __ अंत में मैं अपने सहयोगी श्री देवकुमारजी जैन की प्रात्मीयता का स्मरण करता हूँ कि इस जटिल मानेजाने वाले सूत्र को सुसंपादित करने एवं सुगम से सुगमतर बनाने में अपनी योग्यता, बुद्धि का पूरा-पूरा योग दिया है। उनके श्रम का सुफल है कि शास्त्रगत भावों को इतना स्पष्ट कर दिया कि वे सर्वजनहिताय सरल, सुबोध हो सके। इसी संदर्भ में एक बात और स्पष्ट कर देता है कि शास्त्रगत भावों को स्पष्ट करने में पूर्ण विवेक रखा है, फिर भी कहीं स्खलना हो गई हो तो पाठक क्षन्तव्य मानकर संशोधित और सूचित करने का लक्ष्य रखेंगे / कि बहुना ! केवल मुनि अहमदनगर 15-4-1987 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org