________________ अनुयोगद्वार पर दूसरी वृत्ति मलधारी प्राचार्य हेमचन्द्र की है। प्राचार्य हेमचन्द्र महान् प्रतिभा-सम्पन्न और आममों के समर्थ ज्ञाता थे। यह वृत्ति सूत्रस्पर्शी है। सूत्र के गुरु गम्भीर रहस्यों को इसमें प्रकट किया गया है। वृत्ति के प्रारम्भ में श्रमण भगवान महावीर को, गणधर गौतम प्रभृति प्राचार्यवर्ग को एवं श्रुत देवता को नमस्कार किया गया है। वृत्तिकार ने इस बात का स्पष्टीकरण किया है कि प्राचीन मेधावी प्राचार्यों ने चणि व टीकानों का निर्माण किया है। उनमें उन प्राचार्यों का प्रकाण्ड पाण्डित्य झलक रहा है। तथापि मैंने मन्दबुद्धि व्यक्तियों के लिए इस पर वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति ग्रन्थकार की प्रौढ रचना है। कृति के अध्ययन से ग्रन्थकार की गहन अध्ययनशीलता का अनुभव होता है। प्रागन के मर्मस्पर्शी विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्राचार्य आगम के एक मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनकी प्रस्तुत वति अनुयोगद्वार की गहनता को समझाने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। प्राचार्य हरिभद्र की टीका अत्यन्त संक्षिप्त थी और वह मुख्य रूप से प्राकृत चणि का ही अनुवाद थी। प्राचार्य हेमचन्द्र ने सुविस्तृत टीका लिखकर पाठकों के लिए अनुयोगद्वार को सरल और सूग्राह्य बना दिया है। वत्ति में यत्र-तत्र अन्य ग्रन्थों के श्लोक उधत किए गये हैं। वृति का व्रन्थमान 5900 श्लोक प्रमाण है। पर वृत्ति में रचना के समय का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। संस्कृत टीका युग के पश्चात् लोक भाषाओं में बालावबोध की रचनाएँ प्रारम्भ हुईं, क्योंकि टीकाओं में दार्शनिक विषयों की चर्चाएं चरम सीमा पर पहँच गई थीं। जनसाधारण उन विषयों को सहज रूप से नहीं समझ मकता था, अतः जनहित की दष्टि से आगमों के शब्दार्थ करने वाले संक्षिप्त लोकभाषाओं में टब्बानों का निर्माण किया। स्थानकवासी प्राचार्य मुनि धरमसिंहजी ने विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे / टब्वे मूलस्पर्शी अर्थ को स्पर्श करते हैं। सामान्य व्यक्तियों के लिए ये बहुत ही उपयोगी हैं। अनुयोगद्वार पर भी एक टब्बा लिखा हुआ है / टटबा के पश्चात आगमों का अनुवादयुग प्रारम्भ हमा। आचार्य अमोलक ऋषिजी म. ने स्थानकवासी परम्परामान्य बत्तीस ग्रागमों का हिन्दी अनुवाद किया। उसमें अनुयोगद्वार भी एक है। यह अनुवाद सामान्य पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। श्रमण संघ के प्रथम प्राचार्य प्रात्मारामजी म. ने आगमों के रहस्यों को समुद्घाटित करने हेतु अनेक ग्रागमों पर हिन्दी में व्याख्याएँ लिखीं। वे व्याख्याएँ सरल, सरस और सुगम हैं। उन्हाने अनुयोगद्वार पर भी संक्षिप्त म विवेचन लिखा। स्थानकवासी परम्परा के प्राचार्य घासीलालजी म. ते संस्कृत में विस्तृत टीकाएँ लिखीं। उन टीकाओं का हिन्दी और गुजराती में अनुवाद भी किया। प्राय: उनके रचित बत्तीस प्रागमों की टीकाएँ मुद्रित हो चुकी हैं। लेखक ने अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं। इस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र पर अनेक मुर्धन्य मनीषियों ने कार्य किया है। जब प्रकाशनयूग प्रारम्भ हुआ तब सर्वप्रथम सन् 1880 में अनुयोगद्वारसूत्र मलधारी हेमचन्द्रकृत वृत्ति सहित रायवहादुर धनपतसिंह कलकत्ता से प्रकाशित हया / उसके पश्चात सन 1915-16 में वही आगम देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार बम्बई से प्रकाशित हुआ है। पुनः सन् 1924 में प्रागमोदय समिति बम्बई से बह वृत्ति प्रकाशित हुई और सन् 19391940 में केसरबाई ज्ञान मन्दिर पाटन से यह वृत्ति प्रकाशित हुई। सन् 1928 में अनुयोगद्वार हरिभद्रकृत वृत्ति सहित ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ। [ 45 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org