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________________ पांच भेदों पर चिन्तन न कर यह लिखा है कि इस पर हम नन्दीचूणि' में व्याख्या कर चुके हैं। अतः उसका अवलोकन करने हेतु प्रबुद्ध पाठकों को मुचन किया है / इससे यह भी स्पष्ट है कि अनुयोगद्वारचूणि, नन्दीचूर्णि के पश्चात् लिखी गई। अनुयोगविधि और अनुयोगार्थ पर चिन्तन करते हुए आवश्यक पर पर्याप्त प्रकाश डाला है / आनुपूर्वी पर विवेचन करते हुए कालानुपूर्वी का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए उन्होंने पूर्वागों का परिचय दिया है। सप्त स्वरों का संगीत की दृष्टि से गहराई से चिन्तन किया है। वीर, शृगार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, वीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त इन नौ रसों का मोदाहरण निरूपण है। मात्मागुल, उत्सेधांगुल, प्रामाणांगुल, कालप्रमाण, मनुष्य प्रादि प्राणियों का प्रमाण गर्भज प्रादि मानकों की संख्या आदि पर विवेचन किया गया है। ज्ञान और प्रमाण, संख्यात असंख्यात, अनन्त आदि विषयों पर भी चूणिकार ने प्रकाश डालने का प्रयास किया है। प्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, जो सुप्रसिद्ध भाष्यकार रहे हैं, जिन्होंने अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर एक च िलिखी थी, उस चणि को जिनदामगणिमहत्तर ने अक्षरश: उदधत किया है। 3 प्रस्तुत चणि में प्राचार्य ने अपना नाम भी दिया है / 4 चणि के पश्चात जैन मनीषियों ने आगम साहित्य पर संस्कृत में अनेक टीकाएँ लिखी हैं। टीकादारों में प्राचार्य रिभद्रसूरि का नाम सर्वप्रथम है। वे प्राचीन टीकाकार हैं। हरिभद्रसूरि प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी प्राचार्य थे। उन्होंने अनेक आगमों की टीकाएँ लिखी हैं। अनुयोगद्वार पर भी उनकी एक महत्त्वपूर्ण टीका है, जो अनुयोगद्वारणि की शैली पर लिखी गई है। टीका के प्रारम्भ में उन्होंने सर्वप्रथम श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार कर अनुयोगद्वार पर विवृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है / 5 अनुयोगवृत्ति का नाम उन्होंने शिष्यहिता दिया है। इस वत्ति की रचना नन्दी विवरण के पश्चात हई है ! 6 मंगल आदि शब्दों का विवेचन नन्दीबत्ति में हो जाने के कारण इसमें विवेचन नहीं किया है, ऐसा टीकाकार का मत है। यावश्यक शब्द पर निक्षेपपद्धति से चिन्तन किया है। श्रुत पर निक्षेपपद्धति से विचार कर टीकाकार ने चतुर्विध श्रत के स्वरूप को आवश्यक विवरण से समझाने का सूचन किया है। स्कन्ध, उपक्रम प्रादि को भी निक्षेप की दृष्टि से समझाने के पश्चात विस्तार के साथ प्रानुपूनी वा प्रतिपादन किया है। प्रानुपूर्वी के अनुक्रम, अनुपरिपाटो, ये पर्यायवाची बताये हैं / आनुपूर्वी के पश्चात् द्विनाम से लेकर दशनाम तक का व्याख्यान किया गया है। प्रमाण पर चिन्तन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है और समय से लेकर पल्योपम-सागरोपम तक का वर्णन किया गया है। भावप्रमाण के वर्णन में प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रौपम्य, पागम, दर्शन, चारित्र नय और संख्या पर विचार किया है। जाननय और क्रियानय के समन्वय की उपयोगिता सिद्ध की गई है। - .--. 93. गणधरवाद पं. दलसुत्र मालवणिया, पृष्ठ 211 94. श्री श्वेताम्बराचार्य श्री जिनदासगणिमहत्तर पूज्यपादानामनुयोगद्वाराणां चूणिः ---अनुयोगद्वारणि 95. प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र त्रिदशेन्द्रनरेन्द्रपूजितं वीरम् / __ अनुयोगद्वाराणां प्रकटार्थी विवृत्तिमभिधास्ये // अनुयोगद्वारवृत्ति ? 96. नन्द्यध्ययनव्याख्यानसमनन्तरमेवानुयोगद्वाराध्ययनावकाशः। --अनुयोगद्वारवत्ति, पृष्ठ 1 97. विज्ञप्ति: फलदा पंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् / / क्रियन फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् / यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् // ...-अनुयोगद्वारवृत्ति, पृष्ठ 126, 127 [44 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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