________________ विद्वान थे और उनके विद्यागुरु प्रद्युम्नक्षमाश्रमण थे। उनके पिता का नाम नाग था और माता का नाम गोपा था 86 जिनदासमहत्तर के जीवन के सम्बन्ध में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। नन्दीणि के अन्त में उन्होंने जो अपना परिचय दिया है, वह बहुत ही अस्पष्ट है / 60 उत्तराध्ययनणि में उन्होंने अपने गुरु के नाम का एवं कुल, गण और शाखा का उल्लेख किया है, पर स्वयं के नाम का उल्लेख नहीं किया। निशीथणि के प्रारम्भ में उन्होंने प्रद्युम्न क्षमाश्रमण का विद्यागुरु के रूप में उल्लेख किया है। निशीथचूर्णि के अन्त में उन्होंने अपना परिचय रहस्य शैली में दिया है। वे लिखते हैं, अकारादि स्वरप्रधान वर्णमाला को एक वर्ग मानने पर अवर्ग से सवर्ग तक पाठ वर्ग बनते हैं। प्रस्तुत क्रम से तृतीय 'च' वर्ग का तृतीय अक्षर 'ज', चतुथं 'ट' वर्ग का पंचम अक्षर 'ण', पंचम 'त' वर्ग का तृतीय अक्षर 'द', अष्टम वर्ग का तृतीय अक्षर 'स' तथा प्रथम 'अ' वर्ग की मात्रा 'इकार' द्वितीय मात्रा 'आकार' को क्रमश: 'ज' और 'द' के साथ मिला देने पर जो नाम होता है, उसी नाम को धारण करने वाले व्यक्ति ने प्रस्तुत चणि का निर्माण किया है / 12 अनुयोगद्वारणि के रचयिता जिनदासगणिमहत्तर ही हैं। उनका समय विक्रम संवत् 650 से 750 के मध्य है / क्योंकि नन्दीचूणि की रचना वि. सं. 733 में हुई है। अनुयोगद्वारणि मूल सूत्र का अनुसरण करते हुए लिखी गई है ! इस चूणि में प्राकृत भाषा का हो मुख्य रूप से प्रयोग हया है। संस्कृत भाषा का प्रयोग अति अल्प मात्रा में हुआ है। इसमें प्राराम प्रभृति शब्दों की व्याख्या है। प्रारम्भ में मंगल के सम्बन्ध में भावनन्दी का स्वरूपविश्लेषण करते हुए ज्ञान के 86. वाणिजकुलसंभूतो कोडियगणितो य वज्जसाहीतो। गोवालियमहत्तरप्रो विक्खातो पासि लोगम्मि / / ससमय-परसमयविऊ प्रोयस्सी देहिग सुगंभीरो। सीसगणसंपरिवडो वखाणरतिप्पियो प्रासी // तेसि सोसेण इमं उत्तज्झयणाण चण्णिरखंडं तु / रइयं अणुग्गहत्थं सीसाणं मंदबुद्धीग || -उत्तराध्ययनचूणि-१-२, 3, गाथा 57. सविसेसायरजुत्तं काउ पणामं च अत्यदायिस्स / पज्जुण्णखमासमणस्स चरण-करणाणुपालस्स // -निशोधविशेषचूणि, पीठिका 2 88. संकरजडमउडविभूसणस्स तण्णामसरिसणामस्स / तस्स सुतेणेस कता विसेसचुण्णी णिसीहस्स // .-निशीविशेषचूणि, उद्देशक 13 89. रविकरमभिधाणक्खरसत्तमवग्गंत-अक्खरजुएणं। णामं जसिथिए सुतेण तिसे कया चुण्णी // -निशीथ विशेषचूर्णि, उद्देशक 15 90. णि रे ग म म त ण ह स दा जि या पसुपतिसंखगजट्ठिताकुला। कमट्टिता धीमतचिंतियक्ख रा फुडं कहेयंतऽभिधाण कत्तुणो॥ नन्दीणि 1 91. उत्तराध्ययनचूणि 1, 2, 3 . 92. ति चउ पण अमवग्गे ति तिग अपखरा व तेसि / पढमततिएही तिदुसरजुएही णामं कयं जस्स // -निशीथचूर्णि [ 43 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org