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________________ वीर संवत् 2446 में सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी हैदराबाद ने अनुयोगद्वार, प्राचार्य अमोलक ऋषिजी द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद को प्रकाशित किया / सन् 1931 में श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्स बम्बई ने उपाध्याय प्रात्मारामजी म. कृत हिन्दी अनुवाद का पूर्वाधं प्रकाशित किया और उसका उत्तरार्ध मुरारीलाल चरणदास जैन पटियाला ने प्रकाशित किया। अनुयोगद्वारसूत्र का मूलपाठ अनेक स्थलों से प्रकाशित हना है, पर महावीर विद्यालय बम्बई का संस्करण अपनी शानी का है। शुद्ध मूलपाठ के साथ ही प्राचीनतम प्रतियों के आधार से महत्त्वपूर्ण टिप्पण भी दिये हैं और आगमप्रभावक पूण्यविजयजी म. की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना भी है। प्रस्तुत आगम स्वर्गीय सन्तरत्न युवाचार्य मधुकर मुनिजी महाराज ने पागम बत्तीसी के प्रकाशन का दायित्व वहन किया और उनकी प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने आगम सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। विविध मनीषियों के पुरुषार्थ से स्वल्प समय में अनेक आगम प्रकाशित होकर प्रबुद्ध पाठकों के हाथों में पहुंचे। प्रायः शुद्ध मूलपाठ, अर्थ और संक्षिप्त विवेचन के कारण यह संस्करण अत्याधिक लोकप्रिय हुआ है। प्रस्तुत जिनागम ग्रन्थमाला के अन्तर्गत अनुयोगद्वारसूत्र का शानदार प्रकाशन होने जा रहा है। पूर्व परम्परा की तरह इसमें भी शुद्ध मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद और विवेचन किया गया है। इस प्रागम के सम्पादक और विवेचक हैं उपाध्याय श्री केवलमुनिजी महाराज। आप ज्योतिपूरुष जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के शिष्यरल हैं / आप प्रसिद्ध प्रवचनकार, संगीतकार, कहानीकार, उपन्यासकार और निबन्धकार हैं। आपकी तीन दर्जन से अधिक पुस्तके विविध विधामों में प्रकाशित हुई हैं और वे अत्यधिक लोकप्रिय भी हुई हैं। आपश्री जीवन के उषाकाल में गीतकार रहे, शताधिक सरस-सरल भजनों का निर्माण कर जन-जन के प्रिय बने / उसके पश्चात् विविध विषयों पर कहानियां लिखीं, कहानियों के माध्यम से उन्होंने जन-जीवन में सुख और शान्ति का सरसज्ज बाग किस प्रकार लहलहा सकता है, इस पर प्रकाश डाला। उसके पश्चात् उनकी लेखनी उपन्यास की विधा को ओर मुड़ी। पौराणिक-ऐतिहासिक-धार्मिक कथाओं को उन्होंने उपन्यास विधा में प्रस्तुत कर जनमानस का ध्यान जैनसाहित्य को पढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। साथ ही उन्होंने ललित शैली में निबन्ध लिखकर अपनी उत्कृष्ट साहित्यिक रुचि का परिचय दिया। अनुयोगद्वार जैनागम साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है जैसा कि हम पूर्व पंक्तियों में बता चुके हैं। अनुयोगद्वार का सम्पादन करना बहुत ही कठिन है। किन्तु उपाध्याय श्रीजी ने सुन्दर सम्पादन कर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया है। यह सम्पादन अपने-आप में अनठा है। जिज्ञासु पाठकों के लिए अनुयोगद्वार का यह सुन्दर संस्करण अति उपयोगी सिद्ध होगा। सम्पादनकला विशारद पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से परिमार्जन कर सोने में सुगन्ध का कार्य किया है। मैं प्रस्तुत आगम पर बहुत ही विस्तार से प्रस्तावना लिखना चाहता था, पर पूना सन्त सम्मेलन होने के कारण पाली से पूना पहुँचना बहुत ही आवश्यक था। निरन्तर विहार यात्रा चलने के कारण तथा सम्मेलन के भीड़-भरे वातावरण में भी लिखना सम्भव नहीं था। सम्मेलन में महामहिम राष्ट्रसंत आचार्यसम्राट् श्री प्रानन्द ऋषिजी महाराज ने मुझे संघ का उत्तरदायित्व प्रदान किया, इसलिए समयाभाव रहना स्वाभाविक था। उधर प्रस्तावना के लिए निरन्तर आग्रह प्राता रहा कि लघु प्रस्तावना भी लिखकर भेज दें। समयाभाव के कारण संक्षेप [46 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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