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________________ आनुपूर्वी निरूपण] [126 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग का, असंख्यात भाग का, संख्यात भागों या असंख्यात भागों या सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ? 6126 उ.] अायुष्मन् ! प्रानुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यात भाग का स्पर्श नहीं करते हैं, असंख्यात भाग का स्पर्श नहीं करते हैं, संख्यात भागों और असंख्यात भागों का भी स्पर्श नहीं करते हैं, किन्तु नियम से सर्वलोक का स्पर्श करते हैं / इसी प्रकार का कथन अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक रूप दोनों द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये। विवेचन-आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की स्पर्शना का कारण पूर्वोक्त क्षेत्रप्ररूपणा के समान समझ लेना चाहिये / ये प्रानुपूर्वी आदि द्रव्य आनुपूवित्व आदि रूप सामान्य के सर्वव्यापी होने से सर्वलोकव्यापी हैं, उनकी सत्ता सर्वलोक में है। अतएव ये सभी नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। संग्रहनयसम्मत काल और अंतर की प्ररूपणा 127. संगहस्स प्राणुपुब्बीदवाई कालओ केवचिरं होंति ? सव्वद्धा / एवं दोणि वि। {127 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य काल की अपेक्षा कितने काल तक (आनुपूर्वी रूप में) रहते हैं ? | [127 उ.] आयुष्मन् ! आनुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वी रूप में सर्वकाल रहते हैं / इसी प्रकार का कथन शेष दोनों द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये। 128. संगहस्स आणुपुन्वीदव्याणं कालतोकेवचिरं अंतरं होति ? नत्थि अंतरं / एवं दोणि वि। [128 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्यों का कालापेक्षया कितना अंतर-बिरहकाल होता है ? [128 उ.] आयुष्मन् ! कालापेक्षया आनुपूर्वीद्रव्यों में अंतर नहीं होता है / इसी प्रकार शेष दोनों द्रव्यों के लिये समझना चाहिये / विवेचन-इन दोनों सूत्रों में संग्रहनयमान्य समस्त प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का काल की अपेक्षा अवस्थान और अंतर का निरूपण किया है। जिसका प्राशय यह है प्रानुपूर्वित्व, अनानुपूवित्व और अवक्तव्यकत्व सामान्य का विच्छेद नहीं होने से इनका अवस्थान सर्वाद्धा-सार्वकालिक है और इसीलिये काल की अपेक्षा इनका विरहकाल भी नहीं है। इन दोनों बातों का निरूपण करने के लिये पद दिये हैं-'सव्वद्धा' और 'नत्थि अंतरं'। सारांश यह कि प्रानुपूर्वित्व आदि का कालत्रय में सत्त्व रहने के कारण विच्छेद न होने से उनका अवस्थान सार्वकालिक है और इसीलिये उनमें कालिक अंतर-विरहकाल भी संभव नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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