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________________ 256] [अनुयोगद्वारसूत्र सत्येण सुतिखेण वि छेत्तु भेत्तव जं किर न सका / तं परमाणू सिद्धा वयंति प्रादी पमाणाणं // 10 // [343-5 प्र.] भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाणु उदकावर्त (जलभंवर) और जलबिन्दु में अवगाहन कर सकता है ? 343-5 उ.] अायुष्मन् ! हाँ, वह उसमें अवगाहन कर सकता है / [प्र.] तो क्या वह उसमें पूतिभाव को प्राप्त हो जाता है--सड़ जाता है ? [उ. यह यथार्थ नहीं है / उस परमाणु को जलरूपी शस्त्र आक्रांत नहीं कर सकता है / अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र से भी कोई जिसका छेदन-भेदन करने में समर्थ नहीं है, उसको ज्ञानसिद्ध केवली भगवान् परमाणु कहते हैं / वह सर्व प्रमाणों का प्रादि प्रमाण है अर्थात् व्यावहारिक परमाणु प्रमाणों की आद्य इकाई है / 100 विवेचन--परमाणु पुद्गलद्रव्य की पर्याय है / अतएव प्रस्तुत सूत्र में शिष्य ने पुद्गल के सड़नगलन धर्म को ध्यान में रखकर अपनी जिज्ञासा व्यक्त की है। उत्तर में प्राचार्य ने बतलाया कि ऐसा कहना, मानना, सोचना यथार्थ नहीं है। क्योंकि शस्त्र का प्रभाव तो स्थल स्कन्धों-पदार्थों पर ही पड़ता है, सूक्ष्म रूप में परिणत पदार्थों पर नहीं। यद्यपि यह व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्म (निश्चय) परमाणुगों का पिंड होने से स्कन्ध रूप है, किन्तु स्वभावतः सूक्ष्म रूप में परिणत होने के कारण उस स्कन्ध (व्यवहारपरमाणु) पर अग्नि, जल आदि किसी भी प्रतिपक्षी का प्रभाव नहीं पड़ता है। गाथोक्त सिद्धा' पद से सिद्धगति को प्राप्त हुए सिद्ध भगवन्त गृहीत नहीं हुए हैं। मुक्ति में विराजमान सिद्ध भगवान् वचन-योग से रहित हैं / इसलिये यहाँ पर सिद्ध शब्द का अर्थ ज्ञानसिद्धभवस्थकेवली भगवान् जानना चाहिए।' परमाणु की विशेषता बतलाने के बाद अब उसके द्वारा नियन्न होने वाले कार्यों का वर्णन करते हैं। व्यावहारिक परमाणु का कार्य 344. अणंताणं वावहारियपरमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिप्तमागमेणं सा एगा उस्साहसहिया ति वा सहसण्यिा ति वा उड्ढरेणू ति वा तसरेणू ति वा रहरे गूति वा / अट्ठ उस्साहसण्हियाओ सा एगा साहसहिया / अट्ठ सहसण्हियाओ सा एगा उड्ढरेणू / अट्ठ उट्टरेणूओ सा एगा तसरेणू / अट्ट तसरेणूओ सा एगा रहरेणू / अट्ट रहणूओ देवकुरु-उत्तरकुरुयाणं मणुयाणं से एगे वालग्गे / अट्ठ देवकुरु-उत्तरकुरुयाणं मणुयाणं बालग्गा हरिवास-रम्मगवासाणं मणुयाणं से एगे वालग्गे / अट्ठ हरिवस्स-रम्मयवासाणं मणुस्साणं वालग्गा हेमवय-हेरगणवयवासाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे। अट्ट हेमवय-हेरण्णवयवासाणं मणुस्साणं वालग्गा पुब्वविदेह-अवरविदेहाणं मणुस्साणं ते एगे वालग्गे। 1. सिद्धत्ति-ज्ञानसिद्धाः केबलिनो, न तु सिद्धाः सिद्धि गताः, तेषां वदनस्यासम्भवादिति ।-----अनुयोगद्वारवत्ति पत्र 161 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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