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________________ सुषम प्रमाणाधिकार निरूपण [255 उत्तरोत्तर ह्रास होता है। ये दोनों प्रत्येक दस-दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण के होते हैं और प्रत्येक छह-छह विभागों में विभाजित हैं। जिनको पारा या प्रारक कहते हैं / उत्सर्पिणी के अनन्तर अवपिणी और अवसर्पिणी के अनन्तर उत्सर्पिणी का क्रम भी निरन्तर परिवर्तित होता रहता है एवं इन दोनों के कुल मिलाकर बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कालमान को एक कालचक्र कहते हैं। ऐसे कालचक्र अतीत में अनन्त हो चुके है और अनागत में अनन्त होंगे। क्योंकि काल अनन्त है। पिणोद्वय काल के छह भेद और कालप्रमाण-~-१. दुषमादुषमा (2100 वर्ष), 2. दुषमा (21000 वर्ष), 3. दुधमासुषमा (4200 वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम), 4. सुषमादुषमा (दो कोडाकोडी सागरोपम), 5. सुषमा (तीन कोडाकोडी सागरोपम), 6. सुषमासुषमा (चार कोडाकोडी सागरोपम)। ये उर्षिणी काल के छह आरों के नाम हैं। इनके नाम क्रम से यह स्पष्ट हो जाता है कि पहले पारे से लगाकर उत्तरोत्तर सुख के साधनों की वृद्धि होती जाती है / इसके विपरीत अवरापिणी काल के भेदों के नाम इस प्रकार हैं-~१. सुषमासुषमा (4 कोडाकोडी सागरोपम), 2. सुषमा (तीन कोडाकोडी सागरोपम), 3. सुषमादुषमा (दो कोडाकोडी सागरोपम), 4. दुषम (42000 वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरापम), 5. दुषमा (21000 वर्ष), 6. दूपमादूपमा (21000 वर्ष)। इन कालभेदों में क्रमशः उत्तरोत्तर जीवों की आयु, श्री आदि में ह्रास होता जाता है। अवसर्पिणी कालगत चरम ह्रास के पश्चात् तथा उत्सर्पिणी काल का जब प्रथम पारा दुषमदुषम समाप्त हो जाता है और द्वितीय प्रारक दुषमा के लगते ही सकल जनों के अभ्युदय के निमित्त पुष्करसंवर्तक आदि महामेघ प्रकट होते हैं / पुष्करसंवर्तक नामक मेध भूमिगत समस्त रूक्षता, पादप आदि अशुभ प्रभाव को शांल-प्रशांत करके धान्यादि का अभ्युदय करता है / इस मेध में जल व हत होता है। इसीलिये शिष्य ने जिज्ञासा ब्यक्त की थी कि क्या व्यवहारपरमाण पृष्करसंवर्तक मेघ से प्रभावित होता है ? [4] से णं भंते ! गगाए महाणईए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा ? हंता हवमागच्छेज्जा। से णं तत्थ विणिधायमावज्जेज्जा ? नो तिणठे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमति / 6343-4 प्र.] भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाणु गंगा महानदी के प्रतिस्रोत (विपरीत प्रवाह) में शीघ्रता से गति कर सकता है ? [343-4 उ.] आयुष्मन् ! हाँ, वह प्रतिकूल प्रवाह में शीघ्र गति कर सकता है / [प्र. तो क्या वह उसमें प्रतिस्खलना (रुकावट) प्राप्त करता है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि (किसी भी) शस्त्र का उस पर असर नहीं होता है / विवेचन–प्रतिकूल प्रवाह में भी उस व्यावहारिक परमाणु के प्रतिस्खलित न होने के उत्तर को सुनकर शिष्य ने पुनः अपनी जिज्ञासा व्यक्त की [5] से णं भंते ! उदगावतं वा उदबदु वा ओगाहेज्जा? हंता प्रोगाहेज्जा / से गं तत्थ कुच्छेज्ज वा परियावज्जेज्ज वा? णो इणठे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमति / 1. अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति पृ. 161 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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