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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [257 अट्ट पुटवविदेह-अवरविदेहाणं मणूसाणं वालग्गा भरहेरखयाणं मणस्साणं से एगे वालग्गे / प्रह भरहेरक्याणं मसाणं वालग्गर साएगा लिक्खा / अट लिक्खाओ सा एगा जया। अट्ट यातो से एगे जयमज्झे / अट्ठ जवमने से एगे उस्सेहंगुले / [344] उन अनन्तानन्त व्यावहारिक परमाणुनों के समुदयसमितिसमागम (समुदाय के एकत्र होने) से एक उत्पलक्ष्णप्लक्षिाका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊर्ध्वरेणु, बसरेणु और रथरेणु उत्पन्न होता है। आठ उत्श्लक्ष्ण श्लक्षिणका की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है। पाठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका का एक ऊर्ध्वरेणु होता है / पाठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक बस रेणु, पाठ त्रसरेणुनों का एक रथरेणु, पाठ रथरेणुओं का एक देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों का बालान, पाठ देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों के बालानों का एक हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष के मनुष्यों का बालाग्र होता है / पाठ हरिवर्ष-रम्यवर्ष के मनुष्यों के बालानों के बराबर हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों के पाठ बालानों के बराबर पूर्व महाविदेह और अपर महाविदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है / पाठ पूर्व विदेह-अपर विदेह के मनुष्यों के बालानों के बराबर भरत-एरावत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालान होता है। भरत और एरावत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालारों की एक लिक्षा (लीख) होती है / पाठ लिक्षाओं की एक जूं, आठ जुओं का एक यवमध्य और पाठ यवमध्यों का एक उत्सेधांगुल होता है। 345. एएणं अंगुलपमाणे छ अंगुलाई पादो, बारस अंगुलाई बिहत्थी, चउच्चीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छो, छन्नउती अंगुलाई से एगे दंडे इ वा धणू इ वा जुगे इ वा नालिया इ वा अक्ले इ वा मुसले इ था, एएणं धणुप्पमाणेणं दो घणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाई जोयणं। [345] इस अंगुलप्रमाण से छह अंगुल का एक पाद होता है। बारह अंगुल की एक वितस्ति, चौबीस अंगुल की एक रनि, अड़तालीस अंगुल की एक कुक्षि और छियानवै अंगुल का एक दंड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल होता है / इस धनुषप्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है / विवेचन इन दो सूत्रों में बताया गया है कि उत्सेधांगुल की निष्पत्ति कैसे होती है ? पहले तो सामान्य रूप से कथन किया है कि अनन्त व्यावहारिक परमाणुओं के संयोग से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका आदि की निष्पत्ति होती है और उसके बाद उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका आदि को पूर्व-पूर्व की अपेक्षा आठ-पाठ गुणा बतलाया गया है। इन दोनों में से पहले कथन द्वारा यह प्रकट किया गया है कि ये सब अनन्त परमाणुओं द्वारा निष्पन्न होने की दृष्टि से समान हैं और दुसरे प्रकार द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अनन्त परमाणु प्रों से निष्पन्न होने की समानता होने पर भी पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर में अष्टगुणाधिकता रूप विशेषता है। इस प्रकार प्रथम कथन सामान्य रूप एवं द्वितीय कथन विशेष रूप समझना चाहिये / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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