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________________ 290] [अनुयोगद्वारसूत्र सर्वज्ञ-अनन्तज्ञानियों ने तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वास-निश्वासों का एक मुहूर्त कहा है / 106 इस मुहूर्त प्रमाण से तीस मुहूतों का एक अहोरात्र (दिनरात) होता है, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक संवत्सर (वर्ष), पांच संवत्सर का एक युग और बीस युग का वर्षशत (एक सौ वर्ष) होता है / दस सौ वर्षों का एक सहस्र वर्ष, सौ सहस्र वर्षों का एक लक्ष (लाख) वर्ष होता है, चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग, चौरासी लाख पूर्वांगों का पूर्व, चौरासी लाख पूर्वो का त्रुटितांग, चौरासी लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित, चौरासी लाख त्रुटितों का एक अडडांग, चौरासी लाख अडडांगों का एक अडड, चौरासी लाख अडडों का एक अववांग, चौरासी लाख अववांगों का एक अवव, चौरासी लाख अववों का एक हुहुअंग चौरासी लाख हुअंगों का एक हुहु, इसी प्रकार उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अच्छनिकुरांग, अच्छनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चलिकांग, चलिका, चौरासी लाख चलिकाओं की एक शीषेप्रहेलिकांग होता है एवं चौरासी लाख शीर्षप्रहेलिकांगों की एक शीर्षप्रहेलिका होती है। एतावन्मात्र ही गणित (गणना) है। इतना ही गणित का विषय है, इसके आगे उपमा काल की प्रवृत्ति होती है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में गणनीय काल का वर्णन किया है। इसकी प्रारम्भिक इकाई प्रावलिका है और अन्तिम संख्या का नाम शीर्षप्रहेलिका है / प्रावलिका का कालमान निश्चित अमुक मणनीय संख्या के द्वारा निर्धारण किया जाना शक्य नहीं होने से उसके मान के लिये बताया कि असंख्यात समयों के समुदाय की एक आवलिका होती है। लेकिन इसके बाद के उच्छवास, निःश्वास आदि से लेकर शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त का मान निश्चित गणनीय संख्या में बतलाया है। इसमें भी जहाँ तक के कालमान को सामान्य निर्धारित संज्ञाओं द्वारा कहा जाना शक्य है, उन-उनके लिये दिन, रात, पक्ष, अयन आदि के द्वारा बताया है / लेकिन उसके बाद के कालमान को बताने के लिये पूर्वांग, पूर्व प्रादि संज्ञायें निर्धारित की और प्रत्येक को पूर्व-पूर्व से चौरासी लाख-चौरासी लाख वर्ष अधिक-अधिक बताया है। इसके लिये निर्धारित संज्ञाओं के नाम सूत्र में बताए गए हैं। लेकिन ग्रन्थान्तरों में इन संज्ञायों के क्रम और नामों में अन्तर है / जैसेजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में अयुत, नयुत और प्रयुत पाठ है और ज्योतिष्करण्डक के अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है पूर्वांग, पूर्व, लतांग, लता, महालतांग, महालता, नलिनांग, नलिन, महान लिनांग, महानलिन, पद्मांग, पद्म, महापद्मांग, महापद्म, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रुटितांग, महात्रुटित, अडडांग, अडड, महाअडडांग, महाअडड, अहांग, अह, महाग्रहांग, महायह, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। इस प्रकार की विभिन्नता के कारण के विषय में काललोकप्रकाशकार का मंतव्य है कि अनुयोगद्वारसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि माथुरवाचना से अनुगत हैं और ज्योतिष्करण्डक आदि बलभीवाचता से अनुगत हैं / इसी से दोनों नामों में अन्तर है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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