________________ 18] [अनुयोगद्वारसूत्र संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थों का विधिपूर्वक विभाग जिस अभिप्राय से किया जाता है, उस अभिप्राय को व्यवहारनय कहते हैं। व्यवहारनय में लौकिक प्रवृत्ति-व्यवहार की प्रधानता होती है, जिससे वह लोकव्यवहारोपयोगी पदार्थों को स्वीकार करता है, अन्य को नहीं। लोकव्यवहार में जल श्रादि लाने के लिये घट आदि 'विशेष' उपकारी दिखते हैं अतः उस विशेष के अतिरिक्त अन्य कोई घटत्व आदि सामान्य नहीं है / अतएव व्यवहारनय विशेष को वस्तु रूप से स्वीकार करता है, सामान्य को नहीं। जिससे विशेष-भेद की मुख्यता से नैगमनय के सदृश ही जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हों, उतने ही आगमद्रव्य-आवश्यक हैं / इस प्रकार प्ररूपणा में समानता होने से सूत्रकार ने क्रमप्राप्त संग्रहनय को छोड़कर ग्रन्थलाधव की दृष्टि से व्यवहारनय का उपन्यास संग्रहनय से पूर्व और नैगमनय के अनन्तर किया है / समस्त भुवनत्रयवर्ती वस्तुसमूह का सामान्यमुखेन संग्रह करने वाले, जानने वाले संग्रहनय की अपेक्षा एक अथवा अनेक जितनी भी अनुपयुक्त आत्मायें हैं, वे सब आगम से एक द्रव्य-आवश्यक है। क्योंकि संग्रहनय मात्र सामान्य को ही ग्रहण करता है, विशेषों को नहीं और विशेषों को स्वीकार न करने में उसका मन्तव्य यह है कि वे विशेष सामान्य से पृथक् हे या अपृथक् हैं ? यदि प्रथमपक्ष स्वीकार किया जाय तो सामान्य के अभाव में खरविषाणवत् विशेष सम्भव नहीं हैं और विशेष सामान्य से अपृथक् होने से वे सामान्य ही है। इसलिये सामान्य से व्यतिरिक्त विशेष सम्भव नहीं हैं। अतः जितने भी द्रव्य-आवश्यक हैं, वे सभी सामान्य से अव्यतिरिक्त होने के कारण एक ही पागमद्रव्य-आवश्यक रूप हैं। अतीत, अनागत पर्यायों को छोड़कर वर्तमान स्वकीय पर्याय को स्वीकार करने वाला ऋजुसूवनय एक आगमद्रव्य-प्रावश्यक को मानता है, पार्थक्य-भेद को स्वीकार नहीं करता है। क्योंकि अतीत पर्याय के विनष्ट होने और अनागत पर्याय के अनुत्पन्न होने से वह वर्तमान पर्याय को ही मानता है और वह वर्तमान पर्याय एक सामयिक होने से एक ही है। इसी कारण इस नय की दृष्टि में पृथक्त्व-नानात्व नहीं है / जिससे इस नय की मान्यतानुसार ग्रागमद्रव्य-अावश्यक एक ही है, अनेक नहीं। शब्दप्रधान नयों का नाम शब्दनय है। शब्द के द्वारा ही अर्थावगम होने से ये शब्द को प्रधान मानते हैं। शब्द, समभिरूढ़ और एबं भूत के भेद से शब्दनय तीन हैं। इनका मन्तव्य है कि ज्ञातृत्व और अनुपयुक्तता का समन्वय सम्भव नहीं है। क्योंकि ज्ञाता होने पर अनुपयुक्त और अनुपयुक्त होने पर ज्ञाता यह स्थिति वन नहीं सकती है। ज्ञाता है तो वह उसमें उपयुक्त है और यदि अनुपयुक्त है तो वह उसका ज्ञाता नहीं है। इसलिये आवश्यकशास्त्र के अनुपयुक्त ज्ञाता को लेकर की जाने वाली आगमद्रव्य-प्रावश्यक की प्ररूपणा असत् है। इस प्रकार से आगमद्रव्य-ग्रावश्यक का स्वरूप एवं तत्सम्बन्धित नयों का मन्तव्य जानना चाहिये। नोग्रागमद्रव्य-आवश्यक 16. से कि तं नोआगमतो दवावस्सयं? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org