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________________ आवश्यक निरूपण] नोआगमतो दन्वावस्तयं तिविहं पण्णत्तं / तं जहा-जाणगसरीरदब्वावस्सयं 1 भवियसरीरदव्वावस्सयं 2 जाणगसरीरवियसरीरवतिरित्तं दवावस्सयं 3 / [16 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्य-यावश्यक का स्वरूप क्या है ? [16 उ.] अायुष्मन् ! नोआगमद्रव्य-यावश्यक तीन प्रकार का है। यथा-१. ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक, 2. भव्यशरीरद्रव्यावश्यक, 3. जायकशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्तद्रव्यावश्यक / विवेचन--सूत्र में भेदों के द्वारा नोआगमद्रव्यावश्यक का स्वरूप बताया है। नो शब्द का प्रयोग सर्वथा और एकदेश दोनों प्रकार के निषेधों में होता है / यहाँ नोग्रागमद्रव्यावश्यक के भेदों में 'नो' शब्द सर्वथा और एकदेश अभाव के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि इन भेदों में पागम काआवश्यकादि ज्ञान का सर्वथा अभाव है और एकदेशप्रतिषेधवचन में नो शब्द का उदाहरण इस प्रकार जानना चाहिये-यावर्तादि क्रियाओं को करते और वंदनासूत्र प्रादि रूप आगम का उच्चारण करते हुए जो आवश्यक करते हैं, वे नोग्रागभद्रव्यावश्यक हैं / इसके तीन प्रकार हैं / अब क्रम से उनका विवेचन करते हैं। नोआगमजायकशरीरद्रव्यावश्यक 17. से कि तं जाणगसरीरदवावस्सयं ? जाणगसरोरदव्यावस्सयं आवस्सए त्ति पदत्याधिकारजाणगस्स जं सरीरयं ववगयचुतचावितचत्तदेहं जीवविष्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ता णं कोइ भणेज्जा-अहो! णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिङेणं भावेणं आवस्सए ति पयं आधनियं पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उपदसियं / जहा को दिळंतो? अयं महकुभे आसी, अयं घयकुभे आसी / से तं जाणगसरोरदवावस्सयं। [17 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [17 उ.] आयुष्मन् ! आवश्यक इस पद के अर्थाधिकार को जानने वाले के व्यपगतचैतन्य से रहित, च्युत-च्यावित ग्रायकर्म के क्षय होने से श्वासोच्छवास आदि दस प्रकार के प्राणों से रहित, त्यक्तदेह-आहार-परिणतिजनित वृद्धि से रहित, ऐसे जीव विप्रमुक्त शरीर को शैयागत, संस्तारकगत अथवा सिद्धशिलागत-अनशन ग्रादि अंगीकार किये गये स्थान पर स्थित देखकर कोई कहे-'अहो ! इस शरीररूप पुद्गलसंघात ने जिनोपदिष्ट भाव से आवश्यक पद का (गुरु से) अध्ययन किया था, सामान्य रूप से शिष्यों को प्रज्ञापित किया था, विशेष रूप से समझाया था, अपने प्राचरण द्वारा शिष्यों को दिखाया था, निदर्शित---अक्षम शिष्यों को आवश्यक ग्रहण कराने का प्रयत्न किया था, उपशित-नयों और युक्तियों द्वारा शिष्यों के हृदय में अवधारण कराया था। ऐसा शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्य-आवश्यक है। शिष्य -इसका समर्थक कोई दृष्टान्त है ? प्राचार्य--(दृष्टान्त इस प्रकार है...) यह मधु का घड़ा था, यह घी का घड़ा था / यह ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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