SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 20] [अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन—सूत्र में द्रव्यावश्यक के दूसरे भेद नोमागम के ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। जिसने पहले आवश्यकशास्त्र का सविधि ज्ञान प्राप्त कर लिया था, किन्तु अब पर्यायान्तरित हो जाने से उसका वह निर्जीव शरीर यावश्यकसूत्र के ज्ञान से सर्वथा रहित होने के कारण नोप्रागमज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक है। यद्यपि मृतावस्था में चेतना नहीं होने से उस शरीर में द्रव्यावश्यकता नहीं है, तथापि भूतपूर्वप्रज्ञापननयापेक्षया अतीत आवश्यक पर्याय के प्रति कारणता मानकर उसमें द्रव्यावश्यक है / लोकव्यवहार में ऐसा माना भी जाता है, जो सूत्रगत दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि पहले जिम घड़े में मधु या घृत भरा जाता था लेकिन अब नहीं भरे जाने पर भी यह मधुकंभ है, यह धृतकुंभ है' ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार निर्जीव शय्यादिगत शरीर भी भूतकालीन आवश्यक पर्याय का कारण रूप आधार होने से नोग्रागम की अपेक्षा द्रव्यावश्यक है। सूत्रस्थ 'अहो' शब्द दैन्य, विस्मय और आमंत्रण इन तीन अर्थों में प्रयुक्त हया है। जैसे शरीर अनित्य है इससे दैन्य का, इस निर्जीव शरीर ने आवश्यक जाना था इससे विस्मय का और देखो इस शरीरसंघात ने आवश्यकशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था, इससे परिचितों को ग्रामंत्रित करने का ग्राशय घटित होता है। विशिष्ट शब्दों का अर्थ—सेज्जा (शय्या) सर्वांगप्रमाण लंबा-चौड़ा पाटा आदि / संथार (संस्तार) अढाई हाथ प्रमाण लंबा-चौड़ा पाट, यह शय्या के प्रमाण से प्राधा होता है। सिद्धसिलातल (सिद्धशिलातल) अनेकविध तपस्यायों को करने वाले साधुजनों ने जहाँ स्वयमेव जाकर भक्तप्रत्याख्यान रूप अनशन किया है, करते हैं और करेंगे, अथवा जहाँ पर जिस किसी महर्षि ने संस्तारक करके मरणधर्म को प्राप्त किया हो, उस स्थान का नाम सिद्धगिलातल है / नोआगमभव्यशरीरद्रव्यावश्यक 18. से कि तं भवियसरीरदब्वावस्सयं? भवियसरीरदवावस्सयं जे जोवे जोणिजम्मणणिक्खते इमेणं चेव सरीरसमुस्सएणं आदत्तएणं जिणोवदिठेणं भावेणं आवस्सए त्ति पयं सेवकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ / जहा को दिळतो? अयं महुकुमे भविस्सइ, अय धयकुभे भविस्सइ / से तं भवियसरीरदब्वावस्सयं / [18 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [18 उ.] आयुष्मन् ! समय पूर्ण होने पर जो जीव जन्मकाल में योनिस्थान से बाहर निकला और उसी प्राप्त शरीर द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार भविष्य में आवश्यक पद को सीखेगा, किन्तु अभी सीख नहीं रहा है, ऐसे उम जीव का वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यावश्यक कहलाता शिष्य-इसका कोई दृष्टान्त है ? प्राचार्य-(दृष्टान्त इस प्रकार है-) यह मधुकंभ होगा, यह घृतकुंभ होगा। यह भव्यशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy