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________________ आवश्यक निरूपण] [17 [15-1] नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त प्रात्मा एक आगमद्रव्य-प्रावश्यक है। दो अनुपयुक्त आत्माएं दो प्रागमद्रव्य-अावश्यक, तीन अनुपयुक्त आत्माएँ तीन भागमद्रव्य-प्रावश्यक है। इसी प्रकार जितनी भी अनुपयुक्त प्रात्माएँ हैं, वे सभी उतनी ही नैगमनय की अपेक्षा आगमद्रव्यअावश्यक है। [2] एवमेव ववहारस्स वि / [15-2| इसी प्रकार (नैगमनय के सदृश ही) व्यवहारनय भी प्रागमद्रव्य-आवश्यक के भेद स्वीकार करता है। [3] संगहस्स एगो वा अणेगा वा अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा आगमओ दव्वावस्सयं वा दवावस्सयाणि वा से एगे दव्वावस्सए / [15-3] संग्रहनय (सामान्यमात्र को ग्रहण करने वाला होने से) एक अनुपयुक्त प्रात्मा एक द्रव्य-यावश्यक और अनेक अनुपयुक्त प्रात्माएँ अनेक द्रव्य-प्रावश्यक हैं, ऐसा स्वीकार नहीं करता है / वह सभी आत्माओं को एक द्रव्य-पावश्यक ही मानता है। [4] उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दवावस्सयं, पुहत्तं नेच्छइ / / 15-4] ऋजुसूत्रनय के मन से एक अनुपयुक्त प्रात्मा एक अागमद्रव्य-प्रावश्यक है। वह पृथक्त्व-भेदों को स्वीकार नहीं करता है / [5] तिण्हं सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू / कम्हा? जइ जाणए अणुवउत्ते ण भवति / से तं आगमओ दवावस्सयं / [15-5] तीनों शब्दनय (शब्द, समभिरूढ, एवंभूत नय) ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हो तो उसे प्रवस्तु (असत) मानते हैं। क्योंकि जो ज्ञायक है वह उपयोगशुन्य नहीं होता है और जो उपयोगरहित है उसे ज्ञायक नहीं कहा जा सकता। यह पागम से द्रव्य-यावश्यक का स्वरूप है / विवेचन- सूत्र में पागमद्रव्य-पावश्यक के विषय में नयों का मन्तव्य स्पष्ट किया है / वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। किन्तु वचन में एक समय में एक ही धर्म का कथन करने की योग्यता होने से उस एक धर्म के ग्राहक बोध को नय कहते हैं। प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्मों के होने से नयों की संख्या भी अनन्त है, तथापि सुगमता से बोध कराने के लिये उनका सात विभागों में समावेश कर लिया जाता है। नैगमनय की मान्यतानुसार पदार्थ सामान्य और विशेष उभय रूप है / वह न केवल सामान्य रूप है और न केवल विशेष रूप ही है। अतः वह एक नहीं अपितु अनेक प्रकारों द्वारा अर्थ का बोध कराता है। अतएव उस नय की दृष्टि से विशेष रूप भेद को प्रधान मानकर जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, उतने ही आगमद्रव्य-यावश्यक हैं। वह संग्रहनय की तरह एक ही द्रव्य-अावश्यक नहीं मानता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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