________________ 16] [अनुयोगद्वारसूत्र परिजित--आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी पूर्वक सर्वात्मना परावर्तित कर लिया है, नामसम-स्वकीय नाम की तरह अविस्मृत कर लिया है, घोषसम-उदात्तादि स्वरों के अनुरूप उच्चारण किया है, अहीनाक्षर-अक्षर की हीनतारहित उच्चारण किया है, अनत्यक्षर-अक्षरों की अधिकता रहित उच्चारण किया है, अव्याविद्धाक्षर-व्यतिक्रम रहित उच्चारण किया है, अस्खलित--स्खलित रूप (बीच-बीच में कुछ अक्षरों को छोड़कर) से उच्चारण नहीं किया है, अमिलित-शास्त्रान्तर्वर्ती पदों को मिश्रित करके उच्चारण नहीं किया है, अव्यत्यानंडित-एक शास्त्र के भिन्न-भिन्न स्थानगत एकार्थक सूत्रों को एकत्रित करके पाठ नहीं किया है,' प्रतिपूर्ण-अक्षरों और अर्थ की अपेक्षा शास्त्र का अन्यूनाधिक अभ्यास किया है, प्रतिपूर्ण घोष-यथास्थान समुचित घोषों पूर्वक शास्त्र का परावर्तन किया है, कंठोष्ठविप्रमुवत---स्वरोत्पादक कंठादि के माध्यम से स्पष्ट उच्चारण किया है, गुरुवाचनोपगत-गुरु के पास (अावश्यक शास्त्र की) वाचना ली है, जिससे वह उस शास्त्र की वाचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा से भी युक्त है। किन्तु (अर्थ का अनुचिन्तन करने रूप) अनुप्रेक्षा (उपयोग) से रहित होने से वह आगमद्रव्य-आवश्यक है। क्योंकि 'अनुपयोगो द्रव्यं' इस शास्त्रवचन के अनुसार आवश्यक के उपयोग से रहित होने के कारण उसे आगमद्रव्य-पावश्यक कहा जाता है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में पागमद्रव्य-प्रावश्यक का स्वरूप बताया है। सूत्रार्थ स्पष्ट है / आगम-श्रतज्ञान का कारण प्रात्मा, तदधिष्ठित देह और उपयोगशुन्य सुत्र का उच्चारण शब्द है। ये सभी साधन होने से कारण में कार्य का उपचार करके उन्हें पागम कहा है। द्रव्य कहने का कारण यह है कि विवक्षित भाव का कारण द्रव्य होता है। इसलिये आवश्यक में उपयोग रहित त्मा को आगमद्रव्य-मावश्यक कहा जाता है। यदि उपयोग पूर्वक अनप्रेक्षा हो तब वह भाव-प्रावश्यक जाये / अतएव अनुपयोग के कारण उसे द्रव्य-प्रावश्यक कहा गया है। सूत्रकार ने शिक्षितादि श्रुतगुणों के वर्णन द्वारा यह सूचित किया है कि इस प्रकार से शास्त्र का अभ्यासी भी यदि उसमें अनुपयुक्त (उपयोग बिना का) हो रहा है तो वह द्रव्यश्रुत-द्रव्ययावश्यक ही है। श्रुतगुणों में 'अहीनाक्षर' का ग्रहण इसलिये किया है कि होनाक्षर सूत्र का उच्चारण करने से अर्थ में भेद हो जाता है और उससे क्रिया में भेद भाने से परम कल्याण रूप मोक्ष की प्राप्ति न होकर अनन्त संसार की प्राप्ति रूप अनर्थ प्रकट होते हैं / घोषसम और परिपूर्ण घोष-इन दोनों विशेषणों में स घोषसम विशेषण शिक्षाकालाश्रयी है और परिपूर्णघोष विशेषण परावर्तनकाल की अपेक्षा है / प्रागमद्रव्य-पावश्यक और नयदृष्टियाँ 15. [1] गमस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एग दवावस्सयं, दोणि अणुवउत्ता आगमओ दोण्णि दवावस्तयाई, तिणि अणुवउत्ता आगमओ तिणि दव्वावस्सयाई, एवं जावइया अणुवउत्ता तावइयाई ताई गमस्स आगमओ दवावस्सयाई। 1. सूत्रों का पाठ करते समय बीच-बीच में स्वबुद्धि से रचित तत्सदृश सूत्रों का उच्चारण करना अथवा बोलले समय जहाँ विराम लेना हो वहाँ विराम नहीं लेना और जहाँ विराम नहीं लेना हो वहाँ विराम लेने को भी व्यत्याग्रंडित कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org