________________ आवस्यकमिपणा सूत्रगत विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं कट्रकम्मे (काष्ठकर्म)-लकड़ी में उकेरी गई प्राकृति / चित्तकम्मे -(चित्रकर्म) कागज आदि पर चित्रित प्राकृति। पोत्थकम्मे (पुस्तकम)- कपड़े पर चित्रित प्राकृति आदि / अथवा पुस्तक प्रादि में बनाई गई रचना विशेष या ताडपत्र पर छेद कर बनाये गये प्राकार प्रादि / लेप्पकम्मे (लेन्यकर्म)गीली मिट्टी के पिंड से रचित प्राकार | गंथिमे (ग्रन्थिम)- सूत आदि को गूथकर बनाई गई रचना / वेढिमे (वेष्टिम)-एक, दो या अनेक वस्त्रों को वेष्टित कर, लपेटकर बनाया गया आकार / पूरिमे (पूरिम)-गर्म तांबे, पीतल ग्रादि को सांचे में ढालकर बनाया गया प्राकार / संघाइमे (संघातिम)पुष्पों आदि को अथवा अनेक वस्त्रखंडों को सांधकर-जोड़कर बनाया गया रूपक / अक्खे (अक्ष)चौपड़ के पासे प्रादि / वराडए (वराटक)-कौड़ी। 13. से कि तं दवावस्सयं ? दव्वावस्मयं दुविहं पण्णत्तं / तं जहा-आगमतो य 1 णो आगमतो य 2 / [13 प्र.] भगवन् ! द्रव्य-यावश्यक का क्या स्वरूप है ? [13 उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यावश्यक दो प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार—१. प्रागमद्रव्यावश्यक, 2. नोग्रागमद्रव्यावश्यक / विवेचन----यहाँ भेद करके द्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया गया है। द्रव्य--जो उन-उन पर्यायों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है, अर्थात् जो अतीत, अनागत भाव का कारण हो उसे द्रव्य कहते हैं / विवक्षित पर्याय का जो अनुभव कर चुकी अथवा भविष्यत् काल में अनुभव करेगी ऐसी वस्तु प्रस्तुत प्रसंग में द्रव्य के रूप में परिगणित हुई है। ___ इस प्रकार का द्रव्य रूप जो आवश्यक हो वह द्रव्य-आवश्यक है / अर्थात् जो आवश्यक रूप परिणाम का अनुभव कर चुका अथवा भविष्य में अनुभव करेगा ऐसा अावश्यक के उपयोग से शून्य साधु का शरीर आदि द्रव्य-आबश्यक पद का अभिधेय है / प्रागमद्रव्य-यावश्यक 14. से किं तं आगमतो दवावस्सयं ? आगमतो दवावस्सयं जस्स णं आवस्सए ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं णामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अब्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पतिपुण्णधोसं कंठोविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं / से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, गो अणुप्पेहाए / कम्हा ? "अणुवओगो दव" मिति कटु / [14 प्र. भगवन् ! अागमद्रव्य-पावश्यक का क्या स्वरूप है ? [14 उ.] आयुष्मन् ! आगमद्रव्य-आवश्यक का स्वरूप इस प्रकार है-जिस (साधु) ने 'पावश्यक' पद को सीख लिया है, (हृदय में) स्थित कर लिया है, जित–प्रावृत्ति करके धारणा रूप कर लिया है, मित--श्लोक, पद, वर्ण आदि के संख्याप्रमाण का भली-भांति अभ्यास कर लिया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org