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________________ आनुपूर्वी निरूपण एक ही क्षेत्र में परस्पर विरुद्ध आनुपूर्वो आदि व्यपदेश कैसे संगत ?- अनानुपूर्वी आदि द्रव्यों के सर्वलोकव्यापी होने पर भी एक ही क्षेत्र में प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक ये तीनों पृथक्पृथक् विषय वाले होने पर भी इनकी संगति इस प्रकार है कि अयादि प्रदेशों में अवगाढ ग्रानुपूर्वी द्रव्य से एक प्रदेशावगाढ द्रव्य भिन्न है और इन दोनों से द्विप्रदेशावगाढ भिन्न है। इस प्रकार प्राधेय रूप अवगाहक द्रव्य के भेद से प्राधार रूप अवगाह्य क्षेत्र में व्यपदेशभेद होना युक्त ही है। क्योंकि भिन्न-भिन्न सहकारियों के संयोग से तत्तद् धर्म की अभिव्यक्ति होने पर अनन्त धर्मात्मक एक ही वस्तु में युगपत् व्यपदेशभेद होना देखा जाता है। जैसे खङ्ग, कुन्त, कवच आदि से युक्त एक ही व्यक्ति को खङ्गी, कुन्ती, कवची आदि कहते हैं। अनुगमगत स्पर्शनाप्ररूषणा 153. [1] गम-ववहाराण आणपन्दीदवाई लोगस्स कि संखेज्जइभागं फुसंति ? असंखेज्जति० 2 जाब सम्वलोगं फुसंति ? एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जतिभागं वा फुसंति असंखेज्जतिभागं वा संखेज्जे वा भागे असंखेज्जे वा भागे देसूणं वा लोगं फुसंति, जाणादव्वाई पडुच्च णियमा सव्वलोगं फुसंति / [153-1 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत पानुपूर्वी द्रव्य क्या (लोक के) संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? या असंख्यातव भाग का, संख्यातवें भागों का अथवा असंख्यातवें भागों का अथवा सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ? 153-1 उ. अायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग का, असंख्यावें भाग का, संख्यातवें भागों का, असंख्यावें भागों का अथवा देशोन सर्व लोक का स्पर्श करते हैं किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। [2] अणाणुपुवीदवाइं अवत्तव्ययदव्वाणि य जहा खेत्तं, नवरं फुसणा भाणियब्वा / [2] अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की स्पर्थना का कथन पूर्वोक्त क्षेत्र द्वार के अनुरूप समझना चाहिये, विशेषता इतनी है कि क्षेत्र के बदले यहाँ स्पर्शना (स्पर्ण करता है) कहना चाहिये। विवेचन--सूत्र में नेगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वी प्रादि द्रव्यों की स्पर्शना का निर्देश किया है। एक प्रानुर्वी आदि द्रव्य लोक के संख्यात प्रादि भाग से लेकर देशोन लोक का स्पर्श करते हैं / एक आनुपूर्वी द्रव्य को देशोन लोक की स्पर्शना कहने का कारण यह है कि यदि एक प्रानुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक का स्पर्श करे तो अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों को रहने का अवकाश प्राप्त नहीं हो सकेगा और तब उन दोनों का प्रभाव मानना पड़ेगा। अत: इन दोनों द्रव्यों का सद्भाव बताने और इन्हें भी अवकाश प्राप्त होने के लिए एक आनुपूर्वी द्रव्य की स्पर्शना देशोन सर्व लोक बताई है। शेष वर्णन पूर्वोक्त क्षेत्र प्ररूपणावत् है / अनुगमगत कालप्ररूपणा 154. णेगम-ववहाराणं आणुपुटवीदवाई कालतो केवचिरं होति ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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