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________________ 98] [अनुयोगद्वारसूत्र यह है कि स्कन्ध द्रव्यों की परिणमनशक्ति विचित्र प्रकार की होती है। अतः विचित्र प्रकार की परिणमनशक्ति वाले होने के कारण स्कन्ध द्रव्यों का अवगाह लोक के संख्यात आदि भागों में होता है / क्योंकि विशिष्ट क्षेत्र में अवगाह से उपलक्षित हुए स्कन्ध द्रव्यों को ही क्षेत्रानुपूर्वी रूप से कहा गया है। प्रश्न-क्षेत्रानुपूर्वी के प्रसंग में एक द्रव्य की अपेक्षा अानुपूर्वी द्रव्य को देशोन लोक में अवगाढ होना बताया है किन्तु द्रव्यानुपूर्वी में अनन्तानन्त परमाणुओं से निष्पन्न एवं पुद्गलद्रव्य के सबसे बड़े स्कन्ध रूप अचित्त महास्कन्ध को सर्वलोकव्यापी कहा है। इस प्रकार अचित्त महास्कन्ध की अपेक्षा एक प्रानुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त होता है। अत: यहाँ (क्षेत्रानुपूर्वी में) जो एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा देशोन लोक में अवगाहना कही है, वह युक्तियुक्त कैसे है ? उत्तर-इस जिज्ञासा के समाधान के लिये यह समझना चाहिये कि यह लोक आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों से सदा व्याप्त है, अशून्य है। अतएव यदि ग्रानुपूर्वी द्रव्य को सर्वलोकव्यापी माना जाये तो फिर अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों के ठहरने के लिये स्थान न होने के कारण उनका प्रभाव मानना पड़ेगा। किन्तु जब देशोन लोक में एक प्रानुपूर्वी द्रव्य व्याप्त होकर रहता है, ऐसा मानते हैं तब अचित्त महास्कन्ध से पूरित हुए लोक में कम-से-कम एक प्रदेश और द्विप्रदेश ऐसे भी रह जाते हैं जो क्रमशः अनानुपूर्वी द्रव्य के विषयरूप से तथा अवक्तव्यक द्रव्य के विषयरूप से विवक्षित हो जाते हैं। इन एक और दो प्रदेशों में पानुपूर्वी द्रव्य का सद्भाव रहता है तो भी अप्रधान होने से उसकी नहीं किन्तु अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों की प्रधानता होने से विवक्षा की जाती है। इसीलिये एक प्रानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा से देशोन लोक में अवगाहित कहा गया है। सारांश यह है कि क्षेत्रानुपूर्वी में यदि लोक के समस्त प्रदेश ग्रानुपूर्वी रूप मान लिये जायें तो उस स्थिति में अनानुपूर्वी और अवनव्यक प्रदेश कौन से होंगे जिनमें अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य ठहर सकें ? अतः यह मानना चाहिये कि क्षेत्रानुपूर्वी में एक प्रदेश अनानुपूर्वी का विषय है और दो प्रदेश प्रवक्तव्यक के विषय हैं / अतः अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्यों के विषयभूत प्रदेश को छोड़कर शेष समस्त प्रदेश प्रानुपूर्वी रूप हैं। इस प्रकार क्षेत्रानुपूर्वी में एक प्रानुपुढे द्रव्य की अपेक्षा देशोन समस्त लोक में पानुपूर्वी द्रव्य अवगाह हैं, यह जानना चाहिए। एक अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाही इसलिये माना है कि अनानुपूर्वी रूप से वही द्रव्य विवक्षित हुअा है जो लोक के एक प्रदेश में अवगाढ हो और लोक का एक प्रदेश लोक का असंख्यातवाँ भाग है / नाना अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वलोकन्यापी इसलिये माने हैं कि एक-एक प्रदेश में अवगाढ अनानुपूर्वी द्रव्यों के भेद समस्त लोक को व्याप्त किये हुए हैं। प्रवक्तव्यक द्रव्यों की वक्तव्यता भी अनानुपूर्वी द्रव्यों के समान कथन करने का प्राशय यह है कि एक अवक्तव्यक द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाहित रहता है। क्योंकि लोक के प्रदेशद्वय में अवगाढ हुए द्रव्य को प्रवक्तव्यक द्रव्य रूप से कहा गया है और ये दो प्रदेश लोक के असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग रूप हैं तथा जितने भी प्रवक्तव्यक द्रव्य हैं वे सभी लोक के दो-दो प्रदेशों में रहने के कारण सर्वलोकव्यापी माने गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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