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________________ 444] [अनुयोगद्वारसूत्र से तं नोआगमतो भावज्झोणे / से तं भावज्झीणे / से तं अज्झोणे / [557 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमभाव-अक्षीण का क्या स्वरूप है ? [557 उ.] आयुष्मन् ! जैसे दीपक दूसरे सैकड़ों दीपकों को प्रज्वलित करके भी प्रदीप्त रहता है, उसी प्रकार आचार्य स्वयं दीपक के समान देदीप्यमान हैं और दूसरों (शिष्य वर्ग) को देदीप्यमान करते हैं / 126 इस प्रकार से नोग्रागमभाव-अक्षीण का स्वरूप जानना चाहिये। यही भाव-अक्षीण और अक्षीण की वक्तव्यता है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में सप्रभेद भाव-अक्षीण का वर्णन कर अक्षीण की वक्तव्यता की ममाप्ति का सुचन किया है। उपयोग आगमभाव-अक्षीण कैसे ?- श्रुतकेवली के श्रुतोपयोग की अन्तर्मुहर्त्तकालीन अनन्त पर्याय होती हैं। उनमें से प्रतिसमय एक-एक पर्याय का अपहार किये जाने पर नन्त उत्सपिणीअवसपिणी काल में उनका क्षय होना संभव नहीं हो सकने से वह पागमभाव अक्षीण रूप है। नोग्रागमभाव-प्रक्षीणता के निर्दिष्ट उदाहरण का आशय यह है-अध्ययन-अध्यापन द्वारा श्रुत की निरंतरता रहना, श्रुत की परंपरा का क्षीण न होना भाव-अक्षीणता है / इसमें प्राचार्य का उपयोग प्रागम और वाक-कायव्यापार रूप योग अनागम रूप है किन्तु बोधप्राप्ति में सहायक है / यही बताने के लिये आगम के साथ 'नो' शब्द दिया है। प्राय-निरूपण 558. से कि तं पाए ? आए चउठिवहे पण्णत्ते / तं जहानामाए ठवणाए दवाए भावाए। [558 प्र.] भगवन् ! आय का क्या स्वरूप है ? [558 उ.] आयुष्मन् ! आय के चार प्रकार हैं / यथा - 1. नाम-पाय, 2. स्थापना-पाय, 3. द्रव्य-पाय, 4. भाव-प्राय / विवेचन---अप्राप्त की प्राप्ति-लाभ होने को आय कहते हैं / इसके भी अध्ययन, अक्षीण की तरह चार प्रकार हैं। नाम-स्थापना-प्राय 559. नाम-ठवणाओ पुन्वभणियाओ। [559] नाम-प्राय और स्थापना-आय का वर्णन पूर्वोक्त नाम और स्थापना आवश्यक के अनुरूप जानना चाहिए। 560. से कि तं दवाए ? दम्बाए दुविहे पणते / तं जहा---आगमतो य नोआगमतो य / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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