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________________ 92) [अनुयोगद्वारसूत्र नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपरणा और प्रयोजन 143. से कि तं गम-बवहाराणं अट्ठपयपरूवणया ? णेगम-ववहाराणं अनुपयपरूवणया तिपएसोगाढे आणुपुवी जाव दसपएसोगाढे आणुपुम्वी जाव संखिज्जपएसोगाढे आणुपन्वी असंखेज्जपएसोगाढे आणुपवी, एगपएसोगाढे अणाणुपुच्ची, दुपएसोगाढे अवत्तव्वए, तिपएसोगाढा आणुपुथ्वीओ जाव दसपएसोगाढा आणुपुवीश्रो जाव संखेज्जपए. सोगाढा आणुपुन्वीओ असंखिज्जपएसोगाढा आणुपुवीओ, एगपएसोगाढा प्रणाणुपुब्धीओ, दुपएसोगाढा अवत्तव्वगाई / से तं गम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया। [143 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारमयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? [143 उ.] आयुष्मन् ! उक्त नयद्वय-सम्मत अर्थपदप्ररूपणा का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये---तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् दस प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् संख्यात अाकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध पानुपूर्वी है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध अानुपूर्वी है / / ग्राकाश के एक प्रदेश में अवगाढ द्रव्य (पुद्गलपरमाणु) से लेकर यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक क्षेत्रापेक्षया अत्तानुपूर्वी कहलाता है / दो आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्य (दो, तीन या असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध भी) क्षेत्रापेक्षया प्रवक्तव्यक है। तीन आकाशप्रदेशावगाही अनेक-बहुत द्रव्यस्कन्ध प्रानुपूर्वियां हैं यावत् दसप्रदेशावगाही द्रव्यस्कन्ध प्रानुपूर्वियां हैं यावत् संख्यातप्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध अानुपूर्वियां हैं, असंख्यात प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियां हैं। एक प्रदेशावगाही पुद्गलपरमाणु प्रादि (अनेक) द्रव्य अनानुपूर्वियां हैं। दो अाकाशप्रदेशावगाही द्वयणुकादि द्रव्यस्कन्ध प्रवक्तव्यक हैं / यह नंगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप जानना चाहिये / 144. एयाए णं गेगम-बवहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए कि पोयणं ? एयाए णं णेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया कीरति / [144 प्र.] भगवन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है ? [144 उ.] आयुष्मन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता द्वारा नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। विवेचन-इन दो सूत्रों में क्रमश: नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के प्रथम भेद अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप एवं प्रयोजन बतलाया है / सूत्रार्थ स्पष्ट है। संबन्धित विशेष वक्तव्य इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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