________________ आनुपूर्वी निरूपण [93 क्षेत्रानुपूर्वी में क्षेत्र की प्रधानता है। व्यणुकादि रूप पुद्गलस्कन्धों के साथ उसका सीधा सम्बन्ध नहीं है। अतएव त्रिप्रदेशावगाही द्रब्यस्कन्ध से लेकर अनन्ताणक पर्यन्त स्कन्ध यदि वे एक आकाशप्रदेश में स्थित हैं तो उनमें क्षेत्रानुपूर्वीरूपता नहीं है / फिर भी यहाँ जो त्रिप्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध को आनुपूर्वी कहा गया है, उसका तात्पर्य आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाह रूप पर्याय से विशिष्ट द्रव्यस्कन्ध है। क्योंकि तीन पूदगलपरमाणु वाले द्रव्यस्कन्ध आकाश रूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों को भी रोककर रहते हैं। इसीलिये आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाही द्रव्यस्कन्ध भी पानुपूर्वी कहे जाते हैं। वैसे तो क्षेत्रानुपूर्वी का अधिकार होने से यहाँ क्षेत्र की मुख्यता है। परन्तु तदवगाढद्रव्य को क्षेत्रानुपूर्वीरूपता क्षेत्रावगाह रूप पर्याय की प्रधानता विवक्षित होने की अपेक्षा से है। प्रसंग होने पर भी क्षेत्र की मुख्यता का परित्याग करके उपचार को प्रधानता देकर तदवगाही द्रव्य में क्षेत्रानुपूर्वी का विचार इसलिये किया गया है कि सत्पदप्ररूपणता आदि रूप वक्ष्यमाण विचार का विषय द्रव्य है और इसी के माध्यम से जिज्ञासुओं को समझाया जा सकता है तथा क्षेत्र नित्य, अवस्थित, अचल होने से प्रायः उसमें आनुपूर्वी आदि की कल्पना किया जाना सुगम नहीं है, इसीलिये क्षेत्रावगाही द्रव्य के माध्यम से क्षेत्रानुपूर्वी का विचार किया है। सूत्रोक्त 'असंखेज्जपएसोगाढे पाणषुब्बी—'असंख्येयप्रदेशावगाढ प्रानुपूर्वी' इस पद का अर्थ प्राकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ असंख्यात अणुओं वाला अथवा अनन्त अणुओं वाला द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है, ऐसा जानना चाहिये / इसका तात्पर्य यह है कि एक पुद्गलपरमाणु आकाश के एक ही प्रदेश में अवगाढ होना है। परन्तु दो प्रदेश वाले स्कन्ध से लेकर असंख्यात प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्धों में से प्रत्येक पुद्गलस्कन्ध कम से कम एक प्राकाशप्रदेश में और अधिक से अधिक जिस स्कन्ध में जितने प्रदेश-परमाणु हैं उतने ही आकाश के प्रदेशों में अवगाढ होता है, अनन्त आकाशप्रदेशों में नहीं। क्योंकि द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है और लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश है। अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य संबन्धी विवरण का प्राशय यह है कि एक आकाशप्रदेश में स्थित परमाणु और स्कन्ध क्षेत्र की अपेक्षा अनानुपूर्वी हैं तथा द्विप्रदेशावगाढ़ द्विप्रदेशिक आदि स्कन्ध क्षेत्र की अपेक्षा प्रवक्तव्यक है / / इस अर्थपदप्ररूपणा का प्रयोजन भंगसमुत्कीर्तनता है / अतः अब भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप और प्रयोजन स्पष्ट करते हैं। नैगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी-भंगसमुत्कीर्तनता एवं प्रयोजन 145. से कि तं गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया? गम-बवहाराणं भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आणुपुथ्वी 1 अस्थि अणाणुयुधी 2 अस्थि अवत्तन्वए 3 एवं दवाणुपुब्बीगमेणं खेत्ताणुपुवीए वि ते चेव छन्वीसं भंगा भाणियन्वा, जाव से तं गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया। [145 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या स्वरूप है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org