________________ 112] [अनुयोगद्वारसूत्र 175. से किं तं अणाणुयुव्वी ? अणाणुपुथ्वी एयाए चेव एगादिगाए एगुत्तरियाए पण्णरसगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णमासो दुरूवूणो / से तं अणाणुपुब्वी। [175 प्र.] भगवन् ! ऊर्ध्व लोकक्षेत्रअनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? [175 उ.] अायुष्मन् ! आदि में एक रखकर एकोत्तरवृद्धि द्वारा निमित्त पन्द्रह पर्यन्त की श्रेणी में परस्पर गुणा करने पर प्राप्त राशि में से आदि और अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष भंगों को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी कहते हैं। विवेचन—यहाँ ऊर्ध्वलोकक्षेत्रान पूर्वी का स्वरूप स्पष्ट किया है। सर्वप्रथम सौधर्मकल्प का उपन्यास इसलिये किया है कि वह प्ररूपणकर्ता से सर्वाधिक निकट है / सौधर्मनाम का कारण यह है कि उस क्षेत्र सम्बन्धी (बत्तीस लाख) विमानों में सौधर्मावतंसकविमान सर्वश्रेष्ठ है और वह इस विमान से युक्त है। इसी प्रकार से ईशान से लेकर अच्युत तक के कल्पों के ईशानावतंसक आदि विमानों के लिये भी समझना चाहिये कि उन-उन कल्पों में वे-वे विमान सर्वश्रेष्ठ हैं, अतएव ये कल्प उन्हीं नामों वाले हैं। ___सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त के बारह देवलोकों में इन्द्र, सामानिक प्रादि वर्गात्मक भेद होने से वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं। वेयक और अनुत्तर विमान कल्पातीत संज्ञक हैं / इनमें इन्द्र आदि भेदरूप कल्प नहीं पाया जाता है। लोक रूप पुरुष की ग्रीवा के स्थानापन्न विमानों की अवेयक संज्ञा है। इनकी कुल संख्या नौ है और अधो, मध्य और ऊर्ध्व इन तीन वर्गों में ये तीन-तीन की संख्या में स्थित हैं। अनुत्तरविमान अन्य देवविमानों से अनुत्तर-श्रेष्ठतम होने से अनुत्तर कहलाते हैं। यह अनुत्तर विमान कुल पांच हैं, जिनके नाम विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध हैं। ये विजयादि अपराजित पर्यन्त चार विमान पूर्वादि चार दिशाओं में एक-एक स्थित हैं और इनके बीच में सर्वार्थसिद्ध विमान है। विजयादि पांचों विमानों में सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं और निश्चित रूप से वे मुक्तिपद प्राप्ति के अधिकारी होते हैं। ___ नव ग्रैवेयक तक विमानों में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों तरह के जीव उत्पन्न हो सकते हैं। ईषत्प्राग्भारापृथ्वी अपने प्रान्तभाग में भाराक्रान्त पुरुष की तरह कुछ झुकी हुई होने से ईषत्प्राग्भारा कहलाती है। इसे सिद्धशिला भी कहते हैं। ऊर्ध्वलोकक्षेत्र संबन्धी पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी संबन्धी विशेष वक्तव्यता अन्य ग्रागमों से समझ लेनी चाहिये। अब प्रकारान्तर से प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन है / औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी के वर्णन का द्वितीय प्रकार 176. अहवा ओवणिहिया खेताणुपुवी तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-- गुब्वाणुपुब्वी 1 पच्छाणुपुथ्वी 2 अणाणुपुम्वी 3 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org