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________________ आनुपूर्वी निरूपण] [113 [176] अथवा प्रोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है / यथा--..१ पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी और 3. अनानुपूर्वी / 177. से कि तं पुवाणुपुब्वी ? पुवाणुपुवी एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे जाव दसपएसोगाढे जाव असंखेज्जपएसोगाढे / से तं पुवाणुपुदी। [177 प्र.] भगवन् ! (औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी संबन्धी) पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [177 उ.] आयुष्मन् ! एकप्रदेशावगाढ, द्विप्रदेशावगाढ यावत् दसप्रदेशावगाढ यावत् असंख्यातप्रदेशाबगाढ के क्रम में क्षेत्र के उपन्यास को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। 178. से कि तं पच्छाणुपुत्री ? पच्छाणुपुची असंखेज्जपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे / से तं पच्छाणुपुत्री। [178 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [178 उ.] आयुष्मन् ! असंख्यातप्रदेशावगाढ यावत् एकप्रदेशावगाढ रूप में व्युत्क्रम से क्षेत्र का उपन्यास पश्चानुपूर्वी है। 179. से कि तं अणाणुपुत्वो? अणाणुपुन्बी एयाए चेन एगादियाए एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छगयाए सेढीए अन्नमनभासो दुरूवूणो / से तं अणाणुपुब्धी / से तं ओवणिहिया खेताणुपुन्वी / से तं खेत्ताणुपुव्वी। [179 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [179 उ.] आयुष्मन् ! एक से प्रारंभ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा असंख्यात प्रदेश पर्यन्त की स्थापित श्रेणी का परस्पर गुणा करने से निष्पन्न राशि में से आद्य और अंतिम इन दो रूपों को कम करने पर क्षेत्रविषयक अनानुपूर्वी बनती है। ___ इस प्रकार से औप निधिकी क्षेत्रानुपूर्वी की एवं साथ ही क्षेत्रानुपूर्वी की वक्तव्यता समाप्त हुई जानना चाहिये। विवेचन.. इन चार सूत्रों में सामान्य से औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का विवेचन करके क्षेत्रानुपूर्वी की वक्तव्यता का उपसंहार किया है / लोकाकाश असंख्यात प्रदेशप्रमाण है। अतः एकप्रदेश रूप क्षेत्र से प्रारंभ करके त्रमशः असंख्यात प्रदेश पर्यन्त के क्षेत्र का पूर्वानुपूर्वी आदि के रूप में उल्लेख किया है। अव क्षेत्रानुपूर्वी के अनन्तर क्रमप्राप्त कालानुपूर्वी का वर्णन प्रारंभ करते हैं। कालानुपूर्वीप्ररूपणा 180. से किं तं कालाणुपुवी? कालाणुपुच्ची दुविहा पण्णत्ता / तं जहा--ओवणिहिया य 1 अणोवर्णािहया य 2 / [180 प्र.] भगवन् ! कालानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [180 उ.] आयुष्मन् ! कालानुपूर्वी के दो प्रकार हैं, यथा- 1 औपनिधिकी और 2 अनौपनिधिको / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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