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________________ आनुपूर्वी निरूपण] [111 शंखबर, रुचकवर इन पांच नामों को गिनाया है / इस प्रकार चूर्णि के मत से रुचकबर का क्रम तेरहवां और गाथानुसार ग्यारहवां है। समुद्रीय जलों का स्वाद-लवणसमुद्र लवण के समान रस वाले जल से पूरित है। कालोद एवं पुष्करोद का जल शुद्धोदक के रस-समान रस वाला है। बारुणोद वारुणीरसवत् , क्षीरोद क्षीररस जैसे, धृतोद घृत जैसे तथा इक्षुरससमुद्र इक्षुरस जैसे स्वाद से युक्त जल वाला है। इसके बाद के अन्तिम स्वयंभूरमणसमुद्र को छोड़कर शेष सभी समुद्र इक्षुरस जैसे स्वाद वाले जल से युक्त हैं। स्वयंभूरमणसमुद्र के जल का स्वाद शुद्ध जल जैसा है। सभी द्वीप-समुद्रों का नामोल्लेख क्यों नहीं सूत्रकार ने असंख्यात द्वीप-समुद्रों के नामों में से कतिपय का वो उल्लेख किया किन्तु उनके अतिरिक्त अंतरालबर्ती शेष द्वीप-समुद्रों का नामोल्लेख इसलिये नहीं किया है कि वे असंख्यात है किन्त लोक में शंख, ध्वज, कलश, स्वस्तिक, श्रीवत्म, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि जितने भी पदार्थों के शुभ नाम हो सकते हैं, उन सबसे उपलक्षित अन्त गलबनी द्वीप-समुद्रों के नाम जान लेना चाहिये। ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपर्छ 172. उडलोगखेत्ताणुपुन्वी तिविहा पण्णत्ता। तं जहा--पुन्वाणुपुब्बी 1 पच्छाणुपुवी 2 अणाणुपुब्बी 3 / [172] ऊर्ध्व लोकक्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की है। वह इस रूप से----१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी, 3. अनानुपूर्वी। 173. से कि तं पुयाणपुच्ची? पुन्वाणुपुब्बी सोहम्मे 1 ईसाणे 2 सणंकुमारे 3 माहिदे 4 बंभलोए 5 लंतए 6 महासुक्के 7 सहस्सारे 8 आणते 9 पाणते 10 आरणे :11 अच्चुते 12 गेवेज्जविमाणा 13 अणुत्तरविमाणा 14 ईसिपल्भारा 15 / से तं पुम्वाणुघुवी। [173 प्र.] भगवन् ! ऊर्यलोकक्षेत्रविषयक पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [173 उ. प्रायुष्मन् ! 1. सौधर्म, 2. ईशान, 3. सनत्कुमार, 4. माहेन्द्र, 5. ब्रह्मलोक, 6. लान्तक, 7. महाशुक्र, 8. सहस्रार, 9. आनत, 10. प्राणत, 11. पारण, 12. अच्युत, १३.३वेयकविमान, 14. अनुत्तरविमान, 15. ईषत्प्रारभारापृथ्वी, इस क्रम से ऊर्ध्वलोक के क्षेत्रों का उपन्यास करने को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी कहते हैं। 174. से कि तं पच्छाणुपुब्बी ? पच्छाणुपुवो ईसिपम्भारा 15 जाव सोहम्मे 1 / से तं पच्छाणुपुयी। [174 प्र. भगवन् ! ऊवलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [174 उ.] अायुष्मन् ! ईषत्प्रागभाराभूमि से सौधर्म कल्प तक के क्षेत्रों का व्युत्क्रम से उपन्यास करने को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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