SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 110 {अनुयोगद्वारसूत्र प्राभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल, तिलक, पद्म, निधि, रत्न, बर्षधर, हृद, नदी, विजय, वक्षस्कार, कल्पेन्द्र / 13 / कुरु, मंदर, आवास, कट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्यदेव, नाग, यक्ष, भुत ग्रादि के पर्यायवाचक नामों वाले द्वीप-समुद्र असंख्यात हैं और अन्त में स्वयंभूरमणद्वीप एवं स्वयंभ्रमणसमुद्र है। यह मध्यलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी की बक्तव्यता है / 170. से कि तं पच्छाणुपुम्बी ? पच्छाणुपुब्धी सयंभुरमणे य भूए य जाव जंबुद्दीवे / से तं पच्छाणुपुथ्वी। [170 प्र.] भगवन् ! मध्यलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [170 उ.] आयुग्मन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र, भूतद्वीप अादि से लेकर जम्बुद्वीप पर्यन्त व्युत्क्रम से दीप-समुद्रों के उपन्यास करने को मध्यलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी कहते हैं। 171. से कि तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुवी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो / से तं अणाणुपुव्यो। [171 प्र.] भगवन् ! मध्यलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? 171 उ.] अायुष्मन् ! मध्यलोकक्षेत्रअनानुर्वी की वक्तव्यता इस प्रकार है-क से प्रारम्भ कर असंख्यात पर्यन्त की श्रेणी स्थापित कर उनका परम्पर गुणाकार करने पर निष्पन्न राशि में से आद्य और अन्तिम इन दो भंगों को छोड़कर मध्य के समस्त भंग मध्यलोकक्षेत्रअनानपूर्वी कहलाते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में मध्यलोकक्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण किया है। मध्यलोकवर्ती असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य में पहला द्वीप जम्बूद्वीप है और उसके बाद यथाक्रम से पागे-आगे समुद्र और द्वीप हैं। उनमें प्रथम द्वीप का नाम जम्बूवृक्ष से उपलक्षित होने से जम्बूद्वीप है और असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अन्त में स्वयंभूरमण नामक समुद्र है। ये सभी द्वीप-समुद्र दुने-दूने विस्तार वाले, पूर्व-पूर्व द्वीप समुद्र को वेष्टित किये हुए और चूड़ी के आकार वाले हैं। लेकिन जम्बूद्वीप लवणसमुद्र से घिरा हुआ थाली के आकार का है / इसके द्वारा अन्य कोई समुद्र वेष्टित नहीं है / इन असंख्यात द्वीप-समुद्रों की निश्चित संख्या अढ़ाई उद्धार सागरोपम के समयों की संख्या के बराबर है। मध्यलोक का भी मध्य यह जम्बुद्वीप एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है और इसके भी मध्य में एक लाख योजन ऊंचा सुमेरुपर्वत है जो अधो, मध्य एवं ऊर्ध्व लोक के विभाग का कारण है। गाथोक्त पुष्कर से लेकर स्वयंभूरमण तक के शब्द क्रमशः उस-उस नाम वाले द्वीप और समुद्र दोनों के वाचक जानना चाहिए। गाथोक्त द्वीप संख्या में भिन्नता---गाथा में नन्दीश्वरद्वीप के अनन्तर अरुणवर, कुंडल और रुचक इन तीन नामों का उल्लेख है, लेकिन अनुयोगद्वारणि में अरुणवर, अरुणावास, कुण्डलवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy