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________________ [अनुयोगदारसूत्र मतिज्ञानादि पांच ज्ञानों में से एक साथ एक जीव में अधिक से अधिक चार ज्ञान लब्धि की अपेक्षा से हो सकते हैं। यदि एक ज्ञान हो तो मात्र केवलज्ञान होगा। क्योंकि यह क्षायिक ज्ञान है, अतः इसके साथ मतिज्ञान आदि चार क्षायोपशमिक ज्ञानों का सद्भाव नहीं पाया जाता है। दो होने पर मति और श्रुत ज्ञान होंगे। क्योंकि ये दोनों ज्ञान सामान्यतया सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं / तीन होने पर मति, श्रुत और अवधि अथवा मति, श्रुत और मनःपर्यव यह तीन ज्ञान पाये जाते हैं और चारों हों तो मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव ये चारों ज्ञान संभव हैं। उपयोग की दृष्टि से एक समय में एक ही ज्ञान होता है। अभिधेयनिर्देश 2. तत्थ चत्तारि णाणाई ठप्पाइं ठवणिज्जाई, जो उहिस्संति णो समुहिस्संति णो अणुण्णविज्जति, सुयणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ / 2] इन (पांच प्रकार के) ज्ञानों में से चार ज्ञान (मति, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान) व्यवहार योग्य न होने से स्थाप्य हैं, स्थापनीय हैं। क्योंकि ये चारों ज्ञान (गुरु द्वारा शिष्यों को) उपदिष्ट नहीं होते हैं, समुपदिष्ट नहीं होते हैं और न इनकी प्राज्ञा दी जाती है। किन्तु श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होता है। विवेचन-सूत्र में श्रतज्ञान को अभिधेय कोटि में ग्रहण करने और शेष चार ज्ञानों को ग्रहण न करने के कारण को स्पष्ट किया है कि यद्यपि श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष मतिज्ञान आदि चारों ज्ञान भी पदार्थबोध के हेतु हैं, परन्तु श्रुतज्ञान की तरह इनमें शब्दव्यवहार की प्रवृत्ति का प्रभाव होने से ये अपने स्वरूप, अनुभव एवं पदार्थ के स्वरूप को व्यक्त नहीं कर पाते हैं। श्रुतज्ञान का आश्रय लिये बिना वे अपने विषयभूत हेयोपादेय विषय से न तो साक्षात् रूप में निवृत्त कराते हैं और न उसमें प्रवृत्त कराते हैं। इसीलिये उक्त चार ज्ञानों को यहाँ विचारकोटि में ग्रहणयोग्य नहीं माना है। जो लोकोपकार में प्रवृत्त होता है, वह संव्यवहार्य है, लेकिन मत्यादि चार ज्ञानों की स्थिति वैसी नहीं है। मत्यादि चार ज्ञानों के असंव्यवहार्य होने से इनका उद्देश, समुद्देश नहीं होता और न अनुज्ञाप्राज्ञा होती है। ये चारों ज्ञान अपने-अपने प्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम एवं क्षय से स्वतः हो जाया करते हैं। अपनी याविर्भति-उत्पत्ति में उद्देश, समुद्देश आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं। श्रुतज्ञान के उद्देश आदि होने का कारण-प्रायः लोक की हेयोपादेय अर्थ में प्रवत्ति-निवृत्ति श्रुतज्ञान के द्वारा देखने में ग्राती है तथा केवलज्ञानादि द्वारा जाने गये अर्थ की प्ररूपणा श्रुतज्ञान (शब्द) द्वारा की जाती है। इसीलिये उसे संव्यवहार्य-लोकव्यवहार का कारण होने से, गुरुपदेश से उसकी प्राप्ति होने से, गुरु द्वारा शिष्यों को प्रदान किये जाने से और स्वपर-स्वरूप का प्रतिपादन करने में समर्थ होने से श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा प्रादि किया जाना संभव है और जिसके उद्देश आदि होते हैं, उसमें अनुयोग, उपक्रम प्रादि अनुयोगद्वारों की प्रवृत्ति होती है। सारांश यह हुआ कि श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष चार ज्ञान आदान-प्रदान करने योग्य नहीं हैं, परोपकारी नहीं हैं, अपितु जिस ग्रात्मा को जो ज्ञान होता है वही उसका अनुभव करता है, अन्य नहीं / A . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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