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________________ अतज्ञान निरूपण] किन्तु श्रुतज्ञान परोपकारी है इसीलिये श्रुतज्ञान के उद्देश प्रादि होते हैं और चारों ज्ञानों का स्वरूप - वर्णन भी श्रुतज्ञान द्वारा किया जाता है। विशिष्ट शब्दों के अर्थ-ठप्पाइं-स्थाप्य--असंव्यवहार्य-व्यवहार में जिनका उपयोग किया जाना संभव नहीं है। ठवणिज्जाइं-स्थापनीय हैं—अव्याख्येय होने से इस प्रसंग में वे विचारकोटि में ग्रहण किये जाने योग्य नहीं हैं / णो उहिस्संति- इनका उद्देश नहीं किया जाता है। तुम्हें पढ़ना चाहिए, शिष्य के लिये इस प्रकार के गुरु के ग्राज्ञा-उपदेश रूप बचन को उद्देश कहते हैं / णो समुद्दिस्संति-समुद्देश नहीं होता / यह पठित ग्रन्थ विस्मृत न हो जाय, अत: इसकी आवृत्ति करो, इसे स्थिर-परिचित करो, इस प्रकार का गुरु का प्रादेशमूलक वचन समुद्देश कहलाता है / णो अणुण्णविज्जति-अनुज्ञा-पाज्ञा नहीं दी जाती। पठित ग्रन्थ का धारणा रूप संस्कार जमाअो, दूसरों को इसे पढ़ाओ, इस प्रकार के गुरु के ग्राना रूप वचन को अनुज्ञा कहते हैं। 3. जइ सुयणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, कि अंगपविटुस्स उद्देसो समुद्देसो अगुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? अंगपविट्ठस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, अंगबाहिरस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पदत्तइ। ___ इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। [3 प्र.] भगवन् ! यदि श्रुतज्ञान में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो वह उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति अंगप्रविष्ट श्रुत में होती है / अथवा अंगबाह्य श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है ? 3 उ.] आयुष्मन् ! अंगप्रविष्ट (पाचारांग आदि) श्रुत में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तथा अंगबाह्य आगम (श्रुत) में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवर्तित होते हैं। 4. जइ अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अगुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, कि कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुग्णा अणुओगो? कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। उक्कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। [4 प्र.] भगवन् ! यदि अंगबाह्य श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो क्या वह उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति कालिकश्रुत में होती है अथवा उत्कालिक श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवर्तमान होते हैं ? [4 उ.] आयुष्मन् ! कालिकश्रुत में भी उद्देश यावत् अनुयोग की प्रवृत्ति होती है और उत्कालिक श्रुत में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होते हैं, किन्तु यहाँ उत्कालिक श्रुत का उद्देश यावत् अनुयोग प्रारम्भ किया जायेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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