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________________ -4 क [अनुबोगवार विवेचन-यह दो सूत्र शास्त्र के वर्ण्य विषय की भूमिका रूप हैं और प्रश्नोत्तर के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि यद्यपि अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य रूप में माने गये दोनों प्रकार के श्रुत का अनुयोग किया जाता है। लेकिन यहाँ अंगबाह्यश्रुत और उसके भी कालिक एवं उत्कालिक रूप से माने गये दो भेदों में से मात्र उत्कालिक श्रुत के सम्बन्ध में अनुयोग का विचार किया जा रहा है। अंगप्रविष्ट--तीर्थंकरों के उपदेशानुसार जिन शास्त्रों की रचना स्वयं गणधर करते हैं, वे अंगप्रविष्ट शास्त्र कहलाते हैं / अंगबाह्य-अंगश्रुत का आधार लेकर जिनकी रचना स्थविर करते हैं, उन शास्त्रों को अंगबाह्य कहते हैं। कालिकश्रुत-जिस श्रुत का रात्रि व दिन के प्रथम और अंतिम प्रहर में स्वाध्याय किया जाता है। उत्कालिकश्रुत--जो अस्वाध्यायकाल को छोड़कर कालिक से भिन्नकाल में भी पढ़ा जाता है। अंगप्रविष्ट प्रादि विभागों में परिगणित शास्त्रों के नाम एवं परिचय के लिये नंदीसूत्र देखिये। 5. जइ उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? कि आवस्सगस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? आवस्सगवइरित्तस्स उद्देस्सो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? आवस्सगस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो, आवस्सगवरित्तस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो। इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगो।। [5 प्र. भगवन् ! यदि उत्कालिक श्रुत के उद्देश प्रादि 4 होते हैं तो क्या वे उद्देश आदि आवश्यक के होते हैं अथवा आवश्यकव्यतिरिक्त (आवश्यकसूत्र से भिन्न) उत्कालिक श्रुत के होते हैं ? [5 उ.] आयुष्मन् ! यद्यपि आवश्यक और आवश्यक से भिन्न दोनों के उद्देश आदि 4 होते हैं परन्तु यहाँ (इस शास्त्र में) आवश्यक का अनुयोग प्रारम्भ किया जा रहा है / विवेचन सूत्र में शास्त्र के निश्चित वर्ण्य विषय का संकेत किया गया है कि सूत्रकार को आवश्यकसूत्र का अनुयोग करना अभीष्ट है और इष्ट होने का कारण यह है कि आवश्यकसूत्र सकल समाचारी का मूल आधार है। आवश्यकसूत्र में उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा के प्रवर्तमान होने पर भी सूत्रकार ने उनका उल्लेख न करके अवसर प्राप्त होने की अपेक्षा केवल अनुयोग करने का संकेत किया है। अनुयोग का निरुक्त्यर्थ-सूत्र के साथ अनु--नियत-अनुकूल अर्थ का योग-जोड़ना अर्थात् इस सूत्र का यह अभिधेय है, इस प्रकार की संयोजना करके शिष्य को समझाना, सूत्र के अर्थ का कथन करना / अथवा एक सूत्र के अनन्त अर्थ होते हैं, इस प्रकार अर्थ महान् और सूत्र अणुरूप होता है, अतएव अणु-सूत्र के साथ अर्थ के योग को अणुयोग (अनुयोग) कहते हैं।' 1. निययाणुक लो जोगो सुत्तस्सत्थेण जो य अणुप्रोगो। सुत्तं च अणु तेणं जोगो अस्थस्स अशुप्रोगो॥ -अनुयोग. वृत्ति प. 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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