________________ श्रुतमान निरूपण अनुयोगविषयक वक्तव्यता का क्रम इस प्रकार है-- 1. निक्षेप-नाम, स्थापना प्रादि रूप से बस्तु स्थापित करके अनुयोग (कथन) करना। 2. एकार्थ-अनुयोग के पर्यायवाची शब्दों को कहना जैसे अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा, वार्तिक, ये अनुयोग के समानार्थक पर्यायवाची नाम हैं।' 3. निरुक्ति-शब्दगत अक्षरों का निर्वचन करना। अर्थात् तीर्थकरप्ररूपित अर्थ का गणधरोक्त शब्दसमूह रूप सूत्र के साथ अनुकूल, नियत सम्बन्ध प्रकट करना / 4. विधि---सूत्र के अर्थ कहने अथवा अनुयोग करने की पद्धति को विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है--सर्वप्रथम गुरु को शिष्य के लिये सूत्र का अर्थ कथन करना चाहिये। दूसरी बार उस कथित अर्थ को नियुक्ति करके समझाना चाहिये और तीसरी बार प्रसंग, अनुप्रसंग सहित जो अर्थ होता हो उसका निर्देश करना चाहिये / यही सामान्य से अनुयोग की विधि है। अनुयोग श्रवण के अधिकारी सामान्य से परिषद् (श्रोतृसमूह) के तीन प्रकार हैं१. ज्ञायक 2. अज्ञायक और 3. दुर्विदग्धा / ज्ञायकपरिषद--गुण और दोषों के स्वरूप को जो विशेष रूप से जानती है और कुशास्त्रों के मानने वाले मतों में जिसे आग्रह नहीं होता, ऐसी परिषद् ज्ञायकपरिषद् कहलाती है। यह परिषद् हंस की तरह दोष रूपी जल का परित्याग करके गुण रूपी दूध को ग्रहण करने वाली होती है / अज्ञायकपरिषद-जिसके सदस्य स्वभावतः भद्र, सरल होते हैं और समझाने से सन्मार्ग पर या जाते हैं / ऐसी परिषद् को अज्ञायकपरिषद् कहते हैं / दुविदग्धापरिषद्-जिसके सदस्य किसी भी विषय में निष्णात न हों, अप्रतिष्ठा के भय से जो निष्णात से नहीं पूछे, ज्ञान के संस्कार से रहित, पल्लवग्राही पांडित्य से युक्त हों, ऐसे व्यक्तियों को सभा दुर्विदग्धापरिषद् कहलाती है। इन तीन परिषदानों में से आदि की दो अनुयोग का बोध प्राप्त करने योग्य हैं। अनुयोगकर्ता की योग्यता-अनुयोग करने के अधिकारी-कर्ता की योग्यता का शास्त्रों में इस प्रकार से उल्लेख किया है--- १-४–जो पार्यदेश में उत्पन्न हुआ हो। जिसका कुल (पितृवंश) और जाति (मातृवंश) विशुद्ध हो / सुन्दर प्राकृति, रूप आदि से संपन्न हो। 5. जो दृढ़ संहननी (शारीरिक शक्तिसंपन्न) हो / 6. धृतियुक्त-परिषह और उपसर्ग सहन करने में समर्थ हो / 7. अनाशंसी-सत्कार-सम्मान आदि का अनाकांक्षी हो। 8. अविकत्थन-व्यर्थ का भाषण करने वाला न हो / 9. अमायी-कपट - - -- -- ------ ----- 1. अणोगो य निमोगो भास विभासा य बत्तियं चेव / एए अणुप्रोगस्स य नामा एगट्ठिया पंच // -अनुयोगवृत्ति प. 7 2. सुत्तत्थो खलु पढमो, बीनो निज्जुत्तिमीसितो भणितो। तइश्रो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुप्रोगे। -अनुयोग. वृत्ति प. 7 3. अनुयोग. वृत्ति प.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org