________________ नामाधिकार निरूपण [193 रस-परिकल्पना काव्यास्वाद से संबद्ध है। प्रास्वादन के क्षणों में आस्वादक जब अनुभूति की गहनता में एक अखंड प्रानन्दोपलब्धि में लीन होता है तब वह उस आस्वाद या आनन्द का कोई न कोई नाम देना चाहता है। बस यही दृष्टि रस नामकरण की हेतु है और इसे काव्यशास्त्र में सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित किया है। रसों की संख्या सामान्यत: अनुभूति के दो प्रकार हैं—सुखात्मक और दुःखात्मक / अत: स्थूल रूप में रस के दो भेद होंगे। लेकिन ये अनुभूतियां इतनी अधिक हैं, इतने प्रकार की हैं कि उन्हें सुख या दुःख में समायोजित नहीं किया जा सकता है। इसीलिये प्राचार्यों ने अनुभूतियों की भिन्नताओं का बोध कराने के लिये रस के भेद करके उनके पृथक-पृथक् नामकरण किये और रस. संख्या के संदर्भ में परंपरित दष्टि का अतिक्रमण करके अनेक नवीन रसों का भी नामोल्लेख किया। लेकिन अंत में रसभेद के रूप में इन नौ नामों को स्वीकार किया गया है.. शृगारहास्यकरुणा रोद्रवीरभयानकाः / बीभत्साऽद्भुतशान्ताश्च नव नाटच रसाः स्मृताः / / इन नौ भेदों में से कुछ विद्वानों ने करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स इन चार रसों को दुःखात्मक तथा शृगार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त इन पांच को सुखात्मक कहा है। लेकिन साहित्यशास्त्रियों ने इस मत को ग्राह्य नहीं माना। उनकी युक्ति है--रस की प्रक्रिया में दुःख का अंश रहने पर भी परिणति में कोई भी रस दुःखात्मक नहीं है। जैनाचार्यों की मान्यता भी नी रसों की है, लेकिन उनके नामों में कुछ अन्तर है। उन्होंने इनमें से भयानक रस को अस्वीकार करके 'वीडनक' नामक रस माना और शांत के स्थान पर प्रशांत' शब्द का प्रयोग किया है / इस प्रकार सामान्य से नवरसों की रूपरेखा बताने के बाद अब विस्तारपूर्वक बीर आदि प्रत्येक रस का वर्णन करते है। वीररस [2] तत्थ परिच्चायम्मि य 1 तव-चरणे 2 सत्तुजणविणासे य३ / अणणुसय-धिति-परक्कमचिण्हो वीरो रसो होइ / / 64 // वीरो रसो जहा सो णाम महावीरो जो रज्जं पयहिऊण पवइओ। काम-क्कोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ / / 65 / / [262-2] इन नब रसों में 1. परित्याग करने में गर्व या पश्चात्ताप न होने, 2. तपश्चरण में धैर्य और 3 शत्रुओं का विनाश करने में पराक्रम होने रूप लक्षण वाला वीररस है / 64 वीररस का बोधक उदाहरण इस प्रकार है राज्य-वैभव का परित्याग करके जो दीक्षित हुआ और दीक्षित होकर काम-क्रोध आदि रूप महाशत्रुपक्ष का जिसने विधात किया, वही निश्चय से महावीर है। 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org