________________ 192] [अनुयोगद्वारसूत्र 5. अपादान में पंचमी होती है / जैसे—यहां से दूर करो अथवा इससे ले लो। 6. स्वस्वामीसम्बन्ध बतलाने में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-उसकी अथवा इसकी यह वस्तु है। 7. आधार, काल और भाव में सप्तमी विभक्ति होती है / जैसे (वह) इसमें है / 8. ग्रामंत्रण अर्थ में अष्टमी विभक्ति होती है / जैसे-हे युवन् ! / 59-62 / यह पाठ विभक्तिरूप अष्टनाम का वर्णन है। विवेचन-सूत्रकार ने गाथा 59 से 62 तक पूर्वोक्त प्रथमा आदि पाठ विभक्तियों का उदाहरण सहित वर्णन किया है। इन विभक्तियों द्वारा वाक्यगत शब्दों का परस्पर एक दूसरे के साथ ठीक-ठीक संबन्धों का परिज्ञान होता है तथा यह आठों विभक्तियां संज्ञावाचक शब्दों के साथ जुड़ती हैं किन्तु सर्वनाम शब्दों में पाठवीं संबोधन विभक्ति प्रयुक्त नहीं होती है। हिन्दी भाषा में इन विभक्तियों की कारक संज्ञा है और कर्ता प्रादि भेद हैं, जिनके चिह्न इस प्रकार हैं कर्ता-ने / कर्म–को / करण--से, द्वारा। संप्रदान-को, के लिये। अपादान से / संबन्ध-का, की, के / अधिकरण-में, पर / संबोधन- हे, हो, अरे। हिन्दी भाषा में इन प्रत्ययों से संस्कृत जैसा एक, द्वि, बहुवचन की अपेक्षा कोई अंतर नहीं अाता है / समान रूप से एकवचन और बहुवचन रूप संज्ञानामों के साथ संयोजित होते हैं / इस प्रकार से अष्टनाम की प्ररूपणा का प्राशय जानना चाहिये / नवनाम 262. [1] से कि तं नवनामे ? - नवनामे णव कम्वरसा पण्णत्ता / तं जहा वीरो 1 सिंगारो 2 अब्भुनो य 3 रोदो य 4 होइ बोधब्बो / वेलणओ 5 बीभच्छो 6 हासो 7 कलुणो 8 पसंतो य 6 // 63 // [262-1 प्र.] भगवन् ! नवनाम का क्या स्वरूप है ? [262-1 उ.] आयुष्मन् ! काव्य के नौ रस नवनाम कहलाते हैं / जिनके नाम हैं--- 1. वीररस, 2. शृगाररस, 3. अद्भुतरस, 4. रौद्ररस, 5. वीडनक रस, 6. बीभत्स रस, 7. हास्यरस, 8. कारुण्यरस और 9. प्रशांतरस, ये नवरसों के नाम हैं। 63 / विवेचन--सूत्र में नौ काव्यरसों के नाम गिनाये हैं। काव्यरसों की व्याख्या-कवि के कर्म को काव्य और काव्य में उपनिबद्ध रस को काव्यरस कहते हैं। विभिन्न सहकारी कारणों से अन्तरात्मा में उत्पन्न उल्लास या विकार की अनुभूति रस कहलाती है। रससिद्धान्त मानने का कारण---रससिद्धान्त मानव-मन सम्बन्धी गहन अनुशीलन का परिचायक है / सौन्दर्यविषयक धारणाओं का सार-सर्वस्व है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org